Read this article in Hindi to learn about:- 1. भारत के वैदेशिक सम्बन्ध (Foreign Relations of India) 2. नेहरू की विदेश नीति (Nehru’s Foreign Policy) 3. भारत की विदेश नीति को प्रभावित करने वाले आन्तरिक तत्व (Internal Elements Affecting India’s Foreign Policy) 4. विदेश नीति व राष्ट्रीय हित (Foreign Policy and National Interest) and Other Details.

Contents:

  1. भारत के वैदेशिक सम्बन्ध (Foreign Relations of India)
  2. नेहरू की विदेश नीति (Nehru’s Foreign Policy)
  3. भारत की विदेश नीति को प्रभावित करने वाले आन्तरिक तत्व (Internal Elements Affecting India’s Foreign Policy)
  4. भारत का संविधान में विदेश नीति सम्बन्धी तत्व (Foreign Policy Related Provisions in the Constitution of India)
  5. भारत की विदेशी नीति में निरन्तरता व बदलाव (Continuity and Change in Foreign Policy of India)
  6. भारत-चीन सम्बन्ध तथा 1962 का युद्ध (Indo-China Relations and War of 1962)
  7. भारत-पाकिस्तान सम्बन्ध तथा 1971 का युद्ध (Indo-Pak Relations and War of 1971)
  8. विश्व राजनीति में बदलते गठबन्धन (Changing Alliance in World Politics)


1. भारत के वैदेशिक सम्बन्ध (Foreign Relations of India):

वर्तमान युग अंतर्राष्ट्रीयतावाद का युग है । देशों के मध्य पारस्परिक निर्भरता तेजी से बढ रही है । वैश्वीकरण तथा आधुनिक संचार साधनों ने इसे नयी गति प्रदान की है । अत: किसी देश के वैदेशिक संबन्धों का महत्व भी उसी अनुपात में बढ़ गया है । अब वैदेशिक संबन्धों का संचालन एक जटिल व गंभीर विषय हो गया है ।

ADVERTISEMENTS:

भारत को आजादी के बाद ही स्वतंत्र विदेश नीति अपनाने तथा वैदेशिक संबन्धों को नये सिरे से संचालन का अवसर प्राप्त हुआ । भारत की विदेश नीति अपने आन्तरिक व बाह्य परिवेश से प्रभावित होती रही है तथा उसके द्वारा भारत के राष्ट्रीय हितों को प्राप्त करने का प्रयास किया गया है । वैदेशिक सम्बन्धों की विषयवस्तु व दिशा विदेश नीति के सिद्धान्तों व प्राथमिकताओं पर निर्भर करती है ।


2. नेहरू की विदेश नीति (Nehru’s Foreign Policy):

भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को भारत की विदेश नीति का निर्माता कहा जाता है । अपने पूरे कार्यकाल में वे विदेश मंत्री के रूप में भी कार्य करते रहे । नेहरू को तत्कालीन अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों तथा भारत के घरेलू वातावरण का अच्छा ज्ञान था । उनका मानना था कि किसी देश की विदेश नीति उसके राष्ट्रीय हितों की पूर्ति का साधन है । अत: राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखकर ही विदेश नीति का निर्माण किया जाना चाहिए ।

जवाहरलाल नेहरू ने तत्कालीन परिस्थितियों के आलोक में भारत के लिए गुटनिरपेक्षता की नीति का समर्थन किया । गुटनिरपेक्षता की नीति एक स्वतंत्र विदेश नीति थी तथा भारत के व्यापक हितों व तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखकर बनायी गयी थी ।

ADVERTISEMENTS:

गुटनिरपेक्षता की नीति जवाहरलाल नेहरू का विदेश नीति में एक महत्त्वपूर्ण योगदान है । बाद में 1960 के दशक में एशिया व अफ्रीका के अन्य नवोदित देश भी इस नीति की ओर आकर्षित हुए तथा विश्व में गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का विकास हुआ । यह नीति अन्तर्राष्ट्रीय शांति सुरक्षा तथा देशों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों को बढ़ाना वाली नीति थी । नेहरू की विदेश नीति को समझने के लिए उस समय की बाह्य और घरेलू परिस्थितियों का अध्ययन आवश्यक है ।

भारत की विदेशी नीति को प्रभावित करने वाले बाह्य तत्व:

भारत की गुटनिरपेक्षता की विदेश नीति तत्कालीन अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण नीति थी ।

ADVERTISEMENTS:

इसको निम्नलिखित अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों ने प्रभावित किया:

1. शीतयुद्ध तथा का खेमों में विभाजन (Cold War and Partition of Khemas):

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व में दो महाशक्तियों-अमेरिका तथा सोवियत संघ का उदय हुआ । दोनों ने अपने प्रभाव में अन्य देशों को लेकर दो गुटों का निर्माण तथा ये दोनों गुट एक-दूसरे के विरोधी थे । अमेरिका के नेतृत्व में पाश्चात्य देशों का गुट पूंजीवादी व्यवस्था व लोकतंत्र का समर्थक था तथा वे सोवियत संघ के साम्यवादी गुट के प्रभाव को कम करना चाहते था ।

दूसरी तरफ सोवियत संघ के नेतृत्व में यूरोप के साम्यवादी देशों का गुट राज्य नियन्त्रित अर्थव्यवस्था के समर्थक था तथा वह पूंजीवाद को साम्यवाद का विरोधी मानते था । इसका परिणाम यह हुआ विश्व दो विरोधी खेमों में बँट गया तथा दोनों के मध्य आरोप प्रत्यारोप, घृणा तथा अविश्वास का माहौल बना, जिसे हम के नाम से जानते हैं ।

ऐसी परिस्थितियों में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के समक्ष यह प्रश्न था कि भारत किस गुट में शामिल हो । भारत यदि किसी भी गुट में शामिल होता तो गुटबन्दी को बढ़ावा मिलता तथा विश्व शांति में सुरक्षा के खतरे बढ़ जाते । अत: भारत ने दोनों गुटों से अलग रहकर एक स्वतंत्र नीति के रूप में गुटनिरपेक्षता की नीति को अपनाया ।

क्या है गुटनिरपेक्षता की नीति ? (What is the Policy of Non-Alignment?):

सामान्य तौर पर गुटनिरपेक्षता का तात्पर्य अंतराष्ट्रीय मामलों में गुटों से अलग रहने की नीति से ही लगाया जाता है । लेकिन यह इसका सही अर्थ नहीं है । गुटनिरपेक्षता का सही अर्थ यह है कि गुटों से अलग रहते हुए किसी भी मामले पर गुण-दोष के आधार पर स्वतंत्र होकर फैसला करना । अत: विदेश नीनि की स्वतन्त्रता ही विदेश नीति का मूल तत्व है ।

गुटनिरपेक्षता को तटस्थता भी नहीं माना जा सकता । तटस्थता वास्तव में निष्क्रियता की नीति है जबकि गुटनिरपेक्षता एक सक्रिय नीति है । भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि यदि कहीं विश्व में शांति को खतरा उत्पन्न होता है, तो भारत तटस्थ नहीं रहेगा तथा गुणदोष के आधार पर स्वतंत्र होकर अपना पक्ष प्रस्तुत करेगा ।

2. महाशक्तियों में शास्त्रों की होड़ (Competitions of Scriptures in Great Powers):

शीतयुद्ध काल में दोनों महाशक्तियों तथा उनके खेमों के बीच शस्त्रों की होड़ बढ़ गयी । अमेरिका के पास पहले से ही आणविक शस्त्र थे तथा द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सोवियत संघ ने भी आणविक शस्त्रों की क्षमता अर्जित कर ली । शस्त्रों की दौड़ में जहाँ एक ओर विश्व के आर्थिक संसाधनों की बर्बादी हो रही थी वहाँ यह दौड़ विश्व शांति सुरक्षा के लिए भी खतरा उत्पन्न कर रही थी । अत: भारत ने अपनी विदेश नीति के अंतर्गत शस्त्रों की दौड़ करने तथा नि:शस्त्रीकरण का समर्थन करने की नीति अपनाई ।

3. सैन्य गठबन्धनों की राजनीति (Military Alliances Politics):

विश्व की दोनों महाशक्तियों ने अपनी सुरक्षा के नाम पर सैनिक गठबन्धनों को बनाने की नीति अपनाई । 1949 में अमेरिका तथा यूरोपीय देशों ने उत्तरी अटलांटिक सैनिक संगठन अर्थात् नाटो की स्थापना की । इसके जवाब में 1955 में सोवियत संघ के नेतृत्व में पूर्वी यूरोप के देशों के सैनिक संगठन वार्सा पैक्ट की स्थापना की गयी ।

इतना ही नहीं अमेरिका ने एशिया के देशों में सेनो तथा सीटो जैसे सैनिक संगठनों की स्थापना की । सैनिक गुटबन्दी से विश्व शांति को खतरा उत्पन्न हो गया था, अत: ऐसी स्थिति में सैनिक गुटबन्दी से दूर रहते हुए नेहरू ने गुटनिरपेक्षता की नीति का समर्थन किया ।

4. विश्व में उपनिवेशवाद का खतरा (Threat of Colonialism in the World):

यद्यपि भारत ने 1947 में स्वतंत्रता प्राप्त कर ली थी लेकिन अब भी एशिया और अफ्रीका के कई देश उपनिवेशवाद के चंगुल में फंसे थे । वहाँ चल रहे स्वतंत्रता आन्दोलनों को उपनिवेशवादी ताकतों द्वारा दबाया जा रहा था । उपनिवेशवाद भारत के व्यापक हितों तथा विश्व शांति दोनों के लिए उचित नहीं या ।

अत: भारत ने उपनिवेशवाद का विरोध करते हुए गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाई तथा गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के द्वारा एशिया और अफ्रीका के देशों में एकता स्थापित करने का प्रयास किया । गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का विकास इसी का परिणाम है ।


3. भारत की विदेश नीति को प्रभावित करने वाले आन्तरिक तत्व (Internal Elements Affecting India’s Foreign Policy):

भारत की विदेश नीति के निर्माण में भारत की घरेलू परिस्थितियों ने भी प्रभावित किया । इनका उल्लेख निम्नलिखित है:

1. तीव्र आर्थिक विकास की आवश्यकता (Need for Rapid Economic Development):

करीब दो सौ वर्षों के उपनिवेशवादी शोषण के कारण आजादी के समय भारत की अर्थव्यवस्था जर्जर हो चुकी थी । गरीबी कुपोषण भुखमरी तथा बेरोजगारी का समस्याएं गंभीर रूप ले रही थीं । अत: भारत को तीव्र आर्थिक विकास की आवश्यकता थी । तीव्र आर्थिक विकास के लिए महाशक्तियों का गुटबन्दियों में उलझने की बजाए संधिपूर्ण वातावरण की आवश्यकता है ।

इसके लिए गुटनिरपेक्षता की नीति सर्वाधिक उपयुक्त थी । पुन: भारत को अपने विकास के लिए बाह्य स्रोतों से पूंजी व तकनीकि की आवश्यकता थी । यदि भारत किसी एक गुट में शामिल हो जाता तो उसे दूसरे गुट से आर्थिक व तकनीकि सहायता नहीं मिलती । गुटनिरपेक्षता की नीति के कारण भारत को पूंजीवादी और साम्यवादी दोनों गुटों से सहायता प्राप्त करने में मदद मिली ।

2. राष्ट्रीय आन्दोलन के आदर्श (Ideal of National Movement):

भारत ने स्वयं उपनिवेशवाद के दौरान शोषण व अत्याचार को देखा था, अतः उसके लिए स्वाभाविक था कि वह विश्व में उपनिवेशवाद का विरोध करें । लम्बी दासता के कारण भारत में स्वतंत्र विदेश नीति की ललक तीव्र थी । पुन: एशियाई देशों के नवजागरण की आवश्यता थी । इन बातों को स्वतंत्रता आन्दोलन के नेताओं ने आजादी के पूर्व ही अपना लिया था । अत: जब देश आजाद हुआ तो भारत ने स्वतंत्र विदेश नीति के रूप में गुटनिरपेक्षता की नीति को अपनाया ।

3. भारत की ऐतिहासिक परम्पराएं व आदर्श (Historical Traditions and Ideals of India):

भारत और एशिया महाद्वीप प्राचीन संस्कृति व सभ्यता के जन्मदाता हैं । इस संस्कृति में गौतम बुद्ध, महावीर व गाँधी जैसे महापुरुषों ने सत्य और अहिंसा के आदर्शों को स्थापित किया था ।

भारत की सांस्कृतिक परम्परा विरोधी और बाह्य तत्वों के मध्य समायोजन की परम्परा थी । अत: सह-अस्तित्व अहिंसा व सहयोग भारतीय संस्कृति के अंग रहे हैं । स्वतंत्रता आन्दोलन के समय में गांधी ने इन मूल्यों को पुन: स्थापित किया । अत: भारत के लिए सह-अस्तित्व और शांति की नीति भारत के ऐतिहासिक विरासत का तार्किक परिणाम थी ।

विदेश नीति व राष्ट्रीय हित (Foreign Policy and National Interest):

विदेश नीति व राष्ट्रीय हित में सम्बन्ध होता है । वास्तव में विदेश नीति राष्ट्रीय हित की पूर्ति का साधन है । यदि किसी देश की विदेशी नीति उसके राष्ट्रीय हितों की पूर्ति में सहायक नहीं है अथवा उससे दूर है तो वह विदेश नीति सिद्धांतों की कोरी कल्पना मात्र बन कर रह जायेगी ।

राष्ट्रीय हित का तात्पर्य किसी राष्ट्र के स्थायी व व्यापक हितों से है । वर्तमान में राष्ट्रीय सुरक्षा तथा विकास को किसी भी देश के स्थायी राष्ट्रीय हित में शामिल किया जाता है । राष्ट्रीय हित के तात्कालिक व अस्थाई पहल भी होते हैं जो समय व परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहते है तथा विदेश नीति में उनके अनुसार संशोधन आवश्यक होता है ।

भारत में विदेश नीति व राष्ट्रीय हित (Foreign Policy and National Interest in India):

भारत ने अपने राष्ट्रीय हित की आवश्यकताओं के अनुकूल ही विदेश नीति का निर्माण व संचालन किया है:

1. भारत ने आजादी के वाद गुटनिरपेक्षता की नीति अपनायी । यह केवल सिद्धान्तों का समूह नहीं थी बल्कि भारत के व्यापक हितों जैसे विदेश नीति की स्वतंत्रता बनाये रखना, विकास के लिये दोनों गुटों से आर्थिक सहायता प्राप्त करना आदि की प्राप्ति के लिये उपयुक्त समझी गयी थी ।

2. 1971 में पाकिस्तान युद्ध के समय जब अमेरिका ने भारत को धमकी दी तो भारत ने अपनी सुरक्षा के लिये गुटनिरपेक्षता के बावजूद सोवियत संघ में हाथ मिलाने में परहेज नहीं किया ।

3. सोवियत संघ के विघटन तथा शीत युद्ध की समाप्ति के बाद भारत ने अपने राष्ट्रीय हितों की आवश्यकता के अनुसार ही तथा पश्चिमी देशों के साथ घनिष्ठ सम्बन्धों का विकास किया है तथा आर्थिक हितों की पूर्ति हेतु पूरब की ओर देखो की नीति लागू की है ।

भारत की विदेश नीति के मौलिक सिद्धान्त:

नेहरू के नेतृत्व में भारत की जिस विदेश नीति का विकास किया गया उसके निम्नलिखित मौलिक सिद्धान्त हैं:

1. गुटनिरपेक्षता तथा स्वतंत्र विदेश नीति (Fundamental Principles of India’s Foreign Policy):

भारत ने विदेश नीति की स्वतंत्रता के आदर्श को अपनाया है । गुटनिरपेक्षता की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता स्वतंत्र रहकर प्रत्येक मुद्दे पर गुण-दोष के आधार पर फैसला करना है ।

2. उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद का विरोध (Protest against Colonialism and Imperialism):

भारत ने अपने विदेश नीति के माध्यम से विश्व के अन्य हिस्सों विशेषकर एशिया और अफ्रीका के देशों में व्याप्त उपनिवेशवाद व साम्राज्यवाद का निरन्तर विरोध किया है । यह भारत की विदेश नीति का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है । भारत की इसी नीति के कारण एशिया और अफ्रीका के कई देशों को उपनिवेशवाद से मुक्ति मिली ।

भारत में एशियाई देशों में उपनिवेशवाद को समाप्त करने तथा एशियाई एकता की स्थापना के लिए 1947 और 1949 में दो एशियाई सम्बन्ध सम्मेलनों का आयोजन किया गया । 1949 के सम्मेलन द्वारा भारत ने इण्डोनेशिया की स्वतंत्रता का जोरदार समर्थन किया । इस नीति के अंतर्गत अफ्रीका के देशों में भी उपनिवेशवाद का अंत हुआ तथा 1960 के दशक में अधिकांश अफ्रीकी देश उपनिवेशवाद से मुक्त हो चुके थे ।

3. शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व (Peaceful Co-existence):

भारत की विदेश नीति शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के सिद्धान्त को मानती है । इसका तात्पर्य यह है कि विश्व में विरोधी विचारधाराओं के समूह व गुट एक साथ रह सकते हैं तथा उन्हें रहने का अधिकार है । शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के माध्यम से ही विश्व शांति व सुरक्षा का स्थाई समाधान खोजा जा सकता है ।

4. निःशस्त्रीकरण का समर्थन (Disarmament Support):

भारत शस्त्रों की दौड़ को विश्व शांति व विकास के लिए खतरा मानता है । अतः भारत ने सदैव नि:शस्त्रीकरण विशेषकर आणविक नि:शस्त्रीकरण का समर्थन किया है तथा विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर नि:शस्त्रीकरण के लिए निरन्तर प्रयास किया है । 1985 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने परमाणु नि:शस्त्रीकरण के लिए संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलन में तीन चरणों वाली एक व्यापक योजना प्रस्तुत की थी । भारत आज भी सार्वभौमिक परमाणु नि:शस्त्रीकरण का समर्थक है ।

5. जातीय असमानता तथा रंगभेद नीति का विरोध (Protests against Ethnic Inequality and Apartheid Policy):

भारत के उपनिवेशवादी काल में यूरोपीय देशों ने अपनी जातीय श्रेष्ठता को थोपने का प्रयास किया । भारत ने इसका विरोध किया तथा अपनी विदेश नीति में भारत विश्व में सभी जातियों व समूहों में समानता का पक्षधर है । इसी तरह दक्षिण अफ्रीका में जब रंगभेद नीति को अपनाया गया तो भारत ने इसका तीव्र विरोध किया ।

आजादी के पहले गांधी जी भी दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद विरोधी आन्दोलनों का आयोजन कर चुके थे । आजादी के बाद भारत ने दक्षिण अफ्रीका के रंगभेद विरोधी सगठन अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस तथा उसके नेता नेल्सन मंडेला को भरपूर समर्थन प्रदान किया ।

1986 में भारत के नेतृत्व में रंगभेद नीति से पीड़ित अन्य अफ्रीकी देशों की सहायता के लिए अफ्रीका फण्ड को स्थापना की गयी थी । भारत के प्रयासों के चलते 1990 में दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद नीति समाप्त हुई तथा लोकतांत्रिक शासन की स्थापना हुई । नेल्सन मंडेला को गांधी से प्रभावित होने के कारण अफ्रीकन गांधी की संज्ञा दी गयी । दिसम्बर 2013 में उनकी मृत्यु के समय भारत के राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी शोक संवेदना व्यक्त करने स्वयं दक्षिण अफ्रीका गये थे ।

रंग भेद नीति का विरोध भारत की विदेश नीति का प्रमुख सिद्धान्त रहा है । भारत ने दी क्षण अफ्रीका में रंग भेद नीति की समाप्ति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है । इसीलिये मण्डेला ने दक्षिण अफ्रीका में 1990 में रंग भेद नीति की समाप्ति के बाद अपनी पहली विदेश यात्रा भारत में की थी । उन्हें अफ्रीकन गाँधी के नाम से जाना जाता है । 5 दिसम्बर, 2013 को 95 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गयी ।


4. भारत का संविधान में विदेश नीति सम्बन्धी तत्व (Foreign Policy Related Provisions in the Constitution of India):

भारत का संविधान संभवत: विश्व का एकमात्र संविधान है, जिसमें विदेश नीति के सिद्धान्तों का उल्लेख किया गया है ।

भारतीय संविधान के भाग 4 में वर्णित नीति निर्देशक तत्वों के अनुच्छेद 51 में विदेश नीति के निम्नलिखित 4 तत्वों का समावेश किया गया है:

1. अन्तर्राष्ट्रीय शांति व सुरक्षा को प्रोत्साहन ।

2. राष्ट्रों के मध्य मैत्रीपूर्ण व न्यायपूर्ण सम्बन्धों की स्थापना का प्रयास ।

3. अन्तर्राष्ट्रीय कानून व अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियों का पालन व उनका सम्मान ।

4. अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के शांतिपूर्ण समाधान का समर्थन ।

6. संयुक्त राष्ट्र संघ तथा अन्तर्राष्ट्रीय कानून का समर्थन:

भारत राष्ट्रों के मध्य शांति तथा मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों का पक्षधर है । इसीलिए भारत की विदेश नीति का एक पहलू यह है कि वह संयुक्त राष्ट्र संघ तथा अन्तर्राष्ट्रीय कानून का समर्थन करती है । भारत संयुक्त राष्ट्र संघ का संस्थापक देश है । भारत ने सदैव संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा विश्व शांति तथा मानवाधिकारों की रक्षा के लिए जो भी कदम उठाएँ हैं उनका समर्थन किया है ।

7. नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का समर्थन:

भारत समता और न्याय पर आधारित नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की स्थापना का पक्षधर है, जिसमें विकासशील व गरीब देशों के हितों की रक्षा हो सके । इसके लिए भारत के प्रयासों से 1974 में संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा द्वारा नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का प्रस्ताव स्वीकार किया गया था, लेकिन धनी देशों के विरोध के चलते इसे व्यावहारिक रूप नहीं दिया जा सका है ।

वैश्वीकरण के वर्तमान युग में भी भारत एक बहुपक्षीय वैश्विक व्यवस्था की स्थापना का पक्षधर है, जिसमें अमीर देशों के साथ-साथ गरीब देशों के हितों की रक्षा हो सके । भारत समय-समय पर वित्तीय संस्थाओं जैसे- विश्व बैंक तथा अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष में सुधार की माँग करता रहता है ।

8. विकासशील देशों के हितों का प्रतिनिधित्व:

भारत स्वयं एक विकासशील देश है तथा एशिया और अफ्रीका के विकासशील देशों के हितों उसने सदैव प्रतिनिधित्व किया है । भारत ने सच्चा राष्ट्र संघ, गुटनिरपेक्ष आन्दोलन तथा समकालीन मंचों जैसे-जी-20, विश्व व्यापार वार्ताएं, जलवायु परिवर्तन बार्ताएं आदि में विकासशील देशों के हितों की पूर्ति करने वाले मुद्दों को उठाया है ।

गुटनिरपेक्ष आन्दोलन वास्तव में विकासशील देशों का आन्दोलन है । 2003 में भारत ने विकासशील देशों के मध्य सहयोग को बढ़ाने के दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील के साथ मिलकर इब्सा नामक संस्था की स्थापना की है । इब्सा दक्षिण-दक्षिण सहयोग का एक महत्वपूर्ण माध्यम है ।

क्या है दक्षिण-दक्षिण सहयोग? (What is South-South Cooperation?):

दक्षिण-दक्षिण सहयोग का अर्थ है- विकासशील और गरीब देशों में आपसी सहयोग को बढ़ाना । चूंकि एशिया, अफ्रीका व लैटिन अमेरिका के अधिकांश विकासशील देश पृथ्वी के दक्षिणी गोलार्द्ध में रहते हैं, अत: उन्हें दक्षिण के नाम से जाना जाता है । अत: उनके मध्य आपसी सहयोग दक्षिण-दक्षिण सहयोग कहा जायेगा ।

अधिकांश धनी व विकसित देश पृथ्वी के उत्तरी गोलार्द्ध में स्थित हैं, इसीलिए उन्हें उत्तर के देश कहा जाता है । इसी तर्ज पर जब विकसित और विकासशील देशों के बीच सहयोग को बढ़ाया जाता है तो उसे उत्तर-दक्षिण सहयोग की संज्ञा दी जाती है ।

गुटनिरपेक्ष आंदोलन (Non-Aligned Movement):

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विकासशील देशों की समस्याओं को उठाने तथा उनमें एकता स्थापित करने की दृष्टि से गुटनिरपेक्ष आन्दोलन एक महत्त्वपूर्ण आन्दोलन है । इस आन्दोलन की जड़ें भारत की गुटनिरपेक्षता नीति में निहित हैं । भारत के प्रयासों से 1955 में इण्डोनेशिया के शहर बांडुंग में एशिया और अफ्रीका के देशों की एकता का एक सम्मेलन बुलाया गया था ।

इस सम्मेलन का महत्व इस बात में है कि इसमें गुटनिरपेक्षता की नीति से सम्बन्धित 10 सिद्धान्तों का उल्लेख किया गया था । बाद में विश्व के अन्य नवोदित राष्ट्रों ने भी गुटनिरपेक्षता के सिद्धान्तों को अपनाया तथा गुटनिरपेक्ष आन्दोलन एशिया, अफ्रीका व लैटिन अमेरिका के नवोदित राष्ट्रों का आन्दोलन बन गया ।

गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की स्थापना में तीन नेताओं- भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति मार्शल टीटो तथा मिस्र के तत्कालीन राष्ट्रपति अब्दुल गयूम नासिर का विशेष योगदान है । इन तीनों नेताओं को गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के तीन कर्णधारों के रूप में मान्यता प्राप्त है ।

पहला शिखर सम्मेलन:

गुटनिरपेक्ष देशों का पहला शिखर सम्मेलन 1961 में यूगोस्लाविया की राजधानी बेलग्रेड में सम्पन्न हुआ । इस सम्मेलन में 25 देशों ने भाग लिया । इस सम्मेलन की मुख्य विषय वस्तु उपनिवेशवाद की समाप्ति था ।

गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का समकालीन स्वरूप (Contemporary Form of Non-Aligned Movement):

गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का निरन्तर विकास होता रहा है । इसके शिखर सम्मेलन सामान्यतया तीन साल के अन्तराल पर आयोजित किये जाते हैं । अब तक इसके 16 शिखर सम्मेलन हो चुके है । गुटनिरपेक्ष देशों का सातवाँ शिखर सम्मेलन 1983 में नई दिल्ली में संपन्न हुआ । इसका 16वाँ शिखर सम्मेलन 2012 में ईरान की राजधानी तेहरान में सम्पन्न हुआ था ।

वर्तमान में गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की सदस्यता का विस्तार हुआ है । इस समय इसमें 120 सदस्य देश तथा 15 देश पर्यवेक्षक के रूप में शामिल हैं । शीतयुद्ध के पूर्व गुटनिरपेक्ष आन्दोलन में उपनिवेशवाद की समाप्ति नि:शस्त्रीकरण को बढ़ावा नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की स्थापना रंगभेद नीति का विरोध आदि मुद्‌दों को उठाया गया । गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के कारण ही ये मुद्‌दे विश्व राजनीति में चर्चा का विषय बने ।

शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद वैश्वीकरण का युग आया तथा उसी के अनुसार गुटनिरपेक्ष आन्दोलन ने भी अपना स्वरूप बदला । वर्तमान में इसमें संयुक्त राष्ट्र संघ के सुधार, फिलीस्तीन समस्या का समाधान, पर्यावरण वार्ताओं में विकासशील देशों के हितों की रक्षा, आणविक सुरक्षा, आतंकवाद जैसे समकालीन मुद्दों को उठाया गया है । शीत युद्ध की समाप्ति के बाद भी कई कारणों से गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का औचित्य बना हुआ है ।

गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का समकालीन औचित्य (Contemporary Propriety of the Non-Aligned Movement):

गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की उत्पत्ति उस समय हुई थी जब विश्व दो गुटों में विभाजित था । अत: जब 1991 में सोवियत संघ का विघटन हुआ तथा शीतयद्ध का अंत हुआ तो यह कहा जाने लगा कि अब गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का औचित्य नहीं है । लेकिन बात उचित नहीं है ।

वास्तव में वर्तमान में विकासशील व गरीब देशों के आर्थिक हितों रक्षा करने, विभिन्न वैश्विक समस्याओं में उनका पक्ष प्रस्तुत करने, उन देशों के मध्य आपसी सहयोग व एकता बढ़ाने तथा विश्व करने, उभरती हुई व्यवस्था में उनका सम्मानजनक स्थान सुरक्षित करने के लिए आज भी गुटनिरपेक्ष आन्दोलन औचित्यपूर्ण है ।

आन्दोलन नेता इस बात को समझते है तथा बदली हुई परिस्थितियों के अनुसार उन्होंने इस आन्दोलन में समकालीन मुद्‌दों को भी उठाना शुरू कर दिया । आज भी विकासशील और गरीब देशों की चुनौतियाँ कम नहीं हुईं । इसलिए शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद वैश्वीकरण के युग में भी गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का औचित्य बना हुआ है ।


5. भारत की विदेशी नीति में निरन्तरता व बदलाव (Continuity and Change in Foreign Policy of India):

चूंकि किसी भी देश की आन्तरिक व बाह्य परिस्थितियों से प्रभावित होती है, अत: इन परिस्थितियों में बदलाव के साथ विदेश नीति में भी परिवर्तन किये जाते हैं । भारत की विदेश नीति में भी ये परिवर्तन दिखाई देते हैं ।

शीत युद्ध काल (Cold War Period):

उपनिवेशवादी शासन से मुक्त होने के बाद शीत युद्ध काल में भारत ने गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाई थी । ऐसा करना भारत के विकास तथा विश्व शान्ति दोनों के लिये आवश्यक था । शीत युद्ध काल में ही जब 1971 के दशक में अमेरिका ने पाकिस्तान के साथ सैनिक व आर्थिक सहयोग की नीति अपनाई तो भारत ने अपनी सुरक्षा की दृष्टि से सोवियत गुट के साथ घनिष्ठ सम्बन्धों की नीति अपनायी । यह गुट निरपेक्षता की नीति का त्याग नहीं था वरन् भारत के व्यापक हितों की दृष्टि से उसमें समायोजन किया जाना था ।

उत्तर-शीत युद्ध काल (Post-Cold War Period):

1991 में सोवियत संघ के विघटन तथा वैश्वीकरण की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण अन्तर्राष्ट्रीय परिदृश्य में आधारभूत बदलाव हुआ । इस बदलाव के आलोक में भारत ने घरेलू स्तर पर न केवल आर्थिक उदारीकरण की नीति अपनाई वरन् अपनी विदेश नीति और अधिक व्यावहारिक व व्यापक बनाने का प्रयास किया ।

इसके अन्तर्गत जहाँ एक ओर अमेरिका के साथ को सुधारने का प्रयास किया गया वहीं दूसरी ओर नये दक्षिण-पूर्व एशिया, सेण्ट्रल एशिया आदि के देशों के साथ भारत के संबन्धों को मजबूत बनाने पर बल दिया गया । 1991 भारत की ‘पूर्व की ओर देखो’ की नीति पूर्वी एशिया साथ घनिष्ठ आर्थिक व सामरिक संबन्धों की पक्षधर है । इसी के साथ भारत की विदेश नीति में आर्थिक हितों जैसे व्यापार, निवेश, ऊर्जा सुरक्षा आदि तत्वों को अधिक महत्व दिया गया ।

फिर भी भारत की विदेशी नीति आज भी अपने मौलिक सिद्धांतों जैसे देशों की संप्रभु समानता व स्वतंत्रता का सम्मान, विवादों का शान्तिपूर्ण समाधान, शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व, निःशस्त्रीकरण तथा विश्व शान्ति व सुरक्षा का समर्थन आदि पर यथावत् कायम है । इनमें कोई बदलाव नहीं किया गया । अत: भारतीय विदेश नीति निरन्तरता के साथ बदलाव का प्रतीक है ।


6. भारत-चीन सम्बन्ध तथा 1962 का युद्ध (Indo-China Relations and War of 1962):

भारत व चीन विश्व के सबसे बड़े देश होने के साथ-साथ पड़ोसी देश भी हैं । भारत में आजादी के बाद 1947 में नये लोकतांत्रिक शासन की स्थापना हुई तथा चीन में 1949 में साम्यवादी क्रान्ति के बाद साम्यवादी पार्टी का शासन स्थापित हुआ । भारत ने चीन में साम्यवादी क्रान्ति का स्वागत किया तथा संयुक्त राष्ट्रसंघ की सुरक्षा परिषद् में स्थाई सदस्यता हेतु साम्यवादी चीन की सदस्यता का समर्थन किया ।

इस समय पश्चिमी देश व अमेरिका सुरक्षा परिषद् में चीन की स्थाई सदस्यता का विरोध कर रहे थे । वे क्रान्ति के पूर्व की चीन की राष्ट्रवादी सरकार का समर्थन कर रहे थे, जो फारमोसा अथवा वर्तमान ताईवान में स्थापित थी । 1950 का दशक दोनों के मध्य सहयोग व मैत्री का दशक था ।

पंचशील समझौता (Panchsheel Agreement):

1954 में चीन के प्रधानमंत्री चाउ एन लाई भारत यात्रा पर आये तथा उस समय हिन्दी-चीनी भाई-भाई के नारे लगाये गये । इस यात्रा के दौरान भारत व चीन के मध्य मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों के संचालन हेतु एक समझौते पर हस्ताक्षर हुये जिसमें आपसी संबन्धों के संचालन हेतु पाँच मार्गदर्शक सिद्धान्त थे । इसे पंचशील समझौते के नाम से जाना जाता है ।

इसके पाँच सिद्धान्त हैं:

1. एक-दूसरे की संप्रभुता तथा क्षेत्रीय अखण्डता का सम्मान ।

2. एक-दूसरे के विरुद्ध आक्रमण न करना ।

3. एक-दूसरे के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना ।

4. पारस्परिक लाभ की भावना से काम करना ।

5. शान्तिपूर्ण सह- अस्तित्व । इसका तात्पर्य है कि भारत व चीन विरोधी विचारधाराओं व राजनीतिक व्यवस्था के बावजूद शान्तिपूर्ण तरीके से साथ-साथ रह सकते हैं ।

तिब्बत की समस्या (Tibet’s Problem):

तिब्बत भारत व चीन के मध्य भारत के उत्तर में स्थित है । दो देशों के बीच स्थित किसी क्षेत्र को मध्यस्थ राज्य (Buffer State) कहते हैं । भारत की सुरक्षा की दृष्टि से मध्यस्थ क्षेत्र तिब्बत का विशेष महत्त्व है ।

तिब्बत का कुल क्षेत्रफल 25 लाख वर्ग किलोमीटर है तथा यहाँ की जनसंख्या 30 लाख है । बौद्ध धर्म यहाँ प्राचीन काल में भारत से प्रचारित किया गया था । यहाँ के निवासी बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं । अत: भारत की उनके प्रति सहानुभूति होना स्वाभाविक है । ब्रिटिश काल में तिब्बत को एक स्वायत्तशासी क्षेत्र के रूप में मान्यता प्राप्त थी । उस समय चीन ने भी तिब्बत की स्वायत्तशासी स्थिति को स्वीकार किया था ।

लेकिन 1949 में साम्यवादियों के सत्ता में के बाद चीन ने चुपचाप विस्तारवादी नीति अपनायी तथा तिब्बत को अधीन करने का षड्‌यंत्र शुरू कर दिया । 1951 में चीन ने तिब्बत पर सैनिक कब्जा कर लिया तथा चीन की प्रभुसत्ता स्वीकार करने के दलाई लामा के साथ एक समझौता किया ।

1954 में भारत ने भी तिब्बत पर चीन की प्रभुसत्ता स्वीकार कर ली लेकिन उसे एक स्वायत्त उठ के रूप में मान्यता प्रदान की । चीन इससे संतुष्ट नहीं था क्योंकि छ उसे स्वायत्त क्षेत्र के रूप में स्वीकार नहीं करता था । 1956 में चीन के धार्मिक नेता दलाई लामा ने भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से मुलाकात कर चीन की विस्तारवादी नीति से अवगत कराया लेकिन भारत ने अपनी नीति में परिवर्तन नहीं किया ।

चीन ने क्रमश: तिब्बत के लोगों की संस्कृति को समाप्त कर वहाँ साम्यवाद की स्थापना करने का प्रयास किया । उन्होंने भारत के समर्थन से हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला शहर में तिब्बत की निर्वासित सरकार की स्थापना की । चीन भारत के इस कदम से नाराज हो गया तथा 1962में भारत पर आक्रमण कर दिया ।

1962 का चीनी आक्रमण (Chinese Invasion of 1962):

साम्यवादी चीन की दमनकारी नीतियों से विवश होकर 1959 में दलाई लामा ने अपने हजारों अनुयायियों के थ भारत में शरण ली । भारत ने तिब्बत की निर्वासित सरकार को मान्यता प्रदान कर दी तथा उसका मुख्यालय हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला स्थान पर बनाया गया है । आज भी तिब्बत की निर्वासित सरकार का मुख्यालय धर्माशाला में ही स्थित है । चीन ने भारत के इस कदम का तीव्र विरोध किया तथा भारतीय सीमा पर सैनिक चौकियों की स्थापना कर ली ।

चीन का इरादा तिब्बत की आड़ में भारत के एक बड़े भूभाग पर कब्जा करना था । अत: चीन की सेनाओं ने 20 अक्टूबर, 1962 को भारत के लद्दाख क्षेत्र तथा नेफ़ा (नार्थ ईस्ट फ़्रंन्टियर एरिया अर्थात वर्तमान में अरुणाचल प्रदेश) पर भीषण आक्रमण कर दिया । भारत मानसिक व सैनिक दोनों तरह से इस आक्रमण करने के लिये तैयार नहीं था । अत: इस युद्ध में भारत की पराजय हुई । चीन अन्त में 21 नवम्बर 1962 को एकपक्षीय युद्ध विराम की घोषणा कर दी ।

अमेरिका के राष्ट्रपति केनेडी ने भारत का साथ देते हुये चीन को आक्रमण रोकने के लिये कहा । सोवियत संघ इस युद्ध में साम्यवादी देश होने के कारण तटस्थ रहा । चीन ने युद्ध विराम के समय छ क्षेत्र में अक्साई चिन पर कब्जा कर लिया जो आज भी चीन के कब्जे में है । भूभाग खोने के साथ ही इस पराजय से अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भारत की प्रतिष्ठा को धक्का लगा ।

भारत-चीन सीमा विवाद (Indo-China Border Dispute):

युद्ध में चीन ने लद्‌दाख क्षेत्र में अक्साई चिन एरिया में भारत के 36,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर कब्जा लिया । इसके साथ ही उसने पूर्वी सीमा पर अरूणाचल प्रदेश में 90,000 वर्ग किलोमीटर के भारतीय क्षेत्र पर अपना दावा प्रस्तुत कर दिया । क्षेत्र को चीन तिब्बत का दक्षिणी हिस्सा मानता है ।

चीन आज भी अपनी माँग पर कायम है तथा अरूणाचल प्रदेश के निवासियों को क बीजा जारी करता है । यह विवाद चीन की विस्तारवादी नीति का परिणाम है । ब्रिटिशकाल में दोनों देशों के बीच सीमा का निर्धारण किया गया था । इसे मैकमोहन लाइन के नाम से जानते हैं । लेकिन चीन मैकमोहन रेखा को अब स्वीकार नहीं करता है ।

सीमा विवाद की वर्तमान स्थिति (Current Status of Boundary Dispute):

सीमा विवाद के समाधान के लिये दोनों देशों ने कई प्रयास किये हैं, लेकिन इसका समाधान नहीं मिला । 1988 में इसके समाधान के लिये नियमित वार्ताओं का सिलसिला शुरू किया गया लेकिन सफलता नहीं मिली । पुन: 1996 में विशेष प्रतिनिधियों की नियुक्ति करके वार्ताओं का सिलसिला आरंभ किया गया । 2013 तक 17 चक्रों की वार्ताएँ हो चुकी हैं, लेकिन समाधान दूर है ।

2013 में कई बार चीनी सैनिकों ने वास्तविक नियंत्रण रेखा का उल्लंघन किया है । अब चीन का दृष्टिकोण यह है कि सीमा पर शान्ति बनाये रखी जाये तथा सीमा विवाद के चलते भी अन्य मामलों में सम्बन्धों को आगे बढ़ाया जाये । इसीलिये भारत व चीन ने सीमा पर शान्ति व सुरक्षा बनाये रखने के लिए 2013 में सीमा प्रतिरक्षा प्रबन्धन समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं । अत: सीमा विवाद अभी तक नहीं सुलझा है ।

भारत-चीन सम्बन्धों की वर्तमान स्थिति:

भारत-चीन सम्बन्धों की वर्तमान स्थिति का निचोड़ यह है कि सीमा विवाद के बावजूद आर्थिक अन्य क्षेत्रों में दोनों देशों के सम्बन्धों में सुधार हुआ है । तनाव के कतिपय अन्य कारण भी हैं । अत: वर्तमान में दोनों देशों के मध्य तनावों बीच सम्बन्धों को सामान्य बनाने की प्रक्रिया चल रही है ।

सम्बन्धों में सुधार की प्रक्रिया (Process of Improvement in Relations):

युद्ध के बाद दोनों देशों ने सम्बन्धों सामान्य बनाने का प्रयास किया । 1976 में दोनों के कूटनीतिक सम्बन्ध पुन स्थापित हुये जो 1962 में टूट गये थे । 1979 में भारत के तत्कालीन विदेश मंत्री अटलबिहारी बाजपेयी ने चीन की यात्रा की ।

1985 में दोनों ने एक नये व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किए इसी क्रम में 1988 में भारत के प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की चीन यात्रा सर्वाधिक महत्वपूर्ण है इस यात्रा के दौरान दोनों देशों ने सीमा विवाद का हल खोजने, सांस्कृतिक आदान-प्रदान बढ़ाने तथा नागरिक उड्‌डयन के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने के समझौतों पर हस्ताक्षर किये ।

1996 में चीन के तत्कालीन राष्ट्रपति जियांग जेमिन भारत यात्रा पर आये । यह चीन के किसी राष्ट्रपति की पहली भारत यात्रा थी । इस यात्रा के दौरान दोनों देशों ने सीमा विवाद को निबटाने के लिये विशेष प्रतिनिधियों की नियुक्ति का निर्णय लिया ।

वैश्वीकरण के वर्तमान युग में दोनों देशों ने आर्थिक क्षेत्र में सहयोग को तेजी से आगे बढ़ाया है । 2010 में चीन भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार देश बन गय है । यह बात अलग है कि व्यापार घाटा भारत के विरुद्ध है । दोनों देश के मध्य वर्तमान में प्रतिवर्ष नियमित शिखर वार्ताओं की व्यवस्था भी की गयी है ।

इसके अतिरिक्त दोनों देश कई अन्तर्राष्ट्रीय मुद्‌दों जैसे जलवायु परिवर्तन वार्ताओं विश्व व्यापार वार्ताओं आदि में एक समान दृष्टिकोण अपना रहे हैं । दोनों ही वैश्विक संगठनों जैसे ब्रिक्स, जी-20 आदि के सदस्य हैं तथा कई मामलों में सहयोग कर रहे हैं ।

तनाव के वर्तमान मुद्दे (Current Issues of Stress):

बढ़ते सहयोग के बीच दोनों देशों के बीच तनाव के कतिपय नये मामले भी विद्यमान हैं:

1. पाकिस्तान-चीन सामरिक गठजोड़ (Pakistan-China Tactical Alliance):

भारत व चीन के साथ लम्बे समय से भारत विरोधी सामरिक गठजोड़ विकास हो रहा है । 1963 में ही पाकिस्तान ने अपने हिस्से वाले कश्मीर की 5,000 वर्ग किलोमीटर भूमि चीन को दे दी थी तथा चीन ने पाकिस्तान को जोड़ने वाले कराकोरम हाई वे का निर्माण इसी क्षेत्र पर किया है । पाकिस्तान का आणविक हथियार तथा मिसाइल कार्यक्रम चीन की सहायता से ही चल रहा है । चीन ने 2010 से कश्मीर को भी विवादित क्षेत्र मानने की नीति अपनाई है ।

2. मोतियों की माला अथवा भारत को घेरने की नीति :

चीन भारत के पड़ोसी देशों जैसे पाकिस्तान, श्रीलंका, मालदीव, बांग्लादेश तथा म्याँमार आदि में नौसैनिक सुविधायें प्राप्त कर भारत के लिये सुरक्षा की चुनौती खड़ा कर रहा है । इसे ‘मोतियों की माला’ अथवा ‘स्ट्रिंज आफ पर्ल्स’ भी कहते हैं ।

3. विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में सामरिक प्रतियोगिता (Strategic Competition in Different Fields of the World):

भारत तथा चीन दोनों ही 21वीं शताब्दी में उभरती हुई शक्तियाँ है तथा अपने प्रभाव को बढ़ाने तथा संसाधन व आर्थिक लाभ के लिये दोनों देशों के बीच अफ्रीका दक्षिण एशिया तथा दक्षिण-पूर्व एशिया में सामरिक प्रतियोगिता चल रही है तथा दोनों के बीच नये विवादों की संभावना भी बढ़ गयी है ।

चीन दक्षिण-पूर्व एशिया में भारत के बढ़ते प्रभाव का विरोध कर रहा है । भारत अपनी पूर्व की ओर देखो नीति के तहत् इस क्षेत्र में अपने सम्बन्धों को मजबूत बनाने का प्रयास कर रहा है । अत: वर्तमान में भारत व चीन के संबन्ध तनावों के बीच सहयोग बढ़ाने के सम्बन्ध हैं ।


7. भारत-पाकिस्तान सम्बन्ध तथा 1971 का युद्ध (Indo-Pak Relations and War of 1971):

पाकिस्तान भी भारत का पड़ोसी देश है । ब्रिटिशकाल में पाकिस्तान अखण्ड भारत का अंग था । अंग्रेजों की फूट डालो व शासन करो की नीति तथा मोहम्मद अली जिन्ना के द्विराष्ट्र सिद्धान्त के परिणामस्वरूप आजादी के समय 1947 में भारत का विभाजन करना पड़ा तथा कट पाकिस्तान का एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में उदय हुआ । साम्प्रदायिकता तथा तनावों के बीच हुये इस विभाजन के कारण भविष्य में भी भारत व पाकिस्तान के सम्बन्ध अच्छे नहीं रह सके ।

इसके दो प्रमुख कारण है:

(i) यह कि पाकिस्तान कभी इस मानसिकता में ज्वर नहीं पाया कि भारत उसका प्रतिद्वन्दी है । अत: वह सदैव भारत के साथ बराबरी बनाने का प्रयास करता है, जबकि वास्तविक परिस्थितियों इसके विपरीत हैं ।

(ii) पाकिस्तान में कभी लोकतंत्र की जड़ें मजबूत नहीं हो पाईं तथा विदेश व प्रतिरक्षा नीतियों का संचालन सेना के नियंत्रण में रहा है ।

भारत के साथ तनातनी का माहौल पाकिस्तान की सेना को अपना मजबूत स्थिति बनाये रखने में सहायक है । उक्त तथ्यों के आलोक में पाकिस्तान ने 1947 में ही कश्मीर पर कब्जा स्थापित करने के लिये आक्रमण कर दिया था ।

इस युद्ध में भारत की सेनाओं ने पाकिस्तान के आक्रमण को विफल कर दिया । फिर भी पाकिस्तान कश्मीर के एक हिस्से पर कब्जा बनाये रखने में सफल रहा । यह हिस्सा अब भी पाकिस्तान के कब्जे में है तथा इसे पाक अधिकृत कश्मीर के नाम से जाना जाता है । पाकिस्तान में इसे आजाद कश्मीर कहा जाता है । तब से लेकर आज तक कश्मीर की समस्या भारत-पाक सम्बन्धों की एक प्रमुख समस्या बनी हुई है ।

1965 का भारत-पाक युद्ध (Indo-Pak War of 1965):

यद्यपि 1947 के युद्ध में उसकी पराजय हुई लेकिन उसने भारत से बदला लेने का लक्ष्य नहीं छोड़ा तथा 1965 में दोनों देशों के बीच पुन: युद्ध हुआ । 1965 में पाकिस्तान ने भारत पर दो बार आक्रमण किया । पहला आक्रमण मार्च-अप्रैल 1965 में गुजरात के कच्छ क्षेत्र में किया गया ।

पाकिस्तान कच्छ क्षेत्र पर अपनी संप्रभुता का दावा करता है, जिसे भारत ने कभी स्वीकार नहीं किया । यद्यपि 30 जून, 1965 को हुये एक समझौते द्वारा कच्छ की समस्या का अस्थाई समाधान कर लिया गया था लेकिन पाकिस्तान ने 1 सितम्बर, 1965 को भारत के विरुद्ध कश्मीर क्षेत्र में दूसरा आक्रमण किया । पाकिस्तान को यह आशा थी कि उसके आक्रमण को कश्मीर की मुस्लिम जनता का समर्थन मिलेगा लेकिन उसे निराशा हाथ लगी ।

यह युद्ध तीन सप्ताह चला । इस युद्ध में भारतीय सेनाओं ने अपने कौशल का परिचय देते हुये लाहौर की तरफ तीसरा मोर्चा खोल दिया था तथा 22 सितम्बर 1965 को युद्ध विराम के समय भारत की सेनाएँ लाहौर तक पहुंच गयी थीं ।

युद्ध विराम का प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् द्वारा पारित किया गया था । भारत ने इसका पालन किया । पाकिस्तान ने यद्यपि चीन तथा कतिपय इस्लामिक देशों के साथ भारत विरोधी मोर्चा बनाने का प्रयास किया लेकिन उसे इस युद्ध में भी सफलता नहीं मिली ।

ताशकंद समझौता, 1966 (Tashkent Agreement, 1966):

युद्ध के बाद दोनों देशों के बीच 10 जनवरी, 1966 को सोवियत संघ के शहर ताशकंद में एक समझौता हुआ जिसे ताशकंद समझौते के नाम से जाना जाता है । यह समझौता सोवियत संघ की मध्यस्थता से संपन्न हुआ । इसमें भारत की ओर से प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री तथा पाकिस्तान की ओर से जनरल अयूब खाँ ने हस्ताक्षर किये ।

समझौते की शर्तो के अन्तर्गत भारत को वे सभी क्षेत्र छोड़ने पड़े जो उसके सैनिकों ने अपनी जान गवाकर जीते थे । एक अत्यंत दुखद हादसा यह हुआ कि लालबहादुर शास्त्री की 10 जनवरी की रात को ही ताशकंद में मृत्यु हो गयी । उनकी मृत्यु भी विवाद का विषय बन गयी । फिर भी ताशकंद समझौते के परिणामस्वरूप जिस शान्ति की स्थापना हुई वह स्थाई शान्ति नहीं थी ।

1971 का भारत-पाक युद्ध तथा बांग्लादेश का उदय (Indo-Pak War of 1971 and Rise of Bangladesh):

कश्मीर पर नियंत्रण का मुद्‌दा पाकिस्तान नीति निर्माताओं के लिये सदैव संवेदनशील रहा है, लेकिन 1971 में पूर्वी पाकिस्तान ने पाकिस्तान के लिये एक नई समस्या उत्पन्न कर दी । पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान में बांग्लादेश) 1947 में देश के विभाजन के समय मुस्लिम आबादी के कारण पाकिस्तान में शामिल किया गया था ।

1971 में पाकिस्तान में राष्ट्रीय असेम्बली तथा प्रान्तीय विधान सभाओं के चुनाव हुये तथा इन चुनावों में शेख मुजीबुर्रहमान की अवामी लीग पार्टी को बहुमत प्राप्त हुआ लेकिन पाकिस्तान के सैनिक तानाशाह अवामी लीग को सत्ता हस्तांतरित नहीं करना चाहते थे ।

अवामी लीग पूर्वी पाकिस्तान में आधारित पार्टी थी । अत: अवामी लीग द्वारा इसके विरोध में आन्दोलन चलाया गया । इस आन्दोलन को पाकिस्तान की सेना द्वारा हिंसा व अत्याचारों के माध्यम से दबाने का प्रयास किया गया । परिणामत लाखों की तादाद में पूर्वी पाकिस्तान के लोग शरणार्थी के रूप में भारत चले आये ।

भारत लोकतंत्र का समर्थक है तथा भारत की सहानुभूति अवामी लीग के साथ थी । अत: भारत ने अवामी लीग की राजनीतिक व नैतिक मदद की । विरोधस्वरूप 3 दिसम्बर, 1971 को पाकिस्तान ने भारत के विरुद्ध भीषण बमबारी के साथ आक्रमण कर दिया । 1971 के भारत-पाक युद्ध में पूर्व की भांति पाकिस्तान की पराजय हुई तथा उसकी सेनाओं के कमाण्डर जनरल नियाजी ने 16 दिसम्बर को भारतीय सेनाओं के सामने आत्म समर्पण कर दिया ।

इस युद्ध में पाकिस्तान की पराजय का सबसे महत्त्वपूर्ण परिणाम पूर्वी पाकिस्तान की आजादी के रूप में सामने आया । भारत के सहयोग से पूर्वी पाकिस्तान के स्थान पर बांग्लादेश नामक नये राष्ट्र का उदय हुआ । यह पाकिस्तान की बहुत बड़ी क्षति थी । शेख मुजीबुर्रहमान नये बांग्लादेश के पहले शामक हुये । इसके साथ ही भारत तथा बांग्लादेश के मध्य मैत्री पूर्ण सम्बन्धों का युग आरंभ हुआ ।

इस युद्ध में अमेरिका ने पाकिस्तान का साथ दिया तथा उसने हिन्द महानगर में अपना सातवाँ जहाजी बेड़ा भेजकर भारत को धमकाने का भी प्रयास किया । दूसरी तरफ सोवियत संघ ने भारत का खुल कर सहयोग दिया ।

इस सहयोग की पृष्ठभूमि अगस्त 1971 की भारत सोवियत मैत्री संधि द्वारा तैयार की गयी थी । इसी युद्ध के बाद भारत का झुकाव सोवियत संघ की ओर हो गया तथा भारत व अमेरिका के सम्बन्ध अधिक खराब हो गये । पुन: अमेरिका तथा पाकिस्तान के मध्य घनिष्ठ सम्बन्धों का शुरुआत भी हुई । 1980 के दशक में अमेरिका ने पाकिस्तान को बड़ी मात्रा में आर्थिक तथा सैनिक सहायता प्रदान की, जिसका प्रयोग समय-समय पर पाकिस्तान द्वारा भारत के विरुद्ध किया गया ।

शिमला समझौता, 1972 (Shimla Agreement, 1972):

1971 का युद्ध अब तक के सभी युद्धों में पाकिस्तान के लिये सबसे घातक युद्ध था । पराजय के साथ ही उसे पूर्वी पाकिस्तान से हाथ धोना पड़ा तथा विश्व में उसकी बची हुई प्रतिष्ठा भी धूमिल हो गयी । संबन्धों को सामान्य करने के लिये भारत की प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी तथा पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्‌टो के बीच बातचीत के बाद शिमला में दोनों देशों के बीच एक समझौते पर हस्ताक्षर किये गये जिसे शिमला समझौते के नाम से जानते हैं ।

शिमला समझौते की निम्न मुख्य बातें हैं:

(1) दोनों देश सहमत हुये कि वे संयुक्त राष्ट्र के सिद्धान्तों में आस्था व्यक्त करते हैं तथा भविष्य में दोनों देशों के सम्बन्धों का संचालन इन्हीं सिद्धान्तों के आधार पर होगा । दोनों देश भविष्य में राष्ट्रीय एकता क्षेत्रीय अखण्डता तथा राजनीतिक स्वतंत्रता का सम्मान करेंगे ।

(2) दोनों पक्ष अपने विवादों का समाधान शांतिपूर्ण तरीकों से तथा द्विपक्षीय आधार पर करेंगे जिसमें किसी तीसरे पक्ष को शामिल नहीं किया जाएगा ।

(3) दोनों देश सम्बन्धों में सुधार लाने की दृष्टि से निम्न कदम उठायेंगे:

(अ) उनके बीच डाक-तार सेवा, जल, थल, वायुमार्गों द्वारा पुन: संचार व्यवस्था होगी ।

(ब) एक-दूसरे देश के नागरिकों के बीच सम्बन्धों को बढ़ाने के लिये नागरिकों के आवागमन की सुविधाएं बढ़ायी जायेंगी ।

(स) आर्थिक व व्यापारिक मामलों में सहयोग का सिलसिला जल्द से जल्द किया जायेगा ।

(द) विज्ञान एवं सांस्कृतिक क्षेत्रों में सहयोग को बढ़ावा दिया जायेगा ।

(य) दोनों एक-दूसरे के प्रति घृणित प्रचार नहीं करेंगे ।

(4) स्थायी शान्ति कायम करने की प्रक्रिया का आरम्भ करने के लिए निम्नलिखित कदम उठाए जायेंगे:

1. दोनों देशों की सेनाएँ अन्तर्राष्ट्रीय सीमाओं में लौट जाएगी ।

2. 17 दिसम्बर 1971 की युद्ध विराम रेखा को नियन्त्रण रेखा के रूप में माना जाएगा । वास्तव में 1948 में दोनों देशों के बीच जो युद्ध विराम रेखा थी उसी को नियन्त्रण रेखा (Line Of Control- LOC) का नाम दे दिया गया । अब भारत और पाकिस्तान के बीच इसे नियन्त्रण रेखा के नाम से ही जाना जाता है ।

परिणामस्वरूप भारत ने पाकिस्तान के जिस 5,193 वर्ग मील क्षेत्र पर इस युद्ध के उपरान्त कब्जा किया था उसे शिमला समझौते के द्वारा वापस कर दिया गया तथा कश्मीर समस्या का कोई स्थाई समाधान फिर भी प्राप्त नहीं हुआ ।

दूसरी बात यह कि पाकिस्तान समय-समय पर इस समझौते का उल्लंघन करता रहा है तथा कश्मीर समस्या के द्विपक्षीय समाधान के स्थान पर इस मामले को अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर उठाता रहा है । जबकि ऐसा किया जाना शिमला समझौते का उल्लंघन है ।

भारत-पाकिस्तान सम्बन्धों की वर्तमान स्थिति (Current Status of Indo-Pak Relations):

1972 के बाद भारत-पाक सम्बन्धों की स्थिति यह है कि जहाँ एक ओर विश्वास बहाली तथा शान्ति के प्रयास किये जा रहे हैं वहीं दूसरी ओर पाकिस्तान द्वारा आतंकवाद का समर्थन कश्मीर समस्या पाकिस्तान द्वारा सीमा पर सैनिक घुसपैठ जैसे मुद्‌दों के कारण तनाव भी बना हुआ है तथा कई बार विचार-विमर्श की प्रक्रिया भी रुक जाती है ।

वर्तमान संबन्धों को निम्न बिन्दुओं के अन्तर्गत समझ सकते हैं:

विश्वास बहाली व शान्ति के प्रयास (Efforts of Confidence and Peace):

इस काल में दोनों देशों ने विश्वास बहाली के कई प्रयास किये हैं ।

इनमें से प्रमुख हैं:

(i) 1976 में दोनों देशों के मध्य कूटनीतिक सम्बन्ध पुन: स्थापित हुए । दोनों देशों ने 14 अप्रैल 1978 को भारत स्थित सलाल जल विद्युत् परियोजना के सम्बन्ध में एक संधि पर हस्ताक्षर किए ।

(ii) 1985 में दोनों देश एक समझौते के अंतर्गत इस बात पर सहमत हुए कि कोई भी देश एक-दूसरे के परमाणु ठिकानों पर हमला नहीं करेगा । इस समझौते की बातों को 1988 में पुन: दोहराया गया ।

(iii) लाहौर घोषणा (Lahore Declaration):

दिल्ली-लाहौर बस सेवा के उद्‌घाटन के अवसर पर भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री ने फरवरी 1999 में लाहौर की यात्रा की तथा दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों ने एक संयुक्त घोषणा की जिसे लाहौर घोषणा के नाम से जाना जाता है । इस घोषणा में आतंकवाद की निन्दा कश्मीर समस्या के समाधान के लिए नियमित द्विपक्षीय वार्ता शिमला समझौते के प्रति वचनबद्धता परमाणु टकराव का खतरा कम करने पर सहमति जैसे बिन्दुओं पर दोनों देशों ने अपनी सहमति व्यक्त की ।

(iv) 2008 में दोनों देशों ने कश्मीर के दोनों हिस्सों के बीच स्थलीय सीमा व्यापार की शुरुआत की ।

(v) भारत-पाकिस्तान समग्र वार्ता, 2004:

सम्बन्धों को सुधारने की दिशा में पहल करते हुए भारत ने 22 अक्टूबर, 2003 को एक 12 सूत्रीय प्रस्ताव की घोषणा की जिसमें मुख्य रूप से दोनों देशों के मध्य मेल-जोल बढ़ाने तथा विश्वास पैदा करने वाले उपायों की चर्चा थी ।

इसमें दोनों देशों ने निम्न आठ महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं पर समग्र वार्ता प्रक्रिया आरम्भ करने का निर्णय लिया:

1. गुजरात में सर क्रीक क्षेत्र पर सम्प्रभुता का विवाद ।

2. तुलबुल नैवीगेशन परियोजना पर पाकिस्तान की आपन्तियों का समाधान ।

3. सियाचिन क्षेत्र में सीमांकन सम्बन्धी विवाद ।

4. आतंकवाद तथा नशीली दवाओं के अवैध व्यापार पर नियन्त्रण ।

5. मैत्री पूर्ण आदान-प्रदान को प्रोत्साहन ।

6. आर्थिक तथा व्यापारिक सहयोग को बढ़ावा ।

7. विश्वास उत्पन्न करने वाले उपायों सहित शांति व सुरक्षा की समस्याओं पर विचार ।

8. कश्मीर समस्या के समाधान के उपाय ।

लेकिन ये वार्ताएँ अधिक नहीं चल सकी क्योंकि भारत ने 2008 में पाकिस्तान स्थित आतंकवादियों द्वारा बम्बई में आतंकवादी हमले के विरोधस्वरूप इन पर रोक लगा दी । ये वार्तायें यद्यपि दूसरे नाम से 2010 में शुरू हुईं लेकिन तनावों के चलते कोई प्रगति नहीं हो पाई ।

भारत-पाक तनाव के कारण (Reasons for Indo-Pak Tension):

दोनों के मध्य वर्तमान में तनाव के निम्न प्रमुख कारण हैं:

(i) पाकिस्तान द्वारा आतंकवाद का समर्थन (Pakistan’s Support for Terrorism):

1990 के बाद पाकिस्तान ने समय-समय पर भारत विरोधी आतंकवादी गति-विधियों को बढ़ावा देने की नीति अपनाई है । इन गतिविधियों का केन्द्र मुख्यत: कश्मीर देश के अन्य इलाके हैं । उदाहरण के लिये 24 दिसम्बर 1999 को भारतीय विमान आई.सी. 814 का पाकिस्तान समर्थित आतंकियों ने अपहरण कर लिया तथा उसे अफगानिस्तान के कन्धार शहर में ले गये ।

अपहरणकर्ताओं ने भारत में बंद अपने अन्य आतंकवादियों को छुड़ाने के बाद ही अपहृत विमान को मुक्त किया । पुन: पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी संगठनों लश्कर-ए-ताइबा तथा जैश-ए-मुहम्मद के आतंकवादियों ने 13 दिसम्बर, 2001 को भारत की संसद पर हमला करके भारत की सम्प्रभुता को ही चुनौती दे डाली । 2008 में मुम्बई के ताज होटल में आतंकवादी हमला किया गया । पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद की कई घटनाएँ देश के विभिन्न हिस्सों में हो चुकी हैं । इस कारण दोनों देशों के सम्बन्ध तनावपूर्ण बने हुये हैं ।

(ii) सियाचिन पर कब्जा तथा कारगिल युद्ध (Capture Siachen and Kargil War):

लाहौर घोषणा की स्याही सूख भी नहीं पायी थी कि पाकिस्तान ने चुपचाप कश्मीर के सियाचिन क्षेत्र पर कब्जा कर लिया । विरोध करने पर पाकिस्तान की सेना ने कारगिल में घुसपैठ करते हुये 9 मई, 1999 को भारत पर आक्रमण कर दिया । इसे कारगिल युद्ध के नाम से जाना जाता है ।

यह दोनों देशों के बीच चौथा युद्ध था । कारगिल युद्ध में भारतीय सेना को भारी सफलता प्राप्त हुई तथा भारतीय सेनाओं ने जम्मू-कश्मीर के कारगिल-द्रास-बटालिक तथा मश्कोह क्षेत्रों से पाकिस्तानी सेना को खदेड़ दिया । यह युद्ध 11 जुलाई, 1999 तक चला । इसके बाद अक्टूबर 1999 को जनरल मुशर्रफ सैनिक सरकार का तख्ता पलट स्वयं शासक बन बैठे ।

(iii) सीमा पर घुसपैठ (Infiltration on the Border):

आतंकवादियों व अवैध हथियारों के साथ भारत में प्रवेश कराने के लिये समय-समय पर घुसपैठ करती रहती हैं । कई बार भारतीय सैनिकों की हत्या तथा उनका सर कलम करने जैसी घटनाएं भी हुई हैं । इससे दोनों देशों में तनाव बना रहता है ।

(iv) तनाव के अन्य बिन्दु (Other Points of Stress):

पाकिस्तान द्वारा भारत के साथ परमाणु क्षेत्र में बराबरी करने के लिये चीन की सहायता से मिसाइल व अन्य परमाणु हथियार विकसित करना कश्मीर मुद्‌दे को वैश्विक मंचों पर उठाना तथा संयुक्त नदियों के जल बँटवारे का विवाद दोनों देशों के मध्य वर्तमान में तनाव के अन्य कारण हैं ।

निष्कर्षत: भारत व पाकिस्तान के संबन्ध आजादी के बाद निरन्तर तनावपूर्ण रहे हैं । लेकिन इसके साथ-साथ संबन्धों को सामान्य बनाने के प्रयास भी किये गये हैं । 2013 में लगातार पाकिस्तान में दूसरी बार लोकतांत्रिक सरकार स्थापित हुयी है । अत: यह उम्मीद की जाती है कि वहाँ विदेश नीति में सेना का हस्तक्षेप कम होगा तथा इससे सम्बन्धों को सामान्य बनाने में सहायता मिलेगी ।


8. विश्व राजनीति में बदलते गठबन्धन (Changing Alliance in World Politics):

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद गठबन्धन-देश की राजनीति की भाँति विश्व राजनीति भी गतिमान तथा परिवर्तनशील है ।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद शीत युद्ध काल में विश्व में मोटे तौर पर तीन प्रकार के समूह थे (:

(i) अमेरिका के नेतृत्व में विकसित पूँजीवादी देशों का गठबन्धन;

(ii) सोवियत संघ के नेतृत्व में विकसित साम्यवादी देशों का गठबन्धन; तथा

(iii) गुटनिरपेक्ष देशों का समूह था जो इन दोनों विरोधी गुटों से अलग रहते हुये स्वतंत्र विदेश नीति का पालन करते थे ।

इस व्यापक विभाजन में यदा-कदा देशों के अपवाद भी थे । जहाँ पूँजीवादी व साम्यवादी गुट विश्व में अपने वर्चस्व की प्रतियोगिता में संलग्न थे वहीं गुटनिरपेक्ष देश विश्व शान्ति पर आधारित एक समतापूर्ण विश्व व्यवस्था की स्थापना के पक्षधर थे ।

उत्तर-शीत युद्ध काल तथा वैश्वीकरण के युग में बदलते गठबन्धन:

1990 के दशक में विश्व राजनीति में दो बदलाव ऐसे आये जिन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से चले आ रहे राष्ट्रों के समूहों व गठबन्धनों में व्यापक परिवर्तन कर दिये । ये बदलाव हैं- प्रथम, 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद शीत युद्ध का अन्त तथा पूर्वी यूरोप में साम्यवादी गुट का विघटन । दूसरा पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के मापदण्डों पर आधारित वैश्वीकरण की प्रक्रिया में तेजी ।

इन आधारभूत तत्वों के कारण विश्व में राष्ट्रों के मध्य गठबन्धनों में निम्न बदलाव दिखाई दे रहे हैं:

1. पूर्वी यूरोप में साम्यवाद के पराभव के बाद यूरोप के एकीकरण की प्रक्रिया का विस्तार हुआ । आज यूरोपीय संघ में यूरोप के लगभग सभी देश शामिल हैं । इनकी राजनीतिक व्यवस्था भी एक जैसी है तथा वैश्विक मामलों में एक जैसा दृष्टिकोण अपनाते हैं । अमेरिका भी वैचारिक ड सामरिक दृष्टि से ही इसी समूह का अंग है ।

2. वैश्वीकरण के कारण जहाँ यूरोप का आर्थिक महत्व कम हुआ है वहीं इसी की तुलना में एशिया के देशों का महत्व बढ़ा है । पूर्वी एशिया के देश इसमें अग्रणी हैं तथा उनका क्षेत्रीय संगठन आसियान का विस्तार हुआ है । आसियान देश आज विश्व की महत्वपूर्ण आर्थिक शक्ति है ।

3. विकासशील देशों में निम्न परिवर्तन दिखाई देते हैं:

(i) गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का अस्तित्व यद्यपि कायम है फिर भी इसके नीन सबसे बड़े देशों- भारत, ब्राजील तथा दक्षिण अफ्रीका ने आपसी महयोग के लिये ‘इच्छा’ नामक अलग संगठन बनाया है ।

(ii) विकासशील देशों की विश्व अर्थव्यवस्था में बढ़ती भूमिका के कारण उन्हें नये समूह जी-20 के माध्यम से विश्व व्यवस्था के प्रबन्धन में भी भूमिका प्रदान की गयी है । भारत भी इसका सदस्य है ।

(iii) भारत, ब्राजील, रूस, चीन तथा दक्षिण अफ्रीका को विश्व की उभरती आर्थिक शक्तियों की संज्ञा दी जाती है । इन देशों ने 2009 में ‘बिक्स’ नामक अलग संगठन बनाकर पश्चिम के प्रभुत्व वाली विश्व व्यवस्था के स्थान पर एक बहुपक्षीय विश्व व्यवस्था की स्थापना की माँग की है जिसमें सभी देशों की समान भागीदारी होगी ।

ब्रिक्स विश्व की पाँच उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं का समूह है, जो पश्चिमी देशों के प्रभुत्व वाली विश्व व्यवस्था के स्थान पर एक बहुपक्षीय विश्व व्यवस्था की स्थापना का पक्षधर है ।

(iv) जहाँ तक भारत का संबन्ध है इस काल में भारत ने अमेरिका तथा अन्य पश्चिमी देशों के साथ अपने सम्बन्ध सुधारे हैं तथा पूर्वी एशिया के देशों के साथ अपने संबन्ध मजबूत किये हैं । शीत युद्ध काल में भारत का झुकाव सोवियत गुट की ओर अधिक था तथा अमेरिका के साथ सम्बन्ध मधुर नहीं थे ।

निष्कर्षत: उत्तर-शीत युद्ध काल में राष्ट्रों के गठबन्धनों में व्यापक बदलता दिखाई देता है ।

भारत ने सी. टी. बी. टी. पर हस्ताक्षर क्यों नहीं किये ? (Why not India Sign on CTBT):

सी. टी. बी. टी. (Comprehensive Test Ban Treaty-CTBT) अर्थात व्यापक परमाणु परीक्षण निषेध सन्धि सभी प्रकार के परमाणु परीक्षणों पर रोक लगाने वाली सन्धि है । यह सन्धि 1998 में आयी, लेकिन अपेक्षित सख्या में देशों द्वारा हस्ता क्षर न करने के कारण अभी तक लागू नहीं हो पायी है ।

भारत ने इस सन्धि पर निम्न कारणों से हस्ताक्षर नहीं किये हैं:

1. यह सन्धि नये परमाणु हथियारों के निर्माण पर तो रोक लगाती है लेकिन परमाणु शक्ति संपन्न पाँच देशों- अमेरिका, चीन, रूस, ब्रिटेन, तथा फ्रांस द्वारा पूर्व में अर्जित परमाणु हथियारों को समाप्त करने का कोई उपाय नहीं करती । अत: इस सन्धि के बाबजूद परमाणु हथियारों का खतरा बना रहेगा । इसीलिये भारत परमाणु शस्त्र नियंत्रण के स्थान पर परमाणु नि:शस्त्रीकरण की नीति का समर्थक है ।

निःशस्त्रीकरण तथा शस्त्र नियंत्रण में मुख्य अन्तर यह है कि जहां निःशस्त्रीकरण के अर्न्तगत सभी परमाणु हथियारों को समाप्त करना होगा वही शस्त्र नियंत्रण के अन्तर्गत केवल नये परमाणु हथियारों के निर्माण पर रोक लगेगी ।

2. भारत के पड़ोस में चीन घोषित रूप से तथा पाकिस्तान अघोषित रूप से परमाणु शक्ति संपन्न देश हैं । दोनों से भारत के सम्बन्ध अच्छे नहीं हैं । अत: सुरक्षा की दृष्टि से भारत अपना परमाणु हथियार बनाने का विकल्प खुला रखना चाहता है । सी. टी. बी. टी. पर हस्ताक्षर करने से यह विकल्प बन्द हो जायेगा ।


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