सैन्धव सभ्यता: सामाजिक तथा आर्थिक जीवन | Sindhu Civilization: Social and Economic Life in Hindi Language.

सैन्धव निवासियों का सामाजिक जीवन (Social Life of Citizen of Sindh):

सैन्धव निवासियों का सामाजिक जीवन सुखी तथा सुविधापूर्ण था । उनकी सामाजिक व्यवस्था का मुख्य आधार परिवार रहा होगा । खुदाई में प्राप्त बहुसंख्यक नारी मूर्तियों से ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि उनका परिवार मातृसत्तात्मक था । मोहेनजोदड़ों की खुदाई में प्राप्त अवशेषों से वहाँ के समाज में विभिन्न वर्गों के अस्तित्व का प्रमाण मिलता है ।

इन्हें चार वर्गों में बांटा जा सकता है- विद्वान्-वर्ग, योद्धा, व्यापारी तथा शिल्पकार और श्रमिक । विद्वान वर्ग के अन्तर्गत सम्भवत पुजारी, वैद्य, ज्योतिषी तथा जादूगर सम्मिलित थे । समाज में संभवतः पुरोहितों का सम्मानित स्थान था । हड़प्पा के विभिन्न आकार-प्रकार के मकानों के आधार पर कुछ विद्वान् समाज में जाति प्रथा के प्रचलित होने का अनुमान करते हैं ।

खुदाई में तलवार, पहरेदारों के भवन तथा प्राचीरों के अवशेष मिलते है जिनके आधार पर समाज में क्षत्रियों से मिलते-जुलते किसी योद्धा वर्ग के होने का अनुमान लगाया जा सकता है । तीसरे वर्ग में अनेक व्यापारियों तथा शिल्पियों, जैसे पत्थर काटने वाले, खुदाई करने वाले, जुलाहे, स्वर्णकार आदि की गणना की जा सकती है ।

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अन्तिम वर्ग भृत्यों तथा श्रमिकों का था जिनमें चर्मकार, कृषक, मछुये आदि प्रमुख रहे होंगे । हड़प्पा की श्रमिक बस्तियों के आधार पर कुछ विद्वान् समाज में दास प्रथा के अस्तित्व का निष्कर्ष निकालते है । ह्वीलर का अनुमान है कि इनमें रहने वाले लोग दास ही थे । किन्तु राव इस निष्कर्ष से सहमत नहीं हैं ।

उल्लेखनीय है कि हड़प्पा की खुदाई में अत्यन्त विशाल तथा लघु मकान पास-पास स्थित मिलते हैं जो इस बात का प्रमाण है कि समाज में धनी-निर्धन का भेदभाव नहीं था तथा सभी लोग परस्पर मेल-मिलाप से रहते थे । मिसी तथा सुमेरियन समाज के समान सैन्धव समाज में दास प्रथा का अस्तित्व खोजना तर्कसंगत नहीं होगा ।

सैंधव लोग शाकाहारी तथा मांसाहारी दोनों प्रकार के भोजन करते थे । गेहूँ, जौ, चावल, तिल, दाल आदि उनके प्रमुख खाद्यान थे । शाक-सब्जियां, दूध तथा विभिन्न प्रकार के फलों जैसे खरबूजा, तरबूज, नारियल, नीबू, अनार आदि शाकाहारी भोजन में प्रमुख थे ।

भेड़, बकरी, सुअर, मुर्गी, बत्तख, घड़ियाल आदि के मांस तथा मछलियाँ खाई खाती थीं । इन जानवरों की अधजली हड्‌डियाँ प्राप्त हुई हैं । उनके वस्त्र सूती और ऊनी दोनों प्रकार के होते थे । खुदाई में सुइयों के अवशेष मिले है जिनसे पता चलता है कि उनके वस्त्र सिले होते थे ।

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स्त्रियां जूड़ा बाँधती थीं तथा पुरुष लम्बे-लम्बे बाल एवं दाढ़ी-मूंछ रखते थे । विविध प्रकार के आभूषण जैसे, कण्ठहार, कर्णफूल, हंसुली, भुजबंद, कड़ा, अंगूठी, करधनी आदि पहने जाते थे । हड़प्पा से सोने के मनकों वाला छ: लड़ियों का एक सुन्दर हार मिला है । छोटे-छोटे सोने तथा सेलखड़ी के मनकों वाले हार भी काफी संख्या में मिलते हैं ।

मोहेनजोदड़ों से मार्शल ने एक बड़े आकार का हार प्राप्त किया है जिसके बीच में गोमेद के मनके है । यहाँ से कार्नीलियन के मनकों का लम्बा हार भी मिलता है । कांचली मिट्‌टी, शंख तथा सेलखड़ी की बनी चूड़ियां मिलती हैं । हड़प्पा से सोने का बना एक बड़ा कंगन मिलता है । सोने, चाँदी तथा कांसे की नड़ियाँ, मिट्‌टी तांबे की अमृठियाँ आदि भी मिलती है ।

शृंड्गार-प्रसाधन की ओर विशेष ध्यान दिया जाता था । मोहेनजोदडों की नारियाँ काजल, पाउडर तथा शृंड्गार प्रसाधन की अन्य सामग्रियों से परिचित थीं । चन्हूदड़ों की खोजों से लिपिस्टिक के अस्तित्व का भी संकेत मिलता है । शीशे और कंघी का भी प्रयोग होता था । तांबे के दर्पण, छूरे, कन्घे, अंजन लगाने की शलाकायें शृंगारदान आदि भी मिले हैं ।

उनके आभूषण बहुमूल्य पत्थरों, हाथी-दाँत, हड्‌डी और शंख के बनते थे । खुदाई में घड़े, थालियां, कटोरे, तश्तरियाँ, गिलास, चम्मच आदि बर्तन मिलते है । ने लोग कुर्सी, चारपाई, स्कूल, चटाई का भी प्रयोग करते थे । नौशारो तथा मेहरगढ़ से प्राप्त मिट्टी की कुछ नारी मूर्तियों की मांग में लाल रंग भरा गया है । स्पष्टतः यह सिंदूर है । इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि मांग में सिन्दूर भरने की प्रथा हड़प्पाकालीन है ।

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सैंधव निवासी आमोद-प्रमोद के प्रेमी थे । पासा इस युग का प्रमुख खेल था । हड़प्पा से मिटटी, पत्थर तथा कांचली मिट्‌टी के बने सात पासे मिलते हैं । मोहेनजोदड़ो से भी मिट्‌टी तथा पत्थर के पासे मिलते हैं । विभिन्न स्थलों से आजकल के शतरंज की गोटियों से मिलती-जुलती मिट्टी, शंख, संगमरमर, स्लेट, सेलखड़ी आदि की बनी गोटियां भी मिलती हैं ।

लोथल से खेलने के बोर्ड के दो नमूने मिलते है । इनमें एक मिट्टी तथा दूसरा ईंट का बना है । विभिन्न स्थानों से पत्थर, सीप आदि की गोलियाँ भी मिलती है । कच्छ की खाड़ी के पच्चम द्वीप में स्थित कुरन (Kuran) नामक गाँव के समीप खुदाई में दो विस्तृत स्टेडियम मिले है जिनका उपयोग सामुदायिक बैठकों, सामाजिक कार्यक्रमों तथा खेलकूद जैसे सामाजिक कार्यों के लिये किया जाता था ।

भारतीय उपमहाद्वीप में केवल यहीं से स्टेडियम मिलते हैं जो दुर्ग के दक्षिणी छोर पर स्थित आयताकार है । इनमें दो प्रवेश द्वार है । पहले से दुर्ग तक जाया जाता था जबकि दूसरे से व्यक्ति स्टेडियम में जाता था । भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की बड़ोदरा की खुदाई शाखा के उत्खननकर्ताओं ने कच्छ की खाड़ी में चार माह के कठिन श्रम के पश्चात् इन्हें खोज निकाला है ।

अधीक्षण पुराविद् शुब्र प्रामाणिक के अनुसार नि:संदेह यह एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है । यदि लोथल अपनी गोदीबाड़ा के लिये प्रसिद्ध था तो कुरन क्षेत्र अपने स्टेडियम के लिये । नृत्य भी मनोरंजन का प्रिय साधन रहा होगा जैसा कि नर्तकी की मूर्ति से सूचित होता है । संभव है यहाँ के लोग गाने-बजाने के भी शौकीन रहे हों ।

मछली फंसाने के कई कांटे मिलते है । एक मुहर पर तौर से हिरन को मारते हुए दिखाया गया है । इससे स्पष्ट है कि लोग शिकार में भी रुचि रखते थे । मछली फँसाना तथा चिड़ियों का शिकार करना नियमित व्यवसाय था ।

मिट्‌टी की बनी खिलौना गाड़ियों के पहिए बड़ी संख्या में मिलते है । संभवतः बच्चे इन्हें गाड़ियों से जोड़कर मनोरंजन करते थे । माप-तौल में घनाकार बांटों का प्रयोग होता था । खुदाई में तराजू का भी अवशेष मिला है । दशमलव पद्धति से भी उनका परिचय था ।

उत्खनन में बहुसंख्यक अस्त्र-शस्त्र, औजारों व हथियारों के नमूने मिलते है । युद्ध अथवा शिकार में तीर-धनुष, परशु, भाला, कटार, गदा, तलवार आदि का प्रयोग होता था । अस्त्र-शस्त्र सामान्यतः तौबा अथवा काँसे के बनते थे । अन्य उपकरणों

में बरछा, कुल्हाड़ी, बसुली, आरा आदि प्रमुख हैं । आरे दाँतेदार होते थे । स्पष्ट है कि युद्ध संबन्धी उपकरण साधारण कोटि के हैं जो इस बात के साक्षी है कि इस सभ्यता के लोगों ने भौतिक सुख-सुविधा की ओर ही विशेष ध्यान दिया था ।

सैन्धव निवासियों का आर्थिक जीवन (Economic Life of Citizen of Sindh):

i. कृषि तथा पशुपालन:

सैन्धव निवासियों के जीवन का मुख्य उद्यम कृषि कर्म था । सिन्धु घाटी की भूमि अत्यन्त उपजाऊ थी । सिन्धु तथा उसकी सहायक नदियों प्रतिवर्ष उर्वरा मिट्टी बहाकर लाती थी जिनमें पैदावार काफी अच्छी होती थी । यहाँ के प्रमुख खाद्यान्न गेहूँ तथा जौ थे । खुदाई में गेहूं तथा जो के दाने मिलते है ।

संभवतः सिन्धु क्षेत्र में लोग धान की खेती करना नहीं जानते थे । गुजरात क्षेत्र में लोथल तथा रंगपुर के स्थलों से मृत्पिण्ड में लिपटे हुए धान की भूसी मिली है जो अत्यन्त निम्न-कोटि । धान की खेती किये जाने का स्पष्ट प्रमाण हुलास से मिलता है किन्तु यह उत्तरकालीन है ।

लोथल तथा रंगपुर से बाजरा की खेती किये जाने के प्रमाण मिलते हैं । रोजदी से बाजरे की छ: किस्में जैसे- सांवा, कोदो, रागी, ज्वार आदि पहचानी गयी है । हड़प्पा में मटर तथा तिल की खेती होती थी । सूती वस्त्रों के अवशेषों से निष्कर्ष निकलता है कि यहाँ के निवासी कपास उगाना भी जानते थे । सर्वप्रथम यहीं के निवासियों ने कपास की खेती प्रारम्भ किया था ।

ऐतिहासिक काल में मेसोपोटेमिया में कपास के लिये ‘सिन्धु’ शब्द का प्रयोग किया जाने लगा तथा यूनानियों ने इसे सिन्डन (Sindon) कहा जो सिन्धु का ही यूनानी रुपान्तर है । फलों में केला, नारियल, खजूर, अनार, नीबू तरबूज आदि का उत्पादन होता था । सिंचाई के लिये नदी से पर्याप्त जल प्राप्त होता था ।

मिट्टी नरम होने के कारण पाषाण तथा कांस्य निर्मित उपकरणों की सहायता से खेती की जाती थी । डी॰ डी॰ कोशाम्बी का विचार है कि सैन्धव निवासियों के पास भारी हल नहीं था तथा वे पाषाण कुदाल की सहायता से ही खेती कर लेते थे । किन्तु यह विचार तर्कसंगत नहीं लगता क्योंकि कालीबंगन में सैन्धव संस्कृति के पूर्व के स्तरों से नगर की सुरक्षा-प्राचीर के बाहर जुते हुए एक खेत के साक्ष्य मिलते हैं ।

यहाँ के लोग न केवल हल द्वारा खेत की जुताई करते थे अपितु एक ही खेत में एक साथ दो फसले भी उगाना जानते थे । संभव है उनके हल लकड़ी के रहे हो जो अब नष्ट हो गये हो क्योंकि हलों के अभाव में व्यापक पैमाने पर कृषि की कल्पना नहीं की जा सकती। मोहेनजोदड़ो से मिट्टी के बने एक हल का प्रारूप तथा बनावली से मिट्टी के बने हल का पूरा प्रारूप प्राप्त हो चुका है ।

सिंचाई के लिये बाँध तथा नहरें भी बनाई गयी होंगी । सैन्धव नगरों की समृद्धि को देखते हुए यह निष्कर्ष निकालना स्वाभाविक है कि वहाँ के किसान अपनी आवश्यकता से अधिक अनाज उत्पन्न करते थे तथा अतिरिक्त उत्पादन को नगरों में भेजते थे । सिन्धु सभ्यता का व्यापक नगरीकरण अत्यन्त उपजाऊ भूमि की पृष्ठभूमि में ही संभव हो सका था ।

उस समय के कृषक पर्याप्त मात्रा में अन्न का उत्पादन कर न केवल अपनी बल्कि नगर में रहने वाले विभिन्न शिल्पियों, व्यापारियों एवं सामान्य नागरिकों की आवश्यकताओं की मूर्ति भी किया करते थे । विभिन्न नगरों में अनाज रखने के लिये अन्नागार बने होते थे । इनमें सम्भवत: जनता से कर के रूप में वक्त किया गया अनाज रखा जाता था ।

अन्नागार या कोठार हड़प्पा संस्कृति के महत्वपूर्ण अंग प्रतीत होते है । इनके रखरखाव की व्यवस्था शासन द्वारा की जाती थी । इसके लिये राज्य की ओर से पदाधिकारी एवं कर्मचारी नियुक्त किये जाते थे । ये बैंक या खजाने का काम करते होंगे ।

चूंकि उस समय सिक्कों के प्रचलन का निश्चित प्रमाण नहीं मिलता, अतः संभव है विनिमय अनाज के माध्यम से ही होता रहा हो । उल्लेखनीय है कि समकालीन मेसोपोटामियन सभ्यता के प्रायः सभी नगरों से अन्नागारों के साक्ष्य मिलते है जिनमें कुछ तो अत्यन्त विशाल होते थे ।

अन्नागारों के पास ही अनाज कूटने के चबूतरे तथा मजदूरों की बस्तियों के भी अवशेष मिले है । इनके अतिरिक्त लोग घरों में अनाज रखने के लिये खत्तियां भी बनाते थे। हड़प्पा से इस प्रकार की तीन खत्तियां मिलती है । कालीबंगन से बड़े आकार के मर्तबान (जार) एक के ऊपर एक करके रखे हुए मिलते है । इनसें सूचित होता है लोग अपने खाने से अधिक उत्पन्न करते थे तथा भविष्य के लिये अनाज सुरक्षित भी रखते थे ।

अनाज को ओखली में कूटकर तथा सिलबट्‌टे द्वारा पीसकर आटा तैयार किया जाता था । प्राय: सभी स्थलों से सिलबट्‌टे मिलते है । लोथल से एक वृत्ताकार चक्की के दो पाट भी मिलते है । ऊपर वाले पाट में अनाज डालने के लिये एक छेद बनाया गया है ।

कृषि के साथ-साथ पशुपालन का भी विकास हुआ । सैन्धव मृद्‌भाण्डों, मुहरों पर की गयी चित्रकारियों तथा प्राप्त जीवाश्मों के आधार पर हम उनके पालतू पशु-पक्षियों के विषय में अनुमान लगा सकते है । कूबड़दार वृषभ का अंकन मुहरी पर बहुतायत में मिलता है । अन्य पालतू पशुओं में बैल, गाय, भैंस, कुत्ते, सुअर, भेड़, बकरी, हिरन, खरगोश आदि थे ।

हाथी से उनका परिचय था क्योंकि हाथी-दाँत का प्रयोग कलात्मक वस्तुओं के निर्माण में किया गया है । पक्षियों में मुर्गा, बत्तख, तोता, हंस आदि पाले जाते थे । कुछ पशुओं की धार्मिक मान्यता थी तथा कुछ को मांस के लिये पाला गया था । ऊँट तथा घोड़े का अंकन मुहरों पर नहीं मिलता ।

फिर भी मोहेनजोदड़ों, हड़प्पा, कालीवगन, सुरकोटदा के स्थलों से एक कुबडदार ऊँट का जीवाश्म मिला है । जहाँ तक घोड़े का प्रश्न है, प्रारम्भ में ऐसा माना जाता था कि सैन्धव लोग इससे परिचित नहीं थे और यह आयों का प्रिय पशु था । किन्तु लोथल, सुरकोटदा, कालीबंगन आदि स्थलों से घोड़े की मृण्मूर्तियाँ, हड्डियाँ, जबड़े आदि के अवशेष मिल जाने के पश्चात् अब यह निश्चित हो गया है कि इस पशु से भी सैन्धव लोग परिचित थे ।

लोथल से प्राप्त घोड़े के दूसरे तथा दायां ऊपरी चौघड़ (Molar) के दाँत तो विल्कुल आधुनिक पालतू घोड़े के दाँत जैसे है । बी॰ बी॰ लाल ने कालीबंगन के उत्खनन से घोड़े के अवशेष मिलने की सूचना दी है । अत: अब यह नहीं कहा जा सकता कि घोड़े का अस्तित्व आर्य सभ्यता में ही था । नेसदी नामक नगर पशुपालकों का प्रमुख केन्द्र था ।

ii. शिल्प तथा उद्योग धन्धे:

कृषि तथा पशुपालन के अतिरिक्त सैंधव निवासी शिल्पों एवं उद्योग धन्धों में भी रुचि लेते थे । विविध प्रकार के उद्योग-धन्धों का प्रचलन था । खुदाई में प्राप्त कताई-बुनाई के उपकरणों (तकली, सुई आदि) से पता चलता है कि कपड़ा बुनना एक प्रमुख उद्योग था ।

साहनी ने चाँदी के एक कलश में कपड़े का टुकड़ा तथा मैंके ने अनेक वस्तुओं में लिपटे हुए धागे प्राप्त किये हैं । सिस् प्रदेश में पटुए (Flax) के अवशेष मिलते है । शाल तथा धोती यहाँ के निवासियों के प्रमुख वस्त्र थे जिनका निर्माण यहीं के कारीगरों द्वारा किया जाता था । मोहेनजोदड़ों से जो पुरोहित की मूर्ति मिली है वह तिपतिया अलंकरण से युक्त है ।

इससे निष्कर्ष निकलता है कि यहाँ के बुनकर वस्त्रों पर कढाई करना भी जानते है । रंगे हुए बर्तनों से पता चलता है कि सैंधव लोग रंगाई करने के काम से परिचित थे । चाक पर मिट्टी के बर्तन बनाना, खिलौने बनाना, मुद्राओं का निर्माण करना, आभूषण एवं गुरियों का निर्माण करना आदि कुछ अन्य प्रमुख उद्योग- धन्धे थे ।

धातुओं में सोना, चाँदी, ताँबा, कांसा तथा सीसा का उन्हें ज्ञान था और इनसे विविध प्रकार के अभूषण एवं उपकरण बनाये जाते थे । खुदाई में तांबे-कांसे के उपकरण अधिक मात्रा में उपलब्ध होते है । इनमें घरेलू तथा कृषि-संबंधी उपकरण, अस्त्र-शस्त्र बर्तन, कड़ाही, प्रसाधन सामग्रियां आदि प्रमुखता से मिलती है । ताँबे तथा काँसे का प्रयोग मानव एवं पशु मूर्तियाँ बनाने में भी किया जाता था ।

चाँदी के न केवल आभूषण अपितु वर्तन भी बनाये जाते थे । किन्तु सोने का कोई भी वर्तन नहीं मिलता है । इसी प्रकार सीसे के भी कुछ उपकरण मिलते है । धातुओं को गलाने, उन्हें पीटने तथा उन पर पानी चढाने की विधि से लोग अच्छी तरह परिचित थे । शंख, सीप, घोंघा, हाथी-दाँत से भी उपकरणों का निर्माण करना वे जानते थे । लकड़ी की वस्तुओं से पता चलता है कि बढ़ईगिरी का व्यवसाय भी होता था ।

गाड़ी के पहियों तथा तख्तों के कई अवशेष मिलते है । सैन्धव भवन पकी ईंटों के बने है । इससे सूचित होता है कि ईंट उद्योग भी काफी विकसित अवस्था में था तथा कुछ लोग राजगीरी के व्यवसाय में भी निपुण थे । यहाँ के निवासी नावों का निर्माण करना भी जानते थे । सैंधव निवासियों ने विभिन्न उद्योग-धन्धों में निपुणता प्राप्त कर ली थी ।

उनके कुछ आभूषण एवं बर्तन, कला एवं तकनीक की दृष्टि से अत्यन्त उच्चकोटि के हैं । यहां के कुम्हार विशेष आकार-प्रकार के बर्तन बनाते थे । ये चिकने और चमकीले होते थे तथा इनकी अपनी अलग पहचान थी । सैन्धव सभ्यता के कुछ नगर विशिष्ट वस्तुओं के निर्माण के लिये प्रसिद्ध थे । चन्हूदड़ो तथा लोथल में मनका बनाने (Lapidary) का कार्य होता था ।

दोनों स्थानों से इसके लिये कच्ची धातुयें, भट्टियां, गुरियां आदि पाई गयी है । चन्हूदडो में सेलखड़ी मुहरें तथा चर्ट के बटखरे भी तैयार किये जाते थे । वालाकोट तथा लोथल का सीप उद्योग (Shell-Industry) सुविकसित था । सैन्धव निवासियों द्वारा पहने जाने वाले कंगन तथा अन्य आभूषण संभवत: यहीं तैयार किये जाते थे ।

iii. व्यापार तथा वाणिज्या:

सैंधव निवासियों ने व्यापार में भी रुचि ली तथा उनका आन्तरिक एवं बाह्य दोनों ही व्यापार समुन्नत था । वस्तुत बड़े पैमाने पर व्यापार के बिना सैन्धव नगरों का विकास संभव ही नहीं था । हड़प्पा तथा मोहेनजोदड़ों व्यापार के भी प्रसिद्ध केन्द्र थे । दोनों नगर परस्पर व्यापारिक मार्गों द्वारा जुड़े हुए थे ।

यहाँ के व्यापारी मुख्यतः जलीय मार्गों से ही व्यापार किया करते थे यद्यपि थलीय मार्ग भी अज्ञात नहीं थे। देश के भीतरी भागों जैसे बलूचिस्तान, राजस्थान तथा गुजरात में जानवरों पर लाद कर माल भेजा जाता था ।

चूंकि सैन्धव नगरों में कच्चे माल तथा प्राकृतिक सम्पदाओं का अभाव था अतः यहाँ के निवासी पास-पड़ोस के राज्यों तथा विदेशों से इसे प्राप्त करते थे । वे मैसूर से सोना, राजस्थान, बलूचिस्तान तथा मद्रास से ताँबा, अजमेर से सीसा, कश्मीर एवं काठियावाड़ से बहुमुल्य पत्थर आदि मँगाते थे ।

इसके अतिरिक्त अफगानिस्तान, सोवियत तुर्कमानिया, मेसोपोटामिया, ईरान आदि देशों में भी वे अपने उद्योगों के लिये कच्चा माल प्राप्त करते थे । विभिन्न प्रकार की धातुओं तथा बहुमूल्य पत्थरों का आयात सबसे अधिक मात्रा में किया जाता था ।

सिक्कों का प्रचलन नहीं था तथा क्रय-विक्रय वस्तु-विनिमय द्वारा किया जाता था । मोहेनजोदडों तथा लोथल से हाथी दाँत के बने हुए तराजू के पलड़े मिलते हैं । उनके बाट मुख्यतः घनाकार (Cubical) होते थे । कुछ बाट बेलनाकार, ढोलाकार, वर्तुलाकार आदि प्रकार के भी मिलते हैं । लोथल तथा मोहेनजोदडो से क्रमश: हाथी दाँत एवं सीप निर्मित एक-एक पैमाना (Scale) भी मिलता है ।

सैन्धव व्यापारी अपनी मुहर रखते थे जिन्हें वे व्यापारिक वस्तुओं के ऊपर लगा देते थे । भार ढोने के लिये बैलगाड़ियों, हाथियों, खच्चरों तथा बकरों को काम में लाया जाता था । हड़प्पा से ताँबे की इक्कागाड़ी मिलती है ।

सैन्धव निवासियों का भारतीय प्रदेशों के अतिरिक्त विश्व के अन्य कई देशों के साथ भी व्यापारिक एवं सांस्कृतिक संबंध था । उनके अधिकतर क्षेत्र में सुविस्तृत समुद्र तट था जिसका भरपूर उपयोग उन्होंने किया । इसके माध्यम से उन्हें बाह्य देशों के साथ सम्बन्ध स्थापित करने में सुगमता हुई ।

मध्य एशिया, फारस की खाड़ी के देशों, उत्तरी-पूर्वी अफगानिस्तान, ईरान, बहरीन द्वीप, मेसोपोटामिया, मिस्र, कीट आदि के साथ उन्होंने घनिष्ठ व्यापारिक संबंध स्थापित कर रखे थे । उत्तरी-पूर्वी अफगानिस्तान के शर्तुघई (Shortughai) नामक स्थान से उत्खनन के परिणामस्वरूप एक पूर्ण विकसित सैन्धव बस्ती के साक्ष्य प्रकाश में आये हैं ।

इसकी नगर योजना हड़प्पा जैसी है तथा मृद्‌भाण्ड, मनके, मुहर आदि भी यहाँ से मिलती है । इन सबसे स्पष्ट होता है कि सैन्धव लोगों ने ही इस क्षेत्र को आबाद किया था । अफगानिस्तान, आर्मेनिया तथा ईरान से चाँदी तथा लाजवर्द मणि का आयात किया जाता था । मेसोपोटामिया के साथ व्यापारिक सम्बन्धों के विषय में अपेक्षाकृत अधिक विवरण पुरातत्व तथा लेखों से मिलता है ।

यहाँ से थल तथा जल दोनों ही मार्गों द्वारा व्यापार होता था । पेसोपोटामिया के विभिन्न स्थलों-सुमेर, उर, तेल अस्मर, किश, उम्मा, लगश, निमुर, असुर आदि से सैन्धव कारीगरों अथवा उनके प्रभाव से निर्मित अनेक वस्तुयें, जैसे- करकेतन, सीप तथा हड्‌डियों के मनके, मुहरे आदि प्राप्त हुई है जो सैन्धव व्यापारियों द्वारा वहाँ पहुँचायी गयी होगी ।

लोथल से तांबा तथा हाथीदात की वस्तुयें मेसोपोटामिया नगरों को प्रचुर मात्रा में भेजी जाती थीं । दूसरी ओर मेसोपोटामियन उत्पत्ति की विविध वस्तुयें- खानेदार मनके, कांसे के पिन, सेलखड़ी की बटन आदि सैन्धव नगरों से मिलती है । उर की खुदाई में हड़प्पा मूल का तांबे का शृंगारदान मिला है ।

मोहेनजोदड़ो से प्राप्त एक मुहर तथा ठीकरे के ऊपर सुमेरियन नावों के चित्र अंकित है जो समुद्री व्यापार का सूचक है । पुरातात्विक साक्ष्यों की पुष्टि अभिलेखीय विवरण से भी होती है । सैन्धव लिपि के अपठित रहने के कारण हमें यहाँ के लेखों से तो इस संबंध में कोई सूचना नहीं मिलती किन्तु सारगोन युगीन सुमेरियन लेख इस संबंध में महत्वपूर्ण विवरण प्रस्तुत करते है ।

व्यापार के प्रसंग में तीन स्थानों- मेलुहा, दिल्मुन (तिल्मुन) तथा मगन (मकन) का उल्लेख मिलता हैं । इनमें ‘मेलुहा’ की पहचान सिन्ध प्रदेश से की गयी है । ज्ञात होता है कि यहाँ से उर के व्यापारी सोना, ताँबा, कार्नीलियन (लाल पत्थर) लाजवर्दमणि, हाथीदांत की वस्तुयें, खजूर, विविध प्रकार की लकड़िया, विशेषतया काली लकड़ी (आबनूस), मोर पक्षी आदि प्राप्त करते थे ।

मेसोपोटामिया में प्रवेश के लिये प्रमुख बन्दरगाह उर ही था जहाँ सैन्धव व्यापारी विविध वस्तुयें लेकर जाते थे । यहाँ जिन आयातित वस्तुओं की सूची दी गयी है उनकी सिन्धु क्षेत्र में अधिकता थी तथा विधिज्ञ स्थलों की खुदाई से इसकी पुष्टि भी हो जाती है । कार्नीलियन के मनके पर्याप्त संख्या में मिलते हैं । चन्हूदडो तथा लोथल में इनके निर्माण का कारखाना ही था ।

मोहेनजोदड़ो, लोथल, सुरकोटडा आदि से हाथीदाँत के अवशेष मिलते हैं । मोर पक्षी का निर्यात प्राचीन समय में भारत ही करता था । जातक कथाओं में भी इसका उल्लेख मिलता है । ‘दिल्मुन’ की पहचान बहरीन द्वीप तथा ‘मगन’ की पहचान बलूचिस्तान के मकरान तट से की गयी है । ये दोनों ही स्थान सिन्धु तथा मेसोपोटामिया के मध्य स्थित थे तथा व्यापार में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती थी ।

डेनमार्क के पुरातत्ववेत्ताओं के निर्देशन में बहरीन द्वीप के रस-अल-कला एवं बर्बर नामक स्थलों की खुदाई करवायी गयी । यहाँ से नगर योजना के साक्ष्य मिलते हैं तथा सैन्धव उत्पत्ति की विविध वस्तुयें जैसे मुहरें, घनाकार बाट आदि भी प्राप्त होते है । फारस की खाड़ी में स्थित फैलका से सेलखड़ी की वृत्ताकार मुहरें मिलती है जिन पर सैन्धव लिपि में लेख है ।

बहरीन के स्थलों से फारस की खाड़ी शैली की मुहरें भी मिलती है । इनसे सूचित होता है कि फारस तथा हड़प्पा के व्यापारी परस्पर मिलकर व्यापार करते थे तथा सिन्ह तथा मेसोपोटामिया के मध्य होने वाले व्यापार में परस्पर बिचौलिये का काम करते थे । इसी प्रकार ओमन द्वीप के विभिन्न स्थलों से भी सैन्धव मूल की कलात्मक वस्तुयें प्राप्त की गयी है ।

कुछ मृण्भाण्डों के ऊपर पीपल की पत्तियों तथा मोर पक्षी का चित्रण मिलता है । ऐसा प्रतीत होता है कि लोथल से सुत्कागेनडोर होते हुए जो व्यापारी फारस की खाड़ी के देशों को जाते थे वे ओमन में पड़ाव डालते थे । बाद में कुछ लोग यहाँ बस भी गये होंगे तथा उनकी सिन्धु और मेसोपोटामिया के बीच होने वाले व्यापार में प्रमुख भूमिका रही होगी ।

कुछ विद्वानों का विचार है कि मेसोपोटामिया में सैन्धव व्यापारियों की कोई बस्ती रही होगी । मेसोपोटामिया तथा सिन्धु प्रदेश के बीच घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्ध सारगोन युग (ई॰ पू॰ 2400-1750) में ही था क्योंकि इसी काल में सैन्धव मुहरें अधिक मिलती है । ई॰ पू॰ 1750 के लगभग से हम वहाँ के लेखों में ‘मेलुहा’ का उल्लेख नहीं पाते । यह इस बात का सूचक है कि इस समय तक दोनों देशों के बीच व्यापारिक सम्पर्क टूट गया था ।

मेसोपोटामिया के अतिरिक्त मिस में हड़प्पा के प्रकार की गुरिया मिली है । मिस के साथ व्यापारिक सम्बन्ध अपेक्षाकृत कम था । मिस्र के साथ व्यापार प्रधानत लोथल से होता था । यहाँ के उत्खननकर्ता राव को गोरिल्ला की एक मृण्मूर्ति तथा ‘ममी’ की एक आकृति मिली है जिसे मिसी सम्पर्क का ही परिणाम बताया गया है । पूर्वी अफ्रिका के समुद्रतटीय स्थलों से बहुमूल्य पत्थरों से बने हुए भारतीय मनके भी प्राप्त होते है ।

सीरिया के हमा (Hama) नामक स्थान से एक मुहर प्राप्त हुई है जिस पर एक सींग वाले वृषभ का चित्रण है । तुर्कमेनिया गणराज्य (मध्य एशिया) में कैस्पियन सागर के तट पर स्थित अल्तिनडेपे, नामज्गा डेपे, अनाउ आदि से भी सैन्धव प्रकार के भाण्ड, मुहरें, मनके, ताम्रपत्र अदि मिलते है । इसे भी सैन्धव सम्पर्क का परिणाम माना गया है ।

कीट के साथ भी सैंधव लोगों का किसी न किसी प्रकार का सम्बन्ध अवश्यमेव रहा होगा । यहाँ के कुछ भित्तिचित्र जिन पर बेल तथा मनुष्य के युद्ध का दृश्य अंकित है मोहेनजोदड़ों की मुद्राओं पर अंकित कुछ चित्रों के समान हैं । दोनों सभ्यताओं में मातृ-शक्ति की उपासना होती थी तथा दोनों के निवासी बेल, बत्तख, पाषाण स्तम्भ को पवित्र मानते थे ।

यह सब घनिष्ठ सम्पर्क का ही परिणाम प्रतीत होता है । इस प्रकार सैन्धव निवासियों का वाह्य व्यापार उनके आन्तरिक व्यापार की अपेक्षा अधिक विकसित था जिसकी पुष्टि के लिये यथेष्ट प्रमाण उपलब्ध होते हैं । निश्चयत: इसके लिये व्यापारियों का एक सुदृढ संगठन भी सिन्धु प्रदेश में कार्यरत रहा होगा । वास्तव में यदि देखा जाय तो सैंधव सभ्यता की समृद्धि का प्रमुख कारण उसका विदेशी व्यापार ही था ।

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