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अन्य फसलों की तरह खुंभी में भी स्पान के बढने से लेकर तोडाई तक अनेकों प्रकार के कीट, माइटस एवं सूत्रकृमि आदि के द्वारा हानि होती है । भारत में खुंभी के कीटों में मुख्यतः सिएरिड मक्खी, फोरिड मक्खी, सेसिड मक्खी, स्प्रिग पूंछ वाले कीडों का प्रकोप होता है ।

खुंभी घर के तापमान एवं नमी कीडे-मकोड़ों के प्रजनन के लिये भी उपयुक्त रहती है । नकद फसल होने के कारण एकीकृत नाशीजीव प्रबंधन की बहुत संभावनाएं हैं ।

1. सिएरिड मक्खी (डिप्टेरा: सिएरिडी):

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उपस्थिती:

पंजाब में बेड़िसिया ट्रिटीसाई टॉम सफेद बटन खुंभी को हानि पहुंचाती है जबकि बी पाउपेरा हिमाचल प्रदेश में श्वेत बटन खुंभी को हानि पहुंचाती है । सिएरिड की दूसरी जाति लाईकोरियेला ऑरिपिल पश्चिम बंगाल में आयस्टर खुंभी को नुकसान पहुंचाती है ।

पहचान:

ये मक्खियाँ भूरी काली से लेकर काली होती हैं । जबकि इनके शरीर की लंबाई 1.3-3.5 मि.मी. से 2.5 मि.मी. होती है जिनकी 14 एनुलाई वाली लंबी शृंगिकाएं होती हैं जो कि विशिष्ट रूप से सीधी खडी रहती हैं ।

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आगे के पंख के कोस्टा एवं सबकोस्टा जुडकर पंख का मोटा कोस्टल किनारा बनाती हैं । रेडियल एवं रेडियल सेक्टर शिराए मोटीं रहती है जिनके बीच आडी शिराएं रहती हैं ।

नर मक्खी के पेट के अंतिम सिर पर आलिंगक रहता है जबकि मादा मक्खी का पेट फूला रहता है और इससे अण्डनिक्षेपक जुडा रहता है । लार्वा गंदले सफेद रंग का होता है जिसका काला चमकता हुआ सिर होता है ।

2. फोरिड मक्खी (डिप्टेरा: फोरिडी):

उपस्थिति:

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हिमाचल प्रदेश में शाडिल्य एवं सहायकों ने (1975) सफेद बटन खुंभी को नुकसान पहुंचाने वाली एक बिना पहचान वाली फोरिड मक्खी की खोज की । जबकि पंजाब में डिज्नी (1981) ने बटन खुंभी को हानि पहुंचाने वाली मेगासिलिया एगैरिकाई के बारे में बताया । इस मक्खी की मुख्य प्रजातियां मेगासिलिया हाल्टेराटा, मेगासिलिया नाइग्रा और मेगासीलिया एगैरिकी है ।

पहचान:

मैगासीलिया एगैरिकी मक्खी की प्रौढ़ की कुबड़ युक्त पीठ होती है, रंग भूरा काला होता है और 1.9-2.0 मि.मी. लबी होती है । जिनकी श्रुंगिकाएं अस्पष्ट होती है और सबकाष्टा हल्का होता है । ये मक्खियां तेज एवं झटके वाली गति से इधर-उधर भागती हैं । नर के उदर का सिरा नीचे की तरफ झुका रहता है जबकि मादा प्रौढ़ मक्खी का उदर थोडा फूला हुआ, नुकीला एवं सिरे पर सीधा रहता है ।

3. सेसिड मक्खी (डिप्टेरा: सेसिडोमाइडी):

उपस्थिती एवं पहचान:

बोईखुइजेन (1938) ने पहली बार सफेद बटन खुंभी को हानि पहुंचाने वाली माइकोफीला मोदी के लार्वा के बारे में बताया । खुंभी पर पायी जाने वाली सेसिड मक्खी की प्रजातियां निम्न है- डेटरोपिजा केथिस्टी पेग्मिय, एम. स्पेयेरी, एम. फिंगिकोला और एम. वार्नसी है ।

प्रौढ़ बहुत छोटा, 0.7-1.55 मि.मी. और गहरे भूरे रंग का होता है । लार्वा सफेद या नारंगी रंग का, तुर्काकार एवं 1.5-2.8 मि.ली. का होता है ।

क्षति:

लार्वा कवकजाल को खाता है और डंठल में आडी गुहायें बनाता है । इसके लार्वा कवक जाल, डंठल का बाहरी भाग तथा डंठल एवं गलफडों के संधि-स्थल का भक्षण करते हैं । सतह पर उपस्थित जीवाणु के कारण डंठल एवं गलफडों पर भूरी बदरंग धारियां बन जाती हैं ।

नाजुक गलफडों के उतक टूटकर छोटे-छोटे काले स्त्राव वाले दाग पैदा करते है । नवजात लार्वा भी निकलने वाले स्त्राव को खाता है । खुंभी में सेसिड मक्खी के कारण 50 प्रतिशत तक हानि होती है ।

मक्खियों का प्रबंधन:

खुंभी की सिएरिड और फोरिड मक्खियों के एकीकृत जीव नियंत्रण के लिये निम्न उपायों की अनुशंसा की जाती है:

i. उपयोग में लायी खाद एवं कैसिंग पदार्थों को फेंकना:

फसल नहीं लगने के समय उपयोग के बाद बची खाद एवं केसिंग मिश्रण को नम और छायादार जगह में फेंकने से यह मक्खियों के प्रजनन के लिये आदर्श क्रियाधार बन जाता है ।

इन पदार्थों को खाद के गड्‌ढे में डालकर, उस पर 10 से.मी मोटी खाद की परत डालने से खुंभी घर के आसपास के क्षेत्रों में मक्खी का प्रजनन नियंत्रित करने में सहायता मिलेगी । उपयोग के बाद बची खाद एवं केसिंग मिश्रण को भाप द्वारा 710 डिग्री से.ग्रे. पर 2 घंटे तक अधिक उष्मायित करना चाहिए ।

ii. दरवाजे एवं खिडकियों में जाली लगाना:

खुंभी की मक्खियों स्पान और खुंभी की महक की ओर आकर्षित होती हैं । खुंभी घर के दरवाजों और रोशनदानों पर 14-16 मेश/से.मी. आकार के नाइलोन या तार की जाली लगाने से इन मक्खियों के प्रवेश को रोका जा सकता है ।

iii. सुरक्षात्मक नियंत्रण के उपाय:

खुंभी घर में मक्खियाँ प्रायः बीजित खाद एवं कोसिंग मिट्‌टी में अण्डे देती हैं । अण्डे से निकलने के बाद लार्वा इन पदार्थों को खाता है एवं आगे बढते हुए कवकजाल, पिन हेड एवं खुंभी का भक्षण करता है ।

खाद व केसिंग मिश्रण में क्लोरपायरीफास, प्रिमीफास मिथाइल, लिंडेन, एल्डीकार्ब या कार्बोफ्यूरान की 12.5 से 100 पी.पी.एम मात्रा के घोल का छिडकाव करने से शैया में लार्वा की संख्या और खुंभी घर में खुंभी पर प्रकोप एवं मक्खियों की संख्या में कमी आती है ।

सौ किलो ग्राम भूसे से बनी खाद में 20 मि.लि. लिन्डेन (20 ई.सी.) पर्याप्त पानी में मिलाकर आखिरी पल्टाई के वक्त छिडकाव करें । यदि मक्खियाँ केसिंग के पहले आने लगे तो 100 कि.ग्रा. केसिंग मिट्‌टी में 16 मि.ली. लिन्डेन (20 ई.सी.) को 4 लिटर पानी में मिलाकर छिडकाव करें ।

खाद एवं केसिंग में लिडेन की तुलना मिट्‌टी में डाइफ्लूबेनज्यूराइन 50 पी. पी.एम. की दर से डालने से बी. ट्रिटिसाई के लार्वा और मक्खियों का संतोषजनक नियंत्रण किया जा सकता है और प्रथम बार खुंभी निकलने पर उसमें अधिकतम अवक्षेप की सीमा 0.1 पी.पी.एम. (0.1 प्रतिशत) से भी कम अवशेष पाया जाता है ।

सुरक्षात्मक नियंत्रण के उपाय:

शैया में लार्वा को मारने के लिये शैया पर 0.025, 0.05 एवं 0.075 प्रतिशत सान्द्रता वाले मेलाथियान के घोल का 1 लिटर घोल/वर्ग मीटर क्षेत्रफल में छिडकाव सुरक्षात्मक एवं प्रभावी पाया गया ।

खुंभी की मक्खी के लिये 30 मिली डाइक्लोरोफॉस (76 ई.सी., 22.5 ग्राम सक्रिय तत्व/100 मी. क्यूब की दर से) अच्छा लो बाल्युम छिडकाव यंत्र द्वारा छिडकाव करना प्रभावी पाया गया । छिडकाव के बाद 2 घंटे के लिये दरवाजे व खिडकियां बंद कर दें ।

खुंभी की शैया पर सीधे कीटनाशी दवा का छिडकाव नहीं करना चाहिए । छिडकाव के 48 घंटे बाद खुंभी तोडना चाहिए । परमीथिन धूली (10 ग्राम सक्रिय तत्व/किलो) के उपयोग से भी मक्खी को मारा जा सकता है और इससे खुंभी में अवक्षेप भी नहीं मिलेंगे ।

मेलाथियान (2-3 ग्राम/वर्ग मीटर) और डायाजिनान (0.5-1 ग्राम वर्ग मीटर) का छिडकाव प्रभावी पाया गया । कीटों में प्रतिरोधिता से बचने के लिये एक ही कीटनाशी को बार-बार उपयोग में नहीं लाना चाहिए ।

प्रकाश प्रपंच और जहर आकर्षण:

प्रत्येक उत्पादन कक्ष में व्यस्क मक्खी की रोकथाम के लिये पालीथीन की चादर में चिपचिपा पदार्थ लगाकर प्रकाश प्रपंच से जोड़ दिया जाता है । बेगॉन को पानी के साथ 1:10 के अनुपात में मिलाकर उसमें थोडी सी चीनी डालकर उत्पादन कक्षों में रखने से मक्खियों को प्रभावी ढंग से नियंत्रित किया जा सकता है ।

मक्खियों के नियंत्रण के लिये लीफ पेप और इलेक्ट्रा को 1:10 के अनुपात के साथ मिलाकर तथा थोडी शक्कर डालकर भी मक्खियों को नियंत्रित किया जा सकता है ।

जैविक नियंत्रण:

खुंभी में मक्खियों के नियंत्रण में बरूथी (माइट) बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं ।

कुछ महत्वपूर्ण बरूथी निम्न हैं- पेटीसट्‌म बाइट्यूबरोसिस, आरकटोसियस सिरेटस, पेरासिटस फिमिटोरम, पी. कोन्सेगुइनस आदि । चूंकि ये बरूथी लाभदायक हैं अतः इनके नियंत्रण के लिये कोई उपाय नहीं करना चाहिए ।

iv. स्प्रिंग टेल्स:

हिमाचल प्रदेश में बटन खुंभी और आयस्टर खुंभी के स्प्रिंगटेल लेपीडोसाइरटस हानि पहुंचाते हैं । राजस्थान में एल. सायेनियम के लार्वा से आयस्टर खुंभी को बहुत हानि पायी गयी । इनके प्रौढ चाँदी के तरह के या गहरे भूरे रहते हैं जिनके शरीर के किनारे पर हल्के बैंगनी रंग की पट्‌टी रहती है ।

सिर पर काले गद्देदार क्षेत्र पाये जाते हैं । एंटीना 3-6 खण्डों वाली होती है । उपागों को मिलाकर शरीर की लंबाई 0.7-2.25 मि.मी. तक होता है उदर 4-6 खण्डों वाला होता हैं ।

हानि:

लेपिडोसाइरटस प्रजाति खाद में उपस्थित कवकजाल को खाते हैं जिससे बीजाई की गई खाद में कवकजाल दिखायी नहीं देता । आयस्टर खुंभी में ये कीट गिल्स गलफड़ों को खाते हैं जिससे गिल पर जाले के समान रचना बन जाती है । बटन खुंभी के फलनकाय पर इसके आक्रमण के कारण खाने वाली जगह भूरी हो जाती है । स्प्रिंगटेल बटन खुंभी के स्पान वाले बीज को खरोंचकर खाते हैं जिससे बीज नग्न रह जाते हैं ।

बटन खुंभी को खाने से इन पर उथले और भूरे गड्‌ढेदार क्षेत्र बन जाता हे । जिससे कारण से खुंभी की गुणवत्ता नष्ट हो जाती है । आयस्टर खुंभी को ये कीडा ऊपर व नीचे दोनों तरफ से खुरचता है जिसके कारण से छोटे गड्‌ढे बन जाते हैं जो कि पारदर्शी होते हैं । वृन्त का खुरचा भाग भूरा हो जाता है । प्रकोपित खुंभ कलिकाएं मुरझा जाती हैं ।

प्रबंधन:

स्प्रिंगटेल में पंख नहीं होते और ये खुंभी घरो में कार्बनिक पदार्थों के साथ आते हैं ।

इनके प्रबंधन के लिये निम्न उपाय अपनाने चाहिए:

a. खुंभी घर के अंदर व आस-पास सफाई रखें ।

b. खाद व केसिंग मिश्रण का सही पास्तुरीकरण करें ।

c. उपयोग के बाद लायी गयी खाद को उपयुक्त जगह पर नष्ट करें ।

d. फसल फर्श से ऊपर लगायें ।

e. खाद बनाने वाला क्षेत्र व खुंभी घरों को 0.05 प्रतिशत मेलाथियान के छिडकाव द्वारा उपचारित करें ।

f. स्पान के फैलाव व फसल लगने के दौरान मेलाथियान या डाइक्लोरोफॉस के क्रमश: 0.025 एवं 0.05 प्रतिशत घोल का छिड़काव करें । डाइक्लोरोफॉस के लिये 2 दिन और मेलाथियान के लिये 5 दिन तक इंतजार करके देखें ।

g. परभक्षी बरूथी पेरसिटस कोन्सेगुइनस स्प्रिंगटेल के अंडों को खाते है ।

5. खुंभी के बरूथी (माइट्‌स):

उगायी जाने वाली खुंभीयों में प्राय: बरूथियों का प्रकोप होता है जो कि एकेरिडी, यूपोडिडी, पाइमोटिडी, टायडिडी, एकेसिडी के अंतर्गत आते हैं । बरूथी (टाइरोग्लाइपस डिमिडियेटस) छोटे बटन को खोखला कर देते हैं जबकि बडी खुंभीयों में वृत एवं टोपी पर विभिन्न आकार के छेद बनाते है । टी बार्लीसी, टी. लाग्योर और टी माइकोफेगस टोपी में छेद करते है । इस प्रजाति की बरूथी पारदर्शी सफेद होता है जिसके शरीर पर लंबे बाल होते हैं ।

ये 0.3-0.5 मि.मी. लंबी और रेड पीपर और परभक्षी बरूथी की अपेक्षा धीमी गति वाले होते हैं । बरूथी के कारण एलर्जी भी होती है हिस्टियोस्टोमा टेनायेनी, वाल्वेरियेला वाल्वेसिया में 90 प्रतिशत हानि करता है ।

प्रबंधन:

i. उत्पादन कक्ष व आसपास की जगह की सफाई रखें ।

ii. खाद एवं केसिंग मिश्रण का पास्तुरीकरण ठीक से करें ।

iii. फर्श. दीवार एवं खुंभी घर के आसपास डाइकोफोल के 0.1 प्रतिशत घोल को छिडकाव करें ।

iv. बीजायी एवं केसिंग के समय ओमाइट (प्रापरागाइट) 0.88 सक्रिय तत्व/वर्ग मीटर का उपयोग सी. बरलेसी के विरूद्ध प्रभावी पाया गया ।

v. खाली ट्रे को निर्जीवीकृत करें ।

vi. खाद भरते समय डाईजीनान 20 ई.सी. नामक दवा की 2 मि.ली. मात्रा 10 लिटर पानी में घोलकर छिडकाव करें ।

6. बीटल्स:

खुंभीयों को क्षति पहुंचाने वाली दो मुख्य बीटल:

(i) स्टेफाइलिनिड बीटल (स्टेफाइलिनस प्रजाति) कोलियोप्टेरा स्टेफाइलिनिडी और

(ii) कुकुजोइड बीटल (साइलोडीज प्रजाति) (कोलियोप्टेरा निटिडुलिडी) ।

इसकी भृंगक गलफडो को क्षति पहुंचाते है और नयी खुंभी एवं वृन्त में छोटे अनियमित छिद्र बनाते हैं, और बाद में विकसित होने वाली खुंभीयों को हानि पहुंचाते है । खुंभी घर से एवं आसपास के क्षेत्रों से खुंभी का कचरा एवं सडी-गली खुंभी को तत्काल हटा देना चाहिए जिससे अंडे देने की जगह न मिले और बाद में इनकी संख्या न बढे ।

बीटल में छोटा इलेक्ट्रा और उपयोग में न आने के समय इलेट्रा के नीचे तह किये गये बडे झिल्ली के समान पिछले पंख रहते हैं । उदर का सिरा पीछे से ऊपर की तरफ मुडा रहता है । लार्वा सफेद, लंबे केम्पोडियोफार्म होते हैं । जिसमें टयूबुलर अग्रस्थ खण्ड रहते हैं । पुराने खुंभी को बिना तोडे नहीं रहना चाहिए । व्यस्क ब्लाचिंग पाउडर की गंध से प्रतिकर्शित होती है ।

7. सूत्रकृमि:

सूत्रकृमि खुंभी का सबसे हानिकारक कीट है । शैया में इनकी उपस्थिति के कारण बहुत कम उपज मिलती है या पूरी फसल नष्ट हो जाती है । सूत्रकृमि बहुत तेजी से (50-100 गुना/सप्ताह) बढते हैं । स्पान के फैलाव के समय (22-280 डिग्री से.) इनके बहुगुणन की गति फसल के समय (14-180 डिग्री से.) से अधिक रहती है, परंतु 300 डिग्री से. से ऊपर इनमें प्रजनन नहीं पाया जाता ।

यह पाया गया है कि शुरुआत में डिटिलेन्कस माइसीलियो फेगस के 3 सूत्रकृमि/100 ग्राम खाद में होने से 70 दिन के अंदर पूरा कवक जाल नष्ट हो जाता है ।

यदि खाद धीरे-धीरे सूखती है तब ये सूत्रकृमि एनाबायोसिस की अवस्था में 2 वर्ष तक जिंदा रह सकते हैं परंतु यदि खाद जल्दी सुख जाती है तब ये मर जाते हैं ।

दो गणों एफेलेन्किडा एवं टाइलेन्किडा में पायी जाने वाली 21 प्रजातियाँ खुंभी की खेती को हानि पहुँचती है । चूंकि केसिंग के बाद किसान शैया को स्पर्श नहीं करता अत: सूत्रकृमि के हमले के प्रारंभिक लक्षण नहीं दिखायी पड़ती हैं ।

परंतु यदि समय रहते ही देखने पर प्रभावित शैया पर निम्न लक्षण दिखायी पड़ते हैं:

i. कवकजाल की वृद्धि विरली एवं टुकड़ों में होती हे एवं कवकजाल भूरा होने लगता है ।

ii. खाद की सतह धंस जाती है ।

iii. स्पान के कवकजाल का सफेद रंग धीरे-धीरे भूरा होने लगता है ।

iv. बीजाणु धर की बाढ कमजोर एवं देर से होती है ।

v. बाद में बाढों में क्रमश: अधिक एवं कम उपज आती है ।

vi. पिनहेड भूरे हो जाते है ।

vii. उपज में कमी आती है ।

viii. पूरी फसल नष्ट हो जाती है ।

सुत्रकृमि प्रबंधन:

रोग निरोधी उपचार:

i. पूर्ण स्वच्छता एवं स्वस्थता ।

ii. खाद बनाने वाला चबूतरा सीमेंट का बना होने से खाद मिट्‌टी के संपर्क में नहीं आती ।

iii. खाद बनाने के 24 घण्टे पूर्व चबूतरे को 4 प्रतिशत फार्मेलिन से विसंक्रमित करना चाहिए ।

iv. सभी उपकरण, दीवार, फर्श व गलियारों को 4 प्रतिशत फार्मेलिन से विसंक्रमित करना चाहिए ।

v. खाद एवं केसिंग मिश्रण का सही पाश्चुरीकरण ।

vi. प्रत्येक फसल कक्ष के सामने पांव धोने वाली जगह होना चाहिए ।

vii. खाद को दुहरी पी.वी.सी. चादर से या तृतीय पल्टाई के 24 घण्टे बाद ढकने से सूत्रकृमि का प्रभावी नियंत्रण होता है ।

viii. सिचाई के लिए साफ पानी उपयोग में लाना चाहिए ।

ix. सभी कमरे मक्खी रहित होना चाहिए ।

रासायनिक नियंत्रण:

कई रसायनों का परीक्षण किया गया, परंतु उनमें से अधिकांश नें विषैले अवशेष की मात्रा प्रदर्शित की । परंतु खाद बनाने की लंबी विधि में सूत्रकृमि की संख्या को रोकने वाले कुछ रसायन प्रभावी पाये गये ।

एफलेनकॉएड कम्पोस्टीकोला एवं रहबिडिटिस स्प. के नियंत्रण के लिये 144 घंटो तक डाइक्लोरवास (0.04 प्रतिशत) को पालीथीन की चादर के अंदर रखना प्रभावी पाया गया ।

खाद में एवं स्पान के फैलाव के समय शैया की सतह पर थायोनजिन (80 पी.पी.एम. की दर से) का उपयोग सूत्रकृमि के नियंत्रण के लिये प्रभावी पाया गया । साथ ही साथ खुंभी में इसके विषैले अवशेष भी नहीं पाये गये ।

जैविक नियंत्रण:

यह ज्ञात है कि सूत्रकृमि को फसाने वाली कवक जैसे आर्थोबोट्रायस आलीगोस्पोरा एवं ए. सुर्पबी सूत्रकृमि की जनसंख्या को कम करके उपज बढाती है । मायोफेगस सूत्रकृमियों के विरूद्ध ए. राबस्टा कवक अनुशंसित है । एपलेनकॉयड कम्पोस्टीकोला के लिये ए. इरेगुलेरिस बहुत प्रभावी है ।

पौधे उत्पाद का उपयोग:

खाद बनाते समय करज की पत्ती 5 प्रतिशत (भार/भार की दर से) मिलाने से सूत्रकृमि की संख्या में कमी आती है और यह कार्बोफ्यूरान से अच्छी पायी गयी ।

एजाडिरिक्टा इंडिका (नीम), केनाबिस सेटाइवा और यूकेलिप्टिस टिरिटीकार्निस की सूखी पत्तियों को 3 ग्राम/100 ग्राम सूखे गेहूँ के भूसे में मिलाने से थर्मोफिलिक कवक, मीसोफिलिक एंटीबायोटिक उत्पन्न करने वाली कवक को बढाती है और साथ ही साथ एफलेनकायड कम्पोस्टीकोला की संख्या में भी काफी कमी आती है ।

भौतिक नियंत्रण:

खुंभी घर से सूत्रकृमि को निकालने के लिये खाद एवं केसिंग मिट्‌टी का सही पाश्चुरीकरण एवं फसल खत्म होने के बाद खाद को 700 से.ग्रे. पर 5-6 घंटे तक रखना सबसे प्रभावी उपायों में से एक उपाय है । उपयोग में लाने के बाद बची खाद को सही प्रकार से फेंकना चाहिए ।

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