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विश्व राजनीति में पर्यावरण तथा प्राकृतिक संसाधन (Environment and Natural Resources in World Politics):

विश्व राजनीति के विद्वानों ने पर्यावरण की समस्या तथा आतंकवाद को विश्व की दो प्रमुख चुनौतियों की संज्ञा दी है । पर्यावरण की समस्या बहुआयामी है । इसके अंतर्गत पर्यावरण प्रदूषण के साथ-साथ प्राकृतिक संसाधनों की कमी व जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याएँ भी शामिल हैं ।

पर्यावरण की समस्या का स्वरूप ऐसा है कि उसके कारण व परिणाम वैश्विक है । इसका समाधान केवल एक देश के प्रयासों द्वारा नहीं किया जा सकता । बढ़ती जनसंख्या व विकास की गलत रणनीति के कारण सम्पूर्ण विश्व में प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ता जा रहा है । यदि इस समस्या का समय रहते समाधान नहीं किया गया तो मानव सुरक्षा के साथ-साथ उसके अस्तित्व का संकट भी उपस्थित हो सकता है ।

पर्यावरण की समस्या (Environmental Problem):

पर्यावरण की समस्या का सम्बन्ध प्राकृतिक संसाधनों की कमी उनका प्रदूषण तथा पारिस्थितिकीय असंतुलन से है । पारिस्थितिकी (Ecology) का तात्पर्य पृथ्वी तथा उसके पर्यावरण में जीवों तथा गैर-जीवित तत्वों के मध्य सम्बन्ध से है । पारिस्थितिकीय असंतुलन तब उत्पन्न होता है जब इस सम्बन्ध का प्राकृतिक स्वरूप गड़बड़ा जाता है ।

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व्यक्ति एवं अन्य जीवों तथा उसके प्राकृतिक पर्यावरण संसाधनों जैसे- भूमि, वायु, जल आदि के बीच एक निश्चित संतुलन बना रहना आवश्यक है । लेकिन बढ़ती जनसंख्या तथा विकास की गलत नीतियों के तहत् यह संतुलन खराब हो जाता है तथा पारिस्थितिकीय असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है । इसका परिणाम हमारे सामने प्राकृतिक संसाधनों की कमी तथा पर्यावरण प्रदूषण के रूप में दिखाई देता है ।

जल और वायु प्रदूषण मानव स्वास्थ्य के साथ-साथ उसके विकास को प्रभावित करते हैं । वर्तमान में पर्यावरण प्रदूषण के कारण पृथ्वी और उसके परिवेश का तापमान बढ़ रहा है जिसने जलवायु परिवर्तन की समस्या को जन्म दिया है । जलवायु परिवर्तन वर्तमान में विश्व की प्रमुख पर्यावरण चुनौती है ।

वैश्विक पर्यावरण की चुनौती के आधारभूत कारण: (Causes of Challenge Regarding the Environment):

1. जनसंख्या में वृद्धि (Increase in Population):

वर्तमान में विश्व की जनसंख्या 7 बिलियन से भी अधिक है । गत एक शताब्दी में विश्व जनसंख्या में स्वास्थ्य सुविधाओं के कारण जहाँ मृत्यु दर कम हुई है, वहीं जनसंख्या में तेजी से वृद्धि हुई है । यह जनसंख्या वृद्धि भारत व अन्य विकासशील देशों में अधिक हुई है ।

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दूसरी तरफ प्राकृतिक संसाधन जैसे- भूमि वन जल आदि सीमित हैं । अत: बढ़ती जनसंख्या के कारण प्राकृतिक संसाधनों पर निरन्तर दबाव बढ़ रहा है । प्राकृतिक संसाधनों की कमी के साथ-साथ मानव गतिविधियों के कारण जल तथा वायु प्रदूषण भी बढ़ रहा है ।

भूजल का स्तर गिरता जा रहा है तथा शहरी क्षेत्रों विशेषकर महानगरों में वायु प्रदूषण बढ़ रहा है । अत: जनसंख्या की वृद्धि पर्यावरण संकट का एक आधारभूत कारण है ।

2. विकास की दोषपूर्ण रणनीति (Faulty Strategy of Development):

गत एक शताब्दी में विश्व में आर्थिक विकास की जिस रणनीति को अपनाया गया है वह दोषपूर्ण रही है, क्योंकि वह प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन पर आधारित है । वनों तथा कृषि भूमि का क्षेत्र कम हो रहा है, क्योंकि पक्की सड़कों आवासों तथा औद्योगिक प्रतिष्ठानों की संख्या बढ़ रही है ।

ADVERTISEMENTS:

इस विकास नीति में कहीं पर भी प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षित करने के उपाय नहीं अपनाये गये है । औद्योगिक गतिविधियों के कारण जल प्रदूषण वायु प्रदूषण तथा समुद्र का प्रदूषण बढ़ा है । इसके साथ ही विश्व के तापमान में गत एक शताब्दी में 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि हुई है । इसका परिणाम जलवायु परिवर्तन के रूप में देखने में आ रहा है । अत: वर्तमान में जीवन्त विकास की अवधारणा पर बल दिया जा रहा है ।

पर्यावरण के रक्षा की आवश्यकता (Necessities to Protect the Environment):

पर्यावरण प्रदूषण तथा पारिस्थितिकीय असंतुलन के नकारात्मक प्रभाव मानव समाज के विकास व उसके अस्तित्व के लिए एक खतरा बन गये हैं ।

निम्नलिखित कारणों से हमें पर्यावरण की रक्षा करना आवश्यक हो गया है:

1. कृषि भूमि की कमी तथा खाद्यान्न संकट (Lack of Agricultural Land and Food Crisis):

विकास की प्रक्रिया में कृषि भूमि को बदलकर उद्योगों तथा अन्य विकास कार्यों में प्रयोग किया गया है । जिससे कृषि भूमि में निरन्तर कमी हो रही है तथा खाद्यान्नों के उत्पादन के लिए जनसंख्या के अनुपात में भूमि उपलब्ध नहीं है ।

यद्यपि आधुनिक तकनीक द्वारा कृषि की उत्पादकता बढ़ाने का प्रयास किया गया है, लेकिन उसकी एक सीमा है तथा अन्तत: मानव स्वास्थ्य तथा भूमि व जल की उपलब्धता पर उसके नकारात्मक परिणाम देखने को आये हैं । समुद्री प्रदूषण के कारण मछली तथा अन्य समुद्री जीवों पर विपरीत प्रभाव पड़ा है । उल्लेखनीय है कि समुद्री जीव तथा मछलियाँ अनेक देशों में खाद्यान्न का मुख्य हिस्सा हैं ।

2. मानव स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव (Negative Impact on Human Health):

जल तथा वायु प्रदूषण विश्व के सभी देशों की प्रमुख समस्या है । शुद्ध पेयजल की उपलब्धि कम हो रही है तथा वायु प्रदूषण अनेक बीमारियों को जन्म दे रहा है । इसके साथ ही समुद्री जल के प्रदूषण की समस्या भी बढ़ गयी है तथा समुद्री जीवों व मानव के लिए यह प्रदूषण हानिकारक है । औद्योगिक तथा अन्य मानव गतिविधियों में क्लोरो-फ्लोरो कार्बन के अत्यधिक प्रयोग से पृथ्वी के ऊपरी वातावरण में उपलब्ध ओजोन गैस की परत का क्षरण हो रहा है ।

यह गैस पृथ्वी के ऊपर 20 से 30 किलोमीटर के वातावरण में पायी जाती है । वैज्ञानिकों ने अंटार्कटिका महाद्वीप में एक ओजोन छिद्र की खोज भी की है । ओजोन गैस की परत सूरज की हानिकारक पराबैंगनी किरणों से हमारी रक्षा करती है । ओजोन छिद्र के कारण यह पराबैंगनी किरणें व्यक्ति के स्वास्थ्य व कृषि फसलों पर खेपरीत प्रभाव डालती हैं । पराबैंगनी किरणों के कारण जहाँ मनुष्यों में स्किन कैंसर की बीमारी होती है, वहीं फसलों की प्रतिरोधक क्षमता कभ होती है ।

3. जलवायु परिवर्तन (Climate Change):

पर्यावरण प्रदूषण विशेषकर ग्रीन हाउस गैसों के बढ़ने के कारण विश्व के तापमान में जो वृद्धि हो रही है उससे जलवायु चक्र भी प्रभावित हो रहा है । जलवायु परिवर्तन के कारण जहाँ तटीय क्षेत्रों में पानी का स्तर बढ़ रहा है, वहीं बाढ़, सूखा जैसी प्राकृतिक अदाओं की संभावना भी बढ़ गयी है । जलवायु परिवर्तन के संभावित नकारात्मक परिणामों के देखते हुए वर्तमान में यह पर्यावरण की सबसे बड़ी चुनौती है ।

4. प्राकृतिक आपदाओं में बढ़ोत्तरी (Increases in Natural Calamities):

पर्यावरण प्रदूषण के कारण पारिस्थितिकीय के असंतुलन की समस्या उत्पन्न होती है । यह असंतुलन प्राकृतिक आपदाओं का एक प्रमुख कारण है । आज विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में समुद्री चक्रवात, अतिवृष्टि, भूस्खलन, सूखा तथा अनियमित वर्षा के कारण मानव जीवन पर विपरीत प्रभाव पड़ रहे हैं । ये प्राकृतिक आपदाएं- विश्व में जन-धन की हानि के लिए उत्तरदायी हैं ।

5. विकास पर नकारात्मक प्रभाव (Negative Impact on Development):

मानव विकास प्रकृतिक संसाधनों के समुचित उपयोग पर निर्भर करता है । लेकिन पर्यावरण प्रदूषण तथा संसाधनों के अत्यधिक दोहन के कारण जहाँ एक और इन संसाधनों में कमी आयी है, वहीं शेष संसाधन प्रदूषण के कारण प्रयोग हेतु अनुपयुक्त हो रहे हैं । जब इन संसाधनों के बचाव का प्रयास किय जाता है तो विकास की गति धीमी होती है ।

अत: आवश्यकता इस बात की है कि प्राकृतिक संसाधनों को बचाते हुए विकास के वैकल्पिक उपायों पर विचार किया जाये । ऐसे विकास को हरित विकास अथवा ग्रीन अर्थव्यवस्था की संज्ञा दी गयी है । विकास का यह मार्ग उचित तकनीक के अभाव में अत्यधिक महंगा व धीमा है ।

उक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि पर्यावरण का प्रदूषण मानव जीवन तथा विकास पर विपरीत प्रभाव डालता है । चूंकि यह प्रभाव एक व्यापक रूप धारण कर रहा है, अत: विश्व समुदाय द्वारा पर्यावरण के सरोकारों पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है ।

क्या है जीवन्त विकास? (Sustainable Development):

विश्व में विकास की वर्तमान रणनीति प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा के बजाए उनके अत्यधिक दोहन पर आधारित है । जबकि दूसरी ओर प्राकृतिक संसाधन सीमित हैं । यदि समय रहते उनका संरक्षण नहीं किया गया तो विकास की सम्पूर्ण प्रक्रिया बाधित हो जायेगी ।

इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा नियुक्त ब्रन्ट लैंड आयोग ने 1987 में जीवन्त विकास की अवधारणा का प्रतिपादन जीवन्त विकास का तात्पर्य ऐसे विकास से है, जिसमें प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग इस प्रकार किया जायेगा कि वे भावी पीढ़ियों के लिए भी सुरक्षित रह सकेंगे ।

दूसरे शब्दों में प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करते हुए सामाजिक और आर्थिक विकास ही जीवन्त विकास है । वर्तमान में विश्व समुदाय द्वारा जीवन्त विकास की अवधारणा को अपनाये जाने पर बल दिया जा रहा है । ब्राजील के शहर रियो-डी-जिनारियो में 1992 में आयोजित पृथ्वी सम्मेलन में जीवन्त विकास की प्रक्रिया को अपनाने पर विशेष बल दिया गया था ।

जीवन्त विकास की धारणा को अपना कर जो विकास की प्रक्रिया चलती है उसे हरित विकास अथवा ग्रीन अर्थव्यवस्था भी कहते है । वर्तमान में भारत सहित सभी देशों ने जीवन्त विकास की अवधारणा को अपनाने की प्रक्रिया शुरू कर दी है ।

पर्यावरण के सरोकार विश्व राजनीति (Concerns of Environment Covered in World Politics):

सामान्यतया पर्यावरण तथा उसके संरक्षण को एक तकनीकी व वैज्ञानिक विषय माना जाता है । फिर यह प्रश्न उठता है कि पर्यावरण के सरोकारों को विश्व राजनीति अथवा राजनीति विज्ञान में क्यों शामिल किया गया है ? वास्तविकता यह है कि पर्यावरण एक तकनीकि समस्या अवश्य है, लेकिन इसके कारण और इसके नकारात्मक प्रभावों को रोकने के उपायों में सामाजिक तथा राजनीतिक तत्व महत्त्वपूर्ण हैं ।

संक्षेप में निम्नलिखित दो कारणों से पर्यावरण सरोकारों को राजनीति विज्ञान में शामिल किया जाता है:

1. पर्यावरण रक्षा हेतु राज्य के कानूनों की आवश्यकता (State Laws Need to Protect the Environment):

पर्यावरण का प्रदूषण व विघटन मानव गतिविधियों का परिणाम है । यदि पर्यावरण का संरक्षण किया जाना है तो मनुष्य की आर्थिक और अन्य गतिविधियों पर नियन्त्रण लगाया जाना आवश्यक है । अत: पर्यावरण के संरक्षण में कानून की विशेष आवश्यकता है ।

इन बाध्यकारी कानूनों का निर्माण राज्य द्वारा किया जाता है । पुन: पर्यावरण का क्षरण और उसका निदान राज्य की विकास नीति पर भी निर्भर है । अत: विकास की समुचित नीति के लिए राज्य को पहल करना आवश्यक है । इसी कारण राजनीति विज्ञान में पर्यावरण सरोकारों को शामिल किया गया है ।

2. पर्यावरण संरक्षण में राष्ट्रों के मध्य सहयोग की आवश्यकता (Need for Cooperation among Nations in Environmental Protection):

पर्यावरण का संकट एक वैश्विक चुनौती है । इसके कारण व प्रभाव वैश्विक हैं । पर्यावरण प्रदूषण तथा जलवायु परिवर्तन के प्रभाव राष्ट्रों की सीमा नहीं देखते । अत: इस समस्या के समाधान के लिए राष्ट्रों के मध्य विकास मुद्दों की आम सहमति के साथ-साथ सक्रिय सहयोग की भी आवश्यकता है ।

इसीलिए पर्यावरण के सरोकार विश्व राजनीति में शामिल किये गये हैं । उदाहरण के लिए जलवायु परिवर्तन की समस्या के समाधान के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वाधान में जो वार्ताएं चल रही हैं उनमें विश्व के सभी राष्ट्र भाग ले रहे हैं तथा उनके सहयोग पर ही इस समस्या का प्रभावी समाधान सम्भव है ।

पर्यावरण की रक्षा हेतु वैश्विक प्रयास (Global Efforts to Protect the Environment):

पर्यावरण संरक्षण बीसवीं सदी के सातवें दशक से ही विश्व सरोकारों में शामिल हो गया था ।

संयुक्त राष्ट्र संघ ने विश्व पर्यावरण के संरक्षण हेतु निम्नलिखित प्रमुख प्रयास किये हैं:

1. स्टॉकहोम पर्यावरण सम्मेलन (Stockholm Environment Conference), 1972 :

प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरण सम्मेलन 5 से 16 जून 1972 में स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम में आयोजित किया गया था । इस सम्मेलन में मानवीय पर्यावरण पर एक घोषणा को स्वीकार किया गया था जिसमें पर्यावरण संरक्षण के लिए 26 सिद्धान्तों का उल्लेख किया गया है । इन सिद्धान्तों में प्रमुख हैं-विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों पर रोक लगाना तथा प्राकृतिक संसाधनों को भविष्य के लिए सुरक्षित रखना ।

इस सम्मेलन की एक उपलब्धि यह भी थी कि 1972 में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की स्थापना की गयी जो वर्तमान में स्थायी संस्था के रूप में कार्यरत है । चूंकि यह सम्मेलन 5 जून को आयोजित किया गया था इसीलिए संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में स्वीकार किया गया है ।

उल्लेखनीय है कि 1968 में इटली की राजधानी रोम में पर्यावरण संरक्षण की दिशा में क्लब ऑफ रोम की स्थापना करके एक नई पहल की थी । क्लब ऑफ रोम ने एक पुस्तक का प्रकाशन किया था जिसका शीर्षक था-लिमिट टू ग्रोथ । इस पुस्तक का निष्कर्ष यह है कि प्राकृतिक संसाधनों के सीमित होने के कारण विकास की भी एक सीमा है । इनका मानना था कि यदि विकास की यही प्रक्रिया चलती रही तो पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधन अधिक समय तक नहीं रह पायेंगे ।

2. पर्यावरण व विकास पर विश्व आयोग (World Commission on Environment and Development):

1983 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने पर्यावरण और विकास के अन्त: सम्बन्धों में विचार करने के लिए एक विश्व आयोग की स्थापना की थी जिसे ब्रन्ट लैंड आयोग के नाम से भी जाना जाता है । क्योंकि इसकी अध्यक्ष स्वीडन की राजनेता हर्लेन ब्रन्ट लैंड थी ।

इस आयोग ने 1987 में प्रकाशित अपनी रिपोर्ट-अवर कामन फ्यूचर में सबसे पहले जीवन्त विकास (Sustainable Development) की धारणा का प्रतिपादन किया था । जीवन्त विकास का तात्पर्य है कि विकास की प्रक्रिया में हमें प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग इस प्रकार करना है कि वह आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए भी सुरक्षित रह सके ।

इस आयोग की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि यह है कि इसने विकास की प्रक्रिया में पर्यावरण के सरोकारों को शामिल कर दिया । पर्यावरण के संरक्षण के बिना विकास की कोई भी प्रक्रिया टिकाऊ नहीं हो सकती है । वर्तमान में जीवन्त विकास को विकास की एक वैकल्पिक रणनीति के रूप में मान्यता प्राप्त हो चुकी है ।

3. पृथ्वी सम्मेलन (Earth Conference):

संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वाधान में दूसरा अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन जून 2012 में ब्राजील के शहर रियो-डी-जिनारियो में आयोजित किया गया, जिसे पृथ्वी सम्मेलन के नाम से भी जानते हैं । इस सम्मेलन की मुख्य विषय वस्तु थी-पर्यावरण और विकास । सम्मेलन में 172 देशों ने भाग लिया ।

इस सम्मेलन की मुख्य उपलब्धियाँ निम्नलिखित हैं:

(अ) एजेण्डा-21 (Agenda-21):

इस दस्तावेज में 21वीं शताब्दी में पर्यावरण की रक्षा के लिए एक फ्रेमवर्क प्रस्तुत किया गया है । वास्तव में यह जीवन्त विकास का एक व्यापक कार्यक्रम प्रस्तुत करता है ।

(ब) रियो धोषणा (Rio Dishon):

इसमें पर्यावरण की रक्षा के लिए जीवन्त विकास की प्रक्रिया को अपनाने की बात कही गयी है । इस घोषणा में शामिल 27 सिद्धान्तों की मुख्य बातें हैं- जीवन्त विकास के प्रति जागरूकता को बढ़ाना विकास प्रक्रिया में पर्यावरण के सरोकारों को शामिल करना पर्यावरण संरक्षण में नागरिकों की भागीदारी को बढ़ाना पर्यावरण की रक्षा के लिए राज्यों द्वारा प्रभावी कानूनों को अपनाना वनों में निवास कर रहे विभिन्न जनजाति समुदायों के परम्परागत हितों की रक्षा करना आदि ।

इसी घोषणा में पर्यावरण की रक्षा के लिए ‘सामान्य लेकिन देशों की क्षमता के अनुसार विभेदीकृत उत्तरदायित्व’ के सिद्धान्त को स्वीकार किया गया है । इसका तात्पर्य है कि पर्यावरण संरक्षण में विकसित देशों की जिम्मेदारी विकासशील देशों की तुलना में अधिक होगी, क्योंकि वे ऐतिहासिक दृष्टि से पर्यावरण प्रदूषण के लिए अधिक उत्तरदायी हैं । ये देश विकासशील देशों की तुलना में दायित्व निर्वाहन हेतु अधिक सक्षम भी हैं ।

(स) वनों का संरक्षण (Protection of Forests):

पृथ्वी सम्मेलन में वनों के संरक्षण के लिये एक अलग प्रस्ताव पारित किया गया, जिसमें वनों में निवास कर रहे वहीं के मूलनिवासियों के अधिकारों की रक्षा करने तथा वनों की रक्षा के लिए प्रभावी उपाय अपनाने की बात कही गयी है ।

(द) जैव विविधता संधि (Biodiversity Treaty):

इस सम्मेलन में दो बाध्यकारी कानूनी दस्तावेज भी स्वीकृत किये गये हैं । इनमें से एक जैव विविधता के संरक्षण के लिए है, जिसमें पेड़-पौधों और जीव-जन्तुओं की विभिन्न लुप्तप्राय प्रजातियों की रक्षा का संकल्प लिया गया है ।

जैव विविधता क्या है ? (What is Biodiversity?):

जैव विविधता का तात्पर्य पृथ्वी के पर्यावरण में पाये जाने वाले जीव-जन्तुओं व वनस्पति प्रजातियों की विविधता की मात्रा से है । इन प्रजातियों की विविधता जितनी अधिक होगी पारिस्थितिकी संतुलन अर्थात इकोलॉजिकल बैलेन्स भी उतनी ही अच्छी स्थिति में होगा ।

मानव गतिविधियों तथा पर्यावरण प्रदूषण के कारण जीवों व वनस्पतियों की कई प्रजातियाँ लुप्तप्राय हो गयी हैं । इससे पारिस्थितिकी के संतुलन पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है । इससे पर्यवरण का संकट अधिक गंभीर हो जायेगा । अत: जैव विविधता के संरक्षण की आवश्यकता है ।

इस समस्या पर 1992 में रियो सम्मेलन में विचार किया गया तथा एक बाध्यकारी संधि पर हस्ताक्षर किये गये । भारत ने भी इस संधि पर हस्ताक्षर किये हैं । इसके साथ ही भारत ने 2002 में जैव विविधता अधिनियम पारित किया तथा जैव विविधता के संरक्षण हेतु 2003 में राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण का गठन किया है । भारत ने गिद्धों की लुप्तप्राय प्रजाति के संरक्षण के लिये एक कार्यवाही योजना भी लागू की है । गिद्ध मरे हुये पशुओं की सफाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं ।

(य) जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र संघ की फ्रेमवर्क सन्धि (United Nations Framework Agreement on Climate Change):

जलवायु परिवर्तन के उपायों में विश्व समुदाय के प्रयासों में एकता लाने के लिए इस फ्रेमवर्क अभिसमय पर रियो सम्मेलन में सहमति व्यक्त की गयी तथा बाद में जुलाई 1992 में ही इसे संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा द्वारा स्वीकार कर लिया गया था ।

4. जीवन्त विकास पर विश्व शिखर सम्मेलन (World Summit on Live Development):

26 अगस्त, 2002 को दक्षिण अफ्रीका के शहर जोहन्सबर्ग में जीवन्त विकास पर विश्व शिखर सम्मेलन का आयोजन किया गया । जिसमें 104 देशों के 21 हजार प्रतिनिधियों ने भाग लिया । इस सम्मेलन में रियो सम्मेलन के दस्तावेज एजेन्डा-21 के क्रियान्वयन की समीक्षा की गयी तथा विश्व में सतत् विकास या जीवन्त विकास को अपनाने पर बल दिया ।

5. तीसरा अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरण सम्मेलन (Third International Environment Conference), 2012:

संयुक्त राष्ट्र संघ का तीसरा पर्यावरण सम्मेलन पुन: 20 वर्ष बाद जून 2012 में ब्राजील के शहर रियो में आयोजित किया गया । इस सम्मेलन में दो मुख्य बातों पर विचार-विमर्श हुआ- प्रथम यह कि जीवन्त विकास के सम्बन्ध में हरित अर्थव्यवस्था की स्थापना व गरीबी निवारण के लिए क्या उपाय किये जाने चाहिए? दूसरा यह कि जीवन्त विकास के लिए आवश्यक संस्थाओं का किस प्रकार का फ्रेमवर्क तैयार किया जाल इस सम्मेलन के परिणामस्वरूप जीवन्त विकास विश्व की विकास रणनीति की मुख्य धारा में शामिल हो गया है तथा सभी देशों ने जीवन्त विकास की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए प्रतिबद्धता व्यक्त की है ।

6. ओजोन परत के क्षरण को रोकने के प्रयास ((Efforts to Stop the Decomposition of Ozone Layer):

पृथ्वी के ऊपर बाह्य आकाश में 10 से 30 किलोमीटर के बीच पायी जाती है । यह ओजोन गैस एक छतरी के समान है, जो सूर्य की पराबैंगनी किरणों से हमारी रक्षा करती है । हाल ही में अंटार्कटिका महाद्वीप में ओजोन का छिद्र देखा गया था । जिसके लिए मुख्य रूप से क्लोरो-फ्लोरो कार्बन गैसों का प्रयोग उत्तरदायी है । संयुक्त राष्ट्र संघ ने ओजोन के क्षरण को रोकने के लिए 1987 में एक अन्तर्राष्ट्रीय सन्धि की व्यवस्था की है, जिसे मान्ट्रियल संधि के नाम से जाना जाता है । इस संधि में ओजोन परत को नुकसान पहुँचाने वाले तत्वों व गैसों के प्रयोग पर रोक लगा दी गयी ।

7. जलवायु परिवर्तन के सम्बन्ध में प्रयास (Efforts in Relation to Climate Change):

जलवायु परिवर्तन वर्तमान में विश्व की सबसे प्रमुख पर्यावरण चुनौती है । इस समस्या पर विचार करने के लिए पहला विश्व जलवायु परिवर्तन सम्मेलन फरवरी 1979 में जेनेवा में आयोजित किया गया था । दूसरे और तीसरे जलवायु परिवर्तन सम्मेलन भी जेनेवा में 1990 व 2009 में क्रमश आयोजित किये गये ।

ये सम्मेलन विश्व मौसम विज्ञान विभाग द्वारा आयोजित किये गये थे । इन सम्मेलनों में जलवायु परिवर्तनों के वैज्ञानिक कारणों तथा प्रभावों पर प्रकाश डाला गया था ।

जलवायु परिवर्तन की समस्या के समाधान के सम्बन्ध में निम्नलिखित अन्तर्राष्ट्रीय प्रयास महत्त्वपूर्ण हैं:

(अ) जलवायु परिवर्तन पर व्यापक संयुक्त राष्ट्र अभिसमय (UNFCCC- United Nations Framework Convention on Climate Change):

जहाँ तक जलवायु परिवर्तन की समस्या के समाधान के प्रयासों की बात है, सबसे पहले 1992 में रियो सम्मेलन में इस बात पर सहमति बनी थी कि इसके लिए संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा एक व्यापक अभिसमय तैयार किया जाये । इसी सहमति के आधार पर संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने 1992 में जलवायु परिवर्तन पर व्यापक संयुक्त राष्ट्र अभिसमय (UNFCCC- United Nations Framework Convention on Climate Change) को स्वीकार किया । इस अभिसमय में 26-अनुच्छेद हैं ।

जिनकी मुख्य बातें निम्नलिखित हैं:

(i) अभिसमय के अनुच्छेद-2 में यह कहा गया है कि यदि जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक प्रभावों से विश्व को बचाना है तो विश्व वेन औसत तापमान में 1850 वेन स्तर की तुलना में 2 डिग्री सेंटीग्रेड से अधिक की वृद्धि नहीं होनी चाहिए ।

(ii) जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक प्रभावों को रोकने के लिए सभी देशों की सामान्य लेकिन उनकी क्षमता के अनुसार विभेदीकृत जिम्मेदारी (Common but Differentiated Responsibility) होगी । इसका तात्पर्य यह है कि विकसित देश अपनी क्षमता के अनुसार इस समस्या से निपटने के लिए अपना अधिक योगदान देंगे ।

(iii) जलवायु परिवर्तन के लिए विश्व वार्ताओं की व्यवस्था की गयी । इन्हें कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज के नाम से जाना जाता है । 2013 तक 19 चक्रों की वार्ताएँ सम्पन्न हो चुकी हैं । लेकिन अभी तक कोई समाधान नहीं खोजा जा सका है । 19वें चक्र की वार्ताएँ नवम्बर 2013 में पोलैण्ड की राजधानी वार्ता में आयोजित की गयी थी । इन वार्ताओं में ये सहमति बनी है कि 2015 तक जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने के लिए किसी बाध्यकारी समझौते पर हस्ताक्षर किये जायेंगे । यह समझौता 2020 में लागू होगा ।

क्या है जलवायु परिवर्तन? (What is Climate Change?):

जलवायु परिवर्तन का तात्पर्य विश्व के औसत में वृद्धि के कारण जलवायु चक्र में आने वाले परिवर्तनों से है । जलवायु चक्र में आने वाले परिवर्तन कई प्राकृतिक आपदाओं को जन्म देते है तथा ये कृषि उत्पादन को भी प्रभावित करते हैं ।

औद्योगिक विकास तथा मानवीय यों के कारण पर्यावरण में कार्बन डाई-ऑक्साइड व अन्य ऐसी गैसों की मात्रा बढ़ रही है जो विश्व के औसत तापमान बढ़ाती है । इन गैसों को ग्रीन हाउस गैस भी कहा जाता है । विश्व तापमान में बढ़ोतरी होने से जलवायु चक्र अनियमित हो जाता, क्योंकि तापमान ही जलवायु का निर्धारण करता है ।

जलवायु परिवर्तन का प्रमुख नकारात्मक प्रभाव यह है कि तापमान बढ़ने से ध्रुवों पर जमी हुई बर्फ पिघल जायेगी जिससे समुद्र का जल स्तर बढ़ जायेगा तथा तटीय क्षेत्र जल हो जायेंगे तथा जन-धन की व्यापक हानि होगी । दूसरा विश्व में त्पादन जलवायु चक्र पर निर्भर है । जलवायु चक्र अनियमित होने से कृषि उत्पादन नकारात्मक रूप से प्रभावित होगा । तीसरा जलवायु परिवर्तन के कारण अतिवृष्टि, बाढ़, सूखा तथा चक्रवात जैसी प्राकृतिक आपदाएं भी बढ़ जाएँगी । अत: जलवायु परिवर्तन की समस्या का समाधान विश्व समुदाय की प्राथमिकता है ।

(ब) क्योटो प्रोटोकॉल (Kyoto Protocol), 1997:

इस संधि पर 1997 में जापान के शहर क्योटो में हस्ताक्षर किये गये थे । इसमें कहा गया है कि विकसित देश 2008 और 2012 के बीच में अपने यहाँ ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन 1990 की तुलना में पाँच प्रतिशत कम कर देंगे । लेकिन दुर्भाग्यवश 2013 तक इस लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकी है । यह प्रोटोकॉल 2012 में समाप्त हो गया है तथा इसको बढ़ाने के लिए विश्व स्तर पर विचार-विमर्श चल रहा है।

(स) मॉन्ट्रियल समझौता (Montreal Convention), 2007:

यह समझौता जलवायु परिवर्तन पर कनाडा के मान्ट्रियल शहर में आयोजित शिखर सम्मेलन का परिणाम है । इस समझौते में धनी देशों ने इस बात पर सहमति व्यक्त की कि वे क्योटो समझौते को लागू करने के लिए विशेष उपाय अपनायेंगे ।

(द) बाली कार्यवाही योजना (Bali Action Plan), 2007:

इस कार्यवाही योजना को जलवायु परिवर्तन की 13वीं चक्र की वार्ताओं के अन्तर्गत इण्डोनेशिया के शहर बाली में स्वीकार किया गया था । इस सम्मेलन में 190 देशों के 10 हजार प्रतिनिधियों ने भाग लिया था । इस कार्यवाही योजना में इस बात पर ध्यान केन्द्रित किया गया है कि सभी देश विश्व तापमान में कटौती के लिए प्रयास करेंगे तथा इस सम्बन्ध में विचार-विमर्श को आगे बढ़ाएँगे ।

विश्व के प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग हेतु बड़े राष्ट्रों में संघर्ष: नई भू-राजनीति (Conflicts in Large Nations for the use of World’s Natural Resources: New Geopolitics):

भू-राजनीति का अर्थ है राजनीति पर भौगोलिक परिस्थितियों प्रभाव का अध्ययन तथा राष्ट्रीय हित में उसका प्रयोग करना । प्रसिद्ध विद्वान मैकिन्डर ने अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में भू-राजनीति के पर प्रकाश डाला है । आरंभ में भू-राजनीति का प्रयोग देश सुरक्षा व प्रभाव बढ़ाने के लिये किया जाता था । उदाहरण के लिए भारत ने हिमालय पर्वत को उत्तर की सीमाओं की सुरक्षा के लिए किया था । आधुनिक तकनीकि के विकास के कारण अब यह बदल गयी है ।

इसी प्रकार भारत की समुद्री सीमाओं की उसकी भौगोलिक परिस्थितियों की माँग है । 1970 के दशक भू-राजनीति का प्रयोग अमेरिका द्वारा पश्चिम एशिया में अपना गाव बढ़ाकर वहाँ के तेल संसाधनों को प्राप्त करने के लिये किया गया ।

वर्तमान में भू-राजनीति का प्रयोग विभिन्न देशों द्वारा विश्व के संसाधनों पर अधिकाधिक नियंत्रण के उद्देश्य में किया जा रहा है । चीन, विकसित देश तथा भारत, अफ्रीका के प्राकृतिक संसाधनों जैसे तेल, गैस, खनिज पदार्थों आदि के लिये वहाँ अपना प्रभाव बढ़ाने पर संलग्न है ।

विकास की गति वनाये रमने के लिये इन देशों को प्राकृतिक समाधानों की आवश्यकता है । वर्तमान में ऊर्जा सुरक्षा अधिकांश देशों की विदेश नीति का एक लक्ष्य है । अत: यदि किसी देश में आवश्यक प्राकृतिक समाधान उपलब्ध होते हैं तो उसका सामरिक महत्व स्वत: बढ जाता है । वैश्वीकरण की वर्तमान प्रतियोगिता में इन संसाधनों का विशेष महत्व है ।

तेल संसाधनों के कारण पश्चिम एशिया का सामरिक महत्त्व आज भी बना हुआ है । सभी बडे देश इस क्षेत्र में अपना प्रभाव बढाने के लिये तत्पर हैं । भारत द्वारा वर्तमान में ऊर्जा संसाधनों की प्राप्ति के लिये अफ्रीका व सेण्ट्रल एशिया के देशों में निवेश व साझेदारी की जो नीति अपनायी गयी है, वह उसकी भू-राजनीति का हिस्सा है । वहाँ चीन जैसे देशों के साथ इस सम्बन्ध में उसकी प्रतियोगिता होना स्वाभाविक है ।

विश्व की साझी सम्पदा का विचार (World’s Idea of Common Wealth):

विश्व की साझी सम्पदा में वे प्राकृतिक संसाधन शामिल हैं जिनमें किसी एक देश का अधिकार नहीं बल्कि विश्व के सभी देशों का समान अधिकार है । अत: साझी सम्पदा में महासागर, बाह्य समुद्र, ध्रुवी क्षेत्र, बाह्य, आन्तरिक आदि को शामिल किया जाता है । साझी सम्पदा के विचार का प्रभाव यह है कि सभी देश अपने हितों के लिए इस संपदा का इस प्रकार प्रयोग करेंगे कि ये दूसरों के लिए भी उपलब्ध रहे तथा संरक्षित बनी रहे । अत: वर्तमान में साझी संपदा के वैश्विक हित में प्रयोग व संरक्षण पर बल दिया जा रहा है ।

साझी संपदा के संरक्षण हेतु निम्नलिखित उपायों की आवश्यकता है:

1. इस सम्बन्ध में विश्व समुदाय में साझी संपदा के उपयोग व संरक्षण के मार्गदर्शक सिद्धान्तों पर आम सहमति विकसित किया जाना आवश्यक है ।

2. सभी देशों में इस बात का प्रतिबन्ध होना चाहिए कि वह साझी संपदा के सम्बन्ध में ऐसी कोई गतिविधि न करें जो उनकी सुरक्षा के लिए घातक हो । इस सम्बन्ध में 1959 की अंटार्कटिक संधि तथा 1987 की मान्ट्रियल संधि महत्त्वपूर्ण है, जिनके द्वारा ओजोन परत को हानि पहुंचाने वाले पदार्थों पर रोक लगायी गयी है ।

3. विश्व की साझी सम्पदा में शोध तथा ज्ञान को बढ़ाने की अनुमति दी जा सकती है, लेकिन इस संपदा के व्यावसायिक उपयोग अथवा हथियारों के भण्डार आदि के लिए मनाही होनी चाहिए ।

4. महासागरों तथा बाह्य समुद्र के पर्यावरण की रक्षा अत्यन्त आवश्यक है । इस सम्बन्ध में 1982 में विश्व समुद्री संधि पर हस्ताक्षर किये गये थे तथा अन्य बातों के अतिरिक्त इन क्षेत्रों के प्रदूषण पर रोक लगाई गयी थी ।

5. साझी संपदा के संरक्षण के लिए आवश्यक है कि विकसित देश इस सम्बन्ध में उचित तकनीकि का विकास करें तथा उसे आसान शर्तों पर अन्य देशों को उपलब्ध करायें ।