भारत की विदेश नीति पर निबंध! Here is an essay on ‘Foreign Policy of India ‘ in Hindi language.

किसी देश की विदेश नीति उसके राष्ट्रीय हितों के अनुरूप दूसरे देशों के साथ आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा सैनिक विषयों पर पालन की जाने वाली नीतियों का समुच्चय है । किसी भी देश की स्थिति एवं वैश्विक परिस्थितियाँ सदैव एक समान नहीं रहती, इसलिए बदलती अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थिति में राष्ट्रीय हितों के दृष्टिकोण से समयानुसार किसी भी देश की विदेश नीति में परिवर्तन होना स्वाभाविक है ।

यही कारण है कि कोई देश न तो किसी का स्थायी मित्र होता है और न ही स्थायी शत्रु । भारत की जो स्थिति स्वतन्त्रता प्राप्त करने के समय वर्ष 1947 में थी, वैसी स्थिति बीसवीं सदी के साठ या सत्तर के दशक में नहीं थी । बीसवीं सदी के समाप्त होने तक भारत की स्थिति काफी हद तक ठीक हो चुकी थी और अब इक्कीसवीं सदी में इसे दुनिया में तेजी से उभरती हुई विश्व शक्ति के तौर पर देखा जाता है ।

इन्हीं परिवर्तनों के साथ-साथ वैश्विक परिदृश्य में आतंकवाद, जलवायु परिवर्तन एवं ऊर्जा सकट जैसे मामलों से निपटने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सम्बन्धों में परिवर्तन होते रहे, इसलिए भारत को भी अपने राष्ट्रीय हितों को देखते हुए समय-समय पर अपनी विदेश नीति में परिवर्तन करना पड़ा ।

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भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री जबाहरलाल नेहरू को भारतीय विदेश नीति का सूत्रधार माना जाता है । उन्होंने प्रधानमन्त्री के साथ-साथ विदेश मन्त्री की भूमिका भी निभाई और वैश्विक नि:शस्त्रीकरण, गुटनिरपेक्षता व पंचशील के सिद्धान्तों पर भारत की विदेश नीति की ।

उन्होंने कहा था- ”सारा विश्व इस बात के लिए स्वतन्त्र है कि वह जैसी नीति चाहे वैसी अपनाए, किन्तु हम भारतीय तटस्थता की नीति अपनाएंगे और सैनिक गठबन्धनों व शीत युद्ध को देने वाले तत्वों के चक्कर में नहीं पड़ेंगे । हम सारे संसार से मित्रता व सतव हैं । सबके साथ बबूल व सहयोग का भाव अपनाना चाहते है । सह-अस्तित्व की नीति शान्ति का अभयदान देती है, युद्ध की सम्भावनाओं को मिटाती है तथा सबको सहयोग व सदभावना के सूत्र में बाँधती है। यह मानव के दृष्टिकोण में परिवर्तन करती है तथा युद्ध की आशंका की मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया से संसार को है ।”

चूंकि चीन भारत का एक पडोसी देश है, इसलिए जवाहरलाल नेहरू ने इससे मित्रता की नीति पर अमल करना शुरू किया । वर्ष 1954 में भारत एवं चीन के मध्य पंचशील समझौता हुआ ।  विदेश नीति के तौर पर पंचशील समझौते का उद्देश्य पारस्परिक सहयोग के माध्यम से विश्व शान्ति एवं सुरक्षा की स्थापना करना था, किन्तु अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत को अपमानित करने के दृष्टिकोण से 20 अक्टूबर, 1962 को भारत के उत्तर-पूर्वी सीमान्त क्षेत्र में लद्‌दाख की सीमा पर आक्रमण कर चीन ने जम्मू-क्शमीर के कुछ क्षेत्र पर कब्जा जमा लिया ।

चीन इस आक्रमण के द्वारा अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर भारत को कमजोर साबित करना चाहता था । चीन के इस आक्रमण से जवाहरलाल नेहरू को बड़ा । इसी आघात से वर्ष 1964 में उनकी मृत्यु हो गई । नेहरू जी की मृत्यु के बाद लालबहादुर शास्त्री प्रधानमन्त्री बने । उन्होंने विदेश नीति के महत्व को समझते हुए एक स्वतन्त्र विदेश मन्त्री नियुक्त करने का फैसला कर सरदार स्वर्ण सिंह को इस पद पर नियुक्त । शास्त्री जी के लगभग डेट वर्ष के छोटे से कार्यकाल में भारत की विदेश नीति यथार्थवादी सिद्ध हुई ।

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इस दौरान भारत के सम्बन्ध दक्षिण एशियाई देशों से बेहतर तो हुए ही साथ ही सोवियत संघ भी भारत के मित्र राष्ट्र के तौर पर उभरा । जब पाकिस्तान ने वर्ष 1965 में भारतीय सीमा में घुसपैठ करने की हिमाकत की तो शास्त्री जी ने इसका मुँहतोड़ जवाब दिया और उसे भारत के सामने घुटने टेकने पड़े ।

इसके बाद सोवियत संघ की मध्यस्थता में भारत एवं पाकिस्तान के बीच ताशकन्द समझौता हुआ, जिसके अन्तर्गत भारत द्वारा पाकिस्तान के विजित क्षेत्र को वापस करना तय किया गया । लालबहादुर शास्त्री इस समझौते के पक्ष में नहीं थे, फिर भी न केवल समझौता हुआ, बल्कि रहस्यमय तरीके से उनकी वहीं गई ।

ताशकन्द समझौता किसी भी रूप में भारत के पक्ष में नहीं था । इसे भारतीय विदेश नीति की एक बडी विफलता माना जाता है । लालबहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद जवाहरलाल नेहरू की पुत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी भारत की प्रधानमन्त्री बनी । उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय जटिलताओं को ध्यान में रखते हुए विदेश नीति में महत्वपूर्ण बदलाव किए ।

लालबहादुर शास्त्री द्वारा स्थापित प्रधानमन्त्री सचिवालय को उन्होंने विदेश नीति निर्धारण के प्रमुख केन्द्र के रूप में उभारा और गुप्तचर सेवा को सुदृढ़ दिया ।  राष्ट्रीय हितों के लिए उन्होंने न केवल पूर्वी पाकिस्तान को बांग्लादेश के रूप में स्थापित होने में प्रमुख भूमिका निभाई, बल्कि वर्ष में परमाणु परीक्षण को भी अंजाम दिया ।

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इसके कारण अमेरिका जैसे देश भारत के खिलाफ हो गए परिणामस्वरूप भारत पर अनेक प्रतिबन्ध थोप दिए गए, किन्तु इससे पूर्व वर्ष 1971 में सोवियत संघ से भारत की सन्धि हो चुकी थी, जिसने हमें न केवल आर्थिक, बल्कि सैन्य मदद भी पहुँचाई ।  सोवियत सब ने जब अफगानिस्तान पर हमला किया, तब भारत ने उसका समर्थन किया था । इसको भी भारतीय विदेश नीति की एक विफलता के तौर पर देखा जाता है ।

इन्दिरा जी के बाद जब मोरारजी देसाई भारत के प्रधानमन्त्री बने, तो उन्होंने विदेश नीति के ज्ञाता अटल बिहारी वाजपेयी को विदेश मन्त्री नियुक्त किया । वाजपेयी ने भारत की मूलभूत विदेश नीतियों में कोई परिवर्तन तो नहीं किया किन्तु किसी भी देश से सम्बन्ध के लिए राष्ट्रीय सहमति पर अवश्य जोर दिया ।  मोरारजी देसाई के बाद चौधरी चरण सिंह भारत के प्रधानमन्त्री ।

उन्होंने सोवियत संघ द्वारा अफगानिस्तान पर कब्जे का स्पष्ट शब्दों में विरोध कर भारतीय विदेश नीति की गलतियों को सुधारने का प्रयास किया । अपनी माँ श्रीमती इन्दिरा गाँधी की हत्या के बाद जब राजीव गाँधी भारत के प्रधानमन्त्री बने, तो उन्होंने विदेश नीति को आधुनिक दशा एवं दिशा देने का प्रयास किया ।

भारत के अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को बेहतर करने के लिए उन्होंने अपने कार्यकाल में चालीस से अधिक देशों की यात्रा की ।  पड़ोसी देश श्रीलंका में कई वर्षों से चल रहे संघर्ष को समाप्त करने के लिए उन्होंने विशेष प्रयास किए । इसके बाद भारतीय राजनीति में अस्थिरता का दौर प्रारम्भ हो गया । थोड़े ही समय में विश्वनाथ प्रताप सिंह, चन्द्रशेखर, एच डी देवेगौड़ा, इन्द्र कुमार गुजराल इत्यादि के रूप में कई प्रधानमन्त्री आए और गए ।

इस दौरान विदेश नीति के तौर पर कुछ खास बातें भी सामने आईं, लेकिन वे विशेष उल्लेखनीय नहीं हैं ।  मार्च, 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमन्त्री बनने के बाद भारतीय विदेश नीति में कई परिवर्तन हुए । वे पहले एक बार विदेश मन्त्री रह चुके थे, इसका लाभ उन्हें अपने कार्यकाल में । 

अपने राजनीतिक जीवन में उन्होंने देखा था कि भारत के पाकिस्तान से अच्छे सम्बन्ध नहीं होने के प्रतिकूल प्रभाव दोनों देशों पर पड़ रहे थे इसलिए उन्होंने पाकिस्तान से भारत के सम्बन्ध बेहतर करने की दिशा में विशेष प्रयास किए एवं इसके लिए वर्ष 1999 में पाकिस्तान की यात्रा भी की, हालाँकि इसका परिणाम सकारात्मक नहीं रहा, पाकिस्तान ने उसी वर्ष कारगिल में घुसपैठ प्रारम्भ कर दी ।

विवश होकर भारत को कठोर रुख अख्तियार करना पड़ा । बाजपेयी जी के कार्यकाल में ही भारत के सम्बन्ध अमेरिका से बेहतर हुए एवं वर्ष 2000 में अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिण्टन भारत की यात्रा पर आए ।

वर्ष 2001 को अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेण्टर पर अल-कायदा के आतंकी हमले के बाद भारत एवं अमेरिका के सम्बन्धों में प्रगाढ़ता आई । यहाँ से भारतीय विदेश नीति का एक नया दौर प्रारम्भ हुआ ।

वर्ष 2004 में डॉ मनमोहन सिंह जब प्रधानमन्त्री बने, तो नई शताब्दी की चुनौतियों के अनुरूप उन्होंने भारत को आर्थिक रूप से सुदृढ़ करने की नीति पर कार्य करना शुरू किया । इसका कारण उनका एक अर्थशास्त्री होना भी था । उनकी आर्थिक नीतियों का ही परिणाम था कि वर्ष 2008 में जब सारी दुनिया आर्थिकमन्दी के दौर से गुजर रही थी, तब भारत पर इसका प्रभाव था ।

उन्हीं के नेतृत्व में 2 मार्च, 2006 को अमेरिका एवं भारत के बीच हुए असैन्य परमाणु समझौते ने भारत को अमेरिकी विदेश नीति में ऐसा स्थान दिला दिया, जो किसी अन्य देश को हासिल नहीं है । इस समझौते के कारण भारत विश्व का ऐसा पहला देश बन गया, जो एन पी टी पर हस्ताक्षर नहीं करने के बावजूद वैध तरीके से परमाणु ईंधन व तकनीक प्राप्त कर सकेगा ।

भारत को यह विशेष दर्जा देने के लिए अमेरिका को अपने कानूनों में संशोधन करना पड़ा, हालाँकि इस समझौते में भारत के लाभ की अनदेखी की गई । फिर भी अमेरिका का भारत के प्रति रुख नरम होने को भारतीय विदेश नीति की सफलता अवश्य कहा जा सकता है ।

वर्ष 2011 में शीर्ष अमेरिकी खुफिया एजेंसी नेशनल इटेलाजेंस के निदेशक जेम्स क्लैपर ने भारत की विदेश नीति की प्रशंसा करते हुए कहा था- ”भारत सुदृढ़ विदेश नीति पर आगे बढ़ रहा है पूर्वी व दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ सम्बन्ध बढ़ाने का कार्य कर रहा है और अमेरिका, रूस व फ्रांस के साथ उच्च स्तरीय संवाद स्थापित कर रहा है चीन की ओर से भारत में जितनी सरकारी यात्राएँ होती हैं उतनी ही सरकारी यात्राएँ भारत की ओर से भी हो रही है । भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता पाने और अन्तर्राष्ट्रीय निर्यात नियन्त्रण व्यवस्था की शर्तों को कार्यान्वित करने की दिशा में अग्रसर है । वह जी-20 पूर्व एशियाई सम्मेलन जैसे अन्तर्राष्ट्रीय मंचों के साथ अपनी सहभागिता बढा रहा है तथा मैक्सिको में जलवायु परिवर्तन चर्चा में भाग ले रहा है ।”

वर्ष 2014 में केन्द्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार का गठन हुआ और थी नरेन्द्र मोदी प्रधानमन्त्री बने तत्पश्चात उन्होंने जापान की यात्रा की और दोनों देशों ने कई समझौतों पर हस्ताक्षर किए । सितम्बर में चीनी राष्ट्रपति श्री शी जिन पिंग की भारत यात्रा के दौरान दोनों देशों के मध्य 16 महत्वपूर्ण समझोते हुए, इसी माह के अन्त में अमेरिका जाकर हमारे प्रधानमन्त्री ने अमेरिकी राष्ट्रपति श्री बराक ओबामा के साथ महत्वपूर्ण द्विपक्षीय, क्षेत्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दों पर बात की, जिसमें व्यापार, निवेश, आर्थिक सहयोग व सुरक्षा सम्मिलित है ।

दोनों नेताओं ने कम्पनी सहित अन्य आतंकवादी ठिकानों को नष्ट करने का संकल्प लिया है, जो भारत के लिए काफी अच्छा संकेत है नवम्बर, 2014 में हमारे प्रधानमन्त्री का समूह-20 की शिखर बैठक में भाग लेने के दौरान म्यामार सहित ऑस्ट्रेलिया व फिजी जाने तथा एशिया, यूरोप, अमेरिका, अफ्रीका आदि देशों के नेताओं से भेंट करने से प्रत्येक सदस्य के साथ द्विपक्षीय सम्बन्ध को गहरा करने में सफलता प्राप्त हुई है । जिस प्रकार अतीत में एन डी ए सरकार की विदेश नीतियाँ सराहनीय रही हैं, उसी प्रकार भविष्य में भी उससे यही उम्मीद है ।

भारत को वैश्विक परिदृश्य एवं अपने राष्ट्रीय हितों को देखते हुए बार-बार अपनी विदेश नीति में परिवर्तन करना पड़ा है । वर्तमान समय में यह विश्व शक्ति बनने की ओर अग्रसर है । आतंकवाद, जलवायु परिवर्तन, ऊर्जा सकट इत्यादि वैश्विक समस्याओं से निपटने में इसकी भूमिका महत्वपूर्ण होगी ऐसी स्थिति में इसे विशेष रूप से सावधान रहना होगा ।

प्राचीनकाल से भारत का सिद्धान्त ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का रहा है । इसी सिद्धान्त पर अमल करते हुए विश्व शान्ति के लिए भी इसे विशेष प्रयास करने होंगे, इसलिए अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों में इसकी भूमिका के अनुरूप सम्भव है कि इसे फिर अपनी विदेश नीति में परिवर्तन करना पडे, जो बदली हुई परिस्थितियों के अनुरूप समय की आवश्यकता होगी ।

हमें हर हाल में जॉन एफ कैनेडी के इस कथन से सीख लेते हुए पूरे आत्मविश्वास के साथ विदेशी नीतियों का निर्धारण करना होगा- ”घरेलू नीतियों की गलतियाँ हमें हरा सकती है, विदेशी नीतियों की गलतियाँ हमारी जान ले सकते हैं ।”

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