ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय सरकार | Indian Government during the British Rule.

भारत सरकार (Government of India):

लार्ड क्रर्जन के मजबूत शासन ने भारतीय राष्ट्रीयता की शक्तियों के रोकने के बदले भारतीयों में राजनीतिक प्रगति की इच्छा तीव्र कर डाली । इस इच्छा ने कई स्थानों पर चरम रूप में अपने को प्रकट किया । सरकार ने कानून का हक कायम करने के लिए कुछ कार्रवाइयाँ तो की ही साथ ही उसने कुछ संविधानिक परिवर्तनों की योजना भी बनायी ।

ये परिवर्तन १९०९ ई॰ के मार्लेमिंटो सुधारों में अंगीभूत किये गये । इन सुधारों ने सार्वजनिक प्रश्नों के निर्णय में योग्य भारतीयों के सरकार से अधिक हद तक संबद्ध होने की व्यवस्था की । इस प्रकार गवर्नर-जनरल की एक्जिक्चूटिव कौंसिल में एक स्थान वास्तविक व्यवहार में किसी भारतीय सदस्य के लिए सुरक्षित रहता था ।

सत्येंद्र प्रसन्न सिंह (पीछे रायपुर के प्रथम लार्ड सिंह) प्रथम भारतीय थे जिन्हें गवर्नर- जनरल की कौसिल में कानून-सदस्य नियुक्त होने का सम्मान प्राप्त हुआ । मद्रास और बम्बई के गवर्नरों को एक्जिक्यूटिव कौसिलों के सदस्य बढ़ाकर चार कर दिये गये । १९०९ ई॰ में बंगाल में एक एक्जिक्यूटिव कौसिल का आगमन हुआ ।

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जब १९१२ ई॰ में बिहार और उड़ीसा का अलग प्रांत बना, तब से इसे भी उसी वर्ष एक एक्जिक्यूटिव कौंसिल दी गयी, यद्यपि तीन साल बाद संयुक्त प्रांत के लिए इस प्रकार का एक प्रस्ताव रह कर दिया गया । यह भी स्मरण रखना चाहिए कि यद्यपि १९०९ ई॰ के कानून में प्रांतीय एक्जिक्चूटिव कौंसिलों में भारतीयों की नियुक्ति की व्यवस्था का स्पष्ट रूप से उल्लेख न था, तथापि उनमें ऐसे सदस्यों के सम्मिलितकरने की प्रथा चल पड़ी । राजा किशोरी लाल गोस्वामी बंगाल की एक्विक्यूटिव कौंसिल के सदस्य नियुक्त हुए ।

१९०९ ई॰ के कानन की सबसे उल्लेखनीय विशेषता यह थी कि लेजिस्लेटिव कौंसिलों के निर्माण और कृत्यों में महत्वपूर्ण परिवर्तन लाया । केंद्रीय विधान-मंडल के अतिरिक्त सदस्यों की संख्या सोलह से बढ़ाकर-अधिक-से-अधिक साठ तक कर दी गयी इनमें अठाईस से अधिक सरकारी सदस्य नहीं हो सकते थे ।

गवर्नर-जनरल को तीन गैर-सरकारी सदस्य नामजद करने का अधिकार था, जो कतिपय निर्दिष्ट जातियों का प्रतिनिधित्व करते । उसके पास दो अन्य जगहें भी थीं, जो नामजदगी से भरी जानेवाली थीं ।

बाकी सत्ताईस जगहें गैर-सरकारी निर्वाचित सदस्यों द्वारा भरी जानेवाली थीं । इनमें से कुछ कतिपय विशेष निर्वाचन-क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते थे जैसे-सात प्रांतों में जमींदार (भूमिपति) पाँच प्रांतों में, मुसलमान, कलकत्ता और बम्बई में दो व्यापार-मंडल, जब कि तेरह अन्य सदस्य नौ प्रांतीय लेजिस्लेटिव कौंसिलों के गैर-सरकारी सदस्यों द्वारा चुने जानेवाले थे ।

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इस प्रकार केंद्रीय लेजिस्लेटिव कौंसिल में एक छोटा सरकारी बहुमत कायम रह गया । लार्ड मार्ले ने साफ-साफ कहा कि गवर्नर-जनरल की कौंसिल अपने कानून-निर्माता एवं कार्यपालक रूप में इस तरह बनी रहे जिससे इसकी अविरल और अविछिन्न शक्ति कायम रहे ।

ऐसा होने से यह उन संविधानिक कर्त्तव्यों को पूरा कर: सकेगी, जो यह सम्राट् (हिज मैजेस्टी) की सरकार और साम्राज्यीय पार्लियामेंट के प्रति रखती है तथा इसे बराबर रखना चाहिए । प्रांतीय लेजिस्लेटिव कौंसिलों में अतिरिक्त सदस्यों की संख्या बढ़ाकर बड़े प्रांतों में अधिक-से-अधिक पचास कर दी गयी ।

साथ ही, ऐसा प्रबंध किया गया जिससे सरकारी और नामजद किये गये सैर-सरकारी सदस्यों के मिला देने पर उन्हें निर्वाचित सदस्यों के ऊपर एक छोटा बहुमत मिल जाए । इसका अपवाद केवल बंगाल रहा, जहाँ स्पष्ट रूप से निर्वाचित सदस्यों का बहुमत था ।

इन अतिरिक्त सैर-सरकारी सदस्यों का अधिकतर भाग स्थानीय संस्थाओं के समूहों, जमीदारों, व्यापार-संघों और विशविद्यालयों द्वारा चुना जानेवाला था । १९०९ ई॰ के सुधारों ने मुसलमान जाति की पृथक् प्रतिनिधित्व की माँग को मान लिया । गृह प्रतिनिधित्व मुसलिम निर्वाचन-क्षेत्र के मत्तों द्वारा चुने गये सदस्यों द्वारा होता ।

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इस प्रकार इन सुधारों ने सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व के सिद्धांत को चालू किया । यह, जैसा कि इंडियन स्टैटयूटरी कमीशन ने १९२९ ई॰ में कहा- “भारतीय चुनाव-पद्धति के प्रत्येक संशोधन” में एक प्रधान समस्या और विवाद का कारण बन गया ।

जहाँ तक विधान-मंडलों के कृत्यों का सम्बन्ध है, १९०९ ई॰ के कानून ने उन्हें (विधानमंडलों को) अधिकार दिया कि वे बजट के अंतिम रूप में तय होने के पहले उस पर तथा सामान्य हित की कतिपय बातों पर भी विवाद करें एवं प्रस्ताव लावें । उनके प्रस्ताव एक्जिक्यूटिव सरकार के प्रति सिफारिशों के रूप में प्रकट किये जानेवाले एवं कार्यकर होनेवाले थे ।

उनका कोई भी प्रस्ताव सरकार का प्रधान, कौंसिल के अध्यक्ष की हैसियत से काम करते हुए, अपने विवेक से अस्वीकार कर सकता था । सेना, वैदेशिक सम्बन्धों एवं भारतीय रियासतों की बातों पर और अन्य विविध बातों पर कोई-प्रस्ताव नहीं लाया जा सकता था ।

यद्यपि मार्ले-मिंटो सुधार प्रतिनिधित्वपूर्ण शासन के लाने में एक महत्वपूर्ण कदम थे तथापि इन्होंने भारत को संसदीय शासन नहीं दिया । इसे लार्ड मार्क ने स्वयं साफ तौर से स्वीकार कर लिया जब उसने १७ दिसम्बर, १९०८ को हाउस ऑफ लॉर्डस (लार्ड-सभा) में कहा “यदि यह कहा जा सकता कि सुधारों के इस परिच्छेद से ही प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में भारत में संसदीय प्रणाली की स्थापना हुई, तो कम-से-कम मेरा इससे कोई सम्बन्ध नहीं रहेगा” ।

वस्तुत: अभी भी भारतीय शासन ह्वाइटहॉल के प्रति पूर्णतया उत्तरदायी था । गैर-सरकारी सदस्य जवाबदेह तरीके से काम नहीं कर सकते थे क्योंकि उनका कहना सरकार की आधारभूत नीति में कोई रूपभेद नहीं ला सकता था ।

जैसा कि भारतीय संविधानिक सुधार प्रतिवेदन (१९१८ ई॰) के लेखकों ने कहा- “१९०९ ई॰ के सुधारों ने भारतीय राजनीतिक समस्याओं का कोई समाधान नहीं दिया और न वे दे ही सकते थे । उत्तरदायित्व जन-शासन का स्वाद है और इस स्वाद की वर्तमान कौंसिलों में पूरी कमी है ।” अप्रत्यक्ष निर्वाचन और पृथक् सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व में भी स्पष्टतया असुविधाएँ थीं ।

मार्ले-मिंटो सुधार भारतीय जनता के आशानुरूप नहीं हुए । अतएव जनता का असंतोष कम नहीं हुआ । इन सुधारों के लागू होने के पाँच वर्षों के भीतर ही प्रथम विश्व-युद्ध छिड़ गया । इस समय भारतीय जनता ने जोर-जोर से अपने दावे दोहराये । दो योजनाएँ रखी गयीं । एक श्री गोपालकृष्ण गोखले की थी और दूसरी राष्ट्रीय कांग्रेस एवं मुसलिम लीग की संयुक्त योजना थी ।

संविधानिक सुधारों के निमित्त भारतीयों की व्यापक् माँगों को संतुष्ट करने और युद्ध में ग्रेट ब्रिटेन के प्रति उनकी एकनिष्ठ सेवाओं को स्वीकृति देने के लिए भारत के राज्य-सचिव मिस्टर एडविन मौंटेगू ने २० अगस्त, १९१७ ई॰ को हाउस ऑफ कॉमंस में यह प्रसिद्ध घोषणा कि- “ब्रिटिश सम्राट् (हिज मैजेस्टी) की सरकार की नीति, जिससे भारत सरकार पूर्णतया सहमत है, यह है कि शासन को प्रत्येक शाखा में भारतीयों का सम्बन्ध बड़े और स्वायत्त शासनात्मक संस्थाओं का धीरे-धीरे विकास हो, जिससे ब्रिटिश साम्राज्य के एक पूर्ण अंग के रूप में भारत में उत्तर-दायित्वपूर्ण शासन अधिक कार्यान्वित हो ।”

वह १९१७ ई॰ के नवम्बर के प्रारंभ में भारत आया । विस्तृत यात्रा करके उसने इस देश के लोकमत का निश्चय किया । अप्रैल, १९१८ ई॰ में उसने भारतीय संविधानिक सुधार प्रतिवेदन प्रकाशित किया । यह सामान्यतया मौंटेगु-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट के नाम से प्रसिद्ध है । यही रिपोर्ट १९१९ ई॰ के भारत-शासन कानून का आधार बनी । उक्त कानून १९२१ ई॰ के प्रारम्भ में लागू हुआ ।

इस कानून ने यथा-संभव केंद्रीय और प्रांतीय सरकारों के कृत्यों का स्पष्ट विभाजन कर दिया । केंद्र को इनके संबंध के कर्त्तव्य सुपुर्द हुए-प्रतिरक्षा, राजनीतिक एवं बाह्य मामले, प्रमुख रेलवे एवं अन्य सामरिक परिवहन, डाक और तार, चलित नोट एवं प्रचलित मुद्रा, सार्वजनिक ऋण, वाणिज्य, दीवानी एवं फौजदारी कानून और कार्य- प्रणाली, धार्मिक शासन, अखिल भारतीय सेवाएँ (नौकरियाँ) अनुसंधान की कतिपय संस्थाएँ तथा अन्य सभी विषय जो प्रांतीय विषयों के रूप में उल्लिखित न हों ।

प्रांतीय सरकारों को इनके सम्बन्ध में कर्त्तव्यभार दिया गया-आंतरिक कानून और व्यवस्था, न्याय एवं जेलों का शासन, सिंचाई, बन, फैक्ट्रियों का निरीक्षण, श्रमिक प्रश्नों का सुपर्यवेक्षण, अकाल में सहायता, भूमि-राजस्व-शासन, स्थानीय स्वायत्त शासन, शिक्षा, मैडिकल विभाग, आरोग्य एवं सार्वजनिक स्वास्थ्य, सार्वजनिक निर्माण, कृषि, उद्योगों का विकास, आबकारी और सहयोग-समितियाँ । आय के स्रोतों और राजस्व के मदों के सम्बन्ध में भी केंद्रीय एवं प्रांतीय सरकारी क्षेत्रों का सीमानिर्देश कर दिया गया ।

१९१९ ई॰ के कानून का गृह सरकार पर क्या फल हुआ । अब हमें इसका अध्ययन करना है कि इसने किस प्रकार भारत सरकार को रूपभेदित किया । यह केंद्रीय सरकार में द्वैध शासन नहीं लाया । गवर्नर-जनरल पूर्ववत् राज्य-सचिव एवं पार्लियामेंट के प्रति सीधे उत्तरदायी रहा, भारतीय विधान-मंडल के प्रति नहीं ।

एक्विक्यूटिव कौंसिल बड़ी कर दी गयी । यद्यपि यह बात कानून में उल्लिखित नहीं थी, तथापि, १९२१ ई॰ के बाद यह प्रथा चल पड़ी कि इसके तीन सदस्य योग्य भारतीयों में से लिये जाने लगे । लार्ड सिंह के बाद सर अली इमाम कानून-सदस्य हुए । किन्तु अगले भारतीय सदस्य सर शंकरन नायर को शिक्षा का कार्य-भार मिला । १९२० ई॰ के बाद कोई-न-कोई प्रसिद्ध भारतीय वकील ही बराबर कानून-सदस्य के पद पर रहा । अर्थ-सदस्य ब्रिटिश राजस्व-विभाग से लिये जाते थे ।

केंद्रीय विधान-मंडल का रूप बिलकुल बदल गया । वह द्विसदनीय बना दिया गया । दोनों सदनों के नाम कौंसिल ऑफ स्टेट (राज्य-परिषद्) और लेजिस्लेटिव एसेंबली हुए । एक्विक्यूटिव कौंसिल के सदस्य गवर्नर-जनरल द्वारा नामजद होने पर विधान-मंडल के एक या दूसरे सदन के सदस्य बन सकते थे ।

राज्य-परिषद् अथवा ऊपरी सदन मुख्यत: संशोधन-कारिणी संस्था के रुप में था । इसके साठ से अधिक सदस्य नहीं होने थे, जिनमें चौंतीस को निर्वाचित होना था । बीस से अधिक सरकारी सदस्य नहीं होने थे । लेजिस्लेटिव एसेंबली निचला और अधिक लोकप्रिय सदन थी । इसके एक सौ चालीस सदस्य होने थे ।

यह संख्या पीछे बढ़ाकर एक सौ पैतालीस कर दी गयी । इनमें एक सौ पाँच निर्वाचित थे, छब्बीस नामजद सरकारी सदस्य थे और चौदह नामजद गैर-सरकारी सदस्य थे । दोनों सदनों में प्रत्यक्ष निर्वाचन था । मताधिकार उच्च सांपत्तिक योग्यता पर आधारित था ।

एसेंबली के लिये जो मताधिकार था, वह कौंसिलवाले मताधिकार की अपेक्षा कुछ अधिक विस्तृत था । राज्यपरिषद् का जीवन काल पाँच वर्ष निश्चित किया गया और एसेंबली का ने, वर्ष । किन्तु गवर्नर-जनरल को अधिकार था कि वह किसी सदन को भंग कर दे अथवा विशेष परिस्थितियों… में इसका जीवन-काल बढ़ा दे । दोनों सदनों के अधिकार समपदस्थे थे किन्तु अनुदानों की माँग निचले सदन में पेश होती थी ।

दोनों सदनों के बीच जिच होने पर (जिस अवस्था में बहुत जटिलता के कारण मामला आगे न चल सकता था) गवर्नर-जनरल संयुक्त अधिवेशन बुला सकता था । राज्य-परिषद् का एक अध्यक्ष होता था, जिसे गवर्नर-जनरल उसके सदस्यों में से नामजद करता था ।

एसेंबली के भी अपने अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष होते थे । अध्यक्ष प्रथम चार वर्षों के लिए गवर्नर-जनरल द्वारा नियुक्त होता था तथा इसके बाद सदन द्वारा ही निर्वाचित होता था । केंद्रीय विधान-मंडल के अधिकार सिद्धांत में विस्तृत बना दिये गये ।

केंद्रीय और प्रांतीय सरकारों के बीच कृत्यों के सीमानिर्देशन के बावजूद केंद्रीय विधान-मंडल को समस्त ब्रिटिश भारत के लिए कानून बनाने का अधिकार था । उस पर सिर्फ यही प्रतिबंध था कि कुछ मामलों में बिल पेश करने के लिए गवर्नर-जनरल की पूर्व स्वीकृति आवश्यक थी ।

और भी, यदि गवर्नर-जनरल द्वारा सिफारिश किया हुआ कोई बिल किसी सदन द्वारा वोट से अस्वीकृत हो गया या असंतोषजनक रूप से संशोधित हो गया, तो गवर्नर- जनरल को अधिकार था कि वह मूल बिल को ब्रिटिश भारत की सुरक्षा और शांति के लिए आवश्यक प्रमाणित करें ।

आकस्मिक संकट होने पर उसे फरमान (आर्डिनेंस) लागू करने का भी अधिकार था । ये आर्डिनेंस मूलत: छ: महीनों के लिए दुाई प्रभावकारी होते थे, किन्तु आवश्यक होने पर पीछे कानून में अंगीभूत हो सकते थे । इस प्रकार गवर्नर-जनरल “भारतीय विधान-मंडल का प्रमुख नहीं, तो महत्वपूर्ण तत्व” अवश्य था । जहाँ तक वित्त का संबंध है, केंद्रीय विधान-मंडल को, कतिपय निर्दिष्ट अपवादों के साथ, उसपर कुछ नियंत्रण दिया गया था ।

इस प्रकार ऋणों पर सूद एवं सिंकिंग फंड चार्ज के निमित्त, गवर्नर-जनरल द्वारा राजनीतिक, धार्मिक एवं प्रतिरक्षा कहकर वर्गीकृत व्यय के लिए, और ब्रिटिश सम्राट् या सेक्रेटरी ऑफ स्टेट-इन-कौंसिल के अधिकार से नियुक्त व्यक्तियों के वेतनों या पेंशनों की अदायगी के लिए जो खर्च के प्रस्ताव होते थे उन्हें विधान-मंडल के वोट के सामने पेश नहीं करना पड़ता था ।

इनके लिए यही काफी था कि सरकार ने इन कामों के लिए अलग रकमें रखी है । और भी, आकस्मिक संकट होने पर गवर्नर-जनरल को अधिकार था कि वह किसी ऐसे व्यय को प्रमाणित कर दे, जिसे वह ब्रिटिश भारत या उसके किसी भाग की सुरक्षा एवं शांति के लिए आवश्यक समझता था । इस प्रकार कानून-निर्माण एवं वित्त दोनों पर विधान-मंडल का नियंत्रण वस्तुत: अत्यंत सीमित था ।

जब हम प्रांतीय सरकार पर विचार करते हैं, तब पाते है कि १९१९ ई॰ के कानून बंगाल, बम्बई एवं मद्रास के रेगुलेशन प्रांतों और पंजाब, आसाम आदि के गैर-रेगुलेशन प्रांतों के बीच का अंतर हटा दिया । प्रांतों की संख्या दस थी ।

१९२३ ई॰ से बर्मा और १९३२ ई॰ से उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत भी इस श्रेणी में आ गये । सभी प्रांत गवर्नरों के प्रांत बन गये । प्रत्येक का प्रधान गवर्नर हुआ, जो ब्रिटिश सम्राट् द्वारा नियुक्त होता था । प्रांत के गवर्नर के बहुत अधिकार और विशेषाधिकार थे । अतएव वह इसका वास्तविक अधिकारी बना रहा । इस कानून ने प्रांतीय कार्यपालिका में डायर्की या द्वैध शासन लागू किया ।

गवर्नर और उसकी एक्जिक्यूटिव कौंसिल को “रक्षित विषयों” (“रिजर्व्ड सब्‌जेक्ट्स”) के सम्बन्ध में अधिकार से संपन्न किया गया । इनके शासन के लिए वह (गवर्नर) विधान-मंडल के प्रति नहीं, अपितु गवर्नर-जनरल और व्हाइटहॉल के प्रति उत्तरदायी था । “हस्तांतरित विषय” (“ट्रांसफर्ड सब्‌जेक्ट्स”) गवर्नर के जिम्मे रख दिये गये जो अपने मंत्रियों के साथ कार्य करता था । मंत्री प्रांतीय लेजिस्लेटिव कौसिल के निर्वाचित सदस्यों में से गवर्नर द्वारा नियुक्त होते थे ।

इन निर्वाचित सदस्यों की संख्या प्रांत-प्रांत में अलग-अलग थी और एक प्रांत में भी समय-समय पर बदलती रहती भी । मंत्रियों का पदासीन होना गवर्नर की इच्छा पर निर्भर था । सिद्धांत में यही बात ग्रेट ब्रिटेन और कैनेडा में रही है । लेकिन रीति और प्रथा से इन दोनों देशों में विधानमंडल के प्रति मंत्री के उत्तरदायित्व का सिद्धांत स्थापित हो चला है ।

मंत्रियों के लिए विधान-मंडल का विश्वास बनाये रखना आवश्यक था । लेकिन इसके प्रति उनका उत्तरदायित्व धीरे-धीरे इस रूप में “बिगड़ता गया कि वे न हटाने योग्य कार्यपालिका बन बैठे” । और भी, हस्तांतरित विषयों में गवर्नर के हस्तक्षेप अधिकार व्यापक थे ।

विभिन्न प्रांतों को एकसदनीय विधानमंडल मिले, जिन्हें लेजिस्लेटिव कौंसिल कहते थे । प्रत्येक लेजिस्लेटिव कौंसिल की सदस्यता बढ़ा दी गयी-बंगाल में १३९ (पीछे बढ़ाकर १४० कर दी गयी), मद्रास में १२७ (१३२), युक्त प्रांत में १२३, बम्बई में १११ (११४), बिहार और उड़ीसा में १०३, पंजाब में ९३ (९४), मध्य प्रदेश में ७०(७३) और आसाम में ५०(५३) । कम-से-कम सत्तर प्रतिशत सदस्यों को निर्वाचित होना था ।

मनोनीत सदस्यों में बीस प्रतिशत से अधिक सरकारी सदस्य नहीं हो सकते थे । भूमिपति, वाणिज्य-संघ एवं विश्वविद्यालय-जैसे विभिन्न समूहों और मुसलमानों यूरोपियनों, ऐंग्लोइंडियनों, भारतीय ईसाइयों एवं पंजाब में सिखों को उनके अपने निर्वा- चक-दलों के द्वारा अलग प्रतिनिधित्व मिला ।

प्रथम चार वर्षों में प्रांत का गवर्नर स्थानीय विधानमंडल का अध्यक्ष नियुक्त करता था । इस अवधि के बीत जाने पर लेजिस्लेटिव कौंसिलों को अपना अध्यक्ष चुनने का विशेषाधिकार दिया गया । प्रत्येक लेजिस्लेटिव कौंसिल को प्रांत-सम्बन्धी किसी भी विषय पर बिल लेने का विशेषाधिकार दिया गया ।

इसकी स्वीकृति के बिना हस्तांतरित विषयों में किसी से सम्बन्ध रखनेवाला कोई बिल पास नहीं हो सकता था । लेकिन रक्षित विषयों में किसी से सम्बन्ध रखनेवाला कोई बिल इसके ऊपर और इसकी अस्वीकृति के बावजूद कानून बन सकता था, यदि गवर्नर प्रमाणित कर दे कि यह प्रांत की सुरक्षा एवं शांति कायम रखने के लिए उसके विशेष उत्तरदायित्व को देखते हुए आवश्यक था ।

और भी, खास-खास बिलों के पेश करने के लिए गवर्नर-जनरल की पूर्व स्वीकृति आवश्यक थी । जहाँ तक वित्त का सम्बन्ध है, इसकी व्यवस्था थी कि खास-खास बातों को छोड्‌कर अनुमानित आय एवं व्यय का बजट अनुदानों की माँग के रूप में लेजिस्लेटिव कौंसिल के सामने रखा जा सकता था ।

जहाँ तक हस्तांतरित विषयों का सम्बन्ध था, कौंसिल किसी माँग को कम कर सकती थी या अस्वीकार कर सकती थी । किन्तु यदि रक्षित विषयों में कोई माँग कौंसिल द्वारा अस्वीकृत या रूपभेदित हो जाती थी तो गवर्नर को अधिकार था कि यह मूल मांग में दिये गये व्यय को अपने उत्तरदायित्व के निर्वाह के लिए आवश्यक कहकर प्रमाणित करें । इस प्रकार कानून-निर्माण और वित्त दोनों मामलों में रक्षित विषयों पर कौंसिल का अधिकार अत्यंत सीमित था ।

इसमें संदेह नहीं कि १९१९ ई॰ के भारत-शासन कानून ने शासन के अत्यंत सीमित क्षेत्र में ही जनता के प्रतिनिधियों को वास्तविक उत्तरदायित्व दिया । और यदि सच्ची प्रजातांत्रिक कार्रवाई के रूप में निर्णय किया जाए, तो इसमें केंद्रीय और प्रांतीय दोनों सरकारों के बारे में कतिपय इटियां थीं ।

फिर भी इसे संविधानिक सुधार की एक महत्वपूर्ण किश्त समझनी चाहिए । पहली बार ब्रिटिश सरकार ने सरकारी तौर पर न केवल डोमिनियन स्टेटस (औपनिवेशिक स्वराज्य), बल्कि उत्तरदायित्वपूर्ण सरकार को भी भारतीय संविधानिक बिकास के उद्देश्य के रूप में रखा ।

उत्तरदायित्वपूर्ण शासन का एकमात्र अर्थ ब्रिटिश टाइप का संसदीय शासन होता, जिसे लार्ड मार्क ने १९०८ ई॰ में भी अस्वीकार कर डाला था । पहली बार अपेक्षाकृत विस्तृत मताधिकार के आधार पर प्रत्यय निर्वाचन लागू किया गया और यह एक महत्वपूर्ण रियायत थी । और भी, लोगों को राजनीतिक प्रशिक्षण एवं सरकार के कामों पर प्रभाव डालने-दोनों के लिए बहुमूल्य अवसर दिया गया ।

इस कानून में यह व्यवस्था भी की गयी कि नवीन संविपान के कार्यान्वित होने के एक दशाब्दी के बाद पार्लियामेंट की स्वीकृति से एक जांच बायोग निर्मित होना चाहिए, जो उचित जांच-पड़ताल के बाद रिपोर्ट करेगा कि न्यूदायित्वपूर्ण शासन आगे बढ़ाया जाए या सीमित कर दिया जाए ।

१९१९ ई॰ के सुधारों ने भारतीयों की राष्ट्रीय उच्चाकांक्षाओं को संतुष्ट नहीं । स्वाधीनता के राष्ट्रीय संघर्ष पर उनका (सुधारों का) जो प्रभाव पड़ा, उसका वर्णन आगे एक परिच्छेद में किया गया है । राजनीतिक प्रगति के लिए भारतीय माँग धीरे-धीरे अधिक जोर पकड़ती गयी ।

इसलिए मिस्टर बाल्डविन की कंजर्वेटिव सरकार ने, जिसमें स्वर्गीय लार्ड बर्केनहेड भारत के राज्य-सचिव थे, १९१९ ई॰ के कानून में दिये गये समय के पूर्व ही सर जौन साइमन की अध्यक्षता में एक विधिबद्ध आयोग (स्टचूटरी कमीशन) नियुक्त कर दिया, जिसका काम था सुधारों के कार्यान्वयन पर रिपोर्ट देना । इस आयोग के सातों सदस्य ब्रिटिश थे ।

अत: जब यह तीन फरवरी, १९२८ ई॰ को बम्बई में उतरा, तब कांग्रेसवालों, लिबरलों एवं मुसलिम जाति के महत्वपूर्ण वर्गों ने इसका बायकाट (बहिष्कार) किया । एक अधिक विस्तृत कारण भी था, जिसे कांग्रेसवालों ने सामने रखा । उनका कहना था कि यह आत्म-निर्णय के सिद्धांत से मेल नहीं खाता कि किसी बाहरी अधिकारी द्वारा नियुक्त आयोग की सिफारिशों पर संविधानिक परिवर्तन किये जाएँ ।

भारत की कठिन परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए सर जौन साइमन ने १६ अक्टूबर, १९२९ ई॰ को मिस्टर रैमजे मैकडोनल्ड को एक पत्र लिखा । मिस्टर रैमझे मैकडोनल्ड मजदूर दल का था और उस समय प्रधान मंत्री था, क्योंकि १९२९ ई॰ के आम चुनाव के बाद मजदूर दल सत्तारूढ़ हो गया था ।

साइमन ने उक्त पत्र में सुझाव दिया कि उसके आयोग की रिपोर्ट के प्रकाशित हो जाने के बाद और अंतिम निर्णय लेने के पहले ब्रिटिश भारत एवं भारतीय रियासतें दोनों के प्रतिनिधियों को एक सम्मेलन के लिए आमंत्रित करना उचित होगा । यह सुझाव ब्रिटिश मंत्रिमंडल द्वारा मान लिया गया ।

३१ अक्टूबर, १९२९ ई॰ को गवर्नर-जनरल लार्ड इरविन ने अत्यंत महत्वपूर्ण घोषणा की “कि भारत की संविधानिक प्रगति की स्वाभाविक समस्या…….डोमिनियन स्टेटस की प्राप्ति है” तथा साइमन कमीशन की रिपोर्ट के बाद लंदन में एक गोलमेज परिषद् (राउण्ड टेबुल कांफेंस) होगी ।

साइमन कमीशन कोई रिपोर्ट मई, १९३० में प्रकाशित हुई । संक्षेप में, इसने प्रान्तों में पूर्ण उत्तरदायित्वपूर्ण शासन की सिफ़ारिश की । यहाँ तक कि इसने पुलिस और न्याय का नियंत्रण भी मंत्रियों को हस्तांतरित कर दिया, जो विधानमंडलों के प्रति उत्तरदायी थे ।

विधान-मंडलों को अधिक विस्तृत मताधिकार पर आधारित होना था तथा सरकारी पक्ष को चला जाना था । केंद्रीय सरकार में इसने सिफारिश की कि पूर्ण ब्रिटिश अधिकार और नियंत्रण जारी रहे ।

इसने भारतीय रियासतों से संपर्क वृद्धि के महत्व को बतलाया तथा एक ऐसे अखिल भारतीय संघ की योजना का अंदाज किया जिसमें देशी राजा भी हो । हाँ, इसकी पूर्ण कार्यान्विति दूर की संभावना समझी गयी । लेकिन कमीशन की सिफारिसों को भारतीय राष्ट्रवादियों ने बिना किसी तकल्लुफ के अस्वीकार कर दिया । तब ब्रिटिश सरकार ने लंदन में एक गोलमेज परिषद् बुलायी ।

इसका उद्देश्य था भारतीय संविधान के प्रश्न पर विचार करना । इसमें तीन ब्रिटिश राजनीतिक दलों के सोलह प्रतिनिधि, भारतीय रियासतों से सोलह प्रतिनिधि और ब्रिटिश भारत से सत्तावन प्रतिनिधि थे जिनमें सर तेजबहादूर सप्रु, श्री श्रीनिवास शास्त्री, श्री सी॰ वाई॰ चिंतामणि, डाक्टर बी॰ आर॰ अंबेडकर और सर मुहम्मद शफी-जैसे कुछ प्रमुख भारतीय भी सम्मिलित थे ।

परिषद् का पहला अधिवेशन १२ नवम्बर, १९३० ई॰ से १९ जनवरी, १९३१ ई॰ तक चला । देशी राजाओं ने इस शर्त पर प्रस्तावित संघ में आने की अपनी इच्छा घोषित की कि केंद्रीय सरकार को उत्तरदायित्व मिल जाए । कांग्रेस ने पहले इस परिषद् में भाग नहीं लिया ।

पीछे गाँधीजी इसके एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में दूसरे अधिवेशन (७ सितम्बर से १ दिसम्बर, १९३१ ई॰ तक) में सम्मिलित हुए । किन्तु वे जो चाहते थे वह नहीं पा सके । परिषद् का तीसरा अधिवेशन १७ नवम्बर से २४ दिसम्बर, १९३२ ई॰ तक चला । इसमें पहले की अपेक्षा कहीं कम प्रतिनिधियों ने भाग लिया ।

परिषदों में हुए वादविवादों के फलस्वरूप ब्रिटिश सरकार ने भारतीय संविधान के सुधार के लिए अपने प्रस्तावों का मसविदा बनाया । ये प्रस्ताव मार्च, १९३३ ई॰ में प्रकाशित श्वेतपत्र में अंगीभूत हुए । यह श्वेत पत्र भारतीय कानूनी सहायकों की मदद से पार्लियामेंट के दोनों सदनों की संयुक्त समिति द्वारा जाँचा गया ।

इस समिति का अध्यक्ष था लार्ड लिनिलिथगो, जो १९३६ ई॰ से का वाइसराय था । समिति ने कुछ रूपभेदों के साथ श्वेत पत्र के प्रस्तावों को मान तथा अक्टूबर, १९३४ ई॰ में अपनी रिपोर्ट पेश की । इस समिति की रिपोर्ट पर एक बिल तैयार कराया गया, जिसे गवर्नमेंट ऑफ इंडिया बिल, १९३५ कहते है । यह पार्लियामेंट में पेश हुआ । कुछ परिवर्तनों के साथ यह २ अगस्त, १९३५ ई॰ को ऐक्ट (कानून) बन गया ।

१९३५ ई॰ के कानून में दो मुख्य सिद्धांत अंगीभूत थे:

(१) एक अखिल भारतीय संघ, जिसमें गवर्नरों के प्रांत, चीफ कमीश्नरों के प्रांत एवं संघ में सम्मिलित होनेवाली भारतीय रियासतें हों; और

(२) प्रांतीय स्वराज्य, जिसमें प्रत्येक गवर्नरवाले प्रांत की सरकार निर्वाचित विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी हो ।

अब तक राज्य-सचिव, भारत सरकार एवं प्रांतों के जो कृत्य थे वे, क्राउन द्वारा फिर से ले लिये गये । क्राउन ने अब उन्हें केंद्रीय सरकार और प्रांतों के बीच पुन: बाँट दिया । जहाँ तक भारतीय रियासतों का सम्बन्ध है, अब से आधिपत्य के कृत्य एवं अधिकार भारत सरकार द्वारा नहीं बल्कि “क्राउन के इन कृत्यों के उपभोगार्थ हिज मैजेस्टी के प्रतिनिधि” द्वारा उपयुक्त होते ।

साधारणतया गवर्नर-जनरल ही यह पद भी धारण करता था, यद्यपि यह आवश्यक नहीं था । मगर उस समय गवर्नर-जनरल संघीय सरकार का प्रधान न होकर हिज मैजेस्टी का प्रतिनिधि होता था ।

और भी, वैदेशिक मामले, धार्मिक मामले एवं प्रतिरक्षा-जैसे कतिपय महत्वपूर्ण विभाग भारतीय विधान-मंडल के नियंत्रण से हटा लिये गये थे । इनका शासन गवर्नर-जनरल द्वारा केवल ह्वाइटहॉल के अधीक्षण एवं निर्देशन में होना था ।

मंत्रियों के नियंत्रण में जो कृत्य हस्तांतरित हो गये थे उनके सम्बन्ध में गवर्नर-जनरल एवं प्रांतों के गवर्नरों को विशेष अधिकारों से संपन्न किया गया । इन कृत्यों के लिए वे ब्रिटिश पार्लियामेंट के प्रति उत्तरदायी थे । इस प्रकार, इस कानून के अन्तर्गत भी, भारत की संविधानिक स्थिति एक अधीन राष्ट्र की थी, यद्यपि यह धीरे-धीरे डोमिनियन की स्थिति की ओर खिंच रहा था ।

रियासतें “स्वतंत्र” अस्तित्वयुक्त-वस्तुएँ थीं । अत इन्हें संघ में आने को लाचार न किया जा सका । इसमें आनेवाली हर रियासत को अपने शासक की मार्फत ‘पहुँच का कानूनी लेखपत्र’ (इंस्ट्रूमेंट ऑफ ऐक्सेशन) तैयार कराना पड़ता था । रियासत के संघ का सदस्य होने के पईहले इसका क्राउन द्वारा स्वीकृत होना आवश्यक था ।

इन दो शर्तों के पूर्ण होने पर हिज मैजेस्टी द्वारा संघ को घोषित होना था:

(१) पार्लियामेंट के प्रत्येक सदन द्वारा उस पक्ष की ओर से राजा के पास एक अभिनंदन पत्र दियाजाना चाहिए; तथा

(२) जिन रियासतों को संघीय विधान-मंडल के ऊपरी सदन में बावन से अधिक सदस्यों के चुनने का अधिकार तथा जिनकी जनसंख्या रियासतों की कुल जनसंख्या की आधी से अधिक थी, उन्हें इसमें अवश्य सम्मिलित होना चाहिए ।

चूँकि संघ का वर्णनकरनेवाला कानून का यह अंश कभी भी वास्तव में कार्यान्वित नहीं हुआ, इसलिए विस्तारपूर्वक विवरण देने की जरूरत नही है और हम केवल संक्षेप में ही इसकी धाराओं का वर्णन करेंगे । इस कानून ने एक “संघीय कार्यपालिका” (“फेडरल एक्जिक्यूटिव”) की व्यवस्था की ।

यह द्वैधशासनात्मक प्रकृति की थी जिसके दो भाग थे । इनमें से एक पर “हस्तांतरित विभागों” का भार था । इसे विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी रहना था । दूसरे का सम्बन्ध वैदेशिक मामले, प्रतिरक्षा आदि-जैसे निर्दिष्ट रक्षित विभागों से था ।

इसे केवल गवर्नर-जनरल के अधिकार में रहना था, जो इन बातों में सिर्फ ब्रिटिश पार्लियामेंट के प्रति उत्तरदायी था । उन विषयों में भी, जो मंत्रियों को सौंपे जानेवाले थे, गवर्नर-जनरल को विशेष अधिकार एवं उत्तरदायित्व दिये गये तथा अपनी जवाबदेही पर काम करने की स्वतंत्रता मिली ।

संघीय विधान-मंडल को एक द्विसदनीय संस्था होना था । इसमें “निचला सदन” और “ऊपरी सदन” होते । पहले को हाउस ऑफ एसेंबली या संघीय एसेंबली कहते थे । दूसरा कौंसिल ऑफ स्टेट कहलाता था ।

निचले सदन में ब्रिटिश भारत के दो सौ पचास प्रतिनिधि होते तथा भारतीय रियासतों के प्रतिनिधियों की संख्या एक सौ पचीस से अधिक नहीं होती । संघीय एसेंबली के सदस्य जनता के निर्वाचन-क्षेत्रों द्वारा न चुने जाकर प्रांतों की लेजिस्लेटिव एसेम्बलियों द्वारा चुने जाते ।

इस अप्रत्यक्ष चुनाव में भी सामान्य (हिन्दू) मुस्लिम और सिख स्थानों को प्रांतीय एसेम्बलियों के इन जातियों के प्रतिनिधियों द्वारा ही भरा जाता, जो प्रत्येक जाति के निमित्त निश्चित स्थानों के लिए अलग-अलग वोट देते ।

राज्य-परिषद् (कौंसिल ऑफ स्टेट) या ऊपरी सदन में ब्रिटिश भारत के लिए एक सौ छप्पन सदस्य होते तथा संघ में सम्मिलित होनेवाली रियासतों के लिये सदस्यों की संख्या एक सौ चार से अधिक नहीं होती । रियासतों के सदस्यों को अपने-अपने शासकों द्वारा नियुक्त होना था ।

ब्रिटिश भारत के सदस्यों में छ: को गवर्नर-जनरल द्वारा मनोनीत होना था, जिससे अल्पसंख्यक जातियों, दलित वर्गों एवं स्त्रियों को उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त हो जाए बाकी को सांप्रदायिक निर्वाचत-दलों द्वारा उच्च मताधिकार पर प्रत्यक्ष रूप में निर्वाचित होना था, केवल कुछ को अप्रत्यक्ष रूप में निर्वाचित होना था । संघीय एसेंबली का जीवन काल पाँच वर्षों के लिए होता ।

किन्तु गवर्नर-जनरल इसे अपनी इच्छा से पहले भी भंग कर सकता था । राज्य-परिषद् को एक स्थायी संस्था होना था, जो कभी भंग नहीं होती । प्रत्येक सदस्य का कार्यकाल नौ वर्षों से अधिक नहीं होता तथा सदस्यों की पूरी संख्या की एक तिहाई को प्रत्येक तीन वर्षों पर हट जाना था ।

कुछ मामूली ब्योरों को छोड्‌कर दोनों सदनों को करीब-करीब सभी तरहों से समपदस्थ अधिकार मिले थे, यहाँ तक कि वित्तीय मामलों में भी उन्हें ऐसे अधिकार प्राप्त थे ।

१९३५ ई॰ के कानून ने प्रांतीय सरकार की प्रकृति और आकार को काफी बदल दिया । इसने प्रांतों के पुनर्विभाजन की व्यवस्था की । दो नये प्रांत-सिंध और उड़ीसा-निर्मित हुए । सिंध बम्बई प्रेसिडेंसी से अलग होकर बना । उड़ीसा में बिहार और उड़ीसा के पुराने प्रांत की जमीन का एक अंश, मध्य प्रदेश का एक भाग एवं मद्रास प्रेसिडेंसी के उड़िया-भाषी क्षेत्र मिले ।

बर्मा ब्रिटिश भारत से अलग कर दिया गया । आदन भी अब भारत का अंग न रहा । सब मिलाकर अब ग्यारह गवर्नरों के प्रांत और छ: चीफ कमिश्नरों के प्रांत हुए । चीफ कमिश्नर का प्रांत गवर्नर-जनरल द्वारा एक चीफ कमिश्नर की मार्फत शासित होता था । चीफ कमिश्नर को गवर्नर-जनरल स्वेच्छा से नियुक्त करता था ।

गवर्नरों के प्रांतों में द्वैध शासन उठा दिया गया तथा प्रांतीय स्वराज्य लागू किया गया । कानून ने प्रांत की कार्यपालिका शक्ति गवर्नर में प्रतिष्ठित कर दी, जो इस रूप में क्राउन का प्रतिनिधि था । उसे एक मंत्रिमंडल मिला । इसका उद्देश्य था उसे प्रांतीय सरकार के संपूर्ण क्षेत्र में, कानून द्वारा उसे दिये गये कृत्यों के निर्वाह में सहायता और परामर्श देना ।

कानून और व्यवस्था-जैसे कुछ मामले अपवाद-स्वरूप भी थे जिनके लिए उस पर विशेष जवाबदेही थी तथा जो बिलकुल उसके कार्यस्वातंत्र्य के अंतर्गत थे । मंत्री गवर्नर द्वारा नियुक्त होने वाले थे । साधारणत: उनकी नियुक्ति स्थानीय विधान-मंडल के सदस्यों में से होती । उन्हें इसके प्रति उत्तरदायी रहना था । मंत्रिमंडल के निर्माण में गवर्नर को अल्पसंख्यक दलों (जातियों) के हितों का उचित विचार करना था । मंत्रियों के वेतन उनके कार्यकाल के अंतर्गत नहीं बदलते ।

प्रांतीय विधान-मंडल में ब्रिटिश सम्राट् के प्रतिनिधि के रूप में गवर्नर और एक या दो सदन होते । मद्रास, बम्बई, बंगाल, संयुक्त प्रांत, बिहार और आसाम-इनमें से प्रत्येक में दो सदन थे जो लेजिस्लेटिव कौंसिल और लेजिस्लेटिव एसेंबली कहलाते थे ।

बाकी प्रांतों-पंजाब, मध्य प्रदेश और बरार, उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत, उड़ीसा और सिंध-में प्रत्येक मैं एक ही सदन था, जिसे लेजिस्लेटिव एसेंबली कहते थे । लेजिस्लेटिव एसेंबली या निचले सदन की सदस्य-संख्या पचास से दो सौ पचास तक घटती-बढ़ती रहती थी । सभी सदस्य निर्वाचित थे । इससे पाँच वर्षों तक बैठना था ।

गवर्नर इसे पहले भी भंग कर सकता था । विधानमंडल के प्रतिनिधियों को चुनने के लिए प्रत्येक प्रांत में निर्वाचन-दल जातियों एवं हितों के आधार पर बनाया गया । यह ४ अगस्त, १९३२ ई॰ के सांप्रदायिक निर्णय (कम्यूनल एवार्ड) की शर्तों के अनुसार था, जो २५ सितम्बर, १९३२ ई॰ की पूना संधि (पूना पैक्ट) द्वारा रूपभेदित हुआ था ।

विशेष निर्वाचन-दलों के प्रतिनिधियों के अतिरिक्त, सामान्य स्थानों में से कुछ “अनुसूचित जातियों” अर्थात् तथा कथित दलित वर्गों के लिए सुरक्षित रखे गये । इस कानून के द्वारा भारत की कुल आबादी के करीब दस प्रतिशत को मताधिकार प्राप्त हुआ ।

स्त्रियों को १९१९ ई॰ के कानून की अपेक्षा इससे अधिक विस्तृत मताधिकार मिला । लेजिस्लेटिव कौंसिल या ऊपरी सदन स्थायी संस्था था । इसे भंग नहीं होना था । प्रत्येक तीसरे वर्ष इसके सदस्यों की एक तिहाई को हट जाना था । जिस सांप्रदायिक आधार पर लेजिस्लेटिव एसेंबली बनी थी, उसी के आधार पर इसका भी निर्माण हुआ था । दोनों सदनों के अधिकार समपदस्थ थे ।

केवल सरकार के लिए कतिपय अनुदान वोट करने और वित्तीय बिलों के लाने के मामले में अंतर था-ये बातें लेजिस्लेटिव एसेंबली की मर्यादा के अंतर्गत थीं । यदि किसी बिल के बारे में दोनों सदनों में मतभेद होता था, तो गवर्नर को अधिकार था कि यह दोनों सदनों की सम्मिलित बैठक बुलाए तथा संयुक्त अधिवेशन के सदस्यों के बहुमत के अनुसार निर्णय करें ।

गवर्नर कुछ असाधारण अधिकारों से संपन्न था । कुछ परिस्थितियों में वह विधानमंडल द्वारा पास किये गये बिलों को स्वीकृति नहीं भी दे सकता था । जब विधानमंडल अधिवेशन में नहीं होता और वह समझता कि परिस्थितियों ने उनके लिए तुरंत कारवाई करना आवश्यक बना दिया है, तब उसे और्डिनेंस (अध्यादेश) निकालने का अधिकार था ।

कतिपय विषयों के सम्बन्ध में तो उसे किसी समय भी और्डिनेंस निकालने का अधिकार था । निश्चित समय के भीतर इन और्डिनेंसों का भी उतना ही जोर और प्रभाव था, जितना किसी प्रांतीय विधानमंडल के किसी कानून (ऐक्ट) का होता । और भी, कुछ परिस्थितियों में गवर्नर स्थायी कानून निकाल सकता था, जिन्हें गवर्नर के कानून (गवर्नर्स ऐक्ट्स) कहते थे ।

इन्हें वह तुरंत निकाल सकता था अथवा अपने इच्छानुसार विधानमंडल से परामर्श लेने के बाद । पुन: संविधानिक यंत्र के असफल हो जाने पर गवर्नर घोषणा द्वारा एलान कर सकता था कि “उसके कृत्य, घोषणा में निर्दिष्ट सीमा तक, उसके कार्यस्वातंत्र्य में किये जाएँगे” ।

गवर्नर इन अधिकारों का उपयोग गवर्नर-जनरल और ब्रिटिश पार्लियामेंट के निर्देशन एवं नियंत्रण में करता था । इस प्रकार यद्यपि १९३५ ई॰ के कानून के प्रांतों को सार्वजनिक शासन के बड़े क्षेत्र में स्वराज्य दिया था, तथापि गचर्नर के विशेष अधिकार वास्तविक उत्तरदायित्वपूर्ण शासन पर प्रतिबंध समझे गये ।

प्रांतीय सरकारों के सम्बन्ध में जो संविधानिक धाराएँ थीं, वे १ अप्रैल, १९३७ ई॰ को व्यवहार में आयीं । जुलाई, १९३७ ई॰ में कांग्रेस ने अधिकतर गवर्नर-शासित प्रांतों में मंत्रिमंडल बना लिये । १९३९ ई॰ के अंतिम महीनों में इसने इस्तीफा दे दिया ।

भारतीय रियासत (Indian Principality):

भारतीय राजनीतिक जीवन में एक प्रमुख विशेषता के रूप में रियासतों का जो अस्तित्व था, उससे भारत की संविधानिक समस्या अत्यंत उलझनपूर्ण बनी रही । लार्ड कर्जन, लार्ड मिंटो द्वितीय और लार्ड हार्डिज द्वितीय ने स्पष्ट रूप से रियासतों पर ब्रिटिश आधिपत्य पर जोर डाला, यद्यपि क्रमश: बंगभंग-आंदोलन के बाद भारत की बाधापूर्ण राजनीतिक परिस्थिति एवं १९१४-१९१८ ई॰ के युद्ध की कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए लार्ड मिंटो द्वितीय एवं लार्ड हार्डिज द्वितीय ने रियासतों के प्रति अधिक मैत्रीपूर्ण रुख अपनाया और उनसे ज्यादा सहयोग पाने की कोशिश की ।

जब लार्ड हार्डिंज द्वितीय: २६ फरवरी, १९१६ ई॰ को जोधपुर के महाराजा को शासकीय अधिकारों से संपन्न कर रहे थे, तब उन्होंने भारतीय राजाओं को “साम्राज्यीय शासन के महान् कार्य में सहायक एवं सहकर्मी” बतलाया ।

आगे चलकर यह नीति दो रूपों में प्रकट हुई । एक था साम्राज्यीय सेवा सैनिकों का विकास । ये सैनिक रियासतों द्वारा रखे जाते थे तथा ब्रिटिश अफसरों द्वारा प्रशिक्षित होते थे । इस बात का प्रारम्भ लार्ड डफरिन (१८८४-१८८८ ई॰) के दिनों में ही हो चला था । इससे ब्रिटिश साम्राज्य को बहुमूल्य सहायता पहुँची ।

खासकर प्रथम विश्व-युद्ध में तो इसकी सेवा अत्यंत ही कीमती रही । दूसरा था विभिन्न रियासतों के प्रतिनिधियों से निर्मित एक परामर्शदात्री समिति का विकास । ऐसी संस्था के निर्माण के प्रयत्न पहले भी हुए थे । लार्ड लिटन, लार्ड कर्जन, लार्ड मिंटो द्वितीय और लार्ड हाडिन द्वितीय ने ऐसी चेष्टाएँ की थीं ।

प्रथम विश्व-युद्ध के बाद लार्ड चेम्सफोर्ड ने इसका महत्व और भी महसूस किया । मांटेगू-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट ने ऐसी संस्था के लिए निश्चित सिफारिश की । तदनुसारन फरवरी, १९२१ ई॰ की राजकीय घोषणा से क्राउन द्वारा नरेंद्र-मंडल (चेंबर ऑफ प्रिंसेज) कायम हुआ ।

नरेंद्र-मंडल एक सलाहकार समिति के रूप में था, न कि एक कार्यपालिका संस्था के रूप में । इसमें विभिन्न वर्गों की रियासतों के प्रतिनिधि थे । इसका अध्यक्ष वाइसराय था । इसमें एक चांसलर और एक प्रोचांसलर भी होते थे जो प्रति वर्ष सदस्यों में से निर्वाचित होते थे ।

भारतीय रियासतों की जमीन से सम्बन्घ रखनेवाले मामलों में-साधारणतया ब्रिटिश भारत एवं रियासतें दोनों से सम्बन्ध रखनेवाली समस्याओं पर-वाइसराय धड़ल्ले से इसकी स्थायी समिति से राय ले सकता था ।

मगर मंडल भारतीय रियासतों के आंतरिक मामलों या उनके शासकों या उनके क्राउन से सम्बन्धों पर विचार नहीं कर सकता था और न रियासतों के वर्तमान अधिकारों या वादों में किसी प्रकार हस्तक्षेप कर सकता था या उनकी कार्य-सम्बन्धी स्वतन्त्रता को सीमाबद्ध कर सकता था ।

इस समय ब्रिटिश आधिपत्य की वृद्धि और रियासतों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने के ब्रिटिश अधिकार को रियासती शासक पसंद नहीं करते थे । भारत सरकार के क्रमिक भारतीयकरण के कारण वे इस बात पर और भी अधिक क्षुब्ध हो उठे ।

वे कर-सम्बन्धी नीति के निर्धारण एवं चुंगी से प्राप्त राजस्व के संग्रह में हिस्सा माँगने लगे । इस लिए दिसम्बर, १९२७ ई॰ में राज्य-सचिव ने भारतीय रियासत समिति (इंडियन स्टेट्‌स कमिटि) नियुक्त की । अपने अध्यक्ष सर हारकोर्ट बदतर के नाम पर यह समिति जन साधारण में बट्‌लर समिति बट्‌लर कमिटी) कहलायी ।

इसका उद्देश्य था अधिपति शक्ति और भारतीय रियासतों के बीच सम्बन्ध की जाँच करना तथा ब्रिटिश भारत और भारतीय रियासतों के मध्य आर्थिक एवं वित्तीय संबंधों के ठीक करने के लिए सिफारिशें करना । समिति ने १९२९ ई॰ के प्रारम्भ में रिपोर्ट दी ।

बहुत-सी सिफारिशों के साथ इसने अपना मजबूत अभिमत दिया “कि अधिपति शक्ति और (भारतीय) राजाओं के बीच के सम्बन्ध की ऐतिहासिक प्रकृति को देखते हुए उन्हेंबिना उनकी मर्जी के किसी वैसी नयी भारतीय सरकार के साथ सम्बन्ध स्थापित करने नहीं देना चाहिए, जो (सरकार) भारतीय विधानमंडल के प्रति जवाबदेह हो” ।

समिति की सिफारिशों की यह कहकर आलोचना की गयी कि वे युग की भावना के अनुरूप नहीं थी तथा उन्होंने भारत के दोनों अर्धों के मध्य के सम्बन्ध को “मधुर और संतोषजनक” नहीं बनाया ।

लेकिन दोनों ओर के समझदार लोग शीघ्र ही यह महसूस करने लगे कि एक संघ में भारतीय रियासतों और ब्रिटिश भारत के बीच अधिक घनिष्ठ सम्बन्ध आवश्यक है, क्योंकि दोनों विविध रूपों में प्रगाढ ढंग से सम्बन्धित थे । नेहरू समिति (१९२८ ई॰ में) और इंडियन स्टैटयूटरी कमीशन ने इस बात पर जोर दिया ।