Read this article in Hindi to learn about:- 1. भौतिक अवशेष (Physical Relic) 2. सिक्के (Coins) 3. अभिलेख (Record) 4. साहित्यिक स्रोत (Literary Sources) 5. विदेशी विवरण (Foreign Details) 6. ऐतिहासिक दृष्टि (Historical Sight) 7. इतिहास का निर्माण (Building the History).

भौतिक अवशेष (Physical Relic):

प्राचीन भारत के निवासियों ने अपने पीछे अनगिनत भौतिक अवशेष छोड़ हैं । दक्षिण भारत में पत्थर के मंदिर और पूर्वी भारत में ईंटों के विहार आज भी धरातल पर देखने को मिलते हैं और उस युग का स्मरण कराते हैं जब देश में भारी संख्या में भवनों का निर्माण हुआ ।

परंतु इन भवनों के अधिकांश अवशेष सारे देश में बिखरे अनेकानेक टीलों के नीचे दबे हुए हैं । टीला धरती की सतह के उस उभरे हुए भाग को कहते हैं जिसके नीचे पुरानी बस्तियों के अवशेष रहते हैं । यह कई प्रकार का हो सकता है: एकल-संस्कृतिक, मुख्य-संस्कृतिक और बहु-संस्कृतिक ।

एकल-संस्कृतिक टीलों में सर्वत्र एक ही संस्कृति दिखाई देती है । कुछ टीले केवल चित्रित धूसर मृद्‌भांड अर्थात् पेंटेड ग्रे वेअर (पी॰ जी॰ डब्ल्यू॰) संस्कृति के द्योतक हैं, कुछ सातवाहन संस्कृति के, और कुछ कुषाण संस्कृति के ।

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मुख्य-संस्कृतिक टीलों में एक संस्कृति की प्रधानता रहती है और अन्य संस्कृतियाँ जो पूर्वकाल की भी हो सकती हैं और उत्तर काल की भी विशेष महत्व की नहीं होतीं । बहु-संस्कृतिक टीलों में उत्तरोत्तर अनेक संस्कृतियाँ पाई जाती हैं जो कभी-कभी एक दूसरे के साथ-साथ चलती हैं ।

रामायण और महाभारत की भांति खोदे गए टीले का उपयोग हम संस्कृति के भौतिक और अन्य पक्षों के क्रमिक स्तरों को उजागर करने के लिए कर सकते हैं ।

टीले की खुदाई दो तरह से की जा सकती है- अनुलंब या क्षैतिज । अनुलंब उत्खनन का अर्थ है सीधी खड़ी लंबवत् खुदाई करना जिससे कि विभिन्न संस्कृतियों का कालक्रमिक ताँता उद्‌घाटित हो ।

यह सामान्यत: स्थल के कुछ भाग में ही सीमित रहता है । क्षैतिज उत्खनन का अर्थ है सारे टीले की या उसके बृहत भाग की खुदाई । इस तरह की खुदाई से हम उस स्थल की काल विशेष की संस्कृति का पूर्ण आभास पा सकते हैं ।

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अधिकांश स्थलों की अनुलंब खुदाई होने के कारण उनसे हमें भौतिक संस्कृति का अच्छा-खासा कालानुक्रमिक सिलसिला मिल जाता है । क्षैतिज खुदाइयाँ खर्चीली होने के कारण बहुत कम की गई हैं । फलस्वरूप उत्खननों से प्राचीन भारतीय इतिहास की अनेक अवस्थाओं के भौतिक जीवन का पूर्ण और समग्र चित्र नहीं मिल पाता ।

जिन टीलों का उत्खनन हुआ है उनके भी पुरावशेष विभिन्न अनुपातों में ही सुरक्षित हैं । सूखी जलवायु के कारण पश्चिमी उत्तर प्रदेश राजस्थान और पश्चिमोत्तर भारत के पुरावशेष अधिक सुरक्षित बने रहे परंतु मध्य गंगा के मैदान और डेल्टाई क्षेत्रों की नम और आर्द्र जलवायु में लोहे के औजार भी संक्षारित हो जाते हैं और कच्ची मिट्‌टी से बने भवनों के अवशेषों को खोजना कठिन होता है ।

नम और जलोढ़ क्षेत्रों में तो पक्की ईंटों और पत्थर के भवनों के काल में आकर ही हमें उत्कृष्ट और प्रचुर अवशेष मिल पाते हैं । पश्चिमोत्तर भारत में हुए उत्खननों से ऐसे नगरों का पता चलता है जिनकी स्थापना लगभग 2500 ई॰ पू॰ में हुई थी ।

इसी प्रकार उत्खननों से हमें गंगा की घाटी में विकसित भौतिक संस्कृति के बारे में भी जानकारी मिली है । इससे पता चलता है कि उस समय के लोग जिन बस्तियों में रहते थे उनका ढाँचा कैसा था वे किस प्रकार के मृद्‌भांड उपयोग में लाते थे किस प्रकार के घरों में रहते थे भोजन में किन अनाजों का इस्तेमाल करते थे और कैसे औजारों या हथियारों का प्रयोग करते थे ।

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दक्षिण भारत के कुछ लोग मृत व्यक्ति के शव के साथ औजार, हथियार मिट्‌टी के बरतन आदि चीजें भी कब में गाड़ते थे और इसके ऊपर एक घेरे में बड़े-बड़े पत्थर खड़े कर दिए जाते थे । ऐसे स्मारकों को महापाषाण (मेगालिथ) कहते हैं, हालांकि सभी महापाषाण इस श्रेणी में नहीं आते ।

इनकी खुदाई बतलाती है कि लौह युग की शुरुआत होने पर दकन के लोग किस प्रकार का जीवन व्यतीत करते थे । जिस विज्ञान के आधार पर पुराने टीलों का क्रमिक स्तरों में विधिवत उत्खनन किया जाता है और प्राचीन काल के लोगों के भौतिक जीवन के बारे में जानकारी मिलती है, उसे पुरातत्व (आर्किऑलजि) कहते हैं ।

उत्खनन और अन्वेषण के फलस्वरूप प्राप्त भौतिक अवशेषों का विभिन्न प्रकार से वैज्ञानिक परीक्षण किया जाता है । रेडियो कार्बन काल निर्धारण की विधि से यह पता लगाया जाता है कि वे किस काल के हैं । रेडियो कार्बन या कार्बन 14 (C14) कार्बन का रेडियोधर्मी समस्थानिक (आइसोटोप) है जो सभी प्राणवान वस्तुओं में विद्यमान होता है ।

सभी रेडियोधर्मी पदार्थों की तरह इसका निश्चित/समान गति से क्षय होता है । जब कोई वस्तु जीवित रहती है तो C14 के क्षय की प्रक्रिया के साथ हवा और भोजन की खुराक से उस वस्तु में C14 का समन्वय भी होता रहता है ।

परंतु जब वस्तु निष्प्राण हो जाती है तब इसमें विद्यमान C14 के क्षय की प्रक्रिया समान गति से जारी रहती है लेकिन यह हवा और भोजन से C14 लेना बंद कर देती है । किसी प्राचीन वस्तु में विद्यमान C14 में आई कमी को माप कर उसके समय का निर्धारण किया जा सकता है ।

यह इसलिए संभव है क्योंकि C14 का क्षय निश्चित गति से होता है जैसा पहले बताया जा चुका है । यह ज्ञात है कि C14 का आधा जीवन 5568 वर्षों का होता है । रेडियोधर्मी पदार्थ का आधा जीवन वह काल/समय होता है जिसमें उस वस्तु की आधी रेडियोधर्मी धारिता लुप्त हो जाती है ।

इस प्रकार अगर कोई वस्तु 5568 वर्षों पहले निष्प्राण हो गई तो उसकी C14 धारिता उस समय की तुलना में आधी रह जाएगी जब वह जीवित थी और अगर वह 11,136 वर्ष पहले निष्प्राण हुई तो उसके C14 की धारिता उस समय की तुलना में चौथाई रह जाएगी जब वह जीवित थी ।

पौधों के अवशेषों का परीक्षण कर विशेषत: पराग के विश्लेषण द्वारा जलवायु और वनस्पति का इतिहास बनता है । इसी आधार पर यह कहा जाता है कि राजस्थान और कश्मीर में कृषि का प्रचलन लगभग 7000-6000 ई॰ पू॰ में भी था ।

धातु की शिल्पवस्तुओं की प्रकृति और घटकों का वैज्ञानिक विश्लेषण किया जाता है और उसके परिणाम से पता चलता है कि वे जगहें कहाँ हैं जहाँ से ये धातुएँ प्राप्त की गई हैं और इसे धातु विज्ञान के विकास की अवस्थाओं का पता लगाया जाता है । पशुओं की हड्‌डियों का परीक्षण कर उनकी पहचान की जाती है, और उनके पालतू होने तथा तरह-तरह के काम में लाने का पता लगाया जाता है ।

सिक्के (Coins):

अनेक सिक्के और अभिलेख धरातल पर भी मिले हैं, पर इनमें से अधिकांश जमीन को खोदकर निकाले गए है । सिक्कों के अध्ययन को मुद्राशास्त्र (न्यूमिस्मेटिक्स) कहते हैं । आजकल की तरह प्राचीन भारत में कागज की मुद्रा का प्रचलन नहीं था पर धातुधन या धातुमुद्रा (सिक्का) चलता था ।

पुराने सिक्के तांबे चांदी सोने और सीसे के बनते थे । पकाई गई मिट्‌टी के बने सिक्कों के साँचे बड़ी संख्या में मिले हैं । इनमें से अधिकांश साँचे कुषाण काल के अर्थात् ईसा की आरंभिक तीन सदियों के हैं । गुप्तोत्तर काल में ये साँचे लगभग लुप्त हो गए ।

प्राचीन काल में आज जैसी बैंकिंग प्रणाली नहीं थी इसलिए लोग अपना पैसा मिट्‌टी और कांसे के बरतनों में बड़ी हिफ़ाजत से जमा रखते थे ताकि मुसीबत के दिनों में उस बहुमूल्य निधि का उपयोग कर सकें । ऐसी अनेक निधियाँ जिनमें न केवल भारतीय सिक्के हैं बल्कि रोमन साम्राज्य जैसी विदेशी टकसालों में ढाले गए सिक्के भी हैं देश के अनेक भागों में मिली हैं ।

ये निधियाँ अधिकतर कोलकाता, पटना, लखनऊ, दिल्ली, जयपुर मुंबई और चेन्नई के संग्रहालयों में सुरक्षित हैं । बहुत-से भारतीय सिक्के नेपाल बांग्लादेश पाकिस्तान और अफगानिस्तान के संग्रहालयों में भी देखने को मिलते हैं । चूंकि ब्रिटेन ने भारत पर लंबे अरसे तक राज किया इसलिए ब्रिटिश अधिकारी भी अपने निजी तथा सार्वजनिक संग्रहालयों में बहुत-सारे भारतीय सिक्के ले गए ।

प्रमुख राजवंशों के सिक्कों की सूचियाँ तैयार कर प्रकाशित की गई हैं । कोलकाता के इंडियन म्यूजियम लंदन के ब्रिटिश म्यूजियम आदि के सिक्कों की ऐसी सूचियाँ उपलब्ध हैं । परंतु बहुत-सारे सिक्कों की सूचियाँ बनाना और प्रकाशित करना अब भी बाकी ही है ।

हमारे आरंभिक सिक्कों पर तो कुछेक प्रतीक मिले हैं, पर बाद के सिक्कों पर राजाओं और देवताओं के नाम तथा तिथि का भी उल्लेख है । इन सिक्कों के उपलब्धि स्थान बतलाते हैं कि उन स्थानों में इन सिक्कों का प्रचलन था ।

इस प्रकार प्राप्त सिक्कों के आधार पर कई राजवंशों के इतिहास का पुनर्निर्माण संभव हुआ है विशेषत: उन हिंद-यवन शासकों के इतिहास का जो उत्तरी अफगानिस्तान से भारत पहुँचे और जिन्होंने ईसा-पूर्व दूसरी और पहली सदियों में यहाँ शासन किया ।

चूंकि सिक्कों का काम दान-दक्षिणा, खरीद-बिक्री और वेतन-मजदूरी के भुगतान में पड़ता था इसलिए सिक्कों से आर्थिक इतिहास पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है । राजाओं से अनुमति लेकर व्यापारियों और स्वर्णकारों की श्रेणियों (व्यापारिक संघों) ने भी अपने कुछ सिक्के चलाए थे ।

इससे शिल्पकारी और व्यापार की उन्नतावस्था सूचित होती है । सिक्कों के सहारे बड़ी मात्रा में लेन-देन संभव हुआ और व्यापार को बढ़ावा मिला । सबसे अधिक सिक्के मौर्योत्तर कालों में मिले हैं जो विशेषत: सीसे पोटिन तांबे कांसे चांदी और सोने के हैं । गुप्त शासकों ने सोने के सिक्के सबसे अधिक जारी किए ।

इन सबसे पता चलता है कि व्यापार-वाणिज्य विशेषत: मौर्योत्तर काल में और गुप्तकाल के अधिक भाग में खूब ही बढ़ा । इसके विपरीत गुप्तोत्तर काल के बहुत कम सिक्के मिले हैं जिससे यह प्रकट होता है कि उन दिनों व्यापार-वाणिज्य शिथिल हो गया था । सिक्कों पर राजवंशों और देवताओं के चित्र, धार्मिक प्रतीक और लेख भी अंकित रहते हैं, जिनसे तत्कालीन कला और धर्म पर प्रकाश पड़ता है ।

अभिलेख (Record):

सिक्कों से भी कहीं अधिक महत्व के हैं अभिलेख । इनके अध्ययन को पुरालेखशास्त्र (एपिग्रेफी) कहते हैं, और इनकी तथा दूसरे पुराने दस्तावेजों की प्राचीन तिथि के अध्ययन को पुरालिपिशास्त्र (पेलिअग्रेफी कहते हैं । अभिलेख मुहरों, प्रस्तरस्तंभों, स्तूपों, चट्‌टानों और ताम्रपत्रों पर मिलते हैं तथा मंदिर की दीवारों और ईंटों या मूर्तियों पर भी ।

समग्र देश में आरंभिक अभिलेख पत्थरों पर खुदे मिलते हैं । किंतु ईसा के आरंभिक शतकों में इस काम में ताम्रपत्रों का प्रयोग आरंभ हुआ । तथापि पत्थर पर अभिलेख खोदने की परिपाटी दक्षिण भारत में व्यापक स्तर पर जारी रही । दक्षिण भारत में मंदिर की दीवारों पर भी स्थायी स्मारकों के रूप में भारी संख्या में अभिलेख खोई गए हैं ।

सिक्कों की तरह अभिलेख भी देश के विभिन्न संग्रहालयों में सुरक्षित है । सबसे अधिक अभिलेख मैसूर में मुख्य पुरालेखशास्त्री के कार्यालय में संगृहीत हैं । आरंभिक अभिलेख प्राकृत भाषा में है और ये ईसा-पूर्व तीसरी सदी के हैं । अभिलेखों में संस्कृत भाषा ईसा की दूसरी सदी से मिलने लगती है और चौथी-पाँचवी सदी में इसका सर्वत्र व्यापक प्रयोग होने लगा ।

तब भी प्राकृत का प्रयोग समाप्त नहीं हुआ । अभिलेखों में प्रादेशिक भाषाओं का प्रयोग नौवी-दसवीं सदी से होने लगा । मौर्य, मौर्योत्तर और गुप्तकाल के अधिकांश अभिलेख कार्पस इन्सक्रिप्शनम इंडिकेरम् नामक ग्रंथमाला में संकलित करके प्रकाशित किए गए हैं ।

परंतु गुप्तोत्तर काल के अभिलेख अभी तक इस प्रकार सुव्यवस्थित रूप से संकलित नहीं हुए हैं । दक्षिण भारत के अभिलेखों की स्थानक्रम सूचियों प्रकाशित हुई हैं । फिर भी 50,000 से भी अधिक अभिलेख जिनमें अधिकांश दक्षिण भारत के हैं प्रकाशन की प्रतीक्षा कर रहे हैं ।

हड़प्पा संस्कृति के अभिलेख अभी तक पड़े नहीं जा सके हैं । ये संभवत: ऐसी किसी भावचित्रात्मक लिपि में लिखे गए हैं जिसमें विचारों और वस्तुओं को चित्रों के रूप में व्यक्त किया जाता था । अशोक के शिलालेख ब्राह्मी लिपि में है । यह लिपि बाएँ से दाएँ लिखी जाती थी ।

उसके कुछ शिलालेख खरोष्ठी लिपि में भी हैं जो दाएँ से बाएँ लिखी जाती थी लेकिन पश्चिमोत्तर भाग के अलावा भारत में भिन्न प्रदेशों में ब्राह्मी लिपि का ही प्रचार रहा । पाकिस्तान और अफगानिस्तान के अशोक के शिलालेखों में यूनानी और आरामाइक लिपियों का भी प्रयोग हुआ है ।

गुप्तकाल के अंत तक देश की प्रमुख लिपि ब्राह्मी ही रही । यदि ब्राह्मी और इसकी विभिन्न शैलियों का भली-भांति ज्ञान हो जाए तो कोई भी पुरालेखविद् ईसा की आठवीं सदी तक के अधिकांश पुरालेखों को पढ़ सकता है । परंतु इसके बाद इस लिपि की प्रादेशिक शैलियों में भारी अंतर आ गया और इन्हें अलग-अलग नाम दे दिए गए ।

सबसे पुराने अभिलेख हड़प्पा संस्कृति की मुहरों पर मिलते हैं । ये लगभग 2500 ई॰ पू॰ के हैं । इनका पढ़ना अब तक संभव नहीं हुआ है । देश के सबसे पुराने अभिलेख जो पड़े जा चुके हैं, वे हैं ईसा-पूर्व तीसरी सदी के अशोक के शिलालेख ।

चौदहवीं सदी में फिरोजशाह तुगलक को अशोक के दो स्तंभलेख मिले थे एक मेरठ में और दूसरा हरियाणा के टोपरा नामक स्थान में । उसने इन्हें दिल्ली मंगवाया और अपने राज्य के पंडितों से पढ़वाने का प्रयास किया पर कोई भी पंडित पड़ नहीं पाया ।

अठारहवीं सदी के अंतिम चरण में अंग्रेजों ने इन्हें पढ़ने की कोशिश की तो उन्हें भी इसी कठिनाई का सामना करना पड़ा । इन अभिलेखों को पढ़ने में सर्वप्रथम 1837 में सफलता मिली जेम्स प्रिंसेप को जो उस समय बंगाल में ईस्ट इंडिया कंपनी की सेवा में ऊँचे पद पर थे ।

अभिलेखों के अनेंक प्रकार हैं । कुछ अभिलेखों में अधिकारियों और जनता के लिए जारी किए गए सामाजिक, धार्मिक तथा प्रशासनिक राज्यादेशों और निर्णयों की सूचनाएँ रहती हैं । अशोक के शिलालेख इसी कोटि के हैं ।

दूसरी कोटि में वे आनुष्ठानिक अभिलेख आते हैं जिन्हें बौद्ध, जैन, वैष्णव, शैव आदि संप्रदायों के अनुयायियों ने भक्तिभाव से स्थापित स्तंभों प्रस्तरफलकों मंदिरों और प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण कराया है ।

तीसरी कोटि में वे प्रशस्तियाँ आती है जिनमें राजाओं और विजेताओं के गुणों और कीर्तियों का बखान तो है, पर उनकी पराजयों और कमजोरियों का कोई जिक्र नहीं है । समुद्रगुप्त की प्रयाग-प्रशस्ति इस कोटि का उदाहरण है । इन सभी के अलावा, बहुत-सारे ऐसे दान-पत्र मिलते हैं जिनमें न केवल राजाओं और राजपुत्रों द्वारा, बल्कि शिल्पियों और व्यापारियों द्वारा भी मुख्यत: धर्मार्थ, पैसा, मवेशी, भूमि आदि के दान अभिलिखित हैं ।

मुख्यत: राजाओं और सामंतों द्वारा किए गए भूमिदान के अभिलेख विशेष महत्व के हैं, क्योंकि इनमें प्राचीन भारत की भूव्यवस्था और प्रशासन के बारे में उपयोगी सूचनाएँ मिलती हैं । ये अभिलेख अधिकतर ताम्रपत्रों पर उकेरे गए हैं । इनमें भिक्षुओं, ब्राह्मणों, मंदिरों, विहारों, जागीरदारों और अधिकारियों को दिए गए गाँवों, भूमियों और राजस्व के दानों का विवरण है । ये विभिन्न भाषाओं में लिखे मिलते हैं, जैसे प्राकृत, संस्कृत, तमिल, तेलुगु आदि ।

साहित्यिक स्रोत (Literary Sources):

यद्यपि प्राचीन भारत के लोगों को लिपि का ज्ञान 2500 ई॰ पू॰ में भी था, परंतु हमारी प्राचीनतम उपलब्ध पांडुलिपियाँ ईसा की चौथी सदी के पहले की नहीं हैं और ये भी मध्य एशिया से प्राप्त हुई हैं । भारत में पांडुलिपियाँ भोजपत्रों और तालपत्रों पर लिखी मिलती हैं परंतु मध्य एशिया में जहाँ भारत से प्राकृत भाषा फैल गई थी ये पांडुलिपियाँ मेषचर्म तथा काष्ठफलकों पर भी लिखी गई हैं । इन्हें हम भले ही अभिलेख कह दें परंतु हैं ये एक प्रकार की पांडुलिपियाँ हीं ।

उन दिनों मुद्रण कला का आविष्कार नहीं हुआ था इसलिए ये पांडुलिपियाँ मूल्यवान समझी जाती थीं । वैसे तो समूचे भारत में संस्कृत की पुरानी पांडुलिपियाँ मिली हैं, परंतु इनमें से अधिकतर दक्षिण भारत कश्मीर और नेपाल से प्राप्त हुई हैं ।

आजकल अधिकांश अभिलेख संग्रहालयों में और पांडुलिपियाँ पुस्तकालयों में संचित-सुरक्षित हैं । अधिकांश प्राचीन ग्रंथ धार्मिक विषयों पर हैं । हिंदुओं के धार्मिक साहित्य में वेद रामायण, महाभारत, पुराण आदि आते हैं ।

यह साहित्य प्राचीन भारत की सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्थिति पर काफी प्रकाश डालता है । किंतु देश और काल के संदर्भ में इसका उपयोग करना बड़ा ही कठिन है । ऋग्वेद को 1500-1000 ई॰ पू॰ के लगभग का मान सकते हैं ।

लेकिन अथर्ववेद, यजुर्वेद, ब्राह्मणों, आरण्यकों और उपनिषदों को 1000-500 ई॰ पू॰ के लगभग का माना जाएगा । प्राय: सभी वैदिक ग्रंथों में क्षेपक मिलता है जो सामान्यत: आदि या अंत में रहता है । यों ग्रंथ के बीच में भी क्षेपक का पाया जाना कोई असाधारण बात नहीं हैं ।

ऋग्वेद में मुख्यत: देवताओं की स्तुतियाँ हैं, परंतु बाद के वैदिक साहित्य में स्तुतियों के साथ-साथ कर्मकांड, जादूटोना और पौराणिक आख्यान भी हैं । हाँ, उपनिषदों में हमें दार्शनिक चिंतन मिलते हैं ।

वैदिक मूलग्रंथ का अर्थ समझ में आए इसके लिए वेदांगों अर्थात् वेद के अंगभूत शास्त्रों का अध्ययन आवश्यक था । ये वेदना हैं शिक्षा (उच्चारण-विधि), कल्प (कर्मकांड), व्याकरण, निरूक्त (भाषाविज्ञान), छंद और ज्योतिष । इनमें से प्रत्येक शास्त्र के चतुर्दिक प्रचुर साहित्य विकसित हुए हैं ।

यह साहित्य गद्य में नियम रूप में लिखा गया है । संक्षिप्त होने के कारण ये नियम सूत्र कहलाते हैं । सूत्र लेखन का सबसे विख्यात उदाहरण है पाणिनि का व्याकरण जो 450 ई॰ पू॰ के आसपास लिखा गया था । व्याकरण के नियमों का उदाहरण देने के कम में पाणिनि ने अपने समय के समाज, अर्थव्यवस्था और संस्कृति पर अमूल्य प्रकाश डाला ।

महाभारत, रामायण और प्रमुख पुराणों का अंतिम रूप से संकलन 400 ई॰ के आसपास हुआ प्रतीत होता है । इनमें महाभारत, जो व्यास की कृति माना जाता है, संभवत: दसवीं सदी ईसा-पूर्व से चौथी सदी ईसवी तक की स्थिति का आभास देता है ।

पहले इसमें केवल 8800 श्लोक थे और इसका नाम जयस था जिसका अर्थ है विजय संबंधी संग्रह ग्रंथ । बाद में यह बढ्‌कर 24,000 श्लोक का हो गया और भारत नाम से प्रसिद्ध हुआ क्योंकि इसमें प्राचीनतम वैदिक जन भरत के वशंजों की कथा है ।

अंतत: इसमें एक लाख श्लोक हो गए और तदनुसार यह शतसाहस्री संहिता या महाभारत कहलाने लगा । इसमें कथोपकथाएँ हैं, वर्णन हैं और उपदेश भी हैं । इसकी मूल कथा जो कौरवों और पांडवों के युद्ध की है उत्तर वैदिक काल की हो सकती है ।

इसके विवरणात्मक अंश का उपयोग वेदोत्तर काल के संदर्भ में किया जा सकता है, और उपदेशात्मक अंश का सामान्यत: मौर्योत्तर काल और गुप्तकाल के संदर्भ में । इसी प्रकार, वाल्मीकि रामायण में मूलत: 6000 श्लोक थे, जो बढ़कर 12,000 श्लोक हो गए और अंतत: 24,000 श्लोक ।

यद्यपि यह महाकाव्य महाभारत की अपेक्षा अधिक ठोस है, तथापि इसमें भी कुछ ऐसे उपदेशात्मक भाग हैं जो बाद में जोड़ दिए गए हैं । इसकी रचना संभवत: ईसा-पूर्व पाँचवी सदी में शुरू हुई । तब से यह पाँच अवस्थाओं से गुजर चुकी है और इसकी पाँचवी अवस्था तो ईसा की बारहवीं सदी में आई है ।

मिलाजुलाकर इसकी रचना महाभारत के बाद हुई प्रतीत होती है । वैदिक काल के बाद कर्मकांड साहित्य की भरमार मिलती है । राजाओं के द्वारा और तीन उच्च वर्णों, धनाढ्‌य पुरुषों द्वारा अनुष्ठेय सार्वजनिक यज्ञों के विधि-विधान श्रौतसूत्रों में दिए गए हैं, और इन्हीं में राज्याभिषेक के कई आडंबरपूर्ण अनुष्ठान भी वर्णित हैं ।

इसी तरह जातकर्म (जन्मानुष्ठान), नामकरण, उपनयन, विवाह, श्राद्ध आदि घरेलू या पारिवारिक अनुष्ठानों का विधि विधान गृह्यसूत्रों में पाया जाता है । श्रौतसूत्र और गृह्यसूत्र दोनों ईसा-पूर्व 600-300 के आसपास है । यहाँ शूल्वसूत्र भी उल्लेखनीय हैं जिनमें यज्ञवेदी के निर्माण के लिए विविध प्रकार के मापों का विधान है । ज्यामिति और गणित का अध्ययन वहीं से आरंभ होता है ।

जैनों और बौद्धों के धार्मिक ग्रंथों में ऐतिहासिक व्यक्तियों और घटनाओं का उल्लेख मिलता है । प्राचीनतम बौद्ध ग्रंथ पालि भाषा में लिखे गए थे । यह भाषा मगध यानी दक्षिण बिहार में बोली जाती थी । इन ग्रंथों को अंतत: संकलित तो किया गया श्रीलंका में, ईसा-पूर्व दूसरी सदी में, पर इनके धर्म-शिक्षात्मक अंश बुद्ध के समय की स्थिति बताते हैं ।

इन ग्रंथों में हमें न केवल बुद्ध के जीवन के बारे में बल्कि उनके समय के मगध, उत्तर बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई शासकों के बारे में भी जानकारी मिलती है । बौद्ध के धार्मिकेतर साहित्य में सबसे महत्त्वपूर्ण और रोचक हैं गौतम बुद्ध के पूर्वजन्मों की कथाएँ । ऐसा विश्वास था कि गौतम के रूप में जन्म लेने से पहले बुद्ध 550 से भी अधिक पूर्वजन्मों से गुजरे थे और इनमें से कई जन्मों में उन्होंने पशु के जीवन पाए थे ।

पूर्वजन्मों की वे कथाएँ जातक कहलाती हैं और प्रत्येक कथा एक प्रकार की लोक कथा है । ये जातक ईसा-पूर्व पाँचवी सदी से दूसरी सदी ईसवी सन् तक की सामाजिक और आर्थिक स्थिति पर बहुमूल्य प्रकाश डालते हैं । प्रसंगवश ये कथाएँ बुद्धकालीन राजनीतिक घटनाओं की भी जानकारी देती हैं ।

जैन ग्रंथों की रचना प्राकृत भाषा में हुई थी । ईसा की छठी सदी में गुजरात के वलभी नगर में इन्हें अंतिम रूप से संकलित किया गया था । फिर भी इन ग्रंथों में ऐसे अनेक अंश हैं जिनके आधार पर हमें महावीरकालीन बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के राजनीतिक इतिहास के पुनर्निर्माण में सहायता मिली है । जैन ग्रंथों में व्यापार और व्यापारियों के उल्लेख बार-बार मिलते हैं ।

लौकिक साहित्य भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं । विधि-ग्रंथों को उसी कोटि में रखा जा सकता है । उन ग्रंथों में धर्मसूत्र, स्मृतियाँ और टीकाएँ पड़ती हैं और इन तीनों को मिलाकर धर्मशास्त्र कहा जाता है । धर्मसूत्रों का संकलन 500-200 ई॰ पू॰ में हुआ था । मुख्य स्मृतियाँ ईसा की आरंभिक छह सदियों में संहिताबद्ध की गईं ।

इनमें विभिन्न वर्णों राजाओं और पदाधिकारियों के कर्त्तव्यों का विधान किया गया है । इनमें संपत्ति के अर्जन विक्रय और उत्तराधिकार के नियम सहित विवाह के विधान भी दिए गए हैं, तथा चोरी, हमला, हत्या, व्याभिचार आदि के लिए दंड विधान किया गया है ।

कौटिल्य का अर्थशास्त्र अत्यंत महत्वपूर्ण विधिग्रंथ है । यह पंद्रह अधिकरणों या खंडों में विभक्त है जिनमें दूसरा और तीसरा अधिक पुराने हैं । लगता है कि इन अधिकरणों की रचना विभिन्न लेखकों ने की है । इस ग्रंथ का वर्तमान रूप ईसवी सन् के आरंभ में दिया गया, परंतु इसके प्राचीनतम अंश मौर्यकालीन समाज और अर्थतंत्र की झलक देते हैं । इसमें प्राचीन भारतीय राज्यतंत्र तथा अर्थव्यवस्था के अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण सामग्री मिलती है ।

हमें भास, शूद्रक, कालिदास और बाणभट्‌ट की रचनाएँ भी प्राप्त हैं । इनका साहित्यिक मूल्य तो है ही इनमें लेखकों के अपने-अपने समय की स्थितियाँ भी प्रतिबिंबित हैं । कालिदास ने काव्य और नाटक लिखे जिनमें सबसे प्रसिद्ध है अभिज्ञानशाकुंतलम् । इन महान सर्जनात्मक कृतियों में गुप्तकालीन उत्तरी और मध्य भारत के सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन की झलक मिलती है ।

इन संस्कृत स्रोतों के अलावा कुछ प्राचीनतम तमिल ग्रंथ भी है जो संगम साहित्य में संकलित हैं । राजाओं द्वारा संरक्षित विद्या केंद्रों में एकत्र होकर कवियों और भाटों ने तीन-चार सदियों में इस साहित्य का सृजन किया था ।

ऐसी साहित्यिक सभा को संगम कहते थे इसलिए समूचा साहित्य संगम साहित्य के नाम से प्रसिद्ध हो गया । कहा जाता है कि इन कृतियों का संकलन ईसा की आरंभिक चार सदियों में हुआ हालांकि इनका अंतिम संकलन छठी सदी में हुआ जान पड़ता है ।

संगम साहित्य के पद्य 30,000 पंक्तियों में मिलते हैं, जो आठ एट्‌टत्तौके अर्थात् संकलनों में विभक्त है । पद्य सौ-सौ के समूहों में संगृहीत हैं, जैसे पुरनानूरु (बाहर के चार शतक) आदि । मुख्य समूह दो हैं: पटिनेडिकल पट्‌टिनेनकील कताक्कु (अठारह निम्न संग्रह) और पत्तपाट्‌ट (दस गीत) ।

पहला दूसरे से पुराना माना जाता है, इसलिए लौकिक इतिहास के लिए महत्वपूर्ण समझा जाता है । संगम ग्रंथ बहुस्तरीय हैं परंतु संप्रति शैली और विषयवस्तु के आधार पर उनका स्तर निर्धारण नहीं किया जा सकता है । इनके स्तरों का पता सामाजिक विकास की अवस्थाओं के आधार पर ही लगाया जा सकता है ।

संगम ग्रंथ वैदिक ग्रंथों से खासकर ऋग्वेद से भिन्न प्रकार के हैं । ये धार्मिक ग्रंथ नहीं हैं । इनके मुक्तकों और प्रबंधकाव्यों की रचना बहुत-सारे कवियों ने की है जिनमें बहुत-से नायकों वीरपुरुषों और नायिकाओं का गुणगान है । इस प्रकार ये लौकिक कोटि के हैं ।

ये आदिमकालीन गीत नहीं है, बल्कि इनमें परिष्कृत साहित्य का दर्शन होता है । अनेक काव्यों में योद्धा सामंत या राजा का नामत: उल्लेख करके उनके वीरतापूर्ण कार्यों का सविस्तार वर्णन किया गया है । उनके द्वारा भाटों को दिए गए दानों की प्रशंसा की गई है । ये काव्य दरबारों में पड़े जाते होंगे ।

इनकी तुलना होमर युग के वीरगाथा काव्यों से की जा सकती है क्योंकि इनमें भी युद्धों और योद्धाओं के वीर युग का चित्रण है । इन ग्रंथों का उपयोग ऐतिहासिक प्रयोजन से करना आसान नहीं है । शायद इन काव्यों में उल्लिखित व्यक्तिवाचक नाम, उपाधि, वंश, क्षेत्र, युद्ध आदि आंशिक रूप से ही यथार्थ हैं ।

संगम ग्रंथों में उल्लिखित चेर राजाओं के नाम दानकर्ता के रूप में ईसा की पहली और दूसरी सदी के दानपत्रों में भी आए हैं । संगम ग्रंथों में बहुत-से नगरों का उल्लेख मिलता है । इनमें उल्लिखित कावेरीपट्‌टनम् का समृद्धिपूर्ण अस्तित्व पुरातात्त्विक साक्ष्य से समर्थित हुआ है ।

इनमें यह भी बताया गया है कि यवन लोग अपने-अपने पोतों पर आते सोना देकर गोलमिर्च खरीदते और स्थानीय लोगों को सुरा और दासियाँ पहुँचाते थे । यह व्यापार हम केवल लैटिन और ग्रीक लेखों से ही नहीं, बल्कि पुरातात्विक साक्ष्यों से भी जानते हैं ।

ईसा की आरंभिक सदियों में प्रायद्वीपीय तमिलनाडु के लोगों के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन के अध्ययन के लिए संगम साहित्य हमारा एकमात्र प्रमुख स्रोत है । व्यापार और वाणिज्य के बारे में इससे जो जानकारी मिलती है उसकी विदेशी विवरणों और पुरातात्त्विक प्रमाणों से भी पुष्टि होती है ।

विदेशी विवरण (Foreign Details):

विदेशी विवरणों को देशी साहित्य का अनुपूरक बनाया जा सकता है । पर्यटक बनकर या भारतीय धर्म को अपनाकर अनेक यूनानी, रोमन और चीनी यात्री भारत आए और अपनी आँखों देखे भारत के विवरण लिख छोड़े ।

ध्यान देने योग्य बात है कि भारतीय स्रोतों में सिकंदर के हमले की कोई जानकारी नहीं मिलती । उसके भारतीय कारनामों के इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए हमें पूर्णत: यूनानी स्रोतों पर आश्रित रहना पड़ता है ।

यूनानी लेखकों ने 326 ई॰ पू॰ में भारत पर हमला करने वाले सिकंदर महान के समकालीन के रूप में सैंड्रोकोटस के नाम का उल्लेख किया है । यह सिद्ध किया गया है कि यूनानी विवरणों का यह सैंड़ोकोटस और चंद्रगुप्त मौर्य जिनके राज्यारोहण की तिथि 322 ई॰ पू॰ निर्धारित की गई है, एक ही व्यक्ति थे ।

यह पहचान प्राचीन भारत के तिथिक्रम के लिए सुदृढ़ आधारशिला बन गई । चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में दूत बनकर आए मेगास्थनीज की इंडिका उन उद्धरणों के रूप में ही सुरक्षित है जो अनेक प्रख्यात लेखकों की रचनाओं में आए हैं ।

इन उद्धरणों को एक साथ मिलाकर पढ़ने पर न केवल मौर्य शासन व्यवस्था के बारे में ही बल्कि मौर्यकालीन सामाजिक वर्गों और आर्थिक क्रियाकलापों के बारे में भी मूल्यवान जानकारी मिलती है । इंडिका अतिरंजित बातों से मुक्त नहीं है, पर ऐसी बातें तो अन्यान्य प्राचीन विवरणों में भी पाई जाती हैं ।

ईसा की पहली और दूसरी सदियों के यूनानी और रोमन विवरणों में भारतीय बंदरगाहों के उल्लेख मिलते हैं, और भारत तथा रोमन साम्राज्य के बीच होने वाले व्यापार की वस्तुओं की भी चर्चा मिलती है ।

यूनानी भाषा में लिखी गई पेरिप्लुस ऑफ द एरिथ्रियन सी और टोलेमी की ज्योग्राफी नामक पुस्तकों में भी प्राचीन भूगोल और वाणिज्य के अध्ययन के लिए प्रचुर महत्वपूर्ण सामग्री मिलती है ।

इनमें पहली पुस्तक 80 और 115 ई॰ के बीच किसी समय किसी अज्ञात लेखक ने लिखी, जिसने लाल सागर, फारस की खाड़ी और हिंद महासागर में होने वाले रोमन व्यापार का वृतांत दिया है । दूसरी पुस्तक 150 ई॰ के आसपास की मानी जाती है ।

प्लिनी की नेचुरलिस हिस्टोरिका ईसा की पहली सदी की है । यह लैटिन भाषा में है और हमें भारत और इटली के बीच होने वाले व्यापार की जानकारी देती है ।

चीनी पर्यटकों में प्रमुख हैं- फा-हियान और हुआन सांग । दोनों बौद्ध थे और बौद्ध तीर्थों का दर्शन करने तथा बौद्ध धर्म का अध्ययन करने भारत आए थें ।

फा-हियान ईसा की पाँचवी सदी के प्रारंभ में आया था और हुआन सांग सातवीं सदी के दूसरे चतुर्थांश में । फा-हियान ने गुप्तकालीन भारत की सामाजिक धार्मिक और आर्थिक स्थिति पर प्रकाश डाला है तो हुआन सांग ने इसी प्रकार की जानकारी हर्षकालीन भारत के बारे में दी है ।

ऐतिहासिक दृष्टि (Historical Sight):

प्राचीन भारतीयों पर आरोप लगाया गया है कि उनमें ऐतिहासिक दृष्टि का अभाव था । यह तो स्पष्ट है कि उन्होंने वैसा इतिहास नहीं लिखा जैसा आजकल लिखा जाता है और न वैसा ही लिखा जैसा यूनानियों ने लिखा है । फिर भी हमें पुराणों में एक प्रकार का इतिहास अवश्य मिलता है ।

पुराणों की संख्या अठारह है; अठारह पारंपरिक पद हैं । विषयवस्तु की दृष्टि से पुराण विश्वकोश जैसे हैं; पर इनमें गुप्तकाल के आरंभ तक का राजवंशी इतिहास आया है । इनमें घटना के स्थलों का उल्लेख है और कभी-कभी घटना के कारणों और परिणामों का विवेचन भी किया गया है परंतु यथार्थ में ये घटनाएँ विवरण लिखे जाने के काफी पहले हो चुकी थीं ।

इन पुराणों के लेखक परिवर्तन की धारणा से अनभिज्ञ थे जो इतिहास का सारतत्त्व होती हैं । पुराणों में चार युग बताए गए हैं- कृत, त्रेता, द्वापर और कलि । इनमें हर युग अपने पिछले युग से घटिया बताया गया है और कहा गया है कि एक युग के बाद जब दूसरा युग आरंभ होता है तब नैतिक मूल्यों और सामाजिक मानदंडों का अध:पतन होता है ।

काल और स्थान जो इतिहास के महत्त्वपूर्ण तत्व हैं उनका महत्व इनमें बताया गया है । महाभारत के शांति पर्व में कहा गया है कि देश और काल के बदलने से अधर्म धर्म हो जाता है और धर्म अधर्म होता है । कई प्रकार के संवत् जिनके निर्देश के साथ घटनाएं अभिलिखित होती थीं प्राचीन भारत में ही शुरू हुए ।

विक्रम् संवत् का आरंभ 57-58 ई॰ पू॰ में हुआ, शक संवत् का 78 ई॰ में और गुप्त संवत् का 319 ई॰ में । उत्कीर्ण अभिलेखों में घटनाओं का उल्लेख काल और स्थान के संदर्भ में किया गया है । तीसरी सदी ई॰ पू॰ के दौरान अशोक के शिलालेखों में काफी ऐतिहासिक दृष्टि लक्षित होती है । अशोक ने 37 वर्ष शासन किया । उसके शिलालेखों में उसके शासनकाल के आठवें से लेकर सत्ताइसवें वर्ष तक की घटनाएँ वर्णित हैं ।

अभी तक उसके जो शिलालेख मिले हैं उनसे उसके शासनकाल के केवल नौ वर्षों की घटनाओं का पता चलता है । भविष्य में और अभिलेखों के मिलने पर उसके शासनकाल के शेष वर्षों की घटनाओं का भी पता चल सकता है ।

इसी तरह ईसा की पहली सदी में कलिंग के खारवेल ने हाथीगुम्फा अभिलेख में अपने जीवन की बहुत-सी घटनाओं का जिक्र वर्षवार किया है । भारत के लोगों ने जीवनचरितात्मक रचनाओं में ऐतिहासिक दृष्टि का अच्छा परिचय दिया है ।

इसका सुंदर उदाहरण है हषर्चरित, जिसकी रचना बाणभट्‌ट ने ईसा की सातवीं सदी में की । यह लगभग जीवनचरित के ढंग का गद्यकाव्य है और अलंकारों से इतना जटिल है कि परवर्ती नकलचियों को निराश होना पड़ा । इसमें हर्षवर्धन के आरंभिक जीवन का वृत्तांत है ।

अत्युक्तियों की भरमार होते हुए भी यह हर्ष के दरबार की चहल-पहल और अपने युग के सामाजिक और धार्मिक जीवन का विलक्षण आभास देता है । बाद में कई और भी चरित लिखे गए । संध्याकर नंदी के रामचरित (बारहवीं सदी) में बताया गया है कि कैवर्त्त जाति के किसानों और पाल वंश के राजा रामपाल के बीच किस तरह लड़ाई हुई और किस तरह रामपाल विजयी हुए ।

विल्हण के विक्रमाक्रंदवेचरित में कल्याण के चालुक्य राजा विक्रमादित्य पंचम् (1076-1127) के पराक्रमों का वृत्तांत है । बारहवीं-तेरहवीं सदी में गुजरात में तो कई सेठों के भी चरित (जीवनी) लिखे गए । इस तरह की ऐतिहासिक रचनाएँ दक्षिण भारत में भी हुई होंगी लेकिन अभी तक ऐसा एक ही वृत्तांत प्रकाश में आया है ।

इसका नाम है मूषिकवंश, जिसकी रचना अतुल ने ग्यारहवीं सदी में की । इसमें मूषिक राजवंश का वृत्तांत है जिसका शासन उत्तरी केरल में था । परंतु आरंभिक ऐतिहासिक लेखन का सबसे अच्छा उदाहरण है राजतरंगिणी (राजाओं की धारा), जिसकी रचना कल्हण ने बारहवीं शताब्दी में की । यह कश्मीर के राजाओं के चरितों का संग्रह है । दरअसल यह पहली कृति है जिसमें आज के अर्थ में इतिहास के बहुत कुछ लक्षण विद्यमान हैं ।

इतिहास का निर्माण (Building the History):

अब तक प्रागैतिहासिक और ऐतिहासिक दोनों तरह के बहुत सारे पुरास्थलों की खुदाई और छानबीन की जा चुकी है परंतु प्राचीन भारतीय इतिहास की मुख्य धारा में उसके परिणामों को स्थान नहीं मिल पाया है । भारत में सामाजिक विकास किन-किन अवस्थाओं से गुजरा है इसका बोध तब तक नहीं हो सकता, जब तक प्रगैतिहासिक पुरातत्व के परिणामों की ओर ध्यान नहीं दिया जाएगा ।

इतिहासकालीन पुरातत्व भी उतने ही महत्व का है । यद्यपि प्राचीन इतिहास के काल के 150 से भी अधिक पूरास्थ्लों की खुदाई हो चुकी है, तथापि प्राचीन कालों के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक प्रवृत्तियों के अध्ययन में उन खुदाइयों की प्रासंगिता का विवेचन सामान्य पुस्तकों में नहीं किया गया है ।

यह काम परम आवश्यक है; प्राचीन भारत के नगरीय इतिहास के संदर्भ में तो यह और भी जरूरी है । अब तक अधिकांशत: बौद्ध और कुछेक ब्राह्मणिक स्थलों के महत्व रेखांकित किए गए हैं किंतु यह आवश्यक है कि धार्मिक इतिहास के अध्ययन में आर्थिक और सामाजिक पक्षों पर ध्यान दिया जाए ।

प्राचीन इतिहास अभी तक मुख्यत: देशी या विदेशी साहित्यिक स्रोतों के आधार पर ही रचा गया है । सिक्कों और अभीलेखों की कुछ भूमिका अवश्य रही है किंतु अधिक महत्व ग्रंथों को ही दिया गया है । अब नए-नए तरीकों की ओर ध्यान देना है । हमें एक ओर वैदिक युग और दूसरी ओर चित्रित धूसर मृद्भांड (पी॰ जी॰ डब्ल्यू॰) तथा अन्य पुरातात्विक सामग्रियों के बीच पारस्परिक संबंध स्थापित करना है ।

इसी तरह, प्रारंभिक पालि ग्रन्थों का सबंध उत्तरी काल पालिशदार मृद्भांड ( पी॰ जी॰ डब्ल्यू॰) पुरातत्व के साथ जोड़ना होगा और संगम साहित्य से प्राप्त सूचनाओं को उन सूचनाओं के साथ मिलाना है जो प्रायद्वीपीय भारत के आरंभिक महापाषाणीय पुरातत्व में मिलती हैं ।

पुराणों में दी गई लंबी-लंबी वंशावलियों की अपेक्षा पुरातात्विक साक्ष्य को कहीं अधिक मूल्य दिया जाना चाहिए । पौराणिक अनुश्रुति के अनुसार, अयोध्या के राम का काल 2000 ई॰ पू॰ के आसपास भले ही मान लें, पर अयोध्या में की गई खुदाई और व्यापक छानबीन से तो यही सिद्ध होता है कि उस काल के आसपास की कोई बस्ती थी ही नहीं ।

इसी तरह महाभारत में कृष्ण की भूमिका भले ही महत्वपूर्ण हो, पर मथुरा में पाए गए 200 ई॰ पू॰ से 300 ई॰ तक के बीच के अभिलेखों और मूर्तिकला कृतियों से उनके अस्तित्व की पुष्टि नहीं होती है ।

इसी तरह की कठिनाइयों के कारण महाभारत और रामायण के आधार पर कल्पित महाकाव्य युग (एपिक एज) की धारणा त्यागनी होगी, हालांकि अतीत में प्राचीन भारत पर लिखी गई लगभग सभी सर्वेक्षण-पुस्तकों में इसे एक अध्याय बनाया गया है ।

अवश्य ही रामायण और महाभारत दोनों में सामाजिक विकास के विभिन्न चरण ढूँढ़े जा सकते हैं । इसका कारण यह है कि ये महाकाव्य सामाजिक विकास की किसी एक अवस्था के द्योतक नहीं हैं, इनमें अनेक बार परिवर्तन हुए हैं ।

कई अभिलेखों की उपेक्षा अब तक यह कहकर की जाती रही है कि उनका ऐतिहासिक मूल्य नाममात्र है । ‘ऐतिहासिक मूल्य’ का अर्थ यह मान लिया गया है कि ऐसी कोई जानकारी जो राजनीतिक इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए अपेक्षित हो ।

पौराणिक अनुश्रुतियों की अपेक्षा अभिलेख निश्चय ही अधिक विश्वसनीय हैं जैसे अनुश्रुति का सहारा सातवाहनों के आरंभ को पीछे ढकेलने में लिया जाता है, जबकि अभिलेखीय आधार पर उनका आरंभकाल ईसा-पूर्व पहली सदी है ।

अभिलेखों में किसी राजा का शासनकाल उसकी विजय और उसका राज्य-विस्तार ये बातें मिल सकती हैं पर साथ ही राज्यतंत्र समाज अर्थतंत्र और धर्म के विकास की प्रवृत्तियाँ भी तो दिखाई दे सकती हैं । अभिलेखीय अनुदानपत्रों का महत्व केवल वंशावलियों और विजयावलियों के लिए नहीं है बल्कि और भी विशेष रूप से ऐसी जानकारी के लिए है कि किन-किन नए राज्यों का उदय हुआ और सामाजिक तथा भूमि-व्यवस्था में विशेषत: गुप्तोत्तर काल में क्या-क्या परिवर्तन हुए हैं ।

इसी तरह सिक्कों का सहारा केवल हिंद-यवनों शकों सातवाहनों और कुषाणों के इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए ही नहीं लेना है बल्कि व्यापार और नगरीय जीवन के इतिहास की झलक पाने के लिए भी लिया जाना आवश्यक है ।

सारांश यह है कि इतिहास निर्माण के लिए ग्रंथों, सिक्कों, अभिलेखों, पुरातत्त्व आदि से निकली सारी सामग्री का ध्यान से संकलन होना परमावश्यक है । बताया जा चुका है कि इसमें विभिन्न स्रोतों के आपेक्षित महत्व की समस्या खड़ी होती है । जैसे, सिक्के, अभिलेख और पुरातत्व उन मिथक से अधिक मूल्यवान हैं जो हमें रामायण, महाभारत और पुराणों में मिलते हैं ।

पौराणिक मिथक प्रचलित मानकों का समर्थन करते हैं लोकाचार को वैध बताते हैं और जातियों या अन्य सामाजिक वर्गों में संगठित लोगों के विशेषाधिकारों और अपात्रताओं को न्यायोचित ठहराते हैं, परंतु उनमें वर्णित घटनाओं को यों ही सही नहीं मान लिया जा सकता है । अतीत के प्रचलनों की व्याख्या उनके वर्तमान अवशेषों से या आदिम जनों के अध्ययन से प्राप्त अंतर्दृष्टि से भी की जा सकती है । कोई भी ठोस ऐतिहासिक पुनर्निर्माण अन्य प्राचीन समाजों में होने वाली हलचल से आँखें मूंद नहीं सकता ।

तुलनात्मक दृष्टि को अपनाने से प्राचीन भारत में पाई जाने वाली किसी बात को ‘विरल’ या ‘अभूतपूर्व’ मान लेने का दुराग्रह दूर हो सकता है और अध्येताओं को ऐसी प्रवृत्तियाँ भी दिखाई दे सकती हैं जो अन्य देशों के प्राचीन समाजों की प्रवृत्तियों से मिलती-जुलती हों ।

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