Read this article in Hindi to learn about how to control ocean pollution.

हमारे शास्त्रों में पृथ्वी को ‘धरती माँ’ कहा गया है । भवन-निर्माण आदि कार्य करते समय उसका पूजन किया जाता है । प्राचीन यूनान में भी पृथ्वी को देवी, गाइआ, माना जाता था । यह मान्यता थी कि गाइया अपने ‘प्रजाजनों’ को पर्याप्त मात्रा में धन-धान्य प्रदान करती है ।

परंतु जो उसके जीव-जंतुओं, वनों, नदियों, पर्वतों आदि को नष्ट करता है उससे वह बदला लेती है । आधुनिक विज्ञान भी पृथ्वी को एक ‘जीवित प्राणी’ मानता है । किसी भी जीवधारी की भाँति उसे फलने-फूलने के लिए उपयुक्त परिस्थितियों की आवश्यकता होती है ।

ये परिस्थितियाँ उसके पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं को ही नहीं वरन् पर्वत, भूमि, जल, वायु आदि जैसी जड़ वस्तुओं को भी चाहिए । आज जाने-अनजाने हम उन परिस्थितियों को नष्ट कर रहे हैं जो धरती माँ के अंगों के स्वास्थ्य के लिए परम आवश्यक हैं ।

ADVERTISEMENTS:

ये परिस्थितियों अत्यंत जटिल हैं और एक-दूसरे से अत्यंत नाजुक और रहस्यमय तरीकों से संबंधित हैं । एक क्षुद्र जीव को नष्ट करने अथवा जड़ वस्तु को प्रदूषित करने के प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव किस प्रकार अन्य जीवों पर पड़ते हैं यह ज्ञात करना सदैव सरल नहीं होता ।

सागर और थल तथा परिणामस्वरूप थलीय जीव-जंतुओं के बीच एक अत्यंत जटिल पर नाजुक संबंध है । इसलिए सागर पर पड़नेवाले दुष्प्रभाव थल और उसके प्राणियों पर भी अवश्य पड़ते हैं ।

उसमें बड़ी तेजी से हानिकारी ही नहीं वरन् घातक पदार्थ भी मिल रहे हैं । उनके प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रभाव सागर के जीव-जंतुओं तथा अन्य गुणों पर पड़ रहे हैं । उसमें अनेक ऐसी क्रियाएँ हो रही हैं जिनसे सागर को बहुत अधिक हानि हो रही है ।

यदि यही हाल रहा तो निश्चय ही बहुत जल्दी उनके समुद्रों में जीव-जंतु बिलकुल ही समाप्त हो जाएंगे । पर उससे पहले वे जीव प्रदूषकों के कारण इतने विषैले हो जाएंगे कि मनुष्य के लिए उनका भक्षण घातक हो जाएगा । उनके भक्षण से भयंकर बीमारियाँ फैलने लगेंगी ।

ADVERTISEMENTS:

इस प्रकार तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या और उसके परिणामस्वरूप उत्पन्न होनेवाली समस्याओं के हल के लिए हम सागर की शरण में जाने की जो कल्पना कर रहे हैं वह मात्र कल्पना ही रह जाएगी । वह कभी साकार नहीं हो पाएगी । इसलिए यह अत्यंत आवश्यक है कि थल को ही नहीं, सागर को भी प्रदूषित होने से बचाया जाए और उसके प्रदूषित हो गए क्षेत्रों को पुन: शुद्ध करने के उपाय अपनाए जाएँ ।

सागर में प्रदूषक प्राकृतिक और मानवजन्य, दोनों, तरीकों से पहुँचते हैं । पर प्राकृतिक प्रदूषकों की मात्रा और विषाक्तता मानवजन्य प्रदूषकों की तुलना में बहुत कम है । मानवजन्य प्रदूषक मुख्यत: थल पर ही, जहां मनुष्य रहता है, उत्पन्न होते हैं ।

इसलिए सागर प्रदूषण को रोकने का सबसे अच्छा उपाय है कि प्रदूषकों को थल पर ही उपचारित कर लिया जाए और अगर वे समुचित रूप से हानिरहित पदार्थों में परिवर्तित नहीं किए जा सकते तब उन्हें सागर तक पहुँचने से रोका जाए । यह भी संभव न हो पाने पर सागर में उनके उपचार की व्यवस्था की जाए ।

आमतौर से यह माना जाता है कि सागर में कार्बनिक पदार्थ थल की अपेक्षा अधिक तेजी से विघटित होते हैं । यह समझा जाता है कि वहाँ उन पर जैवक्रियाएँ अधिक सुचारु रूप से और शीघ्रता से होती हैं । पर तथ्य इसके विपरीत हैं ।

ADVERTISEMENTS:

सागर में कार्बनिक पदार्थों का विघटन थल की अपेक्षा 10 से 100 गुनी धीमी गति से होता है । इस तथ्य की खोज अनायास ही एक दुर्घटना के फलस्वरूप हो गई थी । वर्ष 1968 में संयुक्त राज्य अमेरिका की अनुसंधान पनडुब्बी, आल्विन, 1540 मीटर गहरे पानी में डूब गई थी ।

संयोगवश इस दुर्घटना में किसी आदमी की जान नहीं गई । पर जिस समय आल्विन डूबी उसके रसोईघर में सैंडविच बने रखे थे, ताजा फल और सब्जियाँ थी और थर्मस बोतलों में ताजा पेय पदार्थ भरे हुए थे । दस महीनों बाद जब गोताखोरों ने आल्विन के अवशेष खोज निकाले उस समय भी ये खाद्य पदार्थ भलीभाँति संरक्षित पाए गए ।

सागर में फेंका गया कचरा बहुत दिनों तक बिना विघटित हुए ही बना रहता है । इसीलिए सागर पर अकसर ही टूटी प्लास्टिक की बोतलें और पॉलीस्टायरीन की वस्तुएँ तिरती हुई देखी जाती हैं । वैसे प्लास्टिक के कण समुद्री पौधों और जंतुओं से चिपक जाते हैं । इन कणों में पॉलीक्लोरिनेटेड बाइफेनिल भी होते है । पॉलीक्लोरिनेटेड बाइफेनिल पीड़कनाशी होते हैं और सागर को प्रदूषित करते हैं ।

थल पर उपचार:

यह सर्वमान्य तथ्य है कि ‘इलाज से रोकथाम बेहतर है ।  तो क्यों न हम भी ऐसे उपाय अपनाएँ जिनसे प्रदूषक बिलकुल भी नहीं अथवा कम-से-कम मात्रा में उत्पन्न हों । इस संबंध में विद्वान उन जनजातियों का उदाहरण देते हैं जिन्हें अकसर ‘जंगली’ कहा जाता है ।

वे आज भी वन प्रदेशों में उसी प्रकार जीवनयापन कर रही हैं जिस प्रकार हजारों वर्ष पूर्व करती थी । वे प्रकृति का ‘उपभोग’ करती हैं- उसे ‘लूटती’ नहीं । वे उससे केवल उतनी ही वस्तुएँ लेती हैं जितनी उनके लिए नितांत आवश्यक हैं । वे केवल ऐसे व्यर्थ पदार्थ ही उत्पन्न करती हैं जो प्राकृतिक जैवरासायनिक क्रियाओं द्वारा शीघ्र विघटित हो सकें ।

इसलिए जनजातियों के इलाकों में ऐसे पदार्थ रह ही नहीं पाते जो प्रदूषण उत्पन्न कर सकें । इसके विपरीत महानगर-संस्कृति के अनुसार मनुष्य स्वयं को संसार का सर्वप्रमुख जीव मानता है । वह प्रकृति का दोहन करता है, उसे लूटता है और बदले में पाता है प्रदूषण । हमारे पूर्वज भी प्रदूषण उत्पन्न न करने के बारे में सजग थे । ईशोपनिषद् में इसका स्पष्ट उल्लेख मिलता है ।

मौर्यकालीन भारत में वातावरण को शुद्ध और स्वच्छ रखने के नियम थे और राज्य की ओर से उनका पालन कठोरता से कराया जाता था । इनके अनुसार जंतुओं को ही नहीं वरन् पेड़-पौधों को भी संरक्षण प्राप्त था । आज भी हमारी पर्यावरण संरक्षण नीति का यही आधार है ।

आज पर्यावरण को स्वच्छ, स्वास्थ्यवर्धक और प्रदूषणरहित रखने के लिए राष्ट्रीय ही नहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी प्रयत्न किए जा रहे हैं । पर्यावरण में उपस्थित प्रदूषकों पर विश्वव्यापी चिंता की शुरुआत स्टाकहोम में, 1972 में, आयोजित मानव पर्यावरण पर अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी से हुई ।

पर्यावरण से संबंधित समस्याओं पर विश्व-स्तर पर अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण कार्यक्रम (यू.एन.ई.पी.), ‘हैबिटेट’ पर अंतरराष्ट्रीय संघटन, विश्व स्वास्थ्य संघटन पर्यावरणीय उत्प्रेरकों और कैंसरजनों से सुरक्षा के लिए अंतरराष्ट्रीय कमीशन, विश्व वन्य-पशु संघटन और अन्य ऐसे ही संघटन कार्य कर रहे हैं ।

हर वर्ष विश्व-स्तर पर ‘पर्यावरण दिवस’ मनाया जाना मनुष्य की इस चिंता को व्यक्त करने का तरीका है, जो प्रदूषण के खतरों से अपने पर्यावरण को साफ रखने के प्रति वह अनुभव करता है । वाशिंगटन में 5 मार्च, 1980 को 200 पर्यावरण विशेषज्ञ इकट्ठे हुए थे । यह सम्मेलन इस सचेतना का प्रतीक था कि विकास की योजना में पर्यावरण के संतुलन और संरक्षण का समन्वय एक गतिशील विश्व-समाज के विकास के लिए आवश्यक है ।

वर्ष 1992 के जून मास में रियोडिजेनिरो, ब्राजील, में आयोजित ‘अर्थ समिट’ पर्यावरण के प्रति विश्व-समुदाय की बढ़ती जागरूकता का ही प्रमाण है । राष्ट्रीय स्तर पर स्वीडन, जापान, सिंगापुर अमेरिका, रूस, जर्मनी और अन्य अनेक देशों में पर्यावरण संघटन स्थापित किए गए हैं जो इस समस्या पर गंभीरतापूर्वक विचार कर रहे हैं ।

अमेरिका की पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी ने बाजार में इस्तेमाल किए जानेवाले 35,000 ऐसे रसायनों की सूची बनाई है जिन्हें मानव स्वास्थ्य के लिए खतरनाक माना जाता है । इस खतरे की धीरे-धीरे होनेवाली स्वीकृति ने राज्य स्तर पर ऐसे कानून बनाने में मदद दी है जिन्होंने अपशिष्ट के गलत तरीके से निपटान को दंडनीय अपराध की श्रेणी में रख दिया है ।

ब्रिटेन में थेम्स नदी को साफ करने का अभियान कई वर्ष पूर्व शुरू किया गया था । फलस्वरूप इस नदी में सामन मछली फिर से वापस आ गई है । सुदूर पूर्व के देशों में अपशिष्टों को उपयोगी पदार्थों में परिवर्तित करने और आर्थिक विकास के लिए इस्तेमाल करने में सिंगापुर की सफलताएँ उल्लेखनीय हैं ।

वहाँ एक स्वतंत्र मंत्रालय के अतिरिक्त प्रदूषणरोधो सैल कानून के सही पालन के लिए प्रतिबद्ध और अत्यंत सक्रिय है । जापान में भी पर्यावरण संबंधी कानूनों का कठोरतापूर्वक पालन किया जाता है । उदाहरण के लिए कैडमियम का इस्तेमाल पूर्ण रूप से बंद कर दिया गया है ।

हमारे देश में भी पर्यावरण-संरक्षण पर पर्याप्त ध्यान दिया जा रहा है । इसके लिए संविधान के 48-ए अनुच्छेद में पर्यावरण-संरक्षण का प्रावधान कर दिया गया है । खानों समेत सभी प्रकार के उद्योगों के लिए उनके बहि:स्राव आदि से संबंधित मानक बनाने हेतु 1948 में भारतीय मानक संस्था स्थापित की गई । तब से कानूनों की एक श्रृंखला बन गई है जो हमारे पर्यावरण के संरक्षण और शुद्धता के प्रति हमारी सरकार की चिंता की द्योतक है ।

इन कानूनों में उल्लेखनीय हैं- कारखाना संशोधन अधिनियम 1948 (1976 में संशोधित); कीटनाशी अधिनियम, 1975 और वायु प्रदूषण, अधिनियम, 1978 । इस बारे में हमारा सबसे महत्त्वपूर्ण संघटन ‘राष्ट्रीय पर्यावरण योजना और समन्वयन की समिति’ है जो अंतरराष्ट्रीय कांग्रेस के बाद, 1972 में स्थापित की गई थी ।

इसके मुख्य उद्देश्य योजनारहित विकास और जनसंख्या विस्फोट के परिणामस्वरूप पर्यावरण संबंधी समस्याओं को खोजना और उनका हल सुझाना है । हमारे देश में भी अब प्रतिवर्ष पर्यावरण और प्रदूषण पर अथवा संबद्ध विषयों पर सैकड़ों लेख, भाषण, वृक्षारोपण कार्यक्रमों तथा संगोष्ठियों और सभाओं का आयोजन किया जाने लगा है ।

इन आयोजनों के प्रत्यक्ष लाभ न दिखते हुए भी लोगों में बहुत जागरूकता आ गई है और इसके अनेक उपयोगी परिणाम भी सामने आने लगे हैं । केंद्रीय सरकार ने स्वच्छ पर्यावरण के महत्व को समझते हुए एक स्वतंत्र पर्यावरण मंत्रालय स्थापित किया है ।

अनेक राज्य सरकारों ने भी पर्यावरण के संरक्षण के लिए मंत्रालय या विशेष समिति की स्थापना की है । कुछ विश्वविद्यालयों तथा अन्य शिक्षा संस्थाओं ने भी पर्यावरण पर शिक्षा देना आरंभ कर दिया है ।

अब प्रत्येक निर्माण परियोजना शुरू करने तथा नया उद्योग स्थापित करने से पहले पर्यावरण मंत्रालय से यह मंजूरी लेनी होती है कि उससे पर्यावरण प्रदूषित नहीं होगा । हर कारखाने को यह आश्वस्त कराना जरूरी है कि वह अपने अपशिष्ट समुचित तरीके से ठिकाने लगा रहा है ।

जनसंख्या-नियंत्रण:

प्रदूषण फैलने का एक मूलभूत कारण है जनसंख्या-विस्फोट । अतएव प्रदूषण-नियंत्रण की दिशा में पहला सकारात्मक कदम होगा जनसंख्या-नियंत्रण । जनसंख्या की वृद्धि पर अंकुश लगाए बिना प्रदूषण-नियंत्रण की समस्या पूर्ण रूप से कभी भी हल नहीं हो पाएगी ।

इस बारे में हमारे देश की स्थिति कुछ अधिक गंभीर है । हमारे देश की आबादी 87 करोड़ से भी अधिक हो गई है । इससे हमारे सब उपलब्ध साधन कम पड़ने लगे हैं और कितने ही प्रयत्न करने के बावजूद हम वांछित प्रगति नहीं कर पा रहे हैं ।

यद्यपि जनसंख्या-नियंत्रण के लिए हमारे देश तथा अन्य देशों में, सरकारी, गैर-सरकारी और निजी स्तर पर भरसक प्रयत्न किए जा रहे हैं तथापि वांछित परिणाम प्राप्त नहीं हो रहे हैं । अधिकांश देशों, विशेष रूप से विकासशील देशों की आबादी अब भी तेजी से बढ़ रही है । इसलिए हमें प्रदूषण-नियंत्रण के उपायों पर गंभीरता से विचार करना होगा ।

सागर में निवारण के उपाय:

घरेलू कचरे, सीवेज, औद्योगिक अपशिष्ट, रेडियोधर्मी व्यर्थ पदार्थ आदि को सागर में फेंकने के पीछे लोगों का मुख्य रूप से यह विचार है कि सागर अत्यंत विशाल है और उसमें पानी बहुत अधिक मात्रा में है । वास्तव में सागर की विशालता और उसमें भरे पानी की अपार मात्रा के संदर्भ में उसमें डाले जानेवाले प्रदूषकों की मात्रा बहुत कम होती है ।

फिर भी आज जवारनदमुख और तटीय सागर ही नहीं वरन् गहरे सागर भी प्रदूषित हो चुके हैं । इसका प्रमुख कारण एक भ्रांति है कि सागर के पानी आपस में तेजी से मिलते रहते हैं और उसमें डाले गए पदार्थ बहुत जल्दी ही पूरे सागर में फैल जाते हैं । पर ऐसा होता नहीं है ।

नदियों द्वारा बहाकर लाए गए हानिकारी पदार्थों की काफी अधिक मात्रा ज्वारनदमुखों अथवा अपेक्षाकृत उथले महाद्वीपीय शैल्फों में ही पड़ी रह जाती है और प्रदूषण फैलाती है । इसी प्रकार तटीय सागर में फेंके गए व्यर्थ पदार्थ वहीं पड़े रह जाते हैं ।

यदि प्रदूषकों को सागर में ऐसे स्थानों पर डाला जाए जहाँ पानी जल्दी-जल्दी आपस में मिलता हो तब वे बहुत जल्दी तनुकृत हो जाएँगे और उनकी सांद्रता इतनी कम हो जाएगी कि वे किसी भी जीव को हानि न पहुँचा सकें ।

इस बारे में आज से लगभग तीन दशक पहले न्यूयार्क बाइट (न्यूयार्क खाड़ी) में एक प्रयोग किया गया था । उस बाइट में लोहे और गंधक के तेजाब डाले गए थे । फिर पानी को जल्दी-जल्दी मिलाया गया था । कुछ समय बाद परीक्षण करने पर पानी में इन दोनों पदार्थों की सांद्रता बहुत कम पाई गई थी ।

इसी प्रकार मैक्सिको की खाड़ी में, तट से 180 किलोमीटर दूर बड़ी मात्रा में क्लोनित एलीफैटिक हाइड्रोकार्बन, कागज मिल के बहिःस्राव और अन्य औद्योगिक अपशिष्ट डाले गए । वे विषैले और घातक पदार्थ थे । आमतौर पर उन्हें नदियों में भी नहीं बहाया जाता ।

जहाँ ये पदार्थ डाले गए वहाँ पानी जल्दी-जल्दी मिलता रहता है । कुछ दिन बाद पानी में इन पदार्थों की सांद्रता हानिरहित स्तर से कम पाई गई । इस प्रकार प्रदूषकों को उपयुक्त स्थानों पर सागर में डालने से उनके हानिकारी प्रभावों से बचा जा सकता है । इस संबंध में यह कहा जा सकता है कि इन स्थानों के समुद्री जीव नष्ट हो जाएंगे । यह सही है ।

परंतु विश्व सागर में ऐसे स्थान जहाँ पानी स्वाभाविक रूप से जल्दी-जल्दी आपस में मिलता रहता है अथवा जहां उसे यंत्रों द्वारा मिलाया जा सकता है बहुत कम है और उनका फैलाव काफी सीमित है । अतएव वहाँ होनेवाले प्रभाव स्थानीय होंगे और सागर के अधिकांश क्षेत्रों पर उनका असर नहीं पड़ेगा । आवश्यकता होने पर अन्य क्षेत्रों से जीवों के बीज लाकर वहाँ डाले जा सकते हैं ।

यह सुझाया गया है कि यदि सीवेज को गहरे सागर में या जलधाराओं द्रव व्यर्थ पदार्थों को ठिकाने लगाने का उपयुक्त तरीका:

(1) अंतक्षेपण कूप,

(2) मानीटर कूप,

(3) गहराई,

(4) ताजा (पेय) जल,

(5) खारी जल,

(6) शेल,

(7) अपारगम्य चट्टान (शेल),

(8) खारी भौम जल,

(9) निपटान भंडार ।

अथवा उन स्थानों पर जहाँ पानी को यंत्रों की मदद से जोर से हिलाया जा सके; डाला जाए, तब रक्त ज्वार आने अथवा महामारी फैलने की आशंका को समाप्त किया जा सकता है । ऐसे स्थानों पर सीवेज शीघ्र ही वितरित हो जाएगा और अंतत: कार्बन डाइऑक्साइड और पानी में परिवर्तित हो जाएगा । सागर में प्राकृतिक रूप से मिलनेवाले पेट्रोलियम का भी यही परिणाम होता है ।

आज हमें ऐसी विधियाँ ज्ञात नहीं हैं कि हम अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त अन्न पैदा करते रहें, ऊर्जा पैदा करते रहें, कारखानों में सुख-सुविधा के सामान बनाते रहें और सैन्य सामग्री आदि का उत्पादन करते रहें, पर प्रदूषक उत्पन्न न होने दें ।

आज प्रदूषक हमारी प्रगति के अनचाहे बोनस हैं । वे तो उत्पन्न होते ही हैं । उन्हें समुचित ठिकाने या उन्हें पुन: उपयोगी पदार्थों में बदलने की तकनीकें भी हमें पूरी तरह मालूम नहीं हैं । परंतु हमें आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि एक-न-एक दिन हम ऐसी विधियाँ अवश्य विकसित कर लेंगे जिनसे हम प्रदूषकों के उत्पादन को न्यूनतम कर सकेंगे और साथ ही उन्हें पुन: उपयोगी पदार्थों में बदल सकेंगे ।

वह दिन आशा से पूर्व ही आ जाएगा जब हम अपने सागरों को फिर से एकदम स्वच्छ और स्वास्थ्यवर्धक बना लेंगे । हम आशावान हैं । हमारा भविष्य उज्ज्वल है ।