Read this article in Hindi to learn about the history of east India company.

१५८० ई॰ में ड्रेक ने पृथ्वी की परिक्रमा पूरी की । कुछ ही समय बाद अंग्रेजों ने स्पेन के जंगी जहाजों के बेड़े (आर्मेडा) पर विजय प्राप्त की (१५८८ ई॰) । इन घटनाओं से इंगलैंड के निवासी विभिन्न कार्यक्षेत्रों में साहस और वीरता की भावना से भर उठे । फलत: कुछ अंग्रेज सामुद्रिक कप्तान पूर्वी समुद्रों में यात्रा करने को प्रोत्साहित हुए । १५९१ ई॰ और १५९३ ई॰ के बीच जेम्स लंकास्टर कुमारी अंतरीप और पेनांग पहुँचा । १५९६ ई॰ में बेंजामिन ऊड के अधीन जहाजों का एक बेड़ा पूर्व की ओर रवाना हुआ । १५९९ ई॰ में लंदन का एक व्यापारी साहसिक जौन मिल्डेनहौल स्थल-मार्ग से भारत आया तथा पूर्व में सात वर्ष रहा । फिर भी इंगलैड की व्यापारिक समृद्धि के लिए पहला महत्वपूर्ण कदम ३१ दिसम्बर, १६०० ई॰ को उठाया गया ।

उस स्मरणीय दिन को ईस्ट इंडिया कम्पनी ने इंगलैंड की रानी एलिजाबेथ प्रथम से एक आज्ञापत्र प्राप्त किया, जिसमें उसे पन्द्रह वर्षों के लिए पूर्वी व्यापार का एकाधिकार मिला ।

पहले कम्पनी “अलग-अलग समुद्र-यात्री दलों” को रवाना करती थी । इनमें प्रत्येक बेड़ा सदस्यों (ग्राहकों) के एक समूह द्वारा भेजा जाता था, जो अपने व्यापार के मुनाफों को आपस में बाँट लेते थे । इसमें कंपनी को बहुत तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ता था ।

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“इसे भारतीय समुद्रों और समुद्रतटों को अच्छे तौर से जाँच कर उनके लिए व्यवस्था सोचनी पड़ती थी । इसे कष्टपूर्वक व्यापार की एक प्रणाली निर्धारित करनी पड़ती थी, मालों और तिजारती चीजों के साथ प्रयोग करना पड़ता था तथा कर्मचारियों के एक दल को प्रशिक्षित और अनुशासित बनाना पड़ता था । इसे इंगलैड के पुस्तैनी कैथोलिक शत्रु और उसके नये प्रोटेस्टेंट प्रतिद्वंद्वी की शत्रुता का सामना करना पड़ता था या उससे सुलह करनी पड़ती थी ।

यही नहीं, बल्कि इसे स्वदेश में भी अपनी स्थिति को दृढ़ बनाकर रखना पड़ता था ।…पूर्व में इंगलैड के जो प्रारंभिक प्रयत्न हुए, उन्हें राज्य का क्रियाशील समर्थन नहीं दिया गया । जिस समय ईस्ट इंडिया कम्पनी अपने बचपन के दिनों में हिंडोले में झूल रही थी, उस समय व्यक्तिवाद का ठंडा किंतु शक्तिप्रद वातावरण व्याप्त था, जिसमें इसका पालन-पोषण हुआ । इसे सोना-चाँदी के निर्यात के विरुद्ध अधिक समय से चले आते हुए मध्यकालीन पूर्व-संस्कार और विदेशी व्यापार के एक भ्रमजनक सिद्धांत का सामना करना था ।”

अंग्रेजी कम्पनी की प्रारंभिक समुद्र-यात्राएँ सुमात्रा, जावा और मोलक्का के लिए हुई, जिनका उद्देश्य था मसाले के व्यापार का एक हिस्सा प्राप्त करना । भारत में व्यापारिक कोठियाँ (फैक्ट्रियाँ) कायम करने का पहला प्रयत्न १६०८ ई॰ में हुआ । कम्पनी ने कप्तान हाकिंस को भारत भेजा तथा वह जहाँगीर के दरबार में १६०९ ई॰ में पहुँचा ।

हाकिंस ने अंग्रेजों के सूरत में बसने के लिए दर्खास्त दी । प्रारम्भ में मुराल बादशाह ने उसका अच्छा स्वागत किया तथा उसकी दर्खास्त को मंजूर करने की इच्छा प्रकट की । किन्तु पुर्तगीजों के शत्रुतापूर्ण कारनामों और सूरत के सौदागरों के विरोध के कारण उसने अंग्रेजी कप्तान की दर्खास्त को नामंजूर कर दिया । हाकिंस ने १६११ ई॰ में आगरा छोड़ा तथा सूरत में उसकी तीन अंग्रेजी जहाजों से मुलाकात हुई, जो सर हेनरी मिड्‌लटन के नायकत्व में थे ।

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मिटन ने सूरत के सौदागरों के विरुद्ध उनके लाल सागर के व्यापार के सम्बन्ध में प्रतिहिंसा की नीति अस्तियार की । इससे सूरत के सौदागर आतंकित हो उठे । उन्होंने १६१२ ई॰ में कप्तान बेस्ट के अधीन दो अंग्रेजी जहाजों को सूरत में आने दिया ।

पुर्तगीजों द्वारा भेजी हुई सेना को बेस्ट ने हरा डाला तथा १६१३ ई॰ के प्रारंभ में जहाँगीर ने एक आज्ञापत्र (फर्मान) निकाला, जिसमें उसने अंग्रेजों को सूरत में स्थायी रूप से एक कोठी खोलने की आज्ञा दे दी । शीघ्र ही अंग्रेजी कंपनी ने इंगलैंड के राजा जेम्स प्रथम के एक क्षमता प्राप्त राजदूत को मुराल दरबार में भेजा, जिसका उद्देश्य था बादशाह से एक व्यापारिक संधि करना ।

इस काम के लिए सर टामस रो चुना गया । वह “अतीव बुद्धिमान्, सुवक्ता, विद्वान्, परिश्रमशील और रूपवान् व्यक्ति था । रो १६१५ ई॰ के अंत से १६१८ ई॰ के अंत तक बराबर जहाँगीर के दरबार में रहा । कुछ कारणों से वह मुगल बादशाह से कोई निश्चित व्यापारिक संधि करने में असमर्थ रहा ।

फिर भी वह कम्पनी के लिए बहुत-सी विशेष सुविधाएं प्राप्त करने में सफल हुआ । इनमें एक खास सुविधा यह भी थी कि उसने मुराल साम्राज्य के अंतर्गत कतिपय स्थानों में व्यापारिक कोठियों खोलने की आज्ञा प्राप्त कर ली । रो ने फरवरी, १६१९ ई॰ में भारत छोड़ा ।

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किन्तु इसके पहले ही अंग्रेज सूरत, आगरा, अहमदाबाद और भड़ौच में कोठियाँ स्थापित कर चुके थे । ये सभी कोठियों सूरत की कोठी के प्रेसिडेंट (अध्यक्ष) और कौंसिल (परिषद्) के नियंत्रण में रख दी गयीं । लाल सागर के बन्दरगाहों और फारस के साथ कंपनी का जो व्यापार चलता था, उसे नियंत्रित करने का अधिकार भी इन्हें ही मिला ।

अंग्रेजी कोठियाँ भड़ौंच और बड़ौदा में भी शुरू की गयीं, जिनका लक्ष्य था उन इलाकों में बने हुए फुटकर बेचने के कपड़ों को सीधे खरीद लेना । अंग्रेजी कोठी आगरे में भी कायम हुई, जिसके दो अभिप्राय थे-शाही दरबार के अफसरों के हाथ बनात बेचना, और नील खरीदना, जिसकी सबसे अच्छी किस्म बियाना में तैयार होती थी ।

इंगलैड के राजा चार्ल्स द्वितीय को पुर्तगीजों से अपनी स्त्री ब्रेगाजा की कैथेरिन के दहेज के रूप में बंबई मिली थी । १६६८ ई॰ में चार्ल्स द्वितीय ने ईस्ट इंडिया कम्पनी को दस पौंड वार्षिक किराये पर बम्बई दे दी । बम्बई धीरे-धीरे अधिकाधिक समृद्ध होती गयी । यह इतनी महत्वपूण बन बैठी कि १६८७ ई॰ में पश्चिमी समुद्रतट पर अंग्रेजों की मुख्य बस्ती के रूप में सूरत से भी बढ़ गयी ।

दक्षिणी-पूर्वी समुद्रतट पर अंग्रेजों ने १६११ ई॰ में मसुलीपटम (मछलीपट्टम) में एक व्यापारिक कोठी कायम की थी । यह गोलकुंडा राज्य का मुख्य बंदरगाह था । यहाँ कोठी कायम करने का मतलब था स्थानीय रूप में बुने हुए फुटकर बेचने के कपड़ों को खरीद लेना, जिन्हें वे फारस और बंटम भेजते थे ।

लेकिन यहाँ डचों का विरोध होने लगा स्थानीय अफसर (अधिकारी) भी बार-वार रुपयों की माँग करने लगे । इन बातों से बहुत तंग आकर उन्होंने १६२६ ई॰ में अमीगाँव में एक दूसरी कोठी खोली । अर्मागाँव पुलीकट की डच बस्ती के कुछ मील उत्तर था । यहाँ भी उन्हें विविध असुविधाओं का सामना करना पड़ा ।

इसलिए उन्होंने फिर अपना ध्यान मसुलीपटम की ओर फेरा । सन् १६३२ ई॰ में गोलकुंडा के सुलतान ने उन्हें एक “सुनहला फर्मान” दिया, जिससे उन्हें बहुत लाभ हुआ । इसके अनुसार पाँच सौ पगोडा सालाना फर देने पर उन्हें गोलकुंडा राज्य के बंदरगाहों में स्वतंत्रतापूर्वक व्यापार करने की आज्ञा मिल गयी ।

ये शर्तें सन् १६३४ ई॰ के एक दूसरे फर्मान में दुहरा दी गयीं । किन्तु इससे अंग्रेज व्यापारियों का स्थानीय अधिकारियों की माँगों से पिंड न छूटा । इसलिए वे एक अधिक लाभपूर्ण स्थान की खोज में लगे रहे । सन् १६३९ ई॰ में फ्रांसिस डे ने चंद्रगिरि के राजा से जो विश्वस्त विजयनगर-साम्राज्य का प्रतिनिधि था, मद्रास को पट्टे पर लिया तथा वहाँ एक किलाबंद कोठी बनायी ।

इस किलाबंद कोठी का नाम पड़ा फोर्ट सेंट जार्ज (यानी सेंट जार्ज का किला) । फोर्ट सेंट जॉर्ज शीघ्र ही कोरोमंडल समुद्रतट पर अंग्रेजी बस्तियों के मुख्यालय के रूप में मसुलीपटम से आगे निकल गया ।

अंग्रेजी प्रभाव की वृद्धि की अगली अवस्था थी उत्तर-पूर्व में उनका विस्तार । सन् १६३३ ई॰ में महानदी के मुहाने (डेल्टा) पर स्थित हरिहरपुर में तथा बालासोर में व्यापारिक कोठियाँ कायम हो चुकी थीं । एक कोठी १६५१ ई॰ में मिस्टर बिजमैन के अधीन हुगली में खुली । शीघ्र दूसरी कोठियाँ पटने और कासिमबाजार में खुल गयीं ।

इस युग में बंगाल में अंग्रेजी व्यापार की मुख्य वस्तुएँ थीं रेशम, फुटकर बेचने के सूती कपड़े शोरा और चीनी । किन्तु कोठी के अनियमित व्यक्तिगत व्यापार के कारण कम्पनी को शुरू में कुछ समय तक काफी लाभ नहीं हुआ । १६५८ ई॰ में बंगाल, बिहार, उड़ीसा और कोरोमंडल समुद्रतट की सभी बस्तियाँ फोर्ट सेंट जार्ज केरू अधीन कर दी गयीं’ । कतिपय कारणों से सत्रहवीं सदी के पूर्वार्ध में मद्रास और सूरत में कम्पनी के व्यापार का भविष्य अधिक उज्वल न था ।

किंतु उस सदी के उत्तरार्ध में, इसके अपने देश की सरकार की नीति में परिवर्तन होने के कारण, इसका दुर्भाग्य दूर हो गया । त्रोमवेल ने १६५७ ई॰ में जो आज्ञापत्र दिया, उससे इसे नवीन अवसर मिले । १६६० ई॰ के ‘रेस्टोरेशन’ (राजा के प्रत्यागमन) के बाद के तीस वर्ष विस्तार और समृद्धि के युग के रूप में आये ।

चार्ल्स द्वितीय और जेम्स द्वितीय दोनों राजाओं ने कम्पनी के पुराने विशेषाधिकारों को पक्का कर दिया तथा इसकी शक्तियों को बढ़ा दिया । साथ ही, सहायता के लिए एक स्थायी सम्मिलित कोष की स्थापना हो जाने से कम्पनी की पुरानी वित्तीय कठिनाइयाँ काफी कम हो गयीं ।

कम्पनी की भारत में जो नीति रही थी, वह भी इस युग में बदल गयी । एक शांति- पूर्ण व्यापारिक संस्था राज्य-विस्तार द्वारा अपनी धाक जमाने के लिए उत्सुक एक शक्ति के रूप में परिवर्तित हो गयी । मुख्यत: देश की राजनीतिक दुर्व्यवस्था के कारण ही ऐसा हुआ ।

शाही फौज, मराठों और दूसरे दक्कनी राज्यों के बीच दीर्घकालीन युद्ध; १६६४ ई॰ और १६७० ई॰ में सूरत पर मराठा हमले; बंगाल में मुगल सूबेदारों की कमजोर हुकूमत जिससे बंगाल भारी भीतरी और बाहरी खतरों के लिए खुला पड़ गया मालाबार के सामुद्रिक डकैतों के उपद्रव तथा फलस्वरूप प्रतिरक्षा की आवश्यकता- इन कारणों से परिवर्तन अवश्यम्भावी हो गया ।

१६६९ ई॰ से सर जार्ज औक्सेन्‌डेन के उत्तराधिकारी के रूप में जेराल्ड ओंगियर सूरत का प्रेसिडेंट और बम्बई का गवर्नर था । उसने संचालक-समिति (कोर्ट ऑव डाइरेक्टर्स) को लिखा कि “अब समय का तकाजा है कि आप अपने हाथों में तलवार लेकर अपने सामान्य व्यापार का प्रबन्ध करें ।”

कुछ ही वर्षों में डाइरेक्टरों ने कम्पनी की नीति में इस परिवर्तन को स्वीकार कर लिया तथा दिसम्बर, १६८७ ई॰ में मद्रास के प्रधान को लिखा कि आप “असैनिक और सैनिक शक्ति का ऐसा शासन कायम कीजिए तथा दोनों की प्राप्ति के लिए इतनी विशाल आय निकालिए और बनाये रखिए…जो सदैव के लिए भारत में एक विशाल, सुगठित, सुरक्षित अंग्रेजी राज्य की नींव बन सके ।”

सर जोशुआ हाइल्ड पिछले स्टुअर्टों के समय में कम्पनी के कार्यों में मुख्य व्यक्तित्व था । वही इस नवीन नीति के लिए मुख्यत: उत्तरदायी था, यद्यपि वस्तुत: यह उसके साथ शुरू नहीं हुई । इस नीति का अनुसरण कर दिसम्बर १६८८ ई॰ में उसके भाई सर जौन चाइल्ड ने बम्बई और पश्चिमी समुद्रतट के मुगल बंदरगाहों पर घेरा डाला, कई मुगल जहाजों को पकड़ लिया तथा “मक्का जानेवाले धर्म-यात्रियों को बंदी बनाने के लिए” अपने कप्तान को लाल सागर और फारस की खाड़ी भेजा ।

लेकिन अंग्रेजों ने मुगल साम्राज्य की शक्ति का बहुत कम मूल्य का था । अभी भी यह शक्ति बहुत मजबूत थी तथा फलदायक रूप से प्रयुक्त हो सकती थी । सर जौन चाइल्ड ने अंत में औरंगजेब से माफी माँगी । औरंगजेब ने माफी दे दी (फरवरी, १६९० ई॰) । जब अंग्रेजों ने सभी पकड़े गये जहाजों का लौटाना और हर्जाने के रूप में डेढ़ लाख रुपये देना स्वीकार किया, तब उसने अंग्रेजी व्यापार के लिए एक अधिकार-पत्र (लाइसेंस) भी दे दिया ।

दंगाल में वाणिज्य के सामान समुद्रतट के समीप खरीदे नहीं जा सकते थे । ये प्रांत के जलमार्गों के बिलकुल ऊपरी भागों में स्थित स्थानों से प्राप्त किये जाते थे । यहां कम्पनी को विविध महसूलघरों में चुंगी देनी पड़ती थी और स्थानीय अधिकारी बहुत तंग करते थे ।

१६५१ ई॰ में सुलतान शुजा ने एक फर्मान निकाला, जिसमें कम्पनी को तीन हजार रुपये के निश्चित वार्षिक कर के बदले व्यापार का विशेषाधिकार दे दिया गया ।

१६५६ ई॰ में एक दूसरा ‘निशान’ मंजूर किया गया, जिसमें यह आदेश दिया गया कि “अंग्रेजी कम्पनी की व्यापारिक कोठी को, स्थल या जल के द्वारा बाहर से भीतर आनेवाले या भीतर से बाहर जानेवाले सामानों पर, चुंगी की माँगों से तंग न किया जाए और न ऐसे सरकारी स्थानों पर, जहाँ से देश के ऊपरी या निचले भाग होकर सामान लाये जाएँगे और ले जाये जाएंगे उसके सामानों को खोला जाए और उससे जबर्दस्ती कम दरों पर लिया जाए । अब वह स्वतंत्रतापूर्वक और बिना विश्व-बाधा के खरीद-बिक्री किया करें ।”

किंतु सुलतान शुजा के उत्तराधिकारियों ने इस ‘निशान’ को अपने ऊपर लाजिमी नहीं समझा । उन्होंने इस बात की माँग की कि अंग्रेज, अपने बढ़ते हुए व्यापार का ख्याल कर, दूसरे सौदागरों के समान ही कर दें ।

कम्पनी ने शाइस्ता खाँ से १६७२ ई॰ में एक फर्मान प्राप्त किया, जिसमें उसे कर अदा करने से मुक्ति मिल गयी । बादशाह औरंगजेब ने १६८० ई॰ में एक फर्मान जारी किया, जिसमें यह आदेश दिया गया कि कोई चुगी के लिए कमनी के आदमियों को तंग न करें और उसके (कम्पनी के) व्यापार में रुकावट न डाले ।

यह आदेश भी था कि “अंग्रेज जाति से, उसके माल के लिए पहले से ली जानेवाली दो प्रतिशत चुंगी के अतिरिक्त, डेढ़ प्रतिशत जजिया के रूप में भी लिया जाएगा ।” लेकिन इन फर्मानों के वावजूद सभी जगहों-बम्बई, मद्रास और बंगाल-में कम्पनी के अभिकर्ता (एजेंट) स्थानीय चुंगी-अधिकारियों की माँगों से बच न सके तथा उनके माल कभी-कभी जब्ल कर लिये जाते थे ।

कम्पनी ने अंत में शक्ति के द्वारा अपनी रक्षा करने का निर्णय किया । एतदर्थ इसने हुगली में एक किलाबंद बस्ती रखना आवश्यक समझा । अक्टूबर, १६८६ ई॰ में जब हुगली को अंग्रेजों ने लूट लिया, तब मुरालों और अंग्रेजों के बीच वस्तुत: युद्ध प्रारम्भ हो गया । हिजली और बालासोर की मुराल किलेबंदी पर भी अंग्रेजों ने प्रहार किया । अंग्रेज हारकर हुगली से भाग खड़े हुए । इसे छोड़ वे नदी के बहाव की ओर चल कर नदी के मुहाने पर स्थित एक ज्वर-ग्रस्त द्वीप में पहुंच ।

यहाँ से चतुर अंग्रेज अभिकर्ता जॉब चानक ने समझौते की बातचीत शुरू कर दी । इसका परिणाम यह हुआ कि अंग्रेजों को १६६७ ई॰ की शरद् ऋतु में सुतनुती में लौट आने की आज्ञा मिल गयी । किंतु जब चटगाँव हथिया लेने का आदेश देकर लंदन से कप्तान विलियम हीथ के अधीन एक नयी जलसेना भेजी गयी, तब अगले साल लड़ाई फिर छिड़ गयी । नायक अपने लक्ष्य में असफल रहा और मद्रास चला गया ।

बम्बई के प्रेसिडेंट और कौंसिल ने मुगल बादशाह से १६९० ई॰ में संधि कर ली । तब कहीं जाकर अंग्रेजों के ये उद्धत और विवेकहीन काम रुके । जॉब चार्नोक अगस्त, १६९० ई॰ में बंगाल लौटा तथा सुतनुती में एक अंग्रेजी कोठी स्थापित की ।

इस प्रकार “ब्रिटिश भारत की भावी राजधानी की नींव” डाली गयी और १६८७ ई॰ की अर्ध-ज्ञात भविष्यवाणी के मूर्त रूप देने का पहला कदम उठाया गया । मुगल बादशाह का हुक्म पाने पर बंगाल की हुकूमत में शाइस्ता खाँ के उत्तराधिकारी इब्राहीम खाँ ने फरवरी, १६९१ ई॰ में एक फर्मान निकाला, जिसके अनुसार अंग्रेजों को तीन हजार रुपये वार्षिक के बदले चुंगी-कर की अदायगी से मुक्ति दे दी गयी ।

बर्दवान जिले के एक जमींदार शोभा सिंह के विद्रोह के कारण अंग्रेजों को १६९६ ई॰ में अपनी नयी कोठी की किलेबंदी कराने का बहाना मिल गया । १६९८ ई॰ में उन्हें सुतनुती, कलिकाता (कालीघाट = कलकत्ता) और गोविंदपुर नामक तीन गाँवों की जमींदारी दे दी गयी, जिसके बदले उन्हें इन गाँवों के पहले के मालिकों को बारह सौ रुपये देने पड़े । यह नवीन किलाबंद बस्ती अब से फोर्ट विलियम कहलाने लगी ।

यहाँ एक प्रेसिडेंट और कौंसिल की स्थापना हुई । १७०० ई॰ में बंगाल की अंग्रेजी कोठियाँ इन्हीं के अलग नियंत्रण में रख दी गयी । सर चार्ल्स आयर फोर्ट विलियम का पहला प्रेसिडेंट हुआ । कम्पनी की स्थिति उसकी बंगालवाली बस्ती में कुछ अजीब थी । यह अंग्रेजी राजमुकुट की ओर से बम्बई पर अधिकार रखती थी और वहाँ किसी भारतीय राजा का कोई अधिकार नहीं पहुँचता था ।

मद्रास में इसकी शक्तियों का आधार यह था कि भारतीय राजाओं ने इसे मौन ख्प में स्वीकार कर लिया था तथा इसके पास अंग्रेजी अधिकार-पत्र भी थे । “बंगाल में कम्ग्नी की स्थिति के ये दोनों साधन अधिक प्रत्यक्ष थे ।” यहाँ की अंग्रेजी प्रजा पर इसका अधिकार अंग्रेजी कानूनों और अधिकार-पत्रों के कारण था किन्तु भारतीय आबादी पर इसका अधिकार जमीदार की हैसियत से था ।

चार्ल्स द्वितीय और जेम्स द्वितीय के समय में कम्पनी की जो समृद्धि हुई, उसने इसके शत्रुओं में ईर्ष्या उत्पन्न कर दी । १६८८, ई॰ की क्रांति के कारण ह्विग नामक दल (पार्टी) का शासन प्रारंभ हुआ । इस समय कम्पनी के शत्रु इसकी व्यापारिक सुविधाओं के एकाधिकार को बुरा मानने लगे । ह्विग पुरानी सरकार से मिलकर रहनेवाले व्यापारियों की इस संस्था के विरुद्ध थे ।

वे खानगी व्यापारियों की, जिन्हें हस्तक्षेपकारी या दस्तंदाज कहा जाता था, सहायता करने लगे । १६९४ ई॰ में हाउस ओंव कॉमन्स (इंगलैड की लोकसभा) ने यह प्रस्ताव पारित किया कि इंगलैड की सारी प्रजा को भारत में व्यापार करने का समान अधिकार है, यदि उसे किसी कानून द्वारा न रोका जाए ।

१६९८ ई॰ में एक विधेयक कानून बना, जिसके अनुसार एक नियमबद्ध कम्पनी के तौर पर एक नयी कम्पनी कायम हुई । यह नयी संस्था ‘जनरल सोसाइटी’ के नाम से प्रसिद्ध हुई । भारत में व्यापार करने के अधिकार को अक्षुण्ण रखने के ख्याल से पुरानी कम्पनी सदस्य के रूप में १७०७ ई॰ से इसमें आ मिली ।

करीब-करीब इसी समय रुपये देकर हिस्से खरीदनेवाले बहुत-से दूसरे व्यापारियों ने एक अन्य सम्मिलित कोष वाली कम्पनी बनायी, जिसका नाम पड़ा ‘इंगलिश कम्पनी ऑव मर्चेट्स’ (सौदागरों की अंग्रेजी कम्पनी) ।

वित्तीय झंझटों के बाबजूद नयी कम्पनी वस्तुत: पुरानी कम्पनी की एक घोर प्रतिद्वंद्विनी बन बैठी तथा इसने (नयी कंपनी ने) अपने लिए व्यापारिक सुविधाएँ प्राप्त करने के उद्देश्य से सर बिलियम नौरिस को औरंगजेब के दरबार में राजदूत के रूप में भेजा । किन्तु इसका कोई फल न निकला ।

मंत्रिमंडल से कुछ दबाव पड़ने पर दोनों कम्पनियों ने १७०२ ई॰ में संयुक्त हो जाने का निश्चय किया, जो १७०८-१७०९ ई॰ में गोडोलफिन के अर्ल के फैसले के अनुसार कार्य-रूप में परिणत हुआ ।

दोनों कम्पनियां अब से “ईस्ट इंडीज में व्यापार करनेवाले इंगलैड के सौदागरों की मिली हुई कम्पनी” के नाम से संयुक्त हो गयीं तथा उनके पारस्परिक विनाशकारी झगड़े सदा के लिए बंद हो गये । मिली हुई कम्पनी का कानूनी एकाधिकार सन् १७९३ ई॰ तक अछूता बना रहा ।

अठारहवीं सदी के प्रथम चालीस वर्षों में भारत में अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कम्पनी के व्यापार और प्रभाव का जो विस्तार हुआ, वह शांतिपूर्ण एवं क्रमिक था । यह उस युग की राजनीतिक दुरवस्था के बावजूद हुआ । उक्त राजनीतिक दुरवस्था से कभी-कभी कम्पनी के लिए रुकावटें पैदा हो जाती थीं, यद्यपि वे बहुत गंभीर नहीं होती थीं । इन रुकावटों पर आसानी से विजय प्राप्त कर ली गयी ।

इस युग में कम्पनी के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटना है इसके द्वारा १७१५ ई॰ में मुगल दरबार में एक दूतमंडल का भेजा जाना, जिसके उद्देश्य थे समग्र मुगल भारत में विशेषाधिकार प्राप्त करना तथा कलकत्ते के आसपास कुछ गाँव पाना । यह दूतमंडल कलकत्ते से जौन सुर्मन द्वारा ले जाया गया, जिसकी सहायता एडवर्ड स्टिफेन्सन कर रहा था । इसके साथ विलियम हैमिल्टन नामक सर्जन और स्वाझा सेर्हूद नामक एक आर्मीनियन दुभाषिया थे ।

हैमिल्टन ने बादशाह फर्रुखसियर की एक दर्दनाक बीमारी छुड़ाने में सफलता प्राप्त की । फलत: फर्रुखसियर अंग्रेजों से प्रसन्न हो गया । उसने उनकी प्रार्थना मानते हुए फर्मान निकाले तथा सूबों के सूबेदारों को उन्हें मानने का आदेश दिया । अंग्रेजों को तीन हजार वार्षिक कर के अतिरिक्त और कुछ भी चुंगी न देकर बंगाल में व्यापार करने का जो विशेषाधिकार मिला हुआ था, वह पुष्ट हो गया ।

उन्हें किराये पर कलकत्ते के आसपास अतिरिक्त जमीन लेने की अनुमति मिल गयी । हैदराबाद के समूचे सूबे में जो उन्हें पहले से चुंगी की छूट मिली हुई थी, वह छूट कायम रही; केवल उन्हें मद्रास का उस समय का किराया देना लाजिमी रहा ।

पहले वे सूरत में चुंगी देते थे; अब दस हजार रुपये वार्षिक के वदले उन्हें इस चुंगी से छुटकारा मिल गया । वम्बई में कम्पनी द्वारा ढाले गये सिक्कों के सारे मुगल राज्य में चलाने की आज्ञा मिल गयी । बंगाल में वहाँ के मजबूत और योग्य सूबेदार मुर्शिद कुली जाफर खाँ ने अंग्रेजों को अधिक गाँव दिये जाने का विरोध किया ।

फिर भी, १७१६-१७ ई॰ के फर्मान में जो दूसरे अधिकार मिले थे, उनसे उनकी बहुत भलाई हुई । और्म ने इसे “कम्पनी का मैग्ना कार्टा (महान् अधिकार-पत्र)” कहा है, जो उचित ही है । यद्यपि कभी-कभी स्थानीय अधिकारियों की माँगे और लूट-खसोट चलती रहती थी, तथापि बंगाल में कम्पनी का व्यापार धीरे-धीरे उन्नति करने लगा ।

कलकत्ते का महत्व बढ़ चला । यहाँ तक कि सन् १७३५ ई॰ तक आते-आते इसकी जन-संख्या एक लाख जा पहुँची, तथा १७१५ ई॰ के दौत्य के बाद के दस वर्षों में इस बंदरगाह पर कम्पनी का दस हजार टन वार्षिक माल जहाजों पर लादा जाने लगा ।

मराठों और पुर्तगीजों में झगड़े होते रहते थे । मराठा समुद्र-कप्तान, जिनमें कान्होजी औग्रे अधिक प्रसिद्ध था तथा जो घेरिया (या बिजयदुर्ग) और सुवर्णदुर्ग नामक दो किलों से बम्बई एवं गोआ के बीच के समुद्रतट पर आथिपत्य जमाये हुए थे, लूट-खसोट मचाया करते थे ।

इन दोनों कारणों से फर्रुखसियर के फर्मान के बाद करीब अठारह वर्षा तक पश्चिमी समुद्रतट पर अंग्रेजी कम्पनी का व्यापार घाटा सहता रहा । १७१५ ई॰ से १७२२ ई॰ के बीच चार्ल्स बून की सरकार के समय में बम्बई के चारों ओर एक दीवार वनायी गयी तथा शत्रु के बेड़ों से इसकी कोठी और व्यापार की रक्षा के उद्देश्य से कम्पनी के सशस्त्र जहाज बढ़ा दिये गये ।

इन अठारह वर्षों के बाद, यद्यपि मराठा समुद्र-कप्तान १७५७ ई॰ के पहले अंतिम रूप में हराये नहीं गये, फिर भी बम्बई में कम्पनी का व्यापार बढ़ने लगा, इसकी सैनिक शक्ति विकसित हुई तथा बम्बई की जनसंख्या सन् १७४४ ई॰ में करीब सत्तर हजार हो गयी । अंग्रेजों ने १७३९ ई॰ में मराठों से एक संधि की तथा पेशवा को मिलाकर औग्रियों के विरुद्ध हमले करने लगे ।

सुवर्णदुर्ग को कोमोडोर जेम्स ने १७५५ ई॰ में जीत लिया तया १७५७ ई॰ में क्लाइव और वादन ने उनकी राजधानी घेरिया को ले लिया । मद्रास में भी अंग्रेज ”शांतिपूर्ण व्यापार” चला रहे थे । वे कर्णाटक के नवाब और उसके अधिपति दक्कन के सूबेदार दोनों के साथ ”उत्तम सम्बन्ध” बनाये हुए थे ।

१७०८ ई॰ में टामस पिट ने, जो १६९८ ई॰ से १७०९ ई॰ तक मद्रास का गवर्नर था, कर्णाटक के नवाब से मद्रास के समीपस्थ पाँच नगर प्राप्त किये । १७१७ ई॰ में अंग्रेजों ने इन नगरों पर अधिकार जमा लिया । १७३४ ई॰ में उन्होंने वेपरी और चार अन्य छोटी बस्तियाँ भी प्राप्त कर ली ।

फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कम्पनी और फ्रांसीसी बस्तियाँ (French East India Company and French Township):

यद्यपि “फ्रांसीमियों में पूर्वीय व्यापार की इच्छा वहुत पहले जागृत हुई तथापि दूसरी यूरोपीय कम्पनियों के साथ पूर्व में व्यापारिक लाभों के लिए प्रतिद्वंद्विता करने में वे यूरोपी शक्तियों में सबसे पीछे रहे । फिर भी, हेनरी चतुर्थ, रिचलू और कोल्‌बर्ट जैसे प्रमुख फ्रांसीसियों ने पूर्वीय व्यापार का महत्व महसूस किया ।

कोल्‌बर्ट के अनुरोध पर सन् १६६४ ई॰ में “कम्पनी द इंद ओरिएंताल” की स्थापना हुई । यद्यपि फ्रांसीसी कम्पनी का निर्माण राज्य द्वारा हुआ और राज्य ही इसका सारा खर्च देता था, तथापि इसके प्रारंभिक काम “न तो सुविचारित हुए और न सौभाग्यपूर्ण ही”; क्योंकि मैडेगास्कर द्वीप में, जहाँ फ्रांसीसी पहले ही पहुंच चुके थे, उपनिवेश स्थापित करने के निष्फल प्रयत्नों में इसकी शक्ति का उस समय अपव्यय हो गया ।

लेकिन १६६७ ई॰ में फ्रांस से एक दूसरा दल चला, जिसका नायक फ्रैंको कैरों था । उसके साथ इस्फहान का निवासी मर्कारा भी था । भारत में फ्रांसीसियों की पहली कोठी फ्रैको कैरों द्वारा सूरत में सन् १६६८ ई॰ में स्थापित हुई । मर्कारा, गोलकुंडा के सुलतान से एक अधिकार-पत्र प्राप्त कर, १६६९ ई॰ में मसुलीपटम में एक दूसरी फ्रांसीसी कोठी स्थापित करने में सफल हुआ ।

१६७२ ई॰ में फ्रांसीसियों ने मद्रास के निकट सानथोमी को ले लिया । लेकिन अगले साल उनका जलसेनापति दि ला हे गोलकुंडा के सुलतान और डचों की सम्मिलित सेना द्वारा पराजित हुआ तथा डचों को सानथोमी देने को बाध्य हुआ ।

इसी बीच १६७३ ई॰ में फ्रैंको मार्तिन और बेलांग द लेस्पिने (यह गैर-पेशेवर फौजी सिपाही था जो एडमिरल दि ला हे के साथ आया था) ने वलिकोंडापुरम् के मुस्लिम सूबेदार से एक छोटा गाँव प्राप्त किया । इस प्रकार पांडिचेरी की नींव साधारण रूप में पड़ी । फ्रैंको मार्तिन ने सन् १६७४ ई॰ से इस वस्ती का भार लिया । उसने व्यक्तिगत साहस, अध्यवसाय और चातुर्य से, “हथियारों की खनखनाहट और गिरते हुए राज्यों के शोर के बीच इसे एक महत्वपूर्ण स्थान के रूप में विकसित किया । बंगाल में नवाब शाइस्ता खाँ ने १६७४ ई॰ में फ्रांसीसियों को एक जगह दी, जहाँ १६९०-१६९२ ई॰ में उन्होंने चंदरनगर की प्रसिद्ध फ्रांसीसी कोठी बनायी ।

यूरोप में जो डचों (अंग्रेजों द्वारा समर्थित) और फ्रांसीसियों के बीच प्रतिद्वंद्विता चल रही थी, उसका भारत में फ्रांसीसियों की स्थिति पर बुरा प्रभाव पड़ा । पांडिचेरी को डचों ने १६९३ ई॰ में ले लिया । किन्तु था १६९७ ई॰ में रिजविक की संधि द्वारा यह कसीसियों को लौटा दिया गया ।

जब मार्तिन को पुन: बस्ती का भार मिला, तब वह इसकी समृद्धि को लौटा लाया । फल यह हुआ कि जब १७०६ ई॰ में उसकी मृत्यु हुई, तब इसकी जनसंख्या करीब चालीस हजार को पहुँच चुकी थी, जब कि उसी वर्ष कलकत्ते की जनसंख्या बाईस हजार थी ।

किन्तु दूसरी जगहों में फ्रांसीसी प्रभाव जाता रहा तथा अठारहवीं सदी का प्रारंभ होते-होते बंटम, सूरत और मसुलीपटम की उनकी व्यापारिक कोठियाँ टूट गयी । इस समय तक फ्रांसीसी कम्पनी के आय-स्रोत करीब-करीब खतम हो चुके थे । १७२० ई॰ तक यह बहुत बुरे दिनों से गुजरती रही, यहां तक कि इसने अपने अधिकार-पत्र दूसरों के हाथ बेचे ।

१७०७ ई॰ से १७२० ई॰ तक पादिवेरी के पाँच गवर्नर हुए । किन्तु इनमें किसी ने भी मार्तिन की मजबूत और बुद्धि-मत्तापूर्ण नीति का अनुसरण नहीं किया । जून, १७२० ई॰ में कम्पनी का “इंडीज की चिरस्थायी कम्पनी” के रूप में पुन निर्माण हुआ । तब १७२० ई॰ और १७४२ ई॰ के बीच लिनो और ना के बुद्धिमत्तापूर्ण शासन में समृद्धि इसके पास लौट आयी ।

फ़्रांसीसियों ने १७२१ ई॰ में मौरिशस, १७२५ ई॰ में मालाबार समुद्रतट पर स्थित स्थ्यी और १७३९ ई॰ में कारीकल पर कब्जा कर लिया । इतना होने पर भी फ़्रांसीसियों के लक्ष्य इस युग में पूर्णतया व्यापारिक थे ।

“लिनो और द्यूमा के व्यवहार में ऐसी कोई बात न थी, जिससे हम यह सोच सकें कि कम्पनी के राजनीतिक विचार थे और विजय के सम्बन्ध में उसका सोचना तो और भी दूर की बात है । इसकी कोठियों में कम या ज्यादा किलाबंदी जरूर थी, किन्तु ऐसा केवल डचों और अंग्रेजों से सुरक्षा पाने के ख्याल से ही किया गया था । यद्यपि यह सिपाहियों की भर्ती करती थी तथापि उनका उपयोग प्रतिरक्षा के लिए ही किया जाता था ।”

१७४२ ई॰ के बाद राजनीतिक उद्देश्य, व्यापारिक लाभ की इच्छा की अपेक्षा, अधिक महत्वपूर्ण होने लगे । द्यूप्ले भारत में फ्रांसीसी साम्राज्य स्थापित करने की महत्वाकांक्षा को अपने दिल में पालने लगा । अंग्रेजों ने इसे चुनौती दी । फलत: भारतीय इतिहास का एक नया परिच्छेद प्रारंभ हुआ ।