आर्थिक विकास में संस्थानों का अर्थ, भूमिका और प्रभाव | Read this article in Hindi to learn about:- 1. संस्थाओं का अर्थ (Meaning of Institutions) 2. संस्था के लक्षण (Characteristics of Institution) 3. आर्थिक विकास की भूमिका (Role of Economic Development) 4. विकास निर्धारक कारकों पर प्रभाव (Impact on Growth Determining Factors).

संस्थाओं का अर्थ (Meaning of Institutions):

आदमी एक सामाजिक प्राणी है । सामाजिक प्राणी होने के कारण, उसकी कुछ आवश्यकताएं हैं तथा पूरा करने के लिये कुछ लक्ष्य हैं । संस्था विचार का एक मार्ग है अथवा किसी प्रचलन और स्थायित्व का कार्य है, जो एक वर्ग की आदतों और लोगों के रीति-रिवाजों के साथ जुड़ा हुआ है ।

अत: यह दावा किया जा सकता है कि संस्था वह माध्यम है जिसे लोग अपनी आवश्यकताओं और उद्देश्यों को पूरा करने के लिये विधियों और व्यवहार से अपनाते हैं ।

“एक सामाजिक संस्था समाज की वह संरचना है जिसे मुख्यत: लोगों की आवश्यकताओं को सुस्थापित विधियों के अनुसार पूरा करने के लिये व्यवस्थित किया जाता है ।” –ई. एस. बोगारडस

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“कोई संस्था सामूहिक व्यवहार का जटिल सम्बद्ध संगठन है जिसे सामाजिक परम्परा में स्थापित किया गया है तथा जो कुछ स्थायी आवश्यकताओं को पूरा करता है ।” -सी. एच. कूले

संस्था के लक्षण (Characteristics of Institutions):

उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर संस्थाओं के मुख्य लक्षण निम्नलिखित हैं:

(क) संस्थाएं इस भाव से सप्रयोजन होती हैं कि प्रत्येक के सामाजिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के लिये अपने उद्देश्य अथवा लक्ष्य होते हैं ।

(ख) उनकी संरचना सापेक्षतया स्थायी होती है ।

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(ग) वे परम्परावादी और सहनशील बन जाती हैं ।

(घ) प्रत्येक संस्था एक एकीकृत संरचना है और एक इकाई के रूप में कार्य करती है ।

(ङ) संस्था आवश्यक रूप में तात्पर्यपूर्ण होती है तथा आचार संहिता बन जाती है ।

(च) प्रत्येक संस्था सम्बद्ध होती है तथा किसी अन्य समाज अथवा समिति से अधिकार प्राप्त करती है ।

आर्थिक विकास में संस्थाओं की भूमिका (Role of Institutions in Economic Development):

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किसी देश की सामाजिक एवं आर्थिक संस्था आर्थिक विकास की प्रक्रिया में प्रभुत्व रखती है । वह विकास की अभिवृत्तियों, प्रेरणाओं और स्थितियों को निर्धारित करती है । यदि संस्थाएं लचीली हैं और लोगों को आर्थिक अवसरों का लाभ उठाने, जीवन स्तर ऊंचा उठाने के लिये उत्साहित करती है और उन्हें कठिन परिश्रम के लिये उत्साहित करती है तो आर्थिक विकास घटित होगा ।

दूसरी ओर यदि वह इस सब को हतोत्साहित करती है तो आर्थिक विकास के मार्ग में बाधा पड़ेगी तथा वह विलोमत रूप में प्रभावित होगा संयुक्त राष्ट्र संघ (U.N.O) ने ठीक ही अवलोकन किया है कि उचित वातावरण की अनुपस्थिति में आर्थिक विकास सम्भव नहीं है ।

अत: तब तक आर्थिक उन्नति नहीं होगी जब तक वातावरण हितकर नहीं बनता । देश के लोगों में आर्थिक उन्नति की इच्छा का होना अति आवश्यक है तथा उनकी सामाजिक, आर्थिक, वैधानिक और राजनैतिक संस्थाएं भी इसके पक्ष में हों । ए. के. केरनक्रास (A.K. Cairncross) ने भी आर्थिक विकास में इन संस्थाओं के महत्व पर बल दिया है ।

“किसी भी देश में विकास केवल आर्थिक शक्तियों द्वारा प्रशासित नहीं होता, जितना कोई देश पिछड़ा हुआ होगा उतना ही अधिक यह सच होगा । विकास की कुंजी आदमी के मन में निहित है, उन संस्थाओं में निहित है जिनमें उनके विचार प्रकटाव प्राप्त करते हैं तथा विचारों और संस्थाओं को कार्य करने का अवसर प्राप्त होता है ।” -ए. के. केरनक्रास

अत: यह पहचानना आवश्यक हो जाता है कि सामाजिक-राजनीतिक वातावरण आर्थिक विकास के लिये सहायक हो सकता है अथवा नहीं । कुछ धार्मिक और सामाजिक दृष्टिकोण अन्यों की तुलना में विकास के पक्ष में अधिक हो सकते हैं ।

उदाहरणतया, परिवार का व्यक्तिवादी प्रतिरूप, व्यक्तियों को कार्य की स्वतन्त्रता, व्यापार के लिये उच्च सामाजिक मूल्य लोचपूर्ण सामाजिक संरचना निश्चित रूप में विकास के लिये कहीं अधिक सहायक हैं, क्योंकि यह सभी अर्थव्यवस्था में त्वरित विकास की स्थितियां उत्पन्न कर देते हैं ।

जबकि संयुक्त परिवार प्रणाली, व्यापार का निम्न सामाजिक मूल्य और जाति की कठोर संरचना पिछड़ेपन के सामान्य तत्व हैं तथा देश के विकास में बाधा हैं । अत: संस्थाएं पूंजी निर्माण की दर, उद्यमीय कौशल की वृद्धि, तकनीकी परिवर्तनों और लोगों की काम की इच्छा इत्यादि आर्थिक विकास को बहुत प्रभावित करती है ।

कभी-कभी निवेश का नमूना, राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक प्रेरणा का फलन होता है और मूल्य प्रणाली भी उद्यमियों की पूर्ति निर्धारित करती है जो अर्थव्यवस्था और सामाजिक परिवर्तनों के नायक हैं । इस प्रकार, संस्था किसी अर्थव्यवस्था के विकास दर पर निर्णायक प्रभाव डालती है ।

विकास निर्धारक कारकों पर संस्थाओं का प्रभाव (Impact of Institutions on Growth Determining Factors):

संस्थाएं निम्नलिखित प्रकार से आर्थिक विकास के मुख्य निर्धारकों को प्रभावित करती हैं:

1. आर्थिक प्रयत्न की ओर सामान्य दृष्टिकोण (General Attitude to Economic Effort):

संस्थाओं ने कार्य की ओर लोगों के दृष्टिकोण को बहुत प्रभावित किया है । आर्थिक विकास के लिये लोगों की इच्छा शक्ति और दक्षता में भी वृद्धि हुई है । यदि वे जोखिम उठाने के लिये लोगों को कठिन परिश्रम करने के लिये प्रेरित करती हैं तो ये संस्थाएं विकास प्रवृतिक होगी और यदि वह ऐसा नहीं करती तो वह विकास रोधक होंगी ।

इसका अर्थ है कि संस्थाएं उस सीमा तक विकास को प्रोत्साहित अथवा प्रतिबन्धित करती है जहां तक वह प्रयत्नों को सुरक्षा प्रदान करती है । इस सम्बन्ध में डब्ल्यू. ए. लुइस लिखते हैं कि- ”व्यक्ति तब तक प्रयत्न नहीं करेंगे जब तक कि उस प्रयत्न का फल उन्हें या जिनका दावा वह मानते हैं को सुनिश्चित न हो ।”

इसलिये, संस्थाओं को चाहिये कि आर्थिक विकास की प्राप्ति के लिये वे प्रयत्न और पुरस्कार के बीच किसी न किसी प्रकार का सम्बन्ध अवश्य स्थापित करें । इसलिये किसी को अन्यों की कमाई का भाग प्राप्त करने की आज्ञा नहीं होनी चाहिये और प्रयत्न अनुसार सेवा फल में उचित अन्तर अवश्य कायम रखना चाहिये ।

निजी सम्पत्ति, आर्थिक स्वतन्त्रता, उत्तराधिकार के नियम आदि की संस्थाएं आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करती हैं क्योंकि वे प्रयत्न का पुरस्कार सुनिश्चित करती हैं और कार्य की स्वतन्त्रता उपलब्ध करवाती हैं । जबकि दूसरी ओर श्रम का शोषण, त्रुटिपूर्ण भूमि की काश्तकारी, अनुपस्थित जमींदारी, सामन्तवादी व्यवस्था, दास प्रथा, संयुक्त परिवार प्रणाली और जातिवाद आदि सभी आर्थिक विकास को हतोत्साहित करते हैं ।

2. तकनीकी ज्ञान (Technological Knowledge):

क्योंकि अल्प विकसित देशों में तकनीकी ज्ञान का अभाव होता है, साधन अप्रयुक्त पड़े रहते हैं और कड़ी संस्थानिक संरचना तकनीकी परिवर्तनों को स्वीकार करने की स्थिति में नहीं होती । समाज का वैज्ञानिक दृष्टिकोण इस प्रकार के परिवर्तन लाने में सहायक हो सकता है ।

यदि संस्थानिक संरचना में अनुकूल परिवर्तन होता है तो सभी ओर प्रगति का वातावरण होगा तथा तकनीकी ज्ञान के साथ अनुकूल परिवर्तन अपने आप हो जाते हैं । इस प्रकार, बड़ी मात्रा में पूजी के उपभोग का पर्याप्त अवसर होगा और अनुसंधान पर विशेष बल, विकास और नई तकनीकों के प्रयोग के लिये अन्य आपेक्षित शर्तें होंगी ।

वास्तव में, संस्थानिक संरचना का उच्च उद्यमीय श्रेणी के वाणिज्यीकरण के पक्ष में होना आवश्यक है । अत: यह स्पष्ट प्रमाण है की सामाजिक संस्थाएँ आर्थिक प्रगति के लिये तकनीकी परिवर्तनों से बहुत प्रभावित हुई हैं ।

3. उद्यमीयता (Entrepreneurship):

किसी देश की उद्यमीयता का विकास इसकी संस्थानिक संरचना और मूल्य प्रणाली पर निर्भर करता है । वह उद्यमियों को पूर्ति में स्वचालित वृद्धि के लिये आवश्यक है । इसलिये उच्च उचित प्रतिष्ठा एवं उचित पुरस्कार उद्यमीयता की सफलता की आवश्यक शर्तें हैं ।

कम प्रतिबन्ध लगाये जायें तथा करों की बहुलता को रोका जाना चाहिये । उद्यमीयता की प्रभावी पूर्ति समाज में तभी होगी यदि इसके सामाजिक मूल्यों के अनुक्रम में सामग्रिक सम्पत्ति का संचय होता है और सफल उद्यमियों को पर्याप्त मौद्रिक लाभ प्राप्त होते हैं ।

इसे आर्थिक संस्कृति कहा जाता है जो उद्यमी के मार्ग को समतल बनाती है, उसकी ऊर्जा और प्रेरणा को व्यापारिक, वित्तीय और औद्योगिक दिशाओं की ओर प्रेरित करती है । डी. ब्राइट सिंह के शब्दों में- ”उद्यम और जोखिम में आत्म विकास के लिये सामाजिक और संस्थानिक शर्तें अवश्य पूरी की जानी चाहियें ।”

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