Read this article in Hindi to learn about the history of medieval India.

आठवीं सदी से आरंभ होकर सत्रहवीं सदी के अंत तक के एक हजार वर्षा में देश के राजनीतिक आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन में तथा कुछ हद तक सामाजिक जीवन में भी महत्वपूर्ण परिर्वतन आए ।

सामाजिक जीवन में इस्लाम द्वारा पैदा की गई चुनौती के बावजूद जातिप्रथा का वर्चस्व बना रहा । साथ ही राजपूत राजाओं की राजनीतिक सत्ता समाप्त हो गई जो धर्म की रक्षा को अपना कर्त्तव्य समझते थे, और जिसका मतलब अन्य बातों के अलावा समाज के (वर्णाश्रम धर्म) को सुरक्षित रखना था । यूँ तो नाथपंथी जोगियों और भक्तिमार्गी संतों ने जातिप्रथा की कड़ी आलोचना की पर वे इसमें कोई दरार न डाल सके । कालांतर में एक अनकहा समझौता भी हुआ ।

कुछ उल्लेखनीय अपवादों को छोड़ दें तो संतों द्वारा जातिप्रथा की आलोचना रोजमर्रा के जीवन अर्थात लौकिक जीवन को नहीं छूती थी । दूसरी ओर ब्राह्मणों ने भक्तिमार्ग को सभी जातियों और विशेषकर शूद्रों के लिए मुक्ति का मार्ग बतलाए जाने पर अपनी सहमति दे दी ।

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मीरा जैसी अन्य संत स्त्रियों ने और सूरदास जैसे दूसरे संतों ने स्त्रियों के लिए भी भक्ति का मार्ग खोल दिया जिसके द्वारा वे पति की सेवा और उसके प्रति कर्त्तव्य निभाने के कार्यो से ऊपर उठ सकें । फिर भी ब्राह्मण अपने विशेषाधिकारों का दावा करते रहे जिसमें प्रवचन और शिक्षा देने का एकाधिकार भी शामिल था ।

अंशत: हिंदू धर्म में आदिवासी समूहों के समावेश के अंशत: नए पेशेवर समूहों के विकास के और अंशत: स्थानीय और क्षेत्रीय भावनाओं के कारण जातिप्रथा के ढाँचे के अंदर नए उपसमूह पैदा हुए । साथ ही कुछ समूह अपनी आर्थिक और राजनीतिक शक्ति के अनुसार वर्णक्रम में ऊपर उठने और नीचे गिरते रहे । इस संदर्भ में राजपूतों, मराठों और खत्रियों और मीनाओं का उल्लेख किया जा सकता है ।

भक्त और सूफी संतों ने हिंदू और इस्लाम धर्मो के बुनियादी तत्त्वों के बारे में धीरे- धीरे एक बेहतर समझ पैदा की और इस बात पर जोर दिया कि उनके बीच बहुत समानता है । इसके कारण आपसी सामंजस्य और सहिष्णुता की भावना मजबूत हुई हालांकि एक संकीर्ण, असहिष्णु दृष्टिकोण की पैरवी करने वाली शक्तियों की जकड़ बनी रही और वे कभी-कभी राज्य की नीतियों को भी प्रभावित करती रहीं ।

पर कुल मिलाकर देखें तो ऐसे अवसर कम ही आए । भक्त व सूफी संतों ने धर्म संबंधी दृष्टिकोण में भी महत्वपूर्ण परिवर्तन पैदा किए और दिखावे की रस्मों-अनुष्ठानों की जगह सच्ची आस्था पर जोर दिया । उन्होंने क्षेत्रीय भाषाओं और उनके साहित्य के विकास में भी योगदान दिया ।

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मगर धार्मिक-आध्यात्मिक विषयों से अत्यधिक सरोकार रखने के कारण बुद्धिवादी विज्ञानों का विकास पीछे पड़ गया विशेषकर विज्ञान और प्रौद्योगिकी का । कुल मिलाकर देखें तो स्त्रियों की दशा बदतर हुई । स्त्रियों को अलग-थलग रखने का या पर्दे का चलन बढ़ा ।

हिंदू स्त्रियाँ पुनर्विवाह के अधिकार का या पिता की संपत्ति में हिस्सा पाने का दावा नहीं कर सकती थीं जबकि मुस्लिम स्त्रियों को ये अधिकार प्राप्त थे । वास्तव में 9 मुस्लिम स्त्रियों तक को इन अधिकारों से अधिकाधिक वंचित रखा जाने लगा ।

राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्रों में सबसे महत्वपूर्ण विकासक्रम तुर्को द्वारा देश का राजनीतिक और प्रशासनिक एकीकरण था, जिसे बाद में मुगलों ने और बल प्रदान किया । हालाकिं तुर्क और मुगल प्रशासन व्यवस्था अधिकतर उत्तर भारत तक सीमित रही तो भी इसने अप्रत्यक्ष रूप से देश के दूसरे भागों को भी प्रभावित किया ।

चाँदी पर आधारित सुंदर ढली मुद्राओं का आरंभ सड़कों और सरायों का विकास तथा नगरीय जीवन की वरीयता ने व्यापार और हस्तशिल्प की वृद्धि पर सीधा प्रभाव डाला जो सत्रहवीं सदी में अपने चरम पर जा पहुँचा । मुगलकाल में राजनीतिक एकीकरण के साथ ही एक एकीकृत शासक वर्ग की सृष्टि करने का भी प्रयास किया गया जिसमें हिंदू और मुसलमान दोनों शामिल थे ।

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लेकिन शासक वर्ग का घोर अभिजात चरित्र बना रहा और निम्न वर्गो के प्रतिभाशाली व्यक्तियों के लिए अवसर सीमित ही रहे । शासक वर्ग का अधिकतर उत्तर भारतीय चरित्र भी बना रहा । औरगंजेब ने बड़ी संख्या में मराठा और दकनी सरदारों को अमीर वर्ग में लाने की अवश्य कोशिश की । दकनी अमीर तो मुगल शासक वर्ग में घुलमिल गए पर मराठे घुलमिल नहीं पाए ।

इसमें संभवत क्षेत्रीय तथा धार्मिक और सामाजिक पूर्वाग्रहों की भी भूमिका रही क्योंकि उत्तर भारत के राजपूतों के विपरीत मराठा सरदार ऐसे सामाजिक समूहों से निकले थे जिन्होंने कभी राजनीतिक सत्ता का उपभोग नहीं किया था और कभी शासक वर्ग नहीं रहे थे । इसलिए मुगल उन्हें हीन समझते थे ।

मुगल अमीर वर्ग सम्राट पर निर्भर एक नौकरशाही के रूप में संगठित था । लेकिन उसकी आय मुख्यत: भूस्वामी किसानों की जोती हुई जमीनों से आती थी । किसानों से मालगुजारी की वसूली के लिए अमीर अंशत: अपने सैनिक अनुयायियों पर निर्भर थे और अंशत: जमींदारों की ताकत पर जिनके अधिकारों और विशेषाधिकारों की रक्षा राज्य द्वारा उनके समर्थन के बदले में की जाती थी ।

इसीलिए अधिकांश इतिहासकार तर्क देते हैं कि मध्यकालीन भारतीय राज्य मूलत: सामंती था । तेरहवीं और चौदहवीं सदियों के दौरान मंगोल हमलों से देश की रक्षा करना तुर्को का महत्वपूर्ण योगदान था ।

बाद में मुगलों ने दो सौ वर्षा तक भारत की उत्तर-पश्चिम सीमाओं को विदेशी हमलों से सुरक्षित रखा । इसके लिए भारत की रक्षा का दारोमदार काबुल-गजनी लाइन पर रखा गया जिसके उत्तर में हिंदूकुश की पहाड़ियाँ थीं । मध्य और पश्चिम एशिया की राजनीति पर गहरी नजर रखी जाती थी और कभी-कभी उसमें सक्रिय भाग भी लिया जाता था ।

मसालों की धरती के रूप में भारत की प्रतिष्ठा तथा पूर्वी अफ्रीका समेत पूर्वी जगत के कपड़ा उत्पादक के रूप में उसकी स्थिति को देखकर यूरोपीय राष्ट्रों ने भारत से सीधे व्यापार संबंध बनाने का प्रयत्न किया । पूर्वी व्यापार की समृद्धि ने यूरोपीय राष्ट्रों की भूख को और बढ़ाया तथा उनके आर्थिक और प्रौद्योगिक विकास में तेजी पैदा की । उनके पास शायद ही कोई ऐसी वस्तु थी जिसकी पूर्वी जगत में माँग रही हो ।

लेकिन सोना और चाँदी अपवादस्वरूप थे जौ मध्य और दक्षिण अमरीका से प्राप्त किए जाते थे । इसलिए अपनी-अपनी सरकारों के समर्थन से यूरोपीय व्यापारियों ने भारत और एशिया के आंतरिक व्यापार में पैर जमाने का प्रयत्न किया ।

अनेक अवसरों पर उन्होंने भारतीय क्षेत्रों को अपने नियंत्रण में लाना चाहा ताकि उनकी आय का उपयोग भारतीय मालों की खरीद के लिए किया जा सके जिस तरह डचों ने ईस्ट इंडीज (आज का इंडोनेशिया) के साथ किया था । मुगल साम्राज्य जब तक शक्तिशाली रहा यूरोपीय राष्ट्र इस उद्‌देश्य में सफल नहीं हुए ।

मुगल साम्राज्य के हास तथा अठारहवीं सदी में भारत की महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाओं ने जैसे नादिरशाह और फिर अफगानों के हमलों ने तथा यूरोपीय राष्ट्रों के तीव्र आर्थिक विकास ने इन राष्ट्रों को इस योग्य बनाया कि वे भारत में और अन्य एशियाई देशों में भी अपने साम्राज्य स्थापित कर सकें ।

इतिहासकारों ने मुगल साम्राज्य के हास और पतन के कारणों की व्याख्या के प्रयास किए हैं । लेकिन आर्थिक और वैज्ञानिक क्षेत्रों में अनेक दूसरे एशियाई राष्ट्रों की तरह भारत यूरोपीय राष्ट्रों जैसा तेजी से विकास क्यों न कर सका इसके कारणों का और भी विस्तृत अध्ययन और अनुसंधान आवश्यक है ।

मुगल शासक वर्गो की समुद्र से संपर्क की कोई परंपरा नहीं थी । विदेश व्यापार के महत्व को मुगल शासक अच्छी तरह समझते थे और इसी कारण वे यूरोपीय व्यापार कंपनियों को संरक्षण और समर्थन देते रहे । किंतु एक राष्ट्र के आर्थिक विकास में नौसेना की शक्ति के महत्व को वे शायद नहीं समझ सके ।

नौसैनिक शक्ति के रूप में भारत का पिछड़ापन विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में उसके बढ़ते पिछड़ेपन का ही अंग था । यांत्रिक घड़ी जिसमें गतिशास्त्र संबंधी सभी यूरोपीय आविष्कारों का मेल था वह भी सत्रहवीं सदी में भारत में नहीं बनाई जा सकी । तोपखाने में छम श्रेष्ठता मुक्त भाव से स्वीकार की जाती थी ।

जिन क्षेत्रों में भारतीय दस्तकार यूरोपीय विकासों को पकडूने में सफल रहे-जैसे जहाज-निर्माण के क्षेत्र में-वहाँ भी प्रवर्तन (इनोवेशन) की कम ही योग्यता दिखाई पड़ती है । शासक वर्ग के जिस रवैये का हमने उल्लेख किया है उसके अलावा इस संदर्भ में सामाजिक ढाँचे ऐतिहासिक परंपराओं और विभिन्न वर्गो के दृष्टिकोण का भी महत्त्व है ।

पारंपरिक ज्ञान पर अधिक जोर था तथा उस ज्ञान का भंडार माने जाने वालों अर्थात ब्राह्मणों और मुल्लाओं को अधिक सम्मान दिया जाता था । पाठ्‌यक्रम में लौकिक रुचि के अधिक वैज्ञानिक विषयों का समावेश करके पाठ्‌यक्रम को आधुनिक बनाने का अकबरी प्रयास इन्हीं तत्वों के दबाव के कारण असफल हो गया ।

भारतीय दस्तकारों की कुशलता और बहुलता ने ही यंत्र-शक्ति को विकसित करने और उत्पादक उद्यमों में उसका प्रयोग करने के प्रयासों को बाधित किया । लेकिन अलगाव और रूढ़िवाद को जन्म देने में जातिप्रथा की भूमिका आज भी विवाद का विषय है ।

इस तरह विज्ञान और प्रौद्योगिकी में भारत संसार से पिछड़ा रहा तथा मुगल शासक वर्ग इस तथ्य से अनजान बना रहा । मिटने की राह पर बढ़ रहे तमाम शासक वर्गो की तरह मुगल शासक वर्ग भी भविष्य को रूपरेखा देने वाले विषयों की अपेक्षा तात्कालिक महत्व के विषयों में अधिक उलझा रहा जिनमें उसके सुख-आराम की वस्तुएँ भी शामिल थीं ।

इसके बावजूद भारत में इस काल में विभिन्न क्षेत्रों के विकासक्रमों को उपेक्षित नहीं किया जाना चाहिए । राजनीतिक एकीकरण के साथ सांस्कृतिक एकीकरण भी हुआ । भारतीय समाज दुनिया के उन थोडे-से समाजों में से एक था जो नस्ल धर्म और भाषा के भेदों के बावजूद कमोबेश एक समन्वित संस्कृति का विकास कर सका ।

यह समन्वित संस्कृति रचनात्मक कार्यो के उस उबाल में प्रतिबिंबित हुई जिसने सत्रहवीं सदी को एक दूसरा शास्त्रीय काल बना दिया । दक्षिण में विजयनगर साम्राज्य ने चोलों की परंपरा को जारी रखा । बहमनी साम्राज्य और उसके उत्तराधिकारी राज्यों ने भी विभिन्न क्षेत्रों के सांस्कृतिक विकासक्रमों में योगदान दिया ।

पंद्रहवीं सदी में विभिन्न क्षेत्रीय रजवाड़ों में हुए सांस्कृतिक विकासक्रम को एक सीमा तक मुगलों द्वारा विकसित नए सांस्कृतिक रूपों मे समन्वित किया गया । पर इस समन्वित संस्कृति पर दोनों धर्मो के कट्‌टरपंथियों के दबाव पड़ते रहे । शासक वर्ग के विभिन्न भागों के परस्पर विरोधी और टकरा रहे हितों ने भी समन्वयवादी तत्वों को कमजोर किया ।

लेकिन कुल मिला कर देखें तो उन्नीसवीं सदी के मध्य तक यह मिली-जुली संस्कृति जारी रही । यह उन सभी संतों विद्वानों और प्रगतिवादी शासकों के लिए कुछ कम श्रेय की बात नहीं है जिन्होंने उसे एक रूपरेखा दी थी ।

आर्थिक विकास और संवृद्धि भी इस काल की पहचान थे । व्यापार और विनिर्माण का प्रसार हुआ कृषि का भी प्रसार और सुधार हुआ । लेकिन विभिन्न क्षेत्रों और विभिन्न कालों में इनका विकास असमान रहा ।

मुगल गंगा की जिस वादी पर साम्राज्य के राजस्व संसाधनों का एक खासा बड़ा भाग खर्च करते थे उसके अलावा सत्रहवीं सदी में तेजी से विकास करनेवाले क्षेत्र गुजरात कोरोमंडल तट और बंगाल थे । सभवत: यह कोई संयोग नहीं कि आधुनिक काल में और खासकर स्वतंत्रता के बाद ये ही क्षेत्र भारत के आर्थिक विकास में आगे रहे हैं ।

मुगल साम्राज्य अगर रहता तो क्या भारत की आर्थिक प्रगति जारी रहती और यहाँ भी एक औद्योगिक क्रांति होती, जहाँ अठारहवीं सदी में व्यापार और विनिर्माण का प्रसार मुगल साम्राज्य के पतन के बावजूद जारी रहा वहीं पर विज्ञान और प्रौद्योगिकी ही नहीं बल्कि अन्य क्षेत्रों में भी यूरोप की अपेक्षा भारत पिछड़ा रहा ।

मसलन अधिकतर विनिर्माण कार्य छोटे पैमाने पर जारी रहे मशीनें शायद ही थीं और श्रमिक मामूली औजारों का ही उपयोग करते रहे । फलस्वरूप एक कारीगर चाहे जितना कुशल रहा हो, उसकी उत्पादकता और दक्षता कम ही रही । न ही दस्तकार पश्चिम की तरह व्यापारी और उद्यमी बन सके ।

कुछ हद तक जातिप्रथा और कुछ हद तक दस्तकारों के पास पूँजी का अभाव इसका प्रमुख कारण रहे । यह संपत्ति के घोर असमान वितरण का प्रतिबिंब था और इसने घरेलू बाजार को सीमित कर रखा था । सत्रहवीं और अठारहवीं सदियों में दादनी व्यवस्था का प्रसार हुआ । इससे उत्पादन तो बढ़ा पर दस्तकार भारतीय या विदेशी सौदागरों पर अधिकाधिक निर्भर होते चले गए ।

यही परिस्थितियाँ थीं जब अंग्रेजों ने भारत को जीता और उसे एक उपनिवेश बना लिया जो पहले की तरह पूर्व का विनिर्माण-केंद्र न रहकर कच्चे मालों की आपूर्ति करने लगा । यही उतार-चढ़ाव हैं जो इतिहास के अध्ययन को रोचक और लाभदायी दोनों बनाते हैं ।

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