ब्रिटिश शासन के दौरान अपने पड़ोसी देशों के साथ भारत के राजनीतिक संबंध | India’s Political Relations with Its Neighbouring Countries during British Rule.

१८५८ ई॰ से, जब भारत की सरकार इंगलैंड के क्राउन के न पर चलायी जाने लगी, १८३७ ई॰ तक, जब १९३५ ई॰ के सुधारे हुए संविधान के अंतर्गत “प्रांतीय स्वराज्य” प्रारंभ हुआ, भारतीय इतिहास का एक विशिष्ट युग है । यह समय दो भागों में विभक्त होने योग्य है, यानी साम्राज्यवाद का काल (१८५८-१९०५ ई॰) और सुधारों का युग (१९०५-१९३७ ई॰) । इस समय की एक खास विशेषता यह थी कि भारतीय शासन पर ब्रिटिश क्राउन का एक मुख्य राज्य-सचिव नियंत्रण रखता था ।

यह बात और किसी क्षेत्र में उतनी प्रत्यक्ष नहीं थी, जितनी विदेशी नीति में । वस्तुत: ऐसा कहने में कोई अत्युक्ति नहीं होगी कि १८५८ ई॰ के बाद भारत की विदेशी नीति यूरोपीय परिस्थितियों द्वारा नियंत्रित होती रही तथा लंदन के ह्वाइटहॉल की ब्रिटिश सरकार की विदेशी नीति का अंग बन गयी ।

अफगनिस्तान (Afghanistan):

क. अमीर दोस्त मुहम्मद के प्रति नीति (Policy towards Muhammad):

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जहाँ तक उत्तर-पश्चिम सीमा का प्रश्न है, नीति बहुत वर्षों तक इंगलैंड और रूस के सम्बन्धों पर आधारित रही । प्रथम अफगान-युद्ध के बाद इन दोनों देशों में फिर से मित्रतापूर्ण भावना पैदा हुई । १८४४ ई॰ में रूसी सम्राट निकोलस प्रथम रानी विक्टोरिया (१८३७-१९०१) से मिला तथा मध्य एशिया के सम्बन्ध में एक सलाह हुई ।

संधि का आधार यह हुआ कि बुखारा, खीया और समरकंद के खान-शासित राज्य “दोनों साम्राज्यों के बीच में एक तटस्थ क्षेत्र के रूप में” छोड़ दिये जाएँ, “जिससे किसी प्रकार के खतरापूर्ण संपर्क से उनकी रक्षा की जा सके” । इन मित्रतापूर्ण संबंधों में क्रीमियन युद्ध ने बुरे ढंग से बाधा डाली ।

दक्षिण-पूर्वी यूरोप में असफल होकर रूस ने मध्य एशिया में अपनी अग्रगामी नीति फिर से चालू कर दी । अफगानिस्तान की सीमा की ओर रूस की तेज प्रगति ब्रिटिश सरकार के लिए भय और चिंता का कारण बन गयी । पंजाब और सिंध की विजय ने ब्रिटिश राज्य को अफगानिस्तान की पहाड़ियों तक फैला दिया था ।

फलत: रूस की अग्रगामी दूरवर्ती चौकियों और भारत के ब्रिटिश साम्राज्य के बीच में अब अकेला वही देश खड़ा था । किन्तु इस समय अफगानिस्तान के मामले अंग्रजों के लिए प्रतिकूल सिद्ध हुए ।

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प्रथम अफगान युद्ध की समाप्ति के पश्चात् ब्रिटिश सरकार और काबुल के अमीर दोस्त मुहम्मद के बीच सम्बन्ध करीब-करीब मित्रतापूर्ण ही रहे । जब फारसवालों ने हिरात और कंधार पर हमला करने की धमकी दी, तब अमीर ने अंग्रेजों से सहायता का प्रस्ताव किया । १८५५ ई॰ में एक संधि हुई ।

इस संधि के द्वारा भारतीय सरकार ने अमीर के राज्य की सीमा न लाँघने का जिम्मा लिया तथा अमीर ने “औनरेबुल ईस्ट इंडिया कम्पनी के मित्रों का मित्र एवं शत्रुओं का शत्रु” बनना स्वीकार किया ।

जब १८५६ ई॰ में फारसवालों ने फिर हिरात पर घेरा डाला, तब इस मित्रत की परीक्षा का अवसर आया । अंग्रेजों ने न केवल धन और शस्त्रों से अमीर की मदद की, बल्कि उन्होंने फारस के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी तथा बम्बई से एक सेना भेजी । फारसवालों ने १८५७ ई॰ में संधि कर ली ।

इस मित्रतापूर्ण भावना में पहली बार १८६२ ई॰ में बाधा पड़ी । बात ऐसी हुई कि उस समय हिरात एक स्वतंत्र सरदार के अधिकार में था दोस्त मुहम्मद ने अग्रसर होकर उस पर आक्रमण कर डाला । भारत सरकार ने इस काम को नापसंद किया । १८५७ ई॰ से उसका एक मुस्लिम एजेंट काबुल में रहता था । भारत सरकार ने उसे बुला लिया । दोस्त मुहम्मद ने इस प्रतिवाद पर कोई ध्यान न दिया तथा वह १८६३ ई॰ में हिरात जीत लेने में सफल हुआ ।

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ख. अफगान गृह-युद्ध, (१८६३-१८६८ ई॰) (Afghan Civil War (1863-1868 AD)):

हिरात-विजय (१८६३ ई॰) के कुछ ही समय बाद दोस्त मुहम्मद अस्सी वर्ष की उम्र में मर गया । स्वाभाविकतया उसके सोलह पुत्रों में गद्दी पाने के लिए संघर्ष छिड़ गया । पाँच वर्षों तक अफगानिस्तान भ्रातृ-युद्धों की भूमि बना रहा । इनके साथ चलनेवाली सभी बुराइयाँ भी आ पहुँची-अनैक्य, कूट और राज्यों का बँटवारा ।

अंत में १८६८ ई॰ में दिवंगत अमीर के तीसरे पुत्र और उसके चुने हुए उतराधिकारी शेर अली ने अपने सभी प्रतिद्वंद्वियों को पराजित कर अपने शासन के अधीन समस्त अफगानिस्तान को एक कर दिया । इस समय अंग्रेजों की स्थिति अत्यंत कठिनाइपूर्ण थी । सर जान लारेंस (गवर्नर-जनरल, १८६४-१८६९ ई॰) ने पूर्ण तटस्थता की नीति अपनायी ।

उसने तर्कसंगत रूप से इस सिद्धांत का अनुसरण किया कि ब्रिटिश सरकार के संबंध अफगानिस्तानों के वास्तविक शासकों के साथ है । तदनुसार कई संघर्षशील भाइयों द्वारा सहायता माँगी जाने पर उसने सहायता देना अस्वीकार कर दिया: तथा उनमें से प्रत्येक ने ज्यों ही काबुल में अपने को स्थापित कर लिया, त्यों ही गवर्नर-जनरल ने उसे बारी-बारी से स्वीकार कर लिया ।

शेर अली ने तीन बार ब्रिटिश सरकार से सहायता माँगी और तीनों बार उसे अस्वीकृत हुई । किन्तु ज्यों ही वह संघर्ष में सफल सिद्ध हुआ, त्यों ही लारेंस ने उसे स्वीकार कर लिया तथा उसके पास धन भेजा । इस धन से अमीर अंत में अपनी स्थिति ठोस बनाने में समर्थ हुआ ।

लारेंस ने जिस नीति का अनुसरण किया, उसे कुछ ने “उस्तादाना आलस्य” की नीति बतलायी है, किन्तु दूसरों ने उसकी घोर निंदा की है । उसकी तटस्थता की नीति इस भय पर आश्रित थी कि यदि वह एक प्रतिद्वंद्वी का पक्ष लेगा, तो दूसरा अवश्य रूस या फारस की सहायता चाहेगा ।

इसके विरुद्ध यह बतलाया जाता है कि यह अनिश्चित घटना करीब-करीब अवश्यंभावी थी भले ही ब्रिटिश सरकार हस्तक्षेप करती या न करती । यह बात भुला दी जाती है कि यदि अंग्रेज तटस्थ रहते तो बाहर से हस्तक्षेप होने पर उन्हें इसे रोकने का कानून-संगत अधिकार रहता; किन्तु यदि लारेंस किसी उम्मीदवार को सक्रिय सहायता देता, तो वद् रूस या फारस को किसी दूसरे का समर्थन करने से रोकने में न्याय या तर्क के साथ समर्थ न होता ।

जो भी हो, यह मानना पड़ेगा कि वह अफगान गृह-युद्ध को पृथक् करने में सफल हुआ तथा अंतर्राष्ट्रीय उलझन को रोक दिया । लारेंस के आलोचकों का निस्संदेह यह आशय है कि यदि उसने किसी प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार का सक्रिय समर्थन किया होता तथा उसे गद्दी लेने में सफल बना देता, तो अंग्रेज आसानी से अफगानिस्तान मैं अपनी स्थिति दृढ़ बना सकते तथा उस दिशा में रूसी प्रभाव को सदा के लिए प्रभावकारी रूप में रोक देते ।

किन्तु प्रथम अफगान युद्ध का अनुभव इस प्रकार की किसी धारणा के पूर्णतया विरुद्ध था तथा यह भी हो सकता था कि लारेंस किसी गलत (न जीतनेवाले) उम्मीदवार का समर्थन करता और पीछे इसका घोर प्रायश्चित करता ।

इस भारी खतरे को ध्यान में रखते हुए तथा रूसी युद्ध की करीब-करीब अवश्यंभावी उलझन को दृष्टि में रख हमलोग मजे में लारेंस को अधिक सावधानीपूर्ण नीति बरतने के लिए माफ कर दे सकते हैं । यह वैसा साहसपूर्ण कार्य था, जिसे सफलता मिलने पर दूरदर्शितापूर्ण राजनीतिज्ञता का काम कहा जाता है और असफलता होने पर उतावलापनपूर्ण एव मूर्ख जोखिमदार काम कहकर उसकी निंदा की जाती है ।

इसे कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता कि लारेंस की नीति का परिणाम अंग्रेजों के लिए हानिकारक सिद्ध हुआ । शेर अली ने अपने जीवन के सर्वाधिक संकटमय क्षणों में ब्रिटिश शक्ति से सहायता माँगी थी और इस शक्ति ने उसकी सहायता करना अस्वीकार कर दिया था ।

अतएव यह आशा नहीं की जा सकती थी कि वह अमीर होने पर अंग्रेजों के प्रति मित्रतापूर्ण रुख रखेगा । शेर अली ने आसानी से महसूस कर लिया “कि अंग्रेजों ने केवल स्वार्थों का ही ध्यान रखा था” । निस्संदेह कोरी सचाई भी यही थी । उसने कटुतापूर्वक टिप्पणी की कि “जिस पक्ष को वे थोड़े समय के लिए प्रबलतम देखते हैं, उसी के मित्र बन बैठते हैं” ।

ग. अमीर शेर अली के प्रति नीति  (Policy towards Amir Sher Ali):

जिस समय अफगानों में खलबली मची हुई थी, ठीक उसी समय रूसियों ने मध्य एशिया में अपना अग्रगामी साम्राज्यवाद फिर से चालू किया । १८६४ ई॰ में उन्होंने पहला अगला कदम उठाया । १८६६ ई॰ में बुखारा अधीन राज्य की स्थिति में ले आया गया ।

अगले ही साल रूसी तुर्किस्तान का नया प्रांत बनाया गया, जिसकी राजधानी ताशकंद में हुई । उनका पहला आधार ओरेनबर्ग में था । अब वे वहाँ से करीब एक हजार मील टूर चले आये थे । १८६८ ई॰ में समरकंद रूसी राज्य में जोड़ दिया गया । पाँच वर्षों के बाद वीवा की भी यही गति हुई ।

अफगानिस्तान की ओर रूस की तेज बढ़ती अंग्रेजों के लिए भय और चिंता का ही कारण बन सकती थी । इसलिए उनका पहला प्रयत्न हुआ नये अमीर को प्रसन्न रखना, जिसे हाल की घटनानों ने अंग्रेजों से बहुत विमुख कर दिया था । लारेंस ने १८६८ ई॰ में शस्त्र और धन भेजे । सहायता के बदले में दिया हुआ यह धन लार्ड मेयो (१८६९-१८७२ ई॰) ने जारी रखा ।

यह कहना कठिन है कि ये तरीके अमीर की मित्रता पुन: प्राप्त करने में किस हद तक सफल होते । किन्तु रूसी प्रगति अफगानिस्तान के लिए महान् विपत्ति बन गयी । अतएव अमीर अंग्रेजों का समर्थन प्राप्त करने को चिंतित हुआ । इस प्रकार दोनों दलों के बीच पुन: मैत्री-स्थापन आसान बन गया । यदि अंग्रेज कौशल और राजनीतिज्ञता से काम लेते तो वे अमीर को पूर्णतया अपनी ओर कर लेते ।

दुर्भाग्यवश इस संकटमय क्षण में अंग्रेजी कूटनीति बुरी तरह असफल रही । उसने अमीर की मित्रता पाने के बदले उसे रूस की गोद की ओर ढकेल दिया । १८६९ ई॰ में अंबाला में अमीर और लार्ड मेयो के बीच एक संमिलन हुआ । इसने स्थायी मित्रता के लिए शानदार मौके दिये । अमीर अंग्रेजों की सभी माँगों को मान लेता ।

बदले में अंग्रेज एक गारंटी देते कि वे रूस के विरुद्ध उसका समर्थन करेंगे तथा उसे एवं उसके वंशजों को छोड़ अन्य किसी को अफगानिस्तान का अमीर नहीं मानेंगे । इन खास आश्वासनों के देने के बदले लार्ड मेयो ने अमीर के पास लिखे गये पत्र में केवल इतना कहा कि “यदि आपके प्रतिद्वंद्वी आपकी स्थिति में बाधा डालने की कोई कोशिश करेंगे तो” भारत सरकार “इसे घोर अप्रसन्नता के साथ देखेगी” तथा यह “आपकी (योर हाइनेस की) सरकार के मजबूत करने के…..और प्रयत्न” भी करेगी ।

मेयो के प्रशंसकों ने अंबाला संमिलन को महान सफलता के रूप में चित्रित किया है । उन्होंने यह विश्वास करने का बहाना किया है कि शेर अली अंग्रेजों के पक्ष में आ गया । किन्तु शेर अली बहुत चालाक था । वह एक खास गारंटी तथा लार्ड मेयो के पत्र में दिये गये सामान्य आश्वासन के भेद को समझता था ।

जो भी हो, खीवा पर रूसी अधिकार से भयभीत हो उसने १८७३ ई॰ में अगले गवर्नर-जनरल लार्ड नौर्थ-ब्रूक (१८७२-१८७६) के पास एक एजेंट भेजा तथा लिखित रूप में खास आश्वासन माँगा कि यदि रूस या इसके किसी रक्षित या अधीन राज्य ने अमीर के राज्य पर हमला किया, तो ब्रिटिश सरकार न केवल शस्त्रों एवं धन से ही अमीर की सहायता करेगी बल्कि आवश्यक होने पर उसकी सहायता के लिए सैनिक भी भेजेगी ।

लार्ड नौर्थब्रूक ने परिस्थिति पर बुद्धिमत्ता से विचार किया । वह अमीर की प्रार्थना मान लेने को राजी था । पाँच वर्ष पहले भारतीय वाइसराय संभवत: अपने उत्तरदायित्व पर ही इस प्रकार की कोई गारंटी देता तथा अपने काम को संपुष्टि के लिए राज्यसचिव के पास भेजता ।

किन्तु भारत और लंदन के बीच सीधी टेलीग्राफ लाइन स्थापित हो जाने से गवर्नर-जनरल और राज्य सचिव के बीच संबंधों में एक महान परिवर्तन आ गया । इसलिए राज्य-सचिव के पास भेजे गये २४ जुलाई, १८७३ ई॰ के टेलीग्राम में उसने अमीर को यह आश्वासन देने का प्रस्ताव रखा “कि यदि वह सभी बाह्य संबंधों में बिना किसी शर्त के हमारी राय माने और तदनुसार चले, तो हम अकारण आक्रमण के हटाने में उसकी धन, शस्त्र और आवश्यक होने पर सैनिकों से सहायता करेंगे । आवश्यकता के निर्णायक हमीं होंगे ।”

किन्तु यह प्रस्ताव राज्य-सचिव द्वारा अस्वीकृत हो गया । कारण यह हुआ कि ग्लैड्स्टन का मंत्रिमंडल रूस ने अनबन करना नहीं चाहता था तथा मध्य एशिया में रूसी विस्तार को अफगानिस्तान या भारत की निर्विप्नता और सुरक्षा के लिए खतरनाक नहीं समझता था ।

स्वदेश की सरकार से मिले आदेश के अनुसार लार्ड नौर्थब्रूक अमीर को उतना ही आश्वासन दे सकता कि “अफगानिस्तान में हमलोग अपनी निश्चित नीति कायम रखेंगे” । अमीर ने स्वभावत: इसका अर्थ लगाया कि अंग्रेज उसे रूस के विरुद्ध संरक्षण देने के लिए अनिच्छुक हैं ।”

इसी समय दो अन्य ऐसी घटनाएँ हुई, जिसने अमीर को और भी विमुख कर डाला । ब्रिटिश सरकार ने फारस और अफगानिस्तान के बीच सीस्तान की सीमाओं का फैसला कर देने का काम स्वीकार कर लिया । यह स्वीकृति बुद्धिमताशून्य थी । अंग्रेजों का निर्णय कुछ बातों में अफगानिस्तान के विरुद्ध हो गया । अत: अमीर ने इसे अन्याय का काम कहकर रोष प्रकट किया ।

दूसरी घटना यह हुई कि जब अमीर ने अपने पुत्र अबला जान को उत्तराधिकारी चुनकर भारत सरकार को अपने निर्णय की सूचना दी, तब लार्ड नौर्थब्रूक ने उसे इस रूप में स्वीकार करना कबूल नहीं किया । अमीर को विश्वास हो गया कि गद्दी के लिए अपने प्रतिद्वंद्वियों से लड़ाई करने में अबदुल्ला जान को अंग्रेजों से उसकी अपेक्षा अधिक समर्थन नहीं प्राप्त होगा ।

अमीर अंग्रेजों के रुख से बिलकुल झल्ला गया । स्वभावत: वह रूसियों से अच्छी सधि की कामना करने लगा । रूसियों ने चाय से इस मौके को धर दबाया । यद्यपि उन्होंने स्वीकार किया कि अफगानिस्तान हमारे हित-क्षेत्र के बाहर है, तथापि अमीर से पत्र-व्यवहार करने लगे तथा उसके कृपापात्र बन जाने की चेष्टा करने लगे । रूसी पत्रव्यवहार धीरे-धीरे बढ़ने लगा । इसके ले जानेवाले बेयरर अमीर द्वारा रूसी सरकार के एजेंट माने गये । वे करीब-करीब बराबर ही काबूल में उपस्थित रहते थे ।

घ. द्वितीय अंग्रेज अफगान युद्ध, (१८७८-१८८० ई॰)  (Second British-Afghan War (1878-1880 AD)):

(क) युद्ध के कारण (Cause of War): 

इस बीच इंगलैंड की सरकार में परिवर्तन हो गया । १८७४ ई॰ में ग्लैडस्टन का स्थान डिजरेली ने लिया तथा लार्ड सलित्‌वरी भारत के लिए राज्य-सचिन हुआ । दो वर्ष बाद बाइसराय के रूप में नौर्थब्रूक का उत्तराधिकारी लार्ड लिटन (१८७६-१८८० ई॰) हुआ । १८७७ ई॰ के रूस-टर्की-युद्ध ने रूस और इंगलैंड के बीच के संबंधों को मनोमालिन्यपूर्ण कर डाला ।

इन दोनों के बीच युद्ध करीब-करीब अवश्यंभावी जान पड़ने लगा । अब लटकन विरुद्ध दिशा में तेजी से मूलने लगी । नवीन मंत्रिमंडल ने तुरत निर्णय किया कि अफगान मामलों पर मजबूत पकड़ रखी जाय जिससे उस क्षेत्र में रूस का प्रभाव रोका जा सके ।

पहला काम जो उसने किया वह था क्वेटा का ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया जाना । सीमा पर इसकी सामरिक स्थिति थी, क्योंकि यह कंधार के रास्ते को नियंत्रण करता था तथा खैबर दर्रे से होकर भारत पर आक्रमण करनेवाली सेना के पार्श्वभाग को उलट सकता था । खलात के खाँ के साथ एक संधि हुई तथा १८७७ ई॰ में क्वेटा पर कब्जा हो गया ।

नवीन मंत्रिमंडल का दूसरा लक्ष्य था हिरात में एक ब्रिटिश एजेंट की स्थापना, जिससे सीमा पर रूसी चालों के सम्बन्ध में सरकार को बराबर ठीक खबर मिलती रहे । लार्ड नौर्थब्रूक, जो १८७६ ई॰ तक वाइसराय बना रहा, तथा उसकी कौंसिल के अधिकतर सदस्य इस नीति के विरुद्ध थे ।

उनका कहना था कि अमीर इसे अवश्य अस्वीकार करेगा तथा परिणाम होगा एक दूसरा युद्ध । लार्ड सलिस्‌बरी अपने विचार पर अडिग रहा । इसपर लार्ड नौर्थब्रूक ने अपनी वाइसरायगिरी से इस्तीफा दे दिया । लार्ड लिटन नयी नीति को कार्यान्वित करने के लिए वाइसराय नियुक्त हुआ ।

अमीर को वे शर्तें दी गयीं जो उसने १८७३ ई॰ में माँगी थी । फिर भी उसने किसी प्रकार का ब्रिटिश मिशन (बहिर्प्रेषित दूत-मंडल) स्वीकार करना कबूल नहीं किया । उसने बतलाया कि उस हालत में वह रूसियों के उसी प्रकार के किसी मिशन को नामंजूर करने में असमर्थ होता ।

इस बीच रूस से अमीर के संबंध अधिक घनिष्ठ हो चले । जून, १८७८ ई॰ में रूसी गवर्नर-जनरल ने अपने अफसर स्टोलीटौफ को संधि के एक प्रारूप के साथ अमीर के पास भेजा । इसमें उन सभी शर्तों को मान लिया गया था जो अमीर ने अंग्रेजों से १८७३ ई॰ में माँगी थी तथा जिन्हें लार्ड लिटन १८७८ ई॰ में देने को तैयार था ।

दूत शीघ्रता के साथ भेजा गया था साथ ही ताशकंद से सैनिकों की तीन टुकड़ियाँ अफगान सरहद की ओर चली । अमीर ने स्टोलीटौफ को आदेश दिया कि वह अफगानिस्तान में प्रवेश न करें । किन्तु वह आदेश की उपेक्षा कर २२ जुलाई को काबुल पहुँच गया । वहाँ उसने अमीर से समझौते के लिए बातचीत की तथा विदेशी आक्रमण के विरुद्ध उसे गारंटी दी ।

काबुल में रूसी दूत के सत्कार से अमीर और ब्रिटिश सरकार के सम्बन्ध कटु हो उठे । लिटन ने स्वदेश-स्थित सरकार से पहले ही स्वीकृति लेकर अमीर को सूचना दी कि एक अंग्रेज दूत काबुल भेजा जाएगा । दूत-मंडल वस्तुत: खैबर दर्रा से होकर शीघ्र भेज दिया गया किन्तु २१ सितम्बर को अली मस्जिद के समीप उसे रोक दिया गया । दो नवम्बर को लिटन ने अमीर के पास अंतिमेत्थम् भेजा ।

इसमें उसने अमीर के २० तारीख तक दूतमंडल स्वीकार करते हुए उत्तर न देने पर युद्ध की धमकी दी । अमीर ने अब रूस से सहायता की याचना की । किन्तु इसी बीच बर्लिन की संधि ने यूरोपीय समस्या को सुलझा दिया था ।

अतएव रूसी बिना उस संधि का उल्लंघन किये और उससे प्राप्त लाभों को खोये अंग्रेजों से लड़ाई नहीं कर सकते थे । इसलिए रूसी गवर्नर-जनरल कौफमेंन ने शेर अली को अंग्रेजों से संधि कर लेने की सलाह दी । शेर अली को रूसियों ने ही अंग्रेजों से बैर मोल लेने को प्रोत्साहित किया था किन्तु सकट की बड़ी आने पर उन्होंने उसे छोड़ दिया ।

(ख) युद्ध की घटनाएँ (Events of War):

२० नवम्बर को ब्रिटिश सैनिकों ने अफगानिस्तान पर आक्रमण कर दिया । राबर्ट्स ने कुर्रम दर्रे को बलपूर्वक खोला । जनरल स्टेवर्ट ने कंधार पर कब्जा कर लिया । दिसम्बर में शेर अली पीछे हटकर तुर्किस्तान चला गया तथा तुरंत बाद मर गया ।

उसके पुत्र याकूब ने अंग्रेजों से समझौते की बातचीत चलायी । २६ मई, १०७९ ई॰ को गंडमक की संधि हुई । यह संधि अंग्रेजों के लिए अत्यंत अनुकूल थी । उनकी सभी माँगों को मान लिया गया । अमीर ने स्वीकार किया कि वह काबुल में एक स्थायी ब्रिटिश दूत रखेगा तथा वाइसराय की संगति से अपनी वैदेशिक नीति चलाएगा । उसने अंग्रेजों को कुर्रम, पिशिन और सिबी के जिले भी दे दिये ।

गंडमक की संधि का हवाला देते हुए लिटन ने कहा कि इस संधि के द्वारा ब्रिटिश सरकार के दो उद्देश्य सिद्ध हुए, अर्थात्, अफगानिस्तान से दूसरा विदेशी प्रभाव रहत्म हुआ और अफगान सीमा को इस तरह ठीक किया गया कि उस राज्य में ब्रिटिश प्रभाव को स्थायी रूप में बचाया जा सके ।

लॉर्ड बेक्‌सफील्ड (डिजरेली) ने दावा किया कि संधि के द्वारा “अपने भारतीय साम्राज्य के लिए एक वैज्ञानिक और पर्याप्त सीमा उपलब्ध हुई ।” संधि की शर्तों के अनुसार ब्रिटिश एजेंट कवग्नारी २४ जुलाई को काबुल पहुँचा । किन्तु ३ सितम्बर को बलवाई सैनिकों द्वारा उसकी हत्या कर डाली गयी ।

अमीर खुद इस षड्‌यंत्र में शामिल था या नहीं, और यदि था तो किस हद तक-इसका अभी तक निर्णय नहीं हुआ है । इसमें संदेह नहीं कि मामलों से पेश आने में कवग्नारी ने कौशल का खेदजनक अभाव प्रदर्शित किया । इसी प्रकार इसमें भी संदेह नहीं कि अमीर उसकी वापसी चाहता था ।

इस घृण्य हत्या से लड़ाई फिर छिड़ गयी । राबर्ट्स ने ७ अक्टूबर को काबूल पर दखल जमा लिया । यद्यपि अमीर अंग्रेजों का मित्र बन गया था, तथापि वह शासन के अयोग्य समझा गया तथा भारत भेज दिया गया । शेर अली के भतीजे अबदुर्रहमान के साथ समझौते की बातचीत होने लगी, जो संरक्षण में रूसी संरक्षण में शरणार्थी बनकर रह रहा था ।

समझौते की बातचीत के समाप्त होने के पहले ही लार्ड बेकसफील्ड की सरकार का पतन हो गया तथा ग्लैड्स्टन की सरकार सत्तारूढ़ हुई । नयी सरकार ने निर्णय किया कि वह अपने पूर्वाधिकारियों की समस्त अफगान नीति को उलट देगी, यहाँ तक कि वह गंडमक की संधि द्वारा दिये गये जिलों को भी खाली कर देगी । तदनुसार इस नवीन नीति को कार्यान्वित करने के लिए लार्ड रिपन (१८८०-१८८४ ई॰) वाइसराय बनाकर भेजा गया ।

(ग) युद्ध का अंत (End of War):

लार्ड रिपन के पहुँचने (दल जून, १८८० ई॰) के तुरंत बाद कंधार के ब्रिटिश सैनिक शेर अली के पुत्र अयूब खाँ द्वारा मेवंद में बुरी तरह हरा दिये गये (जुलाई, १८८० ई॰) । राबर्ट्स ने काबूल से कंधार को अपनी प्रसिद्ध सैनिक यात्रा की तथा अयूब की सेना को पूरी तरह पराजित कर दिया । इसमें उसे अबदुर्रहमान से काफी सहायता मिली ।

भारत की परिस्थिति का अध्ययन कर लार्ड रिपन ने अपने पूर्वाधिकारी की नीति को चालू रखने का निर्णय किया । अत: उसने अबदुर्रहमान से संधि कर ली । नये अमीर को एक वार्षिक रकम देना तय हुआ । इसके बदले में उसने भारत सरकार द्वारा अपनी वैदेशिक नीति का नियंत्रित होना स्वीकार किया । गंडमक की संधि द्वारा दिये हुए जिले अंग्रेजों के ही हाथों में रह गये ।

(घ) युद्ध की आलोचना (Criticism of War):

द्वितीय अफगान युद्ध होने का कारण यह था कि रूस और इंगलैंड की दो प्रतिद्वंद्वी शक्तियाँ अफगानिस्तान में अपना-अपना प्रभाव जमाना चाहती थीं । अंग्रेज राजनीतिज्ञों को डर था कि रूस अफगानिस्तान होकर भारत पर हमला करेगा । यह डर वास्तविक था-इसमें बहुत संदेह किया जा सकता है ।

किन्तु इसमें संदेह नहीं कि रूस अफगानिस्तान का मित्र बनाकर अंग्रजों पर काफी दबाव ला सकता था तथा न केवल यूरोपीय युद्ध के संकट-काल में उन्हें बुझाये रख सकता था, बल्कि उनकी स्थिति से नाजायज फायदा उठाकर यूरोप में अंग्रेजों से सहूलियतें तक ऐंठ सकता था ।

इस प्रकार अफगानिस्तान यूरोपीय खेल में शतरंज का प्यादा-मात्र था तथा शेर अली उन परिस्थितियों का शिकार बन गया, जिनके लिए यह उत्तरदायी न था और न जिनपर उसका नियंत्रण ही था । सुनने में यह आश्चर्यजनक लगता है, किन्तु सत्य यही है कि बर्लिन की संधि शेर अली के पतन का प्रत्यक्ष कारण थी ।

इंगलैंड और रूस दोनों की अफगान नीति अग्रसर साम्राज्यीय नीति पर आधारित शुद्धतया स्वार्थ के उद्देश्यों से परिचालित हो रही थी । लिटन और सलिस्‌बरी की अग्र- गामी नीति केवल इसी दृष्टिकोण से उचित ठहरायी जा सकी है, क्योंकि इसने अंग्रेजों के लिए अफगानिस्तान में मजबूत स्थिति प्राप्त कर तथा इस देश के रूसी प्रभाव-क्षेत्र में समिलित होने के भय को हटाकर-ब्रिटिश कूटनीति के मुख्य उद्देश्य को प्राप्त कर लिया ।

(ङ) अमीर अब्दुर्रहमान के प्रति नीति (Policy towards Amir Abdurrahman):

रूसी अग्रगामी नीति को अफगानिस्तान में ब्रिटिश प्रभाव की स्थापना से बड़ी दावा पहुँची । किन्तु रूसियों ने अब अपनी दूरवर्ती चौकियों को आगे ठेलना शुरू किया, मानो वे अपनी हार की कमी को पूरा करना चाहते थे ।

ब्रिटिश सरकार की आशंकाओं को रूसी विदेशी कार्यालय शांतिपूर्ण इच्छाओं की प्रचुर स्वीकारोक्तियों द्वारा बराबर दबा देता था तथा आक्रमणकारी कामों की व्याख्या यह कहकर की जाती थी कि ये स्थानीय अफसरों की अनाधिकार चेष्टाएँ हैं अथवा स्थानीय आवश्यकताओं के कारण किये गये है ।

अंत में जब मर्व को १८८४ ई॰ में रूसी राज्य में मिला लिया गया, तब अंग्रेजों ने अत्यंत जोरदार प्रतिवाद किया । इसका एकमात्र परिणाम यह निकला कि रूसियों ने रूस-अफगान सीमा के निर्धारण का प्रस्ताव कर लिया ।

दोनों और से कमिश्नर नियुक्त हुए । किन्तु रूस के कमिश्नरों ने कुछ-न-कुछ बहाना निकाल कर देर लगा दी । इसी बीच रूसी सेना विवादग्रस्त क्षेत्रों पर कब्जा जमा रही थी, जिससे यह अपने दावों को वास्तविकता में बदल डाले ।

यह परिस्थिति ३० मार्च, १८८५ ई॰ को पराकाष्ठा पर पहुँच गयी । बात ऐसी हुई कि रूसियों ने पंजदेह से अफगानों को भगाकर उस पर कब्जा कर लिया । ग्लैड्स्टन की शांतिपसंद सरकार तक युद्ध करने को उत्पन्न हो उठी । युद्धार्थ सैन्य संचालन की आता दे दी गयी ।

पार्लियामेंट में सैनिक तैयारियों के लिए रुपये मांगने का प्रस्ताव पेश हो गया । युद्ध करीब-करीब अवश्यंभावी जान पड़ने लगा । किन्तु ग्लैडस्टन की दक्षता ने उसे रोक दिया । दोनों राष्ट्रों ने अंत में संधि कर ली । रूसियों ने पंजदेह पर अपना अधिकार कायम रखा, किन्तु जुलफिकार दर्रा अमीर को दे दिया गया ।

इस मित्रतापूर्ण संधि के बाद रूस और ब्रिटिश सरकार के बीच के सम्बन्ध बेहतर होने लगे । १८८६ ई॰ में सीमा-निर्धारण के लिए नियुक्त कमीशन ने अपना काम समाप्त किया तथा औक्सस से जुलफिकार दर्रे तक रूस-अफगान सीमा विधिवत् निश्चित कर दी गयी । छ:वर्षों तक निर्बाध रूप में शांति बनी रही ।

किन्तु १८९२ ई॰ में समस्त पामीर पर रूसी दावे को लेकर फिर झगड़े खड़े हुए । अंत में १८९५ ई॰ में एक संधि हुई तथा इस क्षेत्र में सीमा विधिवत् निश्चित हो गयी । इससे एशियाई साम्राज्यों को लेकर इंगलैंड और रूस में बहुत पहले से चली आ रही प्रतिद्वं- द्विता का कुछ समय के लिए अंत हो गया । अंग्रेजों ने अफगानिस्तान पर मजबूत पकड़ रखी तथा रूस ने अपनी शक्ति पूर्व की ओर ही अधिक बढ़ा दी ।

अबसे बहुत वर्षो तक भारत की उत्तर-पश्चिम सीमा नीति अफगानिस्तान से संबंधों तक ही सीमित रही । मुख्य समस्या जंगली पहाड़ी कबीलों की स्थिति थी, जो अफगान एवं ब्रिटिश राज्यों के बीच के क्षेत्रों में रहते थे तथा इन दोनों में से किसीकी अधीनता स्वीकार नहीं करते थे ।

“अग्रगामी नीति” का अनुसरण कर बिटिश सरकार ने उनपर अपनी शक्ति बढ़ानी चाही, जिससे ब्रिटिश भारत की सीमा सिघू से बहुत दूर चली जाए । कुछ कठिनाइयों के बाद दोनों सरकारों में उनके प्रभाव-क्षेत्रों के बारे में समझौता हो गया ।

सर मौर्टिमर डुरंड के अधीन अफगान सीमा-समिति (कमीशन) ने विधिवत् सीमा निश्चित कर दी । सहायता के बदले में अमीर को दिया जानेवाला धन बारह से बढ़ाकर अठारह लाख प्रति वर्ष कर दिया गया । अमीर ने स्वीकार किया कि वह सीमा की भारतीय तरफ रहनेबाले कबीलों में हस्तक्षेप नहीं करेगा ।

उत्तर-पश्चिम सीमा (North-West Boundary of India):

(क) कबायली समस्या  (Tribal Problem):

कबीलों के साथ सफलतापूर्वक निबटना एक बड़ी समस्या थी । यह आसान काम सिद्ध नहीं हुआ । उपद्रवी कबायलियों के दबाने के लिए दंडप्रद आक्रमण आवश्यक थे ।

१८९३ ई॰ में चित्राल और गिलगिट पर एक विधिपूर्वक संरक्षित राज्य की घोषणा कर दी गयी । किन्तु दो वर्ष बाद जब एक ब्रिटिश अफसर गद्दी के एक प्रतिद्वंदी उम्मिदबार की सहायता के लिए चित्राल भेजा गया, तब उसे बहुत-से कबीलों ने घेर लिया, जो अंग्रेजों के विरुद्ध जिहाद (धर्म-युद्ध) की घोषणा कर चुके थे ।

घेरा डेढ़ महीनों तक रहा । अंत में एक उद्धारक सेना गिलगिट से चली आंर दूसरी मालकंद दर्रा होकर । १८९७ ई॰ में फिर घोर लड़ाई छिड़ गयी । मोहमंद, अफरीदी और अन्य बहुत से कबीले विद्रोह में उठ खड़े हुए । उनके दबाने के लिए नियमित सैनिक आक्रमण आवश्यक हो गये ।

इनमें तीरा का हमला विशेष उल्लेखनीय है । बार-बार होनेवाले इन उपद्रवों को रोकने के लिए सीमावर्ती जिलों में सामरिक महत्त्व की सड़कों एवं रेलों का निर्माण किया गया और उपद्रवों से अधिक कारगर ढंग से एवं शीघ्रता पूर्वक निबटने के लिए सैनिकों का पुनर्विभाजन किया गया ।

सीमावर्ती जिले पंजाब से पृथक कर लिये मरो और उन्हें मिलाकर उत्तर-पश्चिम सीमाप्रान्त का निर्माण किया गया जिसपर सीधे गवर्नर-जनरल के अधीन एक चीफ कमिश्नर और बाद में एक गवर्नर शासन करने लगा ।

किन्तु इन उपायों से भी यह इलाका शान्त और उपद्रव रहित नहीं बनाया जा सका । ब्रिटिश क्षेत्र में यदा-कदा होनेवाले हमले और पहाड़ी कबीलों द्वारा मचाये जानेवाले उपद्रव इस इलाके की स्थायी विशेषता बन गये । उन्हें भयाक्रान्त करने के लिए ब्रिटिश सरकार को हवाई जहाजों से बमबारी तक करनी पड़ती थी ।

इन परवर्ती घटनाओं के प्रकाश् में हम वहाँ अब्दुर्रहमान की समझदारी की प्रशंसा कर सकते है जहाँ उसने लॉर्ड लैंसडाउन (१८८८- १८९४ ई॰) को लिखे गये अपने पत्र में ब्रिटिश अग्रगामी नीति के परिणामों का निम्न शब्दों में वर्णन किया है:

“यदि आप कबीलों को मेरे राज्य से काटकर अलग कर देंगे तो वे न तो आपके किसी काम के रहेंगे और न मेरे । आप हमेशा या तो उनके साथ लड़ने में या दूसरी कठिनाई में उलझे रहेंगे और वे सदा लूटपाट मचाते रहेंगे । जबतक आपकी सरकार मजबूत है और जबतक शान्ति बनी हुई है तबतक आप उन्हें सख्त हाथों से शान्त रख सकते है किन्तु यदि कभी कोई विदेशी शत्रु भारत की सीमाओं पर प्रकट होगा, नो ये कबीले आप के सबसे बुरे शत्रु हो जायेंगे ।

इसके विपरीन अग्रगामी नीति के पक्षपाती इन पहाड़ी क्षेत्रों में ब्रिटिश प्रवेश का इस आधार पर समर्थन करते थे कि यह पश्चिम से होनेवाले किसी भी आक्रमण था के विरुद्ध उन्हें सिंधु नदी से श्रेष्ठतर सुरक्षा-रेखा प्रदान कर सकता था । विशुद्ध सैनिक दृष्टिकोण में यह शायद ठीक भी था ।

किन्तु इसमें निहित भारी कठिनाई ओर व्यय तभी उचिन ठहराया जा सकता था जबकि पश्चिम से गंभीर आक्रमण का वात्तीवा खतरा होता । परन्तु जिस समय प्रथम बार यह नीति अपनायी गयी, उस समय इस तरह का लनग निस्सन्देह बहुत दूर था । फिर भी परवर्ती घटनाओं के, जिन्हें कोई सोच नहीं मकना या प्रकाश में यह खतरा सर्वथा काल्पनिक नहीं कहा जा सकता ।

ऊपरी बर्मा का ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाया जाना (Integration of Burma with the British Empire):

क. प्रारंभिक घटनाएँ  (Early Events):

दो युद्धों के फलस्वरूप अंग्रेजों ने निचले बर्मा में अराकान, तनासरिम और पेगू पर अधिकार जमा लिया था । पुराना बर्मी वश ऊपरी बर्मा में राज्य कर रहा था । १८५७ ई॰ में इसकी राजधानी बदलकर मांडाले चली गयी । एक ब्रिटिश रेजिडेंट मांडाले में रहता था । ऊपरी बर्मा से व्यापार प्रारंभ किया गया । १८६२ ई॰ और १८६७ ई॰ में हुई दो संधियों द्वारा अंग्रेजों के अधिकार सुरक्षित कर दिये गये ।

इतना होने पर भी दोनों सरकारों के बीच के संबंध कभी सौहार्दपूर्ण नहीं रहे । निचले बर्मा का चला जाना बर्मी राजा मिंडन के लिए क्रोध का कारण था । साथ ने राजकीय प्रतिष्ठा के संबंध में उसका मध्यकालीन विचार अंग्रेजों के लिए क्रोधोत्पाद था । बर्मी प्रथा के अनुसार जब ब्रिटिश रेजिडेंट दरबार में हाजिर होता था, तब उसे अपने जूते उतार लेने पड़ते थे तथा उसे राजा के सामने घुटनों के बल बैठना पड़ता था ।

१८७६ ई॰ में वाइसराय ने इसपर आपत्ति की । किन्तु मिंडन नहीं डिगा । परिणाम यह हुआ कि ब्रिटिश रेजिडेंटों ने राजा के यहाँ जाना छोड़ दिया । फलत: बर्मी दरबार में ब्रिटिश प्रभाव कुछ हद तक घट गया ।

ख. तृतीय अंग्रेज-बर्मी-युद्ध (१८८५ ई॰) (Third British-Burmese War (1885 AD)):

(अ) युद्ध के कारण (Causes of War):

मिंडन का उत्तराधिकारी थीबो कमजोर और चरित्रभ्रष्ट राजा था । गद्दी पर बैठते ही उसने अस्सी राजकुमारों और राजकुमारियों को, जिनसे वह, संभव प्रतिद्वंद्वी समझकर भय खाता था, मौत के घाट उतार दिया । ब्रिटिश रेजिडेंट ने प्रतिवाद किया । किन्तु दरबार से उसे रूखा उत्तर मिला कि बर्मा सर्वोच्चशक्तिसंपन्न राज्य है । पेगू के चीफ कमिश्नर ने रेजिडेंट के लौटा लेने की सिफारिश की । किन्तु भारत सरकार ने नहीं माना ।

यीबो ने १८८४ ई॰ में हत्याकांड को दुहरा दिया । मानवता की दुहाई देकर शोरगुल हुआ । रंगून में सार्वजनिक सभाएँ हुईं, जिनमें भारत सरकार पर जोर डाला गया कि वह तुरत ऊपरी बर्मा को मिला ले ।

किंतु यह याद रखना चाहिए कि बर्मी आबादी इन सभाओं में उपस्थित नहीं थी । वस्तुत: इन सभाओं का प्रबंध अंग्रेज और चीनी सौदागरों द्वारा किया गया था, जिनका मुख्य स्वार्थ था व्यापार । भारत सरकार ने इन सभाओं की ओर कुछ ध्यान न दिया । वह संतोष किये बैठी रही कि बर्मी मामले अलग रास्ते से जा सकते हैं ।

किन्तु इस समय उत्तर-पूर्वी राजनीति में एक नवीन तत्व का आगमन हुआ । फ्रांस ने सुदूर पूर्व में एक औपनिवेशिक साम्राज्य स्थापित कर रखा था । १८८४ ई॰ में उसने कोचीन-चीन और तौनकिन पर अधिकार कर लिया । वह ऊपरी बर्मा की ओर बढ़ रहा था । बर्मी सरकार फ्रांस की मित्रता के लिए चिंतित थी ।

१८८५ ई॰ में दोनों शक्तियों के बीच एक व्यापारिक संधि हुई तथा फ्रांसीसियों ने गुप्त रूप से यह वादा किया कि वे बर्मा में तौनकिन होकर अस्त्र-शस्त्र आने देंगे । मांडाले में एक फ्रांसीसी कंसल (वैदेशिक प्रतिनिधि) रहने लगा । उस शहर में एक फ्रांसीसी बैंक खोलने, एक रेलवे चालू करने तथा राजकीय एकाधिकारों का प्रबंध प्राप्त करने के लिए अर्ध-सरकारी स्तर पर बातचीत होने लगी ।

फ्रांसीसियों के शांतिपूर्वक घुस जाने से ब्रिटिश सरकार भयभीत हो गयी । किन्तु वह कुछ नहीं कर सकती थी, क्योंकि उन्हें हस्तक्षेप का कोई प्रत्यक्ष कारण न था । मगर थीबो के एक मूर्खतापूर्ण काम ने वह कारण दे डाला ।

एक अंग्रेज कम्पनी-बॉम्बे-बर्मा ट्रेडिंग कॉरपोरेशन ने इस शर्त पर कुछ जंगल बर्मी सरकार से लीज (ठेका) पर लिये कि वह बर्मी सरकार को लकड़ी के प्रति कुन्दें पर एक निश्चित रकम अदा करेगी ।

किन्तु कम्पनी पर यह आरोप लगाया गया कि इसने बर्मी सरकार को प्रपंच पूर्वक एक भारी धन राशि से वंचित कर दिया है । नियमित ढंग से मुकद्दमा चलाया गया और कम्पनी को २३ लाख रुपये से अधिक का जुर्माना किया गया । कम्पनी ने भारत सरकार पर प्रभाव डाला जिसने मांग की कि यह माम वाइसराय के फैसले के लिए सुपुर्द किया जाना चाहिए ।

इसे बर्मी राजा ने नहीं माना । उसके दुर्भाग्यवश इस समय तीनकिन में फ्रांसीसियों की गहरी हार हुई तथा वे ऊपरी बर्मा से हट चले । लंदन-स्थित फ्रांसीसी राजदूत ने मांडाले में फ्रांसीसी कैसल द्वारा समझौते के लिए चलायी गयी अर्धसरकारी बातचीत को अस्वीकार कर दिया । अंग्रेजों ने इस स्वर्ण-सुयोग को धर दबाया तथा कड़ी चोट की । राजा थीबो के पास एक अंतिभेत्थम् भेजा गया ।

उसमें उसके मानने के लिए निम्नलिखित शर्तें दी गयीं:

(१) मांडाले में एक स्थायी रेजिडेंट रहना चाहिए । उसकी राजा के पास स्वतंत्र पहुँच होनी चाहिए । इस संबंध में जूते उतारने और घुटनों के बल बैठने-जैसे अपमानकारी रिवाज न रहने चाहिए ।

(२) बर्मा की वैदेशिक नीति अंग्रेजों द्वारा नियंत्रित होनी चाहिए ।

(३) बॉम्बे-बर्मा ट्रेडिंग कॉरपोरेशन का मामला वाइसराय द्वारा भेजे जानेवाले एक विशेष दूत के परामर्श से तय किया जाना चाहिए ।

(४) बर्मी सरकार को यन्नान (दक्षिण चीन) के साथ ब्रिटिश व्यापार चलाने में सहायता करनी चाहिए ।

(आ) युद्ध की घटनाएँ (Events of War):

९ नवम्बर, १८८५ ई॰ के उक्त अंतिमेत्थम् को थीबो ने अस्वीकार कर दिया । फलत: ब्रिटिश हमला हुआ । बीस दिनों के भीतर मांडाले पर कब्जा हो गया । थीबो ने अपने को अपने ही राजमहल में बंदी के रूप से पाया ।

(इ) बर्मा का दृढ़ीकरण (Burma Consolidation):

किन्तु राजधानी के पतन से राज्य का पतन नहीं हुआ । लुटेरों के दल और हटाये गये सिपाही एक प्रकार का गुरिलायुद्ध चलाते रहे । ऊपरी बर्मा के राज्य को शांत और दृढ़ करने में पांच वर्ष लग गये । शान और चिन-जैसी सीमास्थित जातियों द्वारा शासित क्षेत्रों को प्रभावकारी नियंत्रण में लाने में अगले छ: वर्ष लगे । विजित राज्य को निचले बर्मा में जोड़कर बर्मा का नया प्रांत बनाया गया, जिसकी राजधानी रंगून हुई ।

(ई) आलोचना (Criticism):

बर्मा का मामला दूसरी सीमा पर स्थित अफगानिस्तान के साथ एक मनोरंजक तुलना उपस्थित करता है । दोनों में ब्रिटिश नीति इस भय से परिचालित होती रही कि प्रथम श्रेणी की कोई दूसरी शक्ति-रूस या फ्रांस-ब्रिटिश राज्य के सीमावर्ती किसी एशियाई देश में राजनीतिक प्रभाव स्थापित कर लेगी ।

इन देशों के शासकों ने प्रतिद्वंद्वी यूरोपीय शक्ति से सहायता पाने की आशा में अंग्रेजों का खुले आम विरोध किया तथा दोनों दृष्टांतों में संकट की घड़ी आने पर वे निराश कर दिये गये ।

केवल भौगोलिक और जाति-विषयक तत्त्वों ने विभिन्न परिणाम उत्पन्न किये । बर्मा ब्रिटिश भारत में मिला लिया गया । किन्तु अफगानिस्तान के ऊँचे और खुरदरे पहाड़ों तथा भयंकर समर-प्रिय पठानों ने उस देश की पूर्ण विजय को अधिक कठिन काम बना दिया ।

भारतीय रियासतें (Indian Princely States):

क्राउन के अपने हाथों में शासन ले लेने के बाद भारतीय रियासतों के साथ ब्रिटिश सरकार के सम्बन्धों में महान-परिवर्तन हो गया । इसके पहले सम्बन्ध न तो एकरूप थे और न सुनिर्धारित ही । पहली त्रुटि तो वस्तुत: अवश्यंभावी थी, क्योंकि विभिन्न रियासतों ने विभिन्न समय पर एवं विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न प्रकार की संधियाँ की थीं ।

जहाँ तक दूसरी त्रुटि का सम्बन्ध है, ब्रिटिश-जैसी वर्धनशील शक्ति की नीति स्वभावत: विविध परिस्थितियों एवं प्रभावों के फलस्वरूप समय-समय पर रूपभेदित होती रहती थी । बहुत-कुछ व्यक्तिगत तत्व पर भी निर्भर रहता था ।

वेलेस्ली, लार्ड हेस्टिंग्स और डलहौजी ने, जैसा हम पहले देख चुके हैं, दूसरों की अपेक्षा कहीं अधिक आक्रामक रुख अख्तियार किया, यद्यपि उनके कार्यकालों में कम्पनी ने कोई नयी नीति नहीं चलायी थी । इसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय रियासतों में अनिश्चितता और व्याकुलता की अवस्था छा गयी ।

वे निश्चित रूप से यह नहीं जानते थे कि वे कहां हैं । सिद्धान्तत: अलग राजनीतिक इकाई के रूप में उनका अस्तित्व संधियों द्वारा पक्का किया हुआ था । उनमें से बहुत स्वतंत्र पद का उपभोग करते थे, केवल उन पर कतिपय उल्लिखित प्रतिबंध थे ।

फिर भी व्यवहार में बहुत-से राज्य अंग्रेजों द्वारा अपने साम्राज्य में मिला लिये गये (जैसे अवध, सतारा, नागपुर, झाँसी और कर्णाटक) तथा अनेक दूसरे राज्यों में (जैसे भरतपुर, मैसूर और ग्वालियर में) अंग्रेजों ने न केवल आतरिक शासन में हस्तक्षेप किया, बल्कि या तो सरदारों को अपदस्थ कर डाला या निश्चित रूप से उनका पद घटा दिया ।

१८४१ ई॰ में कोर्ट ऑव डिरेक्टर्स ने एक निश्चित नीति अपनायी कि “उचित और प्रतिष्ठित ढंग से जो राज्य-प्राप्ति या राजस्व-प्राप्ति हो, उसे न छोड़ा” जाए । डलहौजी ने इस नीति को इसकी चरम सीमा तक पहुँचा दिया । गदर के विस्फोट ने इस नीति पर एक विकराल टिप्पणी का काम किया ।

फलत: जब सरकार क्राउन के हवाले की गयी, तब देशी रियासतों के प्रति नीति में पूर्ण परिवर्तन हुआ । ब्रिटिश भारत में हुए बहुत-से परिवर्तनों के समान, यह नवीन संबंध भी धीरे-धीरे और क्रमिक रूप में विकसित हुआ-अंशत: नीति की लिखित घोषणा के द्वारा किन्तु मुख्यत उदाहरणों एवं प्रथाओं द्वारा ।

यह नवीन नीति रानी की घोषणा में दी गयी एक निश्चित प्रतिज्ञा के द्वारा प्रविष्ट हुई कि “हम अपने वर्तमान राज्य का विस्तार नहीं चाहते हैं” । शायद इस घोषणा से समस्या हल नहीं होती, यदि इसके साथ इसके उचित पालन के लिए दूसरी कार्रवाइयाँ न की जातीं ।

हाल में जो ब्रिटिश साम्राज्य में देशी राज्य मिला लिये गये थे उनके दो मुख्य कारण दिए गए थे:

(i) स्वाभाविक उत्तराधिकारियों का न होना और

(ii) देशी राजाओं का कुशासन । साम्राज्य में न मिलाने की नीति के व्यवहार में आने के पहले इन कारणों से निबटने का उपाय निकाला जाना था ।

पहले का हल साधारण था और उसे तुरत अपना लिया गया । १८६० ई॰ में राजाओं को सनदें दी गयीं । इसके द्वारा स्वाभाविक उत्तराधिकारी न रहने पर, हिन्दू सरदारों को दत्तक पुत्र बनाने का अधिकार मिल गया तथा मुस्लिम सरदारों को मुस्लिम कानून के अनुसार किसी भी तरह से उत्तराधिकार निश्चित करने का अधिकार प्राप्त हो गया । इन्हें “गोद लेने की सनदें” कहते है । इनसे रियासतों का चिरस्थायित्व सुरक्षित हो गया ।

जहाँ तक कुशासन का सम्बन्ध है, बातें अधिक जटिल थीं तथा स्पष्टत: किसी निश्चित नियम से काम नहीं चल सकता था । १८५८ ई॰ के बाद हुई वास्तविक घटनाओं को देखते हुए मालूम पड़ता है कि नयी नीति के अनुसार शासक को कुशासन के लिए दंड देना था और आवश्यक होने पर उसे अपदस्थ कर देना था, किन्तु उसके कुकर्मों के लिए रियासत को ब्रिटिश साम्राज्य में नहीं मिलाना था ।

इस नयी नीति का एक उप-सिद्धात था कुशासन के प्रचंड कारवाइयों के लायक होने के पहले ही आंतरिक शासन में हस्तक्षेप कर देना । कुछ वास्तविक उदाहरणों से नवीन नीति का रूख स्पष्ट हो जायगा ।

सबसे महत्वपूर्ण दृष्टांत मल्हार राव गायकवाड़ का है । वह घोर कुशासन का दोषी था । रेजिडेंट कर्नल फेर ने उसके शासन की बुराइयाँ खोल डालीं । कहा जाता है कि इस पर गायकवाड़ ने रेजिडेंट के भोजन में हीरे का कण मिलाकर उसे विष देने का प्रयत्न किया (नवम्बर, १८७४ ई॰) ।

लार्ड नार्थब्रूक ने जनवरी, १८७५ ई॰ में गायकबाड़ को पकड़वा लिया तथा उसकी जाँच के लिए एक कमीशन नियुक्त किया । कमीशन में तीन भारतीय और तीन अंग्रेज थे । इसका अध्यक्ष बंगाल का चीफ जस्टिस था । कमीशन में मतभेद हो गया । तीनों अंग्रेजों ने गायकवाड़ को दोषी ठहराया ।

किन्तु तीनों प्रमुख भारतीय सदस्यों-ग्वालियर एवं जयपुर के महाराजाओं और सर दिनकर राव का मत था कि अभियोग सिद्ध नहीं हुआ । तदनुसार भारत सरकार ने गायकवाड़ को हत्या के प्रयत्न के अभियोग से मुक्त कर दिया, किन्तु उसे “उसके बदनाम दुराचरण, उसके राज्य के घोर कुशासन तथा आवश्यक सुधारों के कार्यान्वित करने में उसकी स्पष्ट अयोग्यता” के लिए अपदस्थ कर दिया ।

एक नया गायकवाड़ गद्दी पर बैठाया गया । यह सयाजी राव नामक लड़का था । वह शासन करनेवाले परिवार का दूर का संबंधी था । लड़के की उचित शिक्षा और प्रशिक्षण के लिए प्रबंध कर दिया गया । सर टी. माधव राव ने उसकी नाबालिगी में राज्य का योग्यतापूर्वक शासन किया ।

वह लड़का, जो इस प्रकार गद्दी पर बैठाया गया था, भारत का एक अत्यंत प्रबुद्ध शासक हुआ तथा उसके पितृवत् मार्गनिर्देशन में बड़ौदा समस्त भारत में एक अत्यंत प्रगतिशील राज्य बन गया । जनवरी, १९३९ ई॰ में उसकी मृत्यु हुई । मणिपुर का दृष्टान्त नवीन नीति का दूसरा उदाहरण उपस्थित करता है ।

राजमहल की क्रान्ति के फलस्वरूप गया महाराज सूरचन्द्र २१ सितम्बर १८९० ई॰ को अपदस्थ हो गया । सेनापति टीकेन्द्रजीत पर, जो योग्य और लोकप्रिय व्यक्ति था, इसे टकलाने का सन्देह किया गया, हालाँकि इसके लिए कोई ठोस प्रमाण नहीं था । अपने पुन: प्रतिष्ठित करने के लिए सूरचन्द्र ने ब्रिटिश सहायता की याचना की । राजनीतिक अभिकर्ता (पोलिटिकल एजेन्ट) इसके विरुद्ध था ।

वाइसराय लॉर्ड लैंसडाउन और आसाम के चीफ कमिश्नर क्विंटन के बीच १८९१ ई॰ में फरवरी के अन्त में हुए साक्षात्कार के बाद भारत सरकार ने दूसरे भाई कुलचन्द्र को निम्नलिखित शर्तों के स्वीकार करने पर मणिपुर का महाराज स्वीकार करने का निश्चय किया:

(१) राजनीतिक अभिकर्ता के परामर्श के अनुसार राज्य शासन चलाया जाना,

(२) रेजीडेंसी में राजनीतिक अभिकर्ता को ३०० सिपाही रखने की आज्ञा देना,

(३) मणिपुर से टीकेन्द्रजीत को निर्वासित कर देना ।

इन्हें कार्यान्वित करने के लिए मार्च १८९१ ई॰ में क्विंटन ४०० गुरखा सिपाहियों और कुछ असैनिक अधिकारियों के रक्षकदल के साथ मणिपुर को रवाना हुआ । जब क्विंटन ने टीकेन्द्रजीत को उसके घर में २४ मार्च को गिरफ्तार करना चाहा तो उसने मणिपुरी सिपाहियों के साथ दृढ़ता से विरोध किया और ब्रिटिश सेना को रेजीडेंसी में लौट आना पड़ा । मणिपुरी सिपाहियों ने रेजीडेंसी पर भी चढ़ाई कर दी ।

जब अंग्रेजों की स्थिति गंभीर होने लगी तो युद्ध विराम हुआ । टीकेन्द्रीजीत के साथ एक साक्षात्कार का प्रबन्ध किया गया, जिसमें क्विंटन, ग्रीमवूड, लेफ्टिनेन्ट सिम्पसन एवं दो अन्य अंग्रेज उपस्थित थे । किन्तु बातचीत विफल हो गयी और जब ब्रिटिश दल फाटक की ओर बढ़ने लगा तो एक उत्तेजित भीड़ ने उसपर चढ़ाई कर दी । टीकेन्द्रजीत की जानकारी के बिना चार अंग्रेज तोंगल जनरल के द्वारा मार डाले गये । दल के बाकी लोग ३१ मार्च को ब्रिटिश क्षेत्र में लौट आये ।

८ अप्रैल को इस “जघन्य हत्या” की खबर पाकर ब्रिटिश सरकार ने शीघ्र ही इसका बदला लेने के लिए सैनिक अभियान भेजे । २३ मई तक कुलचन्द्र, तोंगल जनरल और टीकेन्द्रजीत पकड़ लिये गये ।

एक विशेष न्यायालय द्वारा टीकेन्द्रजीत और तोंगल जनरल पर मुकद्दमा चलाया गया, किन्तु कुछ लोगों के अनुसार मणिपुर की प्रजा पर इस न्यायालय का अधिकार नहीं था । उन्हें मौत की सजा दी गयी और ३१ अगस्त को उन्हें खुले आम फाँसी पर चढ़ा दिया गया ।

कुलचन्द्र और उसके भाई अंगाओ सेन की मौत की सजाएँ घटाकर सम्पत्ति-अपहरण के साथ आजीवन काराबास में बदल दी गयीं । आधुनिक शोध यह इंगित करते है कि टीकेन्द्रजीत वस्तुत: हत्या करने, हत्या की मदद करने और भारत की सम्राज्ञी के विरुद्ध युद्ध करने के अभियोगों का दोषी नहीं था ।

किन्तु उसे “अपनी योग्यता और बहादुरी के लिए, जिसे अंग्रेज किसी भी विधियुक्त अथवा वास्तविक देशी रियासत के शासक में बर्दाश्त नहीं कर सकते थे” अत्यन्त कठोर सजा भुगतनी पड़ी । सितम्बर १८९१ ई॰ में पाँच वर्ष का एक बालक मणिपुर का नया शासक बनाया गया और चूँकि वह नाबालिग था, अत: राज्य राजनीतिक अभिकर्ता द्वारा शासित होता रहा ।

ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन-काल में अवध, पंजाब, कुर्ग और दूसरे बहुत-से राज्य इसी प्रकार के कारणों से ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिये गये थे । इसलिए बड़ौदा और मणिपुर के दृष्टांत उनकी तुलना में घोर विषमता दिखलाते हैं । वे सर्वोच्च शक्ति की तत्परता न केवल हस्तक्षेप करने में, बल्कि आवश्यक होने पर विवादग्रस्त उत्तराधिकार, कुशासन, आंतरिक विद्रोह आदि के मामलों में परिस्थिति के सुधारार्थ उचित उपाय करने में भी दिखलाते है । दूसरी ओर सर्वोच्च शक्ति ने समान रूप से भारतीय रियासतों के मिला लेने में अपनी अनिच्छा भी दिखलायी ।

रियासतों का स्वतंत्र अस्तित्व कायम रखने की इच्छा मैसूर के उदाहरण से भी साफ-साफ झलकती है । जैसा पहले लिखा जा चुका है, यह रियासत १८३१ ई॰ में ब्रिटिश शासन के अधीन रख दी गयी । पचास वर्षों के ब्रिटिश शासन के बाद रियासत इसके कानूनी शासक को लौटा दी गयी (१८८१ ई॰) । यह “मैसूर का समर्पण” भारतीय रियासतों के प्रति नवीन नीति के बिलकुल अनुकूल था तथा इसे पूर्णतया प्रदर्शित करता था ।

ये उदाहरण निश्चित रूप से सिद्ध करते हैं कि भारतीय रियासतों का मिलाया जाना भूत की बात बन चुका था तथा स्वाभाविक उत्तराधिकारियों के न होने से अथवा किसी शासक के कुशासन से उस रियासत के अस्तित्व के खतरे में पड़ने की जरूरत न थी । इस हद तक भारतीय रियासतें कंपनी से क्राउन के प्रति सरकार-परिवर्तन द्वारा निस्संदेह लाभान्वित हुई ।

लेकिन जिस अनुपात में सुरक्षा एवं स्थिरता में वृद्धि हुई उसी अनुपात में उनके पद में नियमित रूप में घटती होती गयी । यह अंशत: अवश्यंभावी था और अंशत: एक सुचिंतित नीति का परिणाम था ।

१८५८ ई॰ में रियासतों की संख्या करीब छ: सौ थी । इनमें पाँच सौ से भी अधिक छोटी-छोटी रियासतें थी, जिनके ब्रिटिश सरकार के साथ सम्बन्ध कभी भी लिखित रूप में स्पष्टतया निर्धारित नहीं हुए । बाकी रियासतों के साथ सम्बन्ध संधियों द्वारा निर्धारित थे । किन्तु संधि-दत्त अधिकार विभिन्न रियासतों के साथ वास्तव में अलग-अलग तरह के थे ।

तदनुसार ये रियासतें साम्राज्यीय शक्ति की अधीनता की विभिन्न अवस्थाओं में थीं । हैदराबाद-जैसी कुछ रियासतों ने पहले तो कम्पनी के साथ समानता के आधार पर संधियाँ कीं तथा पीछे कुछ निश्चित अधिकारों (यथा वैदेशिक नीति का नियंत्रण) से बाज आयीं और कुछ निश्चित बंधनों (निर्दिष्ट सेना की आपूर्ति) में बंध गयीं । यह स्पष्ट था कि इन बातों को छोड्‌कर ऐसी रियासत सिद्धांतत: किसी भी प्रकार के ब्रिटिश नियंत्रण से बिलकुल मुक्त थी ।

जहाँ तक राजपूत रियासतों का प्रश्न है, संधियों में इसकी व्यवस्था थी कि शासकों को किसी विदेशी शक्ति के साथ कोई सम्बन्ध न रखना चाहिए तथा युद्ध के समय अपनी रियासतों के सारे साधनों से कम्पनी की सहायता करनी चाहिए किन्तु अपने राज्यों के अंतर्गत उन्हें पूर्ण अघिकार प्राप्त है ।

इस प्रकार ये रियासतें स्पष्टत: मैसूर, बड़ौदा या अवध जैसी रियासतों से बिलकुल भिन्न कोटि की थीं, क्योंकि इन पीछे उल्लिखित रियासतों से की गयी संधियों में अंग्रेजों को आंतरिक बात । में हस्तक्षेप करने का निश्चित अधिकार मिला हुआ था । मगर इन दृष्टांतों में भी सम्बन्ध वैसी संधियों द्वारा निर्धारित हुए थे जो दो स्वतंत्र शक्तियों के बीच होती हैं, न कि वैसी संधियों द्वारा जो एक सर्वोच्च शक्ति अपने अधीन राज्य पर लादती है ।

क्राउन के अधीन सरकार की नीति यह थी कि भारतीय रियासतों के पद में इन विभिन्नताओं की उपेक्षा की जाए तथा सब पर समान रूप से सिद्धान्तत: एवं व्यवहारत: ब्रिटिश क्राउन की सार्वभौमता कायम रखी जाए । यदि १८५८ ई॰ के बाद भारतीय रियासतों के प्रति ब्रिटिश सरकार के रुख का अध्ययन किया जाए, तो यह बिलकुल साफ हो जाएगा ।

इस नवीन नीति की सबसे प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति १८७६ ई॰ के कानून में पायी जाती है, जिसके द्वारा रानी विक्टोरिया ने १ जनवरी, १८७७ ई॰ से “भारत की साम्राज्ञी” (“एंप्रेस ऑफ इंडिया”) का पद धारण किया । इससे भारतीय रियासतें तुरत ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत चली आयीं तथा कानूनी तौर पर रियासतों के शासक और निवासी अब से ब्रिटिश शक्ति के अधीन समझे जाने लगे ।

कम-से-कम सैद्धांतिक रूप में यह परिवर्तन वस्तुत: बहुत बड़ा था । ईस्ट इंडिया कम्पनी के दिनों में इन रियासतों के पद पर ऊपर विचार हो चुका है । १८५८ ई॰ की प्रसिद्ध घोषणा में क्राउन द्वारा यह पूर्णरूपेण मान लिया गया था, जैसा कि नीचे दिये उद्धरण से स्पष्ट होगा ।

“हम इसके द्वारा भारत के देशी राजाओं को घोषित करते है कि उनके साथ ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा या उसके अधिकार के साथ जो भी संधियाँ और सुलहें हुई हैं वे हमारे द्वारा स्वीकार की जाती हैं तथा अति सतर्कता पूर्वक निबाही जाएँगी । हम उनकी ओर से भी इसी प्रकार के पालन की आशा रखते हैं ।”

“हम अपने वर्तमान राज्य का विस्तार नहीं चाहते । हम अपने राज्य पर किसी आक्रमण की आज्ञा न देंगे और न अपने अधिकारों को निर्विघ्नता के साथ प्रयुक्त होने देंगे । साथ ही हम दूसरों के राज्य में अनाधिकार हस्तक्षेप की स्वीकृति भी नहीं देंगे ।”

“हम देशी राजाओं के अधिकारों, प्रतिष्ठा एवं सम्मान का उतना ही आदर करेंगे जितना अपना । हम चाहते हैं कि वे एवं हमारे अपने प्रजाजन उस समृद्धि और सामाजिक प्रगति का उपभोग करें, जो आंतरिक शांति एवं सुशासन से ही प्राप्त हो सकती है ।”

ऊपर के उद्धरण से स्पष्ट है कि क्राउन द्वारा भारतीय सरकार के ले लिये जाने के बाद भी भारतीय रियासतें स्वतंत्र सार्वभौमसत्ता-संपन्न राज्य मानी जाती रहीं तथा ब्रिटिश सरकार के मित्र समझी जाती रहीं, न कि उसकी प्रजा । लेकिन १८७६ ई॰ के कानून ने इस पहलू को बिलकुल बदल दिया तथा इंगलैंड की सार्वभौमसत्ता-संपन्न शक्ति को भारतीय रियासतों का भी अधिपति बना डाला । अब से ब्रिटिश सरकार खुले तौर पर अधिपति शक्ति बन बैठी । यह पद व्यवहारत: अंग्रेज कुछ समय पहले से ही लेते आ रहे थे ।

यह नवीन पद “हस्तांतरीकरण के कानूनी लेखपत्र” में बहुत साफ तौर से बतला दिया गया । इसमें वे शर्तें दी हुई थीं, जिनके अंतर्गत मैसूर १८८१ ई॰ में अपने भारतीय शासकों को लौटा दिया गया था । यदि इस लिखित प्रमाण की तुलना श्रीरंगपट्टम की संधि से की जाए, जिसके द्वारा वेलेस्ली ने मैसूर के नवनिर्मित हिन्दू राज्य की स्थिति निर्धारित की, तो यह मनोरंजक और शिक्षाप्रद दोनों होगी ।

श्रीरंगपट्टम् की संधि में यह दिया हुआ था कि “इकरार करनेवाले किसी भी दल के मित्र और शत्रु दोनों के मित्र और शत्रु समझे जाने चाहिए” । “हस्तांतरीकरण के कानूनी लेखपत्र” (इंस्टूमेंट आफ ट्रांस्फर) में मैसूर के शासक को “रानी के प्रति राजभक्ति और अधीनती में वफादार रहना” लाजिमी था ।

अधिपति-अधिकार के इस स्पष्ट धारण को हस्तांतरीकरण के कानूनी लेखपत्र में कई धाराएं देकर परिपूरित किया गया । ये धाराएँ श्रीरंगपट्टम की संधि में बिलकुल नहीं थी । इनके द्वारा मैसूर की सरकार को अंग्रेजों से शासन के मामलों जैसे “तार रेलवे नमक और अफीम का तैयार किया जाना, अपराधियों का समर्पण, और ब्रिटिश भारत की मुद्रा का व्यवहार” में सहयोग करना था ।

कानूनी लेखपत्र में एक नयी धारा थी, जिसपर विशेष विचार होना चाहिए । वह एक निश्चित घोषणा थी कि मैसूर सरकार का कोई भी उत्तराधिकारी तब तक वैध नहीं था, जब तक वह गवर्नरजनरल-इन-कौंसिल से स्वीकृत न हो । क्राउन ने गोद लेने को कानूनी रूप देकर भारतीय रियासतों की माँगों के प्रति एक भारी रियायत दिखलाई थी ।

किन्तु उत्तराधिकार के इस नवीन सिद्धांत ने बराबर करने से भी ज्यादा बोझ डाल दिया । कम्पनी ने रियासतों में केवल उसी हालत में उत्तराधिकार को नियंत्रित करने का दावा किया था, जब कि कोई शासक बिना उत्तराधिकारी छोड़े मर जाय ।

मगर कानूनी लेखपत्र में जो सिद्धांत प्रतिपादित हुआ वह यह था कि किसी भारतीय रियासत का कोई उत्तराधिकार तब तक वैध नहीं होगा, जब तक कि वह ब्रिटिश सरकार से स्वीकृत न हो । आगे यही सरकार की स्वीकृत नीति बन गयी । यह बात भारत सरकार और राज्य-सचिव दोनों की घोषणाओं से सिद्ध होती है ।

भारत सरकार ने १८८४ ई॰ में लिखा “देशी रियासत का कोई भी उत्तराधिकार तब तक अवैध है, जब तक वह किसी रूप में ब्रिटिश अधिकारियों की स्वीकृति नहीं पा लेता” । राज्य-सचिव ने १८९१ ई॰ में इन शब्दों में इसे दुहराया “प्रत्येक उत्तराधिकार ब्रिटिश सरकार द्वारा अवश्य स्वीकृत होना चाहिए, तथा कोई उत्तराधिकार तब तक वैध नहीं हो सकता जब तक उसे स्वीकृति न मिले” ।

इस प्रकार भारतीय रियासत के शासक के मर जाने पर सिद्धांतत: (क्रमबद्ध दो शासनों के बीच का) अराजक-काल होता था तथा पुत्र भी तब तक गद्दी पर नहीं बैठ सकता था, जब तक कि ब्रिटिश सरकार से उसका दावा मंजूर न हो जाए ।

भारतीय रियासतों पर आधिपत्य का सिद्धांत एक और काम करता था । यह ब्रिटिश सरकार के उस दावे का आधार और औचित्य प्रस्तुत करता था कि आवश्यक होने पर सुशासन के लिए उसका उनके आन्तरिक मामलों में भी हस्तक्षेप करने का अधिकार है ।

अधिपति-शक्ति की हैसियत से ब्रिटिश सरकार ने रियासतों में शासन का उच्च स्तर बनाये रखने की जिम्मेवारी ली । पहले जब तक कोई रियासत वफादार रहती थी, तब तक कम्पनी उसे चुपचाप छोड़ देती थी । वह साधारणतया इसके आंतरिक शासन में हस्तक्षेप नहीं करती थी । हाँ, जब घोर कुशासन होने लगता था, तब वह बराबर के लिए उसे अपने राज्य में मिला लेती थी ।

क्राउन के अधीन, रियासत को वफादार होने के अतिरिक्त शासन का उच्च स्तर भी कायम रखना पड़ता था तथा इसमें चूक जाने पर अधिपति शक्ति का हस्तक्षेप आ पहुंचता था । बड़ौदा और मणिपुर के मामलों, जिनपर ऊपर विचार हो चुका है के अलावा हैदराबाद, काश्मीर और अलवर राज्यों में बाद में किये गये हस्तक्षेप का विवरण दिया जा सकता है ।

निजाम के राज्य के साथ हस्तक्षेप के सम्बन्ध में लॉर्ड रीडिंग ने नयी नीति की बड़ी ही स्पष्ट अभिव्यक्ति की:

“भारतीय रियासतों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करने का ब्रिटिश सरकार का अधिकार उन परिणामों का एक अन्य दृष्टान्त है जो आवश्यकरूप से ब्रिटिश क्राउन की सर्वप्रमुता में अन्तर्निहित हैं । सचमुच बार-बार ब्रिटिश सरकार ने यह दर्शाया है कि बिना गम्भीर कारण के इस शक्ति के प्रयोग की इसे कोई इच्छा नहीं है ।

किन्तु आन्तरिक और समानरूप से बाहरी सुरक्षा, जो सत्तारूढ़ नरेशों को उपलब्ध है, अन्तत: ब्रिटिश सरकार की संरक्षण-शक्ति के कारण है । जहाँ साम्राज्य के हितों का प्रश्न है अथवा जहाँ जनता का सामान्य कल्याण इसकी सरकार के कार्य द्वारा गम्भीर और दुखदायी रूप से प्रभावित होता है, वहाँ आवश्यक होने पर परिहार करनेवाले उपाय की अंतिम जिम्मेदारी अधिपति शक्ति की है । विभिन्न अंशों में जो आन्तरिक संप्रभुता देशी शासकों को उपलब्ध है वह अधिपति शक्ति द्वारा इस उत्तरदायित्व के उचित पालन के अधीन है ।”