निर्णय लेने: मतलब, कारक, प्रक्रिया और वर्गीकरण | प्रबंध | Read this article in Hindi to learn about:- 1. निर्णय-निर्माण का अर्थ (Meaning of Decision Making) 2. निर्णय-निर्माण का आधार या कारक (Bases or Factors of Decision Making) 3. प्रक्रिया या चरण (Process or Stages) 4. वर्गिकरण (Classification) 5. मॉडल (Models).

Contents:

  1. निर्णय-निर्माण का अर्थ (Meaning of Decision Making)
  2. निर्णय-निर्माण का आधार या कारक (Bases or Factors of Decision Making)
  3. निर्णय-निर्माण का प्रक्रिया या चरण (Process or Stages of Decision Making)
  4. निर्णय-निर्माण के वर्गिकरण (Classification of Decision Making)
  5. निर्णय-निर्माण के  मॉडल (Models of Decision Making)

1. निर्णय-निर्माण का अर्थ (Meaning of Decision Making):

वेबस्टर शब्दकोश निर्णय-निर्माण का परिभाषा- ”अपन मस्तिष्क में कोई मत या काम के तरीके का निर्धारित करने की क्रिया” के रूप में देता है । रॉबर्ट टैनेनबॉम के अनुसार निर्णय-निर्माण में- ”दो या अधिक व्यवहार विकल्पों के समूह में से किसी एक व्यवहार विकल्प का चुनाव शामिल होता है ।”

टेरी निर्णय-निर्माण को ”दो या अधिक संभाव्य विकल्पों में से एक व्यवहार विकल्प को चुनने” के रूप में परिभाषित करते हैं । इस तरह, निर्णय-निर्माण का अर्थ है- तमाम विकल्पों में से एक विकल्प चुनाव । यह प्रकृति से मूलत: समस्या का समाधान करने वाला है । निर्णय-निर्माण, नीति-निर्माण से काफी निकटता से जुड़ा है, मगर व एक नहीं है ।

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टेरी ने निर्णय व नीति के भेद को निम्न रुप से स्पष्ट किया है- ”निर्णय आम तौर पर नीति द्वारा स्थापित निर्देशों के ढांचे के भीतर लिए जाते हैं । कोई नीति तुलनात्मक रुप व ज्यादा व्यापक होती है, कई समस्याओं का प्रभावित करती है और बार-बार इस्तेमाल होती है । इसके विपरीत, कोई निर्णय किसी विशेष समस्या पर लागू होता है और इसका इस्तेमाल गैर-निरंतर स्वरूप का होता है ।”

क्लासिकीय चिंतकों न योजना, संगठन, तालमेल और नियंत्रण इत्यादि जैसे प्रबंधकीय कामों व जुड़ी एक सर्वव्याप्त गतिविधि के रुप में निर्णय-निर्माण को बहुत महत्व नहीं । फ्रेड लुथांसि के शब्दों में- ”फेयॉल व अरविक जैसे क्लासिकीय सिद्धांतकार निर्णय-निर्माण से केवल उस हद तक जुड़े थे जिस हद तक यह प्रत्यायोजन और प्राधिकार को प्रभावित करता है, जबकि फ्रेडरिक डब्ल्यू. टेलर ने वैज्ञानिक पद्धति की तरफ संकेत केवल निर्णय लेने के एक आदर्श उपागम के रुप में किया ।”

निर्णय-निर्माण की प्रक्रिया का पहला व्यापक विश्लेषण चेस्टर बर्नार्ड ने दिया । उन्होंने कहा- ”निर्णय की प्रक्रियाएँ मोटे तौर पर चुनाव को संकीर्ण बनाने की तकनीक हैं ।”

निर्णय-निर्माण की साइमन की अवधारणा:

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हरबर्ट ए. साइमन सबसे महत्त्वपूर्ण निर्णय विचारक हैं । उन्होंने निर्णय-निर्माण की परिभाषा- ”कार्यवाहियों के वैकल्पिक रास्तों के बीच सर्वोत्तम तार्किक चुनाव” के रूप में दी । साइमन के अनुसार निर्णय-निर्माण पूरे संगठन में ही व्याप्त होता है, यानी संगठन के सभी स्तरों पर निर्णय लिए जाते हैं । इसलिए उन्होंने संगठन को निर्णय-निर्माताओं की एक संरचना के रूप में देखा ।

उन्होंने प्रशासन और निर्णय-निर्माण के बीच समानताएँ बताई क्योंकि प्रशासन का हर पहलू निर्णय-निर्माण के इर्द-गिर्द घूमता है । उन्होंने गौर किया कि निर्णय-निर्माण फेयॉल द्वारा POCCC और गुलिक द्वारा ‘POSDCORB’ के रूप में वर्णित सभी प्रशासनिक कार्यों को समेटने वाली व्यापक गतिविधि है ।

साइमन कहते हैं- ”सिद्धांत विकसित कर लेने से पहले किसी भी विज्ञान के पास अवधारणाएँ होनी चाहिए । निर्णय-निर्माण प्रशासन की सबसे महत्त्वपूर्ण गतिविधि है… कोई भी प्रशासनिक विज्ञान, अन्य किसी भी विज्ञान की तरह शुद्ध रूप से तथ्यात्मक कथनों से सरोकार रखता है । विज्ञान के अध्ययन में नैतिक कथनों का कोई स्थान नहीं होता है ।”

संक्षेप में, साइमन की प्रशासन की अवधारणा के दो मूलभूत तत्व हैं:

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(i) क्लासिकीय चिंतकों के सिद्धांत उपागम (संरचनात्मक उपागम) के विकल्प के रूप में निर्णय-निर्माण उपागम पर जोर और

(ii) प्रशासन के अध्ययन में आदर्शवादी उपागम के विपरीत आनुभविक उपागम (मूल्य-मुझ उपागम) की वकालत ।

जैसा कि एन. उमापति ठीक ही कहते हैं- ”साइमन ने निर्णय-निर्माण पर ध्यान केंद्रित करते हुए तार्किक प्रत्यक्षवाद के सिद्धांतों और पद्धतियों के आधार पर प्रशासन की एक नई अवधारणा का प्रस्ताव दिया ।”


2. निर्णय-निर्माण का आधार या कारक (Bases or Factors of Decision Making):

सेकलर-हडसन ने बारह ऐसे कारकों की सूची दी है जिन पर निर्णय-निर्माण में विचार किया जाता है:

(a) कानूनी सीमाएँ,

(b) बजट,

(c) लोकनीति,

(d) तथ्य,

(e) इतिहास,

(f) आंतरिक उत्साह,

(g) पूर्वानुमानित भविष्य,

(h) श्रेष्ठतर,

(i) दबाव समूह,

(j) स्टाफ,

(k) कार्यक्रम की प्रकृति और

(l) अधीनस्थ ।

निर्णय-निर्माण के साइमन के आधार:

साइमन के अनुसार, हर निर्णय दो आधारों पर निर्भर होता है- तथ्यात्मक आधार व मूल्य आधार । एक तथ्य वास्तविकता का बयान होता है, जबकि एक मूल्य प्राथमिकता की अभिव्यक्ति । किसी तथ्यात्मक आधार को देखे और मापे जा सकने वाले साधनों से सिद्ध किया जा सकता है ।

अर्थात्, इसकी वैधता की जाँच आनुभविक रूप से की जा सकती है । दूसरी ओर किसी मूल्य आधार को आनुभविक रूप से नहीं आँका जा सकता, यानी इसे मात्र व्यक्तिनिष्ठ रूप से वैध माना जा सकता है । साइमन के अनुसार, मूल्य आधारों का सरोकार कार्यवाही के लक्ष्यों के चुनाव से होता है, जबकि तथ्यात्मक आधारों का संबंध कार्यवाही के माध्यमों के चुनाव से होता है ।

उन्होंने कहा कि, जहाँ तक निर्णय अंतिम लक्ष्यों के चुनाव की ओर ले जाते हैं, उन्हें ‘मूल्य निर्णय’ (‘मूल्य’ मुख्य रूप से प्रभावी होता है) कहा जा सकता है और जहाँ तक वे निर्णय ऐसे लक्ष्यों के लागू करने को शामिल करते हैं, उन्हें ‘तथ्यात्मक निर्णय’ (यानी तथ्यात्मक अंग मुख्य रूप से प्रभावी होता है ।) कहा जा सकता है ।


3. निर्णय-निर्माण का प्रक्रिया या चरण (Process or Stages of Decision Making):

टेरी निर्णय-निर्माण के चरणों का निम्न क्रम निर्धारित करते हैं:

(i) समस्या का निर्धारण ।

(ii) समस्या की पृष्ठभूमि की सामान्य जानकारी और उसके बारे में विभिन्न उपागम जानना ।

(iii) जो कार्यवाही का सर्वश्रेष्ठ तरीका लगे, उसे बताना ।

(iv) साध्य और अस्थायी निर्णयों की पहचान करना ।

(v) अस्थायी निर्णयों का मूल्यांकन करना ।

(vi) निर्णय लेना और उसे लागू करना ।

(vii) निरंतर काम में जुटे रहना और अगर जरूरी हो, तो प्राप्त परिणामों के प्रकाश में निर्णय को संशोधित करना ।

निर्णय-निर्माण के साइमन के चरण:

साइमन के अनुसार, निर्णय-निर्माण के तीन प्रमुख चरण होते हैं, वे हैं:

i. आसूचना गतिविधि:

साइमन ने निर्णय-निर्माण के प्रथम चरण को (सूचना का सैन्य अर्थ लेते हुए) आसूचना गतिविधि कहा । इसमें निर्णय लेने के अवसरों की खोज शामिल है । साइमन के अनुसार, कार्यपालिकाएँ अपने समय का एक बड़ा हिस्सा नए कामों की माँग करती हुई नई स्थितियों की पहचान करने के लिए आर्थिक, तकनीकी, राजनीतिक व सामाजिक परिवेश के सर्वेक्षण में लगाती हैं ।

ii. डिज़ाइन् गतिविधि:

दूसरे चरण में, जिसे डिज़ाइन् चरण भी कहते हैं, कार्यवाही के संभव रास्तों का आविष्कार, विकास और विश्लेषण होता है । अर्थात कार्यवाही के वैकल्पिक रास्तों की तलाश होती है । साइमन मानते थे कि कार्यपालिकाएँ व्यक्तिगत रूप से या अपने सहयोगियों के साथ, जहाँ निर्णय की जरूरत है वहाँ की स्थिति से निपटने के लिए कार्यवाही के संभव रास्तों के आविष्कार, आकार-निर्धारण और विकास के प्रयास में अपने समय का बड़ा हिस्सा खर्च करती हैं ।

iii. चुनाव गतिविधि:

साइमन ने निर्णय-निर्माण के आखिरी चरण को चुनाव गतिविधि कहा । इसमें दिए गए विकल्पों में से कार्यवाही का एक विशेष रास्ता चुनना शामिल है । साइमन की राय में एक समस्या से निपटने के लिए अपने परिणामों के लिए विकसित और विश्लेषित वैकल्पिक कार्यवाहियों के बीच चुनाव में कार्यपालिकाएँ अपने समय का एक छोटा हिस्सा खर्च करती हैं ।

साइमन के अनुसार, ये तीनों चरण जॉन डेवी द्वारा व्याख्यायित समस्या-समाधान के तीन चरणों से घनिष्ठता के साथ जुड़े हैं । वे हैं- (क) समस्या क्या है, (ख) विकल्प क्या हैं ? (ग) कौन-सा विकल्प सर्वश्रेष्ठ है ? साइमन अंत में कहते हैं कि सामान्यत: आसूचना गतिविधि, डिजायन से पहले और डिजायन गतिविधि चुनाव से पहले होती है । लेकिन चरणों का चक्र इस क्रम से कहीं जटिल होता है । कोई भी विशिष्ट निर्णय लेने में प्रत्येक चरण अपने-आप में एक जटिल निर्णय-निर्माण प्रक्रिया है ।

उदाहरणार्थ डिजायन चरण नई आसूचना गतिविधियों की माँग कर सकता है; किसी भी दिए गए स्तर की समस्याएँ, उप-समस्याएँ पैदा कर सकती हैं जिनके अपने आसूचना, डिजायन और चुनाव चरण होते हैं इत्यादि । चक्रों के भीतर चक्र होते हैं । फिर भी, सांगठनिक निर्णय प्रक्रिया के खुलने के साथ ये तीन मोटे चरण आसानी से पहचाने जा सकते हैं ।


4. निर्णय-निर्माण के वर्गिकरण (Classification of Decision Making):

विभिन्न चिंतकों ने निर्णयों को विभिन्न वर्गों में विभाजित किया है । कुछ वर्गीकरणों का यहाँ उल्लेख किया गया है ।

i. नियोजित व अनियोजित निर्णय:

हरबर्ट ए. साइमन ने निर्णयों को नियोजित व अनियोजित में वर्गीकृत किया है । निर्णय उस सीमा तक नियोजित होते हैं जिस सीमा तक वे दोहरावपूर्ण और नियमित होते हैं, ताकि कोई तय प्रक्रिया उनसे निपटने के लिए निकाली जा सके और हर बार उनसे नए तौर पर निपटना नहीं पड़े । यह पूर्व उदाहरणों के द्वारा निर्णय-निर्माण करना है ।

निर्णय उस सीमा तक अनियोजित होते हैं, जिस सीमा तक वे नए, असंरचनाबद्ध और परिणामात्मक होते हैं । इन समस्याओं से निपटने की कोई बनी-बनाई पद्धति नहीं होती, क्योंकि वे पहले पैदा ही नहीं हुई होतीं, क्योंकि इसकी निश्चित प्रकृति धुँधली या जटिल होती है और क्योंकि यह पहले से निर्धारित उपचार की अपेक्षा रखती है ।

साइमन व मार्च ने कहा है कि वह प्रशासक जो दिनों दिन और दीर्घकालिक योजना दोनों के लिए उत्तरदायी होता है वह अपने समय का ज्यादा हिस्सा नियमित गतिविधियों को देता है । इसका नतीजा दीर्घकालिक नतीजों से बचने या उन्हें टालने में सामने आता है । इस परिघटना को ‘योजना का ग्रेशम नियम’ कहते हैं । यह कहता है कि नियमितता अनियोजित गतिविधि को स्थानापन्न कर देती है ।

ii. समजात और अद्वितीय निर्णय:

पीटर ड्रकर ने अपनी लोकप्रिय पुस्तक दि प्रैक्टिस ऑफ मैनेजमेंट में निर्णयों को समजात और अद्वितीय निर्णयों में वर्गीकृत किया । यह क्रमश: नियोजित और अनियोजित निर्णयों से मिलता-जुलता है ।

iii. सांगठनिक और व्यक्तिगत निर्णय:

चेस्टर बर्नार्ड ने निर्णयों को सांगठनिक और व्यक्तिगत निर्णयों में वर्गीकृत किया । पहले वाले निर्णय किसी कार्यकारी द्वारा अपनी आधिकारिक क्षमता से लिए जाते हैं । यानि, अपने संगठन के एक सदस्य के रूप में जबकि दूसरे वाले निर्णय किसी कार्यकारी द्वारा अपनी व्यक्तिगत क्षमता से लिए जाते हैं, अपने संगठन के सदस्य की हैसियत से नहीं ।

iv. नीति व कार्य चालन संबंधी निर्णय:

निर्णय को नीति निर्णयों और कार्य चालन संबंधी निर्णयों में बांटा गया है । नीति निर्णयों को रणनीतिक निर्णयों के रूप में भी जाना जाता है । ये निर्णय बुनियादी प्रकृति के होते हैं और पूरे संगठन को प्रभावित करते हैं ।

जाहिर है कि वे शीर्ष प्रबंधन द्वारा लिए जाते हैं । इसके विपरीत, कार्य चालन संबंधी निर्णयों का उद्देश्य नीति निर्णयों को लागू करने का होता है । इसलिए वे निचले प्रबंधन संवर्गों द्वारा लिए जाते हैं । इन्हें कूटनीतिक निर्णयों के रूप में भी जाना जाता है ।

v. व्यक्तिगत और समूह निर्णय:

निर्णय-निर्माण की प्रक्रिया में लगे लोगों की संख्या के आधार पर निर्णयों को व्यक्तिगत और समूह निर्णयों में भी वर्गीकृत किया गया है । व्यक्तिगत निर्णय वे होते हैं जो संगठन में व्यक्तिगत प्रबंधकों द्वारा लिए जाते हैं । वे अपने निर्णयों के परिणामों की पूरी जिम्मेदारी लेते हैं । दूसरी ओर समूह निर्णय वे होते हैं जो संगठन में प्रबंधकों के किसी समूह द्वारा लिए जाते हैं । वे परिणामों की सामूहिक जिम्मेदारी लेते हैं ।


5. निर्णय-निर्माण के मॉडल (Models of Decision Making):

लोक प्रशासन के साहित्य में, निर्णय-निर्माण के चार लोकप्रिय मॉडल हैं- साइमन का परिसीमित तार्किकता मॉडल; लिंडब्लूम का वृद्धिशील मॉडल; एत्जीऑनी का मिश्रित स्कैनिंग मॉडल और ड्रॉर का ऑप्टिमल मॉडल ।

i. साइमन का परिसीमित तार्किकता मॉडल:

हरबर्ट साइमन ने निर्णय-निर्माण के तार्किकता के पहलू का काफी अध्ययन किया । तार्किक निर्णय-निर्माण के उनके मॉडल को व्यवहारीय विकल्प मॉडल भी कहा जाता है क्योंकि उन्होंने क्लासिकीय ‘आर्थिक तार्किकता मॉडल’ के एक अधिक वास्तविकतापूर्ण-विकल्प के रूप में एक वैकल्पिक मॉडल प्रस्तावित किया । साइमन ने तार्किकता को ”मूल्यों के अर्थ में श्रेयस्कर व्यवहार विकल्पों के चुनाव” के रूप में देखा ”जहाँ व्यवहार के परिणामों का मूल्यांकन हो सकता है ।”

साइमन ने विभिन्न प्रकार की तार्किकता में भी भेद किया, उनके अनुसार कोई निर्णय:

(i) वस्तुगत रूप से तार्किक है अगर वास्तव में यह दी गई स्थितियों में दिए गए मूल्यों को सर्वाधिक बनाने के लिए सही व्यवहार है ।

(ii) आत्मपरक रूप से तार्किक है अगर यह विषय के वास्तविक ज्ञान की तुलना में प्राप्ति को सर्वाधिक बनाता है ।

(iii) उस हद तक सचेतन रूप से तार्किक है जहाँ तक लक्ष्यों के अनुसार साधनों में बदलाव एक सचेतन प्रक्रिया हैं ।

(iv) उस हद तक सोचे-समझे रूप में तार्किक है जहाँ तक लक्ष्यों के अनुसार साधनों में बदलाव (व्यक्ति या संगठन द्वारा) सोचे-समझे तौर पर लाया गया है ।

(v) सांगठनिक रूप से तार्किक है अगर यह संगठन के लक्ष्यों से निर्देशित है ।

(vi) व्यक्तिगत रूप से तार्किक है अगर यह व्यक्ति के लक्ष्यों से निर्देशित है ।

साइमन मानते थे कि प्रशासनिक व्यवहार में संपूर्ण तार्किकता असंभव है । इसलिए, ‘निर्णयों को सर्वाधिक विशाल करना’ भी संभव नहीं । वे मानते थे कि किसी सांगठनिक विन्यास में मानव व्यवहार ‘परिसीमित तार्किकता’ (सीमित तार्किकता) से पहचाना जाए जो ‘संतोषप्रद-सक्षम निर्णयों’ की ओर ले जाता है न कि ‘विशालतम बनाने वाले निर्णय’ (सर्वोत्तम बनाने वाले निर्णय) की और । संतोषप्रद-सक्षम निर्णय का अर्थ है कि कोई निर्णय-निर्माता एक ऐसा विकल्प चुनता है जो संतोषजनक या पर्याप्त रूप से अच्छा है ।

संतोषप्रद-सक्षम निर्णयों की ओर ले जाने वाली परिसीमित तार्किकता के लिए निम्न कारक उत्तरदायी हैं:

(i) सांगठनिक उद्देश्यों की गतिमान (न कि स्थिर) प्रकृति ।

(ii) उपलब्ध सूचना को संश्लेश्रित करने (विश्लेषित करने) की सीमित क्षमता के साथ ही साथ अपूर्ण (अपर्याप्त) सूचना ।

(iii) समय और लागत संबंधी बाधाएँ ।

(iv) पर्यावरणीय शक्तियाँ या बाह्य कारक ।

(v) विकल्पों को हमेशा एक क्रमिक प्राथमिकता में प्रमाणित नहीं किया जा सकता ।

(vi) निर्णय निर्माता मौजूद सभी विकल्पों और उनके परिणामों से परिचित नहीं भी हो सकते हैं ।

(vii) निर्णय निर्माण की पूर्वधारणाओं, आदतों आदि जैसे व्यक्तिगत कारक ।

(viii) प्रक्रियाओं, नियमों, संचार मार्गों आदि जैसे सांगठनिक कारक ।

साइमन के निर्णय निर्माण के परिसीमित तार्किकता मॉडल को निम्न रूप में चित्रित किया जा सकता है । उपरोक्त सीमाओं को ध्यान में रखते हुए साइनम ने आर्थिक मनुष्य के विरुद्ध प्रशासनिक मनुष्य का मॉडल प्रस्तावित किया ।

साइमन के अनुसार प्रशासनिक मनुष्य:

(a) विकल्पों के चुनाव में संतुष्ट रहने या उस विकल्प की तलाश करने का प्रयास करता है जो संतोषजनक या पर्याप्त रूप से अच्छा होता है;

(b) मानता है कि जो दुनिया वह देखता है वह असली दुनिया का बुरी तरह सरलीकृत प्रतिरूप है;

(c) सभी संभव विकल्प निर्धारित और सुनिश्चित किए बिना चुनाव कर सकता है कि ये सारे विकल्प हैं क्योंकि वह संतुष्ट रहता है न कि सर्वाधिक बनाता है और

(d) तुलनात्मक रूप से सरल, अनुभव सिद्ध नियम से निर्णय लेने के काबिल होता है क्योंकि वह दुनिया को अपेक्षाकृत खाली मानता है ।

इस प्रकार साइमन का ‘संतोषप्रद-सक्षम’ प्रशासनिक मनुष्य, क्लासिकीय चिंतकों द्वारा बनाए गए ‘सर्वाधिकीकारक’ आर्थिक मनुष्य से भिन्न है । वह ‘संतोष और पर्याप्त रूप से देने’ के साथ अंत करता है क्योंकि उसके पास ‘सर्वोत्तम’ (सर्वाधिक) देने की क्षमता नहीं ।

लेकिन, क्रिस आर्गिरिस ने गौर किया है कि तार्किकता पर जोर देकर साइमन निर्णय-निर्माण में अंतर्दृष्टि, परंपरा और आस्था की भूमिका को नहीं समझ पाए हैं । वे कहते हैं कि साइमन का सिद्धांत ‘संतोष और पर्याप्त रूप से देने’ की अयोग्यता को तार्किक बनाने में इस्तेमाल होता है ।

नॉर्टन ई. लॉग और फिलिप सेल्जनिक दलील देते हैं कि साइमन का तथ्य और मूल्यों में भेद एक नए छद्म वेश में परित्यक्त राजनीति-प्रशासन द्विभाजन को ही पेश करता है और नौकरशाही को एक तटस्थ औजार समझता है ।

ii. लिंडब्लॉम का वृद्धिशील मॉडल:

चार्ल्स ई. लिंड-ब्लॉम ने अपने लेख दि साइंस ऑफ मडलिंग थ्रू (1959) में निर्णय-निर्माण के ‘वृद्धिशील मॉडल’ की वकालत की । यह हरबर्ट साइमन के ‘तार्किक व्यापक मॉडल’ के ठीक विपरीत है । लिंडब्लॉम कहते हैं कि प्रशासन में वास्तविक निर्णय-निर्माण अपनी सैद्धांतिक व्याख्या से बिल्कुल अलग है । वे तार्किक व्यापक मॉडल में व्यावहारिक समस्याओं की पहचान करते हैं ।

वे धन, समय, सूचना, राजनीति व ऐसी अन्य सीमाओं पर जोर देते हैं जो प्रशासन में वास्तविक निर्णय-निर्माण प्रक्रिया का संचालन करती हैं । लिंडब्लॉम की राय में निर्णय-निर्माता हमेशा मौजूदा कार्यक्रमों और नीतियों को जोड़-जाड़कर चलाते रहते हैं ।

वे कहते हैं कि वास्तव में निर्णय-निर्माण में जो घटित होता है वह है- ‘वृद्धिशीलता’ यानी, कुछ सुधारों के साथ पहले की ही गतिविधियों का जारी रहना । वृद्धिशील मॉडल को ‘शाखा तकनीक’ या ‘क्रमिक सीमित तुलनाओं का मॉडल’ या ‘चरणबद्ध निर्णय-निर्माण’ भी कहते हैं ।

इस प्रकार, लिंडब्लॉम मानते हैं कि प्रशासक भावी निर्णयों के लिए अतीत की गतिविधियों और अनुभवों का प्रयोग करते हैं । प्रशासन में वास्तविक निर्णय-निर्माण प्रक्रिया की व्याख्या करने के लिए उन्होंने दो अवधारणाओं का प्रयोग किया- ‘सीमांतीय वृद्धिशीलता’ और ‘पक्षधर परस्पर व्यवस्थापन’ ।

iii. एत्जिऑनी का मिश्रित-स्कैनिंग मॉडल:

1967 में प्रकाशित अपने लेख मिक्स्ड स्कैनिंग: ए थर्ड अप्रोच टू डिसिजन-मेकिंग में अमिताई एत्जिऑनी ने एक मध्यवर्ती मॉडल का सुझाव दिया है जो दोनों तार्किक व्यापक मॉडल (तार्किकतावाद) और वृद्धिशील मॉडल (वृद्धिशीलता) के तत्वों को जोड़ता है । एत्जिऑनी मोटे तौर पर लिंडब्लॉम द्वारा की गई तार्किक मॉडल की आलोचना से सहमत हैं ।

लेकिन वे यह भी कहते हैं कि वृद्धिशील मॉडल में दो कमियाँ हैं:

(क) यह सामाजिक रचनात्मकता को हतोत्साहित करता है और इस प्रकार उपागम में पक्षधर है और

(ख) यह बुनियादी निर्णयों पर नहीं लागू हो सकता । इस प्रकार वे एक मिश्रित-स्कैनिंग मॉडल का समर्थन करते हैं ।

iv. ड्रॉर का ऑप्टिमल मॉडल:

येजकेल ड्रॉर ने अपनी पुस्तक ‘पब्लिक पॉलिसी-मेकिंग री-एक्जैमिंड’ में नीति-निर्माण (निर्णय-निर्माण) और नीति विश्लेषण के एक ऑप्टिमल (अनुकूलतम) उपागम का सुझाव दिया । वे दावा करते हैं कि उनका ऑप्टिमल मॉडल निर्णय-निर्माण के सभी मौजूदा मानक मॉडलों से श्रेष्ठतर है और आर्थिक रूप से तार्किक मॉडल और तार्किकेतर मॉडल का मिश्रण है । ड्रॉर का ऑप्टिमल मॉडल निर्णय-निर्माण का एक तार्किक मॉडल है ।

ड्रॉर के अनुसार, इसकी मुख्य चारित्रिक विशेषताएँ हैं:

(i) यह गुणात्मक है, परिमाणात्मक नहीं ।

(ii) यह तार्किक और तार्किकेतर, दोनों तत्वों को समेटता है ।

(iii) यह आर्थिक तर्क के लिए बुनियादी तर्क है ।

(iv) इसका सरोकार पश्च नीति निर्माण (Metapolicy Making) से है ।

(v) इसमें प्रतिपुष्टि (Feedback) निहित होती है ।

ड्रॉर कहते हैं कि ऑप्टिमल मॉडल के तीन प्रमुख चरण होते हैं अर्थात्, पश्च नीति-निर्माण, नीति-निर्माण और उत्तर नीति-निर्माण । ड्रॉर नीति विज्ञान के तीव्र विकास की वकालत करते हैं ताकि समाज की गंभीर समस्याओं का संतोषप्रद समाधान किया जा सके ।

उनके शब्दों में- ”नीति विज्ञान को आंशिक रूप से उस शिक्षा शाखा के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जो नीति ज्ञान की खोज करती है, जो सामान्य नीति मुद्दे के ज्ञान और नीति-निर्माण ज्ञान की तलाश करें और उन्हें एक विशिष्ट अध्ययन के रूप में एकीकृत करें ।” नीति मुद्दे के ज्ञान का सरोकार उस ज्ञान से है जो विशेष-नीति से जुड़ा होता है, जबकि नीति निर्माण ज्ञान का सरोकार नीति-निर्माण गतिविधि की पूरी व्यवस्था से होता है ।

रुमकी बसु के शब्दों में ड्रॉर ”सभी मौजूदा सूचनाओं और वैज्ञानिक तकनीक के सर्वाधिक उपयोग के आधार पर लक्ष्यों, मूल्यों, विकल्पों, लागतों और लाभों के एक विवेक संगत मूल्यांकन के जरिए सर्वश्रेष्ठ नीति को अपनाने की वकालत करते हैं । वह प्रभावी नीति विश्लेषण की सहायता के लिए तार्किकेतर सामग्रियों के इस्तेमाल का भी सुझाव देते हैं ।”