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प्रशासनिक व्यवहार की जटिलता को वैज्ञानिक और तार्किक आधार पर प्रस्तुत करने के प्रयास में साइमन ने निर्णय-निर्माण मॉडल का विकास किया । सैद्धांतिक और काल्पनिक अवधारणाओं से भिन्न उनका मॉडल संगठनात्मक व्यवहार का वह विश्लेषणात्मक उपकरण है जिसकी सीमाएं कम और उपयोगिता ज्यादा है ।

शास्त्रीय विचारकों ने कार्यकुशलता और मितव्ययता को सांगठनिक प्रभावशीलता के प्रमुख आधार बताए । इन्हें प्राप्त करने के लिए पदसोपान आदेश की एकता नियंत्रण का क्षेत्र जैसे संरचनात्मक सिद्धांतों की खोज और समर्थन किया लेकिन वे संगठन की समस्या को सुलझाने में असफल रहे । यांत्रिक सिद्धांतों की प्रतिक्रिया सामाजिक संबंधों की खोज के रूप में सामने आई ।

वाद (शास्त्रीय) उसके प्रतिवाद (मानवीयता) में प्रशासनिक समस्या को इतना गंभीर बना दिया कि उसकी स्वायत्ता खतरे में पड़ गई । तब साइमन के रूप में वह संवाद सामने आया जिसने इनके बीच समन्वय स्थापित करके प्रशासन की नई अवधारणा (व्यवहारवाद) प्रतिपादित की ।

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चेस्टर बर्नार्ड, फालेट आदि से प्रभावित हरर्बट साइमन ने शास्त्रीय विचारधारा के स्थान पर उसके यांत्रिक सिद्धांतों की आलोचना की तथा उन्हें ”प्रशासन की कहावते (1996)” कहकर प्रशासनिक विज्ञान से बाहर कर दिया ।

हबर्ट ए. साइमन का जन्म 1916 में विस्कोंसिन (अमेरिका) में हुआ था । आपने शिकागो युनिवर्सिटी से राजनीति शास्त्र में डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त की और म्मुनिपल एडमिनिस्ट्रेशन में काम करते हुऐ लेखन कार्य शुरू किया ।

उनकी पहली पुस्तक “एडमिनिस्ट्रेटिव्ह विहेविअर, ए डिसीजन मेंकिग साइंस इन एडमिनिस्ट्रेशन” (1947) ने उन्हें पर्याप्त ख्याति दिलवायी । इसके अतिरिक्त “फंडामेन्टल रिसर्च इन एडमिनिस्ट्रेशन” (1953), आर्गेनाइजेशंस (1958) “द न्यू साइंस ऑफ आटोमेशन” (1960) साइंस ऑफ द आर्टीफिसीयल (1969) और “ह्यूमन प्राब्लम साल्विंग” (1972) आपकी महत्वपूर्ण कृतिया समय-समय पर प्रकाशित हुई ।

विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में आप अनेक देशों में व्याख्यान दे चुके है और उन्हें अनेक पुरस्कारों से नवाजा गया है जिनमें 1978 का नोबेल पुरस्कार (अर्थशास्त्र विषय की श्रेणी के लिए) उल्लेखनीय है जो उनकी “निर्णय-निर्माण प्रक्रिया” संबंधी प्रस्थापना के लिए दिया गया । विगत कुछ वर्षों से वह निर्णय निर्माण प्रक्रिया में इलेक्ट्रानिक कम्प्यूटरों की मानवीय चिंतक के रूप में भूमिका पर शोध में लगे हुए है ।

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साइमन पर फालेट की “समूह गतिकी” का तथा एल्टन मेयो और चेस्टर बर्नार्ड के मानव व्यवहार संबंधी विचारों का गहरा प्रभाव आया था । साइमन बर्नार्ड की पुस्तक ”फंक्शन आफ द एक्जीक्टिव्ह” से अत्यधिक प्रभावित हुए ।

सैद्धान्तिक के स्थान पर अनुभववादी-व्यवहारवादी दृष्टिकोण:

साइमन पहले लेखक थे जिन्होने अपने एक लेख (1946) में परम्परावादियों के द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों (श्रम विभाजन, आदेश की एकता, नियन्त्रण सीमा आदि) की जबर्दस्त आलोचना की । उनका तर्क था कि प्रशासन के किन्ही भी अपरिवर्तनशील और सार्वभौतिक सिद्धान्तों को गढ़ने से पहले संगठन की तथ्यपरक व्याख्या और विश्लेषण अनिवार्य है जबकि परम्परावादियों ने इसकी उपेक्षा की है ।

उनका कथन है कि जब शोध पूरी तरह सम्पन्न हो जाए, एक अकाट्‌य प्रशासनिक शब्दकोष विकसित हो जाए, निर्णय के साथ हासिल करता है अत: तथ्य और मूल्य समूह में निहित रहते है और प्रशासन के लिए सामूहिक रूप से दोनों प्रांसगिक बन जाते है । साइमन इसी सन्दर्भ का आगे बढ़ाते हुए कहते है कि सांगठनिक व्यवहार वस्तुत: निर्णय प्रक्रियाओं का एक जटिल संजाल है । और इसी के चलते समूह का विवेकपूर्ण लक्ष्यों के साथ सामजस्य स्थापित होता है ।

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साइमन संगठन में संरचना के स्थान पर मानव-संबंधों तथा मानवीय अंत: क्रियाओं को अधिक महत्वपूर्ण मानते है और कहते है कि संगठन एक ऐसा घर है जो मानवों के लिए ही बनाया गया है । ये कार्यरत व्यक्ति “निर्णयन-अभिकरण” के ही समान है । प्रबंधक अधिनस्थों के लिए मूल्य या लक्ष्य निर्धारित करते है और इन्हीं के आधार पर सदस्यगण निर्णय लेते है ।

सर्वप्रथम प्रत्येक सदस्य अपने लिए निर्णय करता है कि संगठन में शामिल हो या नहीं । यहां साइमन चेस्टर बर्नार्ड के “समातोलन सिद्धान्त” को अपनाते हुए कहते है कि संगठन में व्यक्ति अपने को प्राप्त संतोष के आधार पर रहना पसन्द करेगा। इस हेतु वह प्राप्त प्रलोभन (उत्प्रेरणाऐं) की तुलना अपने योगदान (जो वह संगठन में देता है) से करता है ओर इनमें संतुलन की स्थिति ही उसे संगठन में बनाए रखती है ।

यदि उसे प्राप्त संतोष संगठन में न रहने की स्थिति से भी कम हुआ, तो वह संगठन से बाहर रहना ही पसंद करेगा । एक बार संगठन की सदस्यता स्वीकार कर लेने पर व्यक्ति के आत्मगत उद्देश्य गौण हो जाते है और वे संगठन के उद्देश्यों के अधीन हो जाते है ।

ऐसा निरन्तर बना रहे, इस हेतु व्यक्ति के व्यवहार को प्रभावित करने की व्यवस्था होनी चाहिए । योगदान संतुलन होने पर व्यक्ति संगठन के हितों के अनुकूल निर्णय लेने लगता है । और सभी व्यक्तियों के हितों में एक संतुलन उत्पन्न हो जाता है परिणामस्वरूप अब निर्णय संगठन के लक्ष्यों की तरफ ही आगे बढ़ते है ।

जब यह कहा जाता है निर्णय लिया गया, तो इसका अर्थ यह होता है कि एक लम्बी प्रक्रिया से गुजरते हुए आखिरकार यह तय कर लिया गया है कि क्या किया जाए। इस प्रकार यह निर्णय एक प्रक्रिया हुई। ऐसी प्रक्रिया जो निरन्तर है । एक निर्णय भावी निर्णय के लिऐ आधारभूत सामग्री बन जाता है । साथ ही वह स्वयं भी पूर्व के विचारों या आधारों का एक निष्कर्ष हो सकता है ।

मूल्य दो प्रकार के होते है:

(1) अंतिम या चरम मूल्य (साध्य) तथा

(2) इन्हें प्राप्त करने वाले उपकरणात्मक मूल्य (साधन) ।

चरम मूल्य मानवीय इच्छा आत्मगत भावना या अबौद्धिकता से प्राप्त होते है । लोक प्रशासन में राजनीतिज्ञों, नीति निर्माताओं, व्यवस्थापिकाओं, मुख्य कार्यपालक का संबंध इन्हीं मूल्यों से प्राप्त होते है । ये संस्थाऐं अपने प्रशासन को चरम मूल्य (साध्य गत) प्रदान करती है । प्रशासन इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए जो साधन या उपकरण प्रयुक्त करता है, वे जिन मूल्यों से जुड़े होते है उन्हें अपकरणात्मक मूल्य कहते है ।

इन मूल्यों का उनके परिणामों के सन्दर्भ में विश्लेषण किया जा सकता है । प्रशासन काम करते समय इन्हीं मूल्यों के आधार पर चयन करता है- वह संभावित परिणामों को ध्यान में रखकर तुलनात्मक रूप से जिस विकल्प का चयन करता है, वही निर्णय बन जाता है । यह निर्णय ही उपकरणात्मक मूल्य है और इसके आधार पर अगले निर्णय निकाले जा सकते है ।

इन सभी उपकरणात्मक मूल्यों को तथ्य मानकर, परिणामों के सन्दर्भ में उनका वैज्ञानिक विश्लेषण किया जा सकता है । इस विश्लेषणों से प्राप्त निष्कर्ष सिद्धांत निर्माण के लिए ठोस आधार का काम करते है । परन्तु ध्यान रहे कि उक्त प्रशासनिक निर्णय की प्रक्रिया भी पूर्णतः बौद्धिक और ताक्रिक नहीं होती और उसमें नौतिक, भावनात्मक जैसे मूल्यों का समावेश हो जाता है ।

यहाँ हम निर्णय के स्तरों पर मूल्य और तथ्यों की मात्रा का अनुमान लगा सकते है । उच्च स्तर पर काफी व्यापक निर्णय लिये जाते है अर्थात् उनका दायरा काफी व्यापक होता है । ये निर्णय संगठन के उद्देश्यों और नीतियों से संबंधित होते है । निर्णय की यह व्यापकता ही उन्हें अधिकाधिक मूल्योन्मुखी बना देती है । राजनीतिक निर्णय इसी श्रेणी के होते है । तथापि इन निर्णयों की उपयोगिता और लोकप्रियता इस बात पर निर्भर करती है कि उनका तथ्यात्मक आधार कितना मजबूत है ।

इस सर्वोच्च स्तर पर मूल्य (या निर्णय क्षेत्र) व्यापक, अपेक्षाकृत, अनिश्चित और अधिक उत्तरदायित्वपूर्ण होते हैं । इन्हें प्राप्त करने के लिए साइमन ने रास्ता और समन्वय: जैसी धारणाएँ दी है । मध्य स्तर पर निर्णय क्षेत्र अपेक्षाकृत संकुचित लेकिन स्पष्ट और निश्चित होता है । यह प्रशासन का क्षेत्र है । इस स्तर के मूल्यों या निर्णयों को परिणामों की दृष्टि से आँका जा सकता है ।

यहां मूल्य का हस्तक्षेप कम तथा तथ्यों का आधार अधिक होता है । यह तथ्यात्मक आधार ही लोक प्रशासन को विज्ञान बना देता है । इस स्तर के मूल्य अपने उच्च स्तर के मूल्यों से जुड़े होते है- अतः तथ्यों को ज्ञात करने के लिए वैज्ञानिक विश्लेषण की आवश्यकता प्रशासन में निरन्तर बनी रहती है । निम्नतम स्तर पर निर्णय नैतिकता को लिए होते है । अतः उसी अनुसार सूचना तन्त्र का संचार-जाल बिछाना चाहिए और तदनुरूप नियुक्तियाँ करना चाहिऐ ।

व्यक्ति संगठन में यौगदान के बदले संतोष प्राप्त करने आते है और उनके इस लक्ष्य का संगठन के लक्ष्य के साथ ताल मेल बना रहे- इस हेतु प्रशिक्षण, अभिप्रेरणा आदि की व्यवस्था होनी चाहिए । हितों के मध्य तालमेल उत्पन्न हो जाने पर सत्ता अधिनस्थों से स्वीकृत हो जाती है और मात्र संचार के माध्यम से बिना रूकावट के प्रवाहित होने लगती है ।

सीमित तार्किकता का सिद्धान्त:

तार्किक चयन के विषय में दो सिद्धान्त पाये जाते है- पूर्ण तार्किकता पर आधारित सिद्धान्त, जैसे गणित, सांख्यिकी के सिद्धान्त । दूसरा सीमित या बधित तार्किकता पर आधारित सिद्धान्त । पहला सिद्धान्त यह मानता है कि मनुष्य अपनी बुद्धि का पूर्ण उपयोग करके निष्कर्ष निकालता है । दूसरा सिद्धान्त यह मानता है कि मनुष्य अपने निर्णयों-निष्कर्षों (चयन में) में अपनी सीमित बुद्धि का ही प्रयोग करता है ।

पूर्ण तार्किकता का विरोध करते हुए साइमन कहते है कि:

(1) प्रशासनिक मनुष्य न तो सभी संभावित विकल्पों के बारे में सोच सकता है और न ही उनके परिणामों का अनुमान लगा सकता है ।

(2) प्रत्येक मनुष्य की विकल्पों और उनके परिणामों को तलाशने (परिवाणना करने) की क्षमता सीमित होती है ।

(3) वह अपने मस्तिष्क में सभी संभावित परिणामों को सुसंबंध और प्राथमिकता क्रम में जमाएं हुए नहीं रखता ।

साइमन कहते है कि मनुष्य न तो पूर्णत: तार्किक है और न ही पूर्णत: अतार्किक, अपितु वह सीमित तार्किक है । साइमन इसका कारण बताते है कि वह संभावित विकल्पों में से कुछ को ही देखने में समर्थ होता है । इनमें से भी वह कुछ विकल्पों के परिणामों के बारे में ही पूर्व कथन कर सकता है ।

उसकी महत्वाकाँक्षा का स्तर भी स्थायी और अलोचशील नहीं होता, अर्थात् उसका सार घटता-बढ़ता रहता है । जब तक वह संभावित विकल्पों के बारे में सोचता रहता है, यह स्तर ऊँचा उठता है, और जब एक सीमा के बाद उसके लिऐ अधिक संतोषप्रद विकल्प ढूंढना मुश्किल हो जाता है, तब उसका यह स्तर गिरने लगता है ।

इस तरह से साइमन का प्रशासनिक व्यक्ति तर्कसंगत बनने की कोशिश एक सीमा तक ही करता है क्योंकि वह महत्तम आकांक्षाएँ नहीं रखता तथा सर्वोच्च सीमा तक पहुँचने के बजाय ”पर्याप्त” तक पहुंचकर ही संतुष्ट हो जाता है, यद्यपि वह सर्वोच्च तक पहुंच सकता है ।

सर्वोच्च बौद्धिकता के स्तर तक पहुंचने के मार्ग में साइमन ने परिवर्तन के प्रति प्रतिरोध की भावना, पद की चाह या दुष्क्रियात्मक मतभेद आदि को इस तरह साइमन ने पूर्ण तार्किकता या बौद्धिकता को प्रशासनिक व्यवहार में अस्वीकृत कर दिया और प्रशासन मनुष्य को ”सीमित तार्किक मनुष्य” की संज्ञा दी ।

संतोषप्रद निर्णय:

साइमन की “सीमित तार्किकता” का ही सह उत्पाद होता है “संतोषप्रद निर्णय” । सीमित तार्किकता के चलते, व्यक्ति अधिकतम लाभप्रद विकल्प के स्थान पर ऐसे विकल्पों तक सीमित रह जाता है, जो पर्याप्त रूप से अच्छे दिखायी दें । उसे लगता है कि इससे अधिक श्रेष्ठ निर्णय नहीं हो सकता जबकि वास्तविकता यह नहीं होती है ।

ऐसा उसकी सीमित तार्किकता के कारण ही होता है । वह जिस विकल्प से संतुष्ट हो जाता है वह संतोषप्रद निर्णय ही होता है, श्रेष्ठतम निर्णय नहीं । चूंकि उसमें अधिकतमीकरण नहीं होता, उसे संतोषीकरण से संतुष्ट होना पड़ता है । वह चरम हल तक पहुँचने के बजाय, “कामचलाऊ हल” से ही संतुष्ट हो जाता है ।

दो प्रकार के निर्णय-नियोजित और अनियोजित:

साइमन सभी निर्णयों को दो वर्गों में विभाजित करते है । एक ऐसे प्रकार के निर्णय जो निश्चित और पूर्व स्थापित प्रक्रिया के आधार पर योजनाबद्ध तरिके से लिये जाते है, जैसे लाइसेन्स देने का निर्णय । ये निर्णय इस हद तक नियोजित होते है कि इनकी पुनरावृत्ति बिना फेरबदल के होती रहती है । जब भी ऐसी समस्या आती है या मांग उपस्थित होती है, ऐसे निर्णय के लिए प्रथक् से विचार करने की जरूरत नहीं पड़ती और स्वचालित रूप से ले लिया जाता है।

दूसरे प्रकार के निर्णय इसलिए अनियोजित होते है क्योंकि उनके लिऐ कोई पूर्व निर्धारित प्रक्रिया नहीं होती है । ये निर्णय किसी निश्चित संरचना के नहीं होते और लगभग हर बार इनके स्वरूप बदले दिखायी देते है । वस्तुतः ऐसे निर्णय इसलिए होते है क्योंकि ये ऐसी समस्याओं से संबंध रखते है जिनका स्वभाव पुनरावृत्ति का नहीं होता अपितु वे नवीन रूप में प्रकट होती है । अतः उनके समाधान के लिए भी नये सिरे से विचार कर निर्णय लेना होते है ।

स्पष्ट है कि नियोजित के बजाय अनियोजित निर्णय में विवेक की अधिक जरूरत पड़ती है । नियोजित निर्णयों के पीछे तो स्वभाव, ज्ञान, सामान्य कुशलता, अनौपचारिक संवाद के माध्यम आदि तकनीके होती है, लेकिन अनियोजित निर्णयों के पीछे कही अधिक कुशलता और रचनाधर्मिता की आवश्यकता होती है जो श्रेष्ट भर्ती और प्रशिक्षण प्रणाली से संभव होती है ।

साइमन कहते है कि कम्प्यूटर से और सिम्युलेशन माडलों के बढते प्रयोग से अनियोजित निर्णयों को भी नियोजित निर्णयों के करीब लाया जा सकता है । इससे निर्णयों में अधिकाधिक तार्किकता भी लायी जा सकती है । निर्णय-प्रक्रिया का यंत्रिकरण करने से मध्यस्थों पर निर्भरता कम होगी तथा निर्णय प्रक्रिया का प्रारम्भ में केन्द्रीकरण हो जाएगा यद्यपि कालान्तर मे यह विकेन्द्रीत निर्णय प्रक्रिया का आधार बनेगी ।

और प्रत्येक दशा में यह अधिकारियों के काम को सरल और अधिक वैज्ञानिक बना देगी । साइमन ने अपनी पुस्तक प्रशासनिक व्यवहार (1947) में विकेन्द्रीकरण को महत्व दिया था क्योंकि कम्प्यूटरर्स का उस समय विकास नहीं हुआ था । लेकिन अपनी नयी पुस्तक “द न्यू साइंस मैनेजमेन्ट डिसिजन” (1969) में वह केन्द्रीकरण पर जोर देता है । उसके अनुसार इन गणना मशीनों के प्रयोग से उच्च प्रबधं मध्य स्तरों पर अधिक तार्किक, समन्वित और शीघ्र प्राप्त निर्णय प्रेषित कर सकता है ।

निर्णय स्वीकृति का क्षेत्र:

सत्ता के विषय में साइमन व्यवहारवादी या स्वीकृति सिद्धान्त प्रतिपादित करते है । सामान्य मान्यता यह है कि सत्ता ऊपर से नीचे की और प्रवाहित होती है अर्थात् अधिनस्थों को सत्ता के दबाव या भय से संगठनात्मक आदेश मानने के लिए मजबूर किया जाता है लेकिन साइमन, बर्नार्ड कि ही तरह सत्ता के इस अधिनायकवादी दृष्टिकोण को नहीं मानते ।

बर्नार्ड का कथन है कि सत्ता का वजूद अधिनस्थों की स्वीकृति पर निर्भर है। बर्नार्ड कहते है कि अनेक निर्णय अधिनस्थ इसलिए बिना विरोध के स्वीकार कर लेते है क्योंकि वे ऐसे निर्णयों की ही आशा करते है । ऐसे तटस्यता पूर्ण निर्णयों को बर्नार्ड “उदासीनता के क्षेत्र” के तहत रखते है । इसी से मिलता-जुलता साइमन का ”स्वीकृति का क्षेत्र” है ।

साइमन के अनुसार यह ऐसा क्षेत्र है जिनकी सीमान्तर्गत लिये गये निर्णय स्वीकार्य हो जाते हैं लेकिन इस क्षेत्र से परे अधिकार-सत्ता का प्रयोग कर लिये गये निर्णयों का अधिनस्य उल्लंघन करेंगे । इस स्वीकृति क्षेत्र की सीमा का निर्धारण की अधिनस्थों के अनुमोदन पर निर्भर करता है ।

इस स्वीकृति क्षेत्र के अन्तर्गत दिये गये आदेशों की अवस्था में ही व्यक्ति अपने व्यवहार को तदनुरूप परिवर्तित करने को तैयार होता है । दूसरे शब्दों में कहे तो यदि कार्मिक दिये गये निर्देशों के अनुरूप अपने व्यवहार में परिवर्तन नहीं करता है तो संबंधित सत्ता का लोप हो जाता है । यहां हम विचारकर सकते है कि साइमन का स्वीकृति क्षेत्र व्यक्ति और संगठन के मध्य हितों की एकता का क्षेत्र है जिसमें दोनों के मध्य मूल्यात्मक तादात्म्य स्थापित हो जाता है ।

अतः वहां निर्णय/आदेश मनवाने के लिए दण्ड या भय की जरूरत नहीं पड़ती साइमन तो ऐसी अवस्था में पदसोपान को भी आवश्यक नहीं मानते अपितु मात्र संचार की आवश्यकता महसूस करते है ताकि निर्णय विज्ञप्तिया एक सदस्य से दूसरे तक पहुँचायी जाती रहें । ऐसा संचार निसन्देह विभिन्न दिशाओं वाला तथा बहुमार्गी होगा । दूसरे अर्थों में कहें तो स्वीकृति क्षेत्र में सत्ता का स्थान संचार ले लेता है ।