चंद्रगुप्त द्वितीय: इतिहास, शिलालेख, सिक्के और युद्ध | Chandragupta II: History, Inscription, Coins and Wars. Read this article in Hindi to learn about:- 1. चन्द्रगुप्त द्वितीय का परिचय (Introduction to Chandragupta II) 2. चन्द्रगुप्त द्वितीय का व्यक्तिगत जीवन (Personal Life of Chandragupta II) 3. शासन (Governance) and Other Details.

Contents:

  1. चन्द्रगुप्त द्वितीय का परिचय (Introduction to Chandragupta II)
  2. चन्द्रगुप्त द्वितीय का व्यक्तिगत जीवन (Personal Life of Chandragupta II)
  3. चन्द्रगुप्त द्वितीय का शासन (Governance of Chandragupta II)
  4. चन्द्रगुप्त द्वितीय का स्तम्भलेख (Inscription of Chandragupta II)
  5. चन्द्रगुप्त द्वितीय के सिक्के (Coins of Chandragupta II)
  6. चन्द्रगुप्त द्वितीय का विजयें (Victories of Chandragupta II)
  7. फाहियान तथा चन्द्रगुप्त द्वितीय (Fahian and Chandragupta II)


1. चन्द्रगुप्त द्वितीय का परिचय (Introduction to Chandragupta II):

समुद्रगुप्त के पश्चात् उसकी प्रधान महिषी दत्तदेवी से उत्पन्न पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय गुप्त राजवंश का सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं शक्तिशाली शासक बना । गुप्तवंशी लेखों में उसे ‘तत्परिगृहीत’ अर्थात् उसके (समुद्रगुप्त) द्वारा चुना गया, कहा गया है ।

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साधन:

i. साहित्य- कालिदास के ग्रन्थ ।

ii. विदेशी विवरण- चीनी यात्री फाहियान का यात्रा-वृत्तान्त ।

iii. अभिलेख- मथुरा स्तम्भ एवं शिलालेख, उदयगिरि के दो लेख, गढ़वा अभिलेख तथा साँची से प्राप्त अभिलेख ।

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iv. सिक्के- स्वर्ण, रजत एवं ताम्र के विविध प्रकार के सिक्के ।

कुछ विद्वान् इस आधार पर प्रतिपादित करते है कि स्वयं समुद्रगुप्त ने ही चन्द्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया था । यह मत रामगुप्त की ऐतिहासिकता का पूर्णतया निषेध करता है ।  किन्तु रामगुप्त के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता । ऐसी स्थिति में यही निष्कर्ष निकालना तर्कसंगत लगते है कि ‘तत्परिगृहीत’ पद का प्रयोग मात्र निष्ठा प्रदर्शित करने के लिये किया गया है ।

चन्द्रगुप्त की प्रथम ज्ञात तिथि गुप्त संवत् 61 अर्थात 380 ईस्वी है जो उसके मथुरा स्तम्भलेख से प्राप्त होती है । यह लेख उसके शासनकाल के पाँचवें वर्ष का है । इससे ऐसा ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त ने 375 ईस्वी में अपना शासन प्रारम्भ किया था ।

उसकी अन्तिम तिथि गुप्त संवत् 93 अर्थात् 412 ईस्वी लेख में उत्कीर्ण मिलती है जिससे स्पष्ट है कि वह इस समय शासन कर रहा था । चन्द्रगुप्त के पुत्र कुमारगुप्त प्रथम के राज्यकाल की पहली तिथि गुप्त-संवत् 96 अर्थात् 415 ईस्वी उसके बिलसद लेख में अंकित है जो इस बात की सूचक है कि इस तिथि तक चन्द्रगुप्त का शासन समाप्त हो चुका था ।

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अत: अभिलेखीय स्रोतों से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि चन्द्रगुप्त ने 375 ईस्वी से 415 ईस्वी के लगभग अर्थात् कुल 40 वर्षों तक शासन किया । इस दीर्घकालीन शासन में गुप्तवंश ने राजनीतिक एवं सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से अभूतपूर्व प्रगति किया तथा उन्नति की चोटी पर जा पहुँचा ।

वस्तुतः उसका शासन काल गुप्त इतिहास के सर्वाधिक गौरवशाली युग का प्रतिनिधित्व करता है । चन्द्रगुप्त द्वितीय का एक अन्य नाम देव भी था और उसे देवगुप्त, देवराज, देवश्री आदि कहा गया है । विक्रमांक, विक्रमादित्य, परमभागवत आदि उसकी सुप्रसिद्ध उपाधियाँ थीं । इनसे जहाँ एक ओर उसका अतुल पराक्रम सूचित होता है, वहीं दूसरी ओर धर्मनिष्ठ वैष्णव होना भी सिद्ध होता है ।


2. चन्द्रगुप्त द्वितीय का व्यक्तिगत जीवन (Personal Life of Chandragupta II):

वैवाहिक सम्बन्ध:

गुप्तों की वैदेशिक नीति में वैवाहिक सम्बन्धों का महत्वपूर्ण हाथ रहा है । चन्द्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवि राजकन्या कुमारदेवी से विवाह कर सार्वभौम पद प्राप्त किया था तथा समुद्रगुप्त ने भी शक-कुषाणों से कन्याओं का उपहार पाया था ।

अत: चन्द्रगुप्त द्वितीय ने भी, जो अपने पिता के ही समान एक कूटनीतिज्ञ एवं दूरदर्शी सम्राट था, सर्वप्रथम वैवाहिक सम्बन्धों द्वारा अपनी आन्तरिक स्थिति सुदृढ़ किया । इस उद्देश्य से उसने अपने समय के तीन प्रमुख राजवंशों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये ।

इनका विवरण इस प्रकार है:

(i) नागवंश:

नाग लोग प्राचीन भारत के प्रमुख राजवंशों में से थे । प्रयाग प्रशस्ति में कई नाग राजवंशों का उल्लेख मिलता है जो मथुरा, अहिच्छत्र, पद्‌मावती आदि में शासन करते थे ।  यद्यपि समुद्रगुप्त ने कई नाग राजाओं को जीता था तथापि अब भी उनकी शक्ति काफी मजबूत थी । उनका सहयोग प्राप्त करने के लिये चन्द्रगुप्त ने नाग राजकुमारी कुबेरनागा के साथ अपना विवाह किया ।

उससे एक कन्या प्रभावतीगुप्ता उत्पन्न हुई । पूना ताम्रपत्र में उसने अपनी माता को ‘नागकुलसंभूता’ (नागकुल में उत्पन्न) कहा है । नागवंश में वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर चन्द्रगुप्त ने उसका समर्थन प्राप्त कर लिया तथा यह गुप्तों की नवस्थापित चक्रवर्ती स्थिति के दृढ़ीकरण में बड़ा ही उपयोगी सिद्ध हुआ ।

यू. एन. राय का अनुमान है कि यह वैवाहिक सम्बन्ध वस्तुतः समुद्रगुप्त के काल में ही स्थापित हुआ होगा तथा प्रभावतीगुप्ता का जन्म भी उसी के समय हुआ होगा । चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण के समय प्रभावतीगुप्ता वयस्क हो चुकी थी ।  सभी तो उसने वाकाटकों का सहयोग लेने के लिये अपने राज्यारोहण के उपरान्त उसका विवाह रुद्रसेन द्वितीय के साथ कर दिया था । यह मत तर्कसंगत प्रतीत होता है ।

(ii) वाकाटक वंश:

वाकाटक लोग आधुनिक महाराष्ट्र प्रान्त में शासन करते थे । उनकी गणना दक्षिण की प्रतिष्ठित शक्तियों में की जाती थी । चन्द्रगुप्त को गुजरात और काठियावाड़ के शकराज की विजय करनी थी और इस कार्य के लिये वाकाटकों का सहयोग आवश्यक था ।

जैसा कि इतिहासकार स्मिथ ने संकेत किया है- ‘वाकाटक महाराज एक ऐसी महत्वपूर्ण भौगोलिक स्थिति में था कि वह उत्तर भारत से शकों के गुजरात तथा सौराष्ट्र के राज्य पर आक्रमण करने वाले किसी भी शासक को बहुत बड़ा लाभ अथवा हानि पहुँचा सकता था ।’

अत: वाकाटकों का सहयोग प्राप्त करने के लिये चन्द्रगुप्त ने अपनी पुत्री प्रभावतीगुप्ता का विवाह वाकाटक नरेश रुद्रसेन द्वितीय के साथ कर दिया । विवाह के कुछ ही समय बाद रुद्रसेन की मृत्यु हो गयी तथा प्रभावतीगुप्ता वाकाटक राज्य की संरक्षिका बनी क्योंकि उसके दोनों पुत्र (दिवाकरसेन तथा दामोदरसेन) अवयस्क थे ।

उसके समय में वाकाटक लोग पूरी तरह चन्द्रगुप्त के प्रभाव में आ गये । उसी के शासन-काल में चन्द्रगुप्त ने गुजरात और काठियावाड़ की विजय की तथा विधवा रानी ने अपने पिता को सभी संभव सहायता प्रदान किया । वाकाटकों तथा गुप्तों की सम्मिलित शक्ति ने शकों का उन्मूलन कर डाला ।

(iii) कदम्ब राजवशं:

कदम्ब राजवंश के लोग कुन्तल (कर्नाटक) में शासन करते थे । तालगुण्ड अभिलेख से पता चलता है कि इस वंश क शासक काकुत्सवर्मन् ने अपनी एक पुत्री का विवाह किसी गुप्त राजकुमार से किया था ।  वह चन्द्रगुप्त का समकालीन राजा था । अनुमान किया जाता है कि चन्द्रगुप्त के पुत्र कुमारगुप्त प्रथम का विवाह कदम्ब वंश में हुआ था ।

भोज के श्रृंखलाप्रकाश तथा क्षेमेन्द्रकृत ‘औचित्यविचारचर्चा’ से पता चलता है कि चन्द्रगुप्त ने कालिदास को अपना दूत बनाकर कुन्तल नरेश के दरबार में भेजा था ।  कालिदास ने वापस आकर अपने सम्राट को सूचित किया था कि कुन्तल नरेश ने अपने शासन का भार चन्द्रगुप्त के ऊपर ही डालकर भोग-विलास में लिप्त है । इस वैवाहिक सम्बन्ध के फलस्वरूप चन्द्रगुप्त की ख्याति सुदूर दक्षिण में फैल गयी ।

धर्म:

चन्द्रगुप्त एक धर्मनिष्ठ वैष्णव था जिसने ‘परमभागवत’ की उपाधि धारण की । मेहरौली लेख के अनुसार उसने विष्णुपद पर्वत पर विष्णुध्वज की स्थापना करवायी थी । परन्तु वह अन्य धर्मानुयायियों के प्रति पर्याप्त सहिष्णु था ।

उसने बिना किसी भेदभाव के अन्य धर्मावलम्बियों को प्रशासन के उच्च पदों पर नियुक्त किया तथा दूसरे धर्मों को दानादि दिया । उसका सान्धिविग्रहिक सचिव वीरसेन शैव था जिसने भगवान शिव की पूजा के लिये उदयगिरि पहाड़ी पर एक गुफा का निर्माण करवाया था ।

उसका सेनापति आम्रकार्द्दव बौद्ध था । सांची लेख के अनुसार उसने सांची महाविहार के आर्यसंघ को 25 दीनारें और ईश्वरवासक ग्राम दान में दिया था । यह प्रतिदिन पाँच भिक्षुओं को भोजन कराने एवं रत्नगृह में दीपक जलाने के लिये दिया गया था । इसी प्रकार मथुरा लेख में आर्योदिताचार्य नामक एक शैव का उल्लेख मिलता है जिसने अपने पुण्यार्जन के लिये दो शिवलिंगों की स्थापना करवायी थी ।

विद्या प्रेम:

चन्द्रगुप्त द्वितीय युद्ध-क्षेत्र में जितना महान् था, शान्ति काल में उससे कहीं अधिक कर्मठ था । वह स्वयं विद्वान् एवं विद्वानों का आश्रयदाता था । उसके समय में पाटलीपुत्र एवं उज्जयिनी विद्या के प्रमुख केन्द्र थे ।

अनुश्रुति के अनुसार उसके दरबार में नौ विद्वानों की एक मण्डली निवास करती थी जिसे ‘नवरत्न’ कहा गया है । महाकवि कालिदास संभवतः इनमें अग्रगण्य थे । कालिदास के अतिरिक्त इनमें धन्वन्तरि, क्षपणक, अमरसिंह, शंकु, वेतालभट्‌ट, घटकर्पर, वाराहमिहिर, वररुचि जैसे विद्वान् थे । इनमें अधिकांश को गुप्तकालीन ही माना जाता है ।

उसका सांधिविग्रहिक वीरसेन ‘व्याकारण, न्याय, मीमांसा एवं शब्द का प्रकाण्ड पण्डित तथा एक कवि’ था । इसी प्रकार उसके अन्य दरबारी भी रहे होंगे । राजशेखर ने अपने ग्रन्थ काव्यमीमांसा में इस बात का उल्लेख किया है कि उज्जयिनी में कवियों की परीक्षा लेने के लिये एक विद्वत्परिषद् थी । इस परिषद् ने कालिदास, भर्तृमेठ, भारवि, अमरु, हरिश्चन्द्र, चन्द्रगुप्त आदि कवियों की परीक्षा लिया था ।

सम्भव है यहाँ चन्द्रगुप्त से तात्पर्य चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य से ही हो । इस प्रकार चन्द्रगुप्त द्वितीय एक महान् विजेता, कुशल शासक, कूटनीतिज्ञ, विद्वान् एवं विद्या का उदार संरक्षक था । उसकी प्रतिभा बहुमुखी थी तथा उसके काल में गुप्त साम्राज्य की चहुमुखी प्रगति हुई ।

जिस साम्राज्य को उसके पिता समुद्रगुप्त ने निर्मित किया, वह चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में पूर्णतया संगठित, सुव्यवस्थित एवं प्रशासित होकर उन्नति की चोटी पर जा पहुँचा तथा प्राचीन भारत में ‘स्वर्णयुग’ का दावेदार बन गया । चन्द्रगुप्त निश्चयत: न केवल गुप्तवंश के अपितु सम्पूर्ण भारतीय इतिहास के महानतम शासकों में से है ।

महाकवि कालिदास की निम्नलिखित पंक्तियाँ इस गुप्त सम्राट के व्यक्तित्व का सही मूल्यांकन करती हैं:

‘भले ही पृथ्वी पर सहस्त्रों राजा हों लेकिन पृथ्वी इसी राजा से राजवन्ती (राजा वाली) कही गयी है, जिस प्रकार की नक्षत्र, तारा एवं ग्रहों के होने पर भी रात्रि केवल चन्द्रमा से ही चाँदनी वाली कही जाती है ।


3. चन्द्रगुप्त द्वितीय का शासन (Governance of Chandragupta II):

चन्द्रगुप्त द्वितीय न केवल एक महान् विजेता ही था, बल्कि वह एक योग्य एवं कुशल शासक भी था । गुप्त प्रशासन का निर्माण उसी ने किया । उसका 40 वर्षों का दीर्घकालीन शासन शान्ति, सुव्यवस्था एवं समृद्धि का काल रहा ।

उसे अनेक योग्य तथा अनुभवी मन्त्रियों की सेवायें प्राप्त थीं । उसका प्रधान सचिव वीरसेन ‘शाव’ था जिसका उल्लेख उदयगिरि गुहाभिलेख में मिलता है । सनकानीक महाराज पूर्वी मालवा प्रदेश का राज्यपाल रहा होगा ।

उदयगिरि के लेख में वह अपने को चन्द्रगुप्त का ‘पादानुध्यात’ कहता है । आम्रकार्द्दव उसका प्रधान सेनापति था । साँची के लेख में उसके नाम का उल्लेख मिलता है, जहाँ उसे अनेक युद्धों में यश प्राप्त करने वाला कहा गया है ।

करमदण्डा लेख से ज्ञात होता है कि शिखरस्वामी उसका एक मन्त्री था । चन्द्रगुप्त द्वितीय का एक पुत्र गोविन्दगुप्त ‘तीरभुक्ति’ प्रदेश का राज्यपाल था । बसाढ़ मुद्रालेख में इस प्रान्त का उल्लेख मिलता है । इनके अतिरिक्त अन्य निपुण प्रशासनिक अधिकारी एवं कर्मचारी भी थे ।

लेखों तथा मुद्राओं से कुछ पदाधिकारियों के नाम इस प्रकार मिलते हैं:

(i) उपरिक- यह प्रान्त का राज्यपाल होता था ।

(ii) कुमारामात्य- यह विशिष्ट प्रकार के प्रशासनिक अधिकारियों का नाम था । इसकी समता हम आधुनिक प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों से कर सकते हैं ।

(iii) बलाधिकृत- यह सेना का सर्वोच्च पदाधिकारी था । उसका कार्यालय ‘बलाधिकरण’ कहा गया है ।

(iv) रणभाण्डागाराधिकृत- सैनिक साज-सामानों को सुरक्षित रखने वाले प्रधान अधिकारी को ‘रणभाण्डागाराधिकृत’ कहा जाता है ।

(v) दण्डपाशिक- यह पुलिस विभाग का प्रधान अधिकारी था ।

(vi) महादण्डनायक- मुख्य न्यायाधीश की संज्ञा महादण्डनायक थी ।

(vii) विनयस्थितिस्थापक- इस पदाधिकारी का कार्य कानून और व्यवस्था की स्थापना करना होता था ।

(viii) भटाश्वपति- यह अश्वसेना का नायक था ।

(ix) महाप्रतीहार- यह मुख्य दौवारिक होता था ।

चीनी यात्री फाहियान, जो चन्द्रगुप्त के समय में भारत आया था, उसके शासन की उच्च शब्दों में प्रशंसा करता है । वह लिखता है कि- ‘प्रजा सुखी एवं समृद्ध थी तथा लोग परस्पर सौहार्दपूर्वक रहते थे । उन्हें न तो अपने मकानों की रजिस्ट्री करानी पड़ती और न ही न्यायालयों में न्यायाधीशों के सामने जाना पड़ता था । वे चाहे जहाँ और जिस स्थान पर जा सकते तथा रह सकते थे ।

राजा बिना दण्ड के शासन करता था । दण्ड-विधान अत्यन्त मृदु थे तथापि अपराध बहुत कम होते थे । मृत्यु-दण्ड नहीं दिया जाता था । बार-बार राजद्रोह के अपराध में दाहिना हाथ काट लिया जाता था । सड़कों पर आवागमन पूर्णतया सुरक्षित था । राज्य में बहुत कम कर लगते थे । जो लोग राजकीय भूमि पर खेती करते थे उन्हें अपनी उपज का एक भाग कर के रूप में राजा को देना पड़ता था ।

चन्द्रगुप्त के शासन-काल में चतुर्दिक् शान्ति और व्यवस्था व्याप्त थी । यहाँ तक कि फाहियान, जो कि एक विदेशी था, को कहीं भी किसी प्रकार की असुरक्षा का सामना नहीं करना पड़ा । लगता है कि महाकवि कालिदास ने भी इसी शांति और व्यवस्था की ओर संकेत करते हुये लिखा है- जिस समय वह राजा शासन कर रहा था, उपवनों में मद पीकर सोती हुई सुन्दरियों के वस्त्रों को वायु तक स्पर्श नहीं कर सकता था, तो फिर उनके आभूषणों को चुराने का साहस कौन कर सकता था ?’


4. चन्द्रगुप्त द्वितीय का स्तम्भलेख (Inscription of Chandragupta II):

मेहरौली लौह स्तम्भलेख:

दिल्ली में मेहरौली नामक स्थान से यह लौह स्तम्भ प्राप्त हुआ है जो कुतुबमीनार के समीप वर्तमान है । इसमें ‘चन्द्र’ नामक किसी राजा की उपलब्धियों का वर्णन तीन श्लोकों के अन्तर्गत किया गया है जिसका सारांश इस प्रकार है- ‘जिसने बंगाल के युद्ध-क्षेत्र में मिलकर आये हुये अपने शत्रुओं के एक संघ को पराजित किया था, जिसकी भुजाओं पर तलवार द्वारा उसका यश लिखा गया था, जिसने सिन्धु नदी के सातों मुखों को पार कर युद्ध में बाह्लिकों को जीता था, जिसके प्रताप के सौरभ से दक्षिण का समुद्रतट अब भी सुवासित हो रहा था ।’

अभिलेख के अनुसार जिस समय यह लिखा गया वह राजा मर चुका था, किन्तु उसकी कीर्ति इस पृथ्वी पर फैली हुई थी । उसने अपने बाहुबल से अपना राज्य प्राप्त किया था तथा चिरकाल तक शासन किया । भगवान विष्णु के प्रति महती श्रद्धा के कारण विष्णुपद नामक पर्वत पर उसने विष्णुध्वज की स्थापना की थी ।

उपर्युक्त लेख में कोई तिथि अंकित नहीं है । न तो राजा का पूरा नाम मिलता है और न ही कोई वंशावली दी गई है । फलस्वरूप इस राजा के समीकरण के प्रश्न पर विद्वानों में गहरा मतभेद रहा ।  प्राचीन भारतीय इतिहास में चन्द्रगुप्त मौर्य से लेकर चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य तक चन्द्रनामधारी जितने भी शासक हुये हैं उन सबके साथ मेहरौली लेख के चन्द्र का समीकरण स्थापित करने का विद्वानों ने अलग-अलग प्रयास किया है ।

एच. सी. सेठ इस चन्द की पहचान मौर्य से करते हैं परन्तु चन्द्रगुप्त मौर्य वैष्णव मतानुयायी नहीं था । इस लेख की लिपि भी गुप्तकाल की है । रायचौधरी ने इस राजा की पहचान पुराणों में वर्णित नागवंशी शासक चन्द्रांश से किया है किन्तु चन्द्रांश कोई इतना प्रतापी राजा नहीं था जो मेहरौली के चन्द्र की उपलब्धियों का श्रेय प्राप्त कर सके ।

हर प्रसाद शास्त्री ने इस राजा को सुसुनिया (पं. बंगाल) के लेख का चन्द्रवर्मा बताया है किन्तु यह समीकरण भी मान्य नहीं है क्योंकि चन्द्रवर्मा एक अत्यन्त साधारण राजा था जिसे समुद्रगुप्त ने बड़ी आसानी से उन्मूलित कर दिया ।

रमेशचन्द्र मजूमदार के मतानुसार मेहरौली के लेख का चन्द्र कुषाण नरेश कनिष्क के साथ समीकृत किया जाना चाहिए क्योंकि उसी का बल्ख पर अधिकार था तथा खोतानी पाण्डुलिपि में उसे ‘चन्द्र कनिष्क’ कहा गया है ।

किन्तु हम जानते हैं कि कनिष्क बौद्ध मतानुयायी था तथा उसके राज्य का विस्तार दक्षिण में नहीं था । अत: यह समीकरण भी मान्य नहीं हो सकता । इसी प्रकार फ्लीट, आयंगर, बसाक जैसे कुछ विद्वानों ने चन्द्र को चन्द्रगुप्त प्रथम बताया है ।

किन्तु यह भी असंगत है क्योंकि चन्द्रगुप्त प्रथम का राज्य विस्तार अत्यन्त संकुचित था । पुनश्च बंगाल अथवा दक्षिण की ओर उसका कोई प्रभाव नहीं था । कुछ विद्वानों ने ‘चन्द्र’ की पहचान समुद्रगुप्त से कर डाली है, परन्तु समुद्रगुप्त के साथ पहचान के विरुद्ध सबसे बड़ी आपत्ति तो यही है कि इस लेख में अश्वमेध यज्ञ का उल्लेख नहीं मिलता जबकि यह मरणोत्तर है ।

पुनश्च समुद्रगुप्त का एक नाम ‘चन्द्र’ रहा हो, इसका भी कोई स्पष्ट ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है । इसे प्रकार ये सभी समीकरण एक न एक दृष्टि से असंगत एवं दोषपूर्ण प्रतीत होते है । इस विषय में उपलब्ध सभी प्रमाणों का अवलोकन करने के पश्चात् मेहरौली लेख के चन्द्र का समीकरण चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के साथ करना सर्वाधिक तर्कसंगत एवं सन्तोषजनक प्रतीत होता है ।

‘चन्द्र’ और चन्द्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’:

मैहरौली लेख की पंक्तियों का ध्यानपूर्वक अवलोकन करने के पश्चात् हमें ‘चन्द्र’ नामक शासक की निम्नलिखित मुख्य उपलब्धियों का पता चलता है:

(I) बंगाल के युद्ध क्षेत्र में उसने शत्रुओं के एक संघ को पराजित किया था ।

(II) सिन्धु के सातों मुखों को पार कर उसने बाह्लिकों को जीता था ।

(III) दक्षिण भारत में उसकी ख्याति फैली हुई थी ।

(IV) वह भगवान विष्णु का परम भक्त था ।

यदि उपर्युक्त विशेषताओं को हम चन्द्रगुप्त द्वितीय के पक्ष में लागू करें तो वे सर्वथा तर्कसंगत प्रतीत होती हैं । समुद्रगुप्त के प्रयाग अभिलेख से पता चलता है कि उसने चन्द्रवर्मा को हराकर बंगाल का पश्चिमी भाग, जहाँ बांकुड़ा जिला स्थित है, जीत लिया था ।

कुमारगुप्त प्रथम के लेखों से पता चलता है कि उत्तरी बंगाल पर भी उसका अधिकार था और यहाँ पुण्ड्रवर्धन गुप्तों का एक प्रान्त (भुक्ति) था । हमें यह भी पता है कि स्वयं कुमारगुप्त प्रथम ने कोई विजय नहीं की थी ।

ऐसी स्थिति में यही मानना तर्कसंगत प्रतीत होता है कि उत्तरी बंगाल का क्षेत्र चन्द्रगुप्त ने ही जीतकर गुप्त साम्राज्य में मिलाया था । समुद्रगुप्त के समय गुप्तों की पूर्वी तथा उत्तरी-पूर्वी सीमाओं पर पांच राज्य थे- समतट, डवाक, कामरूप, कर्त्तृपुर तथा नेपाल ।

इन्होंने उसकी अधीनता मान ली थी । लगता है रामगुप्त के निर्बल शासन में ये राज्य पुन: स्वतन्त्र हो गये और उन्होंने अपना एक संघ बना लिया । इसी संघ को बंगाल के किसी युद्ध-क्षेत्र में परास्त कर चन्द्रगुप्त ने उत्तरी बंगाल को जीत लिया और इसी घटना का उल्लेख काव्यात्मक ढंग से मेहरौली लेख में किया गया है ।

सम्भवत: यह विजय उसके राज्य-काल के अन्त में की गयी थी और यही कारण है कि इसकी पुष्टि किसी अभिलेख अथवा सिक्के से नहीं हो पाती । जहाँ तक ‘बाह्लिक’ शब्द का प्रश्न है, इससे तात्पर्य निश्चय ही बल्ख (बैक्ट्रिया) से है ।

परन्तु यहाँ इससे तात्पर्य बैक्ट्रिया देश से कदापि नहीं है । भण्डारकर ने रामायण और महाभारत से प्रमाण प्रस्तुत करते हुये यह सिद्ध कर दिया है कि प्राचीन काल में पंजाब की व्यास नदी के आस-पास का क्षेत्र भी ‘बाह्लिक’ नाम से प्रसिद्ध था ।

रामायण के अनुसार वशिष्ठ ने भरत को बुलाने के लिये कैकय देश को जो दूत-मण्डल भेजा था वह ‘बाह्लिक’ प्रदेश के बीच से होकर गया था । वहाँ पर उसने सुदामन पर्वत, विष्णुपद, विपाशा एवं शाल्मली नदी के भी दर्शन किये थे ।

स्पष्ट है कि यहाँ पंजाब की व्यास नदी के समीपवर्ती क्षेत्र को ही बाह्लिक कहा गया है । महाभारत में इस क्षेत्र को ‘वाहीक’ कहा गया है । टालमी ने भी इसे ‘बाहीक’ कहा है जिसका अर्थ है ‘पाँच नदियों की भूमि ।’

इसका प्रमुख कारण यह था कि यहाँ पर कुषाणों का निवास था जो पहले बल्ख पर शासन कर चुके थे तथा फिर पंजाब में आकर बस गये थे । अत: कुषाणों को भी ‘बाह्लिक’ कहा जाने लगा । मेहरौली लेख के ‘बाह्लिक’ का तात्पर्य ‘परवर्ती कुषाणों’ से है जो गुप्तों के समय में पंजाब में निवास करते थे ।

समुद्रगुप्त को उन्होंने अपना राजा मान लिया था । रामगुप्त के काल में शकों के साथ-साथ उन्होंने भी अपने को स्वतन्त्र कर दिया । चन्द्रगुप्त ने शकों का उन्मूलन करने के बाद पंजाब में जाकर कुषाणों को भी परास्त किया और इसी को ‘बाह्लिक-विजय’ की संज्ञा दी गयी है ।

सिन्धु के सात मुखों से तात्पर्य उसके मुहाने से है जहाँ उसकी सात पृथक्-पृथक् धारायें थीं । सिन्धु के मुहाने से होते हुये ही उसने पंजाब में प्रवेश किया होगा तथा बाह्लिकों (कुषाणों) को परास्त किया होगा । सुधाकर चट्‌टोपाध्याय के अनुसार मेहरौली लेख परोक्ष रूप से चन्द्रगुप्त की शक-विजय की भी सूचना देता है । शकक्षत्रप रुद्रदामन् ने निचली सिन्धुघाटी (सौवीर) को कुषाणों से जीता था ।

इस वात का कोई प्रमाण नहीं है कि परवर्ती कुषाणों में से किसी ने पुन: इस भाग को शकों से जीता हो । अत: यहाँ गुप्तकाल तक शक-सत्ता बनी रही । चूंकि चन्द्रगुप्त ने शकों के राज्य को जीता, वह स्वाभाविक रूप से सिन्धु के सातों मुखों को पार कर गया ।

निचली सिन्धु घाटी से ही उसने पंजाब में प्रवेश किया होगा । चन्द्रगुप्त द्वितीय की ख्याति दक्षिण भारत में भी पर्याप्त रूप से फैली हुई थी । दक्षिण के वाकाटक एवं कदम्ब कुलों में अपना वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर उसने उन्हें अपने प्रभाव-क्षेत्र में कर लिया था ।

उसकी पुत्री प्रभावती गुप्तों के शासन-काल में तो वाकाटक लोग पूर्णतया गुप्तों के प्रभाव में आ गये थे । भोज के ग्रन्थ ‘श्रुंगारप्रकाश’ से पता चलता है कि चन्द्रगुप्त ने कालिदास को अपना राजदूत बनाकर कुन्तलनरेश काकुत्सवर्मा के दरबार में भेजा था ।

कालिदास ने लौटकर यह सूचना दी कि ‘कुन्तल नरेश अपना राज्य-भार आपके (चन्द्रगुप्त) ऊपर सौंपकर मुक्त होकर भोग-विलास में निमग्न हैं ।’ क्षेमेन्द्र ने कालिदास द्वारा विरचित एक श्लोक का उद्धरण दिया है जिससे लगता है कि कुन्तल प्रदेश का शासन वस्तुतः चन्द्रगुप्त ही चलाता था ।

इस विवरण से इतना तो स्पष्ट ही है कि दक्षिण के कुन्तलप्रदेश पर चन्द्रगुप्त का प्रभाव था । ऐसा प्रतीत होता है कि इन्हीं प्रभावों को ध्यान में रखकर मेहरौली लेख के रचयिता ने काव्यात्मक ढंग से यह लिखा है कि ‘चन्द्र के प्रताप के सौरभ से दक्षिण के समुद्र-तट आज भी सुवासित हो रहे हैं ।’

मेहरौली लेख की अन्य विशेषतायें भी चन्द्रगुप्त के पक्ष में सही लगती हैं । इसके अनुसार चन्द्र ने अपने बाहुवल द्वारा अपना राज्य प्राप्त किया, उसने चिर-काल तक शासन किया और वह भगवान विष्णु का महान् भक्त था ।

रामगुप्त के समय में किस प्रकार गुप्त-साम्राज्य संकट-ग्रस्त हो गया था । यदि चन्द्रगुप्त ने शकपति की हत्या नहीं की होती तो गुप्त राज्य शकों के अधिकार में चला जाता ।  इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि चन्द्रगुप्त ने अपने बाहुबल से ही अपना राज्य प्राप्त किया था । उसने लगभग 40 वर्षों (375-415 ईस्वी) तक शासन किया और इस प्रकार उसका शासन चिरकालीन रहा । वह विष्णु का अनन्य भक्त था जिसकी सर्वप्रिय उपाधि ‘परमभागवत’ की थी ।

इस प्रकार मेहरौली लेख के चन्द की सभी विशेषतायें चन्द्रगुप्त द्वितीय के व्यक्तित्व एवं चरित्र में देखी जा सकती हैं । लेख की लिपि भी गुप्तकालीन है । ऐसा प्रतीत होता है कि उसकी मृत्यु के बाद कुमारगुप्त प्रथम ने पिता की स्मृति में इस लेख को उत्कीर्ण करवाया था ।

लिपि की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर ही इसमें चन्द्रगुप्त के नाम का केवल प्रथमार्ध ‘चन्द्र’ ही प्रयुक्त किया गया है । उसकी कुछ मुद्राओं पर भी केवल ‘चन्द्र’ नाम ही प्राप्त है । अत: मेहरौली लेख को चन्द्रगुप्त द्वितीय का मानने में अब संदेह का कोई स्थान नहीं रह जाता ।

अश्वमेध यज्ञ:

वाराणसी के दक्षिण-पूर्व में स्थित नगवाँ नामक ग्राम से प्राप्त एक पाषाण निर्मित अश्व पर ‘चन्द्रंगु’ अंकित है । जे. रत्नाकर ने इसकी पहचान चन्द्रगुप्त द्वितीय के साथ की है तथा बताया है कि उसने अश्वमेध यज्ञ किया था जिसके प्रतीक स्वरूप यह अश्व निर्मित किया गया । परन्तु इस मत का समर्थन किसी अन्य साक्ष्य से नहीं होता । अत: इस विषय में हम निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कह सकते ।


5. चन्द्रगुप्त द्वितीय के सिक्के (Coins of Chandragupta II):

अपने पिता के समान चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने भी विशाल साम्राज्य के लिए अनेक प्रकार के सिक्कों का प्रचलन करवाया । उसकी कुछ मुद्रायें मौलिक एवं नवीन थीं । स्वर्ण के साथ-साथ उसकी रजत एवं ताम्र मुद्रायें भी प्राप्त हुई हैं ।

चन्द्रगुप्त की स्वर्ण मुद्राओं का विवरण इस प्रकार है:

(I) धनुर्धारी प्रकार:

इस प्रकार के सिक्के सबसे अधिक मिलते हैं । इनके मुख भाग पर धनुष-बाण लिये हुये राजा की मूर्ति, गरुड़ध्वज तथा मुद्रालेख ‘देवश्रीमहाराजाधिराजश्रीचन्द्रगुप्त:’ अंकित है । पृष्ठ भागा पर बैठी हुई लक्ष्मी के साथ-साथ राजा की उपाधि ‘श्रीविक्रम’ उत्कीर्ण मिलती है ।

(II) छत्रधारी प्रकार:

इसके अन्तर्गत मुख्यतः दो प्रकार के सिक्के सम्मिलित हैं । मुख-भाग पर आहुति डालते हुए राजा खड़ा है । वह अपना बाँया हाथ तलवार की मुठिया पर रखे हुए है । राजा के पीछे एक बौना नौकर उसके ऊपर छत्र ताने हुए खड़ा है ।

इस ओर दो प्रकार के लेख मिलते हैं- महाराजाधिराज श्रीचन्द्रगुप्त: तथा ‘क्षितिमवजित्य सुचरितै: दिवं जयति विक्रमादित्य:’ (महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य पृथ्वी को जीतकर उत्तम कर्मों द्वारा स्वर्ग को जीतता है) । पृष्ठ भाग पर कमल के ऊपर लक्ष्मी खड़ी हुई है तथा मुद्रालेख ‘विक्रमादित्य:’ उत्कीर्ण है ।

(III) पर्यंक प्रकार:

इस प्रकार के सिक्के बहुत कम प्राप्त हैं । इनके मुख भाग पर राजा वस्त्र एवं आभूषण धारण किये हुए पलडंग पर बैठा है । उसके दायें हाथ पर कमल है तथा बाँया हाथ पलडंग पर टिका हुआ है । मुद्रालेख ‘देवश्रीमहाराजाधिराजश्रीचन्द्रगुप्तस्य विक्रमादित्यस्य’ तथा पलंग के नीचे ‘रूपाकृति’ उत्कीर्ण है ।

कुछ सिक्कों के मुख भाग पर उसकी उपाधि ‘परमभागवत’ भी प्राप्त है । ‘रुपाकृति’ उसके शारीरिक एवं गुणों का सूचक है । पृष्ठ भाग पर सिंहासन पर बैठी हुई लक्ष्मी का चित्र तथा मुद्रालेख ‘श्रीविक्रम:’ उत्कीर्ण है ।

(IV) सिंह-निहन्ता प्रकार:

इस प्रकार के सिक्कों के मुख भाग पर सिंह को धनुष-बाण अथवा कृपाण से मारते हुये राजा की आकृति उत्कीर्ण है । पृष्ठ भाग पर सिंह पर बैठी हुई देवी दुर्गा की आकृति विभिन्न दशाओं में खुदी हुई है । इस प्रकार के सिक्के कई वर्ग के जिन पर भिन्न-भिन्न मुद्रालेख मिलते हैं । जैसे- नरेन्द्रचन्द्र प्रथितदिव जयत्यजेयो भुवि सिंह-विक्रम: (नरेन्द्र चन्द, पृथ्वी का अजेय राजा सिंह विक्रम स्वर्ग को जीतता है) ।

इसके अतिरिक्त कुछ मुद्राओं पर ‘देवश्री महाराजाधिराजश्रीचन्द्रगुप्त:’ अथवा ‘महाराजाधिराजश्रीचन्द्रगुप्त’ भी अंकित है । इस प्रकार के सिक्कों से अन्य बातों के साथ-साथ उसकी गुजरात और काठियावाड़ के शकों की विजय भी सूचित होती है ।

(V) अश्वारोही प्रकार:

इसके मुख भाग पर घोड़े पर सवार राजा की आकृति तथा मुद्रालेख ‘परमभागवत महाराजाधिराजश्रीचन्द्रगुप्त:’ अंकित है । पृष्ठ भाग में बैठी हुई देवी साथ-साथ ‘अजितविक्रम:’ खुदा हुआ है । उपर्युक्त सभी प्रकार के सिक्के स्वर्ण के हैं । इनके अतिरिक्त चन्द्रगुप्त ने चाँदी तथा ताँबे के सिक्के भी चलवाये ।

सामान्यतः अभी तक यह माना जाता रहा है कि सर्वप्रथम चन्द्रगुप्त द्वितीय ने ही चाँदी के सिक्कों का प्रचलन करवाया था परन्तु अब चन्द्रगुप्त प्रथम का भी एक चाँदी का सिक्का प्राप्त हो चुका है । चाँदी के सिक्कों के मुख भाग पर वक्ष तक की राजा की आकृति तथा पृष्ठ भाग पर गरुड़ की आकृति मिलती है ।

पृष्ठ भाग पर भिन्न-भिन्न लेख मिलते हैं:

(1) परम भागवत महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य तथा

(2) ‘श्री गुप्त कुलस्य महाराजाधिराज श्री गुप्त विक्रामांकाय’ ।

ताँबे के सिक्के भी कई प्रकार के हैं । इनके मुख भाग पर ‘श्रीविक्रम’ अथवा ‘श्रीचन्द’ तथा पृष्ठ भाग पर गरुड़ की आकृति के साथ-साथ श्रीचन्द्रगुप्त अथवा चन्द्रगुप्त खुदा हुआ है । स्वर्ण सिक्कों को ‘दीनार’ तथा रजत सिक्कों को ‘रुप्यक’ (रूपक) कहा जाता था ।


6. चन्द्रगुप्त द्वितीय का विजयें (Victories of Chandragupta II):

वैवाहिक सम्बन्धों द्वारा अपनी स्थिति सुदृढ़ कर लेने के पश्चात् चन्द्रगुप्त ने अपना विजय अभियान प्रारम्भ किया जिसका उद्देश्य उदयगिरि गुहाभिलेख के शब्दों में ‘सम्पूर्ण पृथ्वी को जीतना’ (कृत्स्नपृथ्वीजय) था । वह अपने पिता समुद्रगुप्त के ही समान एक कुशल योद्धा था ।

अपनी विजय की प्रक्रिया में उसने पश्चिमी भारत के शकों की शक्ति का उन्मूलन किया । शक उन दिनों गुजरात और काठियावाड़ में शासन करते थे । यद्यपि उन्होंने समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार कर ली थी, तथापि उनका उन्मूलन नहीं किया जा सकता था और वे अब भी काफी शक्तिशाली थे ।

हम देख चुके हैं कि रामगुप्त के समय में किस प्रकार शकों ने गुप्त-साम्राज्य के लिये संकट खड़ा कर दिया था और चन्द्रगुप्त ने उनके शासक की हत्या कर अपने साम्राज्य की रक्षा की थी । राजा होने के बाद चन्द्रगुप्त ने उन्हें पूर्णतया उन्मूलित करने के लिये एक व्यापक सैनिक अभियान किया । पूर्वी मालवा के क्षेत्र से चन्द्रगुप्त द्वितीय के तीन अभिलेख मिलते हैं जिनसे परोक्ष रूप से शक-विजय की सूचना मिलती है ।

प्रथम अभिलेख भिलसा के समीप उदयगिरि पहाड़ी से मिला है और यह उसके सान्धिविग्रहिक सचिव वीरसेन का है । इससे ज्ञात होता है कि वह ‘सम्पूर्ण पृथ्वी को जीतने की इच्छा से राजा के साथ इस स्थान पर आया था ।’

दूसरा अभिलेख भी उदयगिरि से ही मिलता है और यह उसके सामन्त ‘सनकानीक महाराज’ का है । तीसरा साँची का लेख है जिसमें उसके आम्रकार्द्दव नामक सैनिक पदाधिकारी का उल्लेख हुआ है जो सैकड़ों युद्धों का विजेता था ।

इन तीनों अभिलेखों के सम्मिलित साक्ष्य से यह प्रकट होता है कि चन्द्रगुप्त पूर्वी मालवा में अपने सामन्तों एवं उच्च सैनिक अधिकारियों के साथ अभियान पर गया था । इस अभियान का उद्देश्य निश्चय ही पूर्वी मालवा के ठीक पश्चिम में स्थित शक-राज्य को जीतना था ।

चन्द्रगुप्त का शक प्रतिद्वन्द्वी रुद्रसिंह तृतीय था । वह मार डाला गया तथा उसका गुजरात और काठियावाड़ का राज्य गुप्त साम्राज्य में मिला लिया गया । चन्द्रगुप्त द्वितीय ने शक-मुद्राओं के ही अनुकरण पर चाँदी के सिक्के उत्कीर्ण करवाये जिन्हें शक-राज्य में प्रचलित करवाया गया ।

यहाँ से रुद्रसिंह तृतीय के कुछ चाँदी के सिक्के ऐसे मिलते हैं जो चन्द्रगुप्त द्वारा पुनरंकित कराये गये हैं । इन सिक्कों के प्रमाण से भी शक-राज्य पर उसका आधिपत्य सूचित होता है । चन्द्रगुप्त के व्याघ्रशैली के सिक्के भी गुजरात और काठियावाड़ की विजय के प्रमाण है क्योंकि भारत के इसी भाग में सिंह अधिक पाये जाते थे । यह शक-विजय सम्भवत: पाँचवीं शती के प्रथम दशक में की गयी थी ।

यह निश्चित रूप से एक महान सफलता थी । इसके साथ ही तीन शताब्दियों से भी अधिक समय के शासन के पश्चात् पश्चिमी क्षत्रपों के वंश का अन्त हुआ तथा पश्चिमी भारत से विदेशी आधिपत्य की समाप्ति हुई । इस विजय ने चन्द्रगुप्त की ख्याति को चतुर्दिक् फैला दिया ।

भारतीय अनुश्रुतियाँ उसे ‘शकारि’ के रूप में स्मरण करती हैं तथा इसी विजय की चर्चा अनेक साहित्यिक ग्रन्थों में हुई है जिनका उल्लेख हम रामगुप्त के सन्दर्भ में कर चुके हैं । सम्भवत: अपनी इसी उपलब्धि के बाद उसने ‘विक्रमादित्य’ की उपाधि ग्रहण की थी । शक राज्य के गुप्त साम्राज्य में मिल जाने से उसका विस्तार पश्चिम में अरब सागर तक हो गया ।

आर्थिक दृष्टि से भी इस विजय ने गुप्त साम्राज्य की समृद्धि में योगदान दिया । इसके परिणामस्वरूप पश्चिमी समुद्रतट के प्रसिद्ध बन्दरगाह भृगुकच्छ (भड़ौच) के ऊपर उसका नियन्त्रण हो गया । इसके माध्यम से पाश्चात्य विश्व के साथ साम्राज्य का व्यापार-वाणिज्य घनिष्ठ रूप से होने लगा जो दश की आर्थिक प्रगति में सहायक बना ।


7. फाहियान तथा चन्द्रगुप्त द्वितीय (Fahian and Chandragupta II):

चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन काल की एक प्रमुख घटना चीनी यात्री फाहियान के भारत आगमन की है । 399 ईस्वी से 414 ईस्वी तक उसने भारत के विभिन्न स्थानों का भ्रमण किया ।  उसके द्वारा छोड़ा गया भ्रमण-वृत्तान्त चन्द्रगुप्तकालीन भारत की सांस्कृतिक दशा का सुन्दर निरूपण करता है, यद्यपि उसने अपने समकालीन शासक का नामोल्लेख नहीं किया है ।

फाहियान का जन्म चीन के ‘वु-यांग’ नामक स्थान में हुआ था । बचपन में ही वह भगवान बुद्ध की शिक्षाओं की ओर आकृष्ट हुआ । बड़ा होने पर वह भिक्षु जीवन व्यतीत करने लगा ।  उसकी आस्था दिनोंदिन बुद्ध के उपदेशों तथा शिक्षाओं में दृढ़ होती गयी ।

बौद्ध ग्रन्थों के गहन अध्ययन तथा बुद्ध के चरण-चिह्नों से पवित्र हुए स्थानों को देखने की लालसा से उसने अपने कुछ सहयोगियों के साथ भारतवर्ष की यात्रा प्रारम्भ की । चंगन से चलकर सर्वप्रथम वह शान-शान पहुँचा । यहाँ हीनयान मत के लगभग 4,000 भिक्षु निवास करते थे । यहाँ के साधारण लोग भारतीय धर्म को मानने वाले थे । तत्पश्चात् उसने करशहर, खोतान तथा काशगर की यात्रा की ।

खोतान के प्रसिद्ध गोमती विहार में उसने निवास किया । यहाँ महायान सम्प्रदाय के लगभग 10,000 भिक्षु निवास करते थे । इसके बाद सिन्धु नदी पार कर उसने उद्यान, गन्धार, तक्षशिला, पेशावर आदि स्थानों का भ्रमण किया ।

पेशावर में कनिष्क द्वारा बनवायें गये टावर (दैत्य) को उसने देखा था । यह सम्पूर्ण क्षेत्र स्तुपों, विहारों तथा स्मारकों से भरा हुआ था । यहाँ से चलकर वह नगरहार पहुँचा । नगरहार की राजधानी में बुद्ध का ‘दन्त पगोडा’ था ।

पहाड़ियों पार कर वह अफगानिस्तान देश गया जहाँ उसने हीनयान तथा महायान दोनों सम्प्रदायों के लगभग 3000 भिक्षु देखे । यहाँ से पूर्व की ओर उसने पुन: सिन्धु पार किया तथा पंजाब राज्य में प्रवेश किया ।

पंजाब में उसने बहुसंख्यक बौद्ध-विहार देखे । पंजाब के बाद ‘मध्य देश’ की सीमा प्रारम्भ होती थी । मध्यदेश का उसने व्यापक भ्रमण किया । फाहियान मध्यदेश का वर्णन विस्तारपूर्वक करता है ।

यह ब्राह्मणों का देश था जहाँ लोग सुखी एवं समृद्ध थे । लोगों को न तो अपने मकानों का पंजीकरण कराना पड़ता था और न ही न्यायालयों में दण्डाधिकारियों के सम्मुख उपस्थित होना पड़ता था । वे जहाँ चाहे जा सकते तथा रह सकते थे ।

जो लोग सरकारी भूमि पर खेती करते थे उन्हें उपज का एक भाग राजा को देना पड़ता था । दण्डविधान मृदु थे । राजा बिना मृत्यु-दण्ड अथवा शारीरिक यन्त्रणाओं का भय दिलाते हुए ही शासन करता था । अपराधों में आर्थिक दण्ड लगाये जाते थे ।

बार-बार राजद्रोह का अपराध करने वाले व्यक्ति का केवल दायीं हाथ काट लिया जाता था । इसके बावजूद भी अपराध नहीं होते थे तथा चतुर्दिक् शान्ति एवं सुव्यवस्था का साम्राज्य था । राजकर्मचारी वैतनिक होते थे ।

सम्पूर्ण देश में लोग न तो किसी जीवित प्राणी की हत्या करते थे और न ही मांस, मदिरा, प्याज, लहसुन आदि का प्रयोग करते थे । केवल चाण्डाल इसके अपवाद थे जो समाज से बहिष्कृत समझे जाते थे । लोग सुअर अथवा पक्षियाँ नहीं पालते थे तथा पशुओं का व्यापार नहीं करते थे । बाजारों में बूचड़खाने तथा मदिरालय नहीं थे ।

क्रय-विक्रय में कौड़ियों का प्रयोग होता था । केवल चाण्डाल ही शिकार करते तथा मछलियों बेचते थे । धनपति एवं कुलीन वर्ग के लोग मन्दिर एवं विहार बनवाते तथा उनके निर्वाह के लिये धन दान देते थे । धर्मपरायण परिवार भिक्षुओं को भोजन, वस्त्रादि देने के लिये चन्दे एकत्रित करते थे । मध्यदेश में ब्राह्मण धर्म का ही बोल-वाला था ।

फाहियान ने पवित्र बौद्ध स्थानों की भी यात्रा की । संकिसा तथा श्रावस्ती में उसने अनेक स्मारक तथा भिक्षु देखे । श्रावस्ती स्थित ‘जेतवान विहार’ की वह प्रशंसा करता है । यहाँ कई पुण्यशालायें थीं जहाँ यात्रियों एवं भिक्षुओं को मुफ्त भोजन दिया जाता था । फाहियान ने कपिलवस्तु नगर को उजड़ा हुआ पाया । उसने लुम्बिनी, रामग्राम तथा वैशाली की भी यात्रा की ।

गंगा नदी पार कर उसने पाटलीपुत्र में प्रवेश किया । पाटलीपुत्र में फाहियान न अशोक का राजमहल देखा था । इसकी भव्यता से वह इतना अधिक प्रभावित हुआ कि लिखता है कि इसका निर्माण दैत्यों द्वारा किया गया था ।

यहाँ हीनयानियों तथा महायानियों के अलग-अलग मठ थे । मगध देश का वर्णन करते हुये फाहियान लिखता है कि मध्य भारत के सभी देशों में यहाँ सर्वाधिक नगर थे । लोग सुखी एवं समृद्ध थे तथा धर्म एवं कर्त्तव्य-पालन में परस्पर स्पर्धा रखते थे ।

धनपतियों ने यहाँ चिकित्सालय बनवाये थे जहाँ रोगियों को मुफ्त भोजन तथा दवायें दी जाती थीं । इसके बाद फाहियान ने नालन्दा, राजगृह तथा बोधगया की यात्रा की और अनेक पवित्र स्तूपों एवं ताम्र विहारों के दर्शन किये । यहाँ से वह पुन: पाटलीपुत्र लौटा तथा वहाँ से चलकर वाराणसी पहुँचा जहाँ उसने सारनाथ स्थित मृगवन तथा दो विहार देखे । इनमें अनेक भिक्षु निवास करते थे ।

यहाँ से वह पुन: पाटलीपुत्र वापस लौट गया । पाटलीपुत्र से फाहियान ने अपनी वापसी यात्रा प्रारम्भ किया । चम्पा होता हुआ वह तामलुक (ताम्रलिप्ति) जहाँ एक बन्दरगाह था । यहाँ 24 विहार थे । तामलुक में दो वर्षों तक रहकर फाहियान ने बौद्ध सूत्रों की प्रतिलिपियाँ तैयार कीं तथा बौद्ध प्रतिमाओं के चित्र बनाये ।

तत्पश्चात् लंका तथा पूर्वी द्वीपों से होता हुआ वह स्वदेश लौट गया । फाहियान ने भारत में रहकर विभिन्न स्थानों का भ्रमण किया । वह एक बौद्ध था तथा उसने प्रत्येक वस्तु को बौद्ध की दृष्टि से ही देखा । अपनी पूरी यात्रा-विवरण में वह कहीं भी सम्राट का नामोल्लेख नहीं करता ।

चन्द्रगुप्त द्वितीय का काल ब्राह्मण धर्म के चरमोत्कर्ष का काल रहा परन्तु दुर्भाग्यवंश उसने इस धर्म का विस्तृत वर्णन नहीं किया है । फिर भी फाहियान के विवरण से चन्द्रगुप्तकालीन शान्ति, सुव्यवस्था, समृद्धि एवं सहिष्णुता आदि की स्पष्ट सूचनायें प्राप्त हो जाती हैं ।


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