लोक प्रशासन पर राज्य बनाम बाजार बहस | State Versus Market Debate on Public Administration.

‘राज्य बनाम बाजार बहस’ समाज और अर्थव्यवस्था में राज्य और बाजार की भूमिका को लेकर चली एक बहस है । ऐतिहासिक रूप से यह बहस ‘अर्थशास्त्र के पिता’ एडम स्मिथ के समय से ही चली आ रही है । हाल ही में, उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में यह बहस एक बार फिर महत्त्वपूर्ण हो उठी है ।

ये आर्थिक सुधार और ढाँचागत समायोजन विकसित और विकासशील देशों में जारी हैं । इसके अलावा विश्व बैंक की 1991, 1997 और 2000-2001 की रिपोर्टों ने दुनियाभर में समकालीन विकास प्रक्रिया में राज्य और बाजार की भूमिका के पुनर्मूल्यांकन का सुझाव दिया है ।

सैद्धांतिक आधार (Theoretical Base):

राज्य बनाम बाजार बहस के उदय का के कींस सिद्धांत आधार 1960 और 1970 के दशकों के जन चयन उपागम में निहित है । लोक प्रशासन का यह उपागम दलील देता है कि उपभोक्ताओं की प्राथमिकताओं को बढ़ावा देने के लिए सार्वजनिक वस्तुओं और सेवाओं को उपलब्ध कराने की प्रक्रिया में ‘संस्थागत बहुलवाद’ (एजेंसियों की बहुलता) होना चाहिए ।

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यह कहता है कि प्रशासकों और राजनीतिज्ञों का सरोकार आत्महित से होता है । इसने सरकार की केंद्रीय भूमिका और राज्य के आधार पर ही सवाल खड़ा कर दिया । इसलिए, इसने राज्य की भूमिका को न्यूनतम बनाने, सरकारी एजेंसियों के कामों के दायरे को घटाने और सरकार के कई कामों को बाजार को सौंपने की वकालत की ।

जन चयन उपागम ने, प्रभावी बाजार निर्धारण वाले एक नए रूपांतरण को लोक प्रशासन में जन्म दिया जिसे ‘नव लोक प्रशासन’ या ‘उद्यमी सरकार’ कहा गया । इस रूपांतरण ने सरकार को ‘करने’ की बजाय ज्यादा से ज्यादा ‘सक्षमीकरण’ की भूमिका निभाने का आह्वान किया ।

दूसरे शब्दों में, सरकार को सार्वजनिक गतिविधियों के ‘कर्ता’ से सार्वजनिक लाभों के ‘वितरक’ और समाज और अर्थव्यवस्था में बदलाव के ‘सहायक’ और ‘प्रोत्साहक’ में तब्दील हो जाना चाहिए । इस प्रकार यह नयी सोच समाज और अर्थव्यवस्था के प्रमुख नियामक के रूप में राज्य की बजाय बाजार की केंद्रीय भूमिका पर ज्यादा जोर देती है ।

राज्य का हस्तक्षेप (Intervention of State):

बीसवीं सदी की चार नाटकीय घटनाओं, की पहचान समाज और अर्थव्यवस्था में राज्य के हस्तक्षेप से होती है । ये हैं:

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(i) 1917 में रूसी क्रांति, जिसका परिणाम सारी आर्थिक गतिविधियों के राज्य द्वारा नियंत्रण के रूप में सामने आया ।

(ii) 1930 के दशक की ‘महामंदी’, जिसने बाजार पद्धति की व्यापक असफलता को प्रदर्शित कर दिया ।

(iii) द्वितीय विश्व युद्ध द्वारा भयंकर विध्वंस, जिसके परिणामस्वरूप पश्चिम में बड़े पैमाने पर सामाजिक-आर्थिक पुनर्निर्माण की जरूरत पड़ी ।

(iv) नव स्वाधीन देशों का उदय, जिन्होंने राज्य-नियंत्रित विकास की रणनीतियाँ अपनाई ।

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1950 से 1980 तक का दौर समाज और अर्थव्यवस्था में राज्य के हस्तक्षेप का स्वर्णयुग था । पश्चिमी यूरोप और अमेरिका के विकसित देशों में राज्य समष्टि अर्थशास्त्र के कींस सिद्धांत को लागू करने के लिए हस्तक्षेप करता था ।

कींस ने कहा था कि पूर्ण रोजगार को सुनिश्चित करने के लिए राज्य हस्तक्षेप के जरिये विशाल निवेश जरूरी हैं क्योंकि पूँजीवाद में पूर्ण-रोजगार स्वत:स्फूर्त ढंग से पैदा नहीं होता । पूर्व-सोवियत संघ और पूर्वी यूरोपीय समाजवादी देशों में, राज्य अखंडित शीर्ष केंद्रीकृत योजना के साथ हस्तक्षेप करता था और बाजार यंत्र को पूरी तरह अधीन रखता था ।

इन समाजवादी देशों, विशेषकर सोवियत संघ में द्रुत औद्योगीकरण हासिल करने में राज्य योजना की सफलता ने राज्य हस्तक्षेप के पक्ष में नीति निर्माताओं को काफी प्रभावित किया । एशिया, अफ्रीका और लातिनी अमेरिका के नव-स्वाधीन देशों में, राज्य सामाजिक- आर्थिक विकास की गति को बढ़ाने के लिए हस्तक्षेप करता था । इन देशों में विकास की पूर्वशर्तें तक मौजूद नहीं थीं ।

इन देशों की पहचान व्यापक गरीबी, भारी बेरोजगारी, दयनीय स्वास्थ्य, निरक्षरता, कुपोषण, असमानता, छोटे और असंतुलित औद्योगिक आधार, अवसंरचना का अभाव और अनुपयुक्त भूमि संबंधों से होती थी ।

परिणामत: राज्य ने न सिर्फ संपत्ति के पुनर्वितरण और गरीबी के निवारण की जिम्मेदारी ले ली बल्कि निवेश और उपभोग के लिए मालों के उत्पादन की भी जिम्मेदारी ले ली ।

राज्य की असफलता (Failure of State):

1980 के दशक के बाद निम्नलिखित कारणों से राज्य की भूमिका की आलोचनात्मक समीक्षा शुरू हुई:

1. विकसित और विकासशील, दोनों ही देशों में सार्वजनिक खर्च में भारी बढ़ोतरी और परिणामस्वरूप मुद्रास्फीति और करों की ऊँची दर ।

2. अधिकांश विकसित और विकासशील देशों में कल्याणकारी राज्य का वित्तीय संकट ।

3. कई विकासशील देशों में कानून और व्यवस्था, शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, परिवहन जैसी बुनियादी वस्तुएँ और सेवाएँ देने में भी राज्य की असफलता ।

4. पूर्व सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप में निर्देश और नियंत्रण अर्थव्यवस्थाओं का पतन । इसने राज्य के बढ़ते क्षरण और सीमांतीकरण में योगदान दिया ।

5. जापान, दक्षिण कोरिया, सिंगापुर, हांगकांग और ताइवान द्वारा उच्च वृद्धि दरें हासिल किया जाना, जिन्होंने सीमित राज्य हस्तक्षेप की नीति अपनाई थी ।

6. विकासशील देशों में सार्वजनिक उद्यमों का खराब प्रदर्शन और उससे जुड़े भारी घाटे ।

7. अफगानिस्तान, सोमालिया, लाइबेरिया इत्यादि जैसे दुनिया के कई हिस्सों में गृह युद्ध के कारण राज्य का पतन ।

8. विकसित देशों की अर्थव्यवस्थाओं में अत्यधिक राज्य हस्तक्षेप का नतीजा विषम प्राथमिकताओं, बाजार विकृतियों, व्यापक भ्रष्टाचार और पतित नौकरशाही के रूप में सामने आया ।

बाजार-अनुकूल उपागम (Market-Friendly Approach):

उपरोक्त बदलाव उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण की ओर ले गए । ये आर्थिक सुधार और ढाँचागत समायोजन समाज और अर्थव्यवस्था में राज्य की छोटी भूमिका और बाजार की बड़ी भूमिका के पक्षधर हैं ।

दूसरे शब्दों में, ये ‘राज्य न्यूनतावाद’ (सरकार संकुचनवाद) और ‘बाजार-अनुकूलता’ (बाजार को और खुला हाथ देना) के सामान्य रुझानों की ओर संकेत करते हैं । हालांकि विकास में राज्य हस्तक्षेप की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता, यह दलील दी गई है कि यह हस्तक्षेप ‘बाजार-अनुकूल’ होना चाहिए ।

1991 की विश्व बैंक रिपोर्ट ने ‘बाजार-अनुकूल’ राज्य हस्तक्षेप की व्याख्या इस प्रकार की है:

1. अनिच्छा से हस्तक्षेप करो । अर्थात बाजार को तब तक काम करने दो जब तक कि हस्तक्षेप करना प्रत्यक्ष रूप से बेहतर न हो ।

2. नियंत्रण और संतुलन को लागू करो अर्थात अंतर्राष्ट्रीय और घरेलू बाजारों के अनुशासन के लिए लगातार हस्तक्षेप करो ।

3. खुले तौर पर हस्तक्षेप करो, यानी हस्तक्षेपों को आधिकारिक रूप ये स्वच्छंद बनाने की बजाय सरल, पारदर्शी और नियमों के अधीन बनाओ ।

मगर फिर भी बाजार नियंत्रित व्यवस्था में कई समस्याएँ हैं ।

मिश्रा और पुरी ने ऐसी चार समस्याओं की पहचान की है:

(i) विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के बाजारों में व्यापक अपूर्णताएँ ।

(ii) बाजार निर्णय संसाधन के सर्वश्रेष्ठ वितरण को सुनिश्चित नहीं करते ।

(iii) बाजार कुल माँग और कुल आपूर्ति के बीच संतुलन को सुनिश्चित नहीं कर सकता ।

(iv) बाजार तंत्र समानता की उपेक्षा करता है ।

इसलिए बाजार की असफलताओं की क्षतिपूर्ति बाजार की अपर्याप्ताओं से निपटने के लिए और सबसे महत्त्वपूर्ण ‘जनहित’ को बढ़ावा देने के लिए राज्य का हस्तक्षेप जरूरी है, जिसका स्थान कोई बाजार दर्शन नहीं ले सकता ।

एक संतुलित दृष्टिकोण (A Balanced View):

इस प्रकार विकास के सिद्धांत में जो उपागम उभर रहा है वह यह है कि जहाँ भी बाजार प्रभावशाली ढंग से काम कर सके उसे करने देना चाहिए और जहाँ बाजार ऐसा न कर सकें राज्य को तत्काल और प्रभावशाली ढंग से हस्तक्षेप करना चाहिए ।

इसी बात को विश्व बैंक रिपोर्ट (1981) के शब्दों में रखें तो- ”सरकारों को उन क्षेत्रों में कम काम करने की जरूरत है जहां बाजार या तो अच्छी तरह काम कर रहे हैं या जहाँ उनसे अच्छी तरह काम करवाया जा सकता है । साथ ही सरकार को उन क्षेत्रों में ज्यादा काम करना चाहिए जहाँ पूरी तरह बाजार के भरोसे नहीं रहा जा सकता ।”

विश्व बैंक रिपोर्ट (1997) भी इसी उपागम का समर्थन करती है । जब वह कहती है- ”आर्थिक और सामाजिक विकास में राज्य का केंद्रीय स्थान है, वृद्धि के सीधे प्रदान करने वाले कारक के रूप में नहीं बल्कि एक साझेदार, उत्प्रेरक और सहायक के रूप में । राज्य बाजारों के लिए उचित संस्थागत बुनियादों को सही स्थान पर रखने के लिए अनिवार्य है ।”

रिपोर्ट के अनुसार, हर सरकारी अभियान के मर्म में पाँच कार्य होते हैं, जिसके बिना दीर्घकालिक, साझा और गरीबी-निवारक विकास असंभव है । ये हैं:

(i) कानून की एक बुनियाद रखना ।

(ii) दीर्घ आर्थिक स्थिरता कायम रखना ।

(iii) बुनियादी सामाजिक सेवाओं और अवसंरचना में निवेश करना ।

(iv) कमजोर वर्गों की रक्षा करना ।

(v) पर्यावरण की रक्षा ।

हम अब विश्व बैंक रिपोर्ट (1991) की टिप्पणी के साथ राज्य बनाम बाजार की अपनी बहस का समाहार करते हैं:

”विकास का एक केंद्रीय मुद्दा सरकारों और बाजारों का संबंध है । यह हस्तक्षेप बनाम मुक्त व्यापार का सवाल नहीं है- जो एक लोकप्रिय मगर भटकाने वाला द्विभाजन है । वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन और वितरण को संगठित करने के लिए खोजा गया अब तक का सर्वश्रेष्ठ रास्ता प्रतियोगी बाजारों का रास्ता है । घरेलू और बाह्य प्रतियोगिता वह प्रोत्साहन देती है जो उद्यमी और तकनीकी प्रगति को निर्बंध करता है । लेकिन बाजार अकेले काम नहीं कर सकते, उन्हें एक कानूनी और नियामक ढाँचे की जरूरत होती है जो केवल सरकारें ही दे सकती हैं । और, अन्य कई कामों में भी, बाजार कभी-कभी अपर्याप्त साबित होते हैं या पूरी तरह असफल ही हो जाते हैं । इसीलिए, मिसाल के तौर पर सरकारों को अवसंरचना में निवेश करना चाहिए और गरीबों को बुनियादी सेवाएँ देनी चाहिए । यह सवाल राज्य या बाजार का नहीं हैं, प्रत्येक की अपनी व्यापक और अनिवार्य भूमिका है ।”