Read this article in Hindi to learn about cloudburst and its management.

मेघ प्रस्फोट प्राकृतिक आपदाओं में से भयंकर आपदा है । मेघ प्रस्फोट में अकस्मात् भारी वर्षा होती है । मेघ प्रस्फोट में थोड़े समय में अधिक वर्षा होती है जिससे अचानक भयंकर बाढ प्राकृतिक आपदा का रूप धारण कर लेती है ।

मेघ प्रस्फोट में कभी-कभी गर्जन के साथ ओले भी पड़ते हैं । मेघ प्रस्फोट से केवल अचानक बाढ़ ही नहीं आती बल्कि भू-स्खलन, अवतलन, भूमिसमर्पण, हिमस्खलन, होते हैं जिनसे भारी तबाही मचती है ।

मेघ प्रस्फोट को लैंगमुइर वर्षण भी कहते है । लैंगमुइर वर्षा में विभिन्न आकार की बूँदें विभिन्न गति से नीचे आते समय एक-दूसरे से टकराती हैं । इस प्रकार बूँदों के एक-दूसरे से टकराने से उनका आकार बड़ा होता जाता है और उनके वेग में तेजी आती जाती है, इस प्रकार बादलों से थोड़े समय में अधिक वर्षण होता है । तेज गति से गिरती हुई बूंदें भयानक आवाज उत्पन्न करती हैं, जो तकलीफदायक तथा डरावनी हो जाती है ।

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मेघ प्रस्फोट सामान्यतः गर्मी के मौसम में होता है । किसान समुदायों में कभी-कभी ऐसी तूफानी वर्षा का स्वागत किया जाता है, क्योंकि सूखे से मुरझाई हुई फसलें फिर से हरी-भरी हो जाती हैं ।

भारतीय 34 महाद्वीप में, वर्षा प्रस्फोट सामान्यतः उस समय जब नमी से भरपूर मानसूनी काले बादल, बंगाल की खाड़ी से उठकर उत्तरी भारत एवं हिमालय की ओर बढते हैं और प्रति घंटे 75 मिमी भारी वर्षा करते हैं ।

उत्तराखंड मेघ प्रस्फोट (हिमालयी सुनामी):

‘देव भूमि’ उत्तराखंड अपनी भव्य हिमाच्छादित शिखरों हरे-भरे जंगलों और विस्मयजनक नदियों के कारण भारतीय संस्कृति में एवं विशेष एवं पवित्र स्थान रखता है । लाखों पर्यटक और तीर्थ यात्री प्रति वर्ष उत्तराखंड राज्य में श्रद्धा से आते हैं ।

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इन सभी आकर्षणों के बावजूद उत्तराखंड राज्य अति संवेदनशील पारिस्थितिकी मंडल है । उत्तराखंड में अचानक मेघ प्रस्फोट, भूस्खलन, बर्फीले-तूफान तथा आकस्मिक बाद आती रहती है । इसलिए किसी भी विकास परियोजना और पर्यटन की रूपरेखा बनाते समय इस बात पर ध्यान देना चाहिए ।

वैसे तो मेघ प्रस्फोट और अचानक बाढ उत्तराखंड में प्रतिवर्ष घटित होते है, परंतु 16 जून, 2013 का मेघ प्रस्फोट एक अभूतपूर्व विपदा थी । इस विपदा से जान-माल की भारी हानि हुई, राजमार्ग क्षतिग्रस्त हुये, नदियों के पुल बह गये होटल तथा विश्राम-स्थल नष्ट हो गए ।

ग्रामीण एवं नगरीय अधिवास ध्वस्त हो गये । जीवन संपत्ति तथा संरचनात्मक ढाँचे की भीषण क्षति के कारण इस मेघ प्रस्फोट विपदा को ‘हिमालयी सुनामी’ नाम दिया गया है । इस वर्षा-प्रस्फोट से अलकनंदा, मंदाकिनी तथा भागीरथी नदियों का लगभग 48,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल प्रभावित हुआ है ।

मेघ प्रस्फोट एक प्राकृतिक आपदा है । यह कुछ मिनटों में अत्यधिक वर्षा का विषद रूप है । पर अत्यधिक बरसात 16 जून, 2013 के मेघ प्रस्फोट में देव भूमि उत्तराखंड के विनाश का केवल आशिक स्पष्टीकरण है । पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी के विशेषज्ञों के अनुसार, विपदा घटित होने की प्रतीक्षा में थी ।

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पहाड़ों पर अवैध निर्माण होटलों के रूप में जरूरी ढाँचों की संख्या में अत्यधिक वृद्धि, जिनका नाममात्र को रखरखाव किया जाता है । प्राकृतिक संकटों की चेतावनी के प्रति निरूत्साहपूर्ण रवैया, उत्तराखंड की इस त्रासदी के लिये उत्तरदायी है ।

कोई भी देख सकता है कि राजमार्गों के विस्तार और विकास बहुमंजिला इमारतों, होटलों, सरायों, धर्मशालाओं, विश्राम गृहों, कारखानों, सैर-सपाटा स्थलों, पर्यटक आधार शिविरों और भंगुर पारिस्थितिकी तंत्र के क्षेत्र में नदियों पर सड़कों, बड़े-बड़े बाँधों के निर्माण ने प्राकृतिक विपदा के लिये उत्तराखंड की संवेदनशीलता को कई गुणा बढ़ा दिया गया है, पर निर्णयकर्ताओं और नियोजकों के उत्तराखंड को ‘ऊर्जा प्रदेश’ और ‘भारत की पर्यटक राजधानी’ के रूप में बदलने के महत्त्वाकाक्षी लक्ष्य पारिस्थितिकी विज्ञान और पर्यावरण के सिद्धांतों के विरुद्ध हैं ।

इसके अलावा अंधाधुंध वनोन्मुलन, भवनों का अविचारपूर्ण निर्माण, सड़क निर्माण के लिये चट्टानों को विस्फोट से उड़ाना पर्यावरण सिद्धांतों के क्रियान्वयन का अभाव और ‘पर्यावरण प्रभाव आकलन’ के उदासीनतापूर्ण क्रियावयन ने उत्तराखंड राज्य को आपदाओं, प्रकृतिक विपदाओं व संकटों के प्रति उच्च संवदेनशील बना दिया है ।

वास्तव में, उत्तराखंड में विनाशकारी बाढ़ ने सिद्ध कर दिया है कि प्राकृतिक शक्तियों को मानवीय हस्तक्षेप के द्वारा वश में करना केवल एक भ्रम है । पर्वतीय प्रदेशों के टिकाऊ विकास के लिए, पारिस्थितिकी विज्ञान के सिद्धांतों पर आधारित एक दीर्घकालिक नियोजन अपनाने की तत्कालीन आवश्यकता है ।

मेघ प्रस्फोट विपदा का प्रबंधन (Management of Cloudburst Disaster):

मेघ प्रस्फोट के घटित होने पर जीवन एवं संपत्ति की क्षति को कम करने में मदद के लिए कुछ उपायों का विवरण नीचे दिया गया है:

1. वैज्ञानिक एवं विश्वसनीय आँकड़ों पर आधारित पारिस्थितिकी संवेदनशील क्षेत्रों का सीमांकन करना । नदियों में जल के अधिकतम तथा न्यूनतम जल-प्रवाह को निर्धारित करना और छोटी-बडी सभी नदियों के जल अपवाह के बारे में लोगों को जागरूक किया जाना चाहिए ।

2. मौसम के बारे में पूर्व सूचना और मौसम संबंधी सूचना विवरण की बेहतर और प्रभावशाली प्रणाली । मेघ प्रस्फोट जैसी घटनाओं के बारे में अग्रिम मौसमी भविष्यवाणी के लिये मौसम-विज्ञान विभाग को हिमालयी नदियों के ऊपरी क्षेत्रों में डोपलर रडार स्थापित करना चाहिए ताकि मौसम संबंधी विश्वसनीय भविष्यवाणी की जा सके ।

3. ग्रामीण एवं नगरीय बस्तियों के लिए उचित स्थल का चयन और नियोजन ।

4. सडकों, मकानों की निर्माण तकनीकों के लिए अपनाई जाने वाली विधियों का व्यापक नवीकरण और पुनरीक्षण किया जाना चाहिए ।

5. बाँधों और सड़कों को बनाने के लिए किए जाने वाले विस्फोट, पहाड़ों को कमजोर कर देते हैं और पेडों की जड़ों को हिला देते हैं । ऐसे विस्फोट बद किए जाने चाहिए या न्यूनतम किए जाने चाहिए ।

6. विकास एवं नियोजन में बड़े बाँधों के स्थान पर लघु जल-विद्युत परियोजनाओं को वरीयता दी जानी चाहिए ।

7. हिमालय जैसे युवा-वलनदार पर्वत के भंगुर पारिस्थितिकी तंत्र में सांस्कृतिक (धार्मिक) एवं सौंदर्य-विषयक पर्यटन का सख्ती से विनियमन किया जाना चाहिए ।

8. दामोदर वैली कारपोरेशन के नमूने पर भागीरथी-अलकनंदा विकास प्राधिकरण का गठन करने की तत्काल जरूरत है ।

9. अनियंत्रित जाम और बढ़ा हुआ प्रदूषण स्तर पहाड़ों के पर्यावरण को तबाह करते हैं । उन्हें नियंत्रित व मर्यादित किया जाना चाहिए ।

10. मेघ प्रस्फोट जैसी प्राकृतिक आपदाओं का मुकाबला करने के लिए प्रदेश-स्तरीय तथा जिला-स्तरीय आपदा प्रबंधन और प्रशमन केंद्र होने चाहिए ।

11. पारिस्थितिकी दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों में मनोरंजन केंद्रों होटलों आदि के बढते हुए विस्तार पर रोक लगाने की आवश्यकता है ।

12. प्राकृतिक आपदा का मुकाबला करने के लिए मानव संसाधनों एवं आधारभूत ढाँचे को मजबूत किया जाना चाहिए ।

13. राहत और पुनर्वास उपायों में कोई भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए । बचाव कार्यों में लगे लोगों को प्रभावशाली लोगों व राजनेताओं के हस्तक्षेप की ओर ध्यान नहीं देना चाहिए ।

14. नीचे स्थित क्षेत्रों में महामारी के नियंत्रण के लिए वर्षा-प्रस्फोट के पश्चात् कार्रवाई की जरूरत है । जलमग्न क्षेत्रों में मलेरिया और डेंगू की रोक-थाम के लिए उचित उपाय करने की आवश्यकता होती है ।

15. मेघ विस्फोट प्रभावित इलाकों में पानी की आपूर्ति, बिजली तथा दूरसंचार सुविधाओं को प्राथमिकता के आधार पर बहाल किया जाना चाहिए ।

यदि ये कदम एक साथ उठाए जाए तो मेघ-प्रस्फोट जैसी प्राकृतिक आपदाओं से होने वाली जीवन एवं संपत्ति की क्षति को न्यूनतम स्तर तक सीमित क्रिया जा सकता है ।