भारत के मौसम पर निबंध | Essay on the Seasons of India in Hindi language.

भारत के जलवायु को जिस एक शब्द से अभिहित किया जा सकता है,वह है मानसून । मानसून हवाओं का मौसमी प्रत्यावर्तन है क्योंकि जाड़े के छः महीने में हवाएँ स्थल से समुद्र की ओर तथा गर्मी के छः महीनों में समुद्र से स्थल की ओर चलती है । मानसून दक्षिणी व दक्षिणी-पूर्वी एशिया की विशेषता है एवं इसका पर्याप्त आर्थिक महत्व है ।

भारतीय कृषि को मानसून के साथ जुआ माना जाता है, क्योंकि अधिकतर क्षेत्रों में कृषि मानसूनी वर्षा पर ही निर्भर है । वस्तुतः मानसून वह धुरी है जिसके चारों ओर भारतीय अर्थव्यवस्था घूमती है ।

मानसून को शुष्क व आर्द्र दो कालों में बांटकर देखा जा सकता है । शुष्क काल के अन्तर्गत शीत शुष्क ऋतु व ग्रीष्म ऋतु आती है जबकि आर्द्र काल के अन्तर्गत मानसून के आगमन एवं निवर्तन का काल शामिल किया जाता है ।

Essay # 1. शीत शुष्क ऋतु (Cold Dry Season):

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यह मध्य दिसम्बर से फरवरी तक का काल है । इस समय सूर्य के दक्षिणायन होने के कारण पश्चिमोत्तर भारत में उच्च दाब का क्षेत्र बन जाता है । यहाँ का तापमान औसतन 10C मिलता है, जबकि इस समय दक्षिणी भारत में लगभग 25C तापमान रहता है ।

पवन प्रवाह उत्तर-पश्चिमी भारत से पूर्व की ओर होता है एवं पूर्वी तटीय भाग में उत्तर-पूर्वी व्यापारिक पवनों के प्रभाव से वर्षा होती है । इस समय मुख्य रूप से ‘भूमध्यसागरीय पश्चिमी विक्षोभों’ से वर्षा प्राप्त होती है । ये वे शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात हैं जो उपोष्ण पछुआ जेट पवनों द्वारा इराक, ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान होते हुए भारतीय भू-भाग तक खींच लिए जाते हैं ।

पूर्व की ओर बढ़ने पर इनसे वर्षा की मात्रा में कमी देखने को मिलती है । पंजाब में इससे 25 सेमी. वर्षा एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 4 सेमी. वर्षा प्राप्त होती है । यह अल्प वर्षा भी पंजाब, हरियाणा आदि के गेहूँ, चना, सरसों आदि रबी की फसलों में सहायक होती है । राजस्थान में इस वर्षा को ‘मावट’ कहते हैं ।

हिमाचल की सेब की खेती में भी यह मदद करती है । हिमालय क्षेत्र में हिम-रेखा के ऊपर इनसे हिमपात होता है, जिससे नदियाँ वर्षवाहिनी बनी रहती है । पश्चिमी विक्षोभों के प्रभाव से उत्तर-पश्चिमी भारत में इस समय शीत-लहरी भी देखने को मिलता है । पश्चिमी विक्षोभों से औसत वार्षिक वर्षा का लगभग 3% प्राप्त होता है ।

Essay # 2. ग्रीष्म ऋतु (Summer Season):

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यह मार्च से मध्य जून तक रहती है । इस समय सूर्य उत्तरायण रहता है एवं तापमान में वृद्धि देखी जाती है । 21 मार्च को सूर्य विषुवत रेखा पर एवं 23 जून को कर्क रेखा पर सीधा चमकता है । मार्च के मध्य में तापमान बढ़ना शुरू होता है एवं मध्य मई तक तापमान बढ़कर 40-42C तक आ जाता है ।

उत्तर-पश्चिमी भारत में इस समय लू चलती है एवं तापमान कई स्थानों पर 45C से भी ऊपर पहुँच जाता है । राजस्थान में 49C, बिहार व उत्तर प्रदेश में 38-40C तथा महाराष्ट्र, कर्नाटक व केरल में इस समय 27-28C तापमान रहता है ।

पश्चिमोत्तर भारत का उच्च दाब इस समय धीरे-धीरे निम्न दाब में बदल जाता है । दक्षिणी-पूर्वी आर्द्र समुद्री पवन व स्थलीय शुष्क धूल भरी आंधी के मिलने से तूफान की उत्पत्ति होती है, जिससे पवन की गति और तेज हो जाती है । इस समय मानसून पूर्व की वर्षा प्राप्त होती है जो औसत वार्षिक वर्षा का लगभग 10% होती है । विभिन्न भागों में इस वर्षा के अलग-अलग स्थानीय नाम हैं ।

असम में इसे चाय वर्षा (Tea Shower), बंगाल में काल वैसाखी, केरल में आम्र वर्षा (Mango Shower) एवं कर्नाटक में कॉफी वर्षा (Coffee Shower) एवं चेरी ब्लॉसम कहा जाता है । कुछ जगह पर इस वर्षा को नार्वेस्टर भी कहा जाता है । इस समय होने वाली वर्षा में तड़ित झंझा (Thunder Storm) भी उत्पन्न होते हैं एवं बिजली की चमक के साथ तेज वर्षा होता है ।

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आर्द्र काल के अन्तर्गत मानसून के आगमन एवं निवर्तन का काल शामिल किया जाता है । जहाँ मानसून के प्रभाविता की अवधि मध्य जून से सितम्बर तक है वहीं निवर्तित मानसून का मुख्य काल अक्टूबर से मध्य दिसम्बर तक की है । इनसे औसत वार्षिक वर्षा का क्रमशः 74% एवं 13% वर्षा प्राप्त होती है ।

Essay # 3. मानसून का क्रमबद्ध पक्ष अर्थात् उसकी क्रिया-विधि (Rainy Season):

इसे निम्न चरणों के अंतर्गत समझा जा सकता है:

i. मानसून का आरम्भ और उसका अग्रसरण

ii. वर्षा लाने वाले यंत्र तथा मानसूनी वर्षा का वितरण

iii. मानसून का विच्छेद

iv. मानसून में निवर्तन

i. मानसून का आरम्भ व अग्रसरण (Starting of Monsoon):

इसकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में कई सिद्धांत प्रतिपादित किए गए हैं ।

परम्परागत सिद्धान्त (Conventional Theories):

इसके अनुसार 21 मार्च के बाद जब सूर्य उत्तरायन होता है, तो उत्तरी भारत में गर्मी बढ़ने लगती है । मध्य जून आते-आते गर्मी बेहद बढ़ जाती है एवं पश्चिमोत्तर भारत तथा पाकिस्तान निम्न दाब का क्षेत्र बन जाता है ।

ये निम्न दाब क्षेत्र इतने शक्तिशाली होते हैं, कि दक्षिणी गोलार्द्ध के व्यापारिक पवनें विषुवत रेखा पार कर इस ओर आकर्षित हो जाते हैं एवं दक्षिणी पूर्वी मानसूनी पवनों के रूप में भारतीय पवन तंत्र का अंग बन जाते हैं ।

हजारों किमी. की समुद्री यात्रा के कारण इनमें पर्याप्त नमी होती है । अतः काले-काले बादल उमड़ने लगते हैं, ऊमस का वातावरण बन जाता है एवं अंततः इनसे भारी वर्षा होती है । इस प्रकार मानसून का आकस्मिक प्रारम्भ हो जाता है जिसे मानसून प्रस्फोट (Burst of Monsoon) कहते हैं ।

भारत के प्रायद्वीपीय आकार के कारण ये अरब सागर व बंगाल की खाड़ी की दो प्रधान शाखाओं में बँट जाती है । इस समय पर्वतों का वितरण वर्षा का मुख्य निर्धारक होता है । पर्वतीय ढालों के पवन अभिमुख क्षेत्रों में भारी वर्षा होती है जबकि पवनविमुख क्षेत्र में कम वर्षा होने से वृष्टिछाया क्षेत्र निर्मित हो जाता है ।

क्लोन की प्रतिविषुवतीय पछुआ पवन सिद्धान्त (Clone Theory):

उत्तरी पूर्वी व्यापारिक पवन व दक्षिणी पूर्वी व्यापारिक पवनों के संपर्क क्षेत्र ITCZ (अंतर-उष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र) में प्रति विषुवतीय पछुआ पवनें चलती हैं । जब सूर्य के उत्तरायन की स्थिति में ITCZ का उत्तरी सिरा भारतीय भू-भाग की ओर खिसक जाता है (अधिकतम खिसकाव 30N अक्षांश) तो यही पवनें दक्षिणी पूर्वी मानसून के रूप में भारत में वर्षा कराती हैं ।

कोटेश्वरम का जेट-स्ट्रीम सिद्धान्त (The Jet-Stream Principle Koteshwaram):

कोटेश्वरम के अनुसार ITCZ के उत्तरी खिसकाव से हिमालय के दक्षिणी भाग में सक्रिय उपोष्ण पछुआ जेट स्ट्रीम का भी उत्तर की ओर खिसकाव हो जाता है । इस समय हिमालय तथा तिब्बत के पठार के गर्म होने तथा गर्म हवाओं के ऊपर उठने से ऊपरी वायुमंडल में प्रतिचक्रवातीय स्थिति उत्पन्न होने के कारण पूर्वी जेट पवनों का अविर्भाव होता है ।

इस क्षेत्र से उठी वायु की दक्षिणी शाखा मेडागास्कर के पास ‘मैस्कर्णी उच्च दाब क्षेत्र’ में उतरकर सतही दक्षिणी-पश्चिमी मानसूनी पवनों के रूप में पवन की चक्रीय व्यवस्था (हैडली सेल) पूरी करती है ।

इस क्रम में लंबी समुद्री दूरी तय करने के कारण उसमें पर्याप्त नमी होती है एवं इसीलिए पर्वतीय ढालों के अभिमुख क्षेत्रों में वह पर्याप्त वर्षा लाती है । ‘उष्ण कटिबंधीय पूर्वी जेट पवनें’ इन मानसूनी पवनों को शक्ति प्रदान करती है । इन जेट पवनों की उत्पत्ति क्षोभ सीमा में 14-16 किमी. की ऊँचाई पर उस समय होती है जब ऊपरी वायुमंडल का वायुदाब 100-150 मिलीबार हो ।

इसका क्षेत्र विस्तार 8-35 उत्तरी अक्षांश पर होता है एवं ये सिर्फ गर्मियों में उत्पन्न होते हैं । पूर्वी जेट बंगाल की खाड़ी के उष्णकटिबंधीय अवदाबों को भी खींचकर तटीय भागों में लाते हैं एवं चक्रवाती वर्षा कराते हैं ।

गर्म होने के कारण ये जेट पवनें सतह की आर्द्र वायु को ऊपर उठाती हैं एवं भारतीय भू-भाग पर संवहनीय वर्षा कराती हैं एवं भारत के विभिन्न भागों में मानसून का प्रस्फोट सा हो जाता है ।

इस प्रकार पूर्वी जेट-स्ट्रीम का दक्षिणी पश्चिमी मानसून के अविर्भाव में अत्यधिक योगदान है । चूँकि इस सिद्धांत से भारत में होने वाली हर प्रकार की वर्षा की व्याख्या हो जाती है । इसीलिए इस सिद्धांत को पर्याप्त मान्यता है ।

वस्तुतः उपरोक्त में से कोई भी सिद्धान्त मानसून की उत्पत्ति की पूर्ण व्याख्या नहीं कर पाता । इन्हें समेकित रूप में देखने पर अपेक्षाकृत सही तस्वीर प्रस्तुत हो पाती है । निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिमोत्तर भाग में निम्नदाब की स्थापना व ITCZ के उत्तरी खिसकाव में संबंध है ।

इसी प्रकार ITCZ के उत्तरी खिसकाव का संबंध उपोष्ण पछुआ जेट स्ट्रीम के हिमालय के उत्तर की ओर खिसकाव व उष्णकटिबंधीय पूर्वी जेट-स्ट्रीम की उत्पत्ति से है तथा ये सभी कारक मिलजुल कर भारत में द.प. मानसून के प्रस्फोट के लिए जिम्मेदार है ।

मानसून का अग्रसरण पश्चिमोत्तर भारत के निम्न दाब के कारण चापाकार आकृति में होता है । मानसूनी पवनें 1 जून तक केरल तट पर पहुँचती है । 13 जून तक मुंबई तथा कोलकाता पहुँच जाती है । 15 जुलाई तक यह संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप को प्रभावित कर देती है ।

ii. वर्षा लाने वाले यंत्र व वर्षा वितरण (Distribution of Rain):

ये निम्न हैं:

a. पर्वतों का वितरण । पर्वतों के पवन अभिमुख क्षेत्र में भारी वर्षा होती है । जबकि पवन विमुख क्षेत्र में अल्प वर्षा देखी जाती है ।

b. ITCZ की स्थिति । इसे मानसून द्रोणी भी कहा जाता है । ये मानसूनी पवनों को आकर्षित कर वर्षा का कारक बनती है ।

c. उष्णकटिबंधीय पूर्वी जेट स्ट्रीम का शक्तिशाली होना जो दक्षिणी पश्चिमी मानसूनी पवन को गति प्रदान करता है । ये पवनें पर्वतीय अवरोधों से टकराकर पर्वतीय वर्षा लाती हैं व बंगाल की खाड़ी में उत्पन्न होने वालों अवदाबों को खींचकर भारतीय भू-भाग की आर्द्र पवनों को उठाकर यह संवहनीय वर्षा भी कराती है ।

d. एलनिनो व दक्षिणी दोलन सूचकांक (ENSO) । जिस वर्ष पेरू के तट पर एल-निनो (प्रति विषुवतीय गर्म सागरीय धारा) का जन्म होता है उस वर्ष दक्षिणी दोलन सूचकांक (Southern Oscillation Index-SOI) नकारात्मक होता है ।

SOI आस्ट्रेलिया के पोर्ट डार्विन व फ्रेंच पोलिनेशिया के ताहिती के बीच वायुदाब के अंतर से संबंधित सूचकांक है । नकारात्मक SOI प्रशांत महासागरीय वाकर सेल कोकमजोर करता है जिससे हिन्द महासागरीय वाकर सेल शक्तिशाली हो जाता है । इसके परिणामस्वरूप हैडली सेल भारतीय भू-भाग से विस्थापित हो जाता है एवं मानसून कमजोर पड़ जाता है ।

ऐसी स्थिति सामान्यतः 2 से 5 सालों में उत्पन्न होती है । 1972 ई. में एलनिनो की उत्पत्ति व मानसून के कमजोर पड़ने में सीधा संबंध पाया गया था परन्तु ऐसे भी वर्ष रहे हैं जब एलनिनो आने के बावजूद मानसून खराब नहीं रहा । इस संबंध में भारतीय मौसम वैज्ञानिक बसंत गोवारीकर ने मानसून की भविष्यवाणी हेतु 16 सूचकों (Index) का एक मॉडल दिया है ।

इनमें तापमान के 6, वायुदाब के 5, पवन तंत्र के 3 और हिमाच्छादन के 2 सूचकांक शामिल हैं । इनमें एलनिनो तापमान का एवं दक्षिणी दोलन सूचकांक वायुदाब का एक-एक महत्वपूर्ण सूचक है ।

यद्यपि ये मानसून पर पर्याप्त प्रभाव डालते हैं परंतु अन्य सूचकों का भी मानसून की उत्पत्ति एवं प्रभाविता पर असर रहता है । इस प्रकार एलनिनो के प्रभाव के बावजूद अभी मानसून की भविष्यवाणी हेतु अनेक शोधों की आवश्यकता है और इस दिशा में लगातार प्रगति जारी है ।

iii. मानसून में विच्छेद (Severance in Monsoon):

मानसून काल में वर्षा के आर्द्र दौर व शुष्क दौर आते रहते हैं । लम्बे शुष्क दौर को मानसून विच्छेद कहा जाता है । यह वह स्थिति है जब एक-दो या कई सप्ताह तक वर्षा न हो ।

इसके निम्न कारण हैं:

a. ITCZ की स्थिति (मैदानी भागों में रहने पर वर्षा)

b. उष्ण कटिबंधीय अवदाबों की आवृति में कमी आना

c. जब भाप भरी हवाओं की दिशा प. घाट के समानान्तर रहे ।

d. तापक्रम का प्रतिलोमन ।

iv. मानसून का निवर्तन (Withdrawal of Monsoon):

इसका संबंध सूर्य के दक्षिणायण से है जिस कारण निम्न दशाएँ बनती है:

a. शीतकाल में पश्चिमोत्तर भारत में उच्च दाब का विकास ।

b. ITCZ का दक्षिण की ओर स्थानान्तरण ।

c. उपोष्ण पछुआ जेट स्ट्रीम का पुनः अपने स्थान पर लौटना ।

d. उ.पू. व्यापारिक पवनों का अपने स्थान पर कायम होना ।

मानसून का निवर्तन भी चापाकार आकृति में होता है । निवर्तित मानसून बंगाल की खाड़ी से जलवाष्प ग्रहण कर पूर्वी तटीय भागों में वर्षा कराती है । अक्टूबर-नवम्बर में उत्तरी सरकार क्षेत्र में जबकि नवम्बर-दिसम्बर में तमिलनाडु तट (कोरोमंडल तट) पर वर्षा होती है । मानसून की संपूर्ण क्रियाविधि अत्यधिक जटिल है एवं इस पर निरंतर शोध जारी है ।

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