ब्रिटिश राज के दौरान भारत की समाज और संस्कृति | Society and Culture of India during British Raj.

विविध संस्थाओं के काम  (Works of Diverse Institutions):

जो सांस्कृतिक उत्थान भारत में एक नवीन युग लाया, वह बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में पूरी तेजी पर था । दक्कन एडुकेशन सोसाइटी में अपनी बीस वर्षों की सेवा समाप्त कर गोपालकृष्ण गोखले ने १९०५ ई॰ में उससे भी अधिक प्रसिद्ध संगठन सर्वेट्‌स ऑफ इंडिया सोसाइटी की स्थापना की । सोसाइटी का उद्देश्य था “भारत की सेवा के लिए राष्ट्रीय मिश- नरियों” को प्रशिक्षित करना “तथा सभी संविधानिक उपायों से भारतीय जनता के सच्चे हितों को प्रोन्नत करना” ।

इसके वही सदस्य हो सकते थे जो “धार्मिक भावना से प्रेरित. हो कर देश-सेवा के लिए अपने जीवन देने को उद्यत” हों । यह किसी खास राजनीतिक, शैक्षिक, आर्थिक या सामाजिक काम के लिए स्थापित सोसाइटी न थी, बल्कि कुछ मनुष्यों का समूह-मात्र थी, जो मातृभूमि की किसी तरह की सेवा के लिए प्रशिक्षित एवं सज्जित थे ।

“प्रधान महत्व की बात यह नहीं थी कि इसके सदस्य भविष्य में स्कूल या पत्र या विधानमंडल या सहयोग-समितियाँ चलानेवाले थे । बल्कि ऐसे किसी काम की पार्थक्य-सूचक विशेषता-अनिवार्य विशेषता-यह बात होनी थी कि यह (काम) अपने लिए ही शरू किया जा रहा था-यह अच्छा काम था जो अपना उद्देश्य खुद होता है यह किसी दल या वर्ग या संघ के बढ़ाने के लिए या-अल्पतम मात्रा में-व्यक्तिगत शक्ति-वृद्धि (उन्नति) के लिए नहीं किया जा रहा था ।”

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गोखले का १९१५ ई॰ में देहांत हो गया । उनके बाद श्रीनिवास शास्त्री सोसाइटी के अध्यक्ष बने । इन दोनों ने मुख्यत: राजनीति में अपने को लगाया तथा उस दिशा में अपूर्व प्रतिष्ठा प्राप्त की । कुछ अन्य सदस्यों ने दूसरी तरह के काम में अपने को लगाया तथा स्वतंत्र संगठनों का विकास किया । हम यहाँ उनमें से तीन के कामों का जिक्र करेंगे ।

(अ) एक ऐसे सदस्य नारायण मल्हार जोशी ने १९११ ई॰ में बम्बई में सामाजिक सेवा संघ (सोशल सर्विस लीग) की स्थापना की । इसका उद्देश्य था “साधारण जनता के लिए जीवन और काम की बेहतर एवं तर्कसंगत स्थितियाँ प्राप्त करना” ।

“पंद्रह वर्षों के भीतर ही वे ७६० बालिगों के लिए १७ रात्रिपाठशालाएँ, मिलों के अर्धसमयियों के लिए ३ नि:शुल्क दिवस पाठशालाएँ, ११ पुस्तकालय एवं वाचनालय (जिनकी औसत दैनिक पाठक-संख्या २०० थी) और २ दिवसीय शिशुगृह (नर्सरियाँ) चलाने लगे । उन्होंने सौ से भी अधिक सहयोग-समितियों का संगठन किया । वे पुलिस कोर्ट एजेंटों का काम करते थे । वे कानूनी सलाह देते थे तथा निरक्षरों के लिए दर्खासों लिखते थे । वे नगर की गंदी और धनी बस्तियों के बच्चों के लिए निर्मल हवा की सैरों का प्रबंध करते थे । मजदूरों (काम करनेवालों) के मनोरंजन के लिए उन्होंने छ: व्यायामशालाओं एवं तीन नाटकीय रंगमंचों की व्यवस्था की । वे स्वास्थ्य-रक्षात्मक काम करते थे । वे तीन औषधालयों में प्रति वर्ष करीब बीस हजार बाहरी मरीजों को मेडिकल आराम पहुँचाते थे । उन्होंने बालक क्लब और स्काउट कोर भी शुरू कर दिये ।”

१९२० ई॰ में श्री जोशी ने अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस कायम की तथा भारत के मजदूर आंदोलन के सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि माने गये । उन्होंने १९२९ ई॰ तक योग्यतापूर्वक मजदूर आंदोलन की सेवा की । उसी वर्ष ट्रेड यूनियन कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में एक प्रस्ताव पास हुआ कि अखिल भारतीय फेडरेशन (श्री जोशी द्वारा स्थापित) को मास्को से संबद्ध करा दिया जाए । कम्यूनिज्म की ओर इस झुकाव ने जोशी और उनके अनुयायियों को सभा छोड़ने को लाचार कर दिया ।

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(आ) सर्वेट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी के एक अन्य सदस्य हृदयनाय कुंजरू ने १९१४ ई॰ में इलाहाबाद में सेना समिति कायम की । शिक्षा, स्वास्थ्यरक्षा, व्यायाम आदि की प्रोन्नोत के आतिरिक्त यह मेलों, अकालों, बाढ़ों एवं महामारियों में और विशेषकर कुंभ मेला जैसे धार्मिक उत्सवों के अवसर पर सामाजिक सेवा का संगठन करता है ।

(इ) श्रीराम वाजपेयी ने सेवा समिति ब्वाय स्काउट्‌स ऐसोसिएशन का संगठन किया । यह १९१४ ई॰ में बेडेन-पावेल द्वारा स्थापित विश्व-व्यापी संस्था के ढंग पर कायम किया गया था, क्योंकि उक्त संस्था ने उस समय भारतीयों को उसमें नहीं आने दिया था ।

जब लार्ड बेडेन-पावेल स्वयं भारत आये, तब उन्होंने रंग का प्रतिबंध हटा दिया । किन्तु वाजपेयी के संगठन ने अपना अलग अस्तित्व सुरक्षित रखने का निर्णय किया, क्योंकि इसका उद्देश्य था भारत में ब्वाय स्काउट आदोलन का संपूर्ण भारतीयीकरण ।

सर्वेट्‌स ऑफ इंडिया सोसाइटी के पाँच प्रसिद्ध सदस्यों (गोखले, शास्त्री, जोशी, कुंजरू और वाजपेयी) के काम भारत का राष्ट्रीय जीवन ढालने में इसका भाग स्पष्ट तौर पर बताने को यथेष्ट है ।

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सर्वेट्‌स ऑफ इंडिया सोसाइटी तीन पत्र चलाती थी- द’ सर्वेट्‌स ऑफ इंडिया, एक अंग्रेजी साप्ताहिक, श्री॰ एस॰ जी॰ वजे द्वारा संपादित; ध्यान-प्रकाश, मराठी का सब से पुराना दैनिक, श्री लिमाये द्वारा संपादित, तथा हितवाद, एक साप्ताहिक ।

अल्पसंख्यक जातियों में सुधार  (Minority Caste Reform):

पारसी एवं सिख-जैसी भारत की अल्पसंख्यक जातियाँ भी सुधार की लहर से अत्यंत प्रभावित हुईं । पारसी जाति अपने प्रसिद्ध सुधारक बहरमजी एम. मलाबारी की बहुत ऋणी है, जिन्होंने भारतीय नारियों, बच्चों, शिक्षा और पत्रकारकला की अपूर्व सेवा की । जोरोऐस्ट्रियन कांफ्रेंस ने जाति की लाभदायक सेवा की है ।

इसका उद्‌घाटन १९१० ई॰ में ढाला नामक एक पारसी पुरोहित के प्रयत्न से हुआ था । ढाला ने अमेरिका जा कर कोलंबिया विश्वविद्यालय में जोरोऐस्ट्रियनिज्म के प्रसिद्ध विद्वान् प्रोफेसर जैकसन से अध्ययन किया था ।

प्रमुख खालसा दीवान और अमृतसर के खालसा कालेज ने सिख जागरण के जबर्दस्त प्रमाण दिये । खालसा दीवान का प्रधान कार्यालय अमुतसर में था । इसकी शाखाएँ देश के विभिन्न भागों में थी । यह रामाज और संस्कृति में उदार सुधारों का पक्षपाती था ।

अधिकतर अलीगढ़ आंदोलन के द्वारा, जिसका इतिहास पहले ही लिखा जा चुका है भारतीय इस्लाम में नवजीवन का संचार हुआ । इस “नवीन इस्लाम” के प्रमुख व्याख्याता थे मौलवी चिराग अली, राइट औनरेब्ल सैयद अमीर अली, सर शेख मुहम्मद इकबाल, प्रोफेसर ऐस॰ खुदाबख्श और प्रोफेसर एल॰ एम॰ मौलवी । कुछ अंजुमनें या सोसाइटियां और एक शक्तिशाली मुस्लिम प्रेस मुस्लिम जाति की सेवा के लिए वेग के साथ निकल पड़े ।

अहमदिया आंदोलन ने भी दुनिया के विभिन्न भागों में कुछ अनुयायी प्राप्त कर लिये । इसे पंजाब के गुरुदासपुर जिले में स्थित कादियान के मिर्जा गुलाम अहमद ने शुरू किया था । इसका उद्देश्य था “पैगंबर के अनुयायियों को इस्लाम का सच्चा एवं निष्कलुष धर्म” फिर से प्राप्त करा देना ।

नारी-जागरण (Women’s Awakening):

देश के सामान्य जागरण के प्रभाव से भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों में सुवार की भावना परिव्याप्त हो गयी, जिसने उनके विचारों, आदतों और रस्मरिवाजों को बहुत रूपभेदित कर दिया । आज के भारतीय सामाजिक जीवन में सब से उल्लेखनीय परिवर्तन नारियों की स्थिति में है ।

नारियाँ न केवल अपने पर्दे के बाहर आ रही है और शिक्षा पा रही है, बल्कि वे सामाजिक राजनीतिक बातों में सक्रिय दिलचस्पी ले रही हैं और नागरिकों की हैसियत से अपने अधिकारों का दावा कर रहीं हैं । भारत में नारी-आंदोलन अधिकतर रमाबाई राणडे की प्रेरणा से शरू हुआ । सच पूछिए, तो इस आंदोलन ने “इतनी तेजी से और इस हद तक सफलता पायी है, जो कुछ ही वर्ष पहले ऊटपटांग (असंगत) मालूम पड़ती” ।

राज्य (सरकार) और सुधारकों द्वारा इस आशय के प्रयत्न हुए हैं जिनसे कानून द्वारा बाल-विवाह की बुराई को दूर किया जाए । १९०१ ई॰ में बड़ौदा के गायकवाड़ ने बाल-विवाह-निरोध कानून पास किया । इसने रियासत में विवाह करने की कम-से- कम उम्र निश्चित कर दी-लड़कियों के लिए बारह और लड़कों के लिए सोलह ।

विवाह-सम्बन्धी सुधारों के प्रश्न पर जाँच करने के लिए जून, १९२८ ई॰ में शिमला में स्वीकृति-अवस्था समिति ( एज ऑफ कंसेंट कमेटी) बैठी । इसकी रिपोर्ट के निकलने के बाद राय साहब हरविलास सारदा का बाल-विवाह बिल १९३० ई॰ में पास हुआ । लोगों के परिवर्तन-विरोधी (रक्षणशील) वर्गों में इस कानून का बड़ा विरोध हुआ । वास्तविक कार्यवाही में यह बहुत अभीष्ट फलदायक सिद्ध नहीं हुआ । विधवा-पुनर्विवाह आदोलन के बहुत-से उल्लेखनीय भारतीय सामाजिक सुधारक पक्षपाती थे । इसने भी थोड़ी प्रगति की है ।

किन्तु अभी भी विधवा पुनर्विवाह इतना कम होता है कि पत्रों में समाचार-छप जाता है और लोगों का ध्यान आकर्षित हो जाता है । विधवाओं की अवस्था सुधारने के प्रशंसनीय उद्योग मैसूर के महारानी स्कूल, पंजाब के आर्य समाज एवं प्यूरिटी सोसाइटी तथा लखनऊ के हिन्दू विधवा सुधारसंघ ने किये है ।

स्त्रियां स्वयं भी सभी संभव उपायों द्वारा अपनी अवस्था सुधारने के प्रयत्नों में उत्साही रही हैं । १९२३ ई॰ में एक महिला भारतीय संघ (वीमेन्स इंडियन एसोसि- एशन) शुरू हुआ । इसकी बहुत-भी शाखाएँ थीं । इसने मद्रास में एक शिशुगृह खोला । १९२४ ई॰ में बम्बई में एक संतति-निरोध-संघ कायम किया गया ।

‘नव-युग’ नामक पत्र ने इस आंदोलन के समर्थन में अपनी सेवाएँ अर्पित कीं । दिसम्बर, १९२४ ई॰ में बेलगाम में भारतीय राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ था । उसके छ: हजार सदस्यों में एक हजार महिलाएँ थीं । दिसम्बर, १९२५ ई॰ में प्रतिभाशालिनी भारतीय कवि सरोजिनी नायडू (जो कुमारी-अवस्था में चटर्जी कहलाती थीं) भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन की अध्यक्ष हुई ।

महिला भारतीय संघ ने, जो मद्रास में शुरू हुआ था, कई तरहों से नारी-उत्थान के लिए बहुमूल्य सेवाएँ की हैं । २१ मार्च, १९३४ ई॰ को इसने एक उद्धार-गृह (रेस्क्यू होम) खोला । इसका उद्देश्य था सरकार द्वारा लागू किये गये अनैतिक कारबार कानून के उद्धार विभाग की कार्यवाही को सुसाध्य बनाना ।

मुसलिम औरतें भी सुधार की भावना से प्रभावित हुई, जैसा कि १९१४ ई॰ से होनेवाले अखिल भारतीय मुस्लिम महिला सम्मेलन के अधिवेशनों से स्पष्ट है । १९१९ ई॰ में अखिल भारतीय मुस्लिम महिला सम्मेलन ने अपने लाहौर के अधिवेशन में बहु-विवाह के विरुद्ध अपना मत घोषित किया ।

भोपाल की हर हाईनेस बेगम साहिबा ने, जिन्होंने अपने परलोकगत स्वामी की उपाधि एवं संपत्ति प्राप्त की थी, १९२८ कर ई॰ में अखिल महिला सम्मेलन के वार्षिक अधिवेशन की अध्यक्षता की । उन्होंने अपनी रियासत में स्त्रियों के लिए बहुत-से-सामाजिक एवं शैक्षिक सुधार लागू किये ।

१९२६ ई॰ से अखिल भारतीय महिला सम्मेलन ने अपने वार्षिक अधिवेशनों में शिक्षा के सम्बन्ध में बेहतर सुविधाओं एवं सामाजिक दुर्गुणों के निराकरण के लिए स्त्रियों की उचित मांगे व्यक्त की हैं । स्त्रियों में राजनीतिक चेतना की वृांद्धें नारी मताधिकार आंदोलन की सफलता से अच्छी तरह मालूम पड़ती है ।

यह आंदोलन तभी शुरू हो गया, जब १८ दिसम्बर, १९१७ ई॰ को ऐतिहासिक, अखिल भारतीय महिला शिष्टमंडल मद्रास में मिस्टर मांटेगू से मिला । मिसेज एनी बेसेंट, श्रीमती सरोजिनी नायडू और श्रीमती हीराबाई टाटा ने भारतीय नारियों को मताधिकार देने के समर्थन में संयुक्त प्रवर समिति के समक्ष १९१९ ई॰ के भारत-शासन बिल पर गवाही दी ।

भारतीय महिलाओं की प्रतिनिधियों ने लंडन की गोलमेज परिषदों में भाग लिया । १९३५ ई॰ के भारत-शासन कानून ने भारतीय नारियों को उनके द्वारा पहले से उपयुक्त राजनीतिक अधिकारों से कहीं ज्यादा अधिकार दे दिये । संघीय राज्य-परिषद् में ब्रिटिश भारत के लिए जो कुल १५६ जगहें सुरक्षित थीं, उनमें ६ और संघीय एसेंब्ली में इस प्रकार सुरक्षित कुल २५० (जगहों) में ९ उन्हें मिलीं ।

जहाँ तक प्रांतीय एसेंब्लियों की बात थी, नारियों के लिए मद्रास में व जगहें, बम्बई में ६ बंगाल में ५ युक्त प्रांत में ६ पंजाब में ४, बिहार में ४, मध्यप्रांत और बरार में ३, आसाम में १, उड़ीसा में २ और सिंध में २ सुरक्षित रखी गयीं । उनके लिए मताधिकार की शर्तें उदार बना दी गयीं ।

फलस्वरूप जहाँ २९० लाख मर्दों को मताधिकार मिला, वहाँ औरतों में ६० लाख को वोट देने का अधिकार प्राप्त हुआ (१९१९ ई॰ के कानून के अंतर्गत केवल तीन लाख पंद्रह हजार औरतों को यह अधिकार प्राप्त हुआ था) ।

स्त्रियों में शिक्षा का प्रचार होने के बाद भारतीय बहनों को प्रशिक्षित करने के उद्योग हुए हैं, जिसमें वें दरिद्र, रुग्ण और दु:खी की सेवा करने में सहायताकारिणी हो सकें । पूना सेवा सदन १९०९ ई॰ में स्वर्गीय श्रीमती रमाबाई राणडे स्वर्गीय भईं जी॰ के॰ देवघर और कुछ अन्य महिलाओं एवं महानुभावों के द्वारा खोला गया था ।

इसने और देश के विभिन्न भागों में फैली इसकी शाखाओं ने- “खासकर नसों एवं दाइयों के प्रशिक्षण, मातृत्व एवं शिशुहित की प्रोन्नति विधवाओं के लिए काम खोजने में”- अत्यंत बहुमुल्य काम किया है । इसी तरह का काम एक दूसरे संगठन ने कया है । इसका नाम भी सेवा सदन सोसाइटी है ।

इसे जुलाई, १९०८ ई॰ में स्वर्गीय श्री बी॰ एम॰ मलाबारी और श्री दयाराम गिडुमल ने प्रारंभ किया था । इसी उद्देश्य की पूर्ती के लिए महत्वपूर्ण संस्थाएँ कई वाइसरायों की पत्नियों द्वारा उद्‌घाटित हुई । ‘भारत की स्त्रियों को स्त्रियों द्वारा मेडिकल सहायता देने के लिये राष्ट्रीय संघ’ काउंटेस ऑफ डफरिन ने १८८४ ई॰ में शुरू किया था ।

बाद में इसकी बारह प्रांतीय शाखाएँ और अनेक स्थानीय समितियाँ हो गयीं । इसका उद्देश्य था “स्त्रियों का डाक्टरों, अस्पताल सहायिकाओं, नसों एवं दाइयों के रूप में प्रशिक्षण और औषधालयों, वार्डों एवं अस्पतालों की व्यवस्था” । इस संघ के अंग के रूप में १९१४ ई॰ में एक विशेष ‘भारतीय महिला मेडिकल सर्विस’ कायम की गयी ।

लेडी कर्जन ने १९०३ ई॰ में विक्टोरिया मेमोरियल स्कालरशिप्स फंड का संगठन किया, जिसका उद्देश्य था दाइयों को ट्रेनिंग देना । १७ फरवरी, १९१६ ई॰ को लार्ड हार्डिज ने दिल्ली में लेडी हार्डिज मेडिकल कालेज खोला । यह भारतीय स्त्रियों को मेडिकल विज्ञान में प्रशिक्षिण देता है ।

‘मेटरनिटी ऐंड चाइल्ड वेल्फेयर ब्यूरो’ भारतीय रेड क्रॉस सोसाइटी के सम्बन्ध में काम करता है । इसने स्त्रियों को सेवाकार्य का प्रशिक्षण देने में उपयोगी काम किया है । कलकत्ते के चित्तरंजन सेवा सदन नामक अस्पताल ने इस सम्बन्ध में अत्यंत बहुमूल्य काम किया है ।

दलितोद्धार (Dalitudharar):

आधुनिक भारत के सामाजिक इतिहास की एक अत्यंत महत्वपूर्ण विशेषता है तथा- कथित दलित वर्गों की स्थिति में क्रमिक परिवर्तन । ये दलित वर्ग, भारत की नारियों के समान ही, “युग-व्यापी निद्रा से जग कर एक नवीन चेतना की ओर” अग्रसर हो रहे है’ । इस सम्बन्ध में विभिन्न क्रिस्चियन सोसाइटियों, रामकृष्ण मिशन और खासकर आर्य समाज के द्वारा बहुमूल्य लोकोपकारी काम किया गया है ।

आर्य समाज ने शुद्धि के सहारे यह काम किया है । शुद्धि-प्रथा के अनुसार अन्य धर्मों में दीक्षित लोगों को पुन: हिन्दू बना लेते है तथा गैर-हिन्दुओं को भी हिन्दू धर्म के अंतर्गत ले आते हैं । दलित वर्ग मिशन सोसाइटी १९०६ ई॰ में बम्बई में प्रारंभ की गयी । इसका उद्देश्य था “दलित वर्गों की सामाजिक और आध्यात्मिक स्थितियों” का सुधार करना । यह अपने मिशन में अच्छी तरह लगी हुई है ।

भील सेवा मंडल १९२२ ई॰ में श्री अमृतलाल बिट्ठलदास ठक्कर द्वारा कायम किया गया । इसका लक्ष्य था भिलों एवं भारत के अन्य आदिवासियों की स्थिति को ऊँचा उठाना । इसने बहुत ही उपयोगी काम किया है । सामाजिक सेवा के इस क्षेत्र में महात्मा गाँधी द्वारा चलाये गये “हरिजन” आंदोलन का प्रभाव जबर्दस्त है ।

वस्तुत: आज के भारतीय युवक सामाजिक सेवा के प्रति बहुत सचेत हैं, जैसा कि उनके ब्वाय स्काउट ऐसोसिएशनों, जूनियर रेड क्रॉस एवं सेंट जौन्स ऐंबुलेंस ऐसोसिएशनों, सेवा समिति ब्वाय स्काउट्‌स ऐसोसिएशन और श्री गुरुसदय दत्त, आई॰ सी॰ एस॰ के मार्ग प्रदर्शन में स्थापित व्रतचारी एसोसिएशन के सदस्यों के रूप में किये गये कामों से प्रकट होता है ।