ब्रिटिश शासन के खिलाफ श्रमिक वर्ग आंदोलन | Working Class Movement Against British India.

भारत के क्रमिक उद्योगीकरण के कारण न केवल भारतीय पूंजीपति सार्वजनिक जीवन में उभर कर सामने आए, बल्कि उसने एक औद्योगिक मजदूर वर्ग भी पैदा किया ।

उन्नीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों से पूर्वोत्तर और दक्षिण भारत में चाय बागान के विकास और एक नवजात लोहा और इस्पात उद्योग के आरंभ ने, उन्नीसवीं सदी के मध्य से रेल-निर्माण के आरंभ ने, इसी काल  में  पूर्वी भारत में खनन कार्य के आरंभ ने तथा पहले विश्वयुद्ध के समय से दो उद्योगों-कलकत्ता और उसके आसपास जूट उद्योग की तथा बंबई और अहमदाबाद में सूती उद्योग के विकास ने भारत में संगठित क्षेत्र में एक औद्यौगिक मजदूर वर्ग को जन्म दिया ।

उन्नीसवीं सदी के अंतिम और बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षो में मजदूर वर्ग के आकार  में विशाल वृद्धि हुई । जनगणना के   आँकड़ों   के अनुसार 1911 में 30.3 करोड़ की जनसंख्या में संगठित उद्योग क्षेत्र के मजदूरों की संख्या लगभग 21 लाख थी; 1911 और 1921 के बीच इसमें लगभग 5.75 लाख मजदूरों की वृद्धि हुई ।

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इनके अलावा तथाकथित ‘अनौपचारिक क्षेत्रों’ के मजदूर भी थे, जैसे गोदियों (docks) और बाजारों में कार्यरत आकस्मिक मजदूर या घरेलू नौकर, जिनके बारे में हमारे पास बहुत कम जानकारी है । शहरों के औद्योगिक मजदूर वर्ग की यह संख्या-वृद्धि गाँवों से शहरों की ओर निरंतर होनेवाले पलायन के कारण जारी रही ।

कुछ इतिहासकारों के अनुसार यह पलायन ‘कर्षक बल’ (push factor) का परिणाम था; गाँवों के गरीब अपने गाँवों से इसलिए बाहर निकले कि अति-तनावग्रस्त खेतिहर अर्थव्यवस्था एक अतिरिक्त श्रमबल का बोझ अब और नहीं उठा सकती थी ।

मॉरिस डी. मॉरिस का तर्क है कि ”भूमिहीन मजदूरों और सीमांत किसानों” की बढ़ती संख्या ”बंबई के सूती मिलों के लिए संभावित श्रमबल का एक बड़ा भाग था ।” उधर पूर्वी भारत में, रणजीत दासगुप्त के शब्दों में, ”ग्रामीण अर्थव्यवस्था में … पर्याप्त रोजगार पाने में असमर्थ तबाह हो चुके दस्तकार (हस्तशिल्पी), मजदूर जिन्हें पर्याप्त रोजगार नहीं उपलब्ध है … खेतिहर अर्थव्यवस्था में हो रहे परिवर्तनों से अस्तव्यस्त हो चुके खेतिहर और अकुशल व्यक्ति जूट मिलों में कार्यरत कामगारों का बहुमत” थे ।

लेकिन वे (दासगुप्त) यह भी मानते हैं कि उन कामगारों का ”एक बड़ा भाग भूस्वामी किसान समूहों से” भी आता था । हाल के वर्षों में इस रूढ़ छवि के बारे में संदेह व्यक्त किए गए हैं; उदाहरण के लिए अर्जन दे हान (1995) ने जिन्होंने पूर्वी भारत में श्रमिकों के प्रवास के अनेक कारणों की पहचान की है; इन कारणों में केवल ”भूमि की कमी के कारण लगनेवाला ‘कर्षक बल’ ही नहीं” है, बल्कि औद्योगिक रोजगार के आकर्षण और शहरी जीवन के प्रलोभन भी शामिल हैं ।

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अलग-अलग व्यक्तियों के लिए प्रवास की ये प्रेरणाएँ अलग-अलग थीं; (शहरों में) भूमिवान व्यक्ति भी प्रवास करते थे और भूमिहीन भी । अधिकांश मामलों में यह प्रवास मौसमी होता था, क्योंकि अधिकांश प्रवासी गाँवों से नियमित संबंध बनाए रखते थे, फसलों की कटाई के समय या शादी-ब्याह के समय या त्योहारों के दिनों में अपने पुश्तैनी घरों (गाँवों) को वापस जाते थे, और अपने परिवारों को नियमित रूप से पैसे भेजते थे ।

राजनारायण चंदावरकर का तर्क है कि शहरों में प्रवास और गाँवों से  संबंध बनाए रखना उनके लिए ”सायास चयन” का सवाल था, क्योंकि इसको कर्जों की अदायगी का, जमीनें अपने हाथ में बनाए रखने का तथा ग्रामीण समाज में अपने पद और प्रतिष्ठा में वृद्धि का साधन समझा जाता था । इसके अलावा, बाप-दादों के गाँव वाले ”घर” के साथ संबंधों के जारी रहने के कारण जो मनोवैज्ञानिक सहारा मिलता था, वह शहर के जीवन की अनिश्चिताओं का समाधान हुआ करता था ।

इस कारण शहरी-औद्योगिक बस्तियों में ये प्रवासी मजदूर एक मजदूरवर्गीय चेतना विकसित करने की बजाय सांस्कृतिक द्वैत्व से युक्त एक व्यक्तित्व बनाए रखते थे, एक किसान और एक औद्योगिक मजदूर के रूप में, तथा धार्मिक समूहों और जातियों में विभाजित रहते थे ।

मजदूर बस्तियों की जनांकिकीय संरचना ठीक उन्हीं गाँवों जैसी लगती थी जहाँ से वे आते थे; दूसरे शब्दों में, उनके ग्रामीण संबंध उनके शहरी-औद्योगिक परिवेश में भी बने रहते थे । मजदूरों के मुहल्लों में धार्मिक समूहों के भौतिक अलगाव के अलावा उनकी सामुदायिक पहचान अपने आप को खानपान पर जाति-सम्मत प्रतिबंधों के पालन में, उनकी वेश-भूषा में और उनके उन नारों में व्यक्त करती थी, जिनमें अकसर धार्मिक मुहावरों का प्रयोग किया जाता था ।

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कार्यस्थलों पर भी किसी उद्योग के विभिन्न विभाग पूरी तरह विशेष धार्मिक समुदायों या सामाजिक समूहों द्वारा संचालित होते थे । अकसर अच्छी नौकरियाँ ऊँची जातियों के लोग पाते थे, जबकि निचली जातियों और अछूतों के हिस्से में कम वेतन वाली और जोखिमभरी नौकरियाँ आती थीं ।

इस तरह आरंभ से ही यह मजदूर वर्ग विभेदीकृत संपन्न और श्रेणीबद्ध रहा और कुछ इतिहासकारों के अनुसार ऐसा भरती की एक ढाँचाबद्ध प्रणाली के कारण हुआ । यूरोप की स्थिति के विपरीत भारत में एक सर्वहारा बन रहे किसान वर्ग में से खुली भरती की कोई व्यवस्था नहीं थी; भरती अकसर ठेकेदारों  के माध्यम से की जाती थी ।

पूर्वी और पश्चिमी भारत में सरदार और उत्तर में मिस्त्री कहलाने वाले ये लोग मजदूरों मे से ही नियुक्त किए जाते थे । मालिकों के अनुसार श्रम की घटती-बढ़ती माँग की स्थिति में ये ठेकेदार मजदूरों की नियमित आपूर्ति के साधन होते थे ।

रोजगार की अत्यंत अस्थायी प्रकृति के कारण मजदूरों की दृष्टि में ये ठेकेदार संरक्षण के स्रोत होते थे, क्योंकि वे रोजगार दिलाते थे, सर पर छत (आवास) पाने में मदद करते थे और बेरोजगारी के दिनों मे कर्ज की जमानत देते थे ।

गाँव, समुदाय और जाति के संबंधों के आधार पर इन सरदारों की अपनी प्राथमिकताएँ होती थीं और इस तरह उनके इर्द-गिर्द परस्पर निर्भरता के सामाजिक ताने बान बुने जाते थे । शहरों की मजदूर बस्तियों में ये तानेबाने अनेक रूपों मे अभिव्यक्त होते थे और बेहद असहाय स्थिति में होने के कारण इन मजदूरों को संरक्षण और सुरक्षा के लिए इन्हीं संबंधों पर निर्भर रहना पड़ता था ।

इसलिए, जैसा कि मॉरिस का तर्क है, ये ठेकेदार न सिर्फ मजदूरों को भरती कराते थे, बल्कि ”श्रम-अनुशासन लागु कराने में वे अनियंत्रित शक्ति” से भी लैस होते थे । सरदारों की भूमिका की इस अतिशयोक्ति पर कुछ आधुनिक विद्वानों ने सवाल उठाए हैं ।

किसी विशेष विभाग में समुदायविशेष का जमाव मालिक की भरती संबधी विशेष नीति का भी परिणाम होता था; ये मालिक अकसर उपनिवेशवादी रूढ़ छवियो से प्रभावित होते थे । फिर अगर धार्मिक और उपजातीय (ethnic) श्रेणीकरण का बहुत महत्त्व था, तो भारतीय उद्योगों की नीतियों  में लैंगिक असमानताएँ तो और भी गहरी जड़ जमाए बैठी थीं ।

जैसा कि शमिता सेन ने दिखाया है, बंगाल की जूट मिलों में कुछ कामो की पहचान स्त्रियों के लिए उनकी पारिवारिक व्यस्तताओं और संतानोत्पत्ति की जिम्मेवारी के कारण, खास तौर पर उन्हीं के लिए ”उपयुक्त” काम के रूप में की गई थी । ये काम आमतौर पर अकुशल और इसलिए कम वेतन वाले होते थे ।

इस तरह दूसरे शब्दों में, रोजगार पाने के लिए मजदूर वैचारिक प्राथमिकताओं और निजी संबंधों के एक पूरे ताने-बाने पर निर्भर होते थे, और सरदार इस ताने-बाने का बस एक हिस्सा भर होते थे । मजदूर अगर सरदारों पर निर्भर होते थे तो दूसरी और तब वे उनकी अवज्ञा भी करते थें और उनके विरुद्ध हो जाते थे, जब ये संरक्षक कुछ करा नहीं पाते थे या उनके हितों के विरुद्ध कुछ करते थे ।

1919-20 में कलकत्ता के जुट मिलो में सरदारों के विरुद्ध अनेक हड़तालें हुई और आंदोलन हुए, जिनसे ”सरदारी ताकत का भ्रम” चूर हो जाता है । दूसरी ओर, हमेशा मालिकों के हितों की चाह और कार्यस्थल पर अनुशासन बनाए रखना तो दूर, कभी-कभी सरदार स्वयं ही मजदूर आंदोलनों के संगठनकर्त्ता बन जाते थे, जैसा कि कलकत्ता के जूट मिलों में 1927 और 1937 में हुआ ।

पश्चिम भारत में सरदार के कामकाज पर बस्ती या कार्यस्थल के अंदर की ही अनेक शक्तियाँ अंकुश लगाती थीं तथा 1920 और 1930 के दशकों के दौरान मजदूरवर्गीय राजनीति के विकास के कारण उनका सामाजिक प्रभाव निश्चित रूप से कम हुआ ।

जैसा कि चंदावरकर का कथन है, सरदार सामाजिक अंतर्निभरता के एक अनौपचारिक तंत्र के  अंग   होते थे; सरदारी की व्यवस्था वास्तव में ”ग्रामीण प्रवासियों के कार्यो और स्वतंत्र संगठनों” की देन थी; केवल श्रमिकों को नियंत्रण में रखने के लिए मालिकों की पैदा की हुई व्यवस्था नहीं थी ।

फिर भी, जिस बात को शायद ही अस्वीकार किया जा सके, वह यह है कि ये प्रवासी श्रमिक अपने सामुदायिक संबंधों और संगठनों में गुँथे हुए रहे और जैसा कि कहा गया, इस बात ने वर्गीय चेतना के विकास में बाधा पहुंचाई । इसका यह अर्थ निश्चित ही नहीं कि वे अपनी सामाजिक स्थिति के प्रति चेतन नहीं थे ।

जैसा कि दीपेश चक्रवर्ती ने दिखाया है, वे अपनी गरीबी के बारे में पूरी तरह जागरूक थे, फैक्टरियों के अंदर के शक्ति-संबंधों के प्रति सजग थे, और रोजगार में अपनी अधीनता के प्रति असंतुष्ट थे । तोड़-फोड़ के उदाहरण भी सामने आए और फैक्टरी में शक्ति की संरचना को उलट-पलट करने की कोशिशें भी की गईं ।

फिर भी उनकी मालिक विरोधी मानसिकता, मजदूर या गरीब के रूप में उनकी पहचान की भावना अकसर दूसरी अधिक संकीर्ण और परस्परविरोधी पहचानों से गुँथी हुई रही । इस तरह धार्मिक और जातिगत विभाजनों ने मजदूरों में क्षैतिज विभाजन बनाए रखा, और औद्यौगिक कार्रवाइयों को कमजोर करने के लिए मालिकों ने अकसर इनका उपयोग किया ।

उदाहरण के लिए, 1921 में मद्रास की कपड़ा मिलों की हड़ताल में सवर्ण हिंदू या मुस्लिम यूनियनवालों के खिलाफ आदि-द्रविड़ों (अछूतों) का उपयोग हड़ताल तोड़ने वालों के रूप में किया गया । औद्योगिक बस्तियों में हिंदू और मुसलमान मजदूरों  के   बीच लगातार सांप्रदायिक दंगे होते रहे; एक मस्जिद गिराए जाने के बाद कलकत्ता में 29 जून 1897 का तल्ला दंगा इसका एक आँखें खोल देने वाला मात्र एक उदाहरण है ।

कहा गया है कि मजदूरों की इस तरह की कार्रवाइयाँ वर्गीय चेतना से अधिक उनकी ”सामुदायिक” चेतना से प्रेरित होती थीं । चक्रवर्ती के अनुसार इसकी व्याख्या उनकी ”पूँजीवाद-पूर्व की संस्कृति” के आधार पर की जा सकती है । यह बात ट्रेड यूनियनो के सीमित विकास में सबसे अधिक स्पष्ट हुई, हालांकि औद्योगिक कार्रवाइयों की कोई कमी नहीं थी ।

चक्रवर्ती का कथन है कि ”इतना अधिक जुझारूपन और फिर भी इतना कम संगठन” मजदूर वर्ग के इतिहास का एक ”विरोधाभास” है । इसका कारण यह था कि एक ”पूँजीवादी लोकतांत्रिक संगठन” के रूप में ट्रेड यूनियन की धारणा भारतीय मजदूरों के सांस्कृतिक जीवन के लिए अजनबी थी ।

यहाँ तक कि ट्रेड यूनियनों के मध्यवर्गीय नेताओं के साथ उनके संबंध भी एक श्रेणीबद्ध ढाँचे में- ”बाबू-कुली संबंध” -के रूप में गुँथे हुए रहे । इसलिए आश्चर्य नहीं कि ऐसी स्थिति में एक अधिक परिष्कृत वर्गीय चेतना का जन्म नहीं हुआ ।

अगर हम ऐसी आशाएँ न रखें कि भारत के औद्योगिक मजदूरों को भी अपने यूरोपीय भाइयों की तरह एक मजदूरवर्गीय चेतना का विकास करना चाहिए था, तो हो सकता है कि हम उनके इतिहास को एक अलग ढंग से देखने लगें और उनकी राजनीति के कुछ अधिक दिलचस्प सूक्ष्म भेद (nuances) सामने आएँ ।

जैसे मद्रास में आदि-द्रविड़ों के अधिक हड़तालतोडने वाला बनने का कारण यह था कि सवर्ण हिंदुओं और मुसलमानों के मुकाबले जीवन-निर्वाह के लिए मजदूरी पर अपनी पूरी निर्भरता के कारण वे आर्थिक रूप से काफी असहाय थे । अनेक उदाहरणों में जो एक बात ”सांप्रदायिक दंगा” नजर आती थी, वह वस्तुत: पूरी तरह सांप्रदायिक नहीं होती थी ।

तल्ला दंगा समेत अनेक दंगों में हमले के मुख्य निशाने पुलिसवाले थे, और धार्मिक विभाजक रेखा के आरपार भी सहयोग के उदाहरण सामने आए । कलकत्ता की तरह कानपुर में भी, 1900 की प्लेग संबंधी उथल-पुथल या 1913 के मछली बाजार के दंगे में खास शिकायत एक हस्तक्षेपकारी राजसत्ता के विरुद्ध रही ।

1900 वाली उथल-पुथल तो, 1898 में बंबई या कलकत्ता की ऐसी ही उथल-पुथल की तरह, प्लेग संबंधी ऐसे नियम-कानूनों को लागू करने के कारण भड़की, जिनसे निजता के धार्मिक आचार-विचार प्रभावित होते थे, जबकि मछली बाजार का दंगा सड़क-निर्माण की परियोजना के कारण एक मस्जिद के गिराए जाने पर भड़का ।

दूसरी ओर, यह बात भी ध्यान में रहे कि अपने वर्गीय हितों और माँगों को पूरा कराने के लिए समुदायों के बीच वर्गीय एकजुटता को बढ़ावा देने के उद्देश्य से मजदूर अकसर अपने अनौपचारिक सामुदायिक संबंधों का तथा मस्जिद या गुरुद्वारा जैसी धार्मिक संस्थाओं का उपयोग करते थे और कभी-कभी टकराव के काल में गिरते मनोबल को दोबारा बढ़ाने के लिए धार्मिक मुहावरों और नारों का सहारा लेते थे ।

लेकिन, इस सिलसिले के दूसरे छोर पर, अनालोचनात्मक  ढंग   से यह मानने का कोई कारण नहीं है कि मजदूरों की मानसिकता हमेशा उनके धर्म से संचालित होती थी । शहरी कार्यस्थल के समताकारी प्रभावों ने पुरानी वफ़ादारियों को भी कमजोर किया और नए संबंधों की नींव रखी ।

जैसा कि मैसूर में कोलार सोना खदानों के मजदूरों  में   जानकी नायर ने देखा, ”बुद्धिवाद और नास्तिकता की बढ़ती लहर तक ने भी अनेकों का मत-परिवर्तन कराया ।” कम मजदूरियों, काम की अनुपयुक्त दशाओं और अकसर जीवन के अधोमानवीय (sub-human) वातावरण के प्रति मजदूरों की प्रतिक्रिया आम तौर पर वह चीज होती थी, जिसे एक लेखक ने ”विमुक्त प्रतिरोध (disaggregated resistance) कहा है, जिसका अर्थ निकासी और अनुपस्थिति है; पूरे औद्योगिक परिदृश्य में इसके ढेरों उदाहरण देखने को मिलते हैं ।

लेकिन इसे छोड़ दें तो ट्रेड यूनियनों के सीमित विकास के बावजूद भारतीय उद्योगों में सफल हड़तालों का एक सिलसिला रहा है । और इसका कारण वह अनौपचारिक समुदाय रहा है जिसका उल्लेख किया जा चुका है । बंबई के कपड़ा मजदूरों ने 1919 और 1940 के बीच आठ बार हड़ताल की, हर बार उनकी हड़ताल एक माह से ऊपर चली और 1928-29 में तो साल भर से ऊपर चली ।

और सिर्फ बंबई ही नहीं, ऐसी हड़तालें अहमदाबाद (1918, 1923, 1935, 1937), शोलापुर (1920, 1928, 1934, 1937), कलकत्ता (1920-21,1929, 1937), जमशेदपुर (1920, 1922, 1928, 1942), नागपुर (1934), मद्रास (1918, 1921), कोयंबटूर (1938) और रेलवे (1928, 1930) में भी हुईं ।

ट्रेड यूनियनों का जन्म वास्तव में ऐसे ही टकरावों से हुआ । इसलिए मजदूरों के समुदाय, वर्ग और सामूहिक कार्रवाई के इसी जटिल ताने-बाने में हमको उपनिवेशी राजसत्ता और राष्ट्रवाद के साथ उनके संबंधों का पता लगाना होगा।

उपनिवेशी राजसत्ता के प्रति मजदूरों का रुख गाँवों में हाकिमों (अधिकारियों) के साथ उनके पिछले अनुभवों से तय हुआ । वहाँ उनको जमींदार और राज्य के गठजोड़ का सामना करना पड़ता था, जबकि उद्योग केंद्रों में उनको अपनी रोजमर्रा की जिंदगी पर इसी गठजोड़ का एक और रूप हावी नजर आया ।

मालिकों के संगठनों पर, जैसे कलकत्ता के इंडियन जूट मिल्स एसोसिएशन पर यूरोपवालों का वर्चस्व था; बॉम्बे मिल ओनर्स एसोसिएशन पर हालाँकि भारतीय पूँजीपतियों का नियंत्रण था, पर फिर भी उसे इसी विजातीय साम्राज्यिक संस्कृति का विस्तार समझा जाता था ।

इसका कारण एक बड़ी सीमा तक इन पूँजीपतियों की यूरोपीय जीवन शैली थी उनका यूरोपीय मिल-मालिकों से खुला सामाजिक मेलजोल था और राज्य की मालिक-समर्थक नीतियों ने ऐसी छवियों को और भी प्रखर बनाया ।

निश्चित ही ऐसे कुछ कानून बनाए गए जिन्होंने कामगारों की आयु और काम के घंटों का निश्चय किया, जैसे बंगाल में 1881 और 1911 के फैक्टरी ऐक्ट्स । लेकिन राज्य की सक्रिय मिलीभगत से मालिक ऐसे कानूनों का बेझिझक उल्लंघन करते रहे और लंबे घंटों तक मजदूरों का काम करना जारी रहा, उन्हें कम मजदूरी दी जाती रही और वे गंदगी की दशाओं मैं रहते रहे ।

पूर्वी भारत   के   कोयला क्षेत्रों में कोयला खदानें वास्तव में ”जमींदारी जागीरों के औद्योगिक समकक्ष” की तरह काम करती रहीं और यहाँ की जमींदारी के प्रबंधक हमेशा ही यूरोपवासी होते थे । आम नियम यह था कि खदान मजदूरों को ऐसे सेवा संबंधी अनुबंधों में बाँध दिया जाए, जिनके अंतर्गत उनको खदानों में मजदूरी के बदले जमीन का छोटा-सा एक टुकड़ा दे दिया जाता था ।

1908 में छोटानागपुर टेनेंसी ऐक्ट ने सेवा के ऐसे अनुबंधों पर रोक लगा दी । लेकिन ये तब तक बेरोकटोक जारी रहे जब तक कि मंदी ने 1930 के दशक के दौरान उनको व्यर्थ नहीं बना दिया, और स्थानीय उपनिवेशी अधिकारी कानून के इस सांयास उल्लंघन को भी गलत नहीं समझते थे ।

इसी तरह असम के चाय बागानों में, जहाँ 1926 में घृणित करार व्यवस्था (indentured system) का उन्मूलन किया गया, मजदूरों के साथ ”फिर से करार” करने की “कानूनेतर” (extra legal) प्रथा राज्य के हस्तक्षेप के बिना जारी रही । 1920 के दशक में, थोड़े समय के लिए ही सही, उपनिवेशी राज्य और कुछ मालिकों ने वार्ताओं के वैध माध्यमों के रूप में ट्रेड यूनियनों की उपयोगिता का अनुभव किया ।

यह 1919 के कानून के अंतर्गत विधायिकाओं में श्रमिक वर्ग को प्रतिनिधित्व दिए जाने की प्रतिक्रियास्वरूप हुआ; बाद में इस सिद्धांत को नगरपालिकाओं में भी लागू किया गया । इस तरह रवैये का यह परिवर्तन हृदय-परिवर्तन कम था और ”सीमित रखने के विचार” पर अमल अधिक था ।

बंबई के कपड़ा मिलों में 1928 की आम हड़ताल के बाद और पूरे 1930 के दशक के दौरान राज्य ने ट्रेड यूनियनों और मजदूर वर्ग की कार्रवाइयों के प्रति केवल शुद्ध शत्रुता का प्रदर्शन किया । मजदूर वर्ग के जुझारूपन और ट्रेड यूनियनों की कार्रवाइयों पर रोक लगाने के लिए 1934,1938 और 1946 में अनेक श्रम-विरोधी कानून ही नहीं बनाए गए, बल्कि बार-बार पुलिस का उपयोग भी हड़तालें तोड़ने और मजदूरों पर अनुशासन लादने का एक आसान हथियार बन गया ।

ऐसा पूरे भारत के हर उस औद्योगिक केंद्र में हुआ, जहाँ राजसत्ता के एकमात्र गोचर प्रतिनिधि के रूप में पुलिस मजदूरों को दमन के लंबे हाथ समान नजर आती रही । भारतीय मजदूर अगर बँटे हुए रहे, अगर आपस में प्रतियोगिता करते रहे और ट्रेड यूनियन आंदोलनों में शामिल नहीं होते थे, तो यह सब एक बड़ी हद तक इसी मालिक-राज्य मिलीभगत का परिणाम था ।

उद्योग और फैक्टरी, दोनों के स्तर पर मजदूरों को एकता के प्रयास करने पर निकाला, धमकाया, दबाया जाता था और कभी-कभी उन पर शारीरिक हमले कराए जाते थे, जबकि हड़ताल होने पर, श्रम की अति-आपूर्ति के कारण मालिक हड़ताली मजदूरों को आसानी से बरखास्त कर देते थे ।

इन सभी बातों में राज्य हमेशा मालिकों का साथ देता था । जैसा कि चंदावरकर का तर्क है, इन कारणों ने  ट्रेड यूनियनों के विकास को बाधित किया । बॉम्बे टेक्सटाइल लेबर यूनियन या अहमदाबार टेक्सटाइल लेबर एसोसिएशन जैसी बड़ी यूनियनें तक मालिकों और राज्य के दबाव के सामने असहाय होती थीं ।

बिन्नी वालों जैसे बड़े अंग्रेज कपड़ा मिल-मालिकों ने 1921 में अस्थायी रूप से, प्रांतीय नौकरशाहों की अपेक्षाकृत खुली सहायता के बल पर, मद्रास लेबर यूनियन को कुचल ही दिया था । जब भी अवसर मिला, टिस्को के प्रबंधकों ने जमशेदपुर लेबर एसोसिएशन को कुचलने की कोशिश की, हालांकि उसे कांग्रेसी नेताओं का सक्रिय संरक्षण प्राप्त था और मालिकों के प्रति उसकी वफ़ादारी जगजाहिर थी; इस सिलसिले में स्थानीय उपनिवेशी प्रशासन हमेशा प्रबंधकों का साथ देता रहा ।

यहाँ तक कि गुंडों या लंपट तत्त्वों को भी, जिनको मालिकों का हमेशा संरक्षण मिलता रहता था और जो हड़तालें तुड़वाने के लिए लगाए जाते थे, हिंसा के संस्थाबद्ध साधनों के रूप में स्थानीय पुलिस अधिकारियों से सुरक्षा मिलती रहती थी । दूसरे शब्दों में, कुछ ऐसी गंभीर बाधाएँ थीं, जो मजदूरों को एक होने से रोकती, बल्कि हतोत्साह करती रहती थीं ।

ऐसी बाधाओं और सीमित ट्रेड यूनियनवाद के बावजूद, जैसा कि कहा गया, उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों से ही श्रमिक असंतोष बढ़ता जा रहा था । 1890 के दशक के दौरान कलकत्ता के जूट मिलों में कार्यस्थल संबंधी नए अनुशासन, बकरीद जैसे त्योहारों पर छुट्टी देने से इनकार और ऐसे प्रतिबंधों को लागू कराने के लिए राज्य के सक्रिय हस्तक्षेप के कारण अनेक हड़ताल हुई ।

पहले विश्वयुद्ध के अंतिम वर्षों में वास्तविक मजदूरियों में युद्धकालीन गिरावट के कारण असंतोष बढ़ा जिसके कारण अनेक हड़तालें हुई । इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण थीं मार्च 1918 में अहमदाबाद की कपड़ा मिल-मजदूरों की हड़ताल, जिसका नेतृत्व स्वयं गांधी ने किया और जनवरी 1919 में बंबई की कपड़ा मिल-मजदूरों की हड़ताल ।

इन औद्योगिक कार्रवाइयों को अकसर ‘स्वत: स्फूर्त’ आंदोलन कहा गया है, जिनमें कोई केंद्रीय नेतृत्व नहीं था, हड़तालियों में कोई समन्वय नहीं था, कोई कार्यक्रम या संगठन नहीं था-यानी ”मजदूर वर्ग के विद्रोह” (jacquerie) जैसी कोई चीज ।

पश्चिमी भारत के कपड़ा मिलों की तरह कलकत्ता की जूट मिलों में भी इस दौर में अभूतपूर्व श्रमिक असंतोष देखा गया: 1920 में 119 तो 1921 में 151 हड़तालें हुई । 1922 के बाद स्थिति थोड़ी-सी सुधरी तो मंदी के आगमन ने स्थिति को दोबारा बिगाड़ दिया । इस संकट से पार पाने के लिए बंबई के मिल-मालिकों ने पुनर्गठन (rationalization) की नीतियाँ अपनाई, जिनका अर्थ था छँटनी, मजदूरी में गिरावट और काम के बोझ में बढ़ोतरी ।

मिल-मजदूरों की समस्याएँ इनके कारण इतनी बड़ी कि एक अकेले मिल के स्तर पर उनको हल किया ही नहीं जा सकता था और इस तरह 1928-29 में पूरे कपड़ा उद्योग में एक आम हड़ताल हुई । पुनर्गठन की नीतियों के विरोध में 1928 में जमशेदपुर के छब्बीस हजार टिस्को मजदूरों ने भी गंभीर औद्योगिक कार्रवाई की ।

कलकत्ता की जूट मिलों में इंडियन जूट मिल्स एसोसिएशन ने काम के लंबे घंटे तय किए, तो 1929 में एक आम हड़ताल हुई जिसमें दो लाख बहत्तर हजार मजदूरों ने भाग लिया । मजदूर वर्ग का जुझारूपन अब तक इतना बढ़ चुका था कि सुस्थापित राजनीतिक समूह अब उसकी उपेक्षा नहीं कर सकते थे ।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने आरंभ से ही मजदूर वर्ग के प्रति एक अस्पष्ट रुख अपनाया । स्वदेशी के दौर में यूरोपीय स्वामित्व वाले उद्योगों और रेलों में मजदूरों की हड़तालें कराने के छिटपुट प्रयास हुए । लेकिन मजदूरों की लामबंदी के लिए राष्ट्रवादी नेताओं ने शायद ही कोई पहल की होगी ।

मजदूर वर्ग की ”स्वत: स्फूर्त” कार्रवाई ने कभी एक अनुकूल वातावरण पैदा किया, तो उन्होंने उसे केवल अपने आंदोलन से जोड़ने के लिए हस्तक्षेप किया । 1918 तक जब हड़तालें शुरू हुई और मजदूर वर्ग अपना दावा जतलाने लगे, तो कांग्रेस के लिए उनकी उपेक्षा करना अधिकाधिक कठिन होता चला गया ।

इसलिए उसने 1919 में अपने अमृतसर अधिवेशन में एक प्रस्ताव के जरिये प्रांतीय कमिटियों से ”पूरे भारत में मजदूर संघों को बढ़ावा देने” का आग्रह किया । लेकिन तब तक बड़े उद्योगपतियों से भी उसका गहरा संबंध विकसित हो चुका था । इसलिए श्रमिक मोर्चे पर कांग्रेस वहीं अधिक मुखर हो सकती थी, जहाँ सवाल यूरोपीय पूंजीपतियों का होता था, जैसे रेलों, जूट मिलों या चाय बागानों में ।

भारतीय पूँजीपति जहाँ प्रभावित होते थे, वहाँ उन्होंने संयमकारी प्रभाव डाला, जैसे जमशेदपुर के इस्पात संयंत्र में या बंबई और अहमदाबाद के कपड़ा उद्योग में । मजदूरों से अकसर राष्ट्र के भविष्य के लिए अपनी आज की जरूरतों को कुरबान करने को कहा जाता था क्योंकि भारतीय उद्योग को प्रभावित करनेवाली किसी हड़ताल को ऐसा बताया जाता था कि इससे विदेशी आर्थिक प्रभुत्व और मजबूत हो सकता है ।

मजदूरों की अनसुलझी तकलीफें तो स्वराज मिलने के बाद दूर की जाने वाली थीं । 1920 के दशक से ही कांग्रेस की ये दुविधाएं बहुत स्पष्ट नजर आने लगी थीं और अकसर मजदूर मुखर होकर, कभी-कभी हिंसक ढंग से उनको अस्वीकार कर देते थे ।

कुछ कांग्रेसी नेताओं ने समय-समय पर हड़तालों में भाग लिया, जैसे 1918 में अहमदाबाद की कपड़ा मिल हड़ताल में गांधी ने और 1928-29 में जमशेदपुर की इस्पात हड़ताल में सुभाषचंद्र बोस ने: कुछ दूसरे नेता ट्रेड यूनियन आंदोलन में भी शामिल हुए, जैसे मद्रास में वी. वी. गिरि और अहमदाबाद में गुलजारीलाल नंदा ।

पर उन्होंने यह सब व्यक्तिगत स्तर पर अकसर राष्ट्रवादी नेताओं के रूप में अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए किया । उनमें से कुछ तो अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस की स्थापना से भी जुड़ रहे जिसका गठन 1920 में, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के लिए एक भारतीय प्रतिनिधिमंडल गठित करने के उद्देश्य से किया गया था ।

हालांकि 1920 के दशक में  उससे संबद्ध ट्रेड यूनियनों की संख्या बड़ी, पर उसका राष्ट्रीय अस्तित्व ”अधिकतर काल्पनिक” ही रहा, सिवाय 1929 के जब उसके साम्यवादी अधिग्रहण का खतरा पैदा हुआ । अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस से गांधी की चिढ़ जगजाहिर थी और उन्होंने अहमदाबाद यूनियन को, जो हमेशा उनकी वफादार रही, इस संगठन में शामिल न होने को कहा ।

उनका तर्क था कि ”राजनीतिक उद्देश्यों के लिए मजदूरों की हड़तालों का उपयोग करना भारी भूल” होगी । 1918 से ही वे पूँजी और श्रम के सामंजस्यपूर्ण संबंधों का दर्शन विकसित करते आ रहे थे, जिसे पारिवारिक संबंधों की शब्दावली में व्यक्त किया जाता था ।

इसलिए 1920 में कांग्रेस के असहयोग के प्रस्ताव ने विदेशी एजेंटों द्वारा मजदूरों के दमन की बात तो की, पर यह जिक्र करने से रह गया कि भारतीय मालिक भी ऐसे ही अत्याचार करते रहते थे । फलस्वरूप भारतीय स्वामित्व वाले उद्योगों के प्रबन्धक कांग्रेसी नेताओं के प्रभुत्व वाली  ट्रेड   यूनियनों को, जैसे अहमदाबाद और जमशेदपुर वाली यूनियनों को, वार्ता के लिए अधिक वांछित वैध माध्यम समझते थे ।

अहमदाबाद मिल ओनर्स एसोसिएशन के सेठ मंगलदास का विचार था कि ”अपने सदस्यों में अनुशासन की भावना भरना” और इस तरह उत्पादकता बढ़ाना ऐसे श्रमिक सगठनों का ”पहला कर्त्तव्य” है । दूसरी ओर, ऐसे संगठनों में मजदूरों की आस्था कम ना रहती थी ।

अहमदाबाद में 1921-22 के दौरान अनेक हड़तालें हुई और यूनियनें उनको नियंत्रित करने में असफल रहीं, जबकि 1923 की उस हड़ताल की असफलता के बाद,  जिसमें यूनियन ने पहल की थी उसकी सदस्यता तेजी से गिरी ।

जमशेदपुर में 1928   की  हड़ताल के बाद यूनियन के नेता सुभाष बोस को गोरखा पुलिस का संरक्षण देना पड़ा, क्योंकि टिस्को के प्रबंधकों के साथ उन्होंने जो समझौता किया था उसके कारण उनके अपने समर्थक उनके विरुद्ध हो गए ।

फिर भी, कांग्रेस की सांगठनिक उदासीनता के बावजूद, देश के विभिन्न भागों में मजदूर वर्ग ने राष्ट्रीय आंदोलन में जोर-शोर से भाग लिया । गांधीवादी एजेंडे पर उनकी सीधी भागीदारी चयनित होती थी, लेकिन अहम बात यह है कि अकसर उन्होंने अपने संघर्षों और औद्योगिक कार्रवाइयों में राष्ट्रीय आंदोलन का एकीकरण किया ।

1920-21 में बंगाल के औद्योगिक केंद्रों में हड़तालों की लहरें सीधे-सीधे खिलाफत-असहयोग आंदोलन के कारण पैदा नई भावना और उत्साह से प्रेरित थीं । असम के चाय बागानों, असम-बंगाल रेलवे की हड़तालों और मई 1921 में चाँदपुर के स्टीमर कर्मचारियों की हड़ताल का भी इस आंदोलन से सीधा संबंध था ।

अहमदाबाद में असहयोग आंदोलन के बाद वाले दिनों में कपड़ा मिलों में हर माह कम से कम एक हड़ताल हुई, और कुछ हड़तालें तो काफ़ी अतिवादी माँगों के आधार पर की गईं । मद्रास में बिन्नी द्वारा संचालित सूती मिलों के हड़ताली मजदूरों ने कांग्रेस के असहयोगवादियों को अपना नेतृत्व करने के लिए आमंत्रित किया ।

1919 और 1920 में पश्चिमोत्तर रेलवे की हड़तालें भी कांग्रेस के आंदोलन से प्रेरित थीं । सविनय अवज्ञा आंदोलन ने भी ऐसी ही प्रतिक्रियाएँ सामने लाई । मिल-मज़दूरों ने बहिष्कार आंदोलन में भाग लिया, 1930 में ग्रेट इंडियन पेनिनसुलर (जी.आई.पी) रेलवे में तथा 1932 में गोदियों में हड़तालें हुई ।

छोटानागपुर में 1930 में मजदूर गांधी टोपी पहनने लगे और हजारों की संख्या में राष्ट्रवादी सभाओं में शामिल होते रहे, इसके बावजूद कि कांग्रेसी नेताओं ने 1929 में गोलमुड़ी टिनप्लेट हड़ताल का संचालन बड़े खराब ढंग से किया था । हड़तालों को राष्ट्रीय आंदोलन से जोड़कर मजदूरों ने अपने उन संघर्षों को और वैधता दिलाने की कोशिश की, जिनमें पार्टी के रूप में कांग्रेस की रुचि कम ही थी ।

स्वयं कांग्रेसी नेता इन हड़तालों के आयोजन के लिए सीधे-सीधे जिम्मेदार शायद ही कभी रहे होंगे । उदाहरण के लिए बंगाल में 1918 और 1921 के बीच हुई हड़तालों में से केवल 19.6 प्रतिशत हड़तालों में ही कोई ”बाहरी” तत्त्व वास्तव में शामिल था, बाकी हड़तालें मजदूरों की अपनी पहल पर हुईं ।

कभी-कभी मजदूरों का अपना राष्ट्रवाद क्रांतिकारिता और लड़ाकूपन में कांग्रेसी नेताओं के राष्ट्रवाद से आगे निकल जाता था । 1928 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में लगभग दो घंटों तक पंडाल पर तीस हजार मजदूरों का कब्जा रहा; वहाँ उन्होंने भारत की पूर्ण स्वाधीनता के और एक श्रम कल्याण योजना के प्रस्ताव पारित किए ।

गांधी मजदूरों के इस स्वतंत्र जुझारूपन की भर्त्सना करते थे और मई 1921 की चाँदपुर त्रासदी के बाद उन्होंने बंगाल कांग्रेस के नेतृत्व को उसके दुस्साहस के लिए जमकर फटकारा कि उन्होंने इस जुझारूपन का उपयोग राष्ट्रीय ध्येय के लिए करने की कोशिश की थी ।

उनका तर्क था: ”हम पूँजी या पूँजीपतियों को नष्ट करने के प्रयास नहीं करते, बल्कि पूँजी और श्रम के संबंधों का नियमन करना चाहते हैं ।” 1929 में जवाहरलाल नेहरू के वक्तव्य में यही तर्क गूँजा । अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने हरेक को याद दिलाया कि कांग्रेस ”एक श्रमिक संगठन नहीं” है, बल्कि ”हर तरह के लोगों का एक बडा संगठन” है ।

हालांकि कांग्रेस के समाजवादी नेता मज़दूरों के प्रति अधिक सहानुभूति दिखाते थे, पर फिर भी सभी वर्गों के हितों का प्रतिनिधित्व करनेवाला एक छतरी संगठन बने रहने की मजबूरी कांग्रेस को अपने आंदोलन से मजदूर वर्ग को और गहराई से जोड़ने से रोकती थी ।

1937 के प्रांतीय चुनावों में मजदूरों के वोट माँगने की विवशता ने कांग्रेस को अपने चुनाव घोषणापत्र में श्रमिक कल्याण कार्यक्रमों के कुछ वादे करने के लिए बाध्य किया । इसलिए उसकी विजय ने मजदूर वर्ग में भारी उत्साह और आशा का संचार किया, क्योंकि अनेक ट्रेड यूनियन नेता कांग्रेसी मंत्रिमंडलों में श्रम मंत्री बन चुके थे ।

इस दौर में ट्रेड यूनियनों की सदस्यता 50 प्रतिशत बड़ी और 1937-38 में औद्योगिक असंतोष में नाटकीय वृद्धि हुई, जिससे भारतीय उद्योगपति घबरा उठे । इसके कारण कांग्रेस की राजनीति में एक निर्णायक मजदूर विरोधी मोड़ ही आया ।

यहाँ यह बात कही जा सकती है कि बंगाल जैसे एक गैर-कांग्रेसी प्रति में कांग्रेसी नेता 1937 में जूट मिलों की आम हड़ताल का समर्थन करके खुश ही हुए, क्योंकि वह फज़्लुल-हक मंत्रिमंडल को बदनाम करने और इंडियन जूट मिल्स  एसोसिएशन   ”गोरे मालिकों” पर चोट करने का एक आदर्श अवसर थी ।

नेहरू ने  तो यहाँ नक दावा किया कि यह ”हमारे स्वतंत्रता आंदोलन का एक अंग” है । मगर साथ ही साथ बंबई, मद्रास और संयुक्त प्रति जैसे कांग्रेसी सूबों में सरकारें औद्योगिक असंतोष को नियंत्रित करने के लिए बलप्रयोग की वैसी ही कार्यनीतियाँ अपनाती रहीं ।

अपने समाजवादी रुझान के लिए विख्यात नेहरू ने 1937 में कानपुर की कपड़ा मिल हड़ताल के दौरान मजदूरों के निकाले जाने की निंदा तो की मगर साथ ही ”अपना काम ठीक से न करनेवाले मजदूर को बरखास्त करने के बारे में” मिल-मालिक के अधिकार का समर्थन किया ।

उस समय तक कांग्रेस भारतीय पूँजीपतियों से बहुत गहराई से जुड़ी नजर आने लगी थी, और बंबई में 1938 में औद्योगिक विवाद कानून का पारित होना इस बढ़ती दोस्ती का एक असंदिग्ध संकेत था । कांग्रेस को छोड़ सभी पार्टियों ने इसकी निंदा की और विधेयक के पारित होने का स्वागत तुरंत ही बंबई में एक आम हड़ताल ने किया ।

श्रमिक मोर्चे पर साम्यवादियों का बढ़ता प्रभाव कांग्रेस की इस दुविधा के सुस्पष्ट परिणामों में एक था । बंगाल में मध्यवर्गीय कम्युनिस्ट नेताओं द्वारा संगठित मजदूर-किसान पार्टी (वर्कर्स एंड पेजंट्‌स पार्टी) ने कलकत्ता की औद्योगिक पट्टी में 1928 के आसपास मिल-मजदूरों को लामबंद करना शुरू किया ।

1929 में जूट मिलों की हड़ताल ने बंगाल जूट वर्कर्स यूनियन को और 1937 की हड़ताल ने बंगाल चटकल मजदूर यूनियन को जन्म दिया और वे दोनों यूनियनें शिक्षित भद्रलोक के साम्यवादी नेताओं द्वारा गठित की गई थीं, जिनमें से कुछ तो मास्को में प्रशिक्षित थे । बंबई में कपड़ा मिलों में 1924 के बोनस विवादों के कारण सूती मिल-मजदूरों के बीच गिरनी कामगार महामंडल का जन्म हुआ; अगले साल की हड़तालों के कारण बॉम्बे टेक्सटाइल लेबर यूनियन पैदा हुई ।

अंत में 1928 में कपड़ा मिलों की आम हड़ताल से पैदा लड़ाकूपन के कारण गिरनी कामगार यूनियन को प्रमुखता मिली, जिस पर अब साम्यवादियों का खुला वर्चस्व था । लेकिन, जैसा कि चंदावरकर का तर्क है, ”साम्यवादियों के प्रति मजदूर वर्ग का यह समर्थन… सिर्फ पूँजीपति वर्ग और राजसत्ता के प्रति उनके साझा विरोधों के मेल के कारण पैदा नहीं हुआ ।

राजसत्ता के प्रति साम्यवादियों का सुसंगत विरोध उनकी लोकप्रियता का एक कारण अवश्य था । लेकिन बाहरी होने और कार्यस्थलों से दूर रखे जाने के नाते उनको मजदूर बस्तियों में मजदूरों के बीच मौजूद सामाजिक संबंधों का भी ध्यान रखना पड़ता था और स्वयं को संरक्षण और शक्ति के ऐसे वैकल्पिक स्रोतों के रूप में प्रस्तुत करना होता था, जिन पर मजदूर भरोसा कर सकें ।

नई संस्थागत संरचनाओं और कानूनी ढाँचों के विकास ने परंपरागत ठेकेदारों या मुहल्ला स्तर के संगठनों की बजाय ऐसे बाहरी तत्त्वों की सेवाओं को मजदूरों के लिए अधिक महत्त्वपूर्ण बना दिया । सामुदायिक संबंधों और अनौपचारिक सामाजिक ताने-बाने का प्रयोग साम्यवादी ट्रेड यूनियनों ने भी किया ।

उदाहरण के लिए, कानपुर में 1930 के दशक में कानपुर मजदूर सभा के उदीयमान कम्युनिस्ट नेतृत्व ने कांग्रेस और आर्यसमाज द्वारा विमुख कर दिए गए मुसलमान मजदूरों पर खास तौर पर ध्यान केंद्रित किया । अहमदाबाद में भी साम्यवादी प्रभाव वाले मिल-मजदूर संघ को गांधीवादी यूनियन से असंतुष्ट हुए मुस्लिम मजदूरों का समर्थन मिला ।

इन साम्यवादी ट्रेड यूनियनों ने हड़तालों के आयोजन के लिए अकसर धार्मिक संबंधों का उपयोग किया । इस तरह ये (ट्रेड यूनियनें) ऐसे वर्गमुखी संगठन नजर आने लगीं, जो बुनियादी तौर पर भारतीय मजदूरों के श्रेणीबद्ध सांस्कृतिक परिवेश के अंदर कार्यरत थीं ।

श्रम के मोर्चे पर साम्यवादियों के इस प्रवेश ने और 1920 के दशक के मध्य की व्यापारिक मंदी के कारण होनेवाली हड़तालों ने उनके लिए 1928-29 में एक संकट पैदा कर दिया । साम्यवादियों के विरुद्ध सरकार का हमला बंबई के दो कानूनों के रूप में सामने आया ।

लोक सुरक्षा विधेयक (पब्लिक सेफ्टी बिल) और अप्रैल 1929 में औद्योगिक विवाद कानून (ट्रेड्स  डिस्प्यूट्स ऐक्ट), जिसमें हड़तालों पर लगभग पूरा प्रतिबंध लगाया गया था-कांग्रेस के किसी विरोध के बिना पारित हो गए ।

साम्यवादियों पर एक बड़ा हमला मार्च 1929 में हुआ, जब मजदूरों के 31 प्रमुख नेता गिरफ्तार कर लिए गए तथा बदनाम मेरठ षड्‌यंत्र मुकदमे में उन पर (ब्रिटिश) सम्राट के विरुद्ध षड्‌यंत्र का मुकदमा चलाया गया । यह मुकदमा चार साल चला और सभी नेताओं को जैल की लंबी-लंबी सजाएँ हुईं; इस तरह उनको 1930 के अंत तक के लिए सलाखों के पीछे डाल दिया गया ।

लेकिन साम्यवादी नेतृत्व में मजदूरों का उभार समाप्त नहीं हुआ और 1929-30 के दौरान सूती मिलों जूट मिलों और जी. आई. पी. रेलवे में आम हड़तालों की एक दूसरी लहर चली । तो भी इसमें संदेह नहीं कि साम्यवादी नेतत्व कमजोर हुआ क्योंकि उनसे मजदूरों की संबद्धता न तो स्थायी थी न बेशर्त थी ।

1928 में कोमिनटर्न के आदेश के बाद कांग्रेस से संबंध तोड़ने का फैसला साम्यवादियों के लिए बहुत महँगा साबित हुआ, क्योंकि सविनय अवज्ञा आंदोलन ने जल्द ही जनता का ध्यान गांधी और कांग्रेस की ओर मोड़ दिया । सविनय अवज्ञा आंदोलन वापस ले लिया गया तो 1933-34 के आसपास साम्यवादियों का पुनरूत्थान हुआ और 1935 की गर्मियों में कोमिनटर्न ने संयुक्त मोर्चे को एक रणनीति अपनाने की हिदायत दी ।

कांग्रेस समाजवादी नेता भी साम्यवादियों से सहयोग करने लगे और इसका परिणाम हुआ मजदूर वर्ग के उत्साह और जुझारूपन में 1937-38 के आसपास एक वृद्धि, जो पूरे देश में हड़तालों की एक लहर के रूप में व्यक्त हुई ।

मजदूर वर्ग के बीच साम्यवादियों की स्थिति की मजबूती भी संभवत: इस बात का एक कारण थी कि इस चरण में कांग्रेसी सरकारें इस प्रकार सख्त मजदूर विरोधी हो गई । कम्यूनिस्ट पार्टी पर लगा प्रतिबंध 1942 में हटाया गया, जब उसने अंग्रेजों के युद्ध प्रयासों का समर्थन किया क्योंकि सोवियत संघ भी अब युद्ध में शामिल था ।

लेकिन ”जनयुद्ध” के पक्ष में जन-समर्थन जुटाने के साम्यवादी प्रयास सफल नहीं हुए । अतीत  में मज़दूरों   के उनसे संबंध का कारण एक बड़ी हद तक राजसत्ता का विरोध था । चूंकि उनकी भूमिका अब उलट चुकी थी, ”उनका सूरज (भी) अब ढलने लगा” , क्योंकि भारत छोड़ो  आंदोलन को भारी जन-समर्थन मिल रहा था ।

हालांकि 1940 के दशक मैं कुछ ट्रेड यूनियनें साम्यवादियों के नियंत्रण में आई और अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस पर उनका वर्चस्व स्थापित हुआ, फिर भी यह वास्तविक अर्थ में उनकी बढ़ती लोकप्रियता का सूचक नहीं था, क्योंकि बहुत थोड़े-से मजदूर ही वास्तव में यूनियनों में शामिल थे ।

1942 में इस यूनियन की सदस्यता केवल 3,37,695 थी । 1952 में इसके एक सम्मेलन में साम्यवादी नेता इंद्रजीत गुप्त ने स्वीकार किया था कि जूट मिलों के लगभग 95 प्रतिशत मजदूर अभी भी यूनियनों से बाहर थे । लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि ये मजदूर उपनिवेशी राजसत्ता, पूँजीपति वर्ग और राष्ट्रवाद से अपने संबंध को समझने में असमर्थ थे ।

शिक्षित मध्यवर्गीय राजनीतिज्ञों द्वारा संचालित राष्ट्रवादी या वामपंथी राजनीति के प्रति न वे संवेदनहीन थे और न उससे दूर रहे, लेकिन उनका समर्थन बेशर्त नहीं सशर्त था । अपनी बात को हम फिर दोहराएँ तो विभिन्न जन-समूहों के लिए स्वतंत्रता के अर्थ और उनकी चेतना के तरह-तरह के रूप राष्ट्रीय आंदोलन के दायरे के अंदर बराबर एक-दूसरे से घात-प्रतिघात करते रहे ।

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