Read this article in Hindi to learn about the legal provisions regarding women empowerment in India.

जीवन को पूर्णता देने वाला परम अव्यय है- नारी और समाज में नारी के साथ संतुलन की स्थिति न होने पर समाज में अव्यवस्था का होना स्वाभाविक है । समाज में कर्तव्यों के साथ अधिकार भी होते हैं । सिर्फ कर्तव्यों का निर्वाह और अधिकारों की शून्यता की स्थिति नारी के साथ सदियों से रही ।

परन्तु स्वतन्त्र भारत में इसके लिए प्रयास किए गए और महिलाओं को स्थिति को सुदृढ़ बनाने तथा सुधार अभियान को गतिशील बनाने का प्रथम अवसर संविधान के माध्यम से दिया गया । भारत के संविधान का निर्माण संविधान सभा द्वार 26 नवम्बर, 1949 को पूरा किया गया तथा 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया ।

संविधान निर्माता महिलाओं की विशिष्ट सामाजिक, मनोवैज्ञानिक एवं शारीरिक स्थिति से भली-भांति परिचित थे । इसलिए वे संविधान में महिलाओं के लिए विशेष प्रावधान करने हेतु सिद्धान्त रूप में एक मत थे । वे जानते थे कि नार भारत के निर्माण के लिए स्त्री-पुरुष समानता बहुत महत्त्वपूर्ण है । संविधान निर्माताओं द्वारा किए जाने वाले विशेष प्रावधानों में योग देने में वे कारण भी महत्त्वपूर्ण थे ।

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इस दौरान ही मुख्य राष्ट्रीय नेताओं में यह दृष्टिकोण विकसित हुआ कि स्वतन्त्र भारत में महिलाओं की स्थिति किस प्रकार की होनी चाहिए । उनकी स्थिति को कैसे मजबूत किया जाना है तथा कैसे उन्हें मुख्यधारा से जोड़ा जाना है ।

स्वतन्त्रता के उपरान्त इस ओर ध्यान देने का पहला अवसर संविधान के माध्यम से ही प्राप्त हुआ । साथ ही लोकतान्त्रिक भारत में लिंग समानता तथा मानवाधिकारों का महत्व और सामाजिक न्याय की स्थापना के परिप्रेक्ष्य में महिलाओं की स्थिति सुधारने सम्बन्धी प्रावधान भी रखे गए ।

उपर्युक्त बातों को ध्यान में रखकर संविधान में निम्न तीन बातों को सूत्र रूप में माना गया:

1. लिंग के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव को प्रतिबन्धित किया जाए ।

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2. महिलाओं की विशेष स्थिति को ध्यान में रखते हुए राज्य को यह अधिकार दिए जाए कि वह महिलाओं के हित में विशेष प्रावधान करें ।

3. नीति निर्देशक सिद्धान्तों के द्वारा महिलाओं से सम्बन्धित कुछ सन्दर्भों में राज्य को दिए गए विशेष निर्देश ।

इसी के आधार पर महिलाओं से सम्बन्धित निम्न प्रावधान किए गए:

(1) संविधान की प्रस्तावना

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(2) मौलिक अधिकारों के अन्तर्गत प्रावधान

(3) राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों में प्रावधान

(4) मूल कर्तव्यों के अन्तर्गत प्रावधान

(5) निर्वाचन के अंतर्गत प्रावधान

(6) नवीनतम संविधान संशोधन के द्वारा महिला सशक्तिकरण एवं अन्य प्रयास ।

उक्त बिन्दुओं पर ही भारतीय संविधान में महिलाओं से सम्बन्धित प्रावधान किए गए इस संवैधानिक स्थिति के आकलन के लिए हम इसका गहन अध्ययन करेंगे, जिनका बीजारोपण ब्रिटिश काल में शासन एवं स्वतन्त्रता आन्दोलन द्वारा कुछ अंशों में प्रारम्भ हो गया है । संविधान की उद्‌देशिका के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि समानता संविधान की आत्मा है तथा इसी से लिंग समानता को सिद्धान्त रूप में स्वीकार किया गया ।

संविधान की उद्‌देशिका में यह वर्णित है- भारत के प्रत्येक नागरिक को बिना किसी लिंग भेदभाव के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतन्त्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समानता तथा व्यक्ति की गरिमा का आश्वासन दिया जाता है ।

यह कितना महत्त्वपूर्ण है कि सामान्य नागरिक के लिए तथा एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था को मजबूती प्रदान करने हेतु इस सन्दर्भ में संवैधानिक अध्ययन के प्रबुद्ध विद्वान डी.डी. बासु का मत है- ”भारत के संविधान की उद्‌देशिका में लोकतान्त्रिक गणराज्य का जो आदर्श स्थापित किया गया है उसे स्पष्ट करने के दो निर्देश पर्याप्त हैं- प्रथम-सभी लोगों क लिए व्यस्क मताधिकार की व्यवस्था तथा द्वितीय-स्त्री-पुरुष समानता । यह समानता विधि व राजनीति दोनों क्षेत्रों के लिए है ।”

इसके अतिरिक्त संविधान की प्रस्तावना से यह भी ध्वनित होता है कि हमारे लोकतन्त्र के क्या आदर्श और उद्देश्य हैं । सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इसमें भारत के सभी स्त्री-पुरुषों को अंगीकृत किया गया है । अतः स्वाभाविक रूप से लिंगगत भेदभाव के लिए कोई स्थान नहीं है ।

अब दूसरे बिन्दू पर दृष्टि डालें तो यहाँ मैलिक अधिकारों में किए गए प्रावधानों का वर्णन है । आधुनिक राज्यों में नागरिकों की उन्नति एवं विकास के लिए मौलिक अधिकार प्रदान किए गए हैं । मौलिक अधिकार मनुष्य के लिए व्यक्तित्व के विकास के लिए बहुत ही आवश्यक है माने जाते हैं ।

व्यक्तित्व का विकास मौलिक अधिकारों के अभाव में सम्भव नहीं । भारतीय संविधान में नागरिकों को विभिन्न प्रकार के अधिकार जैसे समानता, स्वतन्त्रता, धार्मिक-स्वतन्त्रता, शिक्षा एवं संस्कृति तथा संवैधानिक उपचारों के अधिकार प्रदान किए गए हैं ।

ये अधिकार कितने महत्त्वपूर्ण हैं, इसका वर्णन भारतीय संविधान के एक अध्येता ‘ग्रैनविल आस्टिन’ के इस कथन से स्पष्ट होता है- “भारत में मूल अधिकारों ने एक नई समानता का सृजन किया है और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की रक्षा करने में सहायता की है । उच्च न्यायालय एवं उच्चतम न्यायालय के समक्ष अधिकार सम्बन्धी वादों की संख्या को देखने से अधिकारों के मूल्य का भास होता है । परमाधिकार रिटों के बार-बार उपयोग से यह पता चलता है कि जनता ने उन्हीं भली-भाँति स्वीकार किया है । संविधान में उल्लिखित अधिकारों का सम्मिलित करने के विरुद्ध जो तर्क दिए जाते रहे हैं वे भारतीय परिप्रेक्ष्य में सही सिद्ध नहीं हुए हैं ।”

इन संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों के अन्तर्गत महिलाओं से सम्बन्धित प्रावधान इस प्रकार है- संविधान के भाग-तृतीय के अन्तर्गत अनुच्छेद 14 के द्वारा विधि के समक्ष समानता और विधियों का समान संरक्षण की व्यवस्था की गई है । डॉ. डी.डी. बसु ने विधि के समक्ष समानता को एक नकारात्मक तथा ‘विधियों का समान संरक्षण’ को एक सकारात्मक संकल्पना माना है ।

विधि के समक्ष समानता का सिद्धान्त डायसी के कानून के शासन सिद्धान्त का ही एक उप सिद्धान्त है । इसमें प्रत्येक नागरिक के मध्य किसी भी प्रकार के विभेद के लिए कोई स्थान नहीं है । चाहे उसकी हैसियत, पद-प्रतिष्ठा कुछ भी हो ।

विधि का समान संरक्षण से अभिप्राय यह है कि समान लोगों के साथ समान व्यवहार होगा । दूसरे शब्दों में विधि द्वारा प्रदत्त विशेषाधिकार के सम्बन्ध में और विधि द्वारा आयोजित दायित्वों के सम्बन्ध में समान परिस्थितियों में समान व्यवहार का अधिकार है लेकिन विभिन्न परिस्थितियों में विभेद करने की व्यवस्था भी है, जैसे समता के सिद्धान्त का यह अर्थ नहीं है कि प्रत्येक विधि सभी व्यक्तियों पर सार्वभौम रूप से लागू हो यद्यपि वे व्यक्ति प्रकृति योग्यता या परिस्थिति के अनुसार एक ही स्थिति में नहीं हैं ।

विभिन्न वर्गों के व्यक्तियों की अलग आवश्यकताओं को देखते हुए बहुधा उनमें पृथक् व्यवहार करने की अपेक्षा होती है । साथ ही यह सिद्धान्त राज्य से विधि सम्मत प्रयोजनों के लिए व्यक्तियों का वर्गीकरण करने की शक्तियाँ छीनता नहीं है ।

अनुच्छेद 14 के अन्तर्गत किए गए इन विशेष प्रावधानों के लाभ महिलाओं को प्राप्त हुए हैं । इस अनुच्छेद के अन्तर्गत न्यायालय के समक्ष उपस्थित अधिकार सम्बन्धी वादों में दिए गए निर्णय से यह स्पष्ट होता है । इस सम्बन्ध में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों में उनकी सामाजिक स्थिति और उन्हें विशेष संरक्षण देने की आवश्यकता के कारण उन्हें विशेष स्थान दिया जाना चाहिए ।

अनुच्छेद 15 के अन्तर्गत धर्म, वंश, जाति या लिंग के आधार पर विभेद का प्रतिषेध किया गया है । इस अनुच्छेद में महिलाओं के लिए यह प्रावधान है कि उनके साथ केवल महिला होने के आधार पर भेदभावपूर्ण व्यवहार नहीं किया जा सकता है, लेकिन लिंग भेद के अतिरिक्त अन्य कारणों एवं आधारों पर किया गया विभेद असंवैधानिक नहीं माना जाएगा ।

अनुच्छेद 15(3) में कहा गया है कि राज्य महिलाओं और बच्चों के लिए कोई विशेष उपबन्ध कर सकता है । यूसुफ बनाम मुम्बई राज्य, ए.आई.आर. 1954 एस.सी. 321 द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि इस अनुच्छेद में उल्लिखित वर्गों के व्यक्तियों हेतु विशेष सरंक्षण की आवश्यकता हेतु उपबन्ध करना संवैधानिक नहीं माना जाएगा ।

भारत के संविधान के प्रसिद्ध अध्येता आचार्य डॉ. दुर्गादास बसु ने वर्णन किया है कि जारकर्म के अपराध के लिए पुरुष दंडित किया जा सकता है किन्तु महिला को दुष्प्रेरक के रूप में दंडित नहीं किया जा सकता है, यह भी असंवैधानिक नहीं माना जाएगा ।

इसका कारण यह है कि हमारे समाज में महिलाओं को संरक्षण देना बहुत जरूरी है । इस प्रकार इस उपबन्ध को अनुच्छेद 14 एवं 15 के अन्तर्गत संविधान विरुद्ध नहीं माना जाएगा । अनुच्छेद 16 में ‘लोक नियोजन के विषय में अवसर की समानता’ में भी लिंगगत भेदभाव का निषेध किया गया है ।

अनुच्छेद 16(14) के अधीन राज्य की सेवाओं में कमजोर वर्गों अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पिछड़ा वर्ग हेतु पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई है । इसी रक्षोपाय के अन्तर्गत महिलाओं के लिए राज्य विधि द्वारा संरक्षण प्रदान कर सकता है । मध्य प्रदेश सरकार ने इसी उपबन्ध के अन्तर्गत राज्य की सेवाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था की है ।

अनुच्छेद 13 ‘शोषण के विरुद्ध अधिकार’ के द्वारा व्यक्ति की शारीरिक स्वतन्त्रता को सुनिश्चित करने, भेदभाव को रोकने के लिए प्रावधान किया गया है । इस अनुच्छेद के मूल में यह विचार जुड़ा हुआ है कि मानवीय गरिमा को सुनिश्चित एवं मजबूत किया जाए तथा शोषण, मानव का दुर्व्यवहार तथा बलात श्रम को रोकने के लिए व्यवस्था किया गया है ।

इस अनुच्छेद के अन्तर्गत महिलाओं और अन्य व्यक्तियों के अनैतिक या अन्य प्रयोजनों के लिए दुर्व्यवहार का भी प्रतिषेध है । इस अनुच्छेद को ध्यान में रखते हुए व्यवस्थापिका द्वारा ‘महिला तथा बालिका अनैतिक व्यापार दमन अधिनियम 1956’ पारित किया गया ।

इस अधिनियम के द्वारा महिला अनैतिक व्यापार की रोकथाम के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शामिल व्यक्तियों के लिए दंडनीय अपराध की व्यवस्था की गई है तथा साथ ही अनैतिक व्यापार में संलग्न महिलाओं के लिए दंड के साथ पुनर्वास की भी व्यवस्था की गई है ।

तृतीय बिन्दु में हम नीति निर्देशक तत्त्वों के अन्तर्गत महिलाओं के लिए किए गए प्रावधानों की समीक्षा करेंगे । संविधान के भाग-4 में शामिल नीति निर्देशक तत्त्वों को मुख्य उद्देश्य कल्याणकारी राज्य की स्थापना एवं सामाजिक, आर्थिक न्याय की प्राप्ति करना है । साथ ही संविधान की प्रस्तावना में वर्णित आदर्शों एवं मूल्यों को प्राप्त करने के लिए व्यवहार में मार्ग प्रशस्त करता है ।

इन निदेशक तत्त्वों में शामिल मुख्य प्रावधान निम्नलिखित हैं:

अनुच्छेद 39 (क)- जीविका के प्रर्याप्त साधन का अधिकार

अनुच्छेद 39 (क)- समान न्याय और निशुल्क विधिक सहायता प्राप्त करने का अधिकार

अनुच्छेद 39 (घ)- पुरुषों एवं महिलाओं को समान कार्य के लिए समान वेतन का अधिकार 42वें संविधान संशोधन के द्वारा ।

अनुच्छेद 42- काम की न्यायसंगत मनोवांछित दशा तथा प्रसूति सहायता का अधिकार

अनुच्छेद 44- में सभी नागरिकों के लिए समान सिविल संहिता प्राप्त करने आदि का प्रावधान किया है ।

राज्य द्वारा इन निर्देशक तत्त्वों को व्यवहारित करने के लिए वैधानिक प्रयास के अन्तर्गत सरकार के द्वारा बहुत से कानून पास कराए । इससे सम्बन्धित मुख्य विधि निर्माण समान पारिश्रमिक अधिनियम 1976, ‘मातृत्व लाभ अधिनियम 1961’, कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम 1948, ‘कारखाना अधिनियम 1948’ तथा न्यूनतम मजदूरी अधिनियम 1948 प्रमुख है ।

समान कार्य के लिए समान वेतन के अन्तर्गत बागवानी 1976 का विस्तार किया जाना चाहिए । कारखाना अधिनियम 1948 के अन्तर्गत महिलाओं के बच्चों के लिए शिशु गृह की व्यवस्था व्यवहार में करने की आवश्यकता है ।

इसी प्रकार न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 के द्वारा न्यूनतम मजदूरी का प्रावधान किया गया है । परन्तु अभी भी महिलाओं की अधिकता वाले क्षेत्र में उन्हें बहुत ही कम पारिश्रमिक का भुगतान निजी संस्थाओं के द्वारा प्रायः किया जाता है ।

विभिन्न नीति निर्देशक तत्त्वों को ध्यान में रखते हुए पंचवर्षीय योजनाओं के द्वारा भी महिलाओं की स्थिति सुदृढ़ करने का प्रयास किया गया है । 1953 में स्थापित, ‘केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड’ तथा मानव संसाधन विकास मन्त्रालय 1985 के द्वारा भी महिला के कल्याण सम्बन्धी नीतियों का निर्धारण एवं क्रियान्वयन किया जा रहा है । राष्ट्रीय महिला आयोग अधिनियम 1990 द्वारा स्थापित राष्ट्रीय महिला आयोग का उद्देश्य भी महिला विकास के सम्बन्धित है ।

परन्तु व्यवहार में उक्त अधिनियमों, सरकारी योजनाओं एवं कार्यक्रमों का लाभ उस अनुपात में नहीं मिला है । जिस अनुपात में उम्मीद की गई थी । महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अत्याचार, सामाजिक एवं आर्थिक सुरक्षा प्रदान करने में उक्त प्रावधान बहुत अधिक मात्रा में सहायक सिद्ध हुए हैं ।

प्रसार-प्रचार के अभाव तथा संवैधानिक एवं अधिकार सम्बन्धी शिक्षा के अभाव में न केवल ग्रामीण महिलाएँ अपितु कमोबेश मात्रा में शिक्षित एवं शहरी महिलाएँ भी ऊपर वर्णित विशेष प्रावधानों की क्रियान्वयन प्रणाली भी दोषपूर्ण है । अतः इनमें शीघ्रातिशीघ्र सुधार की आवश्यकता है ।

मूल कर्तव्यों में महिला सशक्तिकरण के विकास हेतु प्रावधान किए गए हैं । स्वर्ण सिंह समिति रिपोर्ट के आधार पर 1976 में 42वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान के भाग 40 (क) में मूल कर्तव्यों को शामिल किया गया है । इसके अन्तर्गत 51 (क) ई. में यह प्रावधान है कि ”ऐसी प्रथाओं का त्याग किया जाए जो महिलाओं के सम्मान के विरुद्ध हैं ।”

इस प्रावधान के द्वारा मूलत: उन प्रथाओं जैसे सती प्रथा, बाल विवाह, दहेज प्रथा आदि को समाप्त करने की माँग की गई है । ऐसी प्रथाओं का त्याग भारतीय नागरिकों में कर्तव्य बोध उत्पन्न करके ही किया जा सकता है ।

अनुच्छेद 51 (क) के अन्तर्गत किए गए प्रावधान का मूल भाव यह है कि उक्त प्रथाएँ महिलाओं के सम्मान एवं गरिमा को बनाए रखने में बाधक बनी हुई हैं । वास्तविकता यह है कि भारतीय समाज में विद्यमान कतिपय प्रथाओं एवं परम्पराओं के कारण समुचित रूप से आधुनिक माँग के अनुसार महिलाओं का विकास नहीं हो रहा है ।

निर्वाचन पद्धति के अन्तर्गत किए गए प्रावधानों में-धर्म, मूलअंश, जाति, लिंग या इनमें से किसी नामावली में सम्मिलित किए जाने के लिए अपात्र नहीं होगा । इसी सिद्धान्त के आधार पर अनुच्छेद 326 में प्रत्येक नागरिक को जिनकी आयु 18 वर्ष से अधिक है व्यस्क मताधिकार प्रदान किया गया ।

इन महत्वपूर्ण राजनीतिक अधिकारों के द्वार महिलाएँ मतदान की क्रिया द्वारा अपने जन प्रतिनिधि का चुनाव करती हैं तथा स्वयं जन-प्रतिनिधि के रूप में निर्वाचित हो सकती हैं । उक्त प्रावधान के बावजूद महिलाओं की राजनीतिक सहभागिता बहुत निम्न है ।

73वाँ और 74वाँ संविधान संशोधन के अन्तर्गत महिलाओं के लिए एक तिहाई आरक्षण की व्यवस्था की गई है । इस संशोधन के प्रावधानों के आधार पर महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण के आधार पर पंचायत के स्तर पर निर्वाचित किया जाएगा । आरक्षण की इस व्यवस्था में अनुसूचित जाति, जनजाति तथा पिछड़े वर्ग की महिलाओं को भी आरक्षण दिया गया है ।

डॉ. महीपाल(9) ने अपने एक लेख में समस्या के उन बिन्दुओं को रेखांकित किया है जो इस नवीन व्यवस्था में देखने को मिल रहा है । इसमें महिला के स्थान पर उनके पति बैठकों में जाते हैं । महिला प्रतिनिधियों द्वारा मात्र अंगूठा कागज पर दिखाया जाता है ।

अभी हाल ही में सामाजिक विज्ञान संस्थान, नई दिल्ली ने ‘महिला राजनीतिक सशक्तिकरण दिवस’ मनाया था । इस आयोजन में यह तथ्य उभरकर सामने आया है कि पंचायती राज व्यवस्था में महिला जन प्रतिनिधि के विरुद्ध भ्रष्टाचार का मामला चल रहा है । इसका प्रमुख कारण निरक्षरता है ।

उन्होंने तो केवल अंगूठा भर लगा दिया है, यह जाने बिना कि वे किस प्रस्ताव पर अंगूठा लगा रही है । महिला सरपंचों व अन्य महिला पदाधिकारियों के पुरुष रिश्तेदारों के द्वारा उनके अधिकारों का दुरुपयोग किया जा रहा है । आरक्षण के साथ-साथ शिक्षा एवं प्रशिक्षण के द्वारा इनमें जागरूकता लाना आवश्यक जान पड़ता है ।

74 संविधान संशोधन के द्वारा भी नगरीय निकायों के प्रत्येक स्तर हेतु 1/3 स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित किए गए हैं । प्रस्तावित महिला आरक्षण विधेयक-लोकसभा और विधानसभाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण सम्बन्धी संविधान संशोधन विधेयक संसद में विचाराधीन हैं ।

इस विधेयक के प्रमुख प्रावधान इस प्रकार हैं:

1. लोकसभा और विधानसभा में महिलाओं के लिए 1/3 स्थानों का आरक्षण ।

2. सीटों के आवर्तन (रोटेशन व्यवस्था) के द्वारा आरक्षित स्थानों का प्रत्येक निर्वाचन में परिवर्तन ।

3. राष्ट्रपति द्वारा एंग्लो-इंडियन समुदाय के सदस्यों के नामांकन सम्बन्धी प्रावधान ।

4. दिल्ली विधान सभा महिलाओं के आरक्षण के लिए संसद द्वारा विधि निर्माण का प्रावधान ।

इन प्रावधानों का विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा समर्थन । विरोध के पीछे विचार का तत्त्व कम तथा स्वार्थ एवं मोह का तत्त्व ज्यादा लगता है । इस बिल के पास न होने के कारण रोटेशन की व्यवस्था को भी माना जा सकता है । प्रस्तावित विधेयक की स्वामी यह भी है कि जवाबदेही की प्रक्रिया को गहरा खतरा है ।

पिछले चार वर्षों के अनुभव इस विचार को पुष्ट करते हैं कि आम सहमति का इन्तजार करना केवल समय व्यतीत करना होगा । अब हमें गम्भीरता से इस तथ्य की परीक्षा करनी होगी कि महिलाओं की राजनीतिक सहभागिता केवल आरक्षण के द्वारा ही निश्चित की जा सकती है ।

अन्त में यही कहा जा सकता है कि भारतीय संविधान में महिलाओं को सभी प्रकार के अधिकार प्रदान करके सम्पन्न बना दिया गया है । महिलाओं की समाज में वर्तमान स्थिति को देखते हुए रेखांकित करना सही है कि केवल संविधान में अधिकारों की व्यवस्था मात्र से वे अधिकार सम्पन्न हो गई हैं, यह मान लेना ठीक नहीं है ।

महिलाओं के विशेष सन्दर्भ में समाज और संविधान के मध्य गत्यात्मक सम्बन्ध है । महिलाओं को शिक्षित, जागरूक तथा आर्थिक दृष्टि से मजबूत बनाने के उपरान्त ही संविधान में वर्णित अधिकारों का समुचित लाभ उन्हें मिल सकेगा ।

संवैधानिक उपायों के अतिरिक्त मानवाधिकार भी समाज को प्रभावित करने वाले महत्त्वपूर्ण घटक हैं । मानवता क्या है ? देखा जाए तो यह प्रीति का धर्म है, प्रेम का श्रीपुष्प है, आकाश की ज्योत्सना है । नारी ने ही पुरुष को मानवता का पाठ पढाया और दुर्भाग्य है कि आज वही इन अधिकारों से वंचित है ।

परन्तु जीवन की कोई अवस्था जीवन का अवसान नहीं है, हर अवस्था जीवन का आशादीप है, जो जीवन की हर दोपहरी के यथार्थ को जानकर सुरमई साँझ की वेला में मस्त जीवन के लिए तारों की झिलमिल चुनरी ओढे निशा रानी को आने की प्रतीक्षा करता है । जीवन का सत्य जानता है कि बसन्त को भोगना है, शरद तो शिशिर, हेमन्त की वीणा दन्त शीतल वायु के झोंकों को झेलना ही पड़ेगा ।

आशा की एक किरण की तरह महिलाओं के लिए भी मानवाधिकारों का प्रावधान किया गया है । भारतीय परिप्रेक्ष्य में सामान्यतः मानवाधिकारों के प्रति आम जनता में जागरूकता का अभाव-सा परिलक्षित होता है । फलत: शोषण, अन्याय, उत्पीड़न अत्याचार महिलाओं के अधिकारों का हनन सामान्य रूप से प्रचलित है ।

ग्रामीण क्षेत्रों में क्या महानगरों तथा राजधानियों में भी अपराध की घटनाएँ तेजी से बढ रही हैं । भारतीय पुलिस तथा प्रशासन को इस योग्य नहीं बनाया गया कि वह मानवाधिकारों की रक्षा अपना कर्तव्य मानें, इसलिए पुलिस में भी हिंसा, हत्या और बलात्कार को गम्भीरता से लेने की प्रवृत्ति ही पैदा न हो सकी ।

वर्तमान में भारतीय महिलाएँ समाज व राज्य की विभिन्न गतिविधियों में पर्याप्त सहभागिता कर रही हैं, परन्तु इससे उनके प्रति घरेलू-हिंसा के अलावा कार्य स्थल पर सडकों व सार्वजनिक यातायात के माध्यमों में व समाज के अन्य स्थलों पर होने वाली हिंसा में भी वृद्धि हुई है । इसमें शारीरिक, मानसिक एवं यौन सभी प्रकार की हिंसा सम्मिलित है ।

भारत में महिलाओं के प्रति हिंसा की स्थिति देखें तो सन् 2003 में पंजीकृत मामले हैं- प्रताडना (30.4 प्रतिशत), छेड़छाड़ (25 प्रतिशत), अपहरण (12 प्रतिशत), बलात्कार (12.8 प्रतिशत), भ्रूण हत्या (6.7 प्रतिशत), यौन उत्पीड़न (4.90 प्रतिशत), दहेज मृत्यु (4.6 प्रतिशत), दहेज निषेध (2.3 प्रतिशत) व अन्य (0.6 प्रतिशत) ये अपराध पूरे राष्ट्रीय स्तर पर होते हैं ।

मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा ने भेदभाव को न करने के सिद्धान्त की अतिपुष्टि की थी और घोषित किया था कि सभी मानव स्वतन्त्र पैदा हुए हैं और गरिमा एवं अधिकारों में समान हैं तथा सभी व्यक्ति बिना किसी भेदभाव के, जिसमें लिंग पर आधारित भेदभाव भी शामिल है, सभी अधिकारों एवं स्वतन्त्रताओं के हकदार हैं । फिर भी महिलाओं के विरुद्ध अत्यधिक भेदभाव होता रहा है ।

सर्वप्रथम 1946 में महिलाओं की प्रस्थिति पर आयोग की स्थापना की गई थी । महासभा ने 7 नवम्बर, 1967 को महिलाओं के विरुद्ध सभी प्रकार के भेदभाव की समाप्ति पर अभिसमय अंगीकार किया । 1981 एवं 1999 में अभिसमय पर ऐच्छिक न्याचार को अंगीकार किया ।

जिससे लैंगिक भेदभाव, यौन-शोषण एवं अन्य दुरुपयोग से पीडित महिलाओं का सक्षम बनाएगा । महिलाओं के सम्मेलनों के अन्तर्गत, संयुक्त राष्ट्र द्वारा आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय महिला दशक (1976-1985) के दौरान तीन सम्मेलन हुए । चौथा सम्मेलन 1995 में बींजिंग में हुआ, जिसके द्वारा महिलाओं के सम्बन्ध में बहुत अधिक जानकारी हुई है और जो राष्ट्रीय महिला आन्दोलनों एवं अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के बीच अमूल्य कड़ी का आधार बना ।

मानव अधिकारों की रक्षा के लिए राव संयुक्त राष्ट्र घोषणा पत्र के उद्देश्य को दृष्टिगत रखते हुए भारत में मानवाधिकार आयोग का गठन किया गया । भारत में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार सम्मेलनों, आर्थिक एवं सामाजिक परिषद एवं महासभा के अधिवेशनों में मानवाधिकार में मुद्दों पर सक्रिय रूप से भाग लिया है ।

मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1933 की धारा 30 में मानव अधिकारों के उल्लंघन सम्बन्धी शीघ्र सुनवाई उपलब्ध कराने के लिए मानव अधिकार न्यायालय अधिसूचित करने की परिकल्पना की गई है । आन्ध्र प्रदेश, असम, सिक्किम, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश में भी इस प्रकार के न्यायालय स्थापित किए जा चुके हैं ।

यहाँ यह कहना उचित होगा कि जब से मानवाधिकार संरक्षण कानून बना है और राष्ट्रीय महिला आयोग का गठन हुआ है, नारी की स्थिति समाज में और अधिक सुदृढ़ होने लगी है । अब महिला-उत्पीडन की घटनाओं में भी अपेक्षाकृत कमी आई है । हमारी न्यायिक व्यवस्था ने भी नारी विषयक मानवाधिकारों की समुचित सुरक्षा की है ।

बुद्धिसत्य गौतम बनाम कुमारी शुभा चक्रवर्ती (10) के मामले में एक शिक्षक द्वारा अपनी ही शिष्या का यौन उत्पीड़न किया गया था । उच्चतम न्यायालय ने इसे अत्यन्त गम्भीरता से लिया और मामले के विचारण काल तक उत्पीड़ित महिला को 1000 रुपए प्रतिमाह प्रतिकर के रूप में दिए जाने का आदेश दिया ।

हम जानते हैं कि इन दिनों कार्यक्षेत्र में भी महिलाएँ आगे आई हैं । वे विभिन्न सेवाओं में कदम रखने लगी हैं । कामकाजी महिलाओं के साथ यौन-उत्पीड़न की घटनाएं होने लगीं तो न्यायपालिका ने उसमें हस्तक्षेप कर यौन-उत्पीड़न की घटनाओं पर अंकुश लगाना अपना दायित्व समझा ।

विशाका बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान (11) का इस सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण मामला है । इस मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा कामकाजी महिलाओं के साथ यौन-उत्पीड़न घटनाओं की रोकथाम के लिए कतिपय दिशा-निर्देश दिए- जहाँ कामकाजी महिलाएं हैं वहाँ के नियोक्ताओं एवं अन्य जिम्मेदार अधिकारियों का यह कर्तव्य होगा कि वे कामकाजी महिलाओं के यौन-शोषण का निवारण करें, उन्हें रोकने के उपाय करें तथा दोषी व्यक्तियों के विरुद्ध अभियोजन चलाने की कार्यवाही करें ।

कामकाजी महिलाओं के यौन-उत्पीड़न के निवारण हेतु तत्सम्बन्धित निर्देश सूचना पट्‌टों पर प्रदर्शित किए जाएँ तथा यौन-उत्पीड़न के दुष्परिणामों से जनसाधारण को अवगत कराया । यदि किसी कार्यस्थल पर कार्यरत व्यक्ति द्वारा कामकाजी महिला का यौन-उत्पीड़न किया जाता है तो ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही की जाए । कामकाजी महिलाओं के यौन-उत्पीडन सम्बन्धी परिवादों की सुनवाई के लिए शिकायत समितियों का गठन किया जाए ।

ऐसी समीतियों का अध्यक्ष महिलाओं को बनाया जाए तथा समिति के न्यूनतम आधे पदों पर महिलाओं को नियुक्त किया जाए । यौन उत्पीडन निवारण विषयक साहित्य तैयार किए जाएं तथा इसका अधिक-से-अधिक प्रचार-प्रसार किया जाए ।

किसी कामकाजी महिला के साथ बाहरी व्यक्तियों द्वारा यौन-उत्पीड़न किए जाने पर ऐसी महिला को पर्याप्त संरक्षण प्रदान किया जाए । केन्द्र व राज्य सरकारें कामकाजी महिलाओं के यौन-उत्पीड़न की घटनाओं की रोकथाम हेतु समुचित विधियाँ बनाएँ ।

समस्या यह कि आखिर यौन-उत्पीड़न क्या है । हमारे समाज में पुरुष वादिता इस कदर हावी है कि वे इस समाज में होने वाली अनेक शर्मनाक घटनाओं को उत्पीड़न का दर्जा ही नहीं देते । इस मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यौन-उत्पीड़न की परिभाषा भी की गई है ।

यौन-उत्पीड़न में निम्नांकित कृत्यों को सम्मिलित किया गया है:

(क) शारीरिक सम्पर्क तथा ऐसे सम्पर्क का प्रयास

(ख) यौन सम्पर्क का प्रस्ताव अथवा अनुरोध

(ग) अश्लील टिप्पणियाँ एवं संकेत

(घ) कामोत्तेजक चित्रों का प्रदर्शन

(ङ) अन्य अशोभनीय तथा अश्लील आचरण

महिलाओं के सम्मान व अधिकारों से जुड़ा एक निर्णय जिसमें पति-पत्नी के विवाह-विच्छेद के उपरान्त पुत्री के कन्यादान पर पिता ने दावा किया । लडकी व उसकी माता इसके लिए सहमत नहीं थी तब उच्च न्यायालय ने कहा-ऐसी परिस्थिति में पिता कन्यादान करने का अधिकार के रूप में दावा नहीं कर सकता ।

कामकाजी महिलाओं के यौन-उत्पीड़न से सम्बन्धित एक अन्य विवाद में उच्चतम न्यायालय द्वारा कहा गया कि मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामलों को हमेशा अन्तर्राष्ट्रीय अभिसमयों के सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए ।

यदि किसी अन्तर्राष्ट्रीय अभिसमय का उल्लंघन करने वाल कोई कृत्य किया जाता है तो वह मानवाधिकारों का उल्लंघन माना जाएगा । कामकाजी महिलाओं के यौन-उत्पीड़न को भी इस सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए ।

भारतीय दंड संहिता, 1860 में भी महिलाओं के विरुद्ध कारित अपराधों के लिए कठोर दंड की व्यवस्थाएँ की गई हैं धारा 354 में स्त्री की लज्जा भंग, धारा 366 में अपहरण, धारा 376 बलात्कार, धारा क में निर्दयतापूर्ण व्यवहार तथा धारा 509 व 410 में स्त्री के अपमान को दंडनीय अपराध घोषित किया गया ।

दहेज की माँग की विभीषिका से नारी की रक्षा करने हेतु दहेज-निषेध अधिनियम, 1991 में कई महत्त्वपूर्ण प्रावधान किए गए हैं यहाँ नारी सम्मान से जुड़ा एक और महत्त्वपूर्ण कानून सती निवारण अधिनियम, 1957 उल्लेखनीय है ।

इसमें सती प्रथा के निवारण हेतु कठोर दंड की व्यवस्था की गई है । इस अधिनियम को संवैधानिक घोषित किया गया है । महिलाओं के प्रति निर्दयता को उच्चतम न्यायालय ने निरन्तर अपराध माना है । पति द्वारा पत्नी को घर से निकाल देने तथा उसे मायके में रहने के लिए विवश करने पर आपराधिक कृत्य केवल घर से निकालने पर नहीं अपितु निरन्तर माना जाता है ।

ऐसे मामलों में परिवाद अविरुद्ध नहीं माना जाएगा । अब हम महिलाओं के सिविल एवं संवैधानिक अधिकारों पर भी विचार करेंगे । अनुच्छेद 15 में यह प्रावधान किया गया कि धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर किसी नागरिक के साथ विभेद नहीं किया जाएगा । लोक-नियोजन में भी महिलाओं को समान अवसर प्रदान किए गए ।

महिलाओं को मात्र महिला होने के नाते समान कार्य के लिए पुरुष के समान वेतन देने से इंकार नहीं किया जा सकता । उच्चतम न्यायालय द्वारा समान कार्य के लिए पुरुष के समान वेतन एवं पदोन्नति के समान अवसर उपलब्ध कराने के दिशा निर्देश प्रदान किए गए हैं ।

हिन्दु उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 18 में स्त्रियों को सम्पत्ति में मालिकाना हक प्रदान किया गया है । श्रम कानून महिलाओं के लिए संकटापन्न यंत्रों तथा रात्रि में कार्य का निषेध करता है । मातृत्व लाभ अधिनियम कामकाजी महिलाओं को प्रसूति लाभ की सुविधाएँ प्रदान करता है । दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 125 में उपेक्षित महिलाओं के भरण-पोषण का प्रावधान किया गया है ।

एक प्रकरण में तो उच्चतम न्यायालय द्वारा यहाँ तक अभिनिर्धारित किया गया है कि विवाह शून्य एवं अकृत घोषित जो जाने पर भी पत्नी हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 25 के अन्तर्गत भरण-पोषण पाने की हकदार होती है ।

महिलाओं के विरुद्ध सभी प्रकार के भेदभाव की समाप्ति पर ये सम्मेलन, आयोग एवं अभिसमय इस तथ्य की दृष्टि में वांछित प्रभाव नहीं डाल सके, क्योंकि महिलाओं के मानव अधिकारों का विश्वव्यापी स्तर पर विभिन्न तरीकों से उपेक्षा तथा निरन्तर उल्लंघन किया जा रहा है ।

महिलाओं के प्रति हिंसा विश्वव्यापी घटना बनी हुई है जिससे कोई भी देश, कोई भी समाज एवं कोई भी समुदाय मुक्त नहीं है । महिलाओं के प्रति भेदभाव इसलिए विद्यमान है क्योंकि इसकी जड़ें सामाजिक प्रतिमानों एवं मूल्यों में जमी हुई हैं । इसका कारण मानवीय संरचना व स्वभाव में अन्तर्निहित होने के कारण जड़ से उसका उल्लंघन सम्भव नहीं हो पा रहा ।

प्रत्येक स्थल व प्रत्येक प्रकार की महिला विरोधी हिंसा के लिए समाज और राज्य दोनों को ही अपना नैतिक एवं विधिक उत्तरदायित्व निभाना पडेगा । व्यवहारिक स्वरूप यही माँग करता है कि एक ऐसी सामाजिक पहल हो जिससे महिलाओं के प्रति पूरे समाज की सोच बदले ।

भारत जैसे विकासशील देश में ‘मानव अधिकार’ का मुद्दा एक ऐसा मुद्दा है जिसके लिए दीर्घकालिक नीति तथा सरकारी एवं गैरसरकारी दोनों ही स्तरों पर सहयोग की जरूरत है । आकाशवाणी और दूरदर्शन दानों मानवाधिकारों के प्रति जागरूकता जाने की दिशा में प्रभावी एवं सक्रिय भूमिका निर्वाह कर सकते हैं ।

तभी महात्मा गांधी के ये शब्द सार्थक होंगे- स्वतन्त्र भारत को ऐसा होन चाहिए कि कोई महिला कश्मीर से कन्याकुमारी तक अकेली धूम ले तथा उसके साथ कोई अशोभनीय घटना न हो ।