Read this article in Hindi to learn about how petroleum causes ocean pollution.

विश्व का सबसे पहला व्यावसायिक तेल (पेट्रोलियम) कुआं ड्रेक ने पेंसलवेनिया (संयुक्त राज्य अमेरिका) में अगस्त 1859 में खोदा था और उसके दो वर्ष बाद ही, 1861 में, पेट्रोलियम की पहली खेप, जलपोत द्वारा ब्रिटेन को भेज दी गई थी ।

उस समय से लेकर आज तक पेट्रोलियम का अधिकांश भाग जल-जहाजों द्वारा ही दूर देशों को भेजा जाता है और जब तक पेट्रोलियम की माँग बनी रहेगी, ऐसा ही होता रहेगा । पहली बार पेट्रोलियम को लकड़ी की बैरलों में भरकर, साधारण जहाज से, भेजा गया था ।

वे बैरल बुरी तरह से लीक कर रही थीं और उनमें से गिरनेवाले तेल के कारण आग लगने का खतरा पैदा हो गया था । उस समय से अब तक पेट्रोलियम ढोने की तकनीकों में बहुत अधिक सुधार हुआ है । अब अत्यधिक आधुनिक टैंकरों में, जिनमें ताप, दाब-नियंत्रक स्वचालित उपकरण लगे होते हैं और तेल भरने और निकालने की बहुत सुचारु व्यवस्था होती है, तेल ढोया जाता है, पर फिर भी तेल रिस जाने की समस्या बनी हुई है ।

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आज सागर पर से 1,000 से भी अधिक किस्मों के अशोधित (क्रूड) तेल ढोए जाते हैं । उसकी मात्रा सागर पर से ढोए जानेवाले कुल माल की 55 प्रतिशत से भी अधिक है । ऐसा करते समय रिस जाने से ही तेल की सबसे अधिक मात्रा (ढोए जानेवाले कुल पेट्रोलियम की लगभग 0.1 प्रतिशत) सागर में गिर जाती है ।

खाड़ी युद्ध के दौरान तेल के कुंओं पर जानबूझकर की गई बमबारी जैसी घटनाओं को छोड़कर, वह ही मुख्य रूप से सागर को प्रदूषित करती है । वैसे सागर में तेल हमेशा से मौजूद रहा है । वह सागर के गर्भ में स्थित तेल के स्रोतों से रिसता रहता है ।

यद्यपि ऐसे स्रोतों की संख्या काफी अधिक है पर उनसे सागर में मिलनेवाले तेल की मात्रा मानव-जन्य स्रोतों से सागर में पहुँचनेवाले तेल के संदर्भ में बहुत कम है । खनिज तेल (पेट्रोलियम) से होनेवाला सागरीय प्रदूषण आधुनिक घटना है । विचित्र प्रतीत होते हुए भी यह सत्य है कि आज से लगभग 70 वर्ष पहले जब न्यूयार्क और फिलाडेलफिया के पायलटों ने सागर पर तिरते हुए पेट्रोलियम के बड़े-बड़े धब्बों के बारे में लोगों को बताया था तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ था ।

कुछ लोगों ने उन्हें ‘सीवर ग्रीज’ बताया और कुछ ने कहा कि वह पेट्रोलियम जहाजों से आया होगा । उस समय लोग यह अनुमान भी नहीं लगा सकते थे कि पेट्रोलियम से भी सागर प्रदूषित हो सकता है, जबकि आज सागर प्रदूषण का सबसे बड़ा और व्यापक कारक पेट्रोलियम ही है ।

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आज तटीय सागर में जीव-जंतुओं को सबसे अधिक हानि पेट्रोलियम से ही पहुँच रही है और पेट्रोलियम ही सबसे अधिक समय तक सागर में रहनेवाला प्रदूषक है ।

तटीय सागरों में स्थित कुंओं से पेट्रोलियम निकालते समय वह सागर पर गिर जाता है ।

साथ ही अनेक बार अपतटीय कुंओं में दुर्घटनाएँ भी हो जाती हैं । उनमें भी पेट्रोलियम भारी मात्रा में सागर पर बिखर जाता है । पर इस प्रकार बिखरनेवाले तेल की मात्रा टैंकरों से रिस जानेवाले या उनकी दुर्घटनाओं के फलस्वरूप बिखर जानेवाले तेल की तुलना में बहुत कम होती है ।

पेट्रोलियम यौगिक नहीं, मिश्रण है । इसका अर्थ यह है कि उसके रचक न तो सदैव एक जैसे रहते हैं और न ही उनकी मात्रा समान होती है । विभिन्न स्थानों पर पाए जानेवाले पेट्रोलियम के रचक अलग-अलग होते हैं । उनमें अपद्रव्य भी अलग-अलग होते हैं ।

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वैसे पेट्रोलियम मुख्य रूप से एलिफेटिक और ऐरोमैटिक हाइड्रोकार्बनों का मिश्रण है । उसमें साइक्लोपैराफीन पैराफीन आदि अनेक रचक भी होते हैं । यद्यपि उसमें हेटरोसाइक्लिक और असंतृप्त यौगिकों की भिन्न-भिन्न मात्राएँ होती हैं, पर सीधी श्रृंखलावाले संतृप्त हाइड्रोकार्बन अधिक होते हैं । किसी-किसी जगह के पेट्रोलियम में गंधक के रचक भी होते हैं ।

जब पेट्रोलियम जमीन में से निकलता है तब उसमें पानी और कीचड़ आदि भी मिले रहते हैं और वह गाढ़े हरे रंग का तरल होता है । इस्तेमाल करने से पहले उसमें से न केवल मिट्टी और पानी को अलग करना होता है वरन् आंशिक आसवन विधि से विभिन्न रचकों को बिलगाना भी पड़ता है ।

इससे ईंधन गैस, वायुयान का पेट्रोल, मोटर वाहनों का पेट्रोल, डीजल ऑयल, मिट्टी का तेल, पैराफीन (मोम) आदि मिलते हैं । इन उत्पादों को अधिक सुचारु बनाने के लिए इनमें ट्रेटाइथिल लेड जैसे रसायन मिलाए जाते हैं । इसलिए इन उत्पादों के जलने से ये रसायन भी मुक्त होते हैं और अनेक बार पवनों के साथ उड़कर सागर में जा पहुँचते हैं ।

पेट्रोलियम के हाइड्रोकार्बन सागर को प्रदूषित करते हैं । वैसे सागर में हाइड्रोकार्बन केवल पेट्रोलियम से ही नहीं आते वरन् समुद्री पौधों और जंतुओं के प्राकृतिक क्षय से भी आते हैं । उदाहरण के तौर पर केल्प को ही लीजिए ।

केल्प (नेरेओसिस्टिस और मैक्रोसिस्टिस) कत्थई रंग का शैवाल है जो समुद्री शैवालों में सबसे बड़ा होता है । यह समुद्री वनस्पति का प्रतिनिधित्व करता है । इसमें हाइड्रोकार्बन की मात्रा 0.03 प्रतिशत होती है । वैज्ञानिकों का मत है कि केल्प का वार्षिक प्राथमिक उत्पादन 50,00,00,00,000 टन है ।

इस आधार पर यह अनुमान लगाना आसान है कि सागर को प्रतिवर्ष 1,00,00,000 टन पादप हाइड्रोकार्बन मिलते हैं । हाइड्रोकार्बनों की यह मात्रा लगभग उतनी ही है जितनी सागर में हर वर्ष मिलनेवाली पेट्रोलियम की मात्रा ।

यद्यपि जीव-जंतुओं के क्षय के फलस्वरूप सागर में मिलनेवाले हाइड्रोकार्बनों की मात्रा उतनी ही है जितनी विभिन्न स्रोतों से प्राप्त होनेवाले पेट्रोलियम की, परंतु दोनों के समुद्री जीव-जंतुओं पर प्रभावों में काफी अंतर है । इसका मुख्य कारण यह है कि जीव-जंतुओं के क्षय से उत्पन्न हाइड्रोकार्बन विश्व- भर के सागर में फैलते हैं जबकि पेट्रोलियम हाइड्रोकार्बन सागर के थोड़े से क्षेत्र में ही फैलते हैं । ये क्षेत्र अकसर टैंकरों के मार्ग के आसपास होते है । वही टैंकरों में से पेट्रोलियम रिसता है, वही टैंकरों की धोवन फेंकी जाती है और वही आमतौर से टैंकरों के साथ दुर्घटनाएँ होती हैं ।

एक बार पानी पर गिर जाने के बाद पेट्रोलियम की परत पर निम्न भौतिक और जैव क्रियाएँ होती हैं:

(1) चिकनी परत बनना,

(2) पेट्रोलियम के अंश का पानी में घुल जाना,

(3) वाष्पन,

(4) बहुलीकरण (पॉलीमराइजेशन),

(5) इमलशीफिकेशन,

(6) तेल इमलशनों में पानी का समावेश,

(7) जल इमलशनों में पेट्रोलियम का समावेश,

(8) प्रकाश ऑक्सीकरण,

(9) जीवाणुओं का आक्रमण,

(10) अवसादन,

(11) प्लांक्टनों द्वारा पेट्रोलियम का अंतर्ग्रहण और टार गोलियों का निर्माण ।

पानी पर पेट्रोलियम के गिरते ही उसकी पतली परत के निर्माण, उड़नशील रचकों के वाष्पन और हाइड्रोकार्बन के पानी में घुल जाने की क्रियाएँ आरंभ हो जाती हैं । उनके फलस्वरूप चंद दिनों में ही पेट्रोलियम की 50 प्रतिशत मात्रा समाप्त हो जाती है ।

अगर गिरनेवाला पदार्थ पेट्रोल या मिट्टी का तेल है तब वह कुछ दिन पश्चात् पूर्ण रूप से समाप्त हो जाता है । पेट्रोलियम के इमलशीकरण और परिणामस्वरूप उसके जैवविघटन को दो कारक प्रभावित करते हैं । यह हैं सागर में उठनेवाली लहरों की क्रिया और पेट्रोलियम की प्रकृति ।

अगर समुद्र के शांत पानी पर एकाएक ऐसा क्रूड (अशोधित पेट्रोलियम) गिर जाता है जिसमें भारी एल्फाटी रचक होते हैं तब पानी में तेल का इमलशन बन जाता है । इस प्रकार के इमलशन बैक्टीरियाओं द्वारा धीरे-धीरे विघटित होते हैं क्योंकि इनका तेल-पानी पृष्ठ अनुपात कम होता है ।

इस बारे में स्थल विशेष पर मौजूद सूक्ष्मजीव और क्रूड में उनके लिए उपलब्ध पोषक पदार्थ महत्त्वपूर्ण होते हैं । आमतौर से टैंकरों के यात्रा-मार्गों में, जहाँ पेट्रोलियम अकसर गिरता ही रहता है, विशेष रूप से ऐसे हाइड्रोकार्बनों क्लास्टिक बैक्टीरिया और कवक मौजूद होते हैं जिनमें इमलशीकरण के गुण होते हैं ।

परंतु ये बैक्टीरिया और कवक उन्मुक्त सागर में अपेक्षाकृत कम पाए जाते हैं । इन सूक्ष्मजीवों की वृद्धि कदाचित् फास्फोरस और नाइट्रोजन की उपलब्धि पर निर्भर होती है । यद्यपि पानी पर गिरनेवाला अधिकांश पेट्रोलियम सूक्ष्मजीवों द्वारा विघटित कर दिया जाता है परंतु विघटन के लिए ऑक्सीजन की पर्याप्त मात्रा में उपलब्धि और ताप का ऊँचा होना भी आवश्यक हैं ।

यदि पानी का ताप 10°से. से कम होता है, जैसा कि आर्कटिक सागर में रहता है, तब बैक्टीरियाओं द्वारा विघटन की दर बहुत धीमी हो जाती है । अतएव ऐसे क्षेत्रों में सागर पर पेट्रोलियम की परत 50 वर्ष जैसे लंबे समय तक बनी रह सकती है । सागर को पेट्रोलियम प्रदूषण से मुक्त करने की उक्त प्राकृतिक व्यवस्था काफी सुचारु होती है । यदि ऐसा नहीं होता तो उन स्थलों पर जहाँ वायु, सागर और थल मिलते हैं, पेट्रोलियम काफी मात्रा में एकत्रित रहता ।

परंतु यह व्यवस्था टैंकरों की दुर्घटना से बिखर जानेवाले पेट्रोलियम अथवा खाड़ी-युद्ध जैसी घटनाओं में, जानबूझकर बिखेरे गए, पेट्रोलियम को दूर करने के लिए पर्याप्त नहीं है । इसीलिए ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के बाद काफी लंबे अरसे तक पेट्रोलियम सागर को प्रदूषित करता रहता है ।

सागर में पेट्रोलियम प्रदूषण के दौरान, हलके रचकों के उड़ जाने के बाद टार बच रहता है । यह पेट्रोलियम का सबसे कम उड़नशील अंश है । इसलिए यह सागर में सबसे अधिक समय तक रहता है ।

धीरे-धीरे टार की बच्चों के खेलनेवाले काँच के कंचों जैसी गोलियाँ बन जाती हैं जो जल-धाराओं के साथ अथवा पवनों की मदद से, बहकर तटों की ओर आ जाती है । हमारे देश के पश्चिमी तट के दक्षिणी भाग पर, जिसके निकट से टैंकर गुजरते हैं, टार की ऐसी गोलियाँ बड़ी संख्या में आती रहती हैं ।

इनसे तटीय जीव-जुत तो प्रभवित होते ही हैं, तटीय पर्यटन स्थल भी गंदे हो जाते हैं । पेट्रोलियम के भारी अंशों का कुछ भाग पानी में डूब भी जाता है । तली पर पहुँचने पर यह वहाँ की जमावटों को भी प्रदूषित कर देता है । शीघ्र ही वह जमावटों के निचले भागों तक रिस जाता है । वहाँ वह काफी लंबे समय तक रहता है ।

समुद्री जीवों पर प्रभाव:

पेट्रोलियम की जैवरासायनिक ऑक्सीजन माँग काफी अधिक होती है । इससे उस पानी में, जिस पर पेट्रोलियम गिर जाता है, ऑक्सीजन की मात्रा काफी कम हो जाती है । पानी में घुली ऑक्सीजन समुद्री जीवों के लिए अत्यंत आवश्यक होती है ।

उसके बिना अधिकांश वंशों और प्रजातियों के समुद्री जीव जीवित ही नहीं रह सकते । सागर के अनेक जीव भारी धातुओं और पीडकनाशियों की भाँति पेट्रोलियम के रचकों को भी अपने शरीर में संचित कर लेते हैं । इन्हें भी वे, अपने इर्द-गिर्द के पानी की तुलना में कई सौ हजार गुनी मात्रा में सांद्रित कर लेते हैं ।

समुद्री जंतुओं पर पेट्रोलियम के शीघ्र और दीर्घगामी, दोनों तरह के, कुप्रभाव पड़ते हैं । टैंकरों की दुर्घटना आदि के तुरंत बाद जब पेट्रोलियम बड़ी मात्रा में सागर पर बिखर जाता है, तब जीवों पर लघु अवधि के प्रभाव स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं ।

ये आमतौर से घातक होते हैं जिनके फलस्वरूप जीवों की बड़ी संख्या में मृत्यु हो जाती है । इन जीवों में समुद्री पक्षी भी बड़ी संख्या में शामिल होते हैं । पेट्रोलियम प्रदूषण के दीर्घगामी प्रभावों में मछलियों के ऐसे अनेक रोग शामिल किए जा सकते हैं, जो महामारी की भाँति फैलते हैं और जो शुद्ध समुद्री जल में रहनेवाली मछलियों को नहीं होते ।

अनेक स्थलों पर जहाँ पेट्रोलियम प्रदूषण गंभीर समस्या बन गया स्किवड जैसे बड़े अकशेरुकी जीव लुप्त होते जा रहे हैं । साथ ही अन्य अनेक जीवों में कैंसर, ल्यूकेमिया, त्वचा-व्रण, पूँछों में विकृति और आनुवंशिक अव्यवस्था जैसी व्याधियों का कारण भी पेट्रोलियम प्रदूषण ही समझा जाता है ।

इनके अतिरिक्त पेट्रोलियम प्रदूषण के कुछ अन्य विचित्र पर नाजुक प्रभाव भी देखने को मिले हैं । ऐसी अनेक क्रियाएं जो समुद्री जीवों के जीवन के लिए आवश्यक हैं सागर के पानी में पेट्रोलियम रचकों की अत्यंत सूक्ष्म मात्रा में उपस्थिति के फलस्वरूप प्रभावित हो जाती हैं ।

इन क्रियाओं में किसी जीवधारी के नर-मादा का एक-दूसरे की ओर आकर्षित होना, अपने शत्रुओं से रक्षा करना, अपना भोजन ढूँढ़ना जैसी क्रियाएँ भी शामिल होती हैं ।