Read this article in Hindi to learn about the four important powers of Indian President. They are:- 1. कार्यपालिका शक्तियाँ (Executive Powers) 2. विधायी शक्तियाँ (Legislative Powers) 3. वित्तीय शक्तियाँ (Financial Powers) 4. न्यायिक शक्तियाँ (Judicial Powers).

राष्ट्रपति भारतीय संघ की कार्यपालिका का प्रधान होता है । अतः शासन की समस्त शक्तियों का समावेश राष्ट्रपति पद में निहित होता है लेकिन राष्ट्रपति इन शक्तियों और अधिकारों का प्रयोग स्वयं न करके, मंत्रिमंडल के माध्यम से करता है जिसका नेतृत्व प्रधानमंत्री करता है ।

राष्ट्रपति को प्राप्त शक्तियाँ और अधिकारों का अध्ययन निम्नलिखित रूप से किया जा सकता है:

राष्ट्रपति द्वारा शांतिकाल में जिन शक्तियों व अधिकारों का प्रयोग किया जाता है उनका वर्णन इस प्रकार है:

1. कार्यपालिका शक्तियाँ (Executive Powers):

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राष्ट्रपति की कार्यपालिका शक्तियों का विस्तार इस प्रकार है:

i. शासन का संचालन राष्ट्रपति के नाम पर:

राष्ट्रपति भारतीय संघ की कार्यपालिका का मुखिया है तथा राज्य के सभी अधिकार उसके पास है । भारत का समस्त शासन उसी के नाम पर चलाया जाता है । देश का सर्वोच्च शासक होने के नाते वह नियम तथा अधिनियम भी बनाता है । प्रशासन संबंधी कार्यों में सलाह और सहायता देने के लिए एक मंत्रिपरिषद् होती है जिसका नेता प्रधानमंत्री होता है ।

वह संघ के समस्त शासन के बारे में सूचना प्राप्त करने का अधिकार रखता है और प्रधानमंत्री से प्रशासन के संबंध में कोई भी सूचना माँग सकता है । प्रधानमंत्री राष्ट्रपति को देश के प्रशासन के संबंध में सूचना देता है । राष्ट्रपति किसी एक मंत्री द्वारा किये गए निर्णयों पर समूचे मंत्रिमंडल को विचार के लिए कह सकता है ।

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ii. उच्च अधिकारियों को नियुक्त करने की शक्ति:

देश की सभी महत्वपूर्ण नियुक्तियाँ राष्ट्रपति द्वारा की जाती है । महान्यायवादी, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक, राज्यों के गवर्नर, सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश तथा अन्य न्यायाधीश, संघीय लोक सेवा आयोग, चुनाव आयोग, वित्त कमीशन के अध्यक्षों तथा अन्य सदस्यों, केन्द्र शासित प्रदेशों के मुख्य आयुक्त तथा उपराज्यपाल आदि की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है ।

iii. सैनिक शक्तियाँ:

राष्ट्रपति देश की जल, थल और वायु सेना का प्रधान सेनापति होता है । सेना के उच्च अधिकारियों की नियुक्ति भी राष्ट्रपति द्वारा ही की जाती है । वह राष्ट्रीय रक्षा समिति का अध्यक्ष है, राष्ट्रपति सेनाओं के संगठन और प्रयोग के बारे में आदेश दे सकता है परंतु ये आदेश सैनिक सेवा के उच्च अधिकारियों की सलाह से ही दिए जाते हैं । युद्ध के समय उसके पास असीमित शक्तियाँ होती हैं । वह युद्ध की घोषणा कर सकता है तथा संधि कर सकता है ।

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iv. मंत्रिपरिषद के निर्माण का अधिकार:

राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की नियुक्ति करता है और उसकी सलाह से अन्य मंत्रियों को नियुक्त करता है । वह मंत्रियों में विभागों का बंटवारा भी करता है परंतु व्यवहारिक रूप में राष्ट्रपति प्रधानमंत्री को नियुक्त करते समय अपनी इच्छा का प्रयोग नहीं करता हे । लोकसभा में जिस दल को बहुमत प्राप्त होता है, उस दल के नेता को राष्ट्रपति प्रधानमंत्री नियुक्त करता है ।

परंतु यदि किसी दल को लोकसभा में स्पष्ट बहुमत प्राप्त न हो तब राष्ट्रपति को अपनी इच्छा का प्रयोग करने का अवसर मिल जाता है । वह अपने स्वविवेक के द्वारा प्रधानमंत्री को नियुक्त करता है । उदाहरण के तौर पर मार्च, 1998 के 12वीं लोकसभा के चुनाव में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं हुआ ।

राष्ट्रपति के॰आर॰ नारायणन ने अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए लोकसभा में सबसे बडी पार्टी भारतीय जनता पार्टी व सहयोगी दलों के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री नियुक्त किया । प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने राष्ट्रपति के निर्देशानुसार 28 मार्च, 1998 को लोकसभा में विश्वास मत प्राप्त किया ।

अन्य मंत्रियों की नियुक्ति राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की सलाह से करता है किन्तु विभागों का बंटवारा वास्तव में प्रधानमंत्री ही करता है । राष्ट्रपति मंत्रियों को हटा सकता है, परंतु मंत्रियों को हटाने का कार्य भी राष्ट्रपति प्रधानमंत्री. की सलाह पर करता है ।

v. विदेशी संबंधों की शक्तियाँ:

विदेश मामलों के संबंध में राष्ट्रपति को बहुत अधिक एवं महत्वपूर्ण अधिकार प्राप्त होते हैं । राष्ट्र का अध्यक्ष होने के नाते राष्ट्रपति अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में देश का प्रतिनिधित्व करता है । दूसरे देशों में भेजे जाने वाले राजदूतों की नियुक्ति करता है और दूसरे देशों के राजदूतों का देश में स्वागत करता है । वह दूसरे देशों के साथ संधि और समझौते करने के लिए पत्र-व्यवहार करता है ।

vi. केन्द्रीय प्रदेशों व राज्य सरकारों से संबंधित शक्तियाँ:

केन्द्र प्रशासित क्षेत्रों के प्रशासन पर राष्ट्रपति का नियंत्रण है । केन्द्रीय प्रदेशों का शासन राष्ट्रपति के द्वारा ही चलाया जाता है । वह केन्द्रीय क्षेत्रों का प्रशासन चलाने के लिए कुछ केन्द्रीय क्षेत्रों में उप-राज्यपालों को नियुक्त करता है और कुछ में मुख्य आयुक्त (Chief Commissioner) नियुक्त करता है । वह किसी पड़ोसी राज्य के राज्यपाल को संघीय क्षेत्र का प्रशासक नियुक्त कर सकता है । इसी प्रकार राष्ट्रपति राज्यों में राज्यपालों की नियुक्ति करता है तथा उन्हें निर्देश दे सकता है ।

vii. राज्य सरकारों को निर्देश देने की शक्ति:

राष्ट्रपति को राज्यों के आपसी संबंधों के बारे में कुछ निर्देश जारी करने और उन पर नियंत्रण रखने का अधिकार है । वह राज्य सरकार को संघीय कानून के उचित पालन के लिए आदेश दे सकता है । विभिन्न राज्यों के आपसी झगडों को निपटाने तथा उनकी नीतियों में तालमेल पैदा करने के लिए अंतर्राज्यीय परिषद का गठन कर सकता है । यदि कोई राज्य सरकार राष्ट्रपति द्वारा जारी किए गए आदेशों और निर्देशों का पालन नहीं करती तो वह अनुच्छेद 356 का प्रयोग करके उस राज्य के प्रशासन को अपने हाथ में ले सकता है ।

2. विधायी शक्तियाँ (Legislative Powers):

यद्यपि राष्ट्रपति संसद का सदस्य नहीं होता । फिर भी उसे संसद का अधिवेशन बुलाने, संसद को स्थगित करने, आदि वैधानिक शक्तियाँ प्राप्त है । राष्ट्रपति के बिना संसद किसी भी कानून का निर्माण नहीं कर सकती । कौल और शकधर का कहना है ”किसी भी संघ की कार्यकारी शक्तियाँ संसद की विधायिनी शक्तियों के साथ सह विस्तृत है । संसद में राष्ट्रपति और संसद के दोनों सदन शामिल हैं । इस प्रकार एक ओर राष्ट्रपति कार्यपालिका का अध्यक्ष है तो दूसरी ओर वह संसद का संघटक अंग है ।”

राष्ट्रपति की विधायी शक्तियों के अंतर्गत विभिन्न प्रकार की शक्तियों का वर्णन किया जा सकता है ।

i. संसद का अभिन्न अंग है:

यद्यपि राष्ट्रपति संसद का सदस्य नहीं होता किंतु वह उसका अभिन्न अंग होता है । भारतीय संविधान के अनुच्छेद 79 के अनुसार संसद का निर्माण राष्ट्रपति तथा संसद के दोनों सदनों से मिलकर होता है । इस दृष्टि से राष्ट्रपति संसद के एक अनिवार्य अंग के रूप में भी कार्य करता है ।

ii. संसद में सदस्यों को मनोनीत करता है:

राष्ट्रपति राज्यसभा में ऐसे 12 व्यक्तियों को मनोनीत करता है जिन्होंने कला, साहित्य, विज्ञान अथवा सामाजिक सेवा में विशेष प्रतिष्ठा प्राप्त की हो । व्यवहारिक रूप में राष्ट्रपति इन व्यक्तियों की नियुक्ति प्रधानमंत्री की सलाह के अनुसार करता है । इसके साथ-साथ राष्ट्रपति लोकसभा में एंग्लो-इंडियन समूह के दो प्रतिनिधियों को भी मनोनीत करता है ।

iii. संसद के अधिवेशनों का उद्‌घाटन:

राष्ट्रपति प्रत्येक साधारण निर्वाचन के पश्चात संसद के दोनों सदनों के सम्मिलित अधिवेशन में तथा पुन: प्रत्येक वर्ष के प्रथम अधिवेशन में अपना भाषण देता है, जिसमें वह सरकार की नीतियों पर प्रकाश डालता है तथा सरकार के वैधानिक कार्यक्रमों को प्रस्तुत करता है ।

iv. संसद का अधिवेशन बुलाना तथा सत्रावसान करना:

राष्ट्रपति संसद के दोनों सदनों के अधिवेशन बुलाने तथा उनका सत्रावसान करने की शक्ति रखता है । राष्ट्रपति को एक वर्ष में संसद के कम-से-कम दो अधिवेशन बुलाने पड़ते हैं क्योंकि संविधान के अनुसार संसद के प्रथम अधिवेशन की अंतिम तिथि तथा दूसरे अधिवेशन की पहली तिथि में 6 महीने से अधिक का अंतर नहीं होना चाहिए ।

v. अध्यादेश जारी करने की शक्ति:

यदि संसद का अधिवेशन न हो रहा हो और कानून बनाना अति आवश्यक हो तो राष्ट्रपति संविधान के अनुच्छेद 123 के अनुसार अध्यादेश जारी कर सकता है । यह अध्यादेश भी कानून के समान लागू होता है परंतु संसद् का अधिवेशन आरंभ होते ही अध्यादेश को संसद के सम्मुख स्वीकृति के लिए रखना पड़ता है नहीं तो इस अधिवेशन के आरंभ होने से 6 सप्ताह पश्चात् वह अध्यादेश स्वयं ही रह हो जाता है ।

यदि संसद उक्त अध्यादेश को स्वीकार नहीं करती तो वह तुरंत समापन हो जाता है । चूंकि संसद के दो अधिवेशनों के बीच विश्राम काल का समय 6 माह से अधिक होने की संभावना नहीं है, अतः साधारणतया अध्यादेश साढ़े सात महीने से अधिक समय तक लागू नहीं रह सकता । राष्ट्रपति किसी भी अध्यादेश को कभी भी वापस ले सकता है ।

38वें संशोधन में स्पष्ट कहा गया है कि अध्यादेश जारी करने संबंधी राष्ट्रपति के अधिकार को किसी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती परंतु 44वें संशोधन के अंतर्गत यह व्यवस्था की गई कि राष्ट्रपति द्वारा लागू किये गए अध्यादेशों को न्यायालयों में चुनौती दी जा सकती है ।

vi. संसद द्वारा पास किये गए बिलों पर राष्ट्रपति की शक्ति:

संसद द्वारा बिलों के पास होने के पश्चात उस पर राष्ट्रपति की स्वीकृति आवश्यक है । संसद से पास होने के पश्चात सभी कानून उसकी स्वीकृति के लिए रखे जाते हैं । यदि वह किसी बिल को स्वीकृति न दे, तो उस बिल को संसद के पास पुन: विचार के लिए भेजा जाता है ।

यदि वह विधेयक संसद के दोनों सदनों द्वारा पास होकर पुन: राष्ट्रपति के पास चला जाए तो राष्ट्रपति को स्वीकृति देनी ही पड़ती है । इसी प्रकार कई प्रकार के विधेयक राष्ट्रपति की अनुमति के बिना संसद में पेश नहीं किये जा सकते । प्रान्तों की सीमाओं और क्षेत्रों का नाम बदलने वाले विधेयक, धन विधेयक तथा विधानमंडल में पेश होने वाले कई अन्य प्रकार के विधेयकों के लिए उसकी स्वीकृति आवश्यक है ।

vii. लोकसभा को भंग करने की शक्ति:

राष्ट्रपति जब चाहे संसद के निम्न सदन लोकसभा को भंग कर सकता है परंतु व्यवहारिक रूप में इस शक्ति का प्रयोग राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की सलाह पर ही करता है । यदि राष्ट्रपति को विश्वास हो जाए कि लोकसभा को भंग करना राष्ट्र हित में नहीं है और कोई दूसरा नेता सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है तो राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की सलाह को मानने से इंकार कर सकता है ।

6 मार्च 1991 को प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर ने त्याग पत्र दे दिया और राष्ट्रपति को लोकसभा भंग करने का सुझाव दिया । राष्ट्रपति ने लोकसभा को तुरंत भंग न करके यह जानने का प्रयास किया कि कोई दूसरा नेता सरकार बनाने की स्थिति में है या नहीं और अंत में 13 मार्च, 1991 को नौवीं लोकसभा को भंग कर दिया ।

3. वित्तीय शक्तियाँ (Financial Powers):

राष्ट्रपति को यह अधिकार है कि वह वित्तमंत्री द्वारा वार्षिक आय-व्यय का ब्यौरा अथवा बजट संसद के सम्मुख रखवाए । राष्ट्रपति की स्वीकृति के बिना कोई भी धन बिल संसद के समक्ष प्रस्तुत नहीं किया जा सकता तथा न ही कोई कर लगाने वाला बिल उसकी सिफारिश के बिना प्रस्तुत किया जा सकता है । राष्ट्रपति एक वित्त आयोग भी नियुक्त करता है जो आयकर से प्राप्त आय को राज्य सरकारों तथा केन्द्र में विभाजन की सिफारिश करता है ।

इसके साथ-साथ राष्ट्रपति को भारत की आकस्मिक निधि पर पूर्ण अधिकार होता है । उसको इस निधि से अचानक पड़ने वाले व्यय के लिए संसद की स्वीकृति से पहले धन देने का अधिकार है ।

4. न्यायिक शक्तियाँ (Judicial Powers):

राष्ट्रपति द्वारा कुछ न्यायिक कार्यों को भी सम्पन्न किया जाता है, जिनका वर्णन निम्नलिखित रूप में किया जा सकता है ।

i. क्षमा करने की शक्ति:

अनुच्छेद 72 के अनुसार राष्ट्रपति न्यायालयों द्वारा दी गई सजा में तथा जिन व्यक्तियों को मृत्यु दंड दिया गया हो या किसी ऐसे कानून के विरूद्ध अपराध करने के लिए दंड दिया गया हो, जिसका संबंध ऐसे विषयों के साथ हो जोकि संघीय कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में आता हो, क्षमादान दे सकता है, उसके दंड को स्थगित कर सकता है तथा दंड में कमी कर सकता है ।

ii. न्यायाधीशों की नियुक्ति:

राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों एवं अन्य न्यायाधीशों की नियुक्तियों करता है ।

iii. सलाह प्राप्त करना:

राष्ट्रपति किसी भी विषय में सर्वोच्च न्यायालय की सलाह ले सकता है । सर्वोच्च न्यायालय को ऐसे विषयों पर सलाह देनी पड़ती है परंतु राष्ट्रपति के लिए परामर्श मानना आवश्यक नहीं है ।

iv. सदस्यों की अयोग्यता संबंधी शक्ति:

42वें संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि संसद द्वारा बनाए गए किसी कानून के अधीन किसी भी व्यक्ति को चुनावों में भ्रष्टाचारी साधन अपनाने के कारण दोषी पाया गया हो तथा उस व्यक्ति को संसद या राज्य विधानमंडल के किसी सदन का चुनाव लड़ने के लिए अथवा सदस्य रहने के लिए अयोग्य घोषित किये जाने का प्रश्न हो या जितने समय के लिए उसको अयोग्य घोषित किया जाना हो या अयोग्यता के समय को समाप्त करने या कम करने का प्रश्न हो तो ऐसा प्रश्न निर्णय के लिए राष्ट्रपति को सौंपा जाएगा तथा इस संबंध में राष्ट्रपति का निर्णय अंतिम होगा ।

राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियाँ (President’s Crisis):

शांतिकालीन शक्तियों के अतिरिक्त राष्ट्रपति को आकस्मिक संकट के लिए कुछ आपातकालीन शक्तियाँ भी प्रदान की गई हैं ।

राष्ट्रपति को प्राप्त संकटकालीन शक्तियों का वर्णन निम्नलिखित रूप से किया जा सकता है:

1. युद्ध, विदेशी आक्रमण तथा सशस्त्र विद्रोह से उत्पन्न संकट की स्थिति में आपातकाल की घोषणा (अनुच्छेद 352):

संविधान की धारा 352 के अनुसार यदि राष्ट्रपति को विश्वास हो जाए कि युद्ध, बाहय आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह के कारण या उनकी संभावना के कारण भारत अथवा उसके राज्य क्षेत्र के किसी भी भाग की सुरक्षा खतरे में है तो वह राष्ट्रीय संकट की घोषणा कर सकता है ।

44वें संशोधन अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 352 में संशोधन करके आंतरिक अशांति के स्थान पर सशस्त्र विद्रोह की व्यवस्था की गई है । संकट की परिस्थितियाँ हैं या नहीं इसका निर्णय राष्ट्रपति ही करता है । राष्ट्रपति के इस अधिकार को किसी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती ।

44वें संशोधन के अंतर्गत यह व्यवस्था की गई है कि राष्ट्रपति अनुच्छेद 352 के अंतर्गत संकटकालीन घोषणा तभी कर सकता है, जब मंत्रिमंडल संकटकालीन घोषणा करने की लिखित सलाह दे । राष्ट्रपति की राष्ट्रीय संकट की घोषणा एक महीने तक लागू रह सकती है । एक महीने बाद संकटकालीन घोषणा समाप्त हो जाती है यदि इससे पहले संसद के दोनों सदनों ने इसको पास न कर दिया हो ।

44वें संशोधन के अनुसार यह घोषणा 6 महीने तक लागू रह सकती है और संकटकाल की घोषणा को लागू रखने के लिए यह आवश्यक है कि 6 महीने के बाद संसद के दोनों सदन संकटकाल की घोषणा के प्रस्ताव को पास करें ।

44वें संशोधन के अनुसार संकटकाल की घोषणा का संसद के दोनों सदन अपने-अपने कुल सदस्यों के बहुमत द्वारा और उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों के दो- तिहाई बहुमत द्वारा स्वीकार करेंगे । यदि लोकसभा संकटकाल की घोषणा के लागू रहने के विरूद्ध प्रस्ताव पास कर दे तो संकटकाल की घोषणा लागू नहीं रह सकती ।

लोकसभा के 10 प्रतिशत सदस्य अथवा अधिक सदस्य घोषणा के अस्वीकृत प्रस्ताव पर विचार के लिए लोकसभा की बैठक बुला सकते है । इस प्रकार की संकट कालीन परिस्थितियों की घोषणा के साथ ही शासन का संघीय रूप एकात्मक हो जाता है ।

समस्त देश का शासन संघीय सरकार के हाथों में आ जाता है:

संघीय सरकार का स्वरूप निम्न प्रकार से हो जाता है:

i. संसद को राज्य सूची में दिए गए विषयों पर कानून बनाने का अधिकार मिल जाता है ।

ii. राज्यों के राज्यपाल, राष्ट्रपति के आदेशानुसार कार्यकारी शक्ति का प्रयोग करते है ।

iii. संसद को संकटकाल के समय अपने कानून द्वारा अपनी अवधि को एक बार में एक वर्ष तक बढ़ाने का अधिकार मिल जाता है परंतु यह अवधि संकटकालीन घोषणा के समाप्त होने के बाद 6 महीने से अधिक नहीं बढ़ाई जा सकती ।

iv. 44वें संशोधन के अनुसार अनुच्छेद 19 में दी गई स्वतंत्रताओं को तभी स्थगित किया जा सकता है यदि संकटकाल की घोषणा युद्ध या बाह्य आक्रमण के कारण लागू की गई हो ।

v. राष्ट्रपति राज्य सूची के विषयों पर भी अध्यादेश जारी कर सकता है ।

vi. राष्ट्रपति संकटकाल में किसी भी मौलिक अधिकार को लागू कराने के लिए न्यायालय का सहारा लेने के अधिकारों को समस्त भारत या उसके किसी भी भाग में स्थगित कर सकता है ।

vii. 44वें संविधान संशोधन के द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि आपात काल में भी प्राण और दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार को समाप्त या सीमित नहीं किया जा सकता ।

2. राज्य में संवैधानिकतंत्र के विफल होने से उत्पन्न हुआ संकट (अनुच्छेद 356):

यदि राष्ट्रपति को गवर्नर की रिपोर्ट पर अथवा अन्य किसी स्रोत के आधार पर विश्वास हो जाए कि राज्य का शासन संविधान की धाराओं के अनुसार नहीं चलाया जा सकता तो वह इस आशय की आपातकालीन घोषणा कर सकता है । संसद की स्वीकृति के बिना यह घोषणा दो महीने तक लागू रह सकती है ।

संसद की स्वीकृति मिलने पर यह घोषणा 6 महीने तक लागू रह सकती है और इस प्रकार की घोषणा 44वें संशोधन के अनुसार साधारणतया एक वर्ष तक लागू रह सकती है, यदि राष्ट्रीय आपातकालीन घोषणा समस्त देश में लागू हो और चुनाव आयोग यह प्रमाण-पत्र दे दे कि विधानसभा का चुनाव करवाना कठिन है । वे संशोधन के अनुसार पंजाब में राष्ट्रपति शासन अधिकतम 3 वर्ष तक लागू रह सकता है परंतु 64वें, तथा 68वें संशोधन द्वारा यह अवधि 6-6 महीने और बढ़ाई गई ।

इस प्रकार की घोषणा के निम्नलिखित प्रभाव पड़ते हैं:

i. राष्ट्रपति घोषणा कर सकता है कि राज्य के विधानमंडल की शक्तियाँ संसद के प्राधिकार द्वारा या अधीन प्रयुक्तव्य होंगी ।

ii. संसद उन वैधानिक शक्तियों को, जो उसे राज्य विधानमंडल के बदले में प्राप्त होती है, राष्ट्रपति को हस्तांतरित कर सकती है, जो उसे अन्य किसी अधिकारी को सौंप सकता है ।

iii. जब लोकसभा का अधिवेशन न हो रहा हो, तब राष्ट्रपति राज्य की संचित निधि में से संसद की आज्ञा मिलने तक आवश्यक व्यय को प्राधिकृत कर सकता है । सन् 1951 में पंजाब में प्रथम बार इस घोषणा को लागू किया गया ।

3. वित्तीय संकट (अनुच्छेद 360):

यदि राष्ट्रपति को विश्वास हो जाए कि भारत या उसके किसी राज्य क्षेत्र के किसी भाग का वित्तीय स्थायित्व संकट में है तो वह वित्तीय आपातकाल की घोषणा कर सकता है । इस प्रकार की घोषणा संसद की स्वीकृति के बिना केवल दो महीने तक लागू रहती है और संसद की स्वीकृति के पश्चात तब तक जारी रहेगी जब तक कि राष्ट्रपति दूसरी घोषणा से इसे समाप्त न कर दें ।

वित्तीय सकट की घोषणा के निम्नलिखित प्रभाव होते है:

i. केन्द्र द्वारा राज्य सरकारों को आदेश:

जब इस प्रकार की उद्‌घोषणा लागू होती है, संघ की कार्यपालिका शक्ति राज्य को वित्तीय औचित्य संबंधी ऐसे सिद्धांतों का पालन करने का निर्देश देने तक, जैसा कि निर्देश में उल्लिखित हों, विस्तृत हो जाती है ।

ii. राज्य सरकार के कर्मचारियों के वेतन में कटौती:

ऐसे किसी निर्देश के अंतर्गत राज्यों के सबध में सेवा करने वाले व्यक्तियों के सब या किन्हीं वर्गों के वेतन और भत्तों में कमी की अपेक्षा करने वाले उपबंध और धन विधेयकों अथवा अन्य विधेयकों के राज्य विधानमंडल के द्वारा पारित किए जाने के पश्चात राष्ट्रपति के विचार के लिए रक्षित करने के लिए उपबंध भी ह सकेंगे ।

iii. संघ सरकार के कर्मचारियों के वेतन व भत्तों में कटौती:

जब इस प्रकार की उद्‌घोषणा प्रवर्तन में होती है तो उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों सहित, संघ के कार्यों के संबंध में सेवा करने वाले सब या किसी वर्ग के वेतनों और भत्तों में कमी के निर्देश देने के लिए राष्ट्रपति सक्षम हो जाता है ।

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