ब्रिटिश शासन के दौरान मुस्लिम राजनीति का उदय | Read this article in Hindi to learn about the rise of Muslim politics in India during British rule. 
मुख्यधारा के उस भारतीय राष्ट्रवाद को, जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के तत्वाधान में विकसित हो रहा था और जो,फल-फूल रहे हिंदू राष्ट्रवाद में अपना अलगाव बनाए रखने में असफल रहा उसे सबसे पहली चुनौती
मुसलमानों से मिला ।

लकिन उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में मुसलमान किसी भी तरह से एक स्पष्ट राजनीतिक विचार से लैस एक समरस समुदाय नहीं थे । रजवाड़ों समेत पूरे भारत में उनकी आबादी 1881 में कुल आबादी की 19.7 प्रतिशत थी पर उनकी आबादी के वितरण में राजनीतिक अंतर थे ।

संयुक्त  प्रांत में वे अल्पमत मैं थे आबादी के 13 प्रतिशत से थोड़े से ही अधिक, पर दूसरी ओर पंजाब में वे बहुमत में थे, पूरी आबादी के 51 प्रतिशत से थोड़े से अधिक थे । 1872 की जनगणना के बाद बंगाल में हर कोई यह जानकर हैरान रह गया कि मुसलमान कुल आबादी में लगभग आधे (49.2 प्रतिशत) थे ।

जनांकिकीय विशेषताओं में इन असमानताओं के अलावा उपमहाद्वीप में फैले हुए मुस्लिम समुदाय की स्थिति और संरचना में दूसरे महत्त्वपूर्ण भेद भी थे, जैसे सबसे अहम तो पंथ के (शिया-सुन्नी के) भेद थे, फिर उनके बीच भाषायी बाधाएँ (barriers) और आर्थिक विषमताएँ भी थीं ।

प्रशासनिक प्रबंध के लिए देसी समाज का निरूपण करते हुए उपनिवेशी अधिकारियों ने ऐसी जनांकिकीय असंगतियों और स्थिति (states) की विविधताओं को अनदेखा किया था । इसी तरह दक्षिण एशियाई इस्लाम के दार्शनिक रुझानो के और भी सूक्ष्म क्षेत्रीय भेदों को भी अनदखा किया गया और एक समरस ”धार्मिक-राजनीतिक समुदाय” का बिंब गढ़ा गया ।

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मुशीरुल हसन लिखते हैं कि मुस्लिम आबादी का एक भाग भी ”अपने आपको एकजुट, समरस और हिंदुओं से अलग उपनिवेशी छवि में देखने लगा ।” उन्होंने ऐसे मिथकों को एक मुस्लिम सामुदायिक पहचान तैयार करने के लिए और फैलाना शुरू कर दिया और इसी पहचान ने बाद में और बढ्‌कर मुस्लिम राष्ट्र (nationhood) का रूप ले लिया ।

यह सच है कि उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षो में राजनीतिक रंग में रँगी एक मुस्लिम समुदायिक पहचान का विकास पूरी तरह ऊपर से होने वाली पहल के उत्तर में नहीं हुआ । पर फिर भी हमें उस सामाजिक संरचना के नए संस्थागत ज्ञान को ध्यान में रखना होगा जो उपनिवेशी शासन ने दिया और उस नए सार्वजनिक कार्यक्षेत्र को ध्यान में रखना होगा जा उस शासन ने ऐसे सांस्कृतिक निरूपणों के लिए संदर्भ तैयार करते हुए पैदा किया जिनको आगे चलकर बहुत आसानी से व्यापकतर राजनीतिक कार्यक्रमों से जोड़ा जा सका ।

भारतीय समाज के उपनिवेशवादी संज्ञान (colonial cognition) का प्रमुख आधार था ”विभेदीकरण” का विषय, जिसे विभिन्न आधिकारिक नृजातिशास्त्रीय अध्ययनों के माध्यम से और अंत में, 1872 के बाद, 10-10 साल पर होने वाली जनगणनाओं के माध्यम से सामने लाया, दिखाया और मापा गया ।

अपने पहले की ब्रिटेन की जनगणनाओं के विपरीत भारत में उपनिवेशवादी जनगणना ने जनांकिकीय और विकास संबंधी आकड़ों को व्यवस्थित और वर्गीकृत करने के लिए धर्म को अपना बुनियादी नृजातीय प्रवर्ग (category) बनाया ।

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हर जनगणना की रिपोर्ट ने धार्मिक समुदायों को ठोस और पहचान योग्य शक्ल देने की कोशिश की और इसके लिए ऐसे समूहों की जनसंख्या पूरी आबादी में उनके प्रतिशत अनुपात सापेक्ष या निरपेक्ष कमी और भौगोलिक वितरण की विवेचना की तथा हर क्षेत्र में और पूरे देश में उनकी बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक वाली स्थिति के संकेत दिए ।

धर्म के आधार पर साक्षरता और व्यवसाय संबंधी आकड़ों ने हरेक धार्मिक समूह की सापेक्ष या तुलनात्मक भौतिक और सामाजिक दशाओं का एक देखने में वस्तुनिष्ठ चित्र सामने रखा । जनगणना में इस वर्गीकरण का परिणाम ”समुदाय के रूप में धर्म” की एक नई धारणा था ।

धर्म का अर्थ अब केवल विचारों का एक संकलन नहीं रहा; अब उसे ”औपचारिक अधिकारिक परिभाषा के द्वारा एकजुट ऐसे व्यक्तियों के एक समुच्चय” से एकाकार माना जाने लगा जिनकी कथित रूप से एक जैसी विशेषताएँ थीं और जो दूसरे समुदायों के सापेक्ष अपनी तुलनात्मक जनांकिकीय स्थिति के और सामाजिक-आर्थिक स्थिति के प्रति भी सजग थे ।

यही वह सार्वभौमीकृत ज्ञान था जो उपनिवेश-काल से पहले के धार्मिक समूहों के स्थानबद्ध संबंधों से उपनिवेश-काल में उपमहाद्वीप के धार्मिक समुदायों की प्रतिस्पर्धा और टकराव को अलग ठहराता था । कारण कि एक पुनर्परिभाषित धर्म के इस उपनिवेशवादी ज्ञान को हर उस ढाँचे में शामिल किया गया जिसे राजसत्ता ने पैदा किया और हर उस अवसर मैं शामिल किया गया जिसे उसने अपनी उपनिवेशी प्रजा को प्रदान किया-शिक्षा की सुविधाओं सरकारी रोजगार और स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं में प्रतिनिधित्व से लेकर विस्तारित विधायिकाओं में प्रवेश तक ।

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इस सार्वजनिक कार्यक्षेत्र के धर्मनिरपेक्ष चरित्र का और धर्म को निजी क्षेत्र तक सीमित रखने का सरकार ने चाहे जितना ही ढिंढोरा पीटा हो उनकी सीमाएँ बहुत अधिक खुली हुई रहीं और उन्नीसवीं सदी के  अंतिम वर्षों में धार्मिक समूहों के संबंधों का पुनर्गठन इसी संदर्भ  में हुआ ।

हिंदुओं की लामबंदी आगे बड़ी तो साथ ही साथ ”दूसरा” अर्थात् मुसलमान की और निंदा भी की गई । फिर मुसलमान भी अपने साझे धर्म और गढे हुए साझे अतीत के आधार पर अपनी सामुदायिक पहचान की तलाश करने लगे । हम पहले ही देख चुके हैं कि पंजाब के शहरों में आर्यसमाज के आक्रामक आंदोलन ने किस तरह मुसलमानों को जवाबी लामबंदी के लिए प्रेरित किया ।

देहातों में भी इस्लाम ने सज्जादानशीनों, पीरों और उल्मा के सहारे उन्नीसवीं सदी में ग्रामीण राजनीति में पैठ की । फिर भी जहाँ तक अखिल भारतीय मुस्लिम राजनीति का प्रश्न था उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में उसे नेतृत्व और प्रेरणा की प्राप्ति संयुक्त प्रांत (पहले के पश्चिमोत्तर  प्रांत और अवध) में और कुछ कम सीमा तक बंगाल में हुई ।

इसलिए इस भाग में हम इन्हीं क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करेंगे । जहाँ तक सवाल बंगाल के मुसलमानों का था, जैसा कि हाल के कुछ अध्ययनों ने दिखाया है, वे एक अत्यधिक बँटे हुए समूह थे और इस्लाम की मूल बातों में साझी आस्था के आधार पर ही उनमें एक धुँधली-सी एकता पाई जाती थी ।

समुदाय के अंदर काफ़ी गहरे आर्थिक भेद थे, जिनमें शीर्ष पर तो बड़े भूस्वामियों का एक अल्पमत भाग था और नीचे गरीब किसानों का बहुसंख्यक भाग था । यह अंतर समुदाय के अंदर अशराफ और अजलाफ़ (या अतराप) के महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक भेद के समकक्ष भी था ।

अशराफ़ भी दो भागों में बँटे हुए थे नगरों के उर्दूभाषी कुलीन और गाँवों के उर्दू और बंगला बोलनेवाले कस्बाती भूस्वामी । दूसरे सिरे पर बंगलाभाषी किसान थे जो अजलाफ कहलाते थे । ये दोनों भाग दो अलग-अलग संस्कृतियों का प्रतिनिधित्व करते थे ।

अशराफ एक विजातीय संस्कृति के प्रतिनिधि थे: वे उर्दू और हिंदुस्तानी बोलते थे विदेशी नस्लों के वंशज होने की डींग मारते थे और दिल्ली या लखनऊ को दरबारी संस्कृति को बनाए रखने के प्रयास करते रहते

थे ।

वे शारीरिक श्रम से उसी तरह चिढ़ते थे जैसे हिंदू भद्रलोक चिढ़ते थे और देसी मुसलमानों को अत्यधिक पूणा की दृष्टि से देखते थे । लेकिन छोटे अशराफ़ अर्थात् ग्रामीण भद्र मुसलमान भाषा तौर-तरीकों और रीति-रिवाजों में बंगलाभाषी किसानों के अधिक निकट थे हालांकि दोनों के बीच सामाजिक संपर्क बहुत ही कम था ।

दूसरी ओर अतराप या अजलाफ़ किसानों के आम समूह थे, जो मुख्यत: पूर्वी बंगाल के दलदली, कम ऊँचाई वाले क्षेत्रों में रहते थे । बंगाल की जनता के बीच इस्लाम का प्रसार कैसे हुआ, यह एक ऐसा प्रश्न है जिसके आज दो विश्वसनीय उत्तर दिए जाते हैं, जबकि पहले का उत्तर जो निचली जातियों के हिंदुओं के धर्मातरण को सामाजिक मुक्ति के सिद्धांत से जोड़ता है, अब अस्वीकार किया जा चुका है ।

रिचर्ड ईटन का तर्क है कि पूर्वी बंगाल में, ब्राह्मणवादी सभ्यता के केंद्र से दूर, जब सोलहवीं और अठारहवीं सदियों के बीच खेती का क्षेत्रफल बढ़ा, तो ”हल (plough) के धर्म” के रूप में इस्लाम का भी प्रसार हुआ और स्थानीय जनता धीरे-धीरे उसके दायरे में आती गई ।

यह इस्लामीकरण एक झटके में नहीं हुआ, बल्कि यह एक क्रमिक प्रक्रिया था जिसने धीरे- धीरे भूमि के उन काश्तकारों को समेटा जो अभी तक हिंदू धर्म से अप्रभावित थे या बस थोड़े से प्रभावित थे । इसलिए बंगाल में एक मुस्लिम किसान वर्ग का जन्म बड़े पैमाने के किसी ”धर्मांतरण” का परिणाम नहीं था बल्कि ब्राह्मणवादी सभ्यता की सीमारेखा पर रहनेवालों के इस्लाम में क्रमिक समावेश का परिणाम था ।

दूसरी ओर, असीम राय (1983) का तर्क है कि बंगलाभाषी मुस्लिम शिक्षित वर्ग और धर्मोपदेशकों (पीरों) के एक समूह पर आधारित ”सांस्कृतिक मध्यस्थों” के नेतृत्व में बंगाल में इस्लाम ने सोलहवीं और सत्रहवीं सदियों में, स्थानीय धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं से खुले दिल से बहुत कुछ लेकर एक समन्वयवादी रूप ग्रहण किया ।

इस्लाम की यह पुनर्रचित महान परंपरा (great tradition) जनता के लिए अधिक स्वीकार्य थी क्योंकि उसने अशराफ़ की फ़ारस-अरब वाली इस्लामी उच्च संस्कृति और अजलाफ़ किसानों की बंगाली संस्कृति के बीच मौजूद द्वैत्व की समस्या को हल किया ।

और भी हाल के काल पर आएँ तो बंगाल में हिंदुओं के विपरीत मुस्लिम समुदाय में स्पष्ट रूप से एक ऐसे काफी बड़े शिक्षित और पेशेवर मध्यस्थ समूह का अभाव था, जो उपनिवेशवाद द्वारा नवरचित सार्वजनिक कर्मक्षेत्र में अपनी जनता के दोनों भागों के बीच की खाई पाट सके ।

इसका कारण निरपेक्ष संख्या और सापेक्ष अनुपात दोनों की दृष्टि से शिक्षा के क्षेत्र में हिंदुओं के मुकाबले उनका पिछड़ापन था । 1874-75 में बंगाल के स्कूल जानेवाले बच्चों में मुसलमानों का भाग केवल 29 प्रतिशत था, जबकि हिंदुओं का भाग 70.1 प्रतिशत था ।

उच्च शिक्षा में उनका भाग तो और भी कम था: 1875 में बंगाल के कॉलेज जानेवाले छात्रों में 93.9 प्रतिशत हिंदुओं के मुकाबले मुसलमान केवल 5.4 प्रतिशत थे । साक्षर मुसलमानों में अंग्रेजी जानने वाले केवल 1.50 प्रतिशत थे, जबकि वे हिंदुओं में 4.40 प्रतिशत थे ।

शिक्षा में उनका यह कम प्रतिनिधित्व रोजगार के क्षेत्र में भी व्यक्त होता था: 1871 में बंगाल में सरकारी अधिकारियों में मुसलमान केवल 5.9 प्रतिशत थे, तो हिंदू 41 प्रतिशत थे । मुसलमानों के इस पिछड़ेपन की अनेक व्याख्याएँ की जा सकती हैं जैसे एक सत्ताक्षत शासक वर्ग के रूप में अशरफ़ का खोखला दंभ स्थायी बंदोबस्त के बाद उनका आर्थिक पतन सरकारी भाषा के रूप में 1837 में फ्रारसी की जगह अंग्रेजी की मान्यता गैर-इस्लामी शिक्षा के प्रति उनकी धार्मिक आधार पर विमुखता आदि ।

लेकिन अशराफ़ को सामने रखकर, जो समुदाय का एक छोटा-सा भाग मात्र थे, इस संवृत्ति की व्याख्या नहीं कर सकते । बहुसंख्यक भाग गरीब खेतिहरों का था, जो शिक्षा के प्रति आम उदासीनता में भागीदार थे और अगर बच्चों को शिक्षा के लिए भेजते भी थे तो कम खर्चीली, देशी परंपरागत संस्थाओं को वरीयता देते थे, जैसे मकतब और मदरसे को ।

पश्चिमी शिक्षा में मुसलमानों के कम प्रतिनिधित्व की व्याख्या एक बड़ी सीमा तक इसी बात से होती है । इससे यह संकेत भी मिलता है कि मुस्लिम किसानों की समस्याएँ भिन्न थीं: बंगाल के पूर्वी भागों में वे एक साधनहीन बहुसंख्यक थे, जबकि भूस्वामित्व पर अधिकतर हिंदुओं का एकाधिकार था ।

इस तरह मुस्लिम आबादी के दोनों भागों के ”पिछड़ेपन” की प्रकृति अलग-अलग थी; यह तो विलियम हंटर की पुस्तक द इंडियन मुसलमान (1871) जैसी पुस्तकों के द्वारा प्रचारित उपनिवेशवादी प्रचार था जिसने शिक्षा और रोजगार में ”पिछड़ेपन” के शिकार एक समरस समुदाय की गलत छवि पेश की ।

इस तरह अशराफ़ वर्ग के हितों को पूरे समुदाय के हित के रूप में पेश किया गया और आखिरकार इसी रूढ़ छवि के आधार पर मुस्लिम राजनीति ने एक शक्ल पाई । उत्तर भारत की स्थिति थोड़ी भिन्न थी । चूँकि यह मुगल शासन का केंद्र था, इसलिए मुस्लिम अशराफ़ यहाँ सुविधाभोगी अल्पमत के लोग थे, जो ब्रिटिश दौर में धीरे-धीरे हिंदुओं के लिए जगह खाली करने लगे ।

यहाँ कुछ बड़े भूस्वामी भी थे, जैसे अवध के ताल्लुकदार जो संयुक्त प्रांत की ज़मीनों के पाँचवें भाग पर हावी थे । लेकिन उनमें से बहुत कम लोग व्यापार-उद्योग में थे, जिस पर अधिकतर हिंदुओं का वर्चस्व था । लेकिन मुगलकाल में ऊँचे प्रशासनिक पदों में मुसलमानों का अच्छा प्रतिनिधित्व था और यह स्थिति आरंभिक ब्रिटिश काल तक जारी रही ।

बहुत पहले, 1882 में भी संयुक्त प्रांत की कम से कम 35 प्रतिशत सरकारी नौकरियाँ मुसलमानों के पास थीं तथा ऊँचे और प्रभाव वाले पदों में भी उनका अच्छा-खासा भाग था । लेकिन जब अंग्रेजी राज में फ़ारसी की जगह अंग्रेजी राजभाषा बनी तो शक्ति और प्रभाव वाले पद मुसलमानों से छिनकर हिंदुओं के हाथों में जाने लगे जिन्होंने नए वातावरण से अपना तालमेल अधिक तेजी से स्थापित किया ।

कार्यपालिका और न्यायपालिका की निचली सेवाओं में मुसलमानों का भाग 1857 में 63.9 प्रतिशत था, जो गिरकर 1886-87 में 45.1 और 1913 में 34.7 पतिशत रह गया, जबकि ठीक इसी काल में हन सेवाओं में हिंदुओं का भाग 24.1 प्रतिशत से बढ़कर 50.3 ओर फिर 60 प्रतिशत  हो  गया ।

दूसरे शब्दों में आधी सदी के अंदर सरकारी सेवाओं में दोनों समुदायों की तुलनात्मक उपस्थिति पूरी तरह उलट गई थी । उत्तर भारत के ये मुसलमान अशराफ़ जो मुगलों की दरबारी संस्कृति के उत्तराधिकारी थे मुस्लिम जनता से भी कटे हुए थे और अपने बंगाली बंधुओं के विपरीत उल्मा से भी दूर थे जिनका किसानों पर काफ़ी प्रभाव था ।

यह परंपरावादी धर्मशास्त्री व्यवस्था ब्रिटिश राज से टकराती रही जो परंपरागत व्यवस्था और उल्मा के वर्चस्व के लिए खतरे पैदा कर रही थी । दूसरी ओर अशराफ़ ने अधीनता स्वीकार कर ली थी और ब्रिटिश राज की नई सामाजिक वास्तविकताओं से वे तालमेल बिठाने के प्रयास कर रहे थे ।

इस तरह उत्तर भारत के मुसलमान अनेक तर्जो पर बँटे हुए थे । फ्रांसिस राबिनसन ने संयुक्त प्रांत के मुसलमानों को ”एक समुदाय की एकता की बजाय हितों की अनेकता” के रूप में चित्रित किया है । डेविड लेलीवेल्ड का तर्क है कि यह हितों की अनेकता असमान, सोपान-रूपी नातेदारी से मिलते-जुलते संबंधों पर आधारित उस मुगल सामाजिक ढाँचे की धरोहर थी, जो शाही खानदान से अलग से जुड़ा हुआ था, लेकिन जिसने उपजातीय, नस्ली या पारिवारिक एकजुटता का अनुभव शायद ही कभी किया हो ।

उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में इसी विखंडित समाज का विकास धीरे-धीरे एक साझी पहचान के रूप में या एक ऐसी कौम के सदस्य होने की भावना में हुआ जिसका एक स्पष्ट भविष्य था । मुसलमान सभी इलाकों में हिंदुओं के मुकाबले अपने आपको वंचित पाते थे, हालांकि समुदाय के अमीर और गरीब भागों को यह अनुभव अलग-अलग ढंगों से होता था ।

लेकिन जब मुसलमानों की राजनीतिक लामबंदी आरंभ हुई, तो धीरे-धीरे किसानों के हित अशराफ़ के हितों के अधीन होते चले गए जिनको पूरे समुदाय के हितों के रूप में पेश किया गया । बंगाल के मुसलमानों में उन्नीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों से ही विभिन्न इस्लामी सुधार आंदोलनों के माध्यम से आम जनता के स्तर पर एक सुस्पष्ट मुस्लिम पहचान विकसित होती आ रही थी ।

इन आंदोलनों ने पहले के समन्वयवाद को अस्वीकार किया तथा मुस्लिम किसानों की संस्कृति भाषा और रोजमर्रा के तौर-तरीकों के इस्लामीकरण और अरबीकरण के प्रयास उन चीजों को बाहर निकालकर किए जिनको वे गैर-इस्लामी समझते थे ।

इससे निचले वर्गो या अजलाफ़ में सामाजिक गतिशीलता की एक भावना पैदा हुई । अब वे भी अपने आपको परिकल्पित विदेशी या अरब मूल वाले व्यक्ति समझ सकते थे और ऊँचे वर्गों के शरीफ मुसलमानों से अपने को एकाकार मान सकते थे ।

इस भावना का विकास अनेक माध्यमों से हुआ जैसे घुमक्कड़ मुल्लाओं बहसों अर्थात् धार्मिक सभाओं और अंजुमनों अर्थात् स्थानीय संगठनों के जरिये । जनता में इस मुस्लिम चेतना के विकास के पीछे अशराफ़ की कोई पहल नहीं थी पर इसने राजनीतिक लामबंदी में तथा अलग मुस्लिम हितों के बारे में उनके तर्कों को बल देने में निश्चित ही सहायता पहुँचाई ।

कुलीन नेताओं ने शीघ्र ही उनकी इस नई भावना को उनके अपेक्षाकृत पिछड़ेपन की दशा से और एक राजनीतिक दबाव समूह के रूप में उनके संगठन की आवश्यकता से जोड़ दिया कि वे उर्पानवेशी शासन के पैदा किए हुए संस्थाबद्ध अवसरों में अपना न्यायपूर्ण भाग माँग सकें ।

बंगाल का पहला मुस्लिम संगठन 1855 में स्थापित मुहम्मडन एसोसिएशन या अंजुमने-इस्लामी था जिसके दो उद्देश्य थे समुदाय के हितों को बढ़ावा देना और अंग्रेजों के प्रति वफ़ादारी का उपदेश देना । लेफ्टिनेंट गवर्नर को दिए गए एक ज्ञापन में उसने हिंदुओं के साथ प्रतियोगिता में ”कोई अलग विशेषाधिकार नहीं बल्कि एक बराबरी के अवसर” की माँग की । इसके लिए उसने शिक्षा के प्रसार के विशेष प्रयासों का समर्थन किया अंग्रेजी राज से वफादारी जताई और 1857 के विद्रोह की निंदा की ।

इस तरह संयुक्त  प्रांत में सर सैयद अहमद खाँ के अधिक विख्यात आंदोलन के आरंभ से भी पहले बंगाल में मुस्लिम राजनीति की मूल विशेषताएँ आकार ले चुकी थीं । उस आंदोलन ने शीघ्र ही उन्नीसवीं सदी के मध्य के आसपास आधुनिकीकरण की मुहिम का रूप ले लिया ।

1860 के दशक में इसने और गति पकड़ी तथा दौ सुस्पष्ट धाराएँ विकसित इईं । अब्दुल लतीफ खाँ और इनकी मुहम्मडन लिटररी सोसायटी (1863) ने इस्लाम । शिक्षा की परपरागत व्यवस्था के अंदर अरबी और फ़ारसी के ज्ञान पर पूरा बल जारी रखते हुए उसके दायरे में पश्चिमी शिक्षा की वकालत की ।

दूसरी ओर सैयद अमीर अली और उनके सेंट्रल नेशनल मुहम्मडन एसोसिएशन (1877-78) ने पश्चिमी और धर्मनिरपेक्ष तर्ज पर मुस्लिम शिक्षा के पूर्ण पुनर्गठन की या मुस्लिम शिक्षा के पूर्ण आंग्लीकरण का समर्थन किया । बंगाल के मुस्लिम अशराफ़ ने हालांकि आरंभ में अलग विशेष सुविधाओं की नहीं बल्कि ”बराबरी के आकार” की माँग की थी पर धीरे-धीरे उनका रुख बदल गया और उनको उपनिवेशी नौकरशाही ने प्रोत्साहित किया ।

1871 में हंटर की पुस्तक ने यह प्रस्थापना सामने रखी थी कि सरकार द्वारा प्रायोजित शिक्षा व्यवस्था और गैर-सैन्य रोज़गार से मुसलमानों का बहिराव ही मुख्यत: अंग्रेज-विरोधी ठहावी और फ़राइज़ी आंदोलनों की अधिक लोकप्रियता के लिए उत्तरदायी था ।

हालांकि यह एक गलत प्रस्थापना थी, पर इसने इसी आधार पर शिक्षा और रोज़गार के मामलों में मुसलमानों के लिए विशेष सरकारी अनुग्रह की नीति का समर्थन किया । 7 अगस्त क्य भारत सरकार के प्रस्ताव ने मुस्लिम शिक्षा संस्थाओं के लिए सरकारी सहायता बढ़ाकर इस प्रवृत्ति का आरंभ किया ।

लॉर्ड नॉर्थब्रुक के 13 जून, 1875 के प्रस्ताव ने इस नीति की फिर से पुष्टि की और अंत में इसका अनुमोदन शिक्षा आयोग ने किया, जिसने न्याय के विषय के रूप में मुस्लिम शिक्षा के लिए एक विशेष प्रावधान किया ।

1882  और 1888 के अनेक ज्ञापनों में सेंट्रल नैशनल मुहम्मडन एसोसिएशन ने सरकारी सेवाओं में केवल न्याय की नहीं विशेष अनुग्रह की माँग की । सरकार ने भी इस नीति का अनुमोदन भारतीय राष्ट्रवाद की उठती लहर के जवाब के रूप में मुसलमानों को खड़ा करने की राजनीतिक आवश्यकता के तहत किया; इस राष्ट्रवाद में तब हिंदुओं की भारी भागीदारी थी ।

सरकारी सेवाओं में मुसलमानों का विशेष प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करके उनको संरक्षण देने की यह नीति सबसे पहले जुलाई 1885 के एक प्रस्ताव में पेश की गई थी । इसने 1897 के एक गश्ती पत्र (circular) में ठोस शक्ल पाई, जिसमें प्रावधान था कि कार्यपालिका की निचली सेवाओं में दो-तिहाई खाली पद नामांकन द्वारा भरे जाएँगे, ताकि समुदायों के बीच संतुलन आ सके ।

इस नीति को अंतत: बंग-भंग में संस्थागत रूप दिया गया, जब मुसलमानों के बहुमत वाला एक नया, पूर्वी बंगाल प्रांत बनाया गया, ताकि सत्ता में उनकी अधिक भागीदारी सुनिश्चित हो सके । वास्तव में इन सभी विशेष रियायतों की माँग मुस्लिम अशराफ़ पूरे बंगाल की आबादी में मुस्लिम समुदाय के बहुमत के आधार पर कर रहे थे ।

वे संख्याओं के राजनीतिक निहितार्थो के प्रति सजग थे पर इसके लिए सांस्कृतिक भेदों के आर-पार सामाजिक लामबंदी की भी आवश्यकता थी । इस क्षैतिज एकजुटता को पैदा करने का सबसे अच्छा ढंग साझे धर्म पर जोर देना था और अब मुल्लाओं ने स्थानीय अंजुमनों के माध्यम से गाँवों तक नगरों का यह संदेश पहुँचाया ।

1905 के आसपास बंगाल के लगभग सभी बड़े नगरों में स्थानीय (मुफ़स्सिल) अंजुमनें थीं तथा 1909 तक जिलों में सेंट्रल नैशनल मुहम्मडन एसोसिएशन की 16 शाखाएँ थीं । शिक्षित मुसलमानों और मुल्लाओं के बीच घनिष्ठ सहयोग कस्बाती अंजुमनों की खास विशेषता था ।

यह बात ग्रामीण अंजुमनों में विशेष रूप से स्पष्ट थी जो उन्नीसवीं सदी के आरंभिक वर्षो के इस्लामी सुधार आंदोलनों के दौरान स्वयंसेवक (volunteers) भरती करने और चंदे जमा करते के लिए स्थापित किए गए थे ।

उन्होंने अपना धार्मिक चरित्र तो बनाए रखा, लेकिन धनी अशराफ़ के नेतृत्व में अधिकाधिक आते गए जैसे ढाका के नवाब सलीमुल्लाह के प्रभाव में, जिसने विभाजन का समर्थन किया था । इस तरह इन अंजुमनों ने शहरी अशराफ़ और ग्रामीण जनता के बीच एक संबंध स्थापित किया और इस तरह ग्रामीण जनता को व्यापकतर राजनीतिक संघर्ष में खींचा ।

सामाजिक दरारों को और बढ़ाकर गरमपंथी राजनीति और हिंदू पुनरुत्थानवाद ने- उदाहरण के लिए, उत्तर में गोवध संबंधी दंगों ने-मुसलमानों की लामबंदी को और तेज किया । बंगाल का हिंदू भद्रलोक अकसर मुसलमानों को अपमान-भाव से देखता था ।

हिन्दू यात्रा (ग्रामीण नाटकों की) पार्टियाँ अकसर मुस्लिम ऐतिहासिक पात्रों की निंदा करती थीं, जिसे अंजुमनों और मुल्लाओं की ओर से बहुत हलके ढंग से नहीं लिया जाता था । सभी तत्त्वों का सम्मिलित प्रभाव होता था तनावों का बढना, जिसका अंत अकसर सांप्रदायिक हिंसा में होता था ।

स्वदेशी काल में 1896 के टीटागढ़ दंगे और 1897 के तल्ला दंगे जैसे शहरी दंगों के बाद ग्रामीण दंगे हुए, जैसे मई 1906 में ईश्वरगंज, मार्च 1907 में कोमिल्ला तथा अप्रैल-मई 1907 में जमालपुर में और मैमनसिंह जिले के दीवानगंज-बख्सीगंज क्षेत्र में हुए दंगे ।

दोनों समुदायों के इस सामाजिक अलगाव को हिंदू धार्मिक प्रतीकों का खुलकर उपयोग करनेवाले और मुसलमान किसानों को बहिष्कार में भाग लेने पर मजबूर करनेवाले स्वदेशी नेताओं ने और भी राजनीतिक रंग दिया । अनचाहे ही उन्होंने इस आंदोलन को एक हिंदू-मुस्लिम प्रश्न बनने दिया ।

राजनीतिक प्रश्नों पर एक धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण अपनाने की बजाय वे बराबर यह राग छेड़ते रहे कि हिंदुओं की कीमत पर मुसलमानों को विशेष सुविधाएँ दी जा रही थीं । आरंभ में सारे मुसलमान अलगाववादी या वफादार नहीं थे लेकिन स्वदेशी आंदोलन ने जल्द ही उनपर साफ-साफ दूसरा या अन्य (otherness) की मुहर लगा दी ।

इसलिए आश्चर्य नहीं कि जल्द ही विभाजन विरोधी आंदोलन मुसलमानों की चेतना में एक मुसलमान विरोधी आंदोलन हो गया । आंदोलन के समर्थक केवल वे पेशेवर और व्यवसायी लोग रह गए जो कलकत्ता में केंद्रित थे और जिनके हित विभाजन से सीधे-सीधे प्रभावित होते थे । बंगाली मुस्लिम समाज के बाकी भाग अशराफ़ और उनके किसान अनुयायी दोनों ही एक अलग दिशा में बढ़ने लगे ।

अगर अंजुमनों ने बंगाली मुसलमानों को उपनिवेशकालीन सार्वजनिक कार्यक्षेत्र के लिए तैयार किया तो उत्तर भारत में उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षो में अनेक प्रकार की स्थानीय संस्थाओं ने जैसे अंजुमनों मुहल्लों के अखाड़ों त्योहार समितियों आदि ने उन लोकव्यापी सांस्कृतिक कार्यो में भाग लिया जिन्होंने धीरे-धीरे समुदायों के बीच सीमारेखाएँ खींचने वाली प्रतीकवादी धार्मिक शब्दावली के आधार पर सांस्कृतिक पहचानों का निर्माण किया ।

धार्मिक सार्वजनिक कार्यो या अनुष्ठानों को लेकर हुए विवादों ने हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक दंगों को जन्म दिया, और ऐसे दंगों की कोई कमी न रही-जैसे 1870 के दशक में बरेली 1880 के दशक में आगरा और अंत  में  1890 के दशक के गोवध संबंधी दंगे ।

सांद्रिया फ्राइटाग का तर्क है कि साझे मूल्यों और प्रतीकवादी मुहावरों से बँधे ”संबंधमूलक समुदाय” (relational community) की ऐसी अभिव्यक्तियों को बाद में विस्तार देकर और व्यापक और अमूर्त ”वैचारिक समुदाय” (ideological community) का रूप दे दिया गया जो पूरे महाद्वीप के स्तर पर संस्थाबद्ध राजनीति में सक्रिय था ।

और अगर एक ओर ऐसे लोकव्यापी सांस्कृतिक कार्यकलापों ने पहचान के निर्माण के ऐसे व्यवहार प्रतिमानों को जन्म दिया तो वहीं उपनिवेशी आधुनिकता के ऐसे दूसरे साधन भी थे जिन्होंने एक सामुदायिक विचारधारा या ”पहचान बतौर संस्कृति” के निर्माण के लिए एक साहित्यिक मीमांसा का क्षेत्र तैयार किया ।

उत्तर भारत में उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षो में, जैसा कि आयशा जलाल कहती हैं, एक जीवंत क्षेत्रीय प्रेस और एक फलती-फूलती लोकप्रिय उर्दू शायरी ने संयुक्त प्रांत और पंजाब के मुसलमानों के लिए उसके निर्माण में योगदान दिया, जिसे वे ”एक धार्मिक उत्सवाली सांस्कृतिक पहचान” कहती हैं ।

चूंकि यह शायरी मुशायरों में भी पड़ी जाती थी, इसलिए उसमें अशराफ़ (कुलीनों) और जनता की खाई को पाटने की क्षमता थी । परिकल्पित साझे मूल्यों और हितों के आधार पर ऐसी एक पुनर्गठित सांस्कृतिक पहचान को अर्थात् एक ”वैचारिक समुदाय” को आगे चलकर पहचान की संस्थाबद्ध राजनीति में प्रयोग किया गया ।

लेकिन  जहाँ तक उत्तर भारत के मुसलमानों का प्रश्न था, रूपांतरण की इस प्रक्रिया के केंद्र में सर सैयद अहमद खाँ और उनका अलीगढ़ आंदोलन थे । सर सैयद ने मुसलमानों में आधुनिकता का एक आंदोलन आरंभ किया और इस उद्देश्य से उन्होंने 1875 में अलीगढ़ में मुहम्मडन-एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज की स्थापना की ।

जैसा कि डेविड लेलीवेल्ड ने दिखाया है, उनका राजनीतिक दर्शन इस विचार के इर्द-गिर्द घूमता था कि भारतीय समाज ऐसे प्रतियोगी समूहों का संकलन है, जिनको एक श्रेष्ठतर शक्ति एक साथ ले आई; यह शक्ति पहले अगर मुगल बादशाह की थी तो अब उसकी जगह महारानी विक्टोरिया ने ले ली है, जो सुस्पष्ट सामाजिक इकाइयों के एक सोपान के शीर्ष पर विराजमान हैं ।

भूतपूर्व शासक वर्ग के रूप में मुसलमानों को इस नए विश्वमुखी ब्रिटिश साम्राज्य में शक्ति और सत्ता की एक विशेष स्थिति पाने का अधिकार होना चाहिए । लेकिन इसके लिए उन्हें स्वयं को शिक्षित करना और उन कुशलताओं से लैस करना चाहिए जो उपनिवेशी भारत की इस नई संस्थागत व्यवस्था के अंदर अपनी हस्ती जताने की शक्ति प्रदान करे ।

उनका (सर सैयद का) मुस्लिम होने का विचार भारतीय होने के विचार का विरोधी नहीं था, पर उन्होंने भारत की परिकल्पना वैयक्तिक नागरिकता पर आधारित राष्ट्र-राज्य के रूप में नहीं की; उनके लिए यह ऐसी कौमों का महासंघ है, जिनमें से हरेक की एक साझी वंश-परंपरा है ।

इन समूहों की अपनी वंश-परंपरा है और विरासत में मिली उपसंस्कृति के आधार पर स्वतंत्रता और सत्ता में भागीदारी मिलनी चाहिए, न कि उपलब्धियों के आधार पर । इसलिए अल्पसंख्यक होने के बावजूद मुसलमानों को एक भूतपूर्व शासक वर्ग का होने के कारण सत्ता में विशेष प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए और राजनीतिक व्यवस्था के साथ उनका एक विशेष संबंध होना चाहिए ।

उनका राजनीतिक दर्शन यहीं आकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के राजनीतिक दर्शन से अलग हो जाता था, जिसने भारत की परिकल्पना प्रत्येक नागरिक के अधिकारों पर आधारित एक राष्ट्र राज्य के रूप में की । विचारों की इसी भिन्नता के कारण मुस्लिम राजनीति कांग्रेस और मुख्यधारा के राष्ट्रवाद से कटने लगी ।

जैसा कि डेविड लेलीवेल्ड आगे कहते हैं, सर सैयद का अलीगढ कॉलेज एक ”पक्की तरह से राजनीतिक उद्यम” था, जिसका उद्देश्य अपने मुस्लिम छात्रों में एक कौम की सदस्यता की भावना पैदा करना और उनके माध्यम से उत्तर भारत की मुस्लिम आबादी में अपनी सामाजिक पहुँच को और बढ़ाना था ।

उसकी पाठचर्या में मुस्लिम धर्मशास्त्र उन्नीसवीं सदी के यूरोपीय अनुभववाद से समन्वित था, जो मुसलमानों की नई पीढी को ब्रिटिश राज के लाभों और अवसरों के लिए तैयार करे । जहाँ तक ज्ञान का संबंध था अलीगढ़ के छात्र दूसरों से कोई बहुत आगे नहीं थे पर यहाँ उन्होंने एकजुटता की भावना ग्रहण की ।

सर सैयद के संदेश के प्रसार का दूसरा साधन मुहम्मडन एजुकेशनल कांग्रेस (1890 तक ”कांग्रेस”) था, जो भारत भर के विभिन्न नगरों में 1886 के बाद अर्थात् कांग्रेस की स्थापना के अगले साल से अपने सत्र आयोजित करती रही ।

यह सीधे-सीधे कांग्रेस के विरोध में था जिसे सर सैयद नई प्रातिनिधिक संस्थाओं और सिविल सेवाओं में अल्पसंख्यक मुसलमानों पर हावी होने के लिए बहुसंख्यक हिंदू निर्वाचकों को संगठित और एकजुट करने का प्रयास मानते थे ।

1893 के गोवध संबंधी दंगों के बाद, गोवध पर कानूनी प्रतिबंध की हिंदू माँग और उसपर कांग्रेस की खामोशी के बाद बहुसंख्यकों से लगनेवाला यह डर और भी बढ़ गया । अलीगढ़ कॉलेज की अंदरूनी समस्याओं ने भी हो सकता है सर सैयद को एक अधिक उग्र कांग्रेस विरोधी रुख अपनाने पर विवश किया हो ।

मुस्लिम राजनीति की इस विशेष प्रवृत्ति को ब्रिटिश नौकरशाही ने संरक्षण दिया । खास तौर पर महत्त्वपूर्ण थी अलीगढ़ कॉलेज के यूरोपीय प्रिंसिपल थियोडोर बेक की भूमिका, जिसने कांग्रेस का विरोध करने और मुसलमानों के लिए सरकारी संरक्षण के समर्थन के लिए 1888 में इंडियन पेट्रियाटिक एसोसिएशन की स्थापना की थी ।

1893 में, बेक के ही प्रोत्साहन से मुहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल डिफेंस एसोसिएशन की स्थापना कांग्रेस की बढ़ती लोकप्रियता की काट करने और उसके विरुद्ध मुस्लिम जनमत को तैयार करने के उद्देश्य से हुई । इस तरह सर सैयद अहमद खाँ और अलीगढ़ कॉलेज के अंतर्गत अलीगढ़ आंदोलन का विकास कांग्रेसी नेतृत्व वाले राष्ट्रवाद के विरोध में और अंग्रेजी राज से वफ़ादारी के रूप में हुआ; इस राज को मुगल साम्राज्य का वैध उत्तराधिकारी माना गया । उत्तर भारत के मुस्लिम समुदाय में सर सैयद के नेतृत्व को कभी पूरी तरह स्वीकार नहीं किया गया ।

उल्मा उनकी पश्चिमीकरण की मुहिम को निश्चित ही पसंद नहीं करते थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि यह मुस्लिम समाज में उनकी प्रधानता के लिए खतरा पैदा कर देगी । उनकी आधुनिकता और बुद्धिवाद के विरोध में उल्माओं ने इस्लामी सार्वभौमिकता और विशिष्टता का नारा लगाया ।

जमालुद्दीन अल-अफ़्रगानी जैसे लोग भी थे, जो कट्टर उपनिवेशवाद विरोधी थे और सर सैयद की अंग्रेजों के प्रति वफ़ादारी को पसंद नहीं करते थे । उनके (सर सैयद की) पश्चिम के अनुकरण और विशिष्ट वर्गीय रहतो की निर्लज्ज पैरवी की हँसी उड़ाई गई ।

1880 के दशक के अंत तक उत्तर भारत कै अनेक मुसलमान कांग्रेस की ओर झुकने लगे थे जबकि 1887 में बंबई के बदरुद्दीन तैयबजी उसके पहले मुस्लिम अध्यक्ष बने । 1890 के दशक के अंत तक पंजाब के अनेक उर्दू अखबार यह कहने लगे थे कि अलीगढ़ संप्रदाय ”भारतीय मुसलमानों का प्रतिनिधित्व नहीं करता ।”

1898 में सर सैयद की मृत्यु के बाद अलीगढ़ की युवा पीढ़ी भी बेचैन होने लगी; उन्हें यह लगने लगा था कि वे इसलिए मात खा रहे हैं क्योंकि वे सही ढंग से संगठित नहीं हैं और इसलिए प्रभावी ढंग से अपनी माँगे नहीं उठा सकते । इमके फलस्वरूप वे अलीगढ़ राजनीति की मौजूदा परंपरा से धीरे-धीरे दूर होने लगे ।

उदाहरण के लिए, सर सैयद की पीढ़ी के पुराने राजनीतिज्ञों ने पश्चिमी शिक्षा-प्राप्त बुद्धिजीवियों के हक में उल्मा को हाथ भर दूरी पर रखा था । उस काल की राजनीति इस बात तक सीमित थी जिसे लेलीवेल्ड ने ”कचहरी से जुड़े खानदान” कहा है, जो केवल आत्मरक्षा के लिए अपनी मुस्लिम पहचान का प्रयोग करते थे ।

इसके विपरीत मुहम्मद अली और शौकत अली जैसे युवा नेता मौलाना अब्दुल बारी जैसे उल्मा से बहुत अधिक प्रभावित थे और उन्होंने इस प्रभाव के कारण लामबंदी के साधन के रूप में इस्लाम की प्रेरणा का नए सिरे से पता लगाया ।

इसका परिणाम वह था जिसे हम मुस्लिम राजनीति का क्रमिक इस्लामीकरण कह सकते हैं । ये युवा नेता सर सैयद के अंग्रेजों के प्रति वफ़ादारी के रुख से भी दूर होने लगे और इसके लिए संयुक्त  प्रांत के मुसलमानों के बारे में लेफिटनेंट गवर्नर मैकडोनल की गैर-सहानुभूतिपूर्ण नीतियाँ भी अंशत: ज़िम्मेदार थीं ।

कहा गया कि वह मुसलमानों पर हिंदुओं को वरीयता देता है, और यह 18 अप्रैल, 1900 के नागरी प्रस्ताव में व्यक्त हुआ जिसने अदालतों में फ्रासी के साथ-साथ नागरी लिपि के प्रयोग को मान्यता दी । जैसा कि पहले कहा गया, इसने जो विवाद पैदा किया उसे अकसर हिंदी-उर्दू विवाद कहा जाता है, क्योंकि भाषा अब सम्मान का प्रतीक और लामबंदी का केंद्रबिंदु बन गई । फिर शीघ्र ही इस मुहिम के साथ अखिल भारतीय इस्लाम के एक सांस्कृतिक केंद्र के रूप में एक अखिल भारतीय मुस्लिम विश्वविद्यालय की माँग जुड़ गई ।

लेकिन पुरानी पीढ़ी के मोहसिनुल मुल्क जैसे नेता शीघ्र ही इस आंदोलन से अलग हो गए, क्योंकि मैकडोनल ने अलीगढ़ कॉलेज के अनुदान बंद करने की धमकी दे दी । इसलिए सरकार के भेदभाव की नीतियों का विरोध करने के लिए नई पीढ़ी अकेली रह गई और शीघ्र ही उन्हे सर सैयद की वफ़ादारी की राजनीति की कमियों का एहसास हो गया उनमें से कुछ ने तो कांग्रेस में जाने तक की धमकी दे डाली ।

इसलिए पुराने नेताओं और उपनिवेशी नौकरशाही को कांग्रेस के विरुद्ध मुसलमानों को लामबंद करने और उन्हें एक स्वतंत्र राजनीतिक मच देने के लिए भी एक राजनीतिक संगठन बनाने की जरूरत महसूस होने लगी ।

इसका कारण था कि बंगाल, पंजाब और बंबई के बहुत-से मुसलमान नेता अलीगढ़ के नेतृत्व को मानने के लिए तैयार नहीं थे । बंगाली मुसलमान 1899 से ही अपने उत्तर भारतीय सहधर्मियों के निकट आने लगे थे जब मुहम्मडन एजुकेशनल कॉन्फ्रेंस का वार्षिक सत्र कलकत्ता में हुआ था ।

लेकिन पूरी तरह हार्दिक ढंग से न सही, 1906 की घटनाएँ उन्हें और भी निकट ले आईं । पूर्वी बंगाल में विभाजन के समर्थन और मुसलमानों से सहानुभूति के लिए विख्यात लेफ्टिनेंट गवर्नर बैंपफ़ाइल्ड फुलर के इस्तीफ़े और स्वयं विभाजन के निरस्त किए जाने की संभावना ने बंगाल के मुस्लिम नेतृत्व को बौखला दिया ।

फिर भारत सचिव मॉर्ले के 1906 के बजट भाषण ने संकेत दिया कि भारत में प्रातिनिधिक शासन का आरंभ किया जानेवाला है । इससे सभी मुस्लिम नेता चिंतित हो उठे, क्योंकि उनकी सोच यह थी कि इन नई स्वशासी संस्थाओं मे उनपर बहुसंख्यक हिंदू छा जाएँगे, जो अब कांग्रेस में अच्छी तरह संगठित थे ।

शिमला में 1 अक्टबर 1906 को गवर्नर जनरल लॉर्ड मिंटो के पास एक प्रतिनिधिमंडल इसी संदर्भ में गया । एक लंबे समय तक यह विचार प्रचलित रहा है कि यह प्रतिनिधिमंडल एक ”आदेश का निष्पादन” था और अलीगढ़ कॉलेज के यूरोपीय प्रिंसिपल डब्ल्यू. ए. जे. आर्कबाल्ड के माध्यम से पूरी तरह अंग्रेजों की नौटंकी था ।

लेकिन हाल के विश्लेषणों से पता चलता है कि इसकी पहल अलीगढ़ के बुजुर्गो ने, जैसे अलीगढ़ कॉलेज के सेक्रेटरी मोहसिनुल मुल्क ने, की थी जो नवयुवा मुसलमानों की भावनाओं को सहलाना चाहते थे । आशा की गई थी कि बंगाल के मुसलमान भी इस प्रतिनिधिमंडल में शामिल होंगे ।

लेकिन अंत में बंगाली मुसलमानों की शिकायतों को बहुत संवेदनशील या विभाजनकारी कहकर अनदेखा कर दिया गया और शिमला प्रतिनिधिमंडल में कोई बंगाली मुसलमान शामिल नहीं हुआ । उसका ज्ञापन जिसे अलीगढ़ी नेताओं ने तैयार किया था पूरी तरह उन्हीं के हितों का प्रतिनिधित्व करता था ।

इसने मुसलमानों को हिंदुओं से भिन्न राजनीतिक हितों वाला एक अलग समुदाय बताया और कहा कि इस कारण प्रातिनिधिक संस्थाओं और सार्वजनिक रोजगार में अल्पसंख्यक अधिकारों और आनुपातिक प्रतिनिधित्व पर उनका एक वैध दावा बनता था ।

वायसरॉय ने धैर्य के साथ इस प्रतिनिधिमंडल की बातों को सुना और पूर्वी बंगालवासियो को आश्वासन भी दिया कि उनके अधिकारों को हानि पहुँचने नहीं दी जाएगी । इस प्रतिनिधिमंडल की सफलता ने मुस्लिम राजनीति का मनोबल बहुत अधिक बढ़ाया; फिर भी यह आशा शायद ही की जा सकती थी कि मात्र मौखिक आश्वासन युवा मुसलमानों को संतुष्ट करेंगे ।

वे अपने लिए एक अलग राजनीतिक संगठन की जरूरत लंबे समय से महसूस करते आ रहे थे । इस नए आंदोलन का एक धार्मिक रुझान भी उनकी कार्यसूची में शामिल था जैसा कि लेलीवेल्ड (1978) ने दिखाया है, कौम (साझे मूल पर आधारित समुदाय) की जगह स्पष्ट तौर पर उम्मा (साझे धर्म पर प्राधारित समुदाय) पर बल दिया जाने लगा ।

इसलिए शिमला गए 35 प्रतिनिधियों ने स्वतंत्र राजनीतिक कार्रवाई के लिए समुदाय को संगठित करने का निर्णय किया ताकि, प्रतिनिधिमंडल के नेता आगा खाँ के शब्दों का प्रयोग करें तो, वे अपने लिए सरकार से “एक राष्ट्र के अंदर एक राष्ट्र” की मान्यता पा सकें ।

मुहम्मडन एजुकेशनल कॉन्फ्रेंस का अगला वार्षिक सत्र दिसंबर 1906 में ढाका में होनेवाला था, जो नए पूर्वी बंगाल-असम प्रांत की राजधानी था । इसलिए एक नई मुस्लिम पार्टी के आरंभ के लिए इस अवसर का उपयोग करने का निर्णय किया गया ।

ढाका में स्थिति पहले ही विस्फोटक हो रही थी । बंग-भंग के विरुद्ध राष्ट्रवादी आंदोलन में अप्रत्याशित गति आ चुकी थी और बंगाली मुसलमानों में व्यापक स्तर पर यह डर था कि सरकार राष्ट्रवादियों के दबाव के आगे ठनकर विभाजन को रद्द कर देगी, जिससे मुसलमानों की हानि होगी ।

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