Read this article in Hindi to learn about the reasons why America dominates the world politics.

विश्व राजनीति में अमेरिका का प्रभुत्व (America’s Dominance in World Politics):

सोवियत संघ के विघटन का सबसे महत्वपूर्ण तात्कालिक प्रभाव विश्व राजनीति में अमेरिका का बढ़ता हुआ प्रभाव है । शीत युद्ध कालीन द्विध्रुवीय व्यवस्था में साम्यवादी सोवियत गुट अमेरिका के नेतृत्व में पूँजीवादी पश्चिमी गुट के विरुद्ध एक संतुलनकारी तत्व के रूप में कार्य करता था ।

सन् 1991 में सोवियत संघ के विघटन तथा साम्यवादी गुट के पराभव के उपरान्त विश्व राजनीति में अमेरिका के विरुद्ध कोई संतुलनकारी शक्ति नहीं बची तथा उसका वैचारिक, राजनीतिक तथा सैनिक प्रभुत्व बढ़ने लगा । आर्थिक दृष्टि से अमेरिका पहले से ही विश्व की सबसे बड़ी शक्ति था साम्यवाद के पराभव के उपरान्त पश्चिमी देशों में प्रचलित नव-उदारवाद तथा पूँजीवाद की विचारधारा का विश्व में भी प्रभाव बढ़ गया ।

सन् 1992 में साम्यवादी गुट के सैनिक गठबन्धन वारसा सन्धि को भंग कर दिया गया लेकिन पश्चिमी गुट के सैनिक संगठन नाटो को न केवल बनाये रखा गया बल्कि उसे विस्तृत व मजबूत किया गया । इससे अमेरिका व पश्चिमी देशों का सैनिक प्रभाव अधिक बढ़ गया ।

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राजनीतिक दृष्टि से भी यू एन. ओ. तथा उसके बाहर अमेरिकी प्रभुत्व को कोई चुनौती नहीं बची थी । यद्यपि 21वीं सदी के दूसरे दशक में विश्व राजनीति में कतिपय नयी शक्तियों जैसे चीन, रूस, भारत, ब्राजील आदि के उदय व बढ़ते प्रभाव के कारण बहुध्रुवीयता के लक्षण भी दिखाई देने लगे हैं ।

क्या है प्रभुत्व? (What is Dominance?):

विश्व राजनीति में प्रभुत्व का अर्थ समझने के लिये घरेलू राजनीति व विश्व राजनीति में मौलिक अन्तर को समझना पड़ेगा । घरेलू राजनीति में सभी नागरिक व समूह राज्य की सम्प्रभु सत्ता के अधीन होते हैं तथा उनके आपसी सम्बन्धों का संचालन भी सम्प्रभु सत्ता द्वारा निर्मित क़ानूनों के द्वारा किया है । राष्ट्र के अन्दर इस सम्प्रभु सत्ता में बाध्यकारी शक्ति निहित होती है ।

दूसरी तरफ अन्तर्राष्ट्रीय में इस तरह की सम्प्रभु सत्ता का अभाव होता है । विश्व संस्थाओं जैसे संयुक्त राष्ट्र संघ अथवा अन्तर्राष्ट्रीय कानून के पीछे कोई सम्प्रभु सत्ता अथवा किसी बाध्यकारी शक्ति का अभाव होता है । अत: विश्व राजनीति में राष्ट्रों के मध्य संबन्धों का संचालन उनके राष्ट्रीय हितों तथा हितों को प्राप्त करने की उनकी क्षमता के आधार पर होता है ।

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इसीलिये प्रसिद्ध विद्वान मार्गेन्थो ने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को ‘राष्ट्रों के मध्य शक्ति के लिये संघर्ष’ की संज्ञा दी है । इस संघर्ष में सफलता प्राप्त करने तथा अपने हितों की पूर्ति के लिये प्रत्येक राष्ट्र अपनी शक्ति व प्रभाव का निरन्तर विस्तार करता रहता है ।

इस सन्दर्भ में प्रभुत्व का तात्पर्य किसी राष्ट्र अथवा समूह की उस क्षमता से है, जिसके द्वारा वह दूसरों राष्ट्रों से अपनी बात मनवा सकता है अथवा उन पर अपनी इच्छा थोप सकता है तथा अपने हितों के विरुद्ध होने वाली गतिविधियों को रोक सकता है ।

अमेरिका एक विश्व शक्ति है तथा इस नाते उसके हित भी वैश्विक हैं । अत: विश्व राजनीति में अमेरिका के प्रभुत्व का तात्पर्य है कि अमेरिका अपने वैश्विक हितों को प्रभावित करने वाले विभिन्न वैश्विक मामलों में प्रभावी हस्तक्षेप कर उनका समाधान अपने हितों व इच्छा के अनुसार करने की क्षमता रखता है ।

जब विश्व राजनीति में एक ही गुट अथवा एक राष्ट्र का प्रभुत्व होता है तो ऐसी व्यवस्था को एकध्रुवीय व्यवस्था के नाम से जाना जाता है । विश्व राजनीति में एकध्रुवीय व्यवस्था के लक्षण सोवियत संघ के विघटन तथा शीत युद्ध की समाप्ति के उपरान्त 1990 के दशक में पहली बार दिखाई दिये । इसके केन्द्र में संसार की एक मात्र वैश्विक शक्ति अमेरिका का बढ़ता हुआ प्रभुत्व है ।

अमेरिकी प्रभुत्व के तीन तत्व अथवा आयाम (Three Elements or Dimensions of American Domination):

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अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में किसी भी राष्ट्र की शक्ति अथवा प्रभाव के तीन तत्व होते हैं:

1. आर्थिक व तकनीकि तत्व (Economic and Technical Elements)

2. सैनिक तत्व (Military Elements)

3. वैचारिक व सांस्कृतिक तत्व (Conceptual and Cultural Elements)

इन्हीं तीन तत्वों के आधार पर अमेरिकी प्रभुत्व की व्याख्या भी की जा सकती है ।

1. आर्थिक व तकनीकि तत्व (Economic and Technical Elements):

अर्थव्यवस्था के आकार, ढाँचागत सुविधाओं तथा उच्च तकनीकि विकास की दृष्टि से अमेरिका अपने समकालीन राष्ट्रों से बहुत आगे है । आकार दृष्टि से अमेरिका विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है । विश्व अर्थव्यवस्था तथा विश्व व्यापार में अमेरिका की भागीदारी वर्तमान में लगभग 30 प्रतिशत है ।

यद्यपि 2010 में चीन ने जापान के स्थान पर दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का स्थान ग्रहण कर लिया है लेकिन वह अभी भी अर्थव्यवस्था के आकार की दृष्टि से अमेरिका से बहुत पीछे है । 2012 के आकड़ों के अनुसार अमेरिका का सकल घरेलू उत्पाद 15684 बिलियन डॉलर था, जबकि इसी वर्ष दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था चीन का सकल घरेलू उत्पाद 8227 बिलियन डॉलर था तथा तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था जापान का सकल घरेलू उत्पाद 5963 बिलियन डॉलर था ।

विश्व अर्थव्यवस्था के प्रबन्धन व नियम निर्माण की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण संस्थाओं जैसे विश्व बैंक अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, जी-20, जी-8, विश्व व्यापार संगठन आदि में अमेरिका की महत्त्वपूर्ण स्थिति है । तकनीकि व ढाँचागत सुविधाओं की दृष्टि से भी अमेरिका विश्व में सबसे आगे है । विश्व की कई महत्त्वपूर्ण बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अमेरिका में स्थित हैं तथा सरकार उनको आगे बढ़ाने में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से सहायता भी करती है ।

वर्तमान युग सूचना क्रान्ति का युग है । कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर की सबसे महत्त्वपूर्ण कम्पनी माइक्रोसॉफ्ट अमेरिका की कम्पनी है तथा विण्डो सॉफ्टवेयर में उसका एकाधिकार है । इंटरनेट का आविष्कार अमेरिका में हुआ है । अन्य कई क्षेत्रों विशेषकर अन्तरिक्ष तकनीकि में भी अमेरिका को श्रेष्ठता हासिल है । व्यवसायिक प्रबन्धन के क्षेत्र में भी अमेरिका ने शोध व विकास में महारत हासिल की है । विश्व का सर्वश्रेष्ठ प्रबन्धन संस्थान हार्वर्ड बिजनेस स्कूल अमेरिका में ही स्थित है ।

2. सैन्य क्षमता (Military Elements):

इसी तरह अमेरिका अत्याधुनिक सैन्य क्षमता से सम्पन्न देश है । आणविक हथियारों की क्षमता अर्जित करने वाला वह पहला देश है । लम्बी दूरी तक मार करने वाली आणविक मिसाइल, विमान वाहक पोत, पायलट रहित विमान, पनडुब्बी आदि निर्माण व शोध में अन्य देशों से बहुत आगे है ।

विश्व के विभिन्न क्षेत्रों जैसे डियागो गार्सिया, जापान के ओकीनावा, अरब की खाड़ी आदि में अमेरिका के नौसैनिक अड्‌डे तथा जहाजी बेड़े तैनात हैं । वर्तमान में बहरीन, ग्वानटानामों खाड़ी, डियागो गार्सिया, यूनान, गुआम, इटली, दक्षिण कोरिया, जापान, सिंगापुर तथा स्पेन में अमेरिकी नौसैनिक अड्‌डे व सुविधाएँ कार्यरत हैं ।

नाटो व उसके सदस्य देश (NATO and its Member Countries):

नाटो (NATO) का पूरा नाम नॉर्थ अंटलांटिका संधि संगठन है । अमेरिका नेतृत्व में पश्चिमी देशों का यह एक प्रमुख सैन्य गठबन्धन है । इसकी स्थापना 4 अप्रैल, 1949 को वाशिंगटन में एक सन्धि हस्ताक्षर कर की गई थी ।

इसका मुख्यालय बेल्जियम की राजधानी ब्रुसेल्म में स्थित है । इसके 12 संस्थापक देश थे- अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, बेल्जियम, कनाडा, डेनमार्क, आइसलैण्ड, इटली, लक्जमबर्ग, नीदरलैण्ड, पुर्तगाल तथा नार्वे ।

वर्तमान में इसके 28 सदस्य हैं । सोवियत रूस के विघटन बाद इसकी सदस्यता का तेजी से विस्तार हुआ है । बाद में शामिल हुए इसके अन्य सदस्य देश हैं- यूनान- 1952, तुर्की- 1952, पश्चिमी जर्मनी- 1955, स्पेन- 1982, चेक गणराज्य- 1999, हंगरी- 1999, पोलैण्ड-1999, बुल्गारिया- 2004, एस्टोनिया- 2004, लाटविया- 2004, लिथुआनिया-2004, रोमानिया- 2004, स्लोवाकिया- 2004, स्लसेवानिया – 2004 तथा अल्बानिया- 2009 ।

नाटो अमेरिका तथा पश्चिमी देशों के सैनिक प्रभुत्व का मुख्य साधन है । इसकी सन्धि में यह शर्त शामिल है कि इसके एक सदस्य के विरुद्ध किया गया वाह्य आक्रमण सभी सदस्य देशों के विरुद्ध आक्रमण माना जायेगा तथा ऐसी स्थिति में सभी सदस्य मिलकर कार्यवाही करेंगे । वर्तमान में 2001 से अफगानिस्तान में नाटो की सेनाएँ तैनात हैं । 2011 में नाटो की सेनाओं ने लीबिया में कर्नल गद्दाफी के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही की थी ।

यद्यपि शीत युद्ध की समाप्ति पर साम्यवादी सैनिक गटबंधन वारसा पैक्ट को 1992 में भंग कर दिया गया था, लेकिन अमेरिकी सैनिक गठबन्धन नाटो को न केवल बनाये रखा गया है बल्कि उसका पूर्वी यूरोप में विस्तार किया गया है । नाटो की सेनाएँ अमेरिकी हितों की पूर्ति के लिये विभिन्न देशों में तैनात की जाती हैं । अमेरिका सुरक्षा परिषद् का स्थायी सदस्य है तथा उसे वीटो की शक्ति प्राप्त है ।

3. वैचारिक व सांस्कृतिक तत्व (Conceptual and Cultural Elements):

अमेरिका ने सदैव उदारवादी लोकतंत्र तथा पूँजीवादी विचारधारा का समर्थन किया है । 1991 में सोवियत संघ तथा साम्यवादी गुट के पराभव के उपरान्त वैश्वीकरण की जो लहर आयी उसका मूल आधार नव-उदारवाद से प्रेरित पूँजीवादी विचारधारा ही है ।

आज समाजवाद तथा साम्यवाद की विचारधाराओं का ह्रास हो रहा है । पूंजीवाद तथा उदारवाद की श्रेष्ठता को अन्तिम मान लिया गया है । इसकी अभिव्यक्ति फ्रांसिस फुकुयामा ने अपनी ‘इतिहास के अन्त की धारणा’ से की है ।

आज लोकतंत्र, पूँजीवाद व बाजार की श्रेष्ठता के सिद्धान्तों का पूरी दुनिया में बोल-बाला है तथा अमेरिका को इनका गढ़ माना जाता है । अत: वैश्वीकरण के वर्तमान युग में वैचारिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से भी अमेरिका का वर्चस्व बना हुआ है। उक्त तत्वों के आधार पर ही उत्तर-शीत युद्धकालीन विश्व राजनीति में अमेरिका के प्रभुत्व की स्थापना हुई ।

सूचना तकनीकि के वर्तमान युग में अमेरिकी संस्कृति के दृश्य प्रतीकों का विश्व में तेजी से प्रचार-प्रसार हुआ है । अमेरिकी फास्ट फूड संस्कृति, पेप्सी कल्चर, मैक्डॉनल्ड, पिज्जा हट आदि पूरी दुनिया में लोकप्रिय हैं । मैक्टॉनल्ड व पेप्सी दुनिया के हर कोने में उपलब्ध है । अमेरिकी पहनावा व जींस संस्कृति भी वैश्विक लोकप्रियता प्राप्त कर चुके हैं ।

सूचना तकनीकि के साथ-साथ अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ व इनका ग्लोबल नेटवर्क इस संस्कृति के प्रमुख वाहक हैं । अमेरिका की सांस्कृतिक श्रेष्ठता उसके वैश्विक प्रभाव को बढ़ाने में सहायक सिद्ध हो रही है । आज ग्लोबल कल्चर का जो रूप उभर रहा है वह वास्तव में अमेरिकी कल्चर का ही वैश्विक संस्करण है ।

एकपक्षीयता का विस्तार अथवा अमेरिका प्रभुत्व की अभिव्यक्ति (Expansion of One-Sidedness or Expression of American Dominance):

एकपक्षीयता के विस्तार का तात्पर्य उत्तर-शीत युद्ध काल में अमेरिका व पश्चिमी गुट के प्रभाव में विस्तार से है । इसका सबसे प्रमुख कारण सोवियत रूस का विघटन तथा साम्यवादी गुट का पराभव है । 1991 के बाद रूस अपनी आन्तरिक समस्याओं में उलझ गया तथा अमेरिका की शक्ति को सन्तुलित करने वाली अन्य कोई शक्ति नहीं बची ।

1991 के बाद अमेरिका के इस बढ़ते हुये प्रभाव की पुष्टि कतिपय महत्त्वपूर्ण घटनाओं के आधार पर की जा सकती है, जिनका उल्लेख निम्नलिखित है:

1. प्रथम खाड़ी युद्ध [First Gulf War (1990-91)]:

प्रथम खाड़ी युद्ध तथा उसमें अमेरिका का निर्णायक सैनिक हस्तक्षेप उत्तर-शीत युद्ध काल में अमेरिका के बढ़ते सैनिक प्रभाव का प्रमुख उदाहरण है । खाड़ी संकट की शुरुआत तब हुई जब इराक ने 2 अगस्त 1990 को अपनी सेनाएँ भेजकर कुवैत पर अपना सैनिक कब्जा स्थापित कर लिया ।

इराक 1961 से ही कुवैत को अपने कब्जे में लेने के लिये प्रयासरत रहा है, क्योंकि वह कुवैत को अपना एक प्रान्त समझता था । कुवैत तेल संसाधनों से सम्पन्न देश है तथा इराक उसकी इस प्राकृतिक सम्पदा पर नियंत्रण करना चाहता था ।

इराक की इस सैनिक कार्यवाही से अमेरिका का मित्र देश सउदी अरब भी घबरा गया । अमेरिका सहित विश्व के अन्य देशों ने भी इराक की इस सैनिक कार्यवाही की निन्दा की, लेकिन इराक कुवैत को अपने सैन्य नियंत्रण से मुक्त नहीं करना चाहता था ।

ऑपरेशन डिजर्ट स्टार्म (Operation Desert Storm):

आरंभ में अमेरिका ने कूटनीतिक तथा आर्थिक दबावों के माध्यम से कुवैत को इराक के नियंत्रण से मुक्त कराने का प्रयास किया लेकिन उसे सफलता नहीं मिली । अमेरिकी प्रस्ताव पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने इराक के विरुद्ध आर्थिक प्रतिबन्ध लगाने का प्रस्ताव पारित किया लेकिन वे बेअसर साबित हुए ।

अन्तत: संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद ने 20 नवम्बर, 1991 को यह प्रस्ताव पारित किया कि यदि इराक 15 जनवरी, 1991 तक कुवैत से अपनी सेनाएँ नहीं हटाता तो उसके विरुद्ध सुरक्षा परिषद् द्वारा सैन्य बल का प्रयोग किया जायेगा । संयुक्त राष्ट्र संघ के इतिहास में सुरक्षा परिषद् द्वारा सैन्य बल के प्रयोग का यह दूसरा उदाहरण था ।

पहली बार इस तरह का प्रस्ताव सुरक्षा परिषद् द्वारा 1950 में कोरिया के विरुद्ध पारित किया गया था । इराक के विरुद्ध अमेरिका इस तरह का प्रस्ताव पारित करवाने में इसलिये सफल रहा कि रूस ने सुरक्षा परिषद् में वीटो शक्ति का प्रयोग नहीं किया क्योंकि वह अपनी घरेलू समस्याओं तथा आर्थिक संकटों से घिरा हुआ था तथा अमेरिका का विरोध करने की स्थिति में नहीं था ।

इराक ने अपनी हठधर्मिता के कारण सुरक्षा परिषद् के प्रस्ताव का पालन न करते हुये 15 जनवरी, 1991 तक कुवैत से अपनी सेना से नहीं हटायी । परिणामत: 17 जनवरी 1991 को अमेरिका के नेतृत्व में 34 देशों की सम्मिलित सेनाओं ने इराक पर आक्रमण कर दिया ।

इस सैनिक कार्यवाही को अमेरिका द्वारा ऑपरेशन डिजर्ट स्टॉर्म की संज्ञा दी गयी । यद्यपि इस सैनिक कार्यवाही को औपचारिक रूप से सुरक्षा परिषद की देख-रेख में चलाया गया, लेकिन इसका वास्तविक संचालन अमेरिका की सेनाओं द्वारा किया गया ।

अमेरिका की इस सैनिक कार्यवाही का मुख्य उद्देश्य कुवैत को इराक के सैनिक कब्जे से मुक्त कराना था । इस कार्यवाही के अन्तर्गत अमेरिकी सेनाओं द्वारा इराक की सड़कों, रेलों, हवाई अड्डों, तेल क्षेत्रों, औद्योगिक इकाइयों, शस्त्रागारों आदि को बमबारी से नष्ट कर उसे कुवैत से अपनी सेनाएँ वापस बुलाने के लिये मजबूर करने का प्रयास किया गया ।

इस नुकसान के बाद भारत व सोवियत संघ जैसे के शान्ति प्रयासों के परिणामस्वरूप इराक के तत्कालीन शासक सद्‌दाम हुसैन ने हारकर 27 फरवरी, 1991 को इराक से अपनी सेना वापस बुला ली तथा कुवैत उसके सैनिक नियंत्रण से मुक्त हो गया और इसी के साथ पहले खाड़ी युद्ध का अन्त हुआ ।

प्रथम खाड़ी युद्ध के परिणाम (First Gulf War Results):

प्रथम खाड़ी युद्ध अमेरिकी प्रभुत्व के साथ उभर रही एक ध्रुवीय व्यवस्था के आगमन का प्रबल संकेत था । यद्यपि इस युद्ध द्वारा कुवैत को अन्तर्राष्ट्रीय सैनिक प्रयासों द्वारा इराक के सैनिक नियंत्रण से मुक्त कराया गया, लेकिन इसके कतिपय अन्य भी सामने आये, जो निम्नलिखित हैं:

(i) विश्व राजनीति में अमेरिका का प्रभुत्व बढ़ा । तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने जिस नई विश्व व्यवस्था का नारा दिया था, उसका यहाँ तात्पर्य था । ऐसा प्रतीत हुआ कि अमेरिका विश्व के किसी भी क्षेत्र में अन्य राष्ट्रों के विरोध के बावजूद अपनी इच्छा थोपने में सफल है ।

(ii) सोवियत संघ/रूस के कमजोर होने के कारण संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् पर अमेरिका व पश्चिमी गुट का दबदबा बढ़ गया । सोवियत संघ वीटो के अभाव में अमेरिका सुरक्षा परिषद् में मन मुताबिक (अपने अनुकूल) प्रस्ताव पारित करवाने में सफल रहा । इससे संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्वायत्तता प्रभावित हुई, यद्यपि यह स्थिति अधिक समय तक नहीं चल सकी ।

(iii) प्रथम खाड़ी युद्ध के परिणामस्वरूप अरब देशों की फूट एक बार फिर उजागर हुई । सउदी अरब सहित 12 अरब देशों की सेनाओं ने अमेरिका के नेतृत्व में इराक के विरुद्ध सैनिक अभियान में भाग लिया । कई अरब देशों ने युद्ध के बाद भी इराक के विरुद्ध जारी अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिबन्धों का समर्थन किया । इन प्रतिबन्धों के कारण बाद में भी इराक को कठिनाइयों का सामना करना पड़ा ।

(iv) इस युद्ध में अमेरिका द्वारा की गयी भीषण बमवारी के कारण कुवैत व इराक में जान-माल का व्यापक नुकसान हुआ, जिससे इनकी अर्थव्यवस्था लड़खड़ा गयी तथा तेल की कीमतों में बढ़ोत्तरी के आसार बढ़ गये ।

(v) इस युद्ध में अमेरिका ने उन्नत सूचना व कम्प्यूटर तकनीकि का प्रयोग किया । अमेरिका ने यह सिद्ध कर दिया कि वह उच्च तकनीकि युद्ध में अन्य देशों से बहुत आगे है । विशेषज्ञों द्वारा इस युद्ध को कम्प्यूटर युद्ध की संज्ञा दी गयी । इसके बाद युद्ध सूचना तकनीकि के युग में प्रवेश कर गया ।

यद्यपि इस युद्ध के बाद अमेरिका के बढ़ते प्रभुत्व से विश्व समुदाय के कई देश चिन्तित थे । फिर भी इसका दूसरा पहलू यह था कि इस युद्ध के परिणामस्वरूप ही कुवैत को इराक के नियंत्रण से मुक्त कराया जा सका ।

इराक के सैनिक तानाशाह सद्‌दाम हुसैन द्वारा कुवैत पर सैनिक कब्जा करना अन्तर्राष्ट्रीय कानून का उल्लंघन था । इराक का यह कदम इस क्षेत्र में शान्ति व स्थिरता की दृष्टि से उचित नहीं था । इसीलिये इस युद्ध के बारे में विश्लेषकों द्वारा मिश्रित प्रतिक्रिया व्यक्त की गयी ।

2. अमेरिका में आतंकवादी हमला व अफगानिस्तान में अमेरिकी सैन्य हस्तक्षेप (US Terrorist Attacks in Afghanistan and US Military Intervention in Afghanistan):

विश्व राजनीति में अमेरिकी प्रभुत्व को पुष्ट करने वाली दूसरी महत्त्वपूर्ण घटना अफगानिस्तान में अक्टूबर 2001 में अमेरिका के नेतृत्व में नाटो सेनाओं का हमला है । इस हमले के पीछे मुख्य कारण 11 सितम्बर 2001 को अलकायदा के आतंकवादियों द्वारा अमेरिका के न्यूयार्क शहर स्थित विश्व व्यापार केन्द्र पर किया गया भीषण हमला है ।

यह हमला अलकायदा समूह के जिन आतंकवादियों द्वारा किया गया उन्हें अफगानिस्तान की तालिबान सरकार द्वारा संरक्षण प्रदान किया गया था तथा अलकायदा के मुखिया ओसामा बिन लादेन ने अपनी विश्वव्यापी आतंकवादी गतिविधियों के संचालन हेतु अफगानिस्तान में सुरक्षित शरणस्थली के साथ-साथ वहाँ की तालिबान सरकार से संरक्षण व सहयोग प्राप्त कर रखा था ।

अमेरिका को खुफिया सूचनाओं के आधार पर यह पता चला कि इस घटना के लिये ओसामा बिन-लादेन के नेतृत्व वाला अलकायदा नामक आतंकवादी संगठन उत्तरदायी है तथा इस संगठन का गढ़ अफगानिस्तान में स्थित है ।

अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जार्ज बुश (जूनियर) ने घटना के तुरन्त बाद यह वचन दिया कि इस घटना के लिये जो लोग उत्तरदायी हैं शीघ्र ही उनका पता लगा लिया जायेगा तथा उन्हें दण्डित भी किया जायेगा ।

अमेरिका ने इसके बाद आतंकवाद को विश्वव्यापी चुनौती मानते हुये इसके विरुद्ध वैश्विक लड़ाई छेड़ने का आह्वान किया । पश्चिमी देशों के साथ भारत चीन जैसे देशों ने भी अमेरिका की वैश्विक आतंकवाद विरोधी मुहिम का समर्थन किया ।

इसी मुहिम के तहत अमेरिका के नेतृत्व में नाटो की सेनाओं ने अकबर 2001 में अफगानिस्तान में सैनिक कार्यवाही आरंभ की जिसमें अलकायदा के सैनिक ठिकानों को निशाना बनाया गया । अमेरिकी सेना की भीषण बमबारी के चलते दिसम्बर 2001 के तीसरे सप्ताह तक अफगानिस्तान की तालिबान सरकार का भी पतन हो गया ।

वहाँ 22 दिसम्बर, 2001 को हामीद करज़ई के नेतृत्व में अन्तरिम सरकार का गठन किया गया । 2004 व 2009 में राष्ट्रपति पद के लिये हुए चुनावों में करजई को ही विजय हासिल हुई तथा 2009 से पाँच वर्षों के लिये वही अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हैं ।

तालिबान के पतन के बाद से अलकायदा आतंकवादियों ने विभिन्न देशों के अतिरिक्त अफगानिस्तान सीमा से लगे पाकिस्तानी क्षेत्रों में शरण प्राप्त कर ली है तथा पाकिस्तान उनके विरुद्ध कोई ठोस कार्यवाही करने में सफल नहीं हो पा रहा है । अत: अमेरिका ने इन आतंकवादियों के सफाये के लिये पायलट रहित विमान ड्रोन से हमले किये हैं ।

ओसामा बिन लादेन ने पाकिस्तान के ऐबटाबाद नामक स्थान पर शरण ले रखी थी, जिसे अमेरिका की विशेष सैनिक कार्यवाहीं द्वारा मई 2011 में मार दिया गया है । पूरी सैनिक कार्यवाही को अमेरिका ने पाकिस्तान से गुप्त रखा । अफगानिस्तान में अमेरिका का उद्देश्य राजनीतिक स्थिरता के साथ-साथ आतंकवादियों के नेटवर्क की समाप्ति है ।

इस लक्ष्य की प्राप्ति के उपरान्त अमेरिका व नाटों की सेनाओं को 2014 में अफगानिस्तान से वापिस बुलाने की योजना बनायी गयी है । अमेरिका ने अफगानिस्तान में आतंकवाद के विरुद्ध शुरू की गयी इस कार्यवाही को ‘ऑपरेशन रेस्टोर होप’ की संज्ञा दी है ।

3. इराक पर अमेरिकी हमला: ‘ऑपरेशन इराकी फ्रीडम’- 2003 (American Attack on Iraq: ‘Operation Iraqi Freedom’ – 2003):

यद्यपि प्रथम खाड़ी युद्ध में अमेरिका ने सैनिक हस्तक्षेप कर इराक को कुवैत से सैन्य कब्जा हटाने के लिये बाध्य कर दिया था लेकिन इराक में सद्‌दाम हुसैन का तानाशही शासन मध्य पूर्व में अमेरिकी हितों के लिये एक चुनौती बना रहा । अमेरिकी नीति निर्माता अन्तर्राष्ट्रीय कानून का उल्लंघन करने वाले अलोकतांत्रिक राज्यों को ‘शैतान राज्यों’ (Rogue States) की संज्ञा देते हैं ।

इनमें मुख्य रूप से वे राज्य शामिल हैं जिनका आचरण अमेरिकी हितों के अनुकूल नहीं है, जैसे उत्तरी कोरिया, ईरान, इराक आदि । अमेरिका समय-समय पर इराक के विरुद्ध यह आरोप लगाता रहा है कि सामूहिक नरसंहार के शस्त्र इकट्‌ठे कर रखे हैं, जो विश्व शान्ति व सुरक्षा के लिये खतरा है ।

अमेरिका व उसके सहयोगी राष्ट्रों ने अन्तत: 20 मार्च, 2003 को इराक पर सैनिक आक्रमण कर दिया तथा इस सैनिक कार्यवाही को ‘ऑपरेशन इराकी फ्रीडम’ का नाम दिया गया । अमेरिका का उद्देश्य सामूहिक नर संहार के शस्त्रों को समाप्त करने के साथ-साथ इराक के तानाशाह सद्‌दाम हुसैन को अपदस्थ करना तथा आतंकवादी ठिकानों को नष्ट करना था ।

सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि इस बार अमेरिका की सैनिक कार्यवाही को संयुक्त राष्ट्र संघ की मान्यता प्राप्त नहीं थी । यद्यपि अमेरिका की संसद ने राष्ट्रपति को ऐसे आक्रमण की अनुमति प्रदान की थी । इस सैनिक कार्यवाही में मुख्य रूप से अमेरिका के 2,48,000 सैनिकों, ब्रिटेन के 45,000 तथा आस्ट्रेलिया के 2,000 सैनिकों ने भाग लिया ।

अमेरिका व पश्चिमी देशों की सेनाओं ने 9 अप्रैल, 2003 को इराकी सेना को परास्त कर उसके महत्त्वपूर्ण ठिकानों पर कब्जा कर लिया । इराक के शासक सद्‌दाम हुसैन भूमिगत हो गये । वहाँ अमेरिका की देख-रेख में वैकल्पिक सरकार की स्थापना की गयी । अमेरिका की सैनिक कार्यवाही का दूसरा चरण अधिक समय तक चला जिसके अन्तर्गत सद्‌दाम हुसैन समर्थक विद्रोहियों को समाप्त करना था । इस कार्यवाही में वहाँ जन-धन की व्यापक क्षति हुई ।

फ्रांस के राष्ट्रपति इस आक्रमण के पक्ष में नहीं थे । अमेरिका सेना ने सद्‌दाम हुसैन के दो पुत्रों उदय तथा कसय को मार दिया तथा 13 दिसम्बर, 2003 को टिकरिट शहर के नजदीक सद्‌दाम हुसैन को भी खोज कर पकड़ लिया । उन पर 1982 में 140 शियाओं के नरसंहार का आरोप लगाकर मुकदमा चलाया गया तथा अदालत द्वारा औपचारिक रूप से मौत की सजा सुनाई गयी थी । अन्तत: 30 दिसम्बर, 2006 को सद्‌दाम हुसैन को फांसी पर लटका दिया गया ।

यद्यपि 18 दिसम्बर तक सभी अमेरिकी सैनिक इराक से वापिस आ गये हैं, लेकिन इराक में हिंसा से मुक्ति नहीं मिली । यद्यपि इराक में सामूहिक नरसंहार के शस्त्र नहीं मिले लेकिन अब अमेरिका का तर्क है कि यह आक्रमण इराक में तानाशही की समाप्ति तथा लोकतंत्र की स्थापना के लिये आवश्यक था ।

इराक में हिंसा अब भी जारी है । हिंसा का कारण यह है कि वर्तमान में इराक में शिया सम्प्रदाय के नेताओं की सरकार है तथा सुन्नी सम्प्रदाय के लड़ाके सरकार का विरोध कर रहे हैं । इसके पूर्व हुसैन की सरकार अल्पसंख्यक सुन्नी सम्प्रदाय की सरकार थी ।

अमेरिकी सैनिक कार्यवाही की आलोचना (Criticism of US Military Action):

यद्यपि इराक के शासक हुसैन एक तानाशाह थे तथा उन्होंने मानवाधिकारों के उल्लंघन के साथ-साथ दमन व अत्याचार को बढ़ावा दिया फिर भी इराक के विरुद्ध अमेरिका की सैनिक कार्यवाही की आलोचना निम्न आधारों पर की जाती है-

1. स्वयं अमेरिका व ब्रिटेन की जनता ने इस सैनिक कार्यवाही का विरोध किया । अमेरिका द्वारा इराक के पकड़े गये सैनिकों को जो यातनायें दी गयीं, उसकी आलोचना विश्व के मानवाधिकार समूहों द्वारा की गयी ।

2. अमेरिका ने लोकतंत्र की स्थापना का तर्क देकर विश्व के नैतिक पुलिसमैन की जो भूमिका निभाई है वह खोखली है, क्योंकि अमेरिका ने कई बार पाकिस्तान जैसे देशों में तानाशाही समर्थकों का साथ दिया है । सच्चाई यह है कि अमेरिका का हित इराक के तेल पर कब्जा करना था तथा इस सैनिक कार्यवाही का उद्देश्य लोकतंत्र की स्थापना नहीं था । आज भी इराक हिंसा का शिकार है तथा लोकतंत्र की स्थापना नहीं हो सकी ।

3. इस सैनिक कार्यवाही से अंतर्राष्ट्रीय कानून के उस सिद्धांत का उल्लंघन हुआ है जिसमें कि किसी देश को दूसरे देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है ।

अमेरिका प्रभुत्व के अन्य प्रकरण (Other Aspects of American Dominance):

सोवियत संघ के विघटन के उपरान्त विश्व रजनीति में अमेरिकी प्रभुत्व के विस्तार के अन्य मामले भी है जिस समय जार्ज बुश सीनियर अमेरिका के राष्ट्रपति थे तथा उनके कार्यकाल में 1991 में ही प्रथम खाडी युद्ध में अमेरिका द्वारा सैन्य कार्यवाही की गयी । इसके बाद बिल क्लिंटन 20 जनवरी, 1993 से 20 जनवरी, 2001 तक दो बार अमेरिका के राष्ट्रपति रहे ।

क्लिंटन के कार्यकाल में यूगोस्लाविया के बोस्निया व कोसोवो प्रान्तों में अमेरिका व नाटो की सेनाएं मौजूद रही कोमोवो में अल्बानियाई मूल के लोगों के दमन में इन सेनाओं की भूमिका महत्वपूर्ण रही है इन्हीं के कार्यकाल में अमेरिकी वायु सेना द्वारा सूडान व अफगानिस्तान स्थित अलकायदा के अदर्शों पर मिसाइल द्वारा आक्रमण किये गये । इस सैन्य कार्यवाही को ‘ऑपरेशन इनफाइनाइट रीच’ की संज्ञा दी गयी ।

इस कार्यकाल की महत्त्वपूर्ण बात यह था कि अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी देशों के सैन्य संगठन नाटो की क्षमता का न केवल विस्तार किया गया, बल्कि पूर्वी यूरोप के देशों में इसका भौगोलिक विस्तार किया गया । आज भी नाटो की सेनायें अमेरिकी प्रभुत्व का एक महत्वपूर्ण साधन हैं ।

क्लिंटन के बाद 20 जनवरी, 2001 से 20 जनवरी, 2009 तक दो बार जार्ज बुश जूनियर अमेरिका के राष्ट्रपति रहे । उनके कार्यकाल की प्रमुख घटनाओं- 2001 में अफगानिस्तान तथा 2003 में इराक में सैनिक कार्यवाही का उल्लेख किया जा चुका है ।

20 जनवरी, 2009 से दो वार 20 जनवरी 2017 तक के लिये बाराक ओवामा अमेरिका के राष्ट्रपति चुने गये है इस दौरान अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी राष्ट्रों की सेनाओं ने 19 मार्च, 2011 को लीबिया में बडे पैमाने पर सैन्य हस्तक्षेप किया, जबकि संयुक्त राष्ट्रसंघ की सुरक्षा परिषद द्वारा वहाँ सीमित सैन्य कार्यवाही का प्रस्ताव पारित किया गया था इस सैन्य कार्यवाही का आधार यह था कि लीबिया के तानाशाह गद्दाफ़ी उनके विरुद्ध चल रहे लोकतांत्रिक आन्दोलन का बर्बरतापूर्वक दमन कर रहे हैं ।

सितम्बर, 2011 को बहुराष्ट्रीय सेनाओं ने लीबिया की राजधानी ट्रिपोली पर कब्जा कर लिया तथा 20 अक्टूबर 2011 को एक सैन्य अभियान में कर्नल गद्दाफ़ी को मार दिया गया । सुरक्षा परिषद् के प्रस्ताव के बाहर जाकर बड़े पैमाने पर की गयी इस अमेरिकी सैन्य कार्यवाही की आलोचना भी की गयी ।

इसी तरह सितम्बर 2013 में अमेरिका ने सीरिया के गृह युद्ध में वहाँ की सरकार के विरुद्ध सैन्य हस्तक्षेप की योजना बनाई है लेकिन रूस तथा चीन के विरोध के चलने सुरक्षा परिषद में इस आशय का प्रस्ताव पारित हो पाना मुश्किल हैं । अमेरिकी कांग्रेस ने भी ओबामा की योजना का अनुमोदन नहीं किया है ।

सीरिया के ऊपर आसरा है कि उसकी सेनाओं ने लोकतंत्र की स्थापना कर रहे आन्दोलनकरियों पर रासायनिक हथियारों का प्रयोग किया है । इसी बीच अमेरिका ईरान के परमाणु कार्यक्रम के विरोध में वहाँ भी सैन्य कार्यवाही की धमकी दे चुका है । निष्कर्षत: अमेरिका लोकतंत्र व मानवाधिकारों की रक्षा, सामूहिक नरसंहार के हथियारों पर रोक आदि के आधार पर विश्व के विभिन्न देशों में सैन्य हस्तक्षेप कर विश्व राजनीति में अपने प्रभुत्व को पुष्ट करने के लिये प्रयासरत रहा है ।

अमेरिका प्रभुत्व को चुनौती (Challenge America’s dominance):

सोवियत संघ के विघटन के बाद तात्कालिक रूप से अमेरिका के राजनीतिक, सैनिक तथा वैचारिक प्रभुत्व में तेजी से बढ़ोतरी हुई लेकिन यह असीमित नहीं है । अमेरिका के घरेलू तथा बाह्य परिवेश में अनेक ऐसे तत्व उपस्थित हैं अथवा उनके उदय की संभावनाएँ हैं जो उसके प्रभुत्व को सीमित करते हैं ।

ये तत्व निम्नलिखित हैं:

1. गत बीस वर्षों में जन संचार साधनों का तेजी से विकास हुआ है । ये साधन घरेलू व बाह्य दोनों स्तरों पर जनमत के निर्माण व उसकी अभिव्यक्ति में सहायक हैं । अमेरिका व अन्य पश्चिमी देश लोकतांत्रिक देश हैं तथा समय-समय पर इन देशों की जनता द्वारा इनकी सैनिक कार्यवाहियों के विरोध में व्यापक विरोध प्रदर्शन हुये हैं । वर्तमान में दिनों दिन सशक्त हो रहा विश्व जनमत भी अमेरिका के अनुचित प्रभुत्व का विरोधी है ।

2. अमेरिकी शासन व्यवस्था का स्वरूप भी अमेरिका के प्रभुत्व के मनमाने क्रियान्वयन को सीमित करता है । अमेरिका में शक्ति पृथक्करण का सिद्धान्त लागू है तथा शासन के तीनों अंग-कार्यपालिका, व्यवस्थापिका तथा न्यायपालिका एक-दूसरे के विरुद्ध नियंत्रण व संतुलन के आधार पर कार्य करते हैं ।

उदाहरण के लिये युद्ध व सैनिक कार्यवाहियों का संचालन कार्यपालिका व राष्ट्रपति का अधिकार व दायित्व है, लेकिन युद्ध की घोषणा तथा सैनिक कार्यवाही की अनुमति देना तथा इनके लिये धन की स्वीकृति देना वहाँ की संसद कांग्रेस का अधिकार है ।

व्यय की अनुमति के बिना राष्ट्रपति किसी सैनिक कार्यवाही का संचालन नहीं कर सकते । उदाहरण के लिये राष्ट्रपति ओबामा सीरिया के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही हेतु कांग्रेस से सितम्बर 2013 में अनुमति नहीं प्राप्त कर सके तथा यह सैनिक कार्यवाही नहीं हो सकी ।

3. अमेरिका द्वारा अपने सैनिक प्रभुत्व को स्थापित करने के लिये नाटो तथा उसकी सेनाओं का सर्वाधिक प्रयोग किया गया है । सोवियत संघ के विघटन के बाद नाटो में उन देशों को भी शामिल कर लिया गया है जो कभी सोवियत संघ के सदस्य रहे हैं । इससे नाटो की एकता कमजोर हुई है । इसके अलावा नाटो के सभी महत्त्वपूर्ण सदस्य प्रत्येक मामले में सैनिक कार्यवाही के पक्ष में नहीं रहते । फ्रांस ने कई बार नाटो द्वारा अमेरिका के सैनिक कार्यवाही प्रस्तावों का विरोध किया है । ऐसी स्थिति अमेरिका के मनमाने सैनिक आचरण पर रोक लगाने का कार्य करती है ।

4. किसी देश के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही हेतु संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् द्वारा सभी स्थायी सदस्यों की सहमति से प्रस्ताव पारित किया जाना आवश्यक है । अमेरिका ब्रिटेन व फ्रांस के साथ रूस व चीन भी सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्य हैं । यद्यपि 1990 के दशक में अपनी आन्तरिक चुनौतियों के कारण रूस ने सुरक्षा परिषद् में अमेरिकी प्रस्तावों का विरोध नहीं किया लेकिन अब ऐसी स्थिति नहीं है । रूस व चीन के विरोध के कारण ही सितम्बर 2013 में अमेरिका सीरिया के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही का प्रस्ताव पारित नहीं करा सका ।

5. आर्थिक चुनौती (Economic Challenge):

पुन: 21वीं शताब्दी के प्रथम शक में विश्व में कतिपय गैर-यूरोपियन शक्तियों जैसे चीन, भारत, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका आदि का उदय हो रहा है, जो विश्व राजनीति में अमेरिका के राजनीतिक व आर्थिक प्रभुत्व को सीमित करते हैं इन् चारों देशों ने रूस के साथ मिलकर 2009 में ‘ब्रिक्स’ नामक संगठन बनाय है ।

यह विश्व की उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं का समूह है तथा गोल्डमैन सैच नामक अमेरिकी संस्था के अनुसार ये देश 2030 तक अमेरिका व पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं से आगे निकल जायेंगे । 2008 से चल रही वैश्विक आर्थिक मंदी के चलते अमेरिका व यूरोप की अर्थव्यवस्थाएँ लड़खड़ा रही हैं ।

यह संगठन विश्व अर्थव्यवस्था के ऐसे प्रबन्धन की माँग कर रहा है, जिसमें अमेरिका के साथ-साथ अन्य सभी देशों की भागीदारी हो । विश्व बैंक व अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष में अमेरिका व पश्चिमी देशों की भागीदारी कम करके अन्य देशों की भागीदारी बढ़ाने की माँग की जा रही है । इसी तरह जी-20 समूह के माध्यम से विश्व अर्थव्यवस्था के प्रबन्धन में विकासशील देशों की भूमिका को बढ़ाया जा रहा है । वैसे भी वर्तमान में विश्व अर्थव्यवस्था का केन्द्र यूरोप से खिसककर एशिया में आ रहा है ।

6. वैचारिक चुनौती (Conceptual Challenge):

वैश्वीकरण के वर्तमान युग में गत् बीस वर्षों से अमेरिका व पश्चिमी देशों की नव-उदारवादी व पूँजीवादी विचारधारा का बोलबाला रहा है । लेकिन जैसे-जैसे वैश्वीकरण की प्रक्रिया आगे बढ़ रही है, वैसे-वैसे इसके दुष्परिणाम भी सामने आ रहे हैं । आज देशों व विभिन्न वर्गों के मध्य असमानता बढ़ रही है तथा गरीबी व भुखमरी जैसी समस्याएँ कम होने का नाम नहीं ले रही हैं ।

जनसंख्या का एक बड़ा भाग विकास की मुख्य धारा से अलग हो गया है । असंतुलित विकास के कारण पर्यावरण विघटन व जलवायु परिवर्तन की समस्याएँ चुनौती का रूप धारण कर गयी हैं । आज जीवन्त व समेकित विकास विश्व की आवश्यकता बन गया है । विश्व व्यापार मंच की वार्षिक बैठकों के दौरान जनता ने वैश्वीकरण व पूँजीवादी विचारधारा के विरुद्ध व्यापक प्रदर्शन किये हैं ।

अमेरिका के सांस्कृतिक प्रभुत्व के विरुद्ध भी विद्रोह के स्वर उभर रहे हैं । उधर चीन ने साम्यवादी रास्ते से तीव्र विकास हासिल कर यह सिद्ध कर दिया है कि पूँजीवाद तथा नव उदारवाद ही सबसे श्रेष्ठ विचारधारा नहीं है । अत: अमेरिका वर्तमान में आर्थिक चुनौती के साथ-साथ वैचारिक चुनौती का भी सामना कर रहा है, लेकिन इस चुनौती का रूप अधिक संगठित नहीं है ।