गुप्त साम्राज्य: गुप्त साम्राज्य के दौरान प्रशासन, कला और वास्तुकला | Gupta Empire: Administration, Art and Architecture During Gupta Empire. Read this article in Hindi to learn about:- 1. गुप्त संस्कृति का शासन व्यवस्था (Administration during Gupta Empire) 2. गुप्त संस्कृति का प्रान्तीय शासन (Provincial Governance during Gupta Empire) 3. गुप्त संस्कृति का भूमि एवं राजस्व (Land and Revenue) and Other Details.

Contents:

  1. गुप्त संस्कृति का शासन व्यवस्था (Administration during Gupta Empire)
  2. गुप्त संस्कृति का प्रान्तीय शासन (Provincial Governance during Gupta Empire)
  3. गुप्त संस्कृति का भूमि एवं राजस्व (Land and Revenue of Gupta Empire)
  4. गुप्त संस्कृति का साहित्य और विज्ञान (Literature and Science of Gupta Empire)
  5. गुप्त संस्कृति का कला और स्थापत्य (Art and Architecture of Gupta Empire)


1. गुप्त संस्कृति का शासन व्यवस्था (Administration during Gupta Empire):

गुप्त राजाओं का शासन-काल प्राचीन भारतीय इतिहास के सर्वाधिक गौरवशाली युग का प्रतिनिधित्व करता है । वस्तुतः इस समय सभ्यता और संस्कृति के प्रत्येक क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुई तथा भारतीय संस्कृति के विकास को पूर्णता प्राप्त हुई । गुप्त युग की सर्वतोमुखी प्रगति को देखते हुये ही विद्वानों ने इस काल को हिन्दू संस्कृति के ‘स्वर्ण-युग’ अथवा ‘क्लासिकल युग’ की संज्ञा से अभिहित किया है ।

ADVERTISEMENTS:

अपनी अनेक विजयी के परिणामस्वरूप गुप्त सम्राटों ने एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया । अपने उत्कर्ष काल में यह साम्राज्य उत्तर में हिमालय से दक्षिण में विन्ध्यपर्वत तक तथा पूर्व से बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्चिम में सुराष्ट्र तक फैला था । पाटलिपुत्र इस विशाल साम्राज्य की राजधानी थी ।

सम्राट:

विशाल गुप्त साम्राज्य की शासन-व्यवस्था राजतन्त्रात्मक थी । मौर्य शासकों के विपरीत गुप्तवंशी शासक अपनी दैवी उत्पत्ति में विश्वास करते थे तथा ‘महाराजाधिराज’, ‘परमभट्टारक’, ‘एकराट्’, ‘परमेश्वर’ जैसी विशाल उपाधियाँ धारण करते थे ।

समुद्रगुप्त को पृथ्वी पर निवास करने वाला देवता कहा गया है जो वहीं तक मनुष्य था जहाँ तक लौकिक क्रियाओं को सम्पन्न करता था । परन्तु अपनी दैवी उत्पत्ति के बावजूद वह स्वयं विधि-नियमों का उल्लंघन नहीं कर सकता था ।

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सम्राट प्रशासन का मुख्य स्रोत था जिसके अधिकार और शक्तियाँ असीमित थीं । वह कार्यपालिका का सर्वोच्च अधिकारी, न्याय का प्रधान न्यायाधीश एवं सेना का सर्वोच्च सेनापति होता था । युद्ध के समय वह स्वयं सेना का संचालन करता था ।

प्रशासन के सभी उच्च पदाधिकारियों की नियुक्ति सम्राट द्वारा ही की जाती थी और ने सभी उसी के प्रति उत्तरदायी होते थे । इस प्रकार सिद्धान्तत: उसकी स्थिति एक निरंकुश शासक जैसी थी । परन्तु व्यवहार में वह पर्याप्त अंशों में उदार तथा जनहितकारी होता था । गुप्त युग में रानियों का भी महत्व था जो अपने पतियों के साथ मिलकर कभी-कभी शासन चलाती थीं ।

कुमारदेवी ने अपने पति चन्द्रगुप्त प्रथम के साथ मिलकर शासन चलाया था । प्रभावतीगुप्ता ने वाकाटक राज्य के शासन का संचालन किया था । गुप्तयुग में सामन्तवाद का उदय हो चुका था । इसके लिए समुद्रगुप्त की अधीनस्थ राजाओं के प्रति अपनायी गयी नीति ही उत्तरदायी थी ।

उसने जीते गये अधिकांश राज्यों को अपने साम्राज्य में सम्मिलित नहीं किया तथा उनके राजाओं को स्वतन्त्र रूप से अपने-अपने क्षेत्रों में शासन करने का अधिकार प्रदान कर दिया । अधीन राजाओं के अतिरिक्त सम्राट के अधीन अनेक छोटे-छोटे सामन्त हुआ करते थे जो अपने-अपने क्षेत्रों में स्वतन्त्र रूप से शासन करते थे तथा नाममात्र के लिये सम्राट की अधीनता स्वीकार करते थे ।

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ये सामन्त तथा अधीन शासक ‘महाराज’ की उपाधि ग्रहण करते थे । उन्हें सेना रखने तथा अपने अधीन जनता से कर वसूल करने का अधिकार प्राप्त था । पूर्वी मालवा में सनकानीक, बुन्देलखण्ड में परिव्राजक एवं उच्चकल्प वंशों के शासक गुप्तों के सामन्त थे ।

चन्द्रगुप्त द्वितीय कालीन उदयागिरि के एक गुहालेख में ‘सनकानीक महाराज’ का उल्लेख हुआ है । सामन्त शासक अपने लेखों में अपने को ‘पादानुध्यात’ कहते थे । वे विभिन्न अवसरों पर सम्राट की राजसभा में उपस्थित होते तथा भेंट, उपहारादि से उसे सन्तुष्ट रखते थे ।

कुछ सामन्त अत्यधिक शक्तिशाली होते थे । वे अपने अधीन कई छोटे-छोटे सामन्त रखते थे । इनमें परिव्राजक महाराज हस्तिन् का उल्लेख किया जा सकता है । यद्यपि गुप्त लेखों में हमें सामन्तों तथा उनकी विभिन्न श्रेणियों का कोई विशेष उल्लेख नहीं मिलता है तथापि यह स्पष्ट है कि अब प्रशासन में मौर्यकालीन केन्द्रीय नियंत्रण समाप्त हो गया था ।

अमात्य तथा मन्त्री:

सम्राट अपने शासन-कार्य में अमात्यों, मन्त्रियों एवं अधिकारियों से सहायता प्राप्त करता था । अमात्य से तात्पर्य प्रशासनिक अधिकारियों से था । उन्हीं में से योग्यता के आधार पर मंत्री नियुक्त किये जाते थे ।

प्रयाग प्रशस्ति में ‘राजसभा’ का उल्लेख मिलता है जिसके सदस्य ‘सभेय’ कहे जाते थे । सामान्यतः राजा का बड़ा पुत्र उत्तराधिकारी चुना जाता था । परन्तु कभी-कभी दूसरे योग्य राजकुमार को भी इस पद पर चुन लिया जाता था, यदि उसमें असाधारण योग्यता होती थी ।

समुद्रगुप्त का चुनाव इसी प्रकार का रहा होगा । सम्राट के छोटे पुत्रों को प्रान्तीय शासकों के रूप में नियुक्त करने की प्रथा थी, जैसे कुमारगुप्त प्रथम के छोटे भाई गोविन्दगुप्त को मालवा का राज्यपाल नियुक्त किया गया था ।

युवराज अपने पिता के जीवनकाल में प्रशासनिक कार्यों में उसकी सहायता करता था । गुप्त युग में युवराज की अधीनता में एक पृथक् सैनिक विभाग हुआ करता था । सम्राट के वृद्ध होने पर प्रशासन का पूरा उत्तरदायित्व युवराज के ऊपर ही आता था ।

इस प्रकार का उदाहरण कुमारगुप्त प्रथम के समय में मिलता है जबकि उसके पुत्र स्कन्दगुप्त ने अपने पिता के काल में सैनिक अभियानों में प्रमुख रूप से भाग लिया था । गुप्त शासन में विभिन्न विभाग विभिन्न मन्त्रियों के अधीन होते थे ।

गुप्तकालीन लेखों तथा स्मृतियों में मन्त्रियों तथा सचिवों का उल्लेख मिलता है । किन्तु उनकी संख्या अथवा उनके विभागों के विषय में कोई सूचना नहीं मिलती । ऐसा लगता है कि विभागीय अध्यक्षों और मन्त्रियों में कोई खास अन्तर नहीं था ।

सैनिक योग्यता मन्त्रियों के लिये अनिवार्य अर्हता थी । समुद्रगुप्त एवं चन्द्रगुप्त द्वितीय के युद्ध सचिव हरिषेण एवं वीरसेन उच्चकोटि के सेनानायक भी थे । वीरसेन के उदयगिरि गुहालेख से पता चलता है कि वह आनुवंशिक रूप से अपने पद का उपभोग कर रहा था ।

कुमारगुप्त प्रथम का मन्त्री पृथ्वीषेण, शिखरस्वामी का पुत्र था जो उसके पिता चन्द्रगुप्त द्वितीय का मन्त्री रह चुका था । वह पहले मन्त्री था किन्तु बाद में सेनापति (महाबलाधिकृत) के पद पर पहुंच गया था ।

केन्द्रीय अधिकारी:

गुप्तकालीन अभिलेखों में निम्नलिखित पदाधिकारियों के नाम मिलते हैं:

i. प्रतिहार एवं महाप्रतिहार- ये राजकीय दरबार के प्रमुख पदाधिकारी थे जो प्रशासन में भाग नहीं लेते थे । जो लोग सम्राट से मिलना चाहते थे, उन्हें उचित अनुमति-पत्र देना इनका प्रमुख कार्य था । प्रतिहार अन्त:पुर का रक्षक एवं महाप्रतिहार राजमहल के रक्षकों का प्रधान होता था ।

ii. महासेनापति- यह सेना का सर्वोच्च अधिकारी होता था ।

iii. महासान्धिविग्रहिक- यह एक महत्वपूर्ण पदाधिकारी था जो युद्ध एवं शान्ति का मन्त्री होता था ।

iv. दण्डपाशिक- यह पुलिस विभाग का प्रधान अधिकारी होता था जो आज कल के पुलिस अधीक्षक के समान था ।

v. विनयस्थितिस्थायक- यह धर्म-सम्बन्धी मामलों का प्रधान अधिकारी था जो सार्वजनिक मन्दिरों के प्रबन्ध की देख-रेख करता था एवं लोगों के नैतिक आचरण पर दृष्टि रखता था ।

vi. कुमारामात्य- अल्तेकर महोदय का मत है कि कुमारामात्य उच्च-पदाधिकारियों का विशिष्ट वर्ग था जो आधुनिक आई. ए. एस. वर्ग के पदाधिकारियों की भाँति था । इस वर्ग के पदाधिकारी अपनी योग्यता के आधार पर उच्च से उच्च पद पर नियुक्त किये जा सकते थे ।

रोमिला थापर के अनुसार- ‘कुमारामात्य’ प्रान्तीय पदाधिकारी होते थे जो स्थानीय प्रशासन तथा केन्द्र के बीच कड़ी का काम करते थे । कुमारामात्य का पृथक कार्यालय होता था जिसे ‘कुमारामात्याधिकरण’ कहा जाता था ।

हाल ही में प्रयाग के समीप एक टीले से प्राप्त की गयी मुद्रा में ‘मूलकुमारामात्याधिकरणस्य’ लेख उत्कीर्ण मिलता है । इससे ऐसा लगता है कि गुप्त प्रशासन में एक मुख्य कुमारामात्य भी होता था । उसके नीचे कई कुमारामात्य होते रहे होंगे । गुप्त काल में राजकर्मचारियों को नकद वेतन दिया जाता था ।

जिला तथा नगर प्रशासन:

भुक्ति का विभाजन अनेक जिलों में हुआ था । ‘जिला’ को ‘विषय’ कहा गया है जिसका प्रधान अधिकारी ‘विषयपति’ होता था । विषयपति को ‘कुमारामात्य’ भी कहा गया है । विषयपति की नियुक्ति प्रायः संबन्धित प्रान्त के उपरिक (राज्यपाल) द्वारा ही की जाती थी, परन्तु कभी-कभी स्वयं सम्राट ही उनकी नियुक्ति करता था । विषयपति का अपना कार्यालय होता था । कार्यालय के अभिलेखों को सुरक्षित रखने वाले अधिकारी को ‘पुस्तपाल’ कहा जाता था । विषयपति एक समिति की सहायता से जिले का शासन चलाता था ।

जिसमें निम्नलिखित सदस्य होते थे:

(1) नगर श्रेष्ठि (नगर के महाजनों का प्रमुख),

(2) सार्थवाह (व्यवसायियों का प्रधान),

(3) प्रथम कुलिक (प्रधान शिल्पी) तथा

(4) प्रथम कायस्थ (मुख्य लेखक) ।

फरीदपुर ताम्रपत्र संख्या 3 में विषयसमिति के सदस्यों की संख्या बीस मिलती है । विषय-समिति के सदस्य ‘विषय-महत्तर’ कहे जाते थे । प्रमुख नगरों का प्रबन्ध नगरपालिकायें चलाती थीं । नगर का प्रधान अधिकारी ‘पुरपाल’ कहा जाता था । वह कुमारामात्य की श्रेणी का अधिकारी होता था ।

नगर प्रशासन में पुरपाल की सहायता करने के लिये भी संभवतः एक समिति होती थी । जूनागढ़ लेख से पता चलता है कि गिरनार नगर का ‘पुरपाल’ चक्रपालित था जो सुराष्ट्र के राज्यपाल पर्णदत्त का पुत्र था । उसी ने वहाँ सुदर्शन झील के बाँध का पुनर्निर्माण करवाया था ।

ग्राम-शासन:

ग्राम शासन की सबसे छोटी इकाई होता था जिसका प्रशासन ग्रामसभा द्वारा चलाया जाता था । ग्रामसभा को मध्य भारत में ‘पञ्चमण्डली’ तथा विहार में ‘ग्राम जनपद’ कहा जाता था । ग्रामसभा सरकार के सभी कार्यों को करती थी । वह ग्राम के सुरक्षा की व्यवस्था करती, निर्माण-कार्य करती तथा राजस्व एकत्रित कर राजकीय कोष में जमा करती थी ।

दामोदरपुर से प्राप्त तीसरे ताम्रपत्र में ग्रामसभा के कुछ पदाधिकारियों के नाम इस प्रकार मिलते हैं- महत्तर, अष्टकुलाधिकारी, ग्रामिक, कुटुम्बिन् । इनके निर्वाचन की विधि एवं कार्यों के विषय में हमें अधिक ज्ञात नहीं है ।

न्याय-प्रशासन:

गुप्तकालीन लेखों में न्याय विभाग का उल्लेख नहीं मिलता । किन्तु समकालीन स्मृतियों-नारद तथा बृहस्पति से पता चलता है कि गुप्त युग में न्याय-व्यवस्था अत्यधिक विकसित थी । गुप्त युग में प्रथम बार दीवानी तथा फौजदारी अपराधों से सम्बन्धित कानूनों की व्याख्या प्रस्तुत की गयी ।

उत्तराधिकार सम्बन्धी स्पष्ट एवं विशद कानूनों का निर्माण किया गया । सम्राट देश का सर्वोच्च न्यायाधीश होता था । वह सभी प्रकार के मामलों के सुनवाई की अन्तिम अदालत था । सम्राट के अतिरिक्त एक मुख्य न्यायाधीश तया अन्य अनेक न्यायाधीश होते थे जो साम्राज्य के विभिन्न भागों में स्थित अनेक न्यायालयों में न्याय-सम्बन्धी कार्यों को देखते थे ।

व्यापारियों तथा व्यवसायियों की श्रेणियों के अपने अलग न्यायालय होते थे जो अपने सदस्यों के विवादों का निपटारा करते थे । स्मृति ग्रन्थों में ‘पूग’ तथा ‘कुल’ नामक संस्थाओं का भी उल्लेख मिलता है जो अपने सदस्यों के विवादों का फैसला करती थी ।

‘पूग’ नगर में रहने वाली विभिन्न जातियों की समिति होती थी जबकि ‘कुल’ समान परिवार के सदस्यों की समिति थी । इन सभी को राज्य की ओर से मान्यता मिली हुयी थी । ग्रामों में न्याय का कार्य ग्राम-पंचायतें किया करती थीं ।

पेशेवर वकीलों का अस्तित्व नहीं था । न्यायालयों में प्रमाण भी लिया जाता था । जहां कोई प्रमाण नहीं मिलता था वहाँ अग्नि, जल, विष, तुला आदि के द्वारा दिव्य परीक्षायें ली जाती थीं । गुप्तकालीन अभिलेखों में न्यायाधीशों को महादण्डनायक, दण्डनायक, सर्वदण्डनायक आदि कहा गया है । नालन्दा तथा वैशाली से कुछ न्यायालयों की मुद्रायें भी मिलती हैं जिनके ऊपर न्यायाधिकरण, धर्माधिकरण तथा धर्मशासनाधिकरण अंकित है ।

फाहियान के विवरण से पता चलता है कि दण्डविधान अत्यन्त कोमल था । मृत्युदण्ड नहीं दिया जाता था और न ही शारीरिक यातनायें मिलती थीं । सम्राट स्कन्दगुप्त के जूनागढ़ लेख से भी पता चलता है कि उस काल में दण्डों के द्वारा अत्यधिक पीड़ा नहीं पहुँचायी जाती थी ।

मृच्छकटिक से ज्ञात होता है कि चारुदत्त को हत्यारा सिद्ध हो जाने पर भी मृत्यु-दण्ड नहीं दिया गया था । अपराधों में सामान्यतः आर्थिक जुर्माने लिये जाते थे । बार-बार राजद्रोह का अपराध करने वाले व्यक्ति का दाहिना हाथ काट लिया जाता था । अन्य दण्ड की अपेक्षा मृदु थे ।

कुछ मामलों, जैसे पशुओं को नष्ट करना आदि, में जहां कौटिल्य मृत्युदण्ड का विधान करता वहाँ गुप्तकालीन स्मृतियाँ मात्र प्रताड़ित करने का विधान प्रस्तुत करती हैं । इस प्रकार गुप्त सम्राटों ने प्राचीन भारतीय दण्ड विधान को उदार एवं मृदु बनाने का यथेष्ट प्रयास किया था ।

‘जब हम इस देश में जासूसी तथा अपराधों के लिए कठोर दण्डों की प्राचीन परम्परा का स्मरण करते हैं, तो हमें यह मानने के लिये बाध्य होना पड़ता है कि ‘गुप्तों के प्रशासन ने प्राचीन भारतीय दण्ड विधान में मानवीय सुधार के एक नये युग का सूत्रपात किया था ।’

सैनिक संगठन:

गुप्त शासकों की सेना विशाल एवं सुसंगठित होती थी । सेना का सर्वोच्च अधिकारी ‘महाबलाधिकृत’ कहा जाता था । हाथियों की सेना के प्रधान को ‘महापीलुपति’ तथा घुड़सवारों की सेना के प्रधान को ‘भटाश्वपति’ कहते थे ।

सेना में सामानों की व्यवस्था रखने वाले प्रधान अधिकारी को ‘रणभाण्डागारिक’ कहते थे । गुप्तवंशी सम्राट स्वयं कुशल योद्धा होते थे तथा व्यक्तिगत रूप से युद्धों में भाग लेते एवं सेना का संचालन करते थे ।

मन्त्रियों के लिए भी सैनिक दृष्टि से योग्य होना आवश्यक था । प्रयाग प्रशस्ति में उस समय के कुछ प्रमुख अस्त्र-शस्त्रों के नाम इस प्रकार मिलते है- परशु, शर, शंकु, तोमर, भिन्दिपाल, नाराच आदि ।


2. गुप्त संस्कृति का प्रान्तीय शासन (Provincial Governance during Gupta Empire):

प्रशासन की सुविधा के लिये विशाल गुप्त साम्राज्य अनेक प्रान्तों में विभाजित किया गया था । प्रान्त को देश, अवनी अथवा भुक्ति कहा जाता धा । गुप्त प्रशासन के प्रमुख प्रान्त सुराष्ट्र, पश्चिमी मालवा (अवन्ति), पूर्वी मालवा (एरण), तीरभुक्ति, पुण्ड्रवर्धन, मगध आदि थे ।

भुक्ति के शासक को ‘उपरिक’ कहा जाता था जिसकी नियुक्ति सम्राट द्वारा की जाती थी तथा वह सम्राट के प्रति ही उत्तरदायी होता था । सीमान्त प्रदेशों के शासक ‘गोप्ता’ कहलाते थे जिनकी नियुक्ति सम्राट पर्याप्त सोच-विचार के बाद करता था ।

उपरिक के पद पर प्रायः राजकुमार अथवा राजकुल से सम्बन्धित व्यक्तियों की ही नियुक्ति की जाती थी परन्तु कभी-कभी अन्य योग्य व्यक्तियों को भी यह पद प्रदान कर दिया जाता था । चन्द्रगुप्त द्वितीय का छोटा पुत्र गोविन्दगुप्त तीरभुक्ति (आधुनिक दरभंगा) का तथा कुमारगुप्त प्रथम का पुत्र घटोत्कचगुप्त पूर्वी मालवा का राज्यपाल थी ।

कुमारगुप्त के समय में उत्तरी बंगाल में पुण्ड्रवर्द्धन नामक प्रान्त गुप्त साम्राज्य के अन्तर्गत था जहाँ का शासक चिरादत्त था । स्कन्दगुप्त के समय में पर्णदत्त उसके साम्राज्य के पश्चिमी प्रदेश सुराष्ट्र का राज्यपाल था । इनकी नियुक्ति प्रायः पाँच वर्षों के लिये की जाती थी ।


3. गुप्त संस्कृति का भूमि एवं राजस्व (Land and Revenue of Gupta Empire):

गुप्त युग में सिद्धान्तत: भूमि पर सम्राट का स्वामित्व माना जाता था । राजकीय भूमि के अतिरिक्त ऐसी भी भूमि थी जिन पर कृषकों का निजी स्वामित्व होता था । मन्दिरों तथा ब्राह्मणों को जो भूमि दान में दी जाती थी उसे ‘अग्रहार’ कहा जाता था । इस प्रकार की भूमि सभी करों से मुक्त होती थी तथा इनके ऊपर धारकों का पूर्ण स्वामित्व होता था ।

ऐसे भूमिदानों का उद्देश्य एकमात्र शैक्षणिक एवं धार्मिक था । यद्यपि आर. एस. शर्मा इन्हें सामन्तवाद के उदय का एक महत्वपूर्ण कारण मानते हैं तथापि हमारे पास एक भी उदाहरण ऐसा नहीं है जिससे यह सिद्ध हो सके कि कोई दानग्राही ब्राह्मण जागीरदार अथवा सामन्त बन गया हो ।

बी. एन. एस. यादव के अनुसार- ‘ब्राह्मणों को दी गयी भूमि, जो मुश्किल से एक गाँव से अधिक रही होगी, राजनीतिक सामन्तवाद का स्थायी आधार नहीं हो सकती थी, विशेषकर ऐसे समय में जबकि दानग्राही धार्मिक तथा बौद्धिक प्रयोजनों में संलग्न रहे हों ।’

धार्मिक अनुदानों को सम्राट ग्रहीता के आचरण से अप्रसन्न होकर समाप्त कर सकता था तथा उन्हें दूसरे योग्य व्यक्ति को दे सकता था । गुप्त राजाओं ने भूमि के विकास की ओर विशेष ध्यान दिया था ।

भूमिकर संग्रह करने के लिए ‘ध्रुवाधिकरण’ तथा भूमि-आलेखों को सुरक्षित करने के लिए ‘महाक्षपटलिक’ और ‘करणिक’ नामक पदाधिकारी थे । ‘न्यायाधिकरण’ नामक पदाधिकारी भूमि-सम्बन्धी विवादों का निपटारा करते थे । सिंचाई की उत्तम व्यवस्था थी ।

गुप्त शासकों ने कुएँ, तालाब, नहरों आदि का निर्माण करवाया था । सम्राट स्कन्दगुप्त के जूनागढ़ के राज्यपाल पर्णदत्त के पुत्र चक्रपालित ने गिरनार में सुदर्शन झील के बाँध का पुनर्निर्माण करवाया था । जो लोग राजकीय भूमि पर कृषि करते थे उन्हें अपनी उपज का एक भाग राजा को कर के रूप में देना पड़ता था जो सामान्यतः यह छठा भाग होता था ।

गुप्त अभिलेखों में भूमिकर को ‘उद्रंग’ तथा ‘भागकर’ कहा गया है । स्मृति ग्रन्थों में इसे राजा की ‘वृत्ति’ कहा गया है । नारद के अनुसार राजा प्रजा रक्षण के बदले में उपज का षष्ठांश राजस्व के रूप में प्राप्त करने का अधिकारी होता है ।

कालिदास लिखते हैं कि तपस्वियों के तप की रक्षा तथा सम्पत्ति की चोरों से रक्षा करने के बदले में राजा चारों आश्रमों तथा वर्णों से उनके धन के अनुसार छठां भाग प्राप्त करता है । इस प्रकार यह स्पष्ट है कि गुप्तकाल में राजस्व उपज का छठा भाग ही लिया जाता था । भूमिकर नकद अथवा अन्न दोनों में दिया जा सकता था ।

राजस्व की दूसरी प्रमुख स्रोत चुंगी थी जो नगर में आने वाली वस्तुओं के ऊपर लगायी जाती थी । किसी-किसी स्थान पर ‘भूतोपात्तप्रत्याय’ नामक कर का उल्लेख मिलता है । अल्तेकर के अनुसार यह ‘राज्य में उत्पन्न होने वाली वस्तुओं (भूत) तथा भीतर आयात की जाने वाली वस्तुओं (उपात्त) के ऊपर लगाया जाने वाला कर था ।’

समकालीन लेखों में ‘विष्टि’ (बेगार) का भी उल्लेख मिलता है । संभवतः इस काल में यह भी एक प्रकार का कर था । किन्तु गुप्त राजाओं के किसी भी लेख में इसका उल्लेख नहीं मिलता है । वात्सायन के कामसूत्र से पता चलना है कि गाँवों, में किसान स्त्रियों को मुखिया के घर के विविध प्रकार के काम, जैसे- अनाज रखना, धर की सफाई, खेतों पर काम करना आदि करने के लिये बाध्य किया जाता था और इसके बदले में उन्हें कोई मजदूरी नहीं मिलती थी । कुछ विद्वान् इस विवरण के आधार पर गुप्तकाल में विष्टि के व्यापक रूप से प्रचलित होने का निष्कर्ष निकालते हैं ।

इसके अतिरिक्त व्यापारिक वस्तुओं, चारागाहों, वनों, नमक आदि पर भी कर लगते थे जिससे राज्य को प्रभूत आय होती थी । सीमा, बिक्री की वस्तुओं, आदि पर जो कर लगते थे उसे ‘शुल्क’ कहा जाता था । स्कन्दगुप्त के बिहार लेख में ‘शौल्किक’ नामक पदाधिकारी का उल्लेख मिलता है ।

वह सीमा शुल्क विभाग का अधीक्षक होता था । संभवतः उसे व्यापारियों और सौदागरों के माल पर कर लगाने तथा उसे वसूल करने का अधिकार था । राज्य की आय का एक अन्य महत्वपूर्ण स्रोत भूमिरत्न, खानों की खुदाई तथा नमक का उत्पादन था ।

इन सभी के ऊपर राज्य का एकाधिकार होता था । अपराधियों के ऊपर जो जुर्माने लगाये जाते थे उनसे भी पर्याप्त धन राजकोष में जमा होता था । गुप्त युग की कर-व्यवस्था उदार सिद्धान्तों पर आधारित थी ।

इस काल की रचना कामन्दकीय नीतिसार में शासक को सलाह दी गयी है कि- ‘जिस प्रकार सूर्य अपनी किरणों से जल ग्रहण करता है, उसी प्रकार प्रजा से राजा थोड़ा-थोड़ा धन ग्रहण करें ।’

राजा के आचरण की तुलना ग्वाले तथा माली से करते हुए कामन्दक लिखते हैं कि- ‘जिस प्रकार ग्वाला पहले गाय का पोषण करता है तथा फिर उसका दूध दुहता है तथा जिस प्रकार माली पहले पौधों को सींचता है तथा फिर उनका चयन करता है, उसी प्रकार राजा को पहले प्रजा का पोषण करना चाहिए और फिर बाद में उससे कर ग्रहण करना चाहिये ।’

अत: हम कह सकते हैं कि गुप्त सम्राटों ने इस आदर्श का अवश्यमेव पालन किया होगा । इस प्रकार गुप्त प्रशासन के विभिन्न पहलुओं पर विचार करने के पश्चात् यह स्पष्ट हो जाता है कि गुप्त सम्राटों ने जिस विस्तृत प्रशासनिक व्यवस्था का निर्माण किया वह अत्यन्त उदार एवं सुसंगठित थी ।

राज्य में पूर्ण शान्ति एवं व्यवस्था का वातावरण विद्यमान था । तभी तो फाहियान जैसे विदेशी को भी इस सम्बन्ध में किसी प्रकार की शिकायत का अवसर नहीं मिल सका था । गुप्तचरों एवं पुलिस अधिकारियों के आचरण से प्रजा को कोई कष्ट नहीं था । गुप्त नरेशों ने मौर्य शासन के अनेक कड़े नियमों को उदार एवं जनहितकारी बना दिया ।

गुप्त काल में ही प्रथम बार नगरों तथा ग्रामों में स्थानीय शासन का विकास किया गया और ग्राम सभाओं को वास्तविक अधिकार प्रदान किये गये । इस लोकोपकारी प्रशासन का परिणाम राज्य की समृद्धि के रूप में प्रकट हुआ ।

भौतिक समृद्धि के साथ ही साथ नैतिक उत्थान भी हुए । सम्राट स्कन्दगुप्त के जूनागढ़ अभिलेख की अग्रलिखित पंक्तियाँ इस लोकोपकारी शासन-व्यवस्था का सही चित्र उपस्थित करती हैं ।  अर्थात् ‘जिस समय वह राजा शासन कर रहा था कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं था जो धर्मच्युत हो, दु:खी हो, दरिद्र हो, व्यसनी हो, लोभी हो अथवा दण्डनीय होने के कारण अधिक सताया गया हो ।’

गुप्त युग की शान्ति एवं समृद्धि ने संस्कृति के सभी क्षेत्रों को समुचित विकास का अवसर प्रदान किया । अत: ‘हम गुप्त शासन-व्यवस्था पर गर्व कर सकते हैं जो समकालीन एवं परवर्ती युग के राज्यों के लिए आदर्श स्वरूप बनी रही ।’


4. गुप्त संस्कृति का साहित्य और विज्ञान (Literature and Science of Gupta Empire):

गुप्तयुग से साहित्य और विज्ञान के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुई । गुप्त साम्राज्य की स्थापना के साथ ही संस्कृत भाषा की उन्नति को बल मिला तथा यह राजभाषा के पद पर आसीन हुई । गुप्त शासक स्वयं संस्कृत भाषा और साहित्य के प्रेमी थे तथा उन्होंने योग्य कवियों, लेखकों एवं साहित्यकारों को राज्याश्रय प्रदान किया था । प्रयाग प्रशस्ति समुद्रगुप्त को ‘कविराज’ कहती है जिसकी रचनायें विद्वानों की जीविका की स्रोत थीं ।

परन्तु दुर्भाग्यवश हमें उसकी किसी भी रचना के विषय में ज्ञात नहीं है । चन्द्रगुप्त द्वितीय भी बड़ा विद्वान एवं साहित्यानुरागी था जिसकी राजसभा नवरत्नों से अलंकृत थी । गुप्तयुगीन कवियों में सबसे पहला उल्लेख उनका किया जा सकता है जिनकी रचनायें तो हमें प्राप्त नहीं है लेकिन जिनके विषय में मात्र हम उनके द्वारा रचित प्रशस्तियों से ही जानते हैं ।

ये प्रशस्तियाँ संस्कृत काव्य का सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत करती हैं । इस प्रकार के कवियों में तीन नाम विशेष रूप से उल्लेखीय है- हरिषेण, वीरसेनशाब तथा वत्सभट्टि । हरिषेण सम्राट का सेनापति एवं विदेश सचिव था ।

उसकी सुप्रसिद्ध कृति ‘प्रयाग-प्रशस्ति’ है जिसे इसमें ‘काव्य कह गाय है । इसका आधा भाग पद्य में तथा आधा गद्य में है और इस प्रकार यह चम्पू काव्य का सुन्दर उदाहरण है । यह विशुद्ध संस्कृत में लिखा गया है ।

हरिषेण वैदर्भी एवं गौड़ी शैलियों का आचार्य था जो इस प्रशस्ति से स्पष्ट है । इस प्रशस्ति की शैली बड़ी ही मनोरम है तथा शब्द-चयन एवं अलंकारों का प्रयोग बड़ी ही कुशलता एवं सुन्दरता के साथ किया गया है । इस प्रकार साहित्य और इतिहास दोनों ही दृष्टियों से प्रयाग-प्रशस्ति का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है ।

वीरसेन ‘शाब’ चन्द्रगुप्त द्वितीय का युद्ध-सचिव था । उसकी रचना उदयगिरि गुहालेख है जिसमें उसे ‘शब्द, अर्थ, न्याय, व्याकरण, राजनीति आदि का मर्मज्ञ, कवि एवं पाटलीपुत्र का निवासी’ कहा गया है । इसी प्रकार वत्सभट्टि कुमारगुप्त प्रथम का दरबारी कवि था । वह संस्कृत का प्रकाण्ड विद्वान था जिसने मन्दसोर प्रशस्ति की रचना की थी ।

इसकी रचना मालव संवत् 529 (472 ईस्वी) में की गयी । इसमें दशपुर में सूर्य मन्दिर बनवाये जाने का वर्णन है । प्रशस्ति में कुल 44 श्लोक हैं । इसकी भाषा प्राञ्जल एवं मनोरम है जिसमें अर्थ-गौरव की प्रचुरता है । अलंकारों की छटा निराली है । भाषा तथा भावों पर कालिदास का प्रभाव स्पष्टतः परिलक्षित होता है । सम्पूर्ण रचना वैदर्भी शैली में लिखे गये काव्य का अत्युत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करती है ।

गुप्तयुग के साहित्यिक कवियों में अधिकतर के विषय में पर्याप्त मतभेद है । संस्कृत के सुप्रसिद्ध कवि कालिदास की तिथि के विषय में बहुत अधिक विवाद है जो अभी तक सुलझ नहीं पाया है । अधिकांश इतिहासकार उन्हें चन्द्रगुप्त द्वितीय का समकालीन मानते हैं ।

वस्तुतः उनकी रचनाओं में जिस समाज एवं संस्कृति की झांकी सुरक्षित है, वह गुप्तकाल की ही प्रतीत होती है । सात ग्रन्थों के प्रणयन का श्रेय कालिदास को दिया जाता है- रघुवंश, कुमारसंभव, मेघदूत, ऋतुसंहार, मालविकाग्निमित्र, विक्रमोर्वशीय तथा अभिज्ञान शाकुन्तलम् ।

इनमें प्रथम दो महाकाव्य, दो खण्डकाव्य (गीतिकाव्य) तथा तीन नाटक ग्रन्थ हैं । ‘रघुवंश’ 19 सर्गों का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य है जिसमें राम के पूर्वजों का वर्णन, उनका गुणगान तथा उनके वंशजों का चित्रण हुआ है । कुमारसंभव में 17 सर्ग हैं जिनमें प्रकृति-चित्रण तथा कार्त्तिकेय जन्म की कथा वर्णित है ।

ऋतुसंहार में षड्ऋतु वर्णन तथा मेघदूत में विरही यक्ष एवं उसकी प्रियतमा का वियोग वर्णन चित्रित है । मेघदूत विरह की अत्युत्कृष्ट रचना है । मालविकाग्निमित्र पाँच अंकों का नाटक है जिसमें मालविका और अग्निमित्र की प्रणय कथा वर्णित है । विक्रमोर्वशीय में उर्वशी तथा पुरूरवा की प्रणय कथा है ।

अभिज्ञान शाकुन्तलम् सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य का सर्वोत्कृष्ट नाटक है जिसके सात अंकों में हस्तिनापुर के राजा दुष्यन्त तथा शकुन्तला के प्रणय, वियोग एवं पुनर्मिलन की कथा वर्णित है । इस नाटक को अत्यधिक ख्याति एवं प्रशंसा मिली है तथा इसका अनुवाद विदेशी भाषाओं में किया जा चुका है ।

प्रसिद्ध जर्मन कवि गेटे ने इस नाटक की प्रशंसा में लिखा है- ‘यदि तुम बसन्त का पुष्प सौरभ तथा इसके अन्त के फलों को देखना चाहते हो, यदि वह सब कुछ देखना चाहते हो जिसके द्वारा आत्मा आकर्षित, मुग्ध एवं तृप्त होती है, यदि स्वर्ग तथा पृथ्वी को एक नाम के अन्तर्गत देखना चाहते हो तो मैं तुम्हें शकुन्तला पढ़ने को कहूँगा इसके साथ ही सब कुछ कह दिया जायेगा ।’

कालिदास की उपमायें संस्कृत साहित्य में प्रसिद्ध है, जैसा कि कहा भी गया है- ‘उपमा कालिदासस्य…..।’ कालिदास को ‘भारत का शेक्सपीयर’ कहा जाता है । कालिदास के अतिरिक्त गुप्तकाल की कुछ अन्य साहित्यिक विभूतियों हैं- भारवि, शूद्रक एव विशाखदत्त ।

भारवि ने 18 सर्गों का ‘किरातार्जुनीय’ महाकाव्य लिखा । वे अपने अर्थगौरव के लिये प्रसिद्ध हैं (भारवेरर्थ गौरवम्) । शूद्रक ने मृच्छकटिक नाटक लिखा जिसमें कुल 10 अंक है । इसमें चारुदत्त नामक एक निर्धन ब्राह्मण तथा वसन्तसेना नामक वेश्या की प्रणय कथा वार्णित है ।

विशाखदत्त इस काल के अति प्रसिद्ध नाटककार हुए जिन्होंने मुद्राराक्षस एवं देवीचन्द्रगुप्तम् नामक नाटक अन्यों की रचना की । ये दोनों ग्रन्थ राजनीतिक घटनाओं से परिपूर्ण हैं । कुछ विद्वान् वासवदत्ता के रचयिता सुबन्धु को भी गुप्तकालीन मानते हैं । इस काल के धार्मिक ग्रन्थों में याज्ञवल्क्य, नारद, कात्यायन, बृहस्पति आदि की स्तुतियों का उल्लेख किया जा सकता है ।

गुप्तकाल में ही पुराणों के वर्तमान रूप का संकलन हुआ तथा रामायण और महाभारत को भी अन्तिम रूप प्रदान किया गया । बंगाल के विद्वान चन्द्रगोमिन् ने ‘चान्द्रव्याकरण’ नामक संस्कृत व्याकरण ग्रन्थ की रचना की तथा अमरसिहं नामक लेखक ने ‘अमरकोश’ लिखा ।

विष्णुवर्मा ने ‘पञ्चतन्त्र’ नामक प्रसिद्ध कथा-संग्रह लिखा । इसमें लोकप्रिय एवं मनोहर कहानियों का संग्रह है । इस ग्रन्थ का अनुवाद 50 से अधिक भाषाओं में किया जा चुका है । कामन्दक का नीतिसार तथा वात्स्यायन का कामसूत्र इसी काल की रचनायें हैं । इसके अतिरिक्त गुप्तकाल में अनेक जैन तथा बौद्ध विद्वान उत्पन्न हुए जिन्होंने अपनी कृतियों से साहित्य को सजाया ।

गुप्त संस्कृति का विज्ञान:

गुप्त युग में विज्ञान की विविध शाखाओं- अंकगणित, ज्योतिष, रसायन, धातु-विज्ञान आदि का सम्यक् विकास हुआ । इस समय के प्रसिद्ध गणितज्ञ आर्यभट्ट थे जिनकी प्रमुख कृति ‘आर्यभट्टीयम्’ है । इन्होंने गणित के विविध नियमों का प्रतिपादन किया तथा सर्वप्रथम यह खोज की कि पृथ्वी अपनी धुरी के चारों ओर परिभ्रमण करती है । प्रख्यात् ज्योतिषाचार्य वाराहमिहिर गुप्त युग के अन्यतम विभूति थे ।

उनकी सर्वप्रमुख रचना ‘बृहज्जातक’ है । उन्होंने विभिन्न ग्रहों एवं नक्षत्रों की स्थिति पर विचार किया । वाराहमिहिर की अन्य रचनाओं में पञ्चसिद्धान्तिका, बृहत्संहिता, लघुजातक आदि प्रमुख हैं । पञ्चसिद्धान्तिका में उस समय भारत में प्रचलित ज्योतिष के सिद्धान्तों का विवरण मिलता है । चन्द्रगुप्त द्वितीय को मेहरौली लौह स्तम्भलेख गुप्तकालीन धातु-विज्ञान के समुन्नत होने का ज्जलंत प्रमाण है ।

यह लगभग डेढ़ हजार वर्षों से सर्दी, गर्मी एवं बरसात को झेलता हुआ ज्यों-का-त्यों पड़ा हुआ है और इस पर किसी प्रकार की जंग नहीं लगने पाई है । इस स्तम्भ-लेख की पालिश आज भी धातु वैज्ञानिकों के लिये आश्चर्य की वस्तु बनी हुई है ।


5. गुप्त संस्कृति का कला और स्थापत्य (Art and Architecture of Gupta Empire):

संस्कृति के विविध क्षेत्रों के साथ ही साथ कला और स्थापत्य के क्षेत्र में भी गुप्त युग की उपलब्धियाँ भारतीय इतिहास के पृष्ठों में अत्यन्त महत्वपूर्ण है । वस्तुतः इस काल की कीर्ति कला दृश्य रचनाओं द्वारा चिरस्थायी बना दी गयी है ।

इस में सम्पूर्ण उत्तर भारत में हमें एक अद्भुत कलात्मक क्रियाशीलता दिखाई देती है । कला की विविध विधाओं, जैसे वास्तू, स्थापत्य, चित्रकला, मृद्‌भांड कला आदि का इस युग में सम्यक् विकास हुआ । धर्म एवं कला का समन्वय स्थापित हुआ तथा कला पर से विदेशी प्रभाव क्रमशः समाप्त हो गया ।

वास्तु-कला- मन्दिर:

गुप्तयुगीन वास्तुकला के सर्वोत्तम उदाहरण मन्दिर हैं । वस्तुतः मन्दिर के अवशेष हमें इसी काल से मिलने लगते हैं ।

गुप्तकालीन मन्दिरों की कुछ सामान्य विशेषतायें हैं जो इस प्रकार है:

i. गुप्तकालीन मन्दिरों का निर्माण सामान्यतः एक ऊँचे चबूतरे पर हुआ था जिन पर चढ़ने के लिये चारों ओर से सीढ़ियों बनाई गयी थीं ।

ii. प्रारम्भिक मन्दिरों की छतें चपटी होती थीं किन्तु आगे चलकर शिखर भी बनाये जाने लगे ।

iii. मन्दिर के भीतर एक चौकोर अथवा वर्गाकार कक्ष बनाया जाता था जिसमें मूर्ति रखी जाती थी । यह मन्दिर का सबसे महत्वपूर्ण भाग था जिसे ‘गर्भगृह’ कहा जाता था ।

iv. गर्भगृह तीन ओर से दीवालों से घिरा होता था जबकि एक ओर प्रवेशद्वार बना रहता था ।

v. पहले गर्भगृह की दीवारें सादी होती थीं किन्तु बाद में चलकर उन्हें मूर्तियों तथा अन्य अलंकरणों से सजाया जाने लगा ।

vi. गर्भगृह के चारों ओर ऊपर से आच्छादित प्रदक्षिणा-मार्ग बना होता था ।

vii. गर्भगृह के प्रवेशद्वार पर बने चौखट पर मकरवाहिनी गंगा और कूर्मवाहिनी यमुना की आकृतियाँ उत्कीर्ण मिलती हैं जो गुप्तकला की अपनी विशेषता है । ऊपर के शिरापट्ट तथा पार्श्व भाग में भी हंस-मिथुन, स्वस्तिक, श्रीवृक्ष, मंगलकलश, शंख, पद्म आदि पवित्र मांगलिक चिह्नों एवं प्रतीकों का भी अंकन किया गया है ।

द्वार के अलंकरण के सम्बन्ध में वाराहमिहिर का मत है कि द्वार-शाखा के चौथाई भाग में प्रतिहारी (द्वारपाल) तथा शेष में मंगल विहग, श्रीवृक्ष, स्वस्तिक, घट, मिथुन, पत्रवल्ली आदि का अंकन होना चाहिए । कालिदास ने भी शंख तथा पद्म के अंकन का उल्लेख किया है ।

viii. पहले गर्भगृह के सामने एक स्तम्भ-युक्त मण्डप बनाया जाता था किन्तु बाद में चलकर इसे गर्भगृह के चारों ओर बनाया जाने लगा । द्वार स्तम्भ अलंकृत होते थे जिनमें पूर्णकलश की आकृति बनी रहती थी । कलश से पुष्प बाहर निकलते हुए दिखाई देते हैं ।

ix. मन्दिर के वर्गाकार स्तम्भों के शीर्षभाग पर चार सिंहों की मूर्तियां एक दूसरे से पीठ सटाये हुए बनाई गयी है ।

x. गर्भगृह में केवल मूर्ति स्थापित रहती थी । उसमें उपासकों के एकत्र होने का कोई स्थान नहीं बनाया गया था ।

xi. गुप्तकाल के अधिकांश मन्दिर पाषाण निर्मित हैं । केवल भीतरगाँव तथा सिरपुर के मन्दिर ही ईटों से बनाये गये हैं ।

इस काल के कुछ प्रमुख मन्दिर इस प्रकार हैं:

i. साँची का मन्दिर:

साँची के महास्तूप के दक्षिण-पूर्व की ओर बने इस मन्दिर को मन्दिर संख्या 17 कहा जाता है । यह गुप्तकाल का प्रारम्भिक मन्दिर है जिसका आकार छोटा है, छत सपाट है, गर्भगृह चौकोर है तथा इसके सामने छोटा स्तम्भ-युक्त मण्डप बना हुआ है । स्तम्भों पर घण्टाकृति तथा शीर्ष बने हुये हैं ।

ii. तिगवां का विष्णु मन्दिर:

मध्य प्रदेश के जबलपुर जिले के समीप स्थित तिगवां नामक स्थान से यह मन्दिर मिलता है । इसके गर्भगृह का व्यास लगभग आठ फुट है जिसके सामने चार स्तम्भों पर टिका हुआ लगभग सात फुट का एक छोटा मण्डप बना है ।

स्तम्भों के ऊपर कलश तथा कलशों के ऊपर सिंह की मूर्तियाँ बनाई गयी हैं । प्रवेशद्वार के पार्श्वों पर गंगा तथा यमुना की आकृतियाँ उनके वाहनों के साथ उत्कीर्ण मिलती हैं ।

iii. एरण का विष्णु मन्दिर:

मध्य प्रदेश के सागर जिले में एरण नामक स्थान पर भी इस काल में विष्णु का एक मन्दिर बना था जो अब ध्वस्त हो चुका है । मन्दिर के गर्भगृह का द्वार तथा उसके सामने खड़े दो स्तम्भ मात्र आज अवशिष्ट है । स्तम्भ शीर्ष, गज, सिंह, नारीमुख आदि अभिप्रायों से अलंकृत हैं ।

iv. नचना-कुठार का पार्वती मन्दिर:

मध्य प्रदेश के पन्ना जिले में अजयगढ़ के समीप नचना-कुठार नामक स्थान पर यह मन्दिर प्राप्त होता है । इसका निर्माण लगभग 35′ के वर्गाकार चबूतरे पर किया गया है । गर्भगृह साढ़े आठ फुट चौड़ा है जिसके चारों ओर ढका हुआ बरामदा है ।

यह प्रदक्षिणापथ था । गर्भगृह के सामने स्तम्भ-युक्त मण्डप है । मन्दिर पर चढ़ने के लिये चबूतरे में चारों ओर सोपान बनाये गये हैं । मन्दिर की छत सपाट है । गर्भगृह की दीवारों को अलंकरणों से सुसज्जित किया गया है ।

v. भूमरा का शिव मन्दिर:

मध्य प्रदेश के सतना जिले में भूमरा नामक स्थान से पाषाण निर्मित इस मन्दिर का गर्भगृह प्राप्त हुआ है । इसके प्रवेशद्वार के पार्श्वों पर गंगा-यमुना की आकृतियाँ बनी हुई हैं ।

इसके द्वार की चौखट भी अलंकरणों से सजायी गयी है । मन्दिर की छत चिपटी है । गर्भगृह के भीतर एकमुखी शिव-लिंग स्थापित किया गया है । उसके सामने स्तम्भयुक्त मण्डप तथा चारों ओर प्रदक्षिणा-पथ मिलता है ।

सतना जिले में ही उचेहरा के पास पिपरिया नामक स्थान से 1968 ई. में के. डी. वाजपेयी ने एक विष्णु मन्दिर तथा मूर्ति की खोज की थी । यहाँ गर्भगृह का अलंकृत द्वार मिला है ।

द्वार-स्तम्भों तथा सिरदल पर पूर्णघट, पत्रावली, नगरमुख, व्याघ्रमुख आदि अलंकरण मिलते हैं । वाराह-अवतार, नवग्रह आदि भी द्वार पर अंकित है । विष्णु की प्रतिमा मन्दिर के पास से ही मिली है । इसके अतिरिक्त सतना में खोह, ऊँचेहरा, नागौद तथा जबलपुर में मढ़ी नामक स्थानों से भी गुप्त-कालीन मन्दिरों के अवशेष प्राप्त होते हैं ।

vi. देवगढ़ का दशावतार मन्दिर:

उत्तर प्रदेश के ललितपुर (प्राचीन झांसी) जिले में देवगढ़ नामक स्थान से यह मन्दिर प्राप्त हुआ है । सभी मन्दिरों में देवगढ़ का दशावतार मन्दिर सर्वाधिक सुन्दर है जिसमें गुप्त मन्दिरों की सभी विशेषतायें प्राप्त हो जाती हैं ।

इसका ऊपरी भाग नष्ट हो गया है । मन्दिर का निर्माण एक ऊँचे एवं चौड़े चबूतरे पर किया गया है । मन्दिर के गर्भगृह का प्रवेशद्वार आकर्षक तथा कलापूर्ण है । उसे द्वारपालों, नदी-देवताओं आदि की मूर्तियों से सजाया गया है ।

मन्दिरों की दीवारों पर शेषशय्या पर शयन करते हुये भगवान विष्णु, नरनारायण, गजेन्द्रमोक्ष आदि के सुन्दर दृश्य उत्कीर्ण हैं । रामायण तथा महाभारत के कई मनोहारी दृश्यों का अंकन भी इसमें प्राप्त होता है । गर्भगृह के ऊपर पिरामिडनुमा ऊँचा तिहरा शिखर मिलता है । इसके चारों दिशाओं में चैत्याकार कीर्तिमुख (गवाक्ष) तथा इसके ऊपर बीच में खरबुजिया आकार का विशाल आमलक बना था । इस प्रकार के एक से अधिक मंजिल वाले प्रासाद को ‘बहुभूमिक’ कहा जाता था । सबसे ऊपरी मंजिल (भूमि) को अग्रभूमि कहते थे जिसके ऊपर पाषाण आमलक तथा एक कलश स्थापित रहता था ।

इस प्रकार जहाँ अन्य मन्दिरों की छतें सपाट हैं, वहाँ यह मन्दिर शिखर मन्दिर का पहला उदाहरण है । इसे गुप्तकाल के उत्कृष्ट वास्तु का नमूना भी माना जा सकता है । इसके अनेक तत्वों को बाद के मन्दिरों में ग्रहण किया गया है ।

पर्सी ब्राउन के शब्दों में- सम्पूर्ण भवन अपने अंगों के सटीक नियोजन की दृष्टि से, जो सभी व्यवहारिक रूप से उपयोगी होते हुए भी उच्चतम कलात्मक भावना से परिपूर्ण थे, निःसंदेह असाधारण उत्कृष्टता का था । देवगढ़ के गुप्त मन्दिर के समान तक्षण क्षमता की परिपक्वता एवं परिष्कार सम्पन्नता से युक्त उच्चस्तरीय कारीगरी बहुत कम स्मारक प्रदर्शित कर सकते हैं ।

vii. भीतरगांव का मन्दिर:

यह उत्तर प्रदेश के कानपुर जिले में स्थित है । इस मन्दिर का निर्माण ईंटों से किया गया है । मन्दिर एक वर्गाकार चबूतरे पर बना है । इसका गर्भगृह भी वर्गाकार है । गर्भगृह के सामने मण्डप है । देवगढ़ के समान भीतरगाँव का मन्दिर भी शिखरयुक्त है जिसका शिखर लगभग 70 फुट ऊंचा था । शिखर में चैत्याकार मेहराब बनाये गये हैं ।

बाहरी दीवारों में बने ताखों में हिम देवी देवताओं- गणेश, आदिवाराह, दुर्गा, नदी देवता आदि की मृण्मूर्तियाँ रखी गयी हैं । साथ ही साथ दीवारों को रामायण, महाभारत तथा पुराणों के विविध आख्यानों से सजाया गया है ।

सम्पूर्ण रचना भव्य एवं आकर्षक है । भारत में प्राप्त डाट-पत्थर मेहराब का प्राचीनतम उदाहरण होने के साथ-साथ भीतरगाँव का मन्दिर ईंट निर्मित भवन का भी सबसे प्राचीन उदाहरण प्रस्तुत करता है ।

मध्य प्रदेश के रायपुर जिले के सिरपुर नामक स्थान से ईंटों द्वारा निर्मित एक अन्य मन्दिर प्राप्त होता है जिसका मात्र गर्भगृह अवशिष्ट है । इसे ‘लक्ष्मण मन्दिर’ कहा जाता है तथा इसका वास्तु भीतरगाँव मन्दिर के ही समान है ।

प्रवेश-द्वार के पार्श्व, डाट तथा चौखट के ऊपर गुप्तकालीन अलंकरण उत्कीर्ण मिलते हैं । इसी मन्दिर के समीप से ईंटों के बने हुए दो और मन्दिरों राम तथा जानकी मन्दिर के अवशेष भी प्राप्त होते हैं ।

उपर्युक्त प्रमुख मन्दिरों के अतिरिक्त राजस्थान के कोटा से मुकुन्द दर्रा (कोटा का दर्रा) मन्दिर प्राप्त हुआ है जिसे प्रारम्भिक गुप्त मन्दिर का अच्छा उदाहरण माना जा सकता है ।

इसका निर्माण एक ऊँचे आयताकार चबूतरे पर किया गया है जिस पर चढ़ने के लिये सीढ़ियाँ बनी हैं । इसका गर्भगृह चार स्तम्भों पर टिका है तथा उसके सम्मुख स्तम्भयुक्त मुखमण्डप है । गुप्तकालीन मन्दिर ईंट-पत्थर से बने प्राचीनतम संरचनात्मक मन्दिर हैं ।

ये आकार-प्रकार में छोटे हैं । इनमें वर्गाकार गर्भगृह तथा लघु आकार का मण्डप मिलता है जिसमें उपासकों के बैठने के लिये कोई स्थान नहीं था । ये पूर्व मध्यकालीन मन्दिरों से स्पष्टतः भिन्न हैं जिनमें उत्तुंग शिखर तथा विशाल मण्डप बनाये जाते थे ।

फिर भी देवगढ़ मन्दिर को देखने से ऐसा आभास मिलता है कि शिखर तथा मण्डप शैली में संक्रमण प्रारम्भ हो चुका था । उत्तर भारत के मन्दिर वास्तु की नागर शैली के अनिवार्य अंग, वक्र रेखीय पतले शिखर का प्रादुर्भाव, छठी-सातवीं शताब्दी तक नहीं हो पाया था ।


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