भारत में आपातकालीन प्रावधान | Emergency Provisions in India (in Hindi)!

अनुच्छेद 352-360:

भारतीय संविधान की यह एक प्रमुख विशेषता है कि संकटकाल में वह संघात्मक से एकात्मक रूप धारण कर लेता है । यद्यपि यह संघवाद के सिद्धान्त के विरुद्ध है, किन्तु भारतीय संविधान ने उस सिद्धान्त को महत्त्व न देकर समस्त राष्ट्र के हित को महत्त्व दिया है और अपने देश की परिस्थितियों के अनुसार उसे संशोधित रूप में अपनाया है । संविधान निम्नलिखित तीन प्रकार के आपात का उपबन्ध करता है :

(1) युद्ध या बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह से उत्पन्न आपात ।

(2) राज्यों में सांविधानिक तन्त्र के विफल होने से उत्पन्न आपात ।

ADVERTISEMENTS:

(3) वित्तीय आपात ।

युद्ध या बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह से उत्पन्न (राष्ट्रीय आपात):

(i) अनुच्छेद 352, जैसा कि 44वें संशोधन, 1978 के पश्चात् है, यह उपबन्धित करता है कि यदि राष्ट्रपति को इस बात का समाधान हो जाये कि गम्भीर आपात विद्यमान है, जिससे युद्ध (राष्ट्रीय आपात) बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह से भारत या उसके किसी भाग की सुरक्षा संकट में है या ऐसा संकट सन्निकट है, तो वह उद्‌घोषणा द्वारा इस आशय की घोषणा सम्पूर्ण भारत के सम्बन्ध में या उसके किसी ऐसे भाग के सम्बन्ध में कर सकेगा, जो उद्‌घोषणा में उल्लिखित किया जाये । ऐसी घोषणा को राष्ट्रपति उत्तरवर्ती उद्‌घोषणा द्वारा वापस ले (Revoke) सकता है या परिवर्तित (Varied) कर सकता है ।

(ii) राष्ट्रपति आपात की उद्‌घोषणा तभी जारी करेगा, जब उसे मन्त्रिमण्डल का विनिश्चय लिखित रूप में संसूचित किया जायेगा, अर्थात् पूरे मन्त्रिमण्डल के परामर्श से केवल प्रधानमन्त्री के परामर्श पर नहीं-जैसा कि सन् 1975 में, हुआ था । (खण्ड (3))

(iii) ऐसी प्रत्येक उद्‌घोषणा संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष रखी जायेगी और एक मास (44वें संशोधन के पूर्व 2 मास) की समाप्ति पर, यदि उस अवधि की समाप्ति से पहले संसद के दोनों सदनों के संकल्पों द्वारा उसे अनुमोदित नहीं कर दिया जाता है, तो प्रवर्तन में नहीं रहेगी ।

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यदि ऐसी कोई उद्‌घोषणा उस समय जारी की जाती है, जब लोकसभा का विघटन हो गया है या उसका विघटन खण्ड (2) के अन्तर्गत बिना कोई संकल्प पारित किये एक मास की अवधि के भीतर हो जाता है, जबकि राज्यसभा ने संकल्प का अनुमोदन कर दिया है, तो वह उद्‌घोषणा पुनगर्ठित लोकसभा की प्रथम बैठक की तारीख से तीस दिन की समाप्ति पर प्रवर्तन में नहीं रहेगी जब तक उपयुक्त 30 दिन की अवधि की समाप्ति के पूर्व उद्‌घोषणा का अनुमोदन करने वाला संकल्प न पारित कर दिया गया हो ।

उद्‌घोषणा का अनुमोदन करने वाला संकल्प सदन के विशेष बहुमत से पारित किया जाना चाहिए, अर्थात् कुछ सदस्यों के बहुमत से और उपस्थित एवं मत देने वाले सदस्यों के दो-तिहाई मत से पारित होना

चाहिए । 144वें संशोधन के पूर्व ऐसा संकल्प सदन के साधारण बहुमत से पारित किया जा सकता था । (खण्ड (6) )

(iv) संसद द्वारा अनुमोदित हो जाने पर आपात उद्‌घोषणा दूसरे संकल्प के पारित होने की तिथि से छह मास तक की अवधि तक प्रवर्तन में रहेगी यदि इसके पहले प्रतिसंहत (revoke) न कर दी गयी हो ।

ADVERTISEMENTS:

6 माह की अवधि से अधिक जारी रखने के लिए प्रत्येक 6 माह पर संसद का अनुमोदन आवश्यक होगा ।

यदि इस छह मास की अवधि के दौरान आपात उद्‌घोषणा का अनुमोदन किये बिना लोकसभा का विघटन हो जाता है, तो उद्‌घोषणा चुनाव के पश्चात् नयी लोकसभा की प्रथम बैठक से तीस दिन की समाप्ति पर प्रवर्तन में न रहेगी, यदि इस अवधि के पूर्व उद्‌घोषणा का सदन द्वारा अनुमोदन न कर दिया गया हो । यहां भी उद्‌घोषणा के अनुमोदन का संकल्प विशेष बहुमत से पारित किया जाता है, (खण्ड 6) ।

(v) राष्ट्रपति को उस समय आपात उद्‌घोषणा को वापस (रीवोक) करना पड़ेगा, यदि लोकसभा साधारण बहुमत से इसे समाप्त करने के लिए संकल्प पारित कर देती है, (खण्ड 7) । यदि लोकसभा की कुल सदस्य संख्या के 1/10 सदस्यों द्वारा लिखित नोटिस उद्‌घोषणा की समाप्ति के आशय का संकल्प- (क) सभापति को, यदि सदन का सत्र चल रहा है या (ख) राष्ट्रपति को, यदि सदन का सत्र नहीं चल रहा है, देते हैं, तो उस पर विचार करने के लिए राष्ट्रपति को यह समाधान हो जाये कि युद्ध या बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह का संकट सन्निकट है । खतरे की केवल आशंका मात्र ही पर्याप्त है, भले ही वास्तव में युद्ध अथवा ऐसा कोई आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह न उत्पन्न हुआ हो ।

(vi) इस अनुच्छेद में प्रयुक्त पदावली ‘राष्ट्रपति का समाधान’ यह इंगित करती है कि आपात उद्‌घोषणा के लिए पर्याप्त परिस्थितियां विद्यमान हैं या नहीं अथवा संकट की आशंका सन्निकट है या नहीं, इसका निर्णय राष्ट्रपति स्वयं (अर्थात् मन्त्रिमण्डल) ही करेगा । न्यायालय ने कुछ वादों में यह मत व्यक्त किया गया था कि राष्ट्रपति के समाधान की जांच की जा सकती है (माखन सिंह बनाम पंजाब राज्य में न्यायमूर्ति श्री भगवती का अवलोकन) ।

42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा अनुच्छेद 352 में एक नया खण्ड जोड़कर यह स्पष्ट कर दिया गया था कि राष्ट्रपति का समाधान न्यायिक पुनरावलोकन से बाहर है, किन्तु जब जनता पार्टी सत्ता में आयी, तो उसने अथवा संशोधन अधिनियम, 1978 पारित करके उक्त नये खण्ड को निकाल दिया । इसके परिणमस्वरूप, अब आपात उद्‌घोषणा की संवैधानिकता को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है कि वह दुर्भावना से प्रेरित होकर की गयी है ।

(vii) अनुच्छेद 352 (1) के अधीन विभिन्न आधारों पर अलग-अलग आपातकाल की घोषणा करने की शक्ति भी शामिल है, भले ही इसके अधीन ऐसी ही घोषणा पहले भी की जा चुकी हो और वह प्रवर्तन में हो, (खण्ड 9) । उच्चतम न्यायालय या अन्य न्यायालयों का किसी भी आधार पर निम्नलिखित की विधिमान्यता के विषय में किसी भी प्रश्न को ग्रहण करने की अधिकारिता न होगी:

(1) खण्ड (1) में की गयी घोषणा के प्रभाव के बारे में या

(2) ऐसी घोषणा के लगातार प्रवर्तन के विषय में ।

(viii) न्यायालय का इस विषय पर सर्वदा ही यह मत रहा है कि आपातकीलीन स्थिति के अस्तित्व के विषय में राष्ट्रपति का ‘समाधान’ अन्तिम और निर्णायक है । इस विषय पर विधि के स्पष्ट होने के कारण संशोधन अनावाश्यक जान पड़ता है ।

आपात उदघोषणा का क्षेत्रीय विस्तार:

42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा अनुच्छे 352 में संशोधन करके यह स्पष्ट कर दिया गया है कि आपात उद्‌घोषणा देश के किसी भी भाग में परिसीमित की जा सकती है, जहां स्थिति सामान्य हो गयी है । इस संशोधन के पूर्व आपात की उद्‌घोषणा सम्पूर्ण भारत के सम्बन्ध में ही की जा सकती थी ।

आपात की अवधि:

44वें संशोधन, 1978 के द्वारा अब संसद के अनुमोदन के बाद आपात उद्‌घोषणा छह मास के लिए प्रवर्तन में रहेगी । इस अवधि को बढ़ाने के लिए संसद का अनुमोदन आवश्यक होगा । इस संशोधन के पूर्व संसद के अनुमोदन के पश्चात् यह अनिश्चित काल के लिए प्रवर्तन में रह सकती थी । अनुच्छेद 352 राष्ट्रपति को पर्याप्त व्यापक शक्ति प्रदान करता है ।

विश्व के किसी भी संघात्मक संविधान में ऐसे उपबन्धों का समावेश नहीं किया गया है । संविधान सभा में इस विषय पर विचार-विमर्श के समय कुछ सदस्यों ने यह आशंका व्यक्त की थी कि राष्ट्रपति द्वारा इस व्यापक शक्ति का दुरुपयोग किया जा सकता है, किन्तु डॉ॰ अम्बेडकर ने इस आशंका को निर्मूल बताया है । उन्होंने कहा कि संविधान में ऐसे उपबन्ध हैं, जो राष्ट्रपति की इस शक्ति पर पर्याप्त अंकुश रखते हैं । वे निम्नलिखित हैं :

(1) राष्ट्रपति अपनी इस शक्ति का प्रयोग मन्त्रिमण्डल की सहायता और परामर्श से करता है, जो जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि होते हैं । लोकसभा के बाद भी मन्त्रिपरिषद् राष्ट्रपति को परामर्श देने के लिए बनी रहती है ।

(2) आपात उद्‌घोषणा को शीघ्रातिशीघ्र संसद के समक्ष प्रस्तुत करना पड़ेगा और यह उसके अनुमोदन के बिना दो महीने से अधिक समय के लिए प्रवर्तन में नहीं रह सकती है । आपात उपबन्धों का दुरुपयोग किया गया था, इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती है । इसके परिणामस्वरूप कांग्रेस पार्टी को चुनाव में हारना पड़ा था । जनता पार्टी, जिसने अपने चुनाव घोषणा-पत्र में आपात स्थिति हटाने के लिए वचन दिया था, लोकसभा के चुनाव में भारी मत से विजयी हुई ।

देश में 1977 से चल रही आपात स्थिति को समाप्त कर दिया गया । 14 जून, 1975 में आभ्यन्तरिक अशान्ति के आधार पर लागू की गयी आपात उद्‌घोषणा को भी वापस ले लिया गया । इस प्रकार यह स्पष्ट हो गया है कि एक प्रबुद्ध जनमत आपात स्थिति के दुरुपयोग को रोकने के लिए अत्यावश्यक है ।

44वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1978:

प्रसन्नता की बात है कि प्रस्तुत संशोधन द्वारा संविधान में आवश्यक संशोधन किये गये हैं, ताकि भविष्य में आने वाली सरकारें आपात शक्तियों का दुरुपयोग न कर सकें । इस संशोधन अधिनियम का उद्देश्य सन् 1975 में घटी घटनाओं की पुनरावृत्ति को रोकना है, जबकि तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमति इन्दिरा गांधी ने बिना पर्याप्त कारण के अध्यान्तरिक अशान्ति (जिसे बदलकार सशस्त्र विद्रोह कर दिया गया है) के आधार पर आपात उद्‌घोषणा की थी और लाखों निर्दोष व्यक्तियों को 19 माह तक जेल में रहना पड़ा था ।

आपात उद्‌घोषणा का प्रभाव:  आपात उद्‌घोषणा के निम्नलिखित परिणाम होते हैं :

(1) संघ द्वारा राज्यों को निदेश : आपात उद्‌घोषणा का सर्वप्रथम प्रभाव यह है कि संघ की कार्यपालिका शक्ति राज्यों को इस बात का निदेश देने तक विस्तृत हो जाती है कि वे अपनी कार्यपालिका शक्ति का किस रीति से प्रयोग करें । आपात की स्थिति में राज्यों की कार्यपालिका शक्ति केन्द्रीय कार्यपालिका शक्ति के अधीन कार्य करती है । अनुच्छेद 353 में संशोधन किये जाने के कारण यह आवश्यक हुआ है ।

अनुच्छेद 353 (क) में एक नया परन्तुक जोड़कर संसद को यह शक्ति दी गयी है कि वह किसी ऐसे राज्य पर भी आपात सम्बन्धी कानून लागू कर सके, जो उस राज्य से भिन्न है, जिसमें उद्‌घोषणा प्रवर्तन में है, यदि उस भाग की गतिविधियों से भारत के किसी भाग की सुरक्षा संकट में है ।

(2) संघ की राज्य सूची के विषयों पर विधि बनाने की शक्ति: आपात की उद्‌घोषणा के प्रवर्तन के समय संसद को राज्य सूची के किसी भी विषय पर विधि बनाने की शक्ति प्राप्त हो जाती है, (अनुच्छेद 250) ।

उसे किसी विषय पर कानून बनाने की शक्ति होगी, जो संघ या उनके पदाधिकारियों को कर्तव्य सौंपती हो, भले ही वह विषय संघ सूची में वर्णित न हो ।

इस प्रकार हम देखते हैं कि आपातकालीन स्थिति में केन्द्र और राज्यों के बीच विधायन-शक्ति का उपविभाजन नाममात्र को ही बना रहता है, किन्तु ध्यान रहे कि इस स्थिति में राज्य विधानमण्डल की कानून बनाने की शक्ति समाप्त नहीं हो जाती, बल्कि केवल निलम्बित हो जाती है । राज्य विधानमण्डल राज्य सूची के विषयों पर कानून बना सकते हैं, किन्तु वे संसद द्वारा पारित विधियों के अधीन होते हैं, (अनुच्छेद 353 (ख)) ।

(3) वित्तीय सम्बन्धों में परिवर्तन:  आपात के उद्‌घोषणा प्रवर्तन की अवधि में राष्ट्रपति आदेश द्वारा जैसा कि वह उचित समझे, अनुच्छे 268 से 279 तक में उपबन्धित केन्द्र और राज्यों के वित्तीय सम्बन्धों में परिवर्तन कर सकता है । ऐसे प्रत्येक आदेश को यथासम्भव शीघ्र संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष प्रस्तुत किया जायेगा ।

(4) लोकसभा की अवधि में वृद्धि:  जब आपात की उद्‌घोषणा प्रवर्तन में है, तब संसद विधि द्वारा लोकसभा की अवधि को एक वर्ष के लिए बढ़ा सकती है । यह अवधि एक बार में एक वर्ष से अधिक नहीं बढ़ायी जा सकती है और आपात उद्‌घोषणा के समाप्त हो जाने के पश्चात्, छह मास बाद स्वयं ही समाप्त हो जायगी, (अनुच्छेद (2))।

(5) अनुच्छेद 19 में प्रदत्त मूल अधिकारों का निलम्बन:  अनुच्छेद 358 के अनुसार, जब आपात की उद्‌घोषणा प्रवर्तन में है, तब अनुच्छेद 19 की किसी बात से राज्य को कोई ऐसी विधि बनाने की अथवा कार्यपालिका को कोई ऐसी कार्रवाई करने की शक्ति अनुच्छेद 13 के उपबन्धों के अधीन नहीं होगी ।

अनुच्छेद 13 राज्य की विधायिका शक्ति पर अंकुश लगाता है, जिसके अनुसार, राज्य कोई भी ऐसा कानून नहीं बना सकता है, जो मूलाधिकारों को कम करता या छीनता हो, किन्तु आपात उद्‌घोषणा के प्रवर्तन काल में राज्य के ऊपर से यह प्रतिबन्ध समाप्त हो जाता है और राज्य द्वारा बनाये गये कानूनों को इस आधार पर न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है कि वे मूलाधिकारों के विरुद्ध हैं या उनका उल्लंघन करते हैं ।

ध्यान रहे कि इस स्थिति में अनुच्छेद 10 में प्रदत्त अधिकारों का केवल निलम्बन ही होता है, वे बिलकुल समाप्त नहीं हो जाते और आपात की उद्‌घोषणा के प्रवर्तन में न रहने पर स्वत: पुनर्जीवित हो उठते हैं, किन्तु आपात के दौरान किये गये कृत्यों के विरुद्ध, आपात स्थिति की समाप्ति के पश्चात् भी कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती है ।

32वें संविधान संशोधन, 1976 द्वारा अनुच्छेद 358 में एक नया परन्तुक जोड़ा गया है । यह संशोधन अनुच्छेदके 352 (1) में किये गये संशोधन के कारण आवश्यक हुआ है । इसके अनुसार, यदि भारत के किसी एक भाग में आपात स्थिति लागू है, तो ऐसे समय में बनाये गये कानून अन्य भागों में भी लागू होंगे, यदि उन भागों में उत्पन्न होने वाली गतिविधियों से भारत के किसी अन्य भाग की सुरक्षा खतरे में है ।

44वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1978 द्वारा अनुच्छेद 358 में दो महत्वपूर्ण संशोधन किये गये हैं:

(1) अब अनुच्छेद 358 के अधीन, अनुच्छेद 19 द्वारा प्रदत्त अधिकारों को युद्ध या बाह्य आक्रमण से देश को संकट के आधार पर आपात उद्‌घोषणा होने पर ही निलम्बित किया जा सकेगा, सशस्त्र विद्रोह के आधार पर नहीं ।

(2) इसमें यह जोड़कर यह स्पष्ट कर दिया गया है कि खण्ड (1) की कोई बात किसी विधि या उसके अधीन किये गये किसी कार्यपालिका के कार्य पर लागू नहीं होगी, जिसमें इस बात का उल्लेख नहीं है कि ऐसी विधि या कार्यपालिका के कार्य आपात उद्‌घोषणा से सम्बन्धित हैं । इस प्रकार 44वें संशोधन के पश्चात् अनुच्छेद 358 के अधीन केवल उन्हीं विधियों को न्यायालयों में चुनौती दिये जाने से संरक्षण मिलेगा जो आपात उद्‌घोषणा से सम्बन्धित हैं ।

अन्य विधियों की विधिमान्यता को भी आपात के दौरान न्यायालयों में चुनौती दी जा सकती है । इस संशोधन के पूर्व अन्य विधियों की विधिमान्यता को भी आपात के दौरान न्यायालयों में चुनौती नहीं दी जा सकती थी ।

एम॰ए॰ पाठक बनाम भारत संघ के मामले (A.I.R. 1978 S.C 803) में अनुच्छेद 358 में प्रयुक्त पदावली ‘वे बातें, जो की गयीं या की जाने से छोड़ दी गयी थीं’ के प्रभाव के विषय में उच्चतम न्यायालय को विचार करने का अवसर मिला ।

इस मामले में तथ्य यह था कि जीवन बीमा निगम और उसके कर्मचारियों के बीच 1961 में एक समझौता हुआ जिसके अनुसार जीवन बीमा निगम उनको बोनस देने के लिए राजी हो गया । किन्तु 1976 में, आपातकाल के दौरान संसद में, L.I.C. Modification of Settlement Act, 1976 पारित करके 1971 में किये गये समझौते को रह कर दिया गया और यह उपबन्ध किया गया कि कर्मचारीगण आपात के दौरान बोनस की मांग नहीं कर सकते हैं ।

कर्मचारियों ने उपयुक्त अधिनियम की विधिमान्यता को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी । उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि आपात उद्‌घोषणा का प्रभाव यह होता है कि अनुच्छेद 14 और 19 द्वारा प्रदत्त अधिकार निलम्बित नहीं होते हैं, बल्कि उनका प्रवर्तन कराने का अधिकार निलम्बित होता है ।

उपयुक्त पदावली का संकुचित अर्थ लगाया जाना चाहिए और आपात उद्‌घोषणा की समप्ति पर उपयुक्त समझौता पुनर्जीवित हो जाता है और उसके लिए आपातकाल की अवधि के लिए भी दावा किया जा सकता है । संक्षेप में विधिक दावे आपात उद्‌घोषणा मात्र से ही रह नहीं हो जाते हैं । उनको केवल अनुच्छेद 358 और 359 (1) के प्रवर्तन काल में विधि बनाकर ही निलम्बित किया जा सकता है । अतएव यह निर्णय दिया गया कि उपयुक्त अधिनियम अवैध है और कर्मचारीगण बोनस पाने के हकदार हैं ।

(6) अनुच्छेद 359 के अन्तर्गत मूल अधिकारों के प्रवर्तन का निलम्बन:

अनुच्छेद 359 के अनुसार, जहां कि आपात उद्‌घोषणा प्रवर्तन में है, वहां राष्ट्रपति अपने आदेश द्वारा यह घोषित कर सकेगा कि भाग 3 द्वारा दिये गये अधिकिारों में से ऐसों का प्रवर्तित करने के लिए जैसा कि उस आदेश में वर्णित हो, किसी न्यायालय के प्रचालन का अधिकार तथा इस प्रकार वर्णित अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए किसी न्यायालय में लिखित कार्रवाईयां उस अवधि के लिए, जैसी कि आदेश में उल्लिखित की जायें रहेंगी । उपयुक्त प्रकार का आदेश समस्त भारत या उसके किसी भाग पर लागू हो सकेगा ।

44वें, संविधान संशोधन अधिनियम, 1978 द्वारा अनुच्छेद में एक नया खण्ड जोड़ा गया है, जो यह उपबन्धित करता है कि जहां कि खण्ड (1) अधीन भाग 3 में वर्णित किसी अधिकार के निलम्बन की घोषणा प्रवर्तन में है, तो भाग 3 की कोई भी बात राज्य का कोई कानून बनाने या कार्यपालिका की कार्रवाईयां करने की शक्ति पर कोई निर्बन्धन नहीं होगा जिन्हें राज्य उस भाग के उपबन्धों के अधीन करने में सक्षम

है ।

इस अनुच्छेद के अन्तर्गत अनुच्छेद 19 के अतिरिक्त अन्य अधिकारों को निलम्बित किया जा सकता है । अनुच्छेद 19 आपात की उद्‌घोषणा पर स्वत: निलम्बित हो जाता है, जबकि अनुच्छेद 359 का प्रयोग राष्ट्रपति के आदेश द्वारा किया जाता है ।

अनुच्छेद 359 के अन्तर्गत राष्ट्रपति भाग 3 द्वारा प्रदत्त किसी भी मूल अधिकार को न्यायालयों द्वारा प्रवर्तित कराने के अधिकार का निलम्बन कर सकता है । यह आवश्यक नहीं है कि सभी अधिकार निलम्बित किये जायें ।

सन् 1962 की आपात उदघोषणा:

इस अनुच्छेद का सर्वप्रथम प्रयोग भारत पर चीन द्वारा आक्रमण के अवसर पर किया गया था । सितम्बर 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण किया । 26 अक्तूबर को अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत राष्ट्रपति ने यह उद्‌घोषणा की कि गम्भीर आपात विद्यमान है, जिससे बाह्य आक्रमण से भारत की सुरक्षा संकट में है । यह आपात स्थिति 10 जनवरी, 1968 तक चली ।

सन् 1971 में जब पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किया था तो आपात स्थिति की घोषणा पुन: की गयी थी । यह आपात स्थिति मार्च 1977 तक प्रवर्तन में रही है । 3 नवम्बर, 1962 को राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 359 (1) के अन्तर्गत एक आदेश जारी किया जो इस प्रकार है : “अनुच्छेद 359 (1) के प्रदत्त शक्ति के प्रयोग में राष्ट्रपति यह घोषित करता है कि किसी व्यक्ति के अनुच्छेद 14, 21 और 22 में दिये गये अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए जब तक अनुच्छेद 352 (1) के अन्तर्गत जारी की गयी आपात उद्‌घोषणा प्रवर्तन में है, किसी न्यायालय के प्रचालन का अधिकार निलम्बित रहेगा यदि ऐसे व्यक्ति को भारत प्रतिरक्षा विधेयक 1962 या उसके अधीन किसी नियम या आदेश द्वारा उक्त अधिकारों से वंचित कर दिया गया है ।”

माखन सिंह बनाम पंजाब राज्य के मामले (A.I.R 1964 S.C. 382):

में भारत प्रतिरक्षा अधिनियम की विधिमान्यता को चुनौती दी गयी थी । इस मामले में माखन सिंह और कुछ अन्य व्यक्तियों को भारत प्रतिरक्षा अधिनियम 1962 की धारा 3 और उसके अधीन बनाये गये नियम 30 के अधीन बन्दी बनाया गया ।

पिटिशनर ने असंशोधित दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 491 (1) ख के अधीन पंजाब उच्च न्यायालय में बन्दी प्रत्यक्षीकरण की एक याचिका दाखिल की जिसमें उसने अपने निरुद्ध किये जाने को इस आधार पर चुनौती दी कि भारत प्रतिरक्षा अधिनियम और उसके अधीन निर्मित नियम अनुच्छेद 14, 21, 22 में दिये गये उसके मूल अधिकारों का अतिक्रमण करते हैं ।

उसने यह तर्क दिया कि यद्यपि आपात उद्‌घोषणा के दौरान उसके अनुच्छेद 21 के अधिकारों के प्रवर्तन का अधिकार निलम्बित हो जाता है, किन्तु दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 491 (1) (ख) के अधीन बन्दीकरण को चुनौती देने का उसका अधिकार निलम्बित नहीं होता है, अत: वह उच्च न्यायालय में चुनौती दे सकता है ।

उच्च न्यायालय ने उसकी याचिका खरिज कर दी; क्योंकि अनुच्छेद 359 (1) के अधीन जारी किया गया राष्ट्रपति का आदेश दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 491 (ख) के अधीन उच्च न्यायालय को प्रचारित करने के अधिकार को भी निलम्बित करता है । तत्पश्चात् पिटिशनर ने उच्चतम न्यायालय में अपील दाखिल की । उच्चतम न्यायालय के निर्णयार्थ दो प्रमुख प्रश्न थे:

(1) अनुच्छेद 359 (1) के अन्तर्गत राष्ट्रपति द्वारा जारी किये गये आदेश का क्षेत्र और प्रभाव क्या था ?

(2) क्या राट्रपति का आदेश दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 491 ख के अधीन उच्च न्यायालय में बन्दी प्रत्यक्षीकरण की याचिका दाखिल करने के अधिकार पर भी रोक लगाता है ?

उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि राष्ट्रपति के आदेश के परिणाम स्वरूप पिटिशनर के किसी भी कानून के अधीन न्यायालयों में जाने के अधिकार का निलम्बन अधिकार के ऊपर ही नहीं है, वरन् अनुच्छेद 226 के अधीन उच्च न्यायालय में जाने के विरुद्ध भी है ।

अनुच्छेद में प्रयुक्त ‘किसी न्यायालय’ शब्द से यह बिलकुल स्पष्ट है । अत: यदि वह सीधे न्यायालय में नहीं जा सकता है, तो परोक्ष रूप से किसी अन्य विधि के अधीन भी उन न्यायालयों में नहीं जा सकता है ।

न्यायालय ने दोनों अनुच्छेदों का तुलनात्मक विवेचन करते हुए उनमें निम्नलिखित अन्तर बताया है:

(1) जैसे ही अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत आपात की उद्‌घोषणा की जाती है, अनुच्छेद 19 में प्रदत्त अधिकार स्वत: निलम्बित हो जाते है । यद्यपि आपात उदघेषणा के प्रवर्तन में न रहने पर अनुच्छेद 19 पुनर्जीवित हो जाता है, किन्तु आपातकाल में किये गये कृत्यों को आपात के पश्चात् चुनौती नहीं दी जा सकती है ।

इसके विपरीत अनुच्छेद 359 के अन्तर्गत मूल अधिकार निलम्बित नहीं होते हैं, वरन् न्यायालयों द्वारा केवल उनके प्रवर्तन कराने का अधिकार निलम्बित हो जाता है ।

(2) अनुच्छेद 19 में जब प्रदत्त अधिकार समस्त भारत में निलम्बित हो जाते हैं, लेकिन अनुच्छेद 359 (1) में जारी किये गये आदेश का विस्तार पूरे भारत में या उसके किसी भाग में हो सकता है ।

(3) अनुच्छेद 19, जब तक आपात उद्‌घोषणा प्रवर्तन में है, तब तक निलम्बित रहता है, जब तक कि अनुच्छेद 359 (1) के अन्तर्गत अधिकारों का निलम्बन पूरे समय या उसे छोटी अवधि के लिए हो सकता है ।

(4) अनुच्छेद 358 के अन्तर्गत, आपातकाल में किये गये कृत्यों को आपात की समप्ति के पश्चात् चुनौती नहीं दी जा सकती है, किन्तु अनुच्छेद 359 के अन्तर्गत ऐसे कृत्यों को आदेश की समाप्ति पर चुनौती दी जा सकती है, यदि उनके द्वारा उस काल के नागरिकों के किसी अधिकार का अतिक्रमण किया गया है; क्योंकि उस काल में भी ये अधिकार जीवित रहते हैं, जब तक कि क्षतिपूर्ति अधिनियम पारित करके उन कृत्यों को अवैध न घोषित कर दिया गया हो ।

किन्तु उच्चतम न्यायालय ने यह भी चेतावनी दी है कि राष्ट्रपति के आदेश को निम्न आधारों पर चुनौती दी जा सकती है : (1) विद्वेष, (2) किसी अन्य अधिकार का अतिक्रमण, जो आदेश में वर्णित नहीं है और (3) अत्यधिक प्रत्यायोजन (Excessive Delegation)

प्रभाकर पाण्डुरंग बनाम महाराष्ट्र राज्य के मामले (A.I.R. 1966 S.C. 702):

में, उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि यदि किसी नागरिक को भारत प्रतिरक्षा अधिनियम या उसके अधीन निर्मित किसी नियम के विरुद्ध उसकी वैयक्तिक स्वतन्त्रता से वंचित किया गया हो तो अनुच्छेद के 359 के अन्तर्गत न्यायालय के प्रवर्तन करने का उसका अधिकार निलम्बित नहीं किया जा सकता है ।

डॉ॰ राममनोहर लोहिया बनाम बिहार राज्य के मामले (A.I.R. 1966 S.C. 766):

में उच्चतम न्यायालय ने डॉ॰ लोहिया के निरोध आदेश को इस आधार पर अवैध घोषित कर दिया कि निरोध आदेश भारत प्रतिरक्षा अधिनियम में निहित शर्तों के विरुद्ध था ।

अनुच्छेद 359 (1) के अधीन राष्ट्रपति द्वारा जारी किया गया आदेश अनुच्छेद के 13 में प्रयुक्त विधि शब्द के अर्थान्तर्गत नहीं आता है । अतएव इसकी विधिमान्यता को इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती है कि वह भाग 3 में वर्णित मूलाधिकारों के विरुद्ध है ।

मौहम्मद याकूब बनाम जम्मू-कशमीर राज्य के मामले (A.I.R. 1966 S.C. 765):

में जो निर्णय दिया गया है वह गुलाम सरवर बनाम भारत संघ के मामले (A.I.R. 1966 S.C. 1335) के उलट निर्णय है ।

1971 और 1975 की आपात उदघोषणा:

26 जून, 1975 को राष्ट्रपति ने इस आधार पर आपात स्थिति की उद्‌घोषणा की कि आन्तरिक अशान्ति से देश की सुर क्षा संकट में है । बाह्य आक्रमण से देश की सुरक्षा के लिए संकट के आधार पर 1971 में की गयी आपात स्थिति की घोषणा पहले से ही प्रवर्तन में थी ।

इन दोनों आपात उद्‌घोषणाओं को वापस ले लिया गया है । 1971 में लागू की गयी आपात उद्‌घोषणा को 27 मार्च, 1977 में समाप्त किया गया है और 1975 में लागू की गयी आपात स्थिति को 21 मार्च 1977 को वापस कर लिया गया है ।

संविधान के 38वें संविधान संशोधन अधिनियम 1975 द्वारा अनुच्छेद 352 में खण्ड (4) जोड़कर यह स्पष्ट कर दिया गया है कि अनुच्छेद के 352 में खण्ड (1) से भिन्न आधार पर उद्‌घोषणा करने की शक्ति शामिल है, भले ही इसके अन्तर्गत एक उद्‌धोषणा पहले ही की गयी हो और प्रवर्तन में हो ।

27 जून को राष्ट्रपति ने निम्नलिखित आदेश जारी किया:

“संविधान के अनुच्छेद 359 के खण्ड (1) द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए राष्ट्रपति इस बात की घोषणा करता है कि किसी भी व्यक्ति के अनुच्छेद 14, 21 और 22 द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारों के न्यायालय द्वारा प्रवर्तन के अधिकार (जिसमें विदेशी भी शामिल हैं) तब तक निलम्बित रहेंगे जब तक कि आपात उद्‌घोषणा प्रवर्तन में है ।”

ए॰डी॰एम॰, जबलपुर बनाम एस॰ शुक्ल के बन्दी प्रत्यक्षीकरण मामले (A.I.R 1976 S.C. 1207):

में प्रत्यार्थियों को आन्तरिक सुरक्षा अधिनियम (Maintenance of internal Security Act-MISA) की नयी धारा 16 (क) के अन्तर्गत निरुद्ध किया गया । यह धारा निरुद्ध व्यक्ति को निरोध के आधार पर संसूचित करने के लिए वर्जित करती है ।

प्रत्यार्थियों ने विभिन्न उच्च न्यायालयों में बन्दी प्रत्यक्षीकरण रिट के लिए याचिका दाखिल की । राज्य की ओर से यह आपत्ति उठाई गयी कि 27 जून, 1975 को राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 359 (1) के अधीन जारी किये गये आदेश को ध्यान में रखते हुए अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत न्यायालय में निरुद्ध व्यक्ति अपनी याचिक दाखिल नहीं कर सकता है ।

इलाहाबाद बम्बई कर्नाटक मध्य प्रदेश पंजाब और राजस्थान के उच्च न्यायालयों ने यह निर्णय दिया कि आपात स्थिति तथा राष्ट्रपति के आदेश के चालू रहने के बावुजूद न्यायालय इस बात की जांच कर सकते हैं कि क्या निरोध आदेश मीसा अधिनियम के उपबन्धों के अनुसार पारित किया गया है या असद्‌भावनापूर्ण या गौण प्रयोजन के लिए पारित किया गया है ।

उच्च न्यायालयों के निर्णय के विरुद्ध केन्द्रीय सरकार ने उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की । इस अपील में 2 दो मुख्य प्रश्न विचारणीय थे:

(1) क्या 27 जून 1975 और 1976 के राष्ट्रपति के अनुच्छेद 359 (1) के आदेश को ध्यान में रखते हुए अनुच्छेद 226 के अधीन न्यायालय में निरुद्ध व्यक्ति दैहिक स्वतन्त्रता के अधिकारों का पालन कराने के लिए याचिका दाखिल कर सकता है और

(2) यदि किसी याचिका पर न्यायालय विचार करता है, तो उसमें न्यायिक समीक्षा (Judicial Scrutiny) किस सीमा तक की जा सकेगी, विशेषकर राष्ट्रपति के आदेश और मीसा की धारा 16 (क) को ध्यान में रखते हुए ।

उच्चतम न्यायालय ने 4:1 के बहुमत से श्री ए॰ राय, श्री बेग, श्री भगवती और श्री चन्द्रचूड़ (श्री खन्ना की विसम्मति) से यह अभिनिर्धारित किया कि 27 जून, 1975 के राष्ट्रपति के आदेश को ध्यान में रखते हुए मीसा अधिनियम के अन्तर्गत आपात के दौरान निरुद्ध किये गये व्यक्ति को यह अधिकार नहीं है कि वह बन्दी प्रत्यक्षीकरण रिट के लिए अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत किसी उच्च न्यायालय में याचिका फाइल कर सके ।

बहुमत ने यह निर्णय दिया कि संविधान का अनुच्छेद 32 प्राण एवं दैहिक स्वाधीनता के अधिकार का एकमात्र स्रोत (Repository) है और जब इस अधिकार को अनुच्छेद 356 (1) के अधीन राष्ट्रपति के आदेश द्वारा निलम्बित कर दिया गया है, तो बन्दी प्रत्यक्षीकरण या अन्य कोई याचिका अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत ऐसा कोई भी व्यक्ति, जो मीसा अधिनियम के अधीन निरुद्ध किया गया है, न्यायालय में बन्दी प्रत्यक्षीकरण के लिए याचिका फाइल नहीं कर सकता है ।

मुख्य न्यायामूर्ति श्री ए॰एन॰ राय ने कहा कि यह विधि शासन का नियम नहीं है, जो हर परिस्थिति में संगत और अपरिवर्तनीय होता है । मूल अधिकारों के प्रवर्तन के अधिकार को निलम्बित करने का प्रभाव यह है कि आपातकालीन उपबन्ध जो हैं, वे अपने आपमें आपात के दौरान विधि नियम हैं ।

संवैधानिक विधि नियम के अलावा और कोई विधि नियम नहीं हो सकते हैं । संविधानपूर्व या संविधानोत्तर कोई ऐसा वाद विधि नियम नहीं हो सकता है, जो संविधान में निहित विधि नियम के विपरीत हो ।

न्यायाधिपति श्री बेग ने कहा कि बन्दी प्रत्यक्षीकरण की याचिका में प्रतिशपथ-पत्र में जिस क्षण न्यायालय को यह दिखा दिया जाता है कि निरोध का आदेश अधिमान्यता की जांच नहीं कर सकता है कि उसमें किसी प्रकार की बदनीयती है या मीसा के उपबन्धों का समुचित पालन नहीं किया गया है ।

विधि शासन के सम्बन्ध में श्री बेग ने कहा कि विधि शासन ऐसी कोई जादुई ताबीज नहीं है, जो किसी को हर कठिनाई से मुक्ति दिला दे । विधि शासन अलादीन का चिराग नहीं है, जो किसी भी व्यक्ति को जब भी जो कुछ चाहे, दे दे ।

संक्षेप में जब तक संविधान में प्रदत्त मूल अधिकार निलम्बित हैं, तब तक मीसा अधिनियम के अन्तर्गत निरुद्ध व्यक्तियों को अनुतोष पाने के लिए न्यायालय में जाने का कोई अधिकार नहीं है ।

चारों न्यायाधीशों ने अपने निर्णय में यह भी कहा कि प्रत्यार्थियों के निरोध को इस आधार पर भी चुनौती नहीं दी जा सकती है कि निरोध का आदेश गैर-कानूनी या दुर्भावना से प्रेरित होकर पारित किया गया था या गौण प्रयोजन के लिए जारी किया गया है ।

न्यायाधिपति श्री खन्ना ने अपना विसम्मत (dissenting) निर्णय दिया । उन्होंने यह निर्णय दिया कि राष्ट्रपति के आदेश के बाबुजूद एक निरुद्ध व्यक्ति अपने निरोध आदेश को इस आधार पर चुनौती दे सकता है कि उसे बिना विधि के प्रधिकार के निरुद्ध किया गया है अथवा निरोध विधि के उपबन्धों का ठीक पालन नहीं किया गया है ।

ध्यान रहे कि 1964 में माखन सिंह के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया था कि अनुच्छेद 359 (1) के अधीन राष्ट्रपति द्वारा जारी किये गये आदेश के बावजूद निरुद्ध व्यक्ति निरोध-आदेश को इस आधार पर चुनौती दे सकता है कि आदेश बदनीयती से या सम्बन्धित विधि के उपबन्धों के उल्लंघन में या गौण प्रयोजन के लिए जारी किया गया है, किन्तु शिवकान्त शुक्ल के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया है कि माखन सिंह का विनिश्चय प्रस्तुत मामले में लागू नहीं किया जा सकता है; क्योंकि 27 जून के राष्ट्रपति के आदेश और

1962 के राष्ट्रपति के अद्रेश में एक महत्त्वपूर्ण अन्तर है । 1962 का राष्ट्रपति का आदेश एक सशर्त आदेश (Conditional order) था, जो केवल उन व्यक्तियों पर लागू होता था जिन्हें भारत सुरक्षा अधिनियम (Deffence of India Act) के अधीन निरुद्ध किया गया था ।

किन्तु 27 जून का राष्ट्रपति का आदेश और 1962 के राष्ट्रपति के एक सर्वग्राही आदेश (Conditional order) है, जौ किसी विशिष्ट विधि के अन्तर्गत निरुद्ध व्यक्तियों पर नहीं लागू होता है ।

न्यायाधीश श्री खन्ना बहुमत के इस मत से सहमत नहीं हैं । उनके अनुसार दोनों प्रकार के आदेशों में प्रयुक्त शब्दावली में अन्तर के आधार पर आदेश के अन्तर को न्यायसम्मत नहीं माना जा सकता है कि राष्ट्रपति के 27 जून के आदेश के अन्तर्गत निरोध आदेश जारी करने वाले प्रधिकारी के लिए निवारक निरोध विधि के उपबन्धों का पालन आवश्यक नहीं है ।

44वां संविधान संशोधन, 1978: इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद 359 में दो संशोधन किये गये हैं:

(1) अब अनुच्छेद 359 के अधीन द्वारा अनुच्छे 20 और 21 के अधिकारों के प्रवर्तन के लिए न्यायालय में जाने के अधिकार निलम्बित नहीं होंगे ।

(2) अनुच्छेद 359 के अधीन उन विधियों अथवा कार्यपालिका आदेशों को लागू होगा, जिनमें इस आशय का उल्लेख होगा कि वे आपात उद्‌घोषणा से सम्बन्धित हैं ।

इस प्रकार 44वां संशोधन अधिनियम निम्नलिखित दो बातें स्पष्ट करता है-

-अनुच्छेद के 359 के अधीन राष्ट्रपति को अनुच्छे 21 द्वारा प्रदत्त प्राण एवं दैहिक स्वाधीनता के अधिकार को निलम्बित करने का अधिकार नहीं होगा, अर्थात् भविष्य में अनुच्छेद 21 को निलम्बित नहीं किया जा सकता है ।

-अनुच्छेद 359 के अधीन आपात के दौरान उन्हीं विधियों और उनके अधीन जारी किये गये कार्यपालिका आदेशों को न्यायालयों में चुनौती दिये जाने से सरक्षण प्राप्त होगा, जो आपात उद्‌घोषणा से सम्बन्धित हैं, अन्य विधियों को नहीं ।

यह संशोधन ए॰डी॰एम॰, जबलपुर बनाम एस॰शुक्ल के बन्दी प्रत्यक्षीकरण मामले (A.I.R. 1976 S.C. 1207) में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये खतरनाक निर्णय के प्रभाव को दूर करने के लिए पारित किया गया है ।

राज्यों की संरक्षा करने का संघ का कर्तव्य (अनुच्छेद 344):

अनुच्छेद 355 यह उपबन्धित करता है कि बाह्य आक्रमण और आन्तरिक अशान्ति से प्रत्येक राज्य की संरक्षा करना तथा प्रत्येक राज्य की सरकार इस संविधान के उपबन्धों के अनुसार चलायी जाये यह सुनिश्चित करना संघ का कर्तव्य होगा । अनुच्छे 355 सेंघ पर दो कर्तव्य आरोपित करता है :

(1) राज्यों को आभ्यन्तरिक अशान्ति से संरक्षण प्रदान करना तथा

(2) राज्य सरकारों को संविधान के उपबन्धों के अनुसार चलाया जाना सुनिश्चित करना ।

इस प्रकार के उपबन्ध विश्व के अन्य संघीय संविधानों में भी पाये जाते हैं, किन्तु भारतीय संविधान के ऐसे उपबन्धों और विश्व के अन्य संघीय संविधान के उपबन्धों में एक महत्त्वपूर्ण अन्तर है । जहां तक पहले बिन्दु का प्रश्न है, अमेरिका और आस्ट्रेलिया में संघ केवल राज्यों की प्रार्थना पर ही उनको संरक्षा प्रदान करता है, किन्तु भारत में राज्यों की प्रार्थना के बिना यह कार्य किया जाता है ।

जहां तक दूसरे बिन्दु का प्रश्न है, भारत में ऐसी स्थिति के उत्पन्न हो जाने पर संघ राज्य प्रशासन को अपने हाथ में ले लता है । अमेरिका और आस्ट्रेलिया में केन्द्र को ऐसी शक्ति प्राप्त नहीं है ।  अनुच्छेद 355 में प्रयुक्त बाह्य आक्रमण के वास्तविक अर्थ के सम्बन्ध में उच्चतम न्यायालय को विचार करने का अवसर हाल के महत्वपूर्ण मामले सरवदानन्द सोनवाल बनाम भारत संघ के वाद में मिला । इस मामले में पिटीशनर ने लोकहित का वाद फाइल करके अवैध प्रवासी (अधिकारण द्वारा निर्णरण) अधिनियम, 1983 की विधिमान्यता को चुनौती दी ।

यह अधिनियम केवल असम राज्य में लागू किया गया था । इसका उद्देश्य असम में लाखों की संख्या में घुस आये बंगला देशी नागरिकों का पता लगाना और उन्हें निष्कासित करना था किन्तु इसके उपबन्धों के अनुसार बंगला देशी घुसपैठियों का पता लगाना और निष्कासन करना अत्यन्त कठिन हो गया ।

इसमें इस बात को साबित करने का भार अभियोजन पक्ष (राज्य) या उस व्यक्ति पर है जो इसका दावा करता है कि कोई व्यक्ति विदेशी नागरिक है या नहीं उस व्यक्ति पर नहीं जो यह दावा करता है कि वह भारत का नागरिक है ।

इसके विपरीत पूरे भारत में विदेशियों सम्बन्धी अधिनियम 1946 लागू है, जिसकी धारा 9 के अनुसार, इस बात को साबित करने का भार कि वह भारत का नागरिक है, उस व्यक्ति पर है, जो इसका दावा करता है कि वह भारत का नागरिक है ।

असम और अवैध प्रवासी निर्धारण अधिनियम के विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि उसका उद्देश्य अवैध प्रवासियों जो बंगलादेश से भारत में घुस आये हैं, उन्हें शरण एवं संरक्षा प्रदान करना है । उक्त अधिनियम के लागू होने से केन्द्र सरकार के उनके पता लगाने और उनके निष्कासन की शक्ति भी समाप्त हो गयी है । लाखों की संख्या में अवैध प्रवासियों की असम में उपस्थिति असम राज्य पर आक्रमण है और वहां विद्रोह की स्थिति हो गयी है और आन्तरिक अशान्ति व्याप्त है । वहां के निवासियों का जीवन असुरक्षित है ।

इससे असम का विकास अवरुद्ध है, यद्यपि वहाँ विपुल प्राकृतिक स्रोत विद्यमान हैं । असम के लोग असम में ही अल्पसंख्यक हो गये हैं । अनुच्छेद 355 के अधीन, केन्द्र सरकार का यह कर्तव्य है कि प्रत्येक राज्य को ‘बाह्य आक्रमण’ और आन्तरिक अशान्ति से संरक्षा प्रदान करे । ‘आक्रमण’ भारतीय संविधान एक व्यापक अर्थ वाला शब्द है ।

‘आक्रमण’ का अर्थ केवल युद्ध से नहीं है, यद्यपि इसके क्षेत्र में युद्ध भी शामिल है । इनमें अन्य कई कृत्य भी शामिल हैं, जो युद्ध की श्रेणी में नहीं आते हैं । आधुनिक युद्ध केवल दो देशों की सेनाओं के बीच नहीं लड़ा जाता है, बल्कि देश की सम्पूर्ण जनता इसमें शामिल होती है ।

आधुनिक काल में युद्ध की अवधारणा में काफी परिवर्तन आ गया है । हमारे संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 355 में ‘आक्रमण’ शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में किया है । लाखों की संख्या में असम में अवैध बंगलादेशियों का घुसना और वहां बस जाना मतदाता बन जाना नौकरियां पा जाना असम पर आक्रमण है, जिससे केन्द्र सरकार को इसे सरक्षा प्रदान करनी चाहिए ।

केन्द्र अपने इस कर्तव्य में विफल रही है । न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि अवैध प्रवासी अधिनियम असंवैधानिक है, शून्य है और उसके अधीन सभी कार्रवाईयों को रोक दिया और उनके निर्माण और निष्कासन का कार्य विदेशियों सम्बन्धी अधिनियम, 1946 के उपबन्धों के अधीन करने का निदेश दिया ।

राज्य में सांविधानिक तन्त्र की विफलता से उत्पन्न आपात राष्ट्रपति शासन (अनुच्छेद 356):

अनुच्छेद 356 यह उपबन्धित करता है कि यदि किसी राज्य के राज्यपाल से प्रतिवेदन मिलने पर या अन्यथा यदि राष्ट्रपति को समाधान हो जाये कि ऐसी स्थिति पैदा हो गयी है, जिसमें कि उस राज्य का शासन संविधान के उपबन्धों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता, तो राष्ट्रपति उद्‌घोषणा द्वारा:

(1) उस राज्य की सरकार के सब या कोई कृत्य तथा राज्यपाल या राज्य के किसी निकाय या प्राधिकारी में निहित या उसके द्वारा प्रयोक्तव्य सब या कोई शक्ति अपने हाथ में ले सकेगा ।

(2) घोषित कर सकेगा कि राज्य के विधानमण्डल की शक्तियां संसद के प्रधिकार के द्वारा या अधीन प्रयोक्तव्य होंगी ।

(3) वह ऐसे प्रासंगिक और आनुषंगिक उपबन्ध बना सकेगा, जो राष्ट्रपति की उद्‌घोषणा के उद्देश्य को प्रभावी करने के लिए आवश्यक या वांछनीय दिखाई

ऐसी किसी उद्‌घोषणा को राष्ट्रपति पश्चात्‌वर्ती उद्‌घोषणा द्वारा वापस ले सकता है या उसमें परिवर्तन कर सकता है, (खण्ड (2)), किन्तु राष्ट्रपति इस उद्‌घोषणा द्वारा उच्च न्यायालयों से सम्बन्धित किसी उपबन्ध के प्रवर्तन को पूर्णत: या अंशत: निलम्बित नहीं कर सकता है ।

अनुच्छेद 356 में प्रयुक्त पदावली ‘राज्यपाल से प्रतिवेदन पर या अन्यथा’ से यह स्पष्ट है कि राष्ट्रपति राज्य के राज्यपाल से कोई रिपोर्ट न मिलने पर भी कार्रवाई कर सकता है । इसके लिए केवल इतना ही पर्याप्त है कि राष्ट्रपति को इस बात का समाधान हो जाये कि किसी राज्य में संवैधानिक तन्त्र विफल हो गया है ।

ऐसा सम्भव है: कि राज्यपाल-राज्य के मुख्यमन्त्री से मिल जाये तब राष्ट्रपति को कर्तव्य का पालन करना होगा और स्वयै कार्य करना होगा । अनुच्छेद 356 से यह स्पष्ट है कि राष्ट्रपति का समाधान मन्त्रिमण्डल का समाधान होता है, उसका अपना समाधान नहीं ।

अनुच्छेद 356 में प्रयुक्त ‘राज्य का शासन संविधान के उपबन्धों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता’ पदावली बहुत व्यापक अर्थ रखती है । किसी राज्य में संवैधानिक तन्त्र विफल हो गया है अथवा नहीं इसका निर्णय राष्ट्रपति का स्वयं का निर्णय नहीं होता है, बल्कि मन्त्रिमण्डल का निर्णय होता है ।

उद्‌घोषणा की अवधि:

अनुच्छेद 356 के अधीन जारी की गयी उद्‌घोषणा संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष रखी जायेगी और यदि वह पूर्ववर्ती उद्‌घोषणा द्वारा वापस नहीं कर दी गयी है, तो दो माह की समाप्ति पर प्रवर्तन में नहीं रहेगी यदि उस अवधि की समाप्ति से पूर्व संसद के दोनों सदनों द्वारा संकल्पों द्वारा उसका अनुमोदन नहीं कर दिया जाता है (खण्ड (3) ; किन्तु यदि कोई उद्‌घोषणा ऐसे समय की जाती है, जब लोकसभा का विघटन हो गया है या दो मास की अवधि के दौरान हो जाता है और राज्यसभा द्वारा अनुमोदन का संकल्प पारित कर दिया गया है, किन्तु लोकसभा द्वारा अनुमोदित नहीं किया गया है, तो पुनर्गठन के पश्चात् लोकसभा की प्रथम बैठक से 30 दिन की समाप्ति पर प्रवर्तन में नहीं रहेगी यदि लोकसभा द्वारा इस अवधि के भीतर अनुमोदन करने वाला संकल्प पारित नहीं कर दिया जाता है, (खण्ड-3) ।

यदि दो मास के अन्दर संसद उद्‌घोषणा का अनुमोदन कर देती है, तो वह 6 मास तक प्रवर्तन में रहेगी (खण्ड 4) । संकल्प द्वारा एक बार में इस अवधि को 6 मास के लिए बढ़ाया जा सकता है, किन्तु कोई भी ऐसी उद्‌घोषणा किसी भी दशा में 3 वर्ष से अधिक प्रवृत्त नहीं रहेगी ।

इस प्रकार अनुच्छेद 356 के अधीन उद्‌घोषणा की अधिकतम अवधि तीन वर्ष है । इस अवधि की समाप्ति के पश्चात् न तो राष्ट्रपति और न ही संसद उद्‌घोषणा को बनाये रख सकते हैं । इस अवधि के भीतर ही चुनाव कराकर जनता के प्रतिनिधियों को शासन सौंप दिया जायेगा ।

44वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1978:

इस संशोधन अधिनियम के अनुच्छेद 356 के क्षेत्र को काफी सीमित कर दिया है । संसद द्वारा अनुमोदित हो जाने पर आपात उद्‌घोषणा 6 माह तक प्रवर्तन में रहेगी । एक बार में इस अवधि को 6 माह के लिए बढ़ाया जा सकता है । संशोधन अधिनियम ने एक नया खण्ड (5) जारी रखने वाला संकल्प किसी भी सदन द्वारा तब तक पारित नहीं किया जायेगा जब तक कि:

(क) ऐसे संकल्प को पारित करते समय आपात उद्‌घोषणा प्रवर्तन में है और

(ख) चुनाव आयोग इस बात का प्रमाण-पत्र न दे दे कि सम्बन्धित विधानसभा के लिए आम चुनाव कराने में कठिनाइयों के कारण आपात स्थिति का जारी रहना आवश्यक है ।

इस प्रकार एक वर्ष से अधिक अवधि के लिए आपात को तभी जारी रखा जा सकता है, जब तक चुनाव आयोग का उपयुक्त परिस्थिति के विद्यमान होने का प्रमाण-पत्र न प्राप्त हो जाये । इसके पूर्व ऐसी कोई शर्त नहीं थी और सरकार बिना किसी कारण के इस अवधि को बढ़ाकर अधिकतम सीमा (3 वर्ष) तक कर दिया करती थी ।

अनुच्छेद 356 के अधीन यह कहा गया है कि ऐसी उद्‌घोषणा राष्ट्रपति के समाधान के आधार पर की जाती है । ४२वें संविधान संशोधन 1976 द्वारा अनुच्छेद 356 में एक परन्तुक जोड़कर यह स्पष्ट कर दिया गया था कि राष्ट्रपति के समाधान को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती थी ।

किन्तु वे संविधान संशोधन अधिनियम 1978 द्वारा इस परन्तुक को पुन: निकाल दिया गया है । इसके परिणामस्वरूप इस मामले में राष्ट्रपति के समाधान का न्यायिक पुनर्विलोकन किया जा सकता है, अर्थात् यदि उद्‌घोषणा दुर्भावना से प्रेरित होकर की गयी है या उसमें उल्लिखित कारणों का राष्ट्रपति के समाधान से कोई युक्तियुक्त सम्बन्ध नहीं है, तो न्यायालय उसे असंवैधानिक घोषित कर सकते हैं ।

एस॰आर॰ बोम्मई बनाम भारत संघ के मामले [(1994)3 S.C.C.1, में उच्चतम न्यायालय के 9 न्यायाधीशों की पीठ ने यह अभिनिर्धारित किया है कि अनुच्छे 356 के अधीन राष्ट्रपति द्वारा राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू करने के लिए की गयी उद्‌घोषणा न्यायिक पुनर्विलोकन के अधीन है और राष्ट्रपति के समाधान के लिए युक्तियुक्त कारणों का होना एक पूर्ववर्ती शर्त है ।

न्यायालय इसकी जांच कर सकते हैं कि वे कारण विद्यमान थे कि नहीं जिनके आधार पर राष्ट्रपति ने उद्‌घोषणा की थी ।

वे संविधान संशोधन अधिनियम, 1984 द्वारा अनुच्छेद 356 के खण्ड (5) में एक नया परन्तुक जोड़कर यह स्पष्ट किया गया था कि पंजाब राज्य के मामले में अक्टूबर 1983 को खण्ड (1) के अधीन जारी की गयी उद्‌घोषणा एक वर्ष के स्थान पर दो वर्ष के लिए लागू रहेगी अर्थात् चुनाव आयोग के प्रमाण-पत्र के बिना 2 वर्ष तक लागू रहेगी ।

यह संशोधन पंजाब में अकाली आन्दोलन के कारण चुनाव कराना सम्भव न होने के कारण पारित किया गया है । संविधान में वे संविधान संशोधन अधिनियम 1989 द्वारा अनुच्छेद 356 में एक नया खण्ड जोड़कर पंजाब में अधिकतम तीन वर्ष के पश्चात् 6 माह के लिए राष्ट्रपति शासन लागू करने के लिए उपबन्ध किया गया है ।

संविधान के हर संविधान संशोधन अधिनियम 1990 के द्वारा अनुच्छेद 356 (4) में संशोधन करके पजाब में राष्ट्रपति शासन की अवधि को 6 माह के लिए और बढ़ा दिया गया था । फलत: खण्ड (4) में ‘3 वर्ष 6 माह’ के स्थान पर ‘4 वर्ष’ शब्दावली प्रतिस्थापित की गयी है ।

संविधान में रुष्टमें संविधान संशोधन अधिनियम 1991 के द्वारा अनुच्छेद (4) के परन्तुक में पुन: संशोधन करके ‘4 वर्ष’ के स्थान पर ‘5 वर्ष’ शब्दावली रखी गयी थी; क्योंकि पँजाब में चुनाव करना सम्भव नहीं था ।

संविधान लागू होने के दिन से लेकर आज तक अनुच्छेद 356 का प्रयोग 100 से अधिक बार किया जा चुका है । अधिकतर मामलों में राष्ट्रपति शासन ऐसी स्थिति में लागू किया गया था जब किसी-न-किसी कारण से एक स्थायी सरकार का गठन सम्भव नहीं था ।

इसके उदाहरण हैं- 1951 में पंजाब, 1953 में पेप्सू, 1954 में आन्ध्र प्रदेश, ट्रावनकोर-कोचीन (1956), उड़ीसा (1961), केरल (1954), राजस्थान (1966) और 1978 में उत्तर प्रदेश, पश्चिमी बंगाल, बिहार (2006), पंजाब (1969) और गुजरात (1977) ।  1964 में गुजरात में राष्ट्रपति शासन तब लागू किया गया था जब छात्रों के आन्दोलन के कारण विधानमण्डल का विघटन किया गया था; यह अनुच्छेद 356 का सरासर दुरुपयोग था ।

1976 में अनुच्छेद 356 का प्रयोग तमिलनाडु में किया गया और डी॰एम॰के॰ मन्त्रिमण्डल को इस आधार पर अपदस्थ कर दिया गया कि उसने केन्द्रीय सरकार के निदेशों की अवहेलना की है तथा आपात शक्तियों का दुरुपयोग किया है ।

राज्यपाल महोदय ने राष्ट्रपति को भेजी गयी रिपोर्ट में लिखा था कि डी॰एम॰के॰ मन्त्रिमण्डल ने कुप्रबन्ध भ्रष्टाचारपूर्ण कृत्यों तथा विभेदपूर्ण नीतियों का पालन कर न्याय को ताक पर रख दिया है, जो जनतान्त्रिक प्रशासन की आधारशिला है ।

केन्द्रीय सरकार का यह कृत्य भी जनतान्त्रिक परम्परा एवं सिद्धान्तों के विपरीत ही कहा जा सकता है; क्योंकि तामिलनाडु में मन्त्रिमण्डल को विधानमण्डल तथा जनता दोनों का पूर्ण विश्वास प्राप्त था । प्रजातन्त्र के नाम पर प्रजातन्त्र की हत्या करने का यह एक ज्वलन्त उदाहरण है ।

1959 में केरल के कम्मुनिस्ट मन्त्रिमण्डल को इस आधार पर अपदस्थ कर दिया गया था कि उसने जनता का विश्वास खो दिया है, यद्यपि उसे विधानमण्डल के बहुमत का विश्वास प्राप्त था । प्रान्तीय सरकार के विरुद्ध एक जन-आन्दोलन उठ खड़ा हुआ और शान्ति व्यवस्था सरकार के नियन्त्रण से बाहर हो गयी ।

1976 में गुजरात और उड़ीसा दो प्राप्तों में राष्ट्रपति शासन लागू किया गया । गुजरात में दल-बदल के कारण संविद सरकार के गिर जाने पर और उड़ीसा में कांग्रेस दल के झगड़ों को सुलझाने के लिए राष्ट्रपति शासन लागू किया गया । उड़ीसा में कांग्रेस दल का बहुमत था और मुख्यमन्त्री नन्दिनी सत्पथी को बहुमत दल का विश्वास प्राप्त था किन्तु केन्द्रीय नेता उनसे नाराज थे अत: उन्हें हटाने के लिए राष्ट्रपति शासन लागू किया गया ।

1977 में नौ राज्यों में राष्ट्रपति शासन:

सन् 1977 में अनुच्छे 356 को एक विशिष्ट परिस्थितियों में लागू किया गया । 1977 में देश में आभ्यन्तरिक अशान्ति के आधार पर आपात को उद्‌घोषणा की गयी थी । आपातकाल की समाप्ति के पश्चात् कांग्रेस सरकार ने लोकसभा को फा करके निर्वाचन की घोषणा की । इस चुनाव में कांग्रेस पार्टी की भारी पराजय हुई और जनाता पार्टी को लोकसभा में भारी बहुमत प्राप्त हुआ ।

इस समय अनेक राज्यों में कांग्रेस पार्टी का मन्त्रिमण्डल पदासीन था । जनता पार्टी की सरकार ने देश के नौ राज्यों में इस आधार पर राष्ट्रपति शासन लागू किया कि इन राज्यों में वर्तमान लोकसभा के चुनाव में कांग्रस पार्टी के एक भी प्रत्याशी के सफल न होने के कारण वहां के मन्त्रिमण्डल ने जनता का विश्वास खो दिया था ।

लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस पार्टी की भारी पराजय हुई थी और विशेषकर उत्तर प्रदेश बिहार बंगाल, हरियाणा पंजाब राजस्थान मध्यप्रदेश और हिमाचल प्रदेश में उसका एक भी प्रत्याशी चुनाव में साकल नहीं हुआ था । लोकसभा में जनता पार्टी को दो-तिहाई बहुमत मिल गया ।

गृहमन्त्री ने इन राज्यों के मुख्यमन्त्रियों को एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने अनुरोध किया कि वे अपने-अपने राज्यपालों को विधानसभा फा करने की सलाह दें और राज्यों में चुनाव करायें । गृहमन्त्री का विचार था कि इन राज्यों की सरकारों ने जनता का विश्वास खो दिया है, इसलिए इन्हें इस्तीफा देकर जनता का विश्वास प्राप्त करने के लिए चुनाव कराना चाहिए ।

गृहमन्त्री के इस सुझाव को इन राज्यों के कांग्रेसी मन्त्रिमण्डलों ने अस्वीकार भारतीय कर दिया । 9 में से 6 राज्यों ने केन्द्रीय सरकार के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में याचिका दाखिल की जिसमें यह तर्क प्रस्तुत किया कि सरकार की विधानसभाओं को भंग करने की धमकी असंवैधानिक थी; क्योंकि इस आधार पर (जनता का विश्वास खो देने पर) विधानसभाओं के भग करने का संविधान में कोई उपबन्ध नहीं है ।

उनका तर्क था कि संविधान के अनुच्छेद 356 में इसका कोई संकेत नहीं है और न ही इसके बारे में राज्यों के राज्यपालों की कोई रिपोर्ट राष्ट्रपति के पास भेजी गयी थी जो उनके अनुसार आवश्यक थी और गृहमन्त्री की कार्रवाई असद्‌भावनापूर्ण थी तथा मन्त्रिमण्डलों को विधानसभाओं में बने रहने का विधिक अधिकार था ।

राजस्थान राज्य बनाम भारत संघ (A.I.R. 1977 S.C. 1361): के मामले में उच्चतम न्यायालय के सात न्यायमूर्तियों की संविधान न्यायपीठ ने याचिका की सुनवाई की और न्यायमूर्तियों ने सर्वसम्मति से राज्यों की अनुच्छेद 131 के अन्तर्गत फाइल की गयी याचिका तथा आदेश जारी करने की प्रार्थना दोनों को अस्वीकार करते हुए यह अभिनिर्धारित किया कि अनुच्छेद 356 के अन्तर्गत केन्द्रीय सरकार द्वारा विधानसभाओं के भग करने की शक्ति का प्रयोग संवैधानिक है ।

न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 356 के अधीन कोई आवश्यक नहीं है कि राष्ट्रपति केवल राज्यपालों की रिपोर्ट पर ही कार्य करे । यदि केन्द्रीय सरकार अन्य कारणों से सन्तुष्ट है कि राज्य सरकारों को संविधान के उपबन्धों के अनुसार चलाया जाना सम्भव नहीं है, तो वह राष्ट्रपति को उन्हें अपदस्थ करने की सलाह दे सकती है ।

न्यायालय ने इस तर्क को मानने से अस्वीकार कर दिया कि राष्ट्रपति अनुच्छेद 356 के अधीन तब तक कार्रवाई नहीं कर सकता जब तक कि संसद के दोनों सदनों द्वारा इसका अनुमोदन न कर दिया जाये ।

न्यायालय के अनुसार अनुच्छेद 356 में इस प्रकार की कोई परिसीमा नहीं है, किन्तु न्यायाधिपति श्री भगवती और गुप्ता ने कहा कि सरकार को विधानसभाओं को भग करने की अनुच्छेद 356 में प्राप्त शक्ति मनमानी नहीं है ।

न्यायालय ने यह कहा कि यदि समाधान का प्रयोग दुर्भावना से प्रेरित होकर या किसी जोड़ या असम्बद्ध आधार पर किया गया हो तो न्यायालय इसकी जाँच कर सकता है; क्योंकि ऐसे मामले में उसे राष्ट्रपति का समाधान नहीं कहा जा सकता है ।

मुख्य न्यायाधिपति श्री चन्द्रचूड़ ने यह सुझाव दिया कि इस मामले में सभी दलों को मिलकर एक स्वस्थ परम्परा की स्थापना करनी चाहिए ताकि अनुच्छेद 356 के अन्तर्गत प्राप्त शक्ति का सनकीपन या मनमानेपन से प्रयोग न किया जा सके । ऐसी परम्पराओं की स्थापना न्यायालय नहीं कर सकता है । यह कार्य सरकार का है । न्यायालय के उक्त सुझाव के बाबुजूद राजनीतिज्ञों ने उस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया और समय-समय पर अनुच्छेद 356 का राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए प्रयोग किया जाता रहा ।

नौ राज्यों में राष्ट्रपति शासन (1980):

सन् 1980 में अनुच्छेद 356 का प्रयोग उन्हीं परिस्थितियों में किया गया जिनमें 1977 में इसका प्रयोग जनता पार्टी द्वारा किया गया था और नौ राज्यों : उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश, पंजाब, उड़ीसा, गुजरात, महाराष्ट्र और तमिलनाडु की जनता पार्टी की सरकारों को इसी आधार पर पदक्षत किया गया था कि वे जनता का सही प्रतिनिधित्व नहीं करती हैं ।

जैसा कि विदित है, सन् 1977 में केन्द्र में जनता पार्टी की सरकार सत्ता में थी किन्तु आपसी कलह के कारण जनता पार्टी का विघटन हो गया और राष्ट्रपति ने लोकसभा भंग करके मध्यावधि चुनाव की घोषणा कर दी । 1979 के संसदीय चुनावों में जनता पार्टी की भारी पराजय हुई और कांग्रेस पार्टी को संसद में पूर्ण बहुमत प्राप्त हो गया । इस समय उपयुक्त राज्यों में जनता पार्टी की सरकारें सत्ता में थी ।

कांग्रेस सरकार ने 18 फरवरी, 1980 को इन सरकारों को पदक्षत कर इन राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया । सरकार ने आदेश में किसी कारण का उल्लेख नहीं किया था । यद्यपि 1977 में जनता सरकार द्वारा अनुच्छेद 356 के प्रयोग और 1980 में इसका कांग्रेस सरकार द्वारा प्रयोग में थोड़ा अन्तर था ।

किन्तु दोनों का उद्देश्य एक ही था : राज्यों में अन्य दलों की सरकारों को पदचूत  करना । चूंकि जनता सरकार ने राज्यों की कांग्रेस सरकारों को का किया था अत : कांग्रेस सरकार ने भी बदले की भावना से और उसी आधार पर राज्यों की जनता पार्टी की सरकारों को पदक्षत कर दिया था ।

सन् 1982 में दो राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू किया गया । पहला केरल और दूसरा असम । इन दोनों राज्यों के विधानमण्डलों में सरकार का स्पष्ट बहुमत न होते हुए भी कांग्रेस दल की सरकारें पदासीन की गयी थी ।

केरल में श्री करूणाकरन के नेतृत्व वाली सरकार प्रारम्भ से ही अल्पमत में थी और विधानमण्डल में अविश्वास के प्रस्ताव पर सभापति के मत से विजयी हुई थी जबकि कोई भी लोकतान्त्रिक सरकार सभापति के मत से अपना बहुमत नहीं रख सकती है ।

सभापति एक गैर राजनीतिक व्यक्ति होता है और उसके निर्णायक मत को सदन में किसी महत्त्वपूर्ण विषय पर विवाद को समाप्त करने के लिए ही प्रयोग किया जा सकता है, सरकार का बहुमत सिद्ध करने के लिए नहीं ।

इसी प्रकार असम में श्री गोगोई के नेतृत्व में कांग्रेस दल के मन्त्रिमण्डल को पदासीन किया गया जो 65 दिन तक अपने पद पर रहा । वह भी ऐसे समय में जब असम में जन-आन्दोलन के कारण गम्भीर समस्या व्याप्त थी ।

ऐसी दशा में मन्त्रिमण्डल बनाने के शतरंजी मोहरों की क्या आवश्यकता थी ? इन दो राज्यों में स्थायी वैकल्पिक सरकार के बनाने की सम्भावना न होने पर राष्ट्रपति शासन लागू किया गया । सन् 1983 में दो राज्यों-पाण्डिचेरी और पंजाब-में राष्ट्रपति शासन लागू किया गया ।

पाण्डिचेरी में 1980 के चुनाव के पश्चात् किसी पार्टी को बहुमत न मिलने पर डी॰एम॰के॰ ने कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनायी किन्तु बाद में कांग्रेस के इस सयुक्त सरकार से बाहर निकल जाने पर उपराज्यपाल ने रिपोर्ट दी कि कोई भी दल सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है, अत: राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया जाये ।

30 सदस्यीय सदन में डी॰एम॰के॰ के 13 कांग्रेस के 10 और जनता पार्टी के तीन सदस्य थे । डी॰एम॰के॰ को जनता पार्टी का समर्थन मिल गया किन्तु उपराज्यपाल ने उसे नहीं माना । इससे स्पष्ट है कि अनुच्छेद 356 का प्रयोग सद्‌भावनापूर्ण तरीके से नहीं किया गया, क्योंकि जब उपराज्यपाल को यह ज्ञात हो गया था कि कांग्रेस की सरकार बनना सम्भव नहीं है, तो उसने राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश कर दी ।

पंजाब में 13 अक्टूबर, 1983 को अकाली आन्दोलन से निपटने के लिए राष्ट्रपति शासन लागू किया गया; क्योंकि प्रदेश की कांग्रेस सरकार अकाली आन्दोलन को कुचलने में असमर्थ हो गयी थी ।

1984 में, भारत में सम्मिलित होने के पश्चात् प्रथम बार सिक्किम राज्य में विशेष परिस्थितियों में राष्ट्रपति शासन लागू किया गया । जनता पार्टी के जीतने पर श्री भण्डारी मुख्यमन्त्री नियुक्त किये गये किन्तु तीन वर्ष के बाद वे अपने सभी समर्थकों के साथ कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गये ।

मुख्यमन्त्री का आरोप था कि राज्यपाल रोजमर्रा के प्रशासन में हस्तक्षेप करता है । राज्यपाल को केन्द्र सरकार का समर्थन प्राप्त था । कांग्रेस उच्चकमान ने श्री भण्डारी से त्याग-पत्र देने को कहा तो उन्होंने इनकार कर दिया ।

इस पर राज्यपाल ने उन्हें बरखास्त कर दिया और गुल को मुख्यमन्त्री नियुक्त कर दिया । श्री भण्डारी दिल्ली में ही थे तभी यह कार्रवाई पूरी कर ली गयी । इसके कुछ घण्टे पश्चात् 28 कांग्रेस विधायकों में से 17 ने पार्टी छोड़ दी और भण्डारी के नेतृत्व में एक नयी पार्टी सिक्किम संग्राम परिषद् बनायी ।

राज्यपाल की रिपोर्ट पर कि राज्य में संविधान तन्त्र विफल हो गया था, राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया । श्री भण्डारी की सरकार को इसलिए पदल्युत किया गया था कि वे कांग्रेस हाईकमान की कठपुतली नहीं बन पाये ।

श्री भण्डारी की जो कुछ व्यक्तिगत कमियां रही हों र राज्यपाल महोदय का कार्य सराहनीय नहीं कहा जा सकता है । राज्यपालों का अपने दल की ही सरकारों के गिराने का यह उदाहरण लोकतन्त्र के अनुरूप नहीं कहा जा सकता है ।

-सन् 1988 में नागालैण्ड में कांग्रेस मन्त्रिमण्डल के 13 विधायकों के दल-बदल के कारण अल्पमत में आ जाने के आधार पर राष्ट्रपति शासन लागू किया गया था । 13 विधायकों ने एक नया राजनीतिक दल बना लिया था और विपक्ष के साथ मिलकर सरकार बनाने का दावा प्रस्तुत किया था ।

उनका कहना था कि यह दल विभाजन था और उनके साथ एक-तिहाई सदस्य थे अत: दल-बदल कानून उन पर लागू नहीं होता है । राज्यपाल ने एक सप्ताह का समय दिया किन्तु कोई दल स्पष्ट बहुमत दिखाने की स्थिति में नहीं था ।

ऐसी स्थिति में स्थायी सरकार सम्भव नहीं थी । इसी प्रकार 21 अप्रैल, 1989 में कर्नाटक में जनता दल की श्री बोम्मई सरकार भी अल्पमत में आने के कारण पदक्षत कर दी गयी और वहां राष्ट्रपति शासन लागू किया गया ।

विधानसभा में कुल 224 सदस्य थे जिसमें 111 जनता दल, 65 कांग्रेस, 27 जनता पार्टी, 4 कम्युनिस्ट, 2 भाजपा, 11 जनतादल और दो स्थान रिक्त थे । जनता दल के 11 विधायकों ने राज्यपाल को लिखित सूचना दी कि उन्होंने सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया है । राज्यपाल के अनुसार विधानसभा में कोई दल सरकार बनाने की स्थिति में नहीं था । विपक्ष द्वारा इस कार्रवाई कीं बड़ी निन्दा की गयी और कहा गया कि यह कदम अलोकतान्त्रिक था ।

सन् 1989 में जम्मू-कशमीर में: राष्ट्रपति शासन इस आधार पर लागू किया गया; क्योंकि राज्य सरकार राष्ट्र विरोधी आन्दोलन को दबाने में असफल रही थी । सन् 1990-91 के दौरान 6 राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू किया गया जम्मू-कशमीर गोवा कर्नाटक असम पाण्डिचेरी और तामिलनाडु । जम्मू-कशमीर में राष्ट्रपति शासन जुलाई 1990 में राज्यपाल शासन समाप्त होने पर लागू किया गया ।

जम्मू-कशमीर संविधान के अन्तर्गत राज्यपाल शासन 6 माह से अधिक नहीं बढ़ाया जा सकता था । राज्य सरकार उग्रवादी गतिविधियों को रोकने में असमर्थ थी इसीलिए प्रशासन को चुस्त बनाने के लिए नये राज्यपाल श्री जगमोहन को नियुक्त किया गया था । मुख्यमन्त्री श्री फारूख अब्दुल्ला को एक बहाना मिला और उन्होने राज्यपाल की नियुक्ति के विरोध में त्याग-पत्र दे दिया ।

गोवा में, 14 दिसम्बर, 1990 को राष्ट्रपति शासन उस समय लागू किया गया, जब दल-बदल के कारण मुख्यमंत्री अल्पमत में आ गये थे । जिसका अभी तक कोई पूर्व दृष्टान्त । 225 सदस्यों के सदन में कांग्रेस के 179 सदस्य थे । मुख्यमन्त्री श्री वीरेन्द्र पाटिल काफी दिनों से बीमार चल रहे थे और प्रशासन का कार्य नहीं देख पा रहे थे । कांग्रेस हाईकमान ने विधायकों की सभा बुलाकर नये नेता का चुनाव करने का निर्देश       दिया । विधायकों ने नये नेता का चुनाव करके राज्यपाल को सूचित किया कि वे उसे सरकार बनाने के लिए आमन्त्रित करें ।

श्री वीरेन्द्र पाटिल ने नेता पद से हटने का निदेश नहीं माना किन्तु राज्यपाल श्री भानुप्रताप सिंह ने कांग्रेस विधानमण्डल दल के निर्णय को मानने से इनकार कर दिया और कहा कि वह बैठक अवैध थी; क्योंकि कांग्रेस पार्टी के संविधान के अनुसार केवल श्री पाटिल ही बैठक बुला सकते थे और वह भी सात दिन का नोटिस देने के पश्चात् ।

श्री पाटिल ने कांग्रेस विधायक दल की बैठक में भाग नहीं लिया और यह दावा किया कि उन्हें विधायकों के बहुमत का समर्थन प्राप्त है और विधानसभा भंग करने की सिफारिश की । इन परिस्थितियों में राज्यपाल ने राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश की और 11 अक्तूबर, 1990 को राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया ।

कांग्रेस पार्टी का सदन में बहुमत था और कोई राजनीतिक स्थिरता नहीं थी । राज्यपाल को कांग्रेस पार्टी के आन्तरिक मामलों में दखल देने का कोई अधिकार नहीं था । बहुमत दल के सदस्य अपने नेता को जब चाहें बदल सकते हैं ।

राज्यपाल श्री भानुप्रताप सिंह ने वैसा ही व्यवहार किया था जैसा कि आन्ध प्रदेश राज्य में पूर्व राष्ट्रीय मोर्चा सरकार के सदस्यों ने उस समय राज्यपाल की कार्रवाई की निन्दा की थी । किन्तु सत्ता में आने के पश्चात् वैसे ही व्यवहार किया जैसे कांग्रेस पार्टी ने किया था । राज्यपाल के पद का यह सरासर राजनीतिक उद्देश्यों के लिए प्रयोग था ।

अन्तत: 8 दिनों पश्चात् राष्ट्रपति शासन समाप्त कर दिया गया और नये नेता को मुख्यमन्त्री पद की शपथ दिलायी गयी । असम में नवम्बर, 1990 में राष्ट्रपति शासन इस आधार पर लागू किया गया; क्योंकि उल्फा आतंकवादियों की गतिविधियों के कारण स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष चुनाव कराना सम्भव नहीं था ।

विधानसभा का कार्यकाल 8 जनवरी, 1990 को समाप्त होने वाला था । केन्द्रीय सरकार के निदेशों के बाबुजुद् असम सरकार ने राज्य के 8 जिलों को अशान्त घोषित करने से इनकार कर दिया जिसके फलस्वरूप वहा उल्फा की गतिविधियों की रोकथाम के लिए सुरक्षा बलों को नहीं भेजा जा सका ।

जो उग्रवादी पकड़े गये, उन पर मुकदमा भी नहीं चलाया गया और कई उग्रवादियों के सरकार के कई सदस्यों से सम्बन्ध भी थे । इतने के बाबुजूद राष्ट्रीय मोर्चा सरकार ने प्रफुल्ल कुमार महन्त की सरकार को पदचयुत नहीं किया था; क्योंकि वे उनके सहयोगी थे । पाण्डिचेरी में, 13 जनवरी, 1991 को राष्ट्रपति शासन लागू किया गया; क्योंकि दल-बदल के कारण सरकार अल्पमत में आ गयी थी । जनता दल के तीन सदस्यों के जनता दल स में चले जाने के कारण डी॰एम॰के॰ सरकार अल्पमत में आ गयी थी ।

तमिलानाडु में, 31 जनवरी, 1991 में इस आधार पर राष्ट्रपति शासन लागू किया गया कि परठ की गतिविधियों के कारण सार्वजनिक व्यवस्था बनाये रखने में सरकार असमर्थ थी । इस समय केन्द्र में श्री चन्द्रशेखर की सरकार थी जो कांग्रेस के समर्थन से बनी थी । कांग्रेस के दबाव में आकर तमिलनाडु में राष्ट्रपति शासन लागू किया गया था ।

राज्यपाल ने इस सम्बन्ध में कोई रिपोर्ट नहीं भेजी थी । केन्द्र ने सीधे कार्रवाई की थी । यह अनुच्छेद 356 का सरासर दुरुपयोग था । 7 अप्रैल, 1991 में हरियाणा में राष्ट्रपति शासन उस समय लागू किया गया, जब शासक जनता दल के तीन विधायकों को दल-बदल कानून के अन्तर्गत सदन की सदस्यता से निरर्ह घोषित कर दिया गया था और ओमप्रकाश चौटाला का मन्त्रिमण्डल अल्पमत में हो गया था ।

12 अक्टूबर, 1991 को मेघालय में राष्ट्रपति शासन विचित्र परिस्थितियों में लागू किया गया । विधानसभा में जब सरकार अपना बहुमत सिद्ध कर रही थी उसी समय अध्यक्ष ने चार विधायाकों को दल-बदल विरोधी कानून के अन्तर्गत निरर्ह घोषित कर दिया और स्वयं निर्णायक मत देकर सरकार को गिरा दिया ।

जब विपक्ष और सत्ता पक्ष के मत बराबर हो गये तो विधानसभा अध्यक्ष ने अपना निर्णायक मत विपक्ष के पक्ष में दिया और यह निर्णय देकर कि सरकार बहुमत खो चुकी है सदन की बैठक स्थगित कर दी । पांच विधायकों ने उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर की ।

न्यायालय ने आदेश दिया कि 5 विधायकों को मतदान में भाग लेने दिया जाये, किन्तु अध्यक्ष ने इस आदेश को मानने से इनकार कर दिया और इस प्रकार न्यायापालिका और विधानमण्डल में टकराव की स्थिति उत्पन्न हो गयी । ऐसी परिस्थिति में राज्यपाल ने राष्ट्रपति शासन की सिफारिश की । राष्ट्रपति शासन ने इस टकराव को टारनने का कार्य किया ।

7 जनवरी, 1992 में, मणिपुर के मुख्यमन्त्री आर॰के॰ रणवीर सिंह के नेतृत्व वाली सरकार के पाच विधायकों द्वारा समर्थन वापस लिये जाने के कारण सरकार के अल्पमत में आ जाने से राष्ट्रपति शासन लागू किया गया । 60 सदस्यों वाले सदन में संयुक्त विधायक मोर्चा के सदस्यों की संख्या घटकर 24 हो गयी थी । इसके बाबुजूद मुख्यमन्त्री ने विधानसभा भंग करने की सिफारिश की थी जिसे राज्यपाल ने नहीं माना था और राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश की थी ।

अप्रैल 1992 में राष्ट्रपति शासन हटा लिया गया और कांग्रेस मन्त्रिमण्डल को शपथ दिलायी गयी । 4 अप्रैल, 1992 को नागालैण्ड में राष्ट्रपति शासन विचित्र परिस्थितियों में लागू किया गया । मुख्यमन्त्री ने राज्यपाल से विधानसभा का करने और चुनाव कराने की सिफारिश की । राज्यपाल ने मुख्यमन्त्री की सिफारिश मानकर विधानसभा भंग कर दी और मुख्यमन्त्री से चुनाव तक बने रहने के लिए कहा ।

इसके पश्चात् केन्द्र को जो रिपोर्ट भेजी उसमें राजनीतिक अस्थिरता और कानून एवं व्यवस्था की उपेक्षा की बात कही थी । केन्द्र ने राज्यपाल की इस रिपोर्ट के आधार पर वहा राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया; क्योंकि ऐसी परिस्थिति में राज्य सरकार संविधान के उपबन्धों के अनुसार नहीं चलाई जा सकती थी ।

दिसम्बर 1992 में उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन उस समय लगाया गया, जब विवादास्पद बाबरी मस्पिनद को कार सेवकों द्वारा ढहा दिया गया था और सरकार उसके परिणामस्वरूप उत्पन्न बिगड़ी कानून व्यवस्था को बनाये रखने में विफल रही थी । वस्तुत: मुख्यमन्त्री श्री कल्याणसिंह ने राष्ट्रपति शासन लागू किये जाने के पूर्व स्वयं ही अपने मन्त्रिमण्डल का त्याग-पत्र राज्यपाल को दे दिया था ।

12 मार्च, 1993 में त्रिपुरा राज्य में राष्ट्रपति शासन इस आधार पर लागू किया गया कि त्रिपुरा विधानसभा की अवधि समाप्त हो गयी थी और चुनाव नहीं कराये गये थे । अवधि की समाप्ति के एक दिन पूर्व मुख्यमन्त्री ने त्याग-पत्र दे दिया था ।

राज्यपाल ने अपनी रिपोर्ट में राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश की थी । ऐसी स्थिति इसलिए उत्पन्न हो गयी थी; क्योंकि सरकारी कर्मचारियों के निर्वाचन में दुरुपयोग के आधार पर निर्वाचन आयोग ने फरवरी में होने वाले विधानसभा चुनाव को स्थगित कर दिया था । यह आरोप केन्द्रीय मन्त्री श्री सन्तोष देव पर लगाया गया था । अन्त में मार्च 1993 में हुए चुनाव में कांग्रेस पार्टी की भारी पराजय हुई ।

12 सितम्बर, 2008 को नागालैण्ड राज्य में राष्ट्रपति शासन उस समय लागू किया गया जब कांग्रेस पार्टी की सरकार में दल-बदल हो जाने से सरकार अल्पमत में आ गयी थी और केन्द्र की सरकार किसी और दल की सरकार नहीं बनने देना चाहती थी ।

सरकारिया समिति की सिफारिशें और अनुच्छेद 356:

अनुच्छेद 356 के प्रयोग के लिए सरकारिया समिति ने निम्नलिखित सिफारिशें की हैं:

(1) अनुच्छेद 356 का प्रयोग अन्तिम विकल्प होना चाहिए । कार्रवाई करने से पूर्व ऐसे राज्यों को चेतावनी देनी चाहिए । यह उन दशाओं में लागू होगा जहाँ कार्रवाई न करने के विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं ।

(2) राज्य की विधानसभाओं को भंग किया जाना चाहिए । इसके लिए 356 में समुचित संशोधन किया जाना चाहिए ।

(3) सारवान तत्त्व और आधार उद्‌घोषणा को अन्तिम भाग बना देना चाहिए ।

(4) अनुच्छेद 356 के खण्ड (5) में उपखण्ड क और ख के बीच प्रयुक्त शब्द ‘और’ के स्थान पर ‘अथवा’ शब्द रखा जाना चाहिए ।

11 मार्च, 1993 को त्रिपुरा में मुख्यमन्त्री श्री समीर रंजन की कामचलाऊ सरकार के त्याग-पत्र देने के कारण राष्ट्रपति शासन लागू किया गया । 27 फरवरी 1993 को मुख्यमन्त्री ने अपने मन्त्रिमण्डल का त्याग-पत्र दे दिया था; क्योंकि अगले दिन विधानसभा का कार्यकाल समाप्त होने वाला था ।

इसके पूर्व चुनावों की घोषणा हो चुकी थी किन्तु राज्य में कानून व्यवस्था को बनाये रखने में सरकर असमर्थ थी । ऐसी स्थिति में चुनाव आयोग ने चुनाव स्थगित कर दिया । इस बीच विधानसभा का कार्यकाल समाप्त हो गया ।

राज्यपाल ने उन्हें विधानसभा के चुनाव होने तक राज्य का कामचलाऊ मुख्यमन्त्री के रूप में बने रहने को कहा था, किन्तु वामपंथियों ने इसका विरोध किया और यह कहा कि चुनाव आयोग ने जिस मुख्यमन्त्री को कानून व्यवस्था बनाये रखने में अयोग्य ठहराया है, उसे कामचलाऊ सरकार का नेतृत्व करने के लिए कहना अनुचित है ।

उनका आरोप था कि कांग्रेस (इ) सरकार के रहते राज्य में स्वतन्त्र एव निष्पक्ष चुनाव कराना सम्भव नहीं है । इस पर मुख्यमन्त्री ने अपने मन्त्रिमण्डल का त्याग-पत्र राज्यपाल को सौंप दिया और राज्यपाल की रिपोर्ट पर राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया ।

भाजपाशासित तीन राज्यों-मध्यप्रदेश, हिमाचल प्रदेश और राजस्थान में राष्ट्रपति शासन:

 

16 दिसम्बर, 1992 को तीन भाजपाशासित राज्यों-मध्यप्रदेश हिमाचल प्रदेश और राजस्थान-में राष्ट्रपति शासन केवल इस आशंका के आधार पर लगाया गया कि बाबरी मस्जिद विवाद के पश्चात् राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ विश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल आदि धार्मिक संगठनों पर केन्द्र द्वारा लगाये गये प्रतिबन्धों को समुचित रूप से लागू नहीं किया जा रहा था ।

उक्त राज्यों की विधान-सभाओं को भी भंग कर दिया गया । वस्तुत: इन तीनों राज्यपालों की रिपोर्ट एक ही तरह की थी । वास्तव में रिपोर्ट की प्रतियां दिल्ली में ही बनी र्थी और राज्यपालों से उन पर हस्ताक्षर करा लिया गया था । रिपोर्ट में यह कहा गया था कि इन राज्यों में संविधान तन्त्र के विफल होने की आशंका है ।

राज्यों के मुख्यमन्त्री केन्द्र के आदेशों का पालन नहीं कर रहे थे । यह अनुच्छेद 356 का सरासर दुरुपयोग था । इसके लागू होने के लिए कोई ठोस आधार नहीं था । अयोध्या काण्ड के पश्चात् कानून व्यवस्था की दशा कांग्रेस शासित राज्यों (उदाहरण के लिए गुजरात बम्बई और आन्ध प्रदेश) में भाजपाशासित राज्यों की अपेक्षा बहुत खराब थी ।

सरकार ने सरकारिया समिति की सिफारिशों पर भी अमल नहीं किया जिसमें कहा गया था कि अनुच्छेद 356 का प्रयोग राजनैतिक संकट कानून व्यवस्था का वास्तविक रूप में विफल होना और केन्द्र के संवैधानिक निदेशों का पालन न करने पर ही किया जाना चाहिए ।

सरकारिया समिति ने यह कहा था कि अनुच्छेद 356 का प्रयोग अन्तिम विकल्प होना चाहिए । कांग्रेस पार्टी में भी इस पर मतभेद था । प्रधानमन्त्री उक्त कार्रवाई करने से पूर्व कुछ ठोस प्रमाण चाहते थे । गृहमन्त्री ने इसकी जांच के लिए समिति बैठाने की बात -कही थी ।

रक्षामन्त्री श्री शरद पवार ने विधानसभाओं को भंग न करने की सलाह दी थी किन्तु उनके वरिष्ठ सहयोगी श्री अर्जुनसिंह का कहना था कि चूंकि उक्त राज्यों के मुख्यमन्त्रियों का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से सम्बन्ध था और वहां से कार सेवक अयोध्या भेजे गये थे अत: निश्चित रूप से वहां के मुख्यमन्त्री रोक आदेश पर अमल नहीं करेंगे ।

श्री अर्जुनसिंह ने अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए प्रधानमन्त्री को उस असंवैधानिक कदम को उठाने के लिए विवश कर दिया । सरकार ने उच्चतम न्यायालय द्वारा राजस्थान राज्य बनाम भारत संघ के मामले में दी गयी सलाह को भी नजरअन्दाज कर दिया जिसमें कहा गया था कि अनुच्छेद 356 का प्रयोग दुर्भावनापूर्वक या असम्बद्ध आधारों पर नहीं किया जाना चाहिए ।

उक्त आशका ठीक निकली और मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय ने सुन्दरलाल पटवा बनाम भारत सघ में 2:1 के बहुमत से अपने ऐतिहासिक निर्णय में यह अभिनिर्धारित किया कि राष्ट्रपति शासन लागू करने वाला आदेश अवैध था और वह अनुच्छे 356 की परिधि से बाहर था; क्योंकि राज्यपाल की रिपोर्ट में यह नहीं उल्लिखित था कि राज्य सरकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर रोक लगाने पर विफल रही थी ।

राज्यपाल की रिपोर्ट में संविधान तन्त्र के विफल होने के लिए कोई सामग्री नहीं दी गयी थी । केवल इस आधार पर कि अयोध्या काण्ड के पश्चात् कुछ स्थानों पर अचानक हिंसा की घटनाएं हुई थीं और इससे कानून व्यवस्था के खराब होने की आशंका थी यह नहीं कहा जा सकता था कि राज्य में संविधान तन्त्र विफल हो गया था ।

उच्च न्यायालय ने बहुमत से यह भी निर्णय दिया कि ‘अवैध आदेश’ संसद के द्वारा अनुमोदित किये जाने के पश्चात् वैध नहीं हो जाता है; क्योंकि अनुमोदन के पूर्व दो माह तक ऐसा अवैध आदेश प्रवर्तन में रहता है ।

संसद अनुमोदन करते समय राष्ट्रपति के समाधान की जांच नहीं करती है । अनुमोदन केवल उद्‌घोषणा की अवधि को बढ़ा देता है ।

उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध केन्द्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय में अपील फाइल की । उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निर्णय के कार्यान्वयन पर रोक लगा दी ।

उच्चतम न्यायालय ने लगभग 10 माह बाद अपना निर्णय सुनाया और उच्च न्यायालय के निर्णय को उलट दिया यद्यपि अपने निर्णय में उच्च न्यायालय के कई तर्कों को स्वीकार किया । इस बीच उपयुक्त तीनों राज्यों में चुनाव करा लिये गये और नयी सरकारें गठित हो गयीं ।

राष्ट्रपति शासन और न्यायिक पुनर्विलोकन: एस॰आर॰एस॰ बोम्मई बनाम भारत संघ:

[(1994)3 S.C.C., संविधान पीठ ने ऐतिहासिक महत्त्व के निर्णय में यह अभिनिर्धारित किया कि अनुच्छे 356 के अधीन राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू करने और विधानसभा को भंग करने की राष्ट्रपति की शक्ति सशर्त है, यह आत्यन्तिक (Absolute) शक्ति नहीं है । वह न्यायिक पुनर्विलोकन के अधीन है ।

यदि विधानसभा का भंग किया जाना अवैध पाया जाता है, तो न्यायालय उसे पुनर्जीवित कर सकता है । न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि 6 दिसम्बर, 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद के गिराये जाने के बाद देश में साम्प्रदायिक दंगे फैलने से कानून व्यवस्था भंग होने के कारण तीन राज्यों-मध्यप्रदेश राजस्थान और हिमाचल प्रदेश-की सरकारों को पदल्युत करना तथा राष्ट्रपति शासन लागू करना था ।

न्यायालय ने बहुमत से यह निर्णय दिया कि धर्मनिरपेक्षता (Secularism) संविधान का एक आधारभूत ढांचा है और उपयुक्त तीन राज्यों की भाजपा सरकारें धर्मनिरपेक्षता के आदर्शों के विरुद्ध कार्य कर रही र्थी अत: उनकी पदक्षति संवैधानिक थी ।

न्यायालय ने कहा कि राज्य के मामलों में धर्म का कोई स्थान नहीं है । कोई भी राजनीतिक दल होने के साथ-साथ धार्मिक दल नहीं हो सकता है । राजनीतिक और धर्म को एक में मिलाया नहीं जा सकता है । धर्मनिरपेक्षता की धारणा हमारे संविधान की प्रस्तावना अनुच्छेद 25 से 28 में पहले से ही निहित थी ।

42वें संशोधन द्वारा इस शब्द को प्रस्तावना में समाविष्ट करके इसे केवल स्पष्ट कर दिया गया है । कोई भी राज्य सरकार जो इस धर्मनिरपेक्षता के सिद्धान्तों के विरुद्ध कार्य करती है, उसके विरुद्ध अनुच्छेद 356 के अधीन कार्रवाई की जा सकती है ।

किन्तु बहुमत ने निर्णय दिया कि तीन अन्य राज्यों में-1988 में नागालैण्ड, 1989 में कर्नाटक और 1991 में मेघालय-राष्ट्रपति शासन लागू किया जाना और विधानसभाओं को क्या किया जाना असंवैधानिक था किन्तु न्यायालय ने कहा कि चूंकि इन राज्यों में चुनाव करा दिये गये है और नयी सरकारों का गठन हो चुका है, अत: पुरानी विधानसभाओं को पुनजीविन करना सम्भव नहीं है ।

न्यायालय के बहुमत का निर्णय सुनाते हुए न्यायमूर्ति श्री पी॰वी॰ जीवनरेड्डी ने यह कहा कि राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू करने की उद्‌घोषणा का न्यायिक पुनर्विलोकन किया जा सकता है और यदि यह पाया जाता है कि अनुच्छेद 356 का प्रयोग दुर्भावना से प्रेरित होकर किया गया था या उसके लिए सामग्री नहीं थी तो भंग विधानसभा को पुनर्जीवित किया जा सकता है ।

इस मामले में न्यायालय ने राजस्थान राज्य बनाम भारत संघ के मामले में दिये निर्णय का अनुसरण किया जिसमें यह निर्णय दिया गया था कि राष्ट्रपति की शक्ति न्यायिक पुनर्विलोकन के अधीन है । न्यायालय ने कहा कि राष्ट्रपति शासन लागू होने के साथ विधानसभा को भग नहीं किया जा सकता है ।

राष्ट्रपति संसद के दोनों सदनों द्वारा उद्‌घोषणा के अनुमोदित होने के पश्चात् ही विधानसभा को भंग कर सकता है, उसके पहले नहीं । जब तक संसद द्वारा अनुमोदन नहीं मिलता है, राष्ट्रपति विधानसभा को केवल निलम्बित कर सकता है ।

अनुच्छेद 74 (2) के सन्दर्भ में बहुमत ने निर्णय दिया कि यद्यपि मन्त्रियों द्वारा राष्ट्रपति को दिया गया परामर्श गोपनीय है, तथापि जिस सामग्री के आधार पर मन्त्रीगण राष्ट्रपति को सलाह देते हैं, वह सलाह का भाग नहीं है । अत: उसकी न्यायालय द्वारा जांच की जा सकती है । न्यायालय द्वारा परीक्षण का क्षेत्र सीमित है ।

वह मात्र इस बात का परीक्षण करेगा कि क्या राष्ट्रपति ने जिस सामग्री के आधार पर कार्य किया है, वह सुसम्बद्ध (relevant) है । उच्चतम न्यायालय ने राष्ट्रपति शासन लागू करने के सम्बन्ध में जो विशिष्ट मानदण्ड विहित किये हैं, जिनका पालन करना केन्द्र सरकार के लिए अनिवार्य है वे निम्नलिखित है:

(1) अनुच्छे 356 के अधीन राष्ट्रपति द्वारा किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने और विधानसभा भंग करने की शक्ति ‘सशर्त’ है, असीमित नहीं और उसे यह दिखाना होगा कि अनुच्छेद 356 (1) के अधीन वे परिस्थितियां अस्तित्व में थीं, जिसके आधार पर राष्ट्रपति ने कार्रवाई की है ।

(2) राष्ट्रपति शासन राज्यपाल की लिखित रिपोर्ट के बिना लागू नहीं किया जा सकता है ।

(3) ‘धर्मनिरपेक्षता’ भारतीय संविधान का ‘आधारभूत ढांचा’ है और यदि कोई सरकार उसके आदर्शों के विरुद्ध कार्य करती है, तो वहा अनुच्छेद 356 का प्रयोग किया जा सकता है ।

(4) विपक्ष द्वारा शासित सभी सरकारों को एक् साथ पदक्षत नहीं किया जा सकता है ।

(5) यदि केवल दुर्भावना से प्ररित होकर राष्ट्रपति शासन लागू किया जाता है, तो न्यायालय विधानसभा को पुनर्जीवित कर सकता है ।

(6) राष्ट्रपति शासन लागू करना और विधानसभा को भंग करना दोनों कार्य एक साथ नहीं किये जा सकते हैं । राष्ट्रपति संसद द्वारा उदघोषणा के अनुमोदन के पश्चात् ही विधानसभा को भग कर सकते हैं । जब तक ऐसा अनुमोदन नहीं हो जाता? राष्ट्रपति विधानसभा को केवल निलम्बित कर सकता है ।

(7) उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय केन्द्रीय सरकार को अनुच्छेद 74 (2) के बाबुजूद उस सामग्री को बताने के लिए बाध्य कर सकता है, जिसके आधार पर किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने का परामर्श केन्द्रीय मन्त्रिपरिषन्‌द राष्ट्रपति को देता है । सामग्री परामर्श का भाग नहीं है, अत: न्यायालय उसकी जांच कर सकता है ।

(8) किसी राजनीतिक दल का भी बहुमत से केन्द्र में सतारूढ़ होना किसी राज्य में विपक्षी दल की सरकार को पदबुत करने का कारण नहीं हो सकता है । उच्चतम न्यायालय का उक्त निर्णय: “यदि अनुच्छेद 356 के अधीन किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन दुर्भावना से प्रेरित होकर राजनीतिक आधारों पर लागू किया जाता है, तो न्यायालय उसे न केवल अवैध घोषित कर सकता है, वरन् भंग विधानसभा को पुनर्जीवित भी कर सकता है”: अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग पर रोक लागाने में निश्चित रूप में सहायक होगा ।

न्यायालय द्वारा अनुच्छेद 356 के प्रयोग के लिए विहित किये गये मार्गदर्शक सिद्धान्त स्वागत योग्य हैं । नागालैण्ड, कर्नाटक और मेघालय में लागू किये गये राष्ट्रपति शासन को न्यायालय ने इस आधार पर अवैध घोषित कर दिया; क्योंकि इसके लिए कोई ठोस आधार नहीं था और अनुच्छेद 356 का प्रयोग राजनीति से प्रेरित होकर किया गया था ।

किन्तु उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय से कि भाजपा द्वारा शासित तीन राज्यों-मध्यप्रदेश हिमाचल प्रदेश और राजस्थान-की राज्य सरकारों का पदक्षत किया जाना संवैधानिक था सहमत नहीं हुआ जा सकता

है ।

केन्द्र ने इन सरकारों को इस आधार पर बरखास्त किया था कि दिसम्बर 1992 में अयोध्या में विवादित बाबरी मस्जिद ढाये जाने के कारण इन राज्यों में दंगे फैले थे तथा कानून व्यवस्था भग हो गयी थी और इससे धर्मनिरपेक्षता के आदर्शों का उल्लघन हुआ था जो संविधान का आधारभूत ढांचा है ।

इन राज्यों के मुख्यमन्त्री राष्ट्रीय स्वयंसेवक सघ के सदस्य थे और यह आशंका थी कि वे केन्द्र के निदेशों का पालन नहीं करेंगे और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर रोक नहीं लगायेंगे ।

जबकि इन राज्यों के मुख्यमन्त्रियों ने यह कहा था कि वे केन्द्र के निर्देशों का पालन कर रहे हैं । हिमाचल प्रदेश में कोई दंगा नहीं हुआ था । यह भी कहा गया कि इन राज्यों से कार सेवक अयोध्या भेजे गये

थे । यह तथ्य है कि असंख्य कार सेवक देश के अन्य राज्यों-अष्क प्रदेश महाराष्ट्र बिहार और बंगाल-से भी आये थे ।

केवल इस आशका पर कि उक्त राज्य केन्द्र के निर्देशों का पालन नहीं करेंगे इनमें राष्ट्रपति शासन लागू करना केन्द्र को अत्यधिक ‘शक्ति देना है और इसका दुरुपयोग भविष्य में भी किया जा सकता है । न्यायालय का यह निर्णय कि उक्त राज्य की सरकारों को ‘धर्मनिरपेक्षता’ के आदर्शों के विरुद्ध कार्य करने के कारण बरखास्त किया गया था आलोचना से परे नहीं है ।

‘धर्मनिरपे क्षता’ की धारणा का प्रयोग एकांगी ढग से नहीं किया जा सकता है । महाराष्ट्र और गुजरात में साम्प्रदायिक दंगे इन तीन राज्यों की अपेक्षा कहीं अधिक भयानक थे । क्या इन राज्यों में ‘धर्मनिरपे क्षता’ की अवहेलहना नहीं हुई थी ? केरल में मुस्लिम लीग कांग्रेस सरकार का एक घटक है ।

क्या यह सर्वविदित नहीं है कि मुस्लिम लीग एक साम्प्रदायिक पार्टी है । पंजाब में अकाली दल सरकार बना चुकी है और आज भी सक्रिय दल के रूप में मौजूद है । अकाली दल में राजनीति और धर्म का अभिन्न संगम है । न्यायाधिपति श्री रेड्डी ने कहा है: न्यहुसैख्यक समुदाय हिन्दुओं को अवश्य धर्मनिरपेक्ष होना चाहिए और अल्पसंख्यकों को ‘धर्मनिरपेक्ष’ होने में सहायक होना चाहिए; क्योंकि वही उनको सुरक्षा प्रदान कर सकते हैं ।”

इस सम्बन्ध में यह कहना है कि न्यायाधिकारी महोदय यह जानते हैं कि हिन्दू स्वभाव से ‘सर्वधर्म समभाव’ की भावना से प्रेरित होता है । यह शिक्षा अल्पसंख्यकों को भी देनी चाहिए जहां इसका सर्वथा आभाव

है । उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश एच॰आर॰ खन्ना कहते हैं कि ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उठता है कि क्या इन राज्यों के मुख्यमन्त्रियों या अन्य मन्त्रियों का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सदस्य होना राष्ट्रपति शासन लागू करने का आधार हो सकता है ।

वे उसके उस समय से सदस्य हैं, जब वह एक वैध सगठन था । न्यायालय ने कहा कि भाजपा के चुनाव घोषणा-पत्र में 1992 की घटना पर कोई खेद नहीं प्रकट किया गया था । जब न्यायालय के समक्ष यह तथ्य प्रस्तुत किया गया कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर लगाई गयी रोक को अभिकरण द्वारा अवैध घोषित कर दिया गया था तो न्यायालय ने कहा कि इसका कोई महत्त्व नहीं है ।

पूर्व न्यायाधिपति श्री खन्ना का यह मत है कि न्यायालय के निर्णय के फलस्वरूप राजनीतिक दल के रूप में भाजपा का अस्तित्व ही खतरे में पड़ सकता है । इस निर्णय के आधार पर भविष्य में भी यदि भाजपा की सरकार बनती है, तो उसे बरखास्त करना न्यायोचित हो सकता है ।

यद्यपि भारतीय संविधान ने धर्मनिरपेक्षता की शासन प्रणाली को अपनाया है, किन्तु संविधान, के प्रारम्भ से ही हमारे यहां मुस्लिम लीग अकाली दल हिन्दू महासभा दलों ने सरकार बनायी थी किन्तु उन्हें बरखास्त नहीं किया गया था । लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 123 केवल चुनाव की प्रक्रिया में धर्म के प्रयोग पर रोक लगाती है ।

न्यायालय का कोई निर्णय देश की राजनीति के व्यावहारिक पक्ष की उपे क्षा नहीं कर सकता है । विधि तर्क पर नहीं अनुभव पर आधारित होती है, जिसका राजनीतिक और सामाजिक वास्तविकताओं से गहरा सम्बन्ध होता है ।

संविधान भी शून्य में प्रवर्तित नहीं किया जा सकता । यदि भारतीय जनता पार्टी किसी राज्य में बहुमत से चुनाव जीत जाती है, तो क्या उसे सरकार बनाने से मना किया जा सकता है । उक्त निर्णय के अनुसार उसे सरकार बनाने से मना किया जा सकता है । क्या यह बहुमत मतदाताओं की इच्छाओं को नष्ट नहीं करेगा ? क्या यह लोकतन्त्र के मूल तत्त्व के विरुद्ध नहीं होगा जो संविधान का एक आधारभूत ढांचा है ?

इस सम्बन्ध में यह ध्यान देने की बात है कि हमारा उच्चतम न्यायालय पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट-जैसा साहस दिखाने में भी असफल रहा है । पाकिस्तान के राष्ट्रपति ने जनता द्वारा चुनी गयी नवाज शरीफ की केन्द्रीय सरकार को बरखास्त कर दिया ।

सुप्रीम कोर्ट ने 15 दिन के भीतर याचिका की सुनवाई करके नवाज शरीफ सरकार की बरखास्तगी को असंवैधानिक घोषित कर दिया और सरकार तथा संसद दोनों को फिर से बहाल कर दिया । हमारे उच्चतम न्यायालय ने तीन माह बाद निर्णय दिया ।

इस बीच इन राज्यों में नये चुनाव करा लिये और नयी सरकारों का गठन कर लिया गया । इस प्रकार कई बिन्दुओं पर न्यायालय के निर्णय से सहमत होना कठिन है, किन्तु इतना कहा जा सकता है कि न्यायालय के उक्त निर्णय प्रशंसनीय हैं और भविष्य में अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग को रोकने में अवश्य सहायक होंगे और इस प्रकार हमारी परिसंघ प्रणाली को सशक्त बनाने का कार्य भी करेंगे जिसमें पिछले कई दशकों से पर्याप्त तनाव उत्पन्न हो गया है ।

विशेष रूप से जब केन्द्र और राज्यों में दो भिन्न दलों की सरकारें सत्ता में रहती हैं, तब इस प्रकार के विवाद पैदा होते हैं । जो कुछ भी हो अनुच्छेद 356 का इस प्रकार का राजनीतिक उद्देश्यों के लिए प्रयोग किया जाना खतरे से परे नहीं है । इस मामले में सभी दलों को मिलकर एक सुस्पष्ट और स्वस्थ परम्परा की स्थापना का प्रयास करना चाहिए ।

लोकतान्त्रिक सरकारों के भंग करने की परम्परा की शुरुआत कांग्रेस सरकार ने ही (केरल में 1959 और तमिलनाडु में 1976 में) की थी । उस समय केन्द्र और अनेक राज्यों में कांग्रेस पार्टी की सरकारें पदासीन थीं ।

ऐसी स्थिति में जिस किसी भी पार्टी की सरकार केन्द्र में हो उसके ऊपर ही इस स्वस्थ परम्परा को स्थापित करने का उत्तरदायित्व है । इसके अभाव में अनुच्छे 356 के दुरुपयोग को रोकना सम्भव नहीं होगा ।

 

 

1995 में उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन:

बोम्मई के मामले के निर्णय के पश्चात् 19 अक्टूबर 1995 को उत्तर प्रदेश में उस समय राष्ट्रपति शासन लागू किया गया जब भाजपा के समर्थन वापस ले लेने पर सुश्री मायावती की बहुजन समाज पार्टी की सरकार अल्पमत में आ गयी थी किन्तु बोम्बई के मामले में दिये निर्णय के आधार पर राज्यपाल ने विधानमण्डल को तत्काल भंग नहीं किया; क्योंकि उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया था कि विधानसभा की उद्‌घोषणा के संसद द्वारा अनुमोदित हो जाने के पश्चात् ही भंग किया जा सकता है ।

उच्चतम न्यायालय के निर्णय को मानने का यह परिणाम हुआ कि राजनीतिक दलों में सरकार को बनाने की सम्भावना को लेकर होड़ मच गयी और विधानसभा के सदस्यों को बलपूर्वक दल-बदल करने के लिए विवश किया जाने लगा ।

जब सभी दलों ने एक स्वर से सरकार बनाने से मना कर दिया तो विधानसभा को बनाये रखना व्यावहारिक नहीं था । अन्त में राज्यपाल को केन्द्र के निदेश पर संसद के अनुमोदन के बिना ही विधानसभा को भग करना पड़ा ।

1996 में गुजरात में राष्ट्रपति शासन:

19 सितम्बर, 1996 को गुजरात में उस समय राष्ट्रपति शासन लागू किया गया था, जब मुख्यमन्त्री सुरेश मेहता ने अपना बहुमत सिद्ध करने के लिए संकल्प रखा तो विपक्ष ने सदन में मारपीट तथा हिंसा का वातावरण पैदा कर दिया ।

विपक्ष के इस व्यवहार के कारण उन्हें सदन से बहिष्कृत कर दिया गया और 182 सदस्यों के सदन में मुख्यमन्त्री ने 92 सदस्यों के बहुमत से बहुमत सिद्ध कर दिया किन्तु राज्यपाल कृष्णपाल सिंह ने अपनी रिपोर्ट में सरकार के बहुमत पर सन्देह व्यक्त किया और राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश की ।

मार्च 1995 के चुनाव में भाजपा को दो-तिहाई बहुमत मिला था और उसने श्री केशुभाई पटेल के नेतृत्व में सरकार बनायी । इसके पश्चात् पार्टी में असन्तोष उत्पन्न हो गया और शकर सिंह वघेला ने विद्रोह कर दिया ।

समझौते के फॉर्मूले के अनुसार केशूभाई के स्थान पर श्री सुरेश मेहता को मुख्यमन्त्री बनाया गया । इसके बाबुजूद श्री वघेला ने अपनी पार्टी विरोधी गतिविधियां जारी रखी । अन्त में उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया गया ।

श्री वघेला ने गुजरात जनता पार्टी ने नाम से एक नयी पार्टी बनायी और 42 विधायकों के समर्थन का दावा किया । 3 सितम्बर को जब मुख्यमन्त्री ने विश्वास मत का संकल्प प्रस्तुत किया, उपाध्यक्ष ने 42 विधायकों को पृथक् दल के रूप में मान्यता प्रदान कर दी और सदन को अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया ।

राज्यपाल ने 13 और 14 सितम्बर को बहुमत सिद्ध करने के लिए मुख्यमन्त्री के कहने पर सदन की बैठक आहूत की । सदन की बैठक प्रारम्भ हुई तो उपाध्यक्ष ने पुन: अपने आदेश को दोहराया । मुख्यमन्त्री ने उसी दिन बहुमत का संकल्प रखा । इस पर विपक्ष ने हंगामा और मारपीट प्रारम्भ कर दी ।

इसी हंगामे और अव्यवस्था के बीच मुख्यमन्त्री ने शून्य के विपरीत 92 मतों से अपना बहुमत सिद्ध कर दिया; क्योंकि सभी विरोधी सदस्यों को सदन से बाहर निकाल दिया गया था । सदन में अव्यवस्था इसी उद्देश्य से जान-बूझकर फैलायी गयी थो । उपाध्यक्ष का 42 विधायकों को एक पृथक् वर्ग के रूप में मान्यता देना अवैध कार्य था ।

यह शक्ति दल-बदल अधिनियम में केवल सभापति को ही दी गयी है । इसमें केन्द्र के संयुक्त मोर्चा का हाथ स्पष्ट था; क्योंकि बाद में विधानसभा को पुन: बहाल कर दिया गया और श्री वघेला को मुख्यमन्त्री नियुक्त कर दिया गया, जिन्होंने कांग्रेस के समर्थन से मन्त्रिमण्डल का गठन किया ।

राज्यपाल ने सभी विधायकों को अपने दरबार में बुलाकर परेड करायी और श्री वघेला के बहुमत को मान्यता प्रदान की । यह सब सरकारिया समिति की सिफारिशों और बोम्मई के मामले में दिये गये निर्णय का सरासर उलंघन था ।

1996 में उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन 17 अक्तूबर, 1996 को उत्तर प्रदेश में उस समय राष्ट्रपति शासन लागू किया गया जब किसी भी राजनीतिक दल को विधानसभा चुनाव में आवश्यक बहुमत नहीं मिला था ।

425 सदस्यों की विधानसभा में भाजपा की संख्या 176 समाजवादी पार्टी 134 और बसपा-कांग्रेस गठबन्धन की 100 थी । इस प्रकार भाजपा गठबन्धन एक सबसे बड़ा दल था ।

राज्यपाल श्री रोमेश भण्डरी ने केन्द्र सरकार को यह रिपोर्ट भेजी कि प्रदेश में कोई भी पार्टी सरकार बनाने में सक्षम नहीं है, अत: राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया जाये । राज्यपाल ने सरकार के गठन का कोई प्रयास नहीं किया ।

श्री देवगौड़ा के नेतृत्व वाली केन्द्रीय सरकार ने राज्यपाल की रिपोर्ट को स्वीकार करके राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया । यह अनुच्छेद 356 का सरासर दुरुपयोग था । सरकारिया समिति ने अपनी सिफारिश में यह कहा है कि यदि चुनाव के पश्चात् कोई दल अपेक्षित बहुमत नहीं पाता है, तो सबसे बड़े दल को अवसर दिया जाना चाहिए ।

केन्द्र में राष्ट्रपति श्री शंकर दयाल द्वारा अपनाया गया उदाहरण मौजूद था जिन्होंने सबसे पहले भाजपा को सरकार बनाने के लिए बुलाया था और उसके बहुमत सिद्ध न कर पाने के पश्चात् संयुक्त मोर्चा के नेता श्री देवगौड़ा को सरकार बनाने के लिए आमन्त्रित किया ।

केन्द्रीय सरकार का यह कार्य उच्चतम न्यायालय द्वारा बोम्मई के मामले में विहित सिद्धान्तों के विपरीत था जिसमें न्यायालय ने यह निर्णय दिया था कि ऐसी स्थिति में सबसे बड़े दल को सरकार बनाने का अवसर देना चाहिए ।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने ऐतिहासिक निर्णय में यह अभिनिर्धारित किया है कि अनुच्छे 356 के अधीन राष्ट्रपति शासन लागू करने वाली घोषणा और उसका संसद द्वारा अनुमोदन किया जाना असंवैधानिक था; क्योंकि वह पूर्णरूप से असम्बद्ध आधारों पर आधारित था अत: निरस्त होने योग्य था ।

न्यायमूर्ति श्री वी॰एम॰ लाल ने यह कहा कि राज्यपाल ने राज्य में सरकार के गठन के लिए सभी सम्भावनाओं को तलाशने का प्रयास नहीं किया । उच्चतम न्यायालय ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय पर रोक लगा दी । इसके पश्चात् सुनवाई के दौरान यह कहा गया कि राज्य में कुछ दल सरकार बनाने का प्रयास कर रहे हैं ।

इस पर उच्चतम न्यायालय ने यह कहा कि न्यायालय इसका स्वागत करेगा । इस बीच भाजपा और बसपा में तालमेल हो गया और उनकी संयुक्त सरकार बनाई गयी । बाद में विवाद के कारण इस सरकार का भी पतन हो गया ।

गोवा में राष्ट्रपति शासन:

30 जुलाई, 1998 को गोवा में उस समय राष्ट्रपति शासन लागू किया गया जब कांग्रेस पार्टी की प्रताप सिंह राने के नेतृत्व वाली सरकार अपने दस विधायकों के समर्थन वापस ले लेने के पश्चात् अल्पमत में आ

गयी । इन 10 विधायकों ने गोवा राजीव कांग्रेस के नाम से एक नया दल बनाया, किन्तु सभापति ने इन विधायकों को दल-बदल कानून के अन्तर्गत अयोग्य घोषित कर दिया और सदन की कार्रवाई में भाग लेने से रोक दिया ।

ऐसी स्थिति में मुख्यमन्त्री ने सदन में अपना बहुमत सिद्ध कर दिया । 10 असन्तुष्ट विधायकों के नेता विल्फेड डीसूजा विपक्षी दल और गोवा गोवान्तक पार्टी के सदस्यों ने राज्यपाल से मिलकर वैकल्पिक सरकार बनाने का दावा प्रस्तुत किया ।

इसके पश्चात् कांग्रेस के दोनों धड़ों ने राने सरकार के विश्वास मत पर समानान्तर कार्रवाईयां चलार्यी जिससे सदन में हंगामा मच गया और सदन की बैठक स्थगित कर दी गयी । 31 जुलाई तक विनियोग विधेयक का पारित किया जाना था किन्तु दोनों गुटों में मतभेद के कारण यह सम्भव नहीं था ।

विद्रोही विधायक विपक्षी विधायकों और निष्कासित विधायकों ने उसी सदन में अलग बैठक की जिसकी अध्यक्षता उपाध्यक्ष ने की जिसमें यह संकल्प पारित किया गया कि सभापति को हटा दिया गया है और विश्वास मत का संकल्प गिर गया है ।

ऐसी दशा में राज्यपाल ने राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश की जिसे केन्द्रीय सरकार ने स्वीकार कर लिया और राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया । 1999 में बिहार में राष्ट्रपति शासन लोकसभा में अनुमोदित न होने के कारण वापस लिया गया 12 फरवरी, 1999 को बिहार में पुन: राष्ट्रपति शासन उस समय लागू किया गया जब रनवीर सेला के सदस्यों द्वारा 12 दलितों की निर्मम हत्या कर दी गयी और राबड़ी देवी की सरकार को बर्खास्त कर दिया गया किन्तु बोम्मई के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णय के अनुसार विधानसभा को भंग नहीं किया गया ।

राज्यपाल एस॰एस॰ भण्डारी ने सितम्बर 1998 में इस आधार पर राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारशि की थी कि राज्य में विधि व्यवस्था पूर्ण रूप से भंग हो गयी थी । केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल ने राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश की । राष्ट्रपति ने इस प्रस्ताव को मन्त्रिमण्डल को पुन: विचार के लिए लौटा दिया ।

मन्त्रिमण्डल ने राष्ट्रपति के सुझावों का आदर करते हुए सिफारिश को न भेजने का निर्णय लिया किन्तु कई मास बाद 12 फरवरी, 1999 को उपर्युक्त दो लगातार हुए भीषण मानव-संहार के परिणामस्वरूप जिसमें 12 दलितों ही हत्या कर दी गयी थी केन्द्रीय सरकार ने अपनी ही पूर्व सिफारिश को पुन: राष्ट्रपति को भेजा ।

इस बार राष्ट्रपति ने उसे स्वीकार कर लिया; क्योंकि संविधान के अनुसार राष्ट्रपति शासन लागू करने की उद्‌घोषणा का अनुमोदन हो गया । किन्तु राज्यसभा में कांग्रेस का बहुमत था, उसने उसका विरोध करने का निर्णय किया । फलत: सरकार ने उद्‌घोषणा को राज्यसभा में अनुमोदन के लिए प्रस्तुत नहीं किया और 12 मार्च, 1999 को उद्‌घोषणा को वापस ले लिया ।

यह एक विचारणीय प्रश्न है कि क्या भाजपा गठबन्धन की सरकार द्वारा बिहार में राष्ट्रपति शासन लागू करने का निर्णय सही था ? मामले के तथ्य  बिल्कुल स्पष्ट थे । सभी राजनैतिक दल इस बात से सहमत थे कि बिहार में स्थिति राष्ट्रपति शासन के लागू किये जाने के लिए उपयुक्त थी । देश के सभी महत्त्वपूर्ण समाचार पत्रों ने बिहार की दयनीय स्थिति पर राष्ट्रपति शासन की सिफारिश की थी ।

पटना उच्च न्यायालय ने एक मामले में यह टिप्पणी की थी कि बिहार में जंगल राज्य की स्थिति थी और ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति शासन ही एक उपयुक्त कदम था । इसके बाबुजूद कांग्रेस ने राजनीतिक कारणों से राज्यसभा में उद्‌घोषणा का विरोध करने का निर्णय लिया; क्योंकि लालू यादव का राष्ट्रीय जनता दल उसका सहयोगी दल था जो बिहार में शासन में था ।

कांग्रेस ने उच्चतम न्यायालय द्वारा बोम्मई के मामले में दिये गये निर्णय का अनुचित लाभ उठाया और राज्यसभा में विरोध करने का निर्णय लिया । यह सर्वविदित है कि कांग्रेस पार्टी ने अनेक बार अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग किया था ।

भाजपा गठबन्धन सरकार को भी इस मामले का दोषी ठहराया जा सकता है; क्योंकि उसे भली-भांति ज्ञात था कि राज्यसभा में उसे बहुमत नहीं प्राप्त था फिर भी उसने राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश    की ।

निर्विवाद है कि बिहार में अनुच्छेद 356 के प्रयोग की स्थिति स्पष्ट रूप में विद्यमान थी और भाजपा गठबन्धन सरकार ने इसकी सिफारिश करके अपने संवैधानिक दायित्व का निर्वाह किया किन्तु प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस के विरोध के कारण सही कदम नहीं उठाया जा सका और बिहार की जनता को राबड़ी देवी सरकार के कुशासन का परिणाम भोगने के लिए विवश होना पड़ा ।

1996 में गुजरात में राष्ट्रपति शासन-गुजरात में राष्ट्रपति शासन विचित्र परिस्थितियों में लागू किया गया था । यह अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग का एक अन्य उदाहरण है । गुजरात के राज्यपाल कृष्णपाल सिंह मोर्चा सरकार द्वारा नियुक्त किये गये थे और प्रारम्भ से ही केन्द्र के एजेण्ट के रूप में कार्य कर रहे थे ।

1996 में भारतीय जनता पार्टी को विधानसभा चुनाव में दो-तिहाई बहुमत प्राप्त हुआ और सुरेश मेहता के नेतृत्व में सरकार बनी । कुछ दिन पश्चात् शंकर सिंह बघेला ने 42 विधायकों के साथ भाजपा से दल-बदल करके गुजरात जनता पार्टी के नाम से एक नयी पार्टी बनायी ।

विधानसभा अध्यक्ष ने इस नये दल को मान्यता प्रदान कर दी । राज्यपाल ने मुख्यमन्त्री से सदन में विश्वास मत प्राप्त करने के लिए कहा । विधानसभा में विश्वास मत पर मतदान के समय भारी हंगामा और हिंसा हुई और विपक्ष सदन से बाहर चला गया ।

इसी बीच मुख्यमन्त्री ने विश्वास मत प्राप्त कर लिया । राज्यपाल ने इस विश्वास मत को नहीं माना और राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश की किन्तु विधानसभा भंग नहीं की गयी । केन्द्र ने राज्यपाल की रिपोर्ट के आधार पर राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया । इसमें केन्द्र का स्पष्ट हाथ था; क्योंकि बाद में विधानसभा को बहाल कर दिया गया ।

शंकर सिंह बघेला को मुख्यमन्त्री के रूप में शपथ दिलाई गयी । उन्हें कांग्रेस पार्टी ने बाहर रहकर समर्थन प्रदान किया किन्तु बाद में कांग्रेस ने अपना समर्थन वापस ले लिया और नेता बदलने के लिए कहा । मुख्यमन्त्री ने विधानसभा भंग कर चुनाव कराने की सिफारिश की जिसे राज्यपाल ने नहीं माना ।

अन्त में दिलीप पारिख को मुख्यमन्त्री पद की शपथ दिलायी गयी । किन्तु कुछ दिनों पश्चात् गुजरात जनता पार्टी में विभाजन हो गया और दिलीप पारिख ने अपना त्याग-पत्र दे दिया । मुख्यमन्त्री ने राज्यपाल से विधानसभा भंग कर चुनाव कराने की सिफारिश की ।

मुख्यमन्त्री की सिफारिश मानना राज्यपाल पद का सरासर दुरुपयोग था । राज्यपाल ने ऐसे मुख्यमन्त्री की सिफारिश पर जो किसी पार्टी के समर्थन से सरकार चला रहा था, विधानसभा भंग कर दी और चुनाव तक उसे कार्यवाहक मुख्यमन्त्री के रूप में कार्य करते रहने दिया ।

अन्त में विधानसभा चुनाव में गुजरात जनता दल का सफाया हो गया और भारतीय जनता पार्टी ने पुन: दो-तिहाई बहुमत से चुनाव जीतकर केशुभाई के नेतृत्व में राज्य में सरकार बनायी । राज्यपाल को त्याग-पत्र देना पड़ा; क्योंकि केन्द्र में भी भाजपा की सरकार सत्ता में आ गयी थी ।

1997 में उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश-राष्ट्रपति द्वारा सहमत न होने के कारण राष्ट्रपति शासन लागू नहीं हुआ-अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग का ज्वलन्त उदाहरण:

भारतीय जनता पार्टी और बसपा के बीच एक नया प्रयोग किया गया और साझा सरकार बनाने का फैसला किया गया । भाजपा और बसपा का यह गठबन्धन देश की राजनीति में अपने प्रकार का एक अनोखा प्रयोग था, जिसमें दोनों पार्टियों को 6-6 माह तक अपना मुख्यमन्त्री बनाना था और एक वर्ष बाद यह तय करना था कि भविष्य क्या होगा ।

इस गठबन्धन के पहले दिन से ही यह अटकलें लगायी जाने लगी थीं कि यह समझौता बहुत दिन तक नहीं चलेगा । छह महीने तक मुख्यमन्त्री रहने के बाद मायावती ने कल्याण सिंह के लिए कुर्सी खाली की और वे मुख्यमन्त्री बने किन्तु कल्याण सिंह के काम करने के तरीके से मायावती नाराज हो गयीं और 19 अक्तूबर, 1997 को बहुत ही नाटकीय और अप्रत्याशित तरीके से कल्याण सिंह सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया ।

मायावती द्वारा इसका तात्कालिक कारण यह बताया गया कि कल्याण सिंह द्वारा गाजियाबाद में सरकारी भूमि को बहुत सस्ते दामों में प्राइवेट पार्टी को बेचने के मामले की जांच का आदेश देना था । राज्य फिर एक बार अस्थिरता के बादलों से घिर गया ।

राजनीतिक दांवपेंच का एक और दौर प्रारम्भ हुआ । कल्याण सिंह ने बहुमत का दावा किया और कहा कि वे विधानसभा में अपना बहुमत सिद्ध कर देंगे । राज्यपाल ने केन्द्रीय गृहमन्त्री इन्द्रजीत गुप्त के दबाव में श्री कल्याण सिंह को अपना बहुमत सिद्ध करने के लिए 3 दिन का समय दिया ।

इसी बीच कांग्रेस के 23 और बसपा के 13 विधायकों ने अपना दल छोड्‌कर भाजपा को अपना समर्थन देने की घोषणा की । 21 अक्तूबर को, जब कल्याण सिंह सरकार ने विश्वास मत का प्रस्ताव रखा तो पहले से योजनाबद्ध तरीके से बसपा और सपा के विधायकों ने सदन में भारी हंगामा मारपीट और अराजकता का माहौल पैदा किया और सदन से बाहर चले गये ।

इसके पश्चात् कल्याण सिंह ने अपना विश्वास मत प्राप्त कर लिया और 425 सदस्यों के सदन में उनके विश्वास मत के पक्ष में 222 मत पड़े और विपक्ष में एक भी मत नहीं पड़ा । राज्यपाल महोदय ने प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश की और केन्द्र को भेजी गयी अपनी रिपोर्ट में यह दिखाया कि प्रदेश में कानून व्यवस्था भंग हो गयी थी ।

केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल ने राष्ट्रपति से राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश की किन्तु राष्ट्रीय शासन के लिए बताये गये कारणों से राष्ट्रपति ने अपनी असहमति दिखाई कि प्रदेश में कानून व्यवस्था भंग हो गयी थी और सिफारिश को मन्त्रिमण्डल के पुनर्विचार के लिए वापस भेज दिया ।

मन्त्रिमण्डल ने अपनी सिफारिश में इंगित की गयी कमियों पर विचार किया और सिफारिश नहीं भेजी । फलत: कल्याण सिंह की सरकार बनी रही । इससे मोर्चा सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपाल की भूमिका सन्दिग्ध हो गयी और राज्यपाल के पद की गरिमा एवं प्रतिबद्धता को रोमेश भण्डारी की राजनीतिक भूमिका ने अत्यन्त निम्न स्तर पर ला दिया । किन्तु राष्ट्रपति  श्री के॰आर॰ नारायणन के हस्तक्षेप के कारण एक बहुत बड़ा राजनीतिक संकट टल गया और अनुच्छेद 356 के एक और दुरुपयोग को रोका जा सका ।

1998 में बिहार में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश: राष्ट्रपति द्वारा सहमत न होने पर राष्ट्रपति शासन लागू नहीं किया गया:

20 सितम्बर, 1998 को केन्द्र की भाजपा पार्टी की सरकार ने बिहार में राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश की । केन्द्र सरकार ने बिहार राज्य के राज्यपाल की रिपोर्ट के आधार पर राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश की थी ।

राज्यपाल ने अपनी रिपोर्ट में यह कहा था कि बिहार में कानून व्यवस्था बिल्कुल विफल हो गयी है और बिहार में सरकार का कोई अस्तित्व ही नहीं दिखाई पड़ता है, किन्तु राष्ट्रपति ने केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल की सिफारिश को पुनर्विचार के लिए वापस भेज दिया ।

राष्ट्रपति ने यह इंगित किया कि संविधान के अनुच्छेद 355 के अनुसार तथा बोम्मई के मामले में दिये उच्चतम न्यायालय के निर्णय के अनुसार राज्य को चेतावनी नहीं दी गयी थी, अत: वे सिफारिश मानने में सहमत नहीं थे । अन्त में मन्त्रिमण्डल ने इस कमी को स्वीकार करते हुए सिफारिश को राष्ट्रपति को पुन: नहीं भेजा और इस प्रकार बिहार में राष्ट्रपति शासन लागू नहीं हुआ ।

यद्यपि उत्तर प्रदेश और बिहार दोनों में अन्तर था किन्तु इससे यह बात स्पष्ट हो गयी कि अनुच्छेद 356 का प्रयोग अब मनमाने ढंग से लागू नहीं किया जा सकता है और परिसंघीय प्रणाली को पददलित किया जा सकता है । इसके प्रयोग के लिए पर्याप्त कारण होना चाहिए और समुचित कैसा का पालन किया जाना चाहिए ।

मणिपुर में राष्ट्रपति शासन (जून 3, 2001) : सन् 2001 में, मणिपुर में राष्ट्रपति शासन उस समय लगाया गया, जब मुख्यमन्त्री कोईजाव के नेतृत्व में समता पार्टी की सरकार दल-बदल के कारण अल्पमत में आ गयी थी और विधानसभा में विश्वास मत पाने में असफल हो गयी थी ।

राज्यपाल श्री वेद मरवाह ने राष्ट्रपति को अपनी रिपोर्ट दी थी जिसमें राज्य-में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश की थी; क्योंकि कोई भी राजनीतिक दल वहां स्थायी सरकार बनाने की स्थिति में नहीं था । मणिपुर में पिछली 7 मई से ही राजनीतिक संकट शुरू हुआ था, जब 6 मन्त्रियों सहित 32 विधायक मुख्यमन्त्री की पार्टी को छोड़कर भाजपा नेता आर॰के॰ दोरेन्द्र सिंह के साथ आ गये थे ।

दोनों पार्टियां केन्द्र की राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन की घटक थी और एक-दूसरे को सरकार बनाने में समर्थन नहीं देना चाहती थीं । अत: केन्द्रीय सरकार ने भाजपा नेता को भी मुख्यमन्त्री बनने से रोक दिया और पार्टी के विवाद को हल करने के उद्देश्य से राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया ।

2005 में गोवा में राष्ट्रपति शासन:

मार्च, 2005 को गोवा में विचित्र परिस्थितियों में राष्ट्रपति शासन लागू किया गया । श्री मनोहर पारिकर की भारतीय जनता पार्टी गठबन्धन की सरकार वहा सत्ता में थी । विधानसभा में बहुमत सिद्ध करने के दौरान दो विधायकों को सभापति ने दल-बदल विधि के अन्तर्गत मत देने से अनई घोषित कर दिया ।

इसके कारण विधानसभा में हगामा मच गया । इसी हंगामे के बीच सभापति ने मतदान करा दिया जिसमें अपना निर्णायक मत दिया और यह घोषित किया कि मुख्यमन्त्री ने बहुमत प्राप्त कर लिया है  । यह सूचना राज्यपाल के पास पहुंचे, उसके पूर्व राज्यपाल ने सरकार को बर्खास्त कर दिया और प्रताप सिंह राणे के नेतृत्व वाली कांग्रेस गठबन्धन सरकार को शपथ दिला दी ।

राज्यपाल ने मुख्यमन्त्री को एक माह का समय बहुमत सिद्ध करने के लिए दिया । जैसे ही सदन का सत्र प्रारम्भ हुआ राज्यपाल द्वारा नियुक्त अस्थायी सभापति फ्रांसिस्को सरदिन्हा ने क्षेत्रीय दल के एक विधायक को मतदान करने से इसलिए रोक दिया; क्योंकि उनके विरुद्ध दल-बदल कानून के अन्तर्गत निरह करने की कार्रवाई चल रही थी ।

किन्तु उस विधायक ने इस आदेश को मानने से इनकार कर दिया और भारतीय जनता पार्टी के मुख्यमन्त्री का समर्थन करता रहा । 32 सदस्यों वाली विधानसभा में भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों के विधायकों की संख्या (16-16) बराबर थी ।

सभापति ने मतदान का आदेश दिया और अपना निर्णय सरकार के पक्ष में दिया और घोषित किया कि सरकार ने बहुमत प्राप्त कर लिया है । केन्द्र सरकार ने कांग्रेस पार्टी की अपनी ही सरकार को बर्खास्त करके राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया । गृहमन्त्री ने यह कहा कि गोवा में जो कुछ हुआ, वह अलोकतान्त्रिक और अनुचित था । जबरन विश्वास हासिल करने का प्रयास किया गया था ।

2005 में बिहार में राष्ट्रपति शासन:

7 मार्च, 2005 में बिहार में उस समय राष्ट्रपति शासन लागू किया गया था जब चुनाव में किसी दल को आवश्यक बहुमत नहीं मिला, किन्तु विधानसभा को भंग नहीं किया गया था । 243 सदस्यीय विधानसभा के चुनाव में विभिन्न दलों की स्थिति इस प्रकार थी-राजद 75, लोजपा 29, राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक गठबन्धन (NDA) 93 मार्क्सवादी पार्टियां 7 समाजवादी पार्टी 4 बसपा 6 और शेष स्वतन्त्र ।

परम्परा और बोम्बई के मामले में दिये गये निर्णय के अनुसार राज्यपाल को सबसे बड़े दल या गठबन्धन को सरकार बनाने के लिए बुलाना चाहिए था । कुछ दिन पश्चात् लोजपा के 19 विधायकों ने श्री नितीश कुमार के 93 सदस्य वाले गठबन्धन को समर्थन की घोषणा की ।

राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक गठबन्धन की सरकार बनने की सम्भावना को देखते हुए राजद नेता लालू प्रसाद यादव ने केन्द्र पर दबाव डाला और राज्यपाल श्री बूटा सिंह ने रिपोर्ट भेजी कि राज्य में दल-बदल को रोकने के लिए राष्ट्रपति शासन लगाना और विधानसभा को भंग करना ही एकमात्र विकल्प है, किन्तु राज्यपाल ने अपनी रिपोर्ट में विधायकों के दल-बदल का कोई ठोस प्रमाण नहीं दिया था ।

दल-बदल कानून में संशोधन करके यह उपबन्ध कर दिया गया है कि केवल दो-तिहाई विधायकों के किसी अन्य दल के विलय द्वारा ही दल-बदल किया जा सकता है । बिहार में ऐसी कोई सम्भावना नहीं दिखाई पड़ती थी ।

केन्द्र ने राज्यपाल की रिपोर्ट पर राष्ट्रपति शासन लागू करने और विधानसभा भंग करने का विरोध किया । रात में 11 बजे केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल की बैठक हुई और राष्ट्रपति को विधानसभा भंग करने और राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश रिपोर्ट फैक्स द्वारा भेज दी गयी । राष्ट्रपति उस समय मास्को में थे ।

यह उन्हें 1.52 बजे प्राप्त हुई । राष्ट्रपति ने फैक्स द्वारा अपनी स्वीकृति भेज दी जो 3.50 बजे दिल्ली में प्राप्त हुई । रात 2.30 बजे अध्यादेश जारी करके विधानसभा भंग कर दी गयी थी । राज्यपाल ने अभी तक विधानसभा का गठन भी नहीं किया था ।

केन्द्र सरकार के इस मनमानीपूर्ण कदम को रामेश्वर प्रसाद बनाम भारत संघ के मामले [(2006) 2 S.C.P., में उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गयी । पिटीशनर ने यह तर्क दिया कि केवल इस काल्पनिक आधार पर कि विपक्ष अवैध तरीके से बहुमत बनाने का प्रयास कर रहा है, अनुच्छेद 356 के अधीन राष्ट्रपति शासन लागू करना और विधानसभा को भग करना मनमानीपूर्ण एवं भेदभावपूर्ण है, अत: राष्ट्रपति का आदेश अवैध       है ।

अपने ऐतिहासिक निर्णय में उच्चतम न्यायालय के 5 न्यायमूर्तियों की पीठ ने 3-2 के बहुमत से यह अभिनिर्धारित किया कि विधानसभा भग करने की उद्‌घोषणा असंवैधानिक और असम्बद्ध थी तथा सुसंगत आधारों पर नहीं की गयी थी ।

न्यायालय ने कहा कि राज्यपाल ने केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल को गुमराह किया और उसकी रिपोर्ट को ठीक से जांचे बिना वेदवाक्य की तरह सत्य मान लिया गया । मन्त्रिपरिषद् को राज्यपाल की रिपोर्ट को जल्दबाजी से वेदवाक्य की तरह स्वीकार करने के पूर्व उसमें वर्णित सत्यता की जांच करनी चाहिए थी ।

राज्यपाल ने दावा किया था कि समाचार-पत्रों ने यह रिपोर्ट दी थी कि एक राजनीतिक दल दल-बदल करके बहुमत बनाने का प्रयास कर रहा था जो लोकतन्त्र के लिए गम्भीर परिस्थिति उत्पन्न कर सकता था । न्यायालय ने कहा कि इस बात का परीक्षण दसवीं अनुसूची के अन्तर्गत किया जा सकता है ।

इसका कोई महत्त्व नहीं होता जब राज्यपाल केन्द्र को अपनी रिपोर्ट भेजता है । न्यायालय ने कहा : ”राज्यपाल का उक्त कृत्य सरासर असंवैधानिक था ।”  न्यायालय ने अभि-निर्धारित किया कि विधानसभा को शा करने की रिपोर्ट के साथ राज्यपाल को अपने निर्णय को प्रमाणित करने के लिए सम्बद्ध सामग्री सलग्न करना आवश्यक है ।

सम्बद्ध सामग्री के अभाव में और समुचित सत्यता की जाच के बिना राज्यपाल की रिपोर्ट उसकी व्यक्तिगत राय मानी जानी चाहिए । पिटीशनर की इस मांग पर  भंग विधानसभा को पुन: जीवित करना चाहिए न्यायालय ने कहा : ”चूंकि चुनाव प्रक्रिया अन्तिम स्तर पर पहुच गयी है और उसका रोकना जनहित में उचित नहीं होगा अत : विधानसभा को पुनर्जीवित करना उचित नहीं होगा ।”

ऐसा प्रतीत होता है कि न्यायालय ने ऐसा दो कारणों से किया-पहला यह कि उसने विधायिका और न्यायपालिका से टकराव को बचाया और दूसरा इस मामले पर जनता द्वारा जिसमें लोकतन्त्र में वास्तविक शक्ति निहित है, निर्णय पर छोड़ दिया ।

मेरे विचार से न्यायालय ने इस बात पर निर्णय लेने के लिए जनता पर छोड़कर ठीक ही किया । बिहार की जनता ने अपनी परिपक्वता का परिचय दिया और अपना निर्णायक मत देकर सरकार को ही नहीं बचाया वरन् न्यायपालिका के निर्णय का स्वागत करते हुए उसकी गरिमा को भी बढ़ाया ।

न्यायालय द्वारा राज्यपाल की भूमिका पर कठोर टिप्पणी को देखते हुए सरकार को सरकारिया समिति की रिपोर्ट लागू करनी चाहिए और राज्यपाल ऐसे व्यक्ति को नियुक्त करना चाहिए जो राजनैतिक दल से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ न हो ।

कर्नाटक मेराष्ट्रपतिशासन (अक्टूबर, 2007) :

इस मामले में विधानसभा के चुनाव में किसी दल को बहुमत नहीं मिला । कांग्रेस ने जिसे जनता ने जनमत नहीं प्रदान किया था जनता दल के सहयोग से सरकार बनायी ।  बाद में दोनों में नहीं बनी और जनता दल के कुमार स्वामी ने भाजपा से मिलकर जो सबसे बड़ा दल था सरकार बनायी । यह निश्चित हुआ कि दोनों दल बारी-बारी से मुख्यमन्त्री का पद ग्रहण करेंगे । कुमार स्वामी ने इसे मानने से इनकार कर दिया और राष्ट्रपति ने विधानसभा निलम्बित करके राष्ट्रपति शासन लगाया ।

किन्तु बाद में जब कांग्रेस ने उनके दल के विधायकों को तोड़ना प्रारम्भ किया तो उन्होंने मजबूर होकर भाजपा को समर्थन दिया । दिल्ली में राष्ट्रपति के समक्ष प्रर्दशन भी किया । कुमार स्वामी मान गये, किन्तु देवगौड़ा ने 12 शर्तें लगा र्दी और सदन में भाजपा के विश्वासमत के विरुद्ध मतदान करने का निर्णय लिया । भाजपा के मुख्यमन्त्री ने त्याग-पत्र दे दिया और राज्य में राष्ट्रपति शासन पुन: लागू किया गया और विधानसभा शा कर दी गयी ।

2009 में मेघालय में राष्ट्रपति शासन:

19 मार्च, 2009 को मेघालय में राष्ट्रपति शासन उस समय लागू किया गया था जब सरकार ने सभापति के मत से विधानसभा में बहुमत प्राप्त किया था । राज्यपाल ने संविधान तन्त्र के विफल होने की रिपोर्ट केन्द्र को भेजी और राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश की थी ।

सभापति ने चार बागी सदस्यों के मत को अवैध घोषित कर दिया था और मत बराबर होने पर अपना निर्णायक मत दिया था । राज्यपाल ने सभापति को यथास्थिति बनाये रखने का निदेश दिया था किन्तु उसने उसका पालन नहीं किया था । 14 मई, 2009 को मेघालय में निर्वाचन के पश्चात् श्री डी॰डी॰ लपांग मुख्यमन्त्री बने थे । मेघालय में 37 वर्ष में 21 सरकारें बनी थी ।

अनुच्छेद 352 और 356 में अन्तर:

अनुच्छेद 352 और 356 के अधीन की गयी उद्‌घोषणाओं में निम्नलिखित अन्तर हैं:  (1) अनुच्छेद 352 के अधीन राज्य के संविधान को निलम्बित नहीं किया जाता है । राज्य की कार्यपालिका और विधायिका यथावत् कार्य करती रहती है ।

इस अनुच्छेद के अधीन आपात-उद्‌घोषणा किये जाने का केवल एक ही परिणाम होता है कि केन्द्र को राज्य के विषयों पर विधायन और प्रशासन की समवर्ती शक्ति प्रदान हो जाती है । दूसरी ओर अनुच्छेद 356 के अधीन राज्य विधानमण्डल को निलम्बित या विघटित कर दिया जाता है और राज्य की विधायिका एवं प्रशासकीय शक्तियां पूर्णरूपेण केन्द्रीय सरकार में निहित हो जाती हैं ।

(2) अनुच्छेद 352 के अधीन केन्द्र और सभी राज्यों के सम्बन्ध में परिवर्तन हो जाता है, जबकि अनुच्छेद 356 के अधीन केवल एक ही राज्य के सम्बन्धों में परिवर्तन होता है, जिसमें राष्ट्रपति शासन लागू होता है । संक्षेप में अनुच्छेद 352 सभी राज्यों पर लागू होता है, जबकि अनुच्छेद 356 केवल उसी राज्य पर लागू होता है, जिसमें संवैधानिक तन्त्र विफल हो गया है ।

(3) अनुच्छेद 352 के अधीन अनुच्छेद 10 में प्रदत्त नागरिकों के मूल अधिकारों का तथा उनके न्यायालयों द्वारा प्रवर्तन के अधिकार का (अनुच्छेद 359) निलम्बन हो जाता है, जबकि अनुच्छेद 356 के अन्तर्गत मूल अधिकारों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है ।

वित्तीय आपात:

अनुच्छेद 360 यह उपबन्ध करता है कि यदि राष्ट्रपति को ‘समाधान’ हो जाये कि ऐसी स्थिति पैदा हो गयी है, जिसमें भारत या उसके किसी भाग का वित्तीय स्वामित्व या प्रत्यय (साख) संकट में है, तो वह उद्‌घोषणा द्वारा उस बात की घोषणा कर सकेगा ।

वे संविधान संशोधन के पूर्व अनुच्छेद 360 के अधीन की गयी उद्‌घोषणा में अनुच्छेद 352 के उपबन्ध लागू होते थे । संशोधन अधिनियम अनुच्छेद 360 के खण्ड (2) को स्वयं में पूर्ण बनाता है और अनुच्छेद 352 खण्ड (2) से उसका सम्बन्ध समाप्त करता है ।

प्रस्तुत संशोधन खण्ड (2) के स्थान पर एक नया खण्ड प्रतिस्थापित करता है, जो यह उपबन्धित करता है कि अनुच्छेद 360 के अधीन जारी की गयी उद्‌घोषणा किसी उत्तरवर्ती उद्‌घोषणा द्वारा प्रतिसंहत या परिवर्तित की जा सकेगी संसद के दोनों सदनों के समक्ष रखी जायेगी; 2 माह की कालावधि की समाप्ति पर प्रवर्तन में नहीं रहेगी जब तक कि उस कालावधि की समाप्ति के पूर्व उद्‌घोषणा का अनुमोदन करने वाला सकल्प दोनों सदनों से पारित नहीं हो जाता ।

परन्तु यदि इस 2 माह की अवधि में लोकसभा का विघटन हो जाता है और सकल्प राज्यसभा द्वारा अनुमोदित हो जाता है, किन्तु लोकसभा द्वारा नहीं होता है, तो उद्‌घोषणा उस तारीख से जब नयी लोकसभा बैठती है, 30 दिन की समाप्ति पर प्रवर्तन में नहीं रहेगी जब तक कि इस अवधि के भीतर उद्धोषणा के अनुमोदन का संकल्प लोकसभा द्वारा पारित नहीं हो जाता है ।

उक्त अवधि में जिसमें ऐसी उद्‌घोषणा प्रवर्तन में है, संघ की कार्यपालिका शक्ति किसी राज्य को वित्तीय औचित्य सम्बन्धी ऐसे सिद्धान्तों का पालन करने के लिए निदेश देने तक जैसा कि निदेशों में उल्लिखित हो तथा ऐसे अन्य निदेश देने तक जिन्हें राष्ट्रपति उस प्रयोजन के लिए देना आवश्यक और समुचित समझे, विस्तृत होगी । ऐसे किसी निदेश के अन्तर्गत निम्नलिखित उपबन्ध भी शामिल होंगे:

(1) राज्य के कार्यों के सम्बन्ध में सेवा करने वाले सभी या किसी वर्ग के व्यक्तियों के वेतनों और भत्तों में कमी करने की व्यवस्था करता हो (जिनमें उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश भी शामिल हों);

(2) धन विधेयकों या अन्य विधेयकों को राज्य-विधानमण्डल द्वारा पारित होने के पश्चात् राष्ट्रपति के विचारार्थ रक्षित रखने के लिए व्यवस्था करता है । अनुच्छेद 360 में जारी की गयी उद्‌घोषणा की कालावधि 2 महीने की होगी । यदि यह उक्त दो महीने की समाप्ति के पहले संसद द्वारा पारित संकल्प द्वारा अनुमोदित नहीं कर दी जाती है, तो दो महीने की समाप्ति पर प्रवर्तन में न रहेगी ।

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