नेहरू के बाद कांग्रेस सिस्टम का पतन | Nehru Ke Baad Congress System Ka Patan | Collapse of Congress System After Nehru.

जवाहरलाल नेहरू द्वारा नैतिक सुशासन के पारंपरिक सिद्धांतों को केंद्रीकृत नौकरशाही की प्रशासन प्रणाली के साथ मिलाकर प्रयोग करने पर बल देने के बावजूद, राजनीति में मौजूद भ्रष्टाचार खत्म नहीं हुआ, और कांग्रेस का केंद्र में अकेला राजनीतिक विकल्प होने का धीरे-धीरे पतन होने लगा ।

एक पार्टी का प्रभुत्व और विकास और शासन के लिए अपनाया गया इसका पसंदीदा मॉडल-जिसे प्रख्यात राजनीतिक वैज्ञानिक रजनी कोठारी ने ”कांग्रेस प्रणाली” कहा-नेहरू की मृत्यु से पहले ही बिखरने लगा था । और इसके परिणामों को कोठारी के शब्दों में इस प्रकार वर्णित किया जा सकता है:

भ्रष्टचार, केंद्रीय सत्ता का केंद्रीकरण और उद्‌दंडता, पार्टी का बिखराव, और एक ऐसे शासकवर्ग का उदय जिसमें धनी किसान, सामंत, और सर्वव्यापी सिविल सेवा, एक विस्तृत सार्वजनिक क्षेत्र, तथा शहरी- औद्योगिक-माफिया के सत्ता के लिए आपसी संबंध, इत्यादि अनेक कारणों और राज्य नीति के परिमणामस्वरूप तथा नेहरू के ”भारत के मंदिर” नामक व्यक्तिगत आयतित दृष्टिकोण के कारण, उनका शासन समाप्त होने से पहले ही इसकी शुरूआत हो गई थी ।

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हालांकि कहा जा सकता है कि नेहरू के लिए इतिहास अक्सर, अनावश्यक रूप से कठोर रहा है, किंतु इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता कि कांग्रेस उनके जीवनकाल में ही अपनी लोकप्रियता खोने लगी थी । जब लोक सभा में 1963 में पहली बार उनकी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव रखा गया तो उनकी कठोर शब्दों में आलोचना हुई थी ।

और एक बार उनके नेतृत्त्व का आकर्षण समाप्त होने पर, कांग्रेस का तेजी से पतन शुरू हो गया । उनकी मृत्यु के पशचात,  कांग्रेस हाई कमान ने लाल  बहादुर शास्त्री को अपना नया प्रधानमंत्री चुना । किंतु, ताशकंद समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद, जिससे भारत-पाकिस्तान युद्ध समाप्त हुआ था, शीघ्र ही, जनवरी 1966  में  उनकी मृत्यु हो गई ।

इसके बाद, नेहरू की पुत्री इंदिरा गांधी को शासन सौंपा गया; अगले वर्ष आम चुनाव होने वाले थे । 1967 के आम चुनावों से पहले के दो वर्ष सूखे, खाद्य वस्तुओं की गंभीर कमी, औद्योगिक मंदी, रुपए के अवमूल्यन से ग्रसित रहे तथा विभिन्न राज्यों में कांग्रेस सरकार के कार्यो से असंतोष बढ़ने लगा ।

पिछले दो दशकों की निराशा, 1960 के दशक के मध्य में सांप्रदायिक हिंसा भड़कने तथा विशेष स्वार्थी दलों को प्रोत्साहन दिए जाने के कारण, कांग्रेस को मिलने वाले मुसलमानों के पारंपरिक वोट बैंकों का समर्थन, जिन्होंने पिछले सभी चुनावों में कांग्रेस को समर्थन दिया था, गैर-कांग्रेसी पार्टियों को मिलने लगा ।  परिणामस्वरूप, इन चुनावों में कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा ।

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हालांकि इसने लोकसभा की 283 सीट जीतकर, बहुमत बनाए रखा, किंतु इसे 60 सीटों की हानि हुई और आधे राज्यों में इसकी सत्ता  बिल्कुल समाप्त हो गई । तमिलनाडु, केरल, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल में गैर-कांग्रेसी सरकारें बनीं ।

किंतु, इनमें से किसी भी राज्य की सरकार एकदलीय नहीं थी, अपितु कई दलों के गठबंधन से बनी मिलीजुली सरकार थी । दूसरे शब्दों में, अभी भी कांग्रेस के विकल्प के रूप में किसी एक दल के उदय का कोई संकेत नहीं मिल रहा था ।

रजनी कोठारी का तर्क है कि यद्यपि, ”प्रधान पार्टी मॉडल” खंडित होना शुरू हो गया था, किंतु इस अवस्था पर इसने ”पार्टी प्रतिस्पर्द्धा की एक अधिक विभेदक संरचना का मार्ग दिखाया ।”  कांग्रेस को अभी समाप्त कहना कठिन था, क्योंकि इंदिरा गांधी ने राय बरेली निवार्चन क्षेत्र से चुनाव जीत लिया था और केंद्र में नई सरकार बना ली थी । किंतु उसके प्रभुत्व ने कांग्रेस के वास्तविक आंतरिक संकट को और अधिक बढ़ा दिया ।

इस परिस्थिति में, कांग्रेस के पुराने संरक्षकों ने-जिन्हें सिंडिकेट कहा जाता था- मोरारजी देसाई, एस. निजिलगप्पा और के.कामराज के नेतृत्त्व में पार्टी और सरकार का नियंत्रण छीनने का प्रयास किया, जिसके कारण उनका प्रधानमंत्री गांधी के साथ टकराव होने लगा ।

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पार्टी के अग्रणी नेताओं और सरकार के बीच यह खुला संघर्ष 1969  के राष्ट्रपति चुनाव के समय सामने आया, जब इंदिरा गांधी और पार्टी में उनके अन्य सहयोगियों ने एक स्वतंत्र उम्मीदवार वी.वी. गिरी का समर्थन किया, जो एक पुराने श्रमिक नेता थे और उस समय लोक सभा के स्पीकर और कांग्रेस के अधिकृत उम्मीदवार नीलम संजीवा रेड्‌डी के विरुद्ध कार्यकारी राष्ट्रपति के रूप में काम कर रहे थे ।

गिरी की जीत के पश्चात्-रेड्‌डी के पक्ष में कांग्रेस के अनुदेश के बावजूद-इंदिरा गांधी को कांग्रेस से निष्कासित कर दिया गया । कांग्रेस संसदीय दल से नया नेता चुनने के लिए कहा गया, किंतु इसके अधिकांश सदस्यों ने श्रीमती गांधी को अपना नेता चुना, और इस प्रकार पार्टी का विभाजन हो गया ।

नए पृथक दल को कांग्रेस (रिक्विजिशन) कहा गया-पुरानी पार्टी के विपरीत, जिसे अब कांग्रेस (ऑर्गनाइजेशन) कहा जाने लगा था-जिसने कांग्रेस का वास्तविक उत्तराधिकारी होने का दावा किया, और पार्टी की आंतरिक कलह को आदर्शवादी रंग देते हुए, सिंडिकेट के नेताओं को रूढ़िवादी कहा जो कांग्रेस के समाजवादी लक्ष्यों के विपरीत धनी और शक्तिशाली लोगों के लिए काम करते थे ।

श्रीमती गांधी ने 1969 में अपने एक सुधारवादी कार्यक्रम के माध्यम से अपनी जनवादी छवि को अधिक मजबूत बनाने की शुरूआत की जिसमें चौदह बैंकों का राष्ट्रीयकरण, राजाओं के प्रीवी पर्स की समाप्ति और भूमि सीमा का आरंभ शामिल था । अनेक गैर-कांग्रेस शासित राज्यों में चलने वाली राजनीतिक अस्थिरता, वयोवृद्ध कांग्रेसी नेताओं की रूढ़िवादिता, और श्रीमती गांधी द्वारा लिए गए कुछ निर्भीक निर्णयों ने उन्हें देश का एक शक्तिशाली नेता बना दिया ।

और इसके कारण कांग्रेस (आर) को 1971 के लोक सभा चुनावों में भारी बहुमत से विजय प्राप्त हुई, जिसमें उसने 350 सीटें जीतीं और स्पष्ट रूप से उसे वही प्रभुता प्राप्त होने लगी जो 1952 और 1967 के बीच अविभाजित कांग्रेस को प्राप्त थी ।

बांग्लादेश युद्ध (1971) में मिली शानदार जीत ने सत्ता पर उनकी पकड़ को और अधिक मजबूत कर दिया । किंतु इस जीत से कांग्रेस के प्रति बढ़ता विरोध कम नहीं हुआ जिसमें श्रीमती गांधी के बढ़ते हुए अहंकार के कारण अधिक तेजी आ गई थी, जिसने संपूर्ण सत्ता को अपने हाथों में ले लिया था ।

नेहरू के विकास सिद्धांतों ने ”राष्ट्रीय समाजवाद के नए अलंकार” का मार्ग दिखाया था किंतु कांग्रेस (आर) ”अधिक केंद्रीकृत, गतिहीन और एक ही नेता पर केंद्रित होकर रह गई थी ।” दूसरी ओर, महंगाई और बेरोजगारी के साथ राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों, दोनों में व्याप्त भ्रष्टाचार और सत्ता के दुरुपयोग के कारण 1970 के दशक के मध्य में जन असंतोष बढ़ता जा रहा था ।

कांग्रेस के प्रति बढ़ते असंतोष और अलोकप्रियता की जून 1975 में हुए गुजरात विधानसभा चुनावों में पुष्टि हो गई, जिसमें जनता मोर्चे ने, जो मोरारजी देसाई और जय प्रकाश नारायण के नेतृत्त्व में असंतुष्ट दलों का एक कमजोर गठबंधन था, सत्ताधारी कांग्रेस को बारह सीटों से हरा दिया । किंतु इस गठबंधन द्वारा सरकार बनाने से पहले, भारतीय राजनीति में कुछ महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आने वाले थे ।

12 जून 1975 को, इलाहबाद उच्च न्यायालय के एक ऐतिहासिक निर्णय में राय बरेली से श्रीमती गांधी के चुनाव को, चुनाव में भ्रष्ट तरीके अपनाए जाने के कारण अवैध घोषित कर दिया और किसी सरकारी पद पर काम करने के लिए उन पर छह वर्ष की रोक लगा दी ।

न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने अनेक दूसरे आरोपों को खारिज कर दिया, किंतु उन्हें दो आरोपों के लिए अपराधी पाया: अपने चुनाव अभियानों के आयोजन में सरकारी कर्मचारी (प्रधानमंत्री के निजी सजिव) का प्रयोग, तथा राज्य सरकार के अधिकारियों का दुरुपयोग ।

किंतु तत्काल त्यागपत्र देने के स्थान पर, श्रीमती गांधी ने उच्चतम न्यायालय में अपील करने का फैसला किया । 24 जून को उच्चतम न्यायालय ने इलाहबाद उच्च न्यायालय के निर्णय पर ”सशर्त रोक” लगा दी: वह प्रधानमंत्री के रूप में कार्य कर सकती थी, संसद में भाषण दे सकती थीं, किंतु वोट नहीं दे सकतीं थीं ।

यह परिस्थिति श्रीमती गांधी के लिए अपमानजनक थी, जयप्रकाश नारायण ने उन्हें त्यागपत्र देने के लिए मजबूर करने के लिए 25 जून को नागरिक अवज्ञा आंदोलन करने का आह्‌वान किया । किसी अन्य खतरे से बचने के लिए उन्होंने तानाशाही शासन अपनाने का निर्णय लिया: 26 जून की सुबह, जयप्रकाश नारायण और मोरारजी देसाई सहित, विरोधी पक्ष के अधिकांश नेताओं को आंतरिक सुरक्षा अधिनियम के तहत बंदी बना लिया गया, जिसे बांग्लादेश युद्ध के समय लागू किया गया था ।

उसी दिन, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352 का प्रयोग करते हुए, प्रधानमंत्री के परामर्श से राष्ट्रपति फखरुद्‌दीन अली अहमद ने देश में आपातकाल की घोषणा कर दी । आपातकाल के दौरान, यद्यपि नागरिकों के सभी मौलिक अधिकारों और कानूनी अधिकारों को समाप्त कर दिया गया था, किंतु जनता में व्याप्त गरीबी के उन्मूलन के लिए एक ”बीस सूत्रीय कार्यक्रम” की घोषणा की गई ।

इसमें बंधुआ मजदूरी समाप्त करना, ग्रामीणों को ऋणमुक्त करना, भूमि सीमा निर्धारित करना, और भूमिहीन किसानों को अधिक मजदूरी देना जैसे लोकप्रिय उपाय शामिल थे । दूसरी ओर, उनके पुत्र संजय गांधी के नेतृत्त्व में, बल प्रयोग द्वारा लोगों की जबर्दस्ती नसबंदी कराने जैसे कुछ कठोर सामाजिक कदम भी उठाए गए ।

इक्कीस महीने तक चले आपातकाल को भारतीय लोकतंत्र का सबसे दु:खद काल माना जाता है । 4 अगस्त 1975 तक, बिना कोई मुकदमा चलाए 50,000 से अधिक राजनीतिक नेताओं को गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया गया; मीडिया की स्वतंत्रता समाप्त कर दी गई; और श्रीमती गांधी को चुनावों में किए गए भ्रष्टाचार के आरोपों के पूर्वव्यापी प्रभाव से मुक्त करने के लिए संविधान में संशोधन किए गए ।

किंतु कोई भी शासन इतना पूर्ण नहीं होता कि उसके विरोध की कोई गुंजाइश ही न बचे । श्रीमती गांधी अपने शासन को राजनीतिक रूप से वैध बनाना चाहती थी; अत: उसने, संभवतया जनता की मनोदशा को समझे बिना, 1977 में आम चुनावों की घोषणा कर दी ।

कांग्रेस (ओ), जनसंघ, भारतीय लोक दल और समाजवादी पाटी तत्काल आपस में मिल गए और उन्होंने जनता दल नाम का एक नया गठबंधन तैयार कर लिया, और दूसरे विरोधी दलों, जैसे सीपीआई (मार्क्सवादी) तथा अकाली दल के साथ सीटों का समझौता कर लिया; वहीं दूसरी ओर, शासक कांग्रेस पार्टी के सदस्य भी पार्टी से इस्तीफा देने लगे ।

इसी दौरान, देश में खामोश विरोध की लहर तेजी से बढ़ती जा रही थी, और अंतत: इसने चुनावों में श्रीमती गांधी का तख्तापलट कर रख दिया । विरोधी पक्ष को भारी विजय प्राप्त हुई थी । जनता पार्टी और उसके सहयोगी दलों ने 328 सीटों पर विजय प्राप्त की और मोरारजी देसाई के नेतृत्त्व में केंद्र में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार का गठन हुआ ।

भारतीय लोकतंत्र ने सिद्ध कर दिया कि वह पूर्ण विकसित और लचीला हो गया था । किंतु यह परिवर्तन स्थायी नहीं था, क्योंकि नया शिथिल गठबंधन एक स्थायी और वैकल्पिक सरकार नहीं दे पाया । जनवरी 1978 में, श्रीमती गांधी ने एक बार फिर कांग्रेस के टुकड़े कर दिए और इस बार कांग्रेस (इंदिरा) का गठन किया, जिसने तदंतर, फरवरी में आंध्रप्रदेश और कर्नाटक में हुए राज्य विधानसभा के चुनावों में विजय प्राप्त की ।

नवंबर में, कर्नाटक में एक उप-चुनाव के माध्यम से वह फिर संसद में लौट आई । जहां एक ओर, श्रीमती गांधी धीरे-धीरे अपनी वापसी का मार्ग तैयार कर रही थीं, वहीं दूसरी ओर, जनता गठबंधन में उभरा असंतोष सामने आने लगा, जिससे विद्रोह पनपने लगा और मोरारजी देसाई को त्यागपत्र देने के लिए मजबूर होना पड़ा ।

कांग्रेस (आई) के समर्थन से चरण सिंह प्रधानमंत्री बन गए । किंतु कांग्रेस ने शीघ्र ही अपना समर्थन वापस ले लिया और जनवरी 1980 में एक बार फिर चुनाव हुए और कांग्रेस (आई) भारी बहुमत से सत्ता में लौट आई ।

अब श्रीमती गांधी ने संपूर्ण सत्ता अपने हाथ में लेने का प्रयास किया । इस केंद्रीकरण का तात्पर्य पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र पर अपना संपूर्ण कब्जा जमाना था क्योंकि नीति और नियुक्तियों से संबंधित सभी निर्णय वह स्वयं लेती थी अथवा उनके आसपास रहने वाले लोग लिया करते थे ।

विरोधी पक्ष में फूट डालकर अथवा विद्रोह को बढ़ावा देकर उसमें फूट डालने की कोशिश की गई और इसके साथ-साथ राज्य सरकारों पर कठोर नियंत्रण किया जाने लगा । चुनाव में हिंदुओं का समर्थन पाने के लिए नीतियों में अनुदार परिवर्तन किए जाने लगे और अर्थव्यवस्था में निजी क्षेत्र को अधिक छूट दी गई ।

अक्टूबर 1984 में उनकी मृत्यु होने तक, और उसके बाद उसके पुत्र, राजीव गांधी द्वारा सत्ता का दायित्व संभाल लेने पर भी यही राजनीतिक प्रवृत्तियां जारी रहीं । जेम्स मेनर का कहना है कि, श्रीमती गांधी द्वारा शक्ति का अत्यधिक केंद्रीकरण करने का अनभिप्रेत परिणाम यह हुआ कि 1977 और 1984 के बीच कई क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का जन्म हुआ ।

इस अवधि में राजनीतिक दलों के बीच खुली प्रतिस्पर्द्धा दिखाई दी, किंतु दलीय प्रणाली और अनेक पार्टियों के भीतर अस्थिरता बढ़ गई । निश्चित रूप से यह प्रवृत्ति कुछ समय पहले, लगभग 1967 में ही शुरू हो गई थी, जब द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डी.एम.के.) ने तमिलनाडु में कांग्रेस से सत्ता हथिया ली थी ।

उस समय उभरकर सामने आने वाले सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण क्षेत्रीय दलों में पंजाब का अकाली दल, आंध्र प्रदेश की तेलुगू देशम पार्टी, असम की असम गण परिषद्, और बाद में तमिलनाडु के डीएमके से अलग हुआ दल, ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (ए.आई.ए.डी.एम.के.) शामिल थे ।

एक तरह से, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) भी पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और केरल में एक शक्तिशाली दल के रूप में उभरकर सामने आई । किंतु इन सभी दलों को आंतरिक असंतोष का सामना करना पड़ा, और केद्रं से अनवरत पड़ने वाले कठोर दबाव से अपनी राज्य सरकारों को बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ा ।

सत्ता के केंद्रीकरण की इस प्रवृत्ति का एक अन्य परिणाम पंजाब और असम में उग्रवादी उप-राष्ट्रवाद और विद्रोह का उदय था । अकाली दल के एक उग्र वर्ग ने, जिसे प्रारंभ में कांग्रेस की कृपा प्राप्त थी, एक अलग संप्रभु खालिस्तान की मांग की ।

उन्हें बलपूर्वक काबू करने के इंदिरा गांधी के कठोर उपायों के कारण 1984 में सिखों के पवित्र स्थल अमृतसर के स्वर्ण मंदिर पर हमला हुआ, जिसके बाद अक्टूबर में उनके अपने सिख अंगरक्षकों ने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी; इसके बदले के रूप में दिल्ली में सिख विरोधी दंगे शुरू हो गए जिनमें, कथित रूप से, कई कांग्रेसी नेता भी शामिल थे ।

राजीव गांधी ने उग्र अकाली नेता एच.एस. लोंगोवाल के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर करके स्थिति को नियंत्रित करने का प्रयास किया । हालांकि इसके तत्काल बाद लोंगोवाल की भी हत्या कर दी गई, किंतु 1985 के विधान सभा चुनावों में अकाली दल को विजय प्राप्त हुई और वह एक शक्तिशाली क्षेत्रीय दल के रूप में उभरा ।

दूसरी ओर, असम में बांग्लादेश से अवैध रूप से आने वाले प्रवासियों के विरोध में 1979 में एक विद्रोह का आरंभ हुआ, जिसमें बाद में सजातीय उप-राष्ट्रीयता के मुद्‌दों, जैसे असम संस्कृति और भाषा की सुरक्षा, और क्षेत्र में वर्षो से चले आ रहे पिछड़ेपन के मुद्‌दे को उठाया जाने लगा ।

असम के मतभेदों को समाप्त करने के लिए राजीव गांधी ने 1985 में एक बार फिर एक ”समझौते” पर हस्ताक्षर किए । अखिल असम छात्र संघ के छात्रों ने, जो पहले प्रवासियों के विरुद्ध आंदोलन का नेतृत्त्व कर रहे थे, शीघ्र ही असम गण परिषद् नामक एक राजनीतिक दल का गठन कर लिया और दिसंबर 1985 में हुए विधानसभा चुनावों में विजय प्राप्त की ।

किंतु ”समझौते” के बाद भी असम की समस्या समाप्त नहीं हुई, क्योंकि केंद्र द्वारा निरंतर उपेक्षित रहने के कारण यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम ने एक अधिक उग्रवादी आंदोलन चलाया जो हिंसा के बल पर असम को दिल्ली के शासन से मुक्त करना चाहता था । अंत में, भारत सरकार ने ”समझा-बुझाकर अथवा बलपूर्वक” (दोनों) उपायों का प्रयोग करके उग्रवाद को समाप्त कर दिया ।

इसका तात्पर्य यह नहीं है कि इसके बाद भारत में चल रहे सभी जातीय उप-राष्ट्रवाद के आंदोलन समाप्त हो गए; किंतु इन आंदोलनों के कारण भारत राष्ट्र की अखंडता अथवा इसके लोकतंत्रात्मक राजनीतिक ढांचे को कोई क्षति नहीं हुई ।

जैसाकि अतुल कोहली का तर्क है, ”विकासशील दुनिया के ऐसे सुस्थापित बहु सांस्कृतिक ढांचे में ऐसे प्रजातीय मतभेद…आते-जाते रहते हैं” । भारतीय लोकतंत्र ने अपना लचीलापन दर्शाया और भारत राष्ट्र ने आत्मसात् और समायोजित करने-तथा आवश्यकता पड़ने पर ऐसे आंदोलनों का दमन करने की भी क्षमता दर्शाई क्योंकि उनका प्रक्षेपपथ अक्सर ”उलटे ‘U’ वक्र” के समान होता है ।

साथ ही, ऐसे आंदोलनों में राष्ट्र को उग्र रूप से एकरूप करने की प्रवृत्तियां भी शामिल रहती हैं, जो इसे सांस्कृतिक बहुलवाद को अपनाने के लिए प्रेरित करती हैं, और इस प्रकार देश तथा नागरिक समाज में अधिक सामंजस्य बना रहता है ।

जहां तक राष्ट्रीय राजनीति का प्रश्न है, 1984 के संसदीय चुनाव में, राजीव गांधी ने, जिसे श्रीमती गांधी की हत्या के पश्चात् संकटग्रस्त कांग्रेस जल्दबाजी में सत्ता  में ले आई थी, भारी बहुमत से विजय प्राप्त की; किंतु विस्तृत रूप से इस विजय का श्रेय उसकी माँ की पाशविक हत्या के कारण उत्पन्न हुई सहानुभूति की लहर को जाता है ।

तदंतर, राजीव गांधी पार्टी को अधिक अनुदार स्थिति में ले जाने में सफल हुए । दूसरी ओर, उन्होंने हिंदू मतदाताओं को लुभाना शुरू कर दिया और राम जन्मभूमि का विवाद बढ़ने दिया । माना जाता है कि सोलहवीं सदी में पहले मुगल बादशाह बाबर ने उत्तर प्रदेश के एक छोटे नगर अयोध्या में हिंदुओं के ईश्वर और पौराणिक राजा राम की स्मृति में बने एक मंदिर को तोड़कर बाबरी मस्जिद का निर्माण किया था ।

1986 में, एक जिला न्यायाधीश ने वहां लगे ताले को खोलकर हिंदू उपासकों को वहाँ पूजा इत्यादि शुरू करने का आदेश दिया । नवंबर 1989  में कांग्रेस सरकार ने विवादित स्थल पर राम मंदिर का शिलान्यास करने की अनुमति दे दी, जिसके कारण समकालीन भारत के एक सबसे बड़े राजनीतिक विवाद का जन्म हुआ ।

दूसरी ओर, राजीव गांधी ने मुसलमान रूढ़िवादियों का समर्थन पाने की भी योजना बनाई । जब शाहबानो मामले में उच्चतम न्यायालय ने इस तलाकशुदा मुसलमान महिला को जीविका वृत्ति देने का आदेश दिया, तो राजीव सरकार ने एक कानून पारित करके इसे पराजित करने का प्रयास किया जिसमें मुसलमानों के व्यक्तिगत मामलों में राष्ट्र के नागरिक कानूनों की तुलना में इस्लामी कानूनों को वरीयता दी गई ।

आर्थिक क्षेत्र में भी, उसने निजी क्षेत्र को महत्त्व देना शुरू कर दिया और प्रतिबंधित लाइसेंस व्यवस्था का उदारीकरण शुरू कर दिया । विदेश नीति में, उसने श्रीलंका में सिंहाला बहुसंख्यकों और लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ऐलम (एल.टी.टी.ई.) के नेतृत्त्व में तमिल राष्ट्रवादियों के बीच चल रहे  गृह युद्ध में हस्तक्षेप करते हुए भारतीय शांति सेना को श्रीलंका भेज दिया ।

राजीव गांधी द्वारा समस्त सत्ता अपने हाथ में केंद्रित कर लेने और अपने कुछ घनिष्ठ विश्वासपात्रों की सहायता से शासन चलाने के कारण, सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों से घिर गई; जिनमें सबसे प्रसिद्ध बोफोर्स तोपों का सौदा था, जिसमें कई करोड़ रुपए की रिश्वत लेने का आरोप लगाया गया था ।

इसके तुरंत बाद हुए चुनावों में कांग्रेस की हार का सिलसिला शुरू हो गया । क्षेत्रीय दलों और वामपंथी दलों ने पहले ही राज्यों में सत्ता पर अपना नियंत्रण जमाना शुरू कर दिया था, और उन्होंने 1989 के संसदीय चुनावों में केंद्र में सत्ता के संतुलन को पलट कर रख दिया था ।

इस चुनाव ने कांग्रेसी सत्ता को वास्तव में समाप्त कर दिया और गठबंधन राजनीति के एक नए युग की शुरूआत हुई, जो अगले 25 वर्ष तक भारत में जारी रही । इन चुनावों के पश्चात् जनता दल के नेतृत्त्व में एक अल्पसंख्यक सरकार सत्ता में आई, जिसका गठन विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कांग्रेस से त्यागपत्र देकर किया था ।

राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार को एक ओर वामपंथियों का और दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का समर्थन मिल रहा था, और इसलिए इसकी स्थिति बहुत नाजुक थी । हालांकि, वास्तव में कांग्रेस का एकदलीय प्रभुत्व का काल वास्तविक और अस्थायी रूप से समाप्त हो गया था, किंतु वैकल्पिक सरकार भी स्थायी नहीं थी, क्योंकि दो वर्ष में ही दोबारा चुनाव हुए ।

इस चुनाव अभियान के दौरान, 21  मई  1991 को तमिल उग्रवादियों ने राजीव गांधी की हत्या कर दी, जिसका उद्देश्य स्पष्ट रूप से श्रीलंका में शांति सेना भेजने का बदला लेना था । चुनावों में, कांग्रेस को पूर्ण बहुमत नहीं मिला, किंतु वामपंथियों के सहयोग से एक अल्पसंख्यक सरकार का गठन हुआ जिसमें पी.वी. नरसिम्हा राव को प्रधानमंत्री चुना गया था ।

धीरे-धीरे कांग्रेस का पतन होने के अतिरिक्त, इस काल के राजनीतिक इतिहास का एक अन्य महत्त्वपूर्ण परिणाम यह हुआ कि 1990 के दशक में भाजपा का एक नवप्रवर्तित हिंदू राष्ट्रवाद के समर्थक के रूप में और एक वैकल्पिक राष्ट्रीय दल के रूप में धीरे-धीरे उत्थान होने लगा ।

हिंदुत्व का दावा करने वाले आंदोलन में प्रमुख रूप से बाबरी मस्जिद के मुद्‌दे पर ध्यान दिया जाने लगा, जिसका हम ऊपर उल्लेख कर चुके हैं । 1989 के चुनाव से पहले ही मस्जिद को गिराने और उस स्थल पर एक मंदिर बनाने की मांग उठने लगी थी, जिसका राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद् जैसे हिंदू संगठन-जिन्हें मिलाकर ”संघ परिवार” कहा जाता था, समर्थन कर रहे थे ।

राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार के समय इस मुद्‌दे ने एक बार फिर जोर पकड़ा । वी.पी. सिंह ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करने का प्रस्ताव प्रस्तुत करके हिंदू मतदाताओं को बांटने का प्रयास किया, जिसमें न केवल अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण नीति जारी रखने की प्रतिज्ञा की गई थी अपितु इसे हिंदू वर्णव्यवस्था के आधार पर विभाजित अन्य पिछड़ी जातियों अथवा शूद्र जातियों में भी लागू करने का प्रस्ताव था ।

इससे, विशेष रूप से सार्वजनिक क्षेत्र में, गेल ओंवेट के कथित ”नौकरियों में द्विजों का एकाधिकार” टूट जाने की आशंका थी, जिनमें ऐतिहासिक रूप से दलित और शूद्र जातियों को बहुत कम संख्या में नियुक्त किया जाता था ।

इस रिपोर्ट ने गंभीर हिंदू-जातीय प्रतिघात को उकसाया, और अनेक बड़े शहरों की सड़कों पर दंगे भड़क उठे, जिनमें भाजपा के हिंदू एकता के सिद्धांत को गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ा । किंतु इससे हिंदुत्व का ज्वार कम नहीं हुआ ।

अंतत: 6 दिसंबर 1992 को सैकड़ों स्वयंसेवकों ने जिन्हें कार सेवक कहा गया था, मस्जिद को ढहा दिया । दूसरी ओर, बाबरी मस्जिद के विध्वंस से देश के विभिन्न भागों में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठने के बावजूद, इस घटना ने भाजपा की लोकप्रियता बढ़ाने में योगदान दिया, और अगले लोक सभा चुनावों में उसकी स्थिति अधिक मजबूत हो गई ।

1996 के चुनावों में, यह अकेली सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरकर सामने आई और इसने अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्त्व में केंद्र में सरकार का गठन किया जो केवल तेरह दिन चली । इसके पश्चात्, कुछ अवधि तक अस्थिरता रहने के बाद, लोक सभा को भंग कर दिया गया और 1998  में दोबारा चुनाव हुए जिनमें भाजपा एक बार फिर एक अकेले बड़े दल के रूप में उभरी, और कुछ क्षेत्रीय दलों के समर्थन से उसने सरकार बनाई ।

नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस (एनडीए) नाम की यह सरकार तेरह महीने तक चली जिसके बाद ए.आई.ए.डी.एम.के ने अपना समर्थन वापस ले लिया । इसके पश्चात् अक्टूबर 1999 में हुए चुनावों में, भाजपा 303 सीट प्राप्त करके अधिक मजबूत स्थिति में आई और उसने सरकार बनाई जिसने 2004 तक का अपना कार्यकाल पूरा किया ।

यह तर्क दिया जाता रहा है कि भाजपा केवल इसलिए उभर कर सामने आई क्योंकि इसने राज्य और कांग्रेस दल के विरुद्ध लोगों के मन में दबी गहरी निराशा और शिकायतों को एक सफल आवाज दी थी । दूसरों शब्दों में, लोगों ने भिन्न-भिन्न कारणों से भाजपा का समर्थन किया था जो अक्सर धर्म और सांप्रदायिक शत्रुता से कतई संबंधित नहीं थे ।

इस संदर्भ में ‘राम’ के नाम ने उन लोगों को एकसूत्र में बांधा जो मंडल आयोग के भेदभाव फैलाने वाले निर्णय और पिछली कांग्रेस सरकारों के पूरी तरह खिलाफ थे और जिन्होंने धर्मनिरपेक्षता के बारे में कोरे बयान दिए थे । विरोधाभासी रूप में, सबको एकता के सूत्र में बांधने वाला यह प्रतीक स्वयं कांग्रेसी सरकारों का ही उपहार था ।

राज्य द्वारा नियंत्रित इलेक्ट्रोनिक मीडिया में धारावाहिकों के रूप में भारतीय महाकाव्यों, रामायण और महाभारत के प्रसारण ने, जो असुरक्षा की भावना से ग्रस्त कांग्रेस पार्टी के राजनीतिक निर्णयों से प्रेरित था, उस सांस्कृतिक मानसिकता को उकसाया जिसका संघ परिवार ने जनता को प्रेरित करने के लिए सरलता से प्रयोग किया ।

संक्षेप में, 1980 के दशक के पश्चात् हिंदू राष्ट्रवाद की प्रगति के लिए उपनिवेशवाद के पश्चात् सत्ता में आने वाली कांग्रेस सरकारों की विफलता को जिम्मेदार ठहराया जाता रहा है । तथापि, करोड़ों गरीब भारतीयों की संतुष्टि के लिए केवल हिंदुत्व की भावनाएं पर्याप्त नहीं थीं; 2004 के चुनावों में एनडीए को पराजय का सामना करना पड़ा जो निर्धन ग्रामीण मतदाताओं द्वारा दिया गया एक सशक्त संदेश था कि एनडीए सरकार देश की कठोर आर्थिक समस्याओं से निपट पाने में विफल रही थी ।

1977 के समान, भारतीय लोकतंत्र ने एक बार फिर एक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक परिवर्तन करने का फैसला किया । कांग्रेस, एक बार फिर सत्ता में आ गई, किंतु इस बार वह, यूनाइटेड प्रोग्रेसिव अलाएंस (यूपीए) नाम के एक बड़े गठबंधन के रूप में आई ।

राज्यों में विभिन्न क्षेत्रीय दलों का शासन चलता रहा । 1990 के दशक की एक प्रमुख गतिविधि, जिसे योगेंद्र यादव ने ”दूसरी लोकतांत्रिक लहर” कहा, यह थी कि इस बार की चुनावी राजनीति में ”सामाजिक रूप से पिछड़े” वर्गों ने अधिक संख्या में भाग लिया था ।

दूसरे शब्दों में, इस समय राजनीतिक क्षेत्र में बहुजन समाज का उदय हुआ जिसमें दलित, आदिवासी, अन्य पिछड़ी जातियों के लोग (ओबीसी), मुस्लिम, और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग के लोग तथा महिलाएँ शामिल थीं ।

इसका तात्पर्य यह नहीं है कि चुनावों के समय इन वर्गो के मतदाताओं ने अधिक संख्या में मतदान किया । इसका तात्पर्य यह था कि जैसे-जैसे एक पार्टी की प्रभुसत्ता समाप्त हो रही थी और राजनीतिक प्रतिस्पर्द्धा में वृद्धि हो रही थी, वैसे-वैसे इन वर्गो में राजनीतिक रूप से संगठित होने की प्रवृत्ति भी बढ़ रही थी ताकि वे अधिक सशक्त हो सकें ।

अन्य पिछड़ी जातियों के लोग (ओबीसी), जनता दल, और बाद में इसके उत्तराधिकारी समाजवादी पार्टी (सपा) के झंडे तले संगठित हो गए, जबकि दलित वर्ग के लोग बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के बैनर तले आ गए, जिसका 1984 में कांशी राम ने गठन किया था ।

अंबेडकर के आदर्शवाद से प्रेरित बसपा का सीधा एक संदेश था; ”हमारा केवल एक-सूत्री कार्यक्रम है-सत्ता में आना ।” 1993 में वे वास्तव में उत्तर प्रदेश की सत्ता में शामिल हो गए, पहले वे सपा के गठबंधन वाली सरकार में एक जूनियर सदस्य के रूप में सत्ता में आए; किंतु 1995 में यह गठबंधन टूट जाने के पश्चात्, बसपा ने, भाजपा के साथ मिलकर एक दलित जाटव महिला मायावती के मुख्य मंत्रित्व में सरकार बनाई, जो भारत में सत्ता के इतने उच्च पद पर आने वाली पहली दलित महिला थी ।

मायावती ने प्रतिष्ठित दलित व्यक्तियों के नाम और मौखिक दलित परंपराओं का प्रयोग करके राजनीतिक संघटन की कुशल रणनीतियों के माध्यम से, उत्तर प्रदेश की दलित शक्तियों को अनोखे रूप में लामबंद कर लिया ।

1996 के आम चुनावों में, बसपा को उत्तर प्रदेश में 20 प्रतिशत वोट मिले, जिसमें से उसे राज्य विधान सभा में उनसठ सीटें और लोक सभा में पांच सीटें प्राप्त हुई । अब इस पार्टी ने राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना ली थी ।

1990 के दशक के प्रतिस्पर्धात्मक राजनीतिक संदर्भ में, दलितों और अन्य पिछड़ी जातियों की जातिगत पहचान के दावे सवर्ण हिंदू पहचान के विरुद्ध देखे जा रहे थे । व्यापक रूप से यह आशा की जा रही थी कि निम्न जातियों के अपनी पहचान के दावों से आधुनिकीकरण का तथा सांप्रदायिकता तथा समकालीन हिंदू समाज में वर्ण प्रणाली के विरुद्ध संघर्ष का आधार तैयार होगा ।

किंतु 1995 में भाजपा के समर्थन से बसपा की सरकार बनने से तथा 2002 में उस राजनीतिक गठबंधन के दोबारा बनने से यह आशाएं मिथ्या सिद्ध हुई । इस राजनीतिक गठबंधन की अवसरवादी कहकर आलोचना की गई अथवा इसे ”चुनावी राजनीति की अनिवार्यता” कहा गया ।

गेल ओंवेट ने बसपा की राजनीति की ”एक वास्तविक दावा…भविष्य की ओर एक कदम” कहकर व्याख्या की, किंतु यह कोई परिवर्तन लाने में असफल रही, और हिंदुत्व की लहर हावी हो गई । इसे दलितों द्वारा लोकतांत्रिक-सांप्रदायिकता के दोहरे सिद्धांत में बंधने से इनकार भी कहा गया, जिसे, जैसाकि कांचा इलेइयाह ने कहा है ”मंडलीकरण” की प्रक्रिया को उलझाने के लिए तैयार किया गया था जिसमें दलितों को सशक्त बनाने का भरोसा दिलाया गया था ।

हम इसकी चाहे किसी भी तरीके से व्याख्या करने का प्रयास करें, तब भी यह उल्लेखनीय है कि राजनीतिक प्रतिस्पर्द्धा के युग में, किस प्रकार बसपा ने गठबंधन राजनीति की कला सीख ली और राजनीतिक सत्ता में आने और उसे बनाए रखने के लिए, “ब्राह्मणों” सहित, सभी विरोधी सामाजिक दलों के साथ बातचीत करने के दांवपेच सीख लिए, जिस पर अब तक, ओंवेट के कथनानुसार, “द्विजों का एकाधिकार” रहा था ।

कांग्रेस के पतन के परिणामस्वरूप, नि:संदेह रूप से उत्तर भारत की राजनीति में यह एक नया उभार था, जो दक्षिण भारत के मार्ग का अनुसरण कर रहा था, जहाँ तमिल क्षेत्र में एम.एस.एस. पंडियान के राजनीतिक नेतृत्त्व से यह स्पष्ट हो चुका था कि राजनीति में गैर-ब्राह्मणों का आगमन इससे पहले ही हो चुका था ।

किंतु गठबंधन की राजनीति और कांग्रेस प्रणाली की प्रभुता का यह युग, 2014  में हुए सोलहवीं लोक सभा के चुनावों में, कदाचित पूरी तरह समाप्त हो गया जिसमें भाजपा के नेतृत्त्व में एन.डी.ए. ने भारी बहुमत से विजय प्राप्त की और कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा ।

अनेक समालोचकों के अनुसार, यह भारतीय राजनीति के सबसे बड़े परिवर्तन का काल था, क्योंकि 1984 के चुनावों के पश्चात् पहली बार-भाजपा ने नरेन्द्र मोदी के नेतृत्त्व में पूर्ण बहुमत प्राप्त करके, 543 में से 281 सीटें प्राप्त की थीं, और अब वह अकेले शासन कर सकती थी ।

इस चुनाव ने गठबंधन राजनीति को समाप्त कर दिया हालांकि इसमें सम्मिलित सहभागी दलों, शिवसेना, तेलुगू देशम पार्टी, अकाली दल, लोक जनशक्ति पार्टी के सदस्यों को मंत्रिमंडल में शामिल करके एन.डी.ए. के गुट को बनाए रखा गया ।

दूसरी ओर, कांग्रेस को अब तक की सबसे कम-केवल 44 सीट-प्राप्त हुई, और उसने विपक्ष के नेता का पद भी खो दिया । किंतु हमें यह भी याद रखना होगा कि इन चुनावों के परिणामों को, अनिवार्य रूप से, एकदलीय प्रभुसत्ता की पुनर्स्थापना नहीं कहा जा सकता क्योंकि भाजपा को अधिकतर उत्तरी और पश्चिमी भारत में अधिक समर्थन प्राप्त हुआ, जबकि दक्षिण पूर्व और उत्तर-पूर्व भारत के अनेक राज्यों पर या तो भाजपा का अधिक प्रभाव नहीं पड़ा था अथवा उन्होंने क्षेत्रीय दलों के पक्ष में मतदान किया था ।

हालांकि इस सबसे नवीन राजनीतिक परिवर्तन को विस्तृत परिप्रेक्ष्य में इस पुस्तक में शामिल करना आवश्यक नहीं है, किंतु इस बात पर हम संक्षेप में चर्चा करेंगे कि पिछले कुछ दशकों में नेहरूवादी नीतियों के विभिन्न पहलुओं पर विभिन्न दिशाओं से किस प्रकार अधिक हमले किए जाते रहे हैं ।

हम नेहरू की बड़े-बड़े बांध बनाने और भारी उद्योग लगाने की अधिक औद्योगीकरण की नीति से आरंभ करेंगे, जिसकी 1970 के दशक से पर्यावरणविदों और अन्य सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा गंभीर पड़ताल और आलोचना की जाती रही है ।

इसने अनेक महत्त्वपूर्ण सामाजिक आंदोलनों जैसे हिमालय में चिपको (वृक्ष को बाहों से घेरना) आंदोलन को जन्म दिया, जिसका उद्देश्य व्यावसायिक उपयोग के लिए वृक्षों को औद्योगिक दोहन तथा अनियंत्रित कटाई से बचाना था ।

इस आंदोलन को, एक सामाजिक कार्यकर्त्ता चंडी प्रसाद भट ने अपने दशौली ग्राम स्वराज्य मंडल के माध्यम से अप्रैल 1973 में शुरू किया था, जिसे एक गांधीवादी आंदोलनकारी सुंदरलाल बहुगुणा ने आगे बढ़ाया; उन्होंने औद्योगीकरण के लिए वृक्षों की कटाई के प्रतिकूल प्रभावों की ओर दुनिया का ध्यान आकर्षित करने के लिए 1977 और 1980 में अनेक आंदोलन किए ।

पर्यावरणविदें द्वारा चलाए गए एक अन्य महत्त्वपूर्ण आंदोलन का उदाहरण नर्मदा बचाओ आंदोलन है, जिसे जल विद्युत के उत्पादन, पेय जल की आपूर्ति और सिंचाई सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए नर्मदा नदी पर एक बड़ा बांध बनाने के विरोध में चलाया गया था ।

इस परियोजना से हजारों ग्रामवासियों-अधिकतर आदिवासियों और दलितों-को उपयुक्त पुनर्वास कार्यक्रम लागू किए बिना विस्थापित किए जाने की संभावना के कारण 1985 में गांधीवादी अहिंसक तरीके से सामाजिक कार्यकर्ता बाबा आप्टे और मेधा पाटकर ने एक आंदोलन का आरंभ किया ।

किंतु राज्य द्वारा पर्यावरण समर्थक आंदोलनकारियों का दमन और उत्पीड़न किया गया, तथापि उच्चतम न्यायालय ने केवल विस्थापितों का उचित रूप से पुनर्वास करने की शर्त पर बांध बनाने की मंजूरी दे दी; किंतु महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और गुजरात के ग्रामवासियों के लिए न्याय का संघर्ष अभी भी जारी है ।

राज्य के शक्तिशाली विरोध के सामने सीमित सफलता के बावजूद, इस आंदोलन का सिद्धांत सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है; जैसाकि आंदोलन की अधिकृत वेबसाइट ने दावा किया है, यह ”विकास के उस प्रमुख मॉडल को चुनौती देता है (जिसका सरदार सरोवर बांध प्रमुख उदाहरण है) जिसमें आधुनिकीकरण के माध्यम से भौतिक संपदा प्रदान करने का असाध्य वचन दिया गया है जिससे संसाधनों  के असमान वितरण को बल मिलता है और समाज एवं पर्यावरण का विनाश होता है ।”

किंतु यदि लोकतंत्र के आरंभिक वर्षों में समाजवाद नेहरू विकास नीति का कम-से-कम एक नारा था, तो 1990 के दशक में इसे अधिक कमजोर तथा बेकार माना जाने लगा, और अनेक दबावों के कारण अंतत: इसे छोड़ दिया गया ।

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई.एम.एफ.) की राय में, अब तक भारत, ”दुनिया का सबसे अधिक व्यवस्थित अर्थव्यवस्था वाला देश था ।” यह सच है कि नियोजित विकास की नीति भी, जिस पर भ्रष्ट नौकरशाही की पकड़ बहुत मजबूत थी, भारत की बढ़ती जनसंख्या के कष्टों को कम करने में असफल रही थी जो शीघ्र ही एक अरब का आंकड़ा पार करने वाली थी ।

1991 में भुगतान संतुलन (Balance of Payments) के गंभीर संकट से ग्रस्त, प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव और उनके विद्वान वित्त मंत्री, डॉ॰ मनमोहन सिंह ने ऋण के लिए अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की शर्तो को पूरा करने के लिए आर्थिक उदारीकरण की नीति आरंभ की ।

यह नीति, जिसे एनडीए और यूपीए सरकारों ने भी उत्साहपूर्वक जारी रखा, ”भारत के इतिहास के लिए आमूल परिवर्तनकारी” सिद्ध हुई । इस नीति के अंतर्गत लाइसेंस प्रणाली को सरल बना दिया गया, आयात दरें कम हो गई, विदेशी प्रत्यक्ष निवेश को सक्रिय रूप से बढ़ावा दिया जाने लगा, सार्वजनिक क्षेत्र के आरक्षित उद्योगों की संख्या कम कर दी गई, कराधान प्रणाली का पुनर्गठन किया गया, और श्रम कानूनों में सुधार के प्रयास किए गए ।

इस प्रकार, भारत ने आर्थिक राष्ट्रवाद को छोड्‌कर वैश्वीकरण के युग में प्रवेश किया, जिससे प्रभावित होकर विश्व बैंक ने इसे ”नि:शब्द आर्थिक क्रांति” कहा । इस नई नीति ने, जिसे कांग्रेस, एन.डी.ए. और बाद में दो यूपीए सरकारों ने अपनाया, भारत को मिश्रित परिणाम दिए ।

प्रथम, अर्थव्यवस्था में वार्षिक वृद्धि में बढ़ोतरी हुई: कुल मिलाकर यह 1991 और 2009 के बीच की अवधि के दौरान 6-6.5 प्रतिशत की सीमा में बनी रही; 2005 और 2008 के बीच वार्षिक वृद्धि 9 प्रतिशत से अधिक रही किंतु 2012-13 में गिरकर 5 प्रतिशत हो गई ।

यह दर पिछली दरों से अधिक थी जिनका हम पहले उल्लेख कर चुके हैं । अर्थव्यवस्था के अंतर्गत, सेवा क्षेत्र की वृद्धि दर विनिर्माण और कृषि क्षेत्र से अधिक रही । संक्षेप में, इस ऊंची वृद्धि दर का प्रमुख कारण औद्योगिक विकास (आईटी) जैसे सेवा क्षेत्र के उद्योगों का विकास था, जिसमें विश्व के आउटसोर्सिग के व्यवसाय और वित्तीय संस्थानों में तेजी से वृद्धि हो रही थी ।

इससे बुर्जुआ मध्य वर्ग को लाभ पहुंचा, जिसमें कदाचित वैश्विक उपभोक्ता वस्तुओं की भूख बढ़ती जा रही थी । और इसलिए, अन्य अनेक देशों के विपरीत, इसी घरेलू उपभोग ने-न कि निर्यात ने भारत के आर्थिक विकास को बल दिया । भारत का बाजार बड़ा होने के कारण, इसने अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियों को आकर्षित किया, जो यहां आकर लाभ कमाना चाहती थीं ।

किंतु दूसरी ओर, निर्माण क्षेत्र का अपेक्षित विस्तार न होने के कारण, यह विकास जनता के लिए नौकरियां न जुटा सका । गरीब किसान ‘इंडिया शाइनिंग’ के इन नए संकेतों से वंचित रह गया, जिनमें से अनेक ने आत्महत्या कर ली। 2005 में शुरू हुई, न्यूनतम मजदूरी पर 100 दिन रोजगार की गारंटी देने वाली राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (NREGS) से भी वांछित दर पर गरीबी दूर नहीं हुई ।

सरकारी आंकड़ो के अनुसार 1977-78 के 50 प्रतिशत की तुलना में 2004-05 में केवल 27 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी में जी रही थी। किंतु आर्थिक विकास की उच्च दर के संदर्भ में गरीबी कम होने का यह दर अपेक्षित दर से काफी कम थी ।

2009 में, सकल घरेलू उत्पादों (जीडीपी) के संदर्भ में विश्व में भारत दसवां बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश था, और क्रय शक्ति समता के संदर्भ में चौथा सबसे बड़ा देश था; किंतु 2010 में प्रति व्यक्ति आय के संदर्भ में विश्व में उसका स्थान 132 वां, और मानव विकास ससूचक में 122 वां था ।

इस तथ्य से सभी अर्थशास्त्री सहमत होंगे कि पिछले कुछ दशकों में आय में असमानता धीरे-धीरे बड़ी है । जैसाकि अर्थशास्त्री आर. नागराज का कहना है, ”भारत के विकास की कहानी में, विकास में वृद्धि होने के साथ ध्रुवीकरण हुआ: वास्तविक मानव कल्याण में अत्यल्प वृद्धि हुई और गरीबी में मामूली कमी हुई ।”

गरीबी का स्तर, विशेष रूप से आदिवासी बहुल क्षेत्रों में खतरनाक रूप में अधिक बना हुआ है । पर्यावरण की चिंता और महत्त्वपूर्ण खनिज संसाधनों पर अधिकार की लड़ाई ने भारत के आर्थिक विकास की कहानी को अधिक जटिल बना दिया ।

खाद्य सुरक्षा की समस्या, लगता था कि जिसका संभवतया समाधान हो गया था, दोबारा सामने आई, और ”भोजन का अधिकार” जैसे कानूनों के माध्यम से इसका समाधान करने के लिए कदम उठाए गए हैं ।

इस असमान विकास ने देश में गंभीर सामाजिक असंतुलन और राजनीतिक तनाव उत्पन्न किया है जैसे भारत के एक बड़े भाग में उग्रवादी माओवाद आंदोलन का विस्तार हुआ है, जिसका कारण यह है कि वर्तमान आर्थिक समृद्धि का लाभ सभी क्षेत्रों और सामाजिक वर्गो को समान रूप से प्राप्त नहीं हुआ ।

दूसरी ओर, भारत के बजट का एक बड़ा हिस्सा अभी भी रक्षा बजट के रूप में खर्च किया जाता है; 2013-14 में भारत ने अपने 1.4 मिलियन सैन्य बलों के निर्वाह के लिए 2.24 ट्रिलियन रु..पिछले वर्ष से 10 प्रतिशत अधिक-आवंटित किए । क्षेत्रीय रूप से, कश्मीर के मुद्‌दे पर पाकिस्तान के साथ भारत के संबंध इक्कीसवीं शताब्दी में विदेश नीति की वास्तविक चुनौती, और सुरक्षा का सबसे बड़ा खतरा बने हुए हैं ।

1980 के दशक के अंत में पाकिस्तानी सेना की सहायता और प्रोत्साहन से आक्रामक विद्रोह की शुरूआत होने पर, भारत पाकिस्तान के साथ एक छद्‌म युद्ध में उलझा रहा, जबकि 1999 में कारगिल पर एक छोटा युद्ध भी लड़ा गया ।

इस लंबे संघर्ष का एक प्रमुख परिणाम यह हुआ कि इस क्षेत्र का परमाणवीकरण (Nuclearisation) हो गया। सबसे पहले इंदिरा गांधी की कांग्रेस सरकार ने मई 1974 में एक भूमिगत परमाणु विस्फोट किया । इसके पश्चात् भाजपा के नेतृत्त्व वाली एनडीए सरकार ने मई 1998 में तीन परमाणु उपकरणों का विस्फोट करके परमाणु क्षमता का शस्त्रों के रूप में प्रयोग किया; इसके जवाब में पाकिस्तान ने तीन सप्ताह के भीतर अपने परमाणु शस्त्रों का विस्फोट किया ।

तथापि, विश्व द्वारा भर्त्सना किए जाने और अमेरिका के दबाव से दोनों पड़ोसियों के बीच समझौता वार्ता का आयोजन हुआ; किंतु शांति प्रक्रिया रुक-रुककर आगे बड़ी । दोनों देशों में धार्मिक राष्ट्रवाद की भावनात्मक शक्ति ने शांति प्रक्रिया को और भी कठिन बना दिया ।

इसके अतिरिक्त, भारत में भयंकर आतंकवादी आक्रमणों-जैसे 13 दिसंबर 2001 को भारतीय संसद पर हमला अथवा नवंबर 2008 को हुए मुंबई हमले के कारण, जिसकी योजना कथित रूप से पाकिस्तान में बनाई गई थी-दोनों पक्षों द्वारा समय-समय पर उठाए गए कदमों के बावजूद, दोनों देशों के आपसी संबंधों का तनाव कम नहीं हुआ ।

किंतु वैश्विक रूप से, शीत युद्ध पश्चात् एकध्रुवीय विश्व में भारत ने स्वयं को भलीभांति अनुकूलित कर लिया । यह सच है कि 1998 में परमाणु परीक्षणों के पश्चात्, पश्चिम के साथ उसके संबंध कठिन दौर से गुजर रहे थे । अपने आदर्शो के आधार पर, निरंतर परमाणु प्रसार निषेध संधि तथा व्यापक परीक्षण निषेध संधि पर हस्ताक्षर करने से इनकार करने पर भारत पर आर्थिक और तकनीकी प्रतिबंध लगाए गए ।

किंतु भारत की हाल ही के वर्षो में हुई आर्थिक प्रगति तथा अपने बाजारों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति देने के कारण, धीरे-धीरे विश्व ने उसकी वास्तविक परमाणु शस्त्र संपन्न राष्ट्र होने की स्थिति तथा उसकी विश्व शक्ति बनने की आकांक्षाओं को गंभीरता से लेना शुरू कर दिया ।

अफगानिस्तान के युद्ध में अमेरिका के हस्तक्षेप तथा आतंकवाद से लड़ाई में भारत अमेरिका की सामरिक नीति के लिए महत्वपूर्ण बन गया । अत: अगस्त 2008 में, भारत ने अमेरिका के साथ एक परमाणु समझौता करने में सफलता प्राप्त की जिसे भारत-अमेरिका नागरिक परमाणु समझौता (Civil Nuclear Agreement) कहा जाता है ।

इससे भारत का तीन दशकों से चला आ रहा परमाणु अलगाव समाप्त हो गया और उसे अपने नागरिक परमाणु संस्थानों के लिए अमेरिका से परमाणु ईधन और प्रौद्योगिकी खरीदने की अनुमति मिल गई । इसी समय, भारत ने अपनी ”लुक ईस्ट” नीति के माध्यम से एशिया की ओर अधिक घनिष्ठता से ध्यान देना शुरू कर दिया, जिसे 1992 में नरसिम्हा राव सरकार ने आरंभ किया था ।

अत: कहा जा सकता है कि हालांकि नेहरू का गुटनिरपेक्षता का सिद्धांत नई दुनिया की प्रणाली में पूरी तरह बेकार हो गया था, किंतु अखिल एशियाई संबंधों के उनके स्वप्न ने एक बार फिर मूर्त रूप ले लिया । अतीत में, सहयोग के क्षेत्रीय नेटवर्क-जैसे दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (SAARC) में-जिसका गठन सात दक्षिण एशियाई राष्ट्रों द्वारा किया गया था । भारत ने कदाचित अनिच्छा से भाग लिया था, क्योंकि उसने इस संगठन में अपना अधिक प्रभाव नहीं डाला था ।

किंतु एशिया-प्रशांत क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव तथा इस क्षेत्र में भारत की सामरिक दिलचस्पी होने के कारण, भारत ने दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों के संगठन आसियान (Association of South East Nations) से अधिक घनिष्ठ संबंध बनाए ।

1992 में भारत इसका क्षेत्रीय सहयोगी बना, 1995 में संवाद सहयोगी बना, और 2002 में इसका शिखर सहयोगी बन गया । 2002 में भारत पेसिफिक आईलैंड फोरम का संवाद सहयोगी बना और 2005 में ईस्ट एशिया समिट का सदस्य बना ।

एशिया-प्रशांत क्षेत्र में, विशेष रूप से इसके बहुपक्षीय संगठनों में भारत की अधिक भागीदारी, नि:संदेह दक्षिण चीन सागर में भारत की सामरिक रुचि तथा चीन की बढ़ती शक्तियों से भारत में उत्पन्न होने वाले भय से प्रेरित थी । किंतु यह उसकी, न केवल एशियाई क्षेत्र में एक बड़ी शक्ति, अपितु विश्व की महत्त्वपूर्ण शक्ति के रूप में स्थापित होने की महत्त्वकांक्षा, तथा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में स्थायी सदस्यता पाने की अभिलाषा के भी अनुरूप थी ।

अधिक महत्त्वपूर्ण रूप में, आर्थिक उदारीकरण के बाद, भारत को विश्व के बाजारों में अपनी पकड़ मजबूत बनानी थी; और आसियान इसका एक सुविधाजनक मार्ग था । अत:  2009 में भारत ने आसियान के साथ एक व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किए ।

आर्थिक हितों को ध्यान में रखते हुए भारत ने विकासशील देशों के अन्य महत्त्वपूर्ण नेटवर्क, ब्रिक्स के साथ अपने संबंधों को मजबूत बनाया, जो विश्व की तीव्र गति से विकासमान अर्थव्यवस्थाओं, ब्राजील, रशिया, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका का आदिवर्णिक (BRICS) नाम है ।

अत: भारत की महानता की खोज, जो 1947 में शुरू हुई थी, भले ही रुक-रुककर, किंतु इक्कीसवीं सदी में भी जारी है । अतीत में उपनिवेशवाद से विरासत में मिली अनेक कठिनाइयों से गुजरते हुए, भारत की यह यात्रा-कुछ सफलताओं और कुछ विफलताओं के साथ-साहसपूर्ण रही है जिसमें असीम आशावाद और निर्भीक अपेक्षाओं का समायोजन है । इतिहास के अनेक दौरों से गुजरते हुए, भारत आज भी जोश से परिपूर्ण बहुलतावादी लोकतांत्रिक राष्ट्र है जिसमें कई स्वर गुंजायमान होते रहते हैं ।

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