ब्रिटिश भारत के दौरान सार्वजनिक सेवाएं और इसकी भर्ती | Civil Services and Its Recruitment during British India.

लोक-सेवाओं के लिए भर्ती (Recruitment for Public Services):

क्राउन द्वारा भारत का प्रत्यक्ष शासन ले लिए जाने से आंतरिक शासन की आत्मा और ब्योरे-दोनों में महान् परिवर्तन हुए । शासन-यंत्र धीरे-धीरे पूर्णता के साथ संगठित हुआ, जो कम्पनी के राज्य में संभव नहीं था । इंगलैंड के शासनिक सिद्धांत और राजनीतिक आदर्श बड़े अंश तक लागू किये गये ।

भारतीय शासन अधिक योग्य और अधिक अद्यतन बन गया । कम्पनी और बोर्ड ऑफ कंट्रोल के बीच की पुरानी प्रतिद्वंद्विता और ईर्ष्या लुप्त हो गयी, तथा पार्लियामेंट का एकात्मक नियंत्रण स्थापित हो गया ।

लेकिन चित्र का काला पक्ष भी है । पुराने शासन में ईस्ट इंडिया कम्पनी के चार्टर (सनद) का नियतकालिक पुनर्नवीकरण होता रहता था । इससे पार्लियामेंट को ईर्ष्यापूर्ण दृष्टि से भारतीय मामलों की सूक्ष्म परीक्षा करने का अवसर मिलता रहता था । किन्तु ज्योंही राज्य सचिव को भारत का पूरा भार दे दिया गया, त्योंही इससे लोगों की उतनी दिलचस्पी जाती रही ।

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सिद्धांतत निस्सन्देह हाउस ऑफ कमल ही भारत के शासन के लिए उत्तरदायी था । किन्तु इस देश से सम्बन्ध रखनेवाले मामलों में लोग दिलचस्पी नहीं लेने लगे । कम्पनी के दिनों में शासन पर प्रतिवेदन करने के लिए पार्लियामेंट द्वारा एक प्रवर समिति नियुक्त हुआ करती थी ।

यह समिति संपूर्ण विषय में पूरी गहराई से उतरती थी, बुराइयों का पर्दाफाश करती थी तथा उपाय सुझाती थी, जो बहुधा नये चार्टर में अपना लिये जाते थे । किन्तु अब सचिव समग्र सदन के सम्मुख एक वार्षिक प्रतिवेदन पेश करता था । प्रत्येक सदस्य के इसमें दिलचस्पी लेने की कल्पना की जाती थी । किन्तु, जैसा बहुधा होता है, प्रत्येक व्यक्ति का काम किसी व्यक्ति का काम न रहा ।

राज्य-सचिव की शक्तियों में काफी वृद्धि पर उसका जो परिणाम हुआ वह पहले कहा जा चुका है । किन्तु भारत के आंतरिक शासन पर भी इसका बहुत प्रभाव पड़ा । भारतीय अधिकारी अब केवल राज्य-सचिव के प्रति उत्तरदायी थे । जब तक वे उसे संतुष्ट रख सकते थे तब तक उन्हें किसी दूसरी शक्ति से नहीं डरना था ।

सचिव इतनी दूरी से शासन के ब्योरों पर प्रभावकारी नियंत्रण नहीं रख सकता था । किन्तु उसे अधिकारियों के कामों की प्रतिरक्षा करनी पड़ती थी, चूंकि अंतिम जवाबदेही उसी पर आ पड़ती थी ।

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परिणाम यह हुआ कि भारत में एक सर्वशक्तिमान नौकरशाही का विकास हुआ, जिसकी मर्धा पर सुपीरियर इंडियन सिविल सर्विस के सदस्य थे । यह सर्विस शीघ्र एक शक्तिशाली संघ बन गयी तथा इसके सदस्य-ब्लंट के शब्दों में “भारत के वास्तविक स्वामी, अंचल, अनुत्तरदाया, और अपने साथी सदस्यों को छोड़ अन्य किसी भी शक्ति के प्रति गैरजिम्मेदार” बन बैठे ।

इस सर्विस के सदस्य निस्संदेह बहुत योग्य और साधारणतया ईमानदार व्यक्ति थे । लेकिन जिस स्थिति में उन्होंने अपने को पाया उससे उनमें अपेक्षाकृत श्रेष्ठता की भावना आ पहुँची तथा शासकों एवं शासितों के बीच चौड़ी खाई बन गयी । दोनों के बीच वह सहानुभूति और पारस्परिक समझदारी, जो सभी सुशासन की जड़ में होती है, अनुपस्थित हो चली ।

दुर्भाग्यवश दूसरे कारण भी उच्चतर ब्रिटिश अधिकारियों की पृथक्ता के बढ़ाने में काम कर रहे थे । कम्पनी के दिनों में अंग्रेज अफसर भारतीयों से खुलकर मिला करते थे । उनके बीच वास्तविक सद्‌भाव रहता था, बहुधा मित्रता भी हो जाती थी ।

सदर के भयंकर कारनामों ने अंग्रेजों के मन में भारतीयों के प्रति घृणा की भावना पैदा कर दी । शायद यह भावना साधारण ढंग से कमजोर पड़ जाती और अंत में लुप्त हो जाती । किन्तु स्टीम द्वारा समुद्रयात्रा, स्वेज की नहर, तार, जमीन से होकर रास्ता-इन सबसे अंग्रेज स्वदेश के निकटतर संपर्क में आ गये । वे अब परदेश में निर्वासित व्यक्ति नहीं थे बल्कि अपने देश के प्रत्यक्ष एवं अविरल संपर्क में थे ।

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धीरे-धीरे बड़े-शहरों में एक अंग्रेजी समाज कायम हो गया । इन सब बातों से भारतीयों के मित्र बन की आवश्यकता जाती रही तथा, जहाँ तक भारतीय जनता का सम्बन्ध था, ब्रिटिश अफसर अधिकाधिक अलग जीवन बिताने लगे । उनका समय उनके आफिस और क्लब में विभाजित था तथा उनका भारतीयों से कोई सामाजिक संसर्ग न था ।

भारत में लंबे समय तक रहने के बावजूद वे वास्तव में विदेशी ही बने रहे तथा भारतीयों की सहानुभूतियों, मनोभावों और उच्चाकांक्षाओं को नहीं जान सके । ब्लट ने बहुत ठीक कहा कि “कम्पनी के दिनों के ऐंग्लो-इंडियन अफसर ने उस तरीके से भारत को प्यार किया जिस तरीके से रानी का कोई अफसर अब करने का स्वप्न भी नहीं देखता तथा इसे प्यार करते हुए उसने इसकी अधिक सेवा की” ।

भारतीयों ने स्वभावत: निष्कर्ष निकाला कि यह परिस्थिति तभी सुधारी जा सकती है जब सार्वजनिक पदों पर बड़ी संस्था में भारतीयों की नियुक्ति हो । १८३३ ई॰ के चार्टर ऐक्ट ने राज्य के उच्चतम पदों तक भारतीयों की नियुक्ति को कानूनी बना दिया । किन्तु १७९३ ई॰ के कानून की जो धाराएँ अभी रह नहीं हुई थीं, उनमें कहा गया था कि “कम्पनी के इकरारनामे-से-बँधे नौकरों को छोड़ कोई भी आठ सौ पौंड वार्षिक से अधिक वेतन का पद नहीं ले सकता” ।

इस प्रकार कोई भारतीय तब तक किसी उच्च पद पर नहीं रह सकता था जब तक कि वह ईस्ट इंडिया कंपनी या, १८५८ ई॰ के बाद, राज्यसचिव से इकरार करनेवाला नियमित अफसर न हो । पहले ये अफसर अंशत: डाइरेक्टरों द्वारा और अंशत: बोर्ड ऑफ कंट्रोल द्वारा नामजद होते थे ।

नामजदगी के बाद वे हेलीबरी में ईस्ट इंडिया कालेज में दो वर्षों के लिए प्रशिक्षण प्राप्त करते थे । इन नियुक्तियों के लिए खुली प्रतियोगितात्मक परीक्षा की प्रणाली १८५३ ई॰ में कायम हुई तथा १८५८ ई॰ में पुन: दृढ़तापूर्वक कही गयी । यह प्रतियोगिता रानी के सभी स्वाभाविक जात प्रजाजनों के लिए, चाहे वे यूरोपीय हों या भारतीय, खुली हुई थी ।

पहले प्रवेश की सबसे अधिक अवस्था तेईस थी । १८५९ ई॰ में यह घटाकर बाइस कर दी गयी तथा चुने हुए उम्मीदवारों को परीक्ष्यमाण रूप में इंगलैंड में एक वर्ष तक रहना था । १८६६ ई॰ में सबसे अधिक अवस्था और भी घटाकर इक्कीस कर दी गयी तथा परीक्ष्यमाणों को किसी स्वीकृत विश्वविद्यालय में दो वर्षों तक एक विशेष प्रशिक्षण क्रम से गुजरना पड़ता था ।

इस परीक्षा में उत्तीर्ण होना भारतीयों के लिए अत्यंत काठन था । इंगलैंड की यात्रा व्ययसाध्य और अपरिचित थी । यही नहीं, बल्कि जहाँ तक हिन्दुओं का सम्बन्ध था, इस समाज के अधिक कट्टर नेता इस पर नाक-भौंह चढ़ाते थे । किसी अंग्रेजी विश्व- विद्यालय में अंग्रेजी के माध्यम से होनेवाली परीक्षा में अंग्रेज बालकों से पार पा जाना सचमुच कठिन काम था । इसलिए यदि अपेक्षाकृत बहुत कम भारतीय सफल हो पाते थे, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है ।

ब्रिटिश सरकार ने भी महसूस किया कि सुपीरियर सिविल सर्विस में भारतीय तत्व अपर्याप्त है । १८७० ई॰ में एक कानून पास हुआ, जिसने अधिकार दिया कि भारतीय बिना किसी परीक्षा के उच्चतर पदों पर नियुक्त हो सकते हैं ।

किन्तु १८७९ ई॰ में जाकर कहीं इसका कार्यान्वयन हो पाया । जिन परिस्थितियों में यह कार्यान्वयन हुआ । उसका विवरण पीछे दिया जाएगा । १८७९ ई॰ में जो नियम अपनाये गये उन्होंने निदष्ट किया कि राज्य-सचिव द्वारा किसी वर्ष में जितने भी इकारारनामे-से-बंधे सिविल सर्वेट नियुक्त किये जाएँ उनका अधिक-से-अधिक छठा भाग देशी आदमी होना चाहिए ।

ये भारत में स्थानीय सरकारों द्वारा चुने जाएं तथा गवर्नरजनरल-इन-कौंसिल की इस पर स्वीकृति हो । ये अफसर “स्टेटयूटरी सिविल सर्वेट” कहे जाते थे । ये “अच्छे परिवार और सामाजिक स्थिति के उचित योग्यता एवं शिक्षा से संपन्न नवयुवकों” से लिये जाते थे । यह प्रणाली भी उन्हीं त्रुटियों से पूर्ण थी जिनसे नामजदगी की सभी प्रणालियों को पूर्ण होना था ।

भारतीय स्वयं खुली प्रतियोगितात्मक परीक्षा को तरजीह देते थे । लेकिन भारतीयों को उचित और न्यायसंगत अवसर देने के ख्याल से उनकी सिफारिश थी कि इंगलैंड और भारत दोनों में एक ही समय परीक्षाएँ हों । इसी कारण वे प्रवेश की सबसे अधिक अवस्था के इक्कीस से कम करने के विरुद्ध थे क्योंकि भारतीय उम्मीदवारों पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता जिन्हें एक विदेशी भाषा में परीक्षित होना था ।

१८७७ ई॰ में सबसे-अधिक-अवस्था की सीमा घटाकर उन्नीस कर दी गयी । इसका यह अर्थ लगाया गया कि भारतीयों को बाहर रखने की यह जानबूझकर कोशिश है । इसके फलस्वरूप वह आंदोलन चला जिसकी चरम परिणति कांग्रेस आंदोलन में हुई ।

कांग्रेस ने शक्तिपूर्वक समकालिक परीक्षाओं और अधिक संख्या में भारतीयों की नियुक्ति के प्रश्न को लिया । १८८६ ई॰ में लार्ड डफरिन ने इस समस्या की जाँच करने के लिए एक “पब्लिक प्रार्विसेज कमीशन” नियुक्त किया ।

कमीशन ने इकरारनामे-सें-बँधी नौकरी (सर्विस) वे लिए समकालिक परीक्षाओं के विचार को अस्वीकार कर दिया तथा स्टैटयूटरी सिविल सर्विस के हटाने की सलाह दी । उसने प्रस्ताव किया कि कुछ स्थान जो अब तक इकरार-नामे-से-बँधी नौकरी के लिए सुरक्षित हैं एक स्थानीय नौकरी के लिए दे दिये जाएँ, जिसे प्रोविंशियल (प्रांतीय) सिविल सर्विस कहा जाए; हर प्रांत में इसके लिए अलग बहाली हो-या तो निम्न पदों से प्रोन्नति द्वारा या प्रत्यक्ष नियुक्ति द्वारा ।

कोवेनैटेड और अन्‌कोवेनैटेड शब्दों के बदले इंपीरियल और प्रोविंशियल शब्द रखे गये । प्रोविंशियल के नीचे एक सुबार्डिनेट सिविल सर्विस रखी गयी ये सिफारिशें मान ली गयीं । कोवेनैटेड सिविल सर्विस को अबसे “सिविल सर्विस ऑफ इंडिया” कहा जाने लगा । प्रोविंशियल सिविल सर्विस को प्रांत के नाम पर कहा जाने लगा ।

उदाहरणार्थ बंगाल सिविल सर्विस । भारत की सिविल सर्विस के लिए सुरक्षित स्थानों की एक लिस्ट सूची बनायी गयी । स्थानीय सरकारों को ऐसे किसी “लिस्टेड पोस्ट” पर किसी भारतीय को नियुक्त करने का अधिकार मिला । शासन की अन्य शाखाओं में भी-जैसे शिक्षा, पुलिस, सार्वजनिक निर्माण और मेडिकल विभागों में-इसी प्रकार की इंपीरियल, प्रोविंशियल और सुबार्डिनेट सविर्स हुई ।

प्रथम तो मुख्यतया अंग्रेजों द्वारा भरी जाती थी तथा अन्य दो करीब-करीब बिलकुल भारतीयों द्वारा भरी जाती थी । यह प्रणाली स्वल्प परिवर्तनों के साथ ब्रिटिश काल के अंत तक कायम रही । इससे सर्विस का स्तर उन्नत हुआ । किन्तु यह राज्य के उच्चतर पदों पर अधिक संख्या में बहाली के लिए भारतीयों की कानून-संगत उच्चाकांक्षाओं को संतुष्ट करने में असफल रही ।

१८९३ ई॰ में हाउस ऑफ कॉमन्स ने इंडियन सिविल सर्विस के लिए इंगलैंड और भारत में समकालिक परीक्षाओं के पक्ष में एक प्रस्ताव पास किया । इस प्रस्ताव को राज्य सचिव ने सम्मति के लिए भारत सरकार के पास बढ़ाया । लार्ड लैंसडाउन की सरकार ने प्रांतीय सरकारों से राय ग्येने के बाद निश्चित ढंग से इस प्रस्ताव के सिद्धांत का विरोध किया ।

“उसका कहना था कि उस समय नियुक्त यूरोपीय स्टाफ की महत्वपूर्ण कमी ब्रिटिश शासन की सुरक्षा के विरुद्ध थी । परीक्षा में अवरोधारित प्रतियोगिता से न केवल ब्रिटिश तत्व सिविल सर्विस में खतरनाक रूपसे कमजोर पड़ जाएगा बल्कि सर्विस से मुसलमान, सिख और अन्य नस्लें एक तौर से बहिष्कृत हो जाएँगी, जो परम्परा से शासन करने में अम्यस्त हैं, तथा असाधारण चरित्र-बल से सम्पन्न है, किन्तु साहित्यिक शिक्षा में पीछे हैं ।” प्रस्ताव का कोई फल न निकला । इस दिशा में कदम उठाये जाने के पूर्व एक चौथाई सदी से भी अधिक समय गुजर गया ।

असैनिक शासन (Civil Government):

१९०५ ई॰ मैं असैनिक शासन में एक अत्यंत महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ, जिसके परिणाम दूर तक पहुंच । उस समय तक बंगाल, बिहार और उड़ीसा मिलकर एक प्रांत थे जो एक लेफ्टिनेंट-गवर्नर द्वारा शासित होता था । लार्ड कर्जन (दूसरी बार; दिसम्बर १९०४ ई॰ से नवम्बर, १९०५ ई॰ तक) ने विचारा कि एक लाख नवासी हजार वर्गमीलों का यह प्रांत कुशल शासन के लिए एक बहुत बड़ी इकाई है ।

अंत उसने प्रांतीय सीमाओं के फिर से ठीक करने का निर्णय किया । अंत में यह निर्णय हुआ कि ढाका, चटगाँव और राजशाही के डिवीजन प्रांत से अलग कर दिये जाएँ । ये आसाम में जोड़ दिये गये, जो उस समय एक चीफ कमिश्नर के अधीन था ।

इस प्रकार पूर्व बंगाल और आसाम नामक एक नया प्रांत बनाया गया, जिसकी राजधानी ढाका हुई । जनता के तीव्र प्रतिवादों के बावजूद यह प्रस्ताव १९०५ ई॰ में कार्यान्वित हो गया । बंगाल के इस बँटवारे के फलस्वरूप विराट् राजनीतिक आंदोलन खड़ा हुआ, जिसने भारत में राष्ट्रीय भावना को गहराई तक चलायमान कर दिया ।