भारत की विदेश नीति पर अनुच्छेद | Paragraph on the Foreign Policy of India in Hindi Language!

भारत की विदेश नीति की पृष्ठभूमि:

भारत की विदेश नीति पर हमारे प्राचीन इतिहास की सहिष्णुता और शांति का प्रभाव रहा है । भारतीय संस्कृति की सीख ‘वसुधैव कुटुंबकम’ अर्थात संपूर्ण विश्व एक परिवार है; रही है । यही सीख हमारी विदेश नीति द्‌वारा व्यक्त होती है । भारतीय स्वतंत्रता आदोलन द्‌वारा निर्मित अंतर्राष्ट्रीय शांति एवं सामंजस्य जैसे मूल्यों का भी प्रभाव हमारी विदेश नीति पर पड़ा है ।

१५ अगस्त, १९४७ को भारत स्वतंत्र हुआ ।  एक  स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में भारत को अपनी विदेश नीति निश्चित क्यना आवश्यक था । भारत की विदेश नीति की रूपरेखा स्वतंत्रतापूर्व ही निश्चित कर ली गई थी । उसमें नीचे दिए गए मुद्‌दों का समावेश था:

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(१) उपनिवेशवाद का विरोध करना ।

(२) शांतिप्रिय देशों के साथ सहयोग करना ।

(३) वंश अथवा वर्ण पर आधारित भेदभाव का विरोध करना ।

(४) अन्य देशों के स्वतंत्रता आंदोलन को समर्थन देना ।

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(५) विश्व शांति के लिए प्रयास करना ।

अस्थायी सरकार के प्रमुख के रूप में ७ सितंबर, १९४६ को पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपने भाषण में भारत की विदेश नीति के उद्देस्यों को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत क्यिा था । उन्होंने इस बात पर बल दिया कि भारत अन्य देशों के दबाव में न आकर अपनी स्वतंत्र विदेश नीति तय करेगा ।

भारत की विदेश नीति-संविधान में प्रावधान:

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत ने अपनी स्वतंत्र विदेश नीति तय करना प्रारंभ किया । अपने देश की स्वतंत्रता की रक्षा करना और प्रादेशिक अखंडता को बनाए रखना हमारी विदेश नीति के मुख्य उद्‌देश्य हैं ।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद ५१ में हमारे अंतर्राष्ट्रीय संबंध और व्यवहार कैसे हों; इनका मार्गदर्शन किया गया है । इस अनुच्छेद में भारत की विदेश नीति के सिद्‌धांत दिए गए हैं और हमें अपनी विदेश नीति द्‌वारा नीचे दिए गए मुद्‌दों को चरितार्थ करना है ।

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(१) भारत अंतर्राष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा को प्राथमिकता दे ।

(२) विभिन्न राष्ट्रों के बीच न्यायपूर्ण और सम्मानजनक संबंध स्थापित करे ।

(३) अंतर्राष्ट्रीय कानून का सम्मान करे ।

(४) अपनी अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं को शांतिपूर्वक और मध्यस्थ द्‌वारा हल करवाने की नीति को प्रोत्साहित करे ।

भारत की विदेश नीति की नोटे तौर पर कुछ विशेषताएँ इस प्रकार है:

साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद का विरोध:

साम्राज्यवाद बढ़ाने का अर्थ अन्य देशों की स्वतंत्रता और सार्वभौमत्व का अनादर करना तथा अपने राष्ट्रीय हित को पूर्ण करने के लिए अन्य देशों पर विभिन्न पद्‌धतियों से प्रभुत्व पाना है ।

उपनिवेशवाद साम्राज्यवाद का ही एक अंग है । कुछ देश अपनी सामर्थ्य के बल पर दूसरे देशों को जीत लेते है और वहाँ अपनी सत्ता को स्थापित करते हैं । इसे उपनिवेशवाद कहते हैं । साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद का विरोध करना भारत की विदेश नीति की विशेषता है ।

अंतर्राष्ट्रीय शांति का संवर्धन:

भारत शांति सिद्‌धांत के प्रति प्रतिबद्‌ध है । भारत अपनी अंतर्राष्ट्रीय सभी समस्याओं को विचार-विमर्श और बातचीत द्‌वारा सुलझाने में विश्वास रखता है । भारत की शांति नीति का स्वरूप रचनात्मक है । शांति नीति का अनुसरण करने का अर्थ चुपचाप बैठना नहीं वरन विश्व में शांति स्थापित करने हेतु ठोस प्रयास करना है । अंतर्राष्ट्रीय शांति का संवर्धन करना भारत की विदेश नीति का केंद्रीय तत्व है ।

मित्रतापूर्ण संबंधों का संवर्धन विश्व के सभी देशों के साथ मित्रतापूर्ण संबंध बनाए रखना भारत की विदेश नीति की महत्वपूर्ण विशेषता है । मित्रतापूर्ण संबंधों के फलस्वरूप सांस्कृतिक, आर्थिक और शैक्षिक घटकों के आदान-प्रदान में वृद्‌धि होती है । भारत ने अन्य देशों के विकास के लिए सहायता दी है और मित्रतापूर्ण संबंधों का संवर्धन करने पर बल दिया है ।

पंचशील सिद्‌धांत:

पंचशील सिद्‌धांत भारत की विदेश नीति का प्रमुख आधार स्तंभ हैं । शांतिपूर्ण मार्ग द्‌वारा अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं को हल करने हेतु यह एक नियमावली है । ई.स. १९५४ में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने पंचशील सिद्‌धांत को अधिकृत रूप में प्रस्तुत किया ।

ये पाँच सिद्‌धांत इस प्रकार हैं:

(१) एक-दूसरे की प्रादेशिक अखंडता और सार्वभौमत्व के प्रति सम्मान करना ।

(२) अन्य देशों पर आक्रमण न करना ।

(३) अन्य देशों के आंतरिक व्यवहार में हस्तक्षेप न करना ।

(४) समानता और पारस्परिक लाभ की नीति का अनुसरण करना ।

(५) शांतिमय सहजीवन ।

पंचशील सिद्‌धांत द्‌वारा यह अपेक्षा व्यक्त की गई है कि कोई भी देश अन्य देशों पर किसी भी प्रकार का दबाव न डाले तथा वैचारिक, राजनीतिक, आर्थिक आदि विषयों में हस्तक्षेप न करे ।

निर्गुटतावाद:

निर्गुटतावाद का तात्पर्य तटस्थ अथवा अलग होना नहीं है । भारत की विदेश नीति इस अर्थ में निर्गुट नहीं है । द्‌वितीय विश्व युद्‌ध के पश्चात दो महासताएँ -सोवियत यूनियन और अमेरिका अस्तित्व में आईं । उनके बीच उत्पन्न हुए तनावपूर्ण संबंधों को ‘शीत युद्ध’ कहते हैं ।

शीत युद्‌ध के दौरान विश्व में अविश्वास और तनाव का वातावरण निर्मित हुआ था । नए-नए स्वतंत्र हुए देशों को सोवियत यूनियन और अमेरिका अपने-अपने गुट में खींचने का प्रयत्न कर रहे थे । पंडित जवाहरलाल जी ने यह नीति अपनाई कि भारत किसी भी गुट में सम्मिलित नहीं होगा क्योंकि भारत किसी भी राष्ट्र के प्रभुत्व को स्वीकार नहीं करता परंतु भारत को सभी के सहयोग की आवश्यकता है ।

भारत द्‌वारा शीत युद्‌ध के संदर्भ में अपनाई हुई स्वतंत्रता और शांति की नीति को ‘निर्गुटता नीति’ कहते है । निर्गुटतावाद भारत की विदेश नीति की एक अन्य विशेषता है ।

निर्गुटतावादी आंदोलन:

दूसरे विश्व युद्‌ध के पश्चात एशिया और अफ्रीका महाद्‌वीपों में नए-नए स्वतत्र हुए देशों ने निर्गुटतावादी विचारों को समर्थन दिया और एक महत्वपूर्ण आदोलन प्रारंभ हुआ । भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू, युगोस्लाविया के अध्यक्ष मार्शल टीटो,  इजिप्त कें अध्यक्ष गमाल अब्दुल नासिर,  इंडोनेशिया के राष्ट्राध्यक्ष सुकानों और घाना के प्रधानमंत्री क्याने नखरुमा के नेतृत्व में ई.स. १९६१ में यह आदोलन प्रारंभ हुआ ।

निर्गुटतावादी आंदोलन की समीक्षा:

निर्गुटतावादी आदोलन ने उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद और वंशवाद का विरोध किया । इस आदोलन ने अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं का हल शांतिपूर्ण ढंग से निकलवाने की विधि को प्रोत्साहन दिया । भारत ने पंडित जवाहरलाल नेहरू के मार्गदर्शन में इस आदोलन का नेतृत्व किया । इसके बाद के कालखंड में भारत ने इस आंदोलन को सक्रिय समर्थन दिया है ।

शीत युद्‌ध समाप्त हुआ फिर भी इस आंदोलन का महत्व कम नहीं हुआ है । निर्गुटतावादी आंदोलन मानवतावाद, विश्व शांति और समानता जैसे शाश्वत मूल्यों पर आधारित है । इस आदोलन ने अल्पविकसित देशों को इकट्‌ठे आने के लिए प्रेरणा दी और ऐसे देशों में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में अपना सम्मानपूर्ण स्थान बनाने का विश्वास उत्पन्न किया ।

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