भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पर निबंध | Essay on Indian National Congress!

Essay Contents:

  1. कांग्रेस प्रणाली की चुनौतियाँ तथा उसकी पुनर्स्थापना (Challenges of Congress System and its Rehabilitation)
  2. नेहरू के बाद कांग्रेस का राजनीतिक उत्तराधिकार (Political Succession of Congress after Nehru)
  3. शास्त्री की मृत्यु तथा इन्दिरा गांधी का प्रधानमंत्री के लिए चयन  (Congress and Indira Gandhi)
  4. 1967 के चुनाव तथा कांग्रेस वर्चस्व में कमी (1967 Elections and Decrease in Congress Supremacy)
  5. कांग्रेस का विभाजन (Partition of Congress)
  6. गरीबी हटाओ की राजनीति (Poverty Eradication Politics)
  7. उद्योगों का राष्ट्रीयकरण (Nationalization of Industries)
  8. इन्दिरा कांग्रेस की लोकप्रियता व प्रभाव में वृद्धि (Indira Gandhi’s Popularity and Influence Increase)
  9. कांग्रेस व्यवस्था की पुनर्स्थापना (Reinstatement of Congress System)

Essay # 1. कांग्रेस प्रणाली की चुनौतियाँ तथा उसकी पुनर्स्थापना (Challenges of Congress System and Its Rehabilitation):

आजादी के बाद भारत की दल प्रणाली का विश्लेषण करने के लिये विद्वानों द्वारा कतिपय धारणाओं का प्रतिपादन किया गया है । उदाहरण के लिये भारतीय राजनीति में बहुदलीय प्रणाली के होते हुये भी 1952-1964 के काल में कांग्रेस के राजनीतिक वर्चस्व के कारण विदेशी विद्वान मॉरिस जॉन्स ने 1964 में भारत की दल प्रणाली को ‘एक दलीय प्रभुत्व’ की संज्ञा दी थी ।

इसी तरह भारतीय विद्वान रजनी कोठरी ने भारतीय दल प्रणाली के विश्लेषण हेतु 1964 में इसे ‘कांग्रेस प्रणाली’ की संज्ञा दी थी । इन दोनों धारणाओं में कतिपय समानता होते हुये भी कतिपय भिन्नताएँ हैं ।

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प्रथम, जहाँ एक दलीय प्रभुत्व की अवधारणा में कांग्रेस के वर्चस्व का ज्ञान होता है, वहीं कांग्रेस प्रणाली की धारणा से अपने वर्चस्व को बनाये रखने के लिये कांग्रेस की कार्य शैली तथा उसके संगठन के स्वरूप का पता चलता है ।

दूसरा, स्वयं रजनी कोठारी के अनुसार चूंकि उनके विश्लेषण में कांग्रेस को आम सहमति की पार्टी माना गया है, अत: उनका विश्लेषण मॉरिस जॉन्स के विश्लेषण- ‘एक दलीय प्रभुत्व’ से भिन्न है ।

रजनी कोठारी के अनुसार, कांग्रेस एक आम सहमति की पार्टी है । यह आम सहमति उसे राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेने के कारण प्राप्त हुई । भारत में कांग्रेस पार्टी एक राजनीतिक दल ही नहीं बल्कि वह भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन की राजनीतिक व वैचारिक विरासत है ।

भारतीय समाज के लगभग सभी वर्गों-उच्च वर्ग निम्न व मध्यम वर्ग पूँजीपति व मजदूर किसान व जमींदार महिलाएं व युवा आदि ने कांग्रेस के नेतृत्व में राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लिया था । अत: आजादी के समय कांग्रेस जब एक राजनीतिक दल के रूप में सामने आयी तो उसके पक्ष में भारत के सभी वर्गों की आम सहमति थी ।

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आन्दोलन के समय से ही उसके संगठन का विस्तार देशव्यापी था । इसी कारण कांग्रेस को चुनावी राजनीति में वर्चस्व की स्थिति प्राप्त हुई । लेकिन सत्ता प्राप्त होने के बाद भी कांग्रेस ने इस आम सहमति को बनाये रखने का प्रयास किया ।

कांग्रेस के वर्चस्व के कारण विपक्षी दलों का विरोध प्रभावी नहीं था । अत: कांग्रेस पार्टी के अन्दर ही पाये जाने वाले विभिन्न गुटों समूहों व विरोधी विचारधाराओं द्वारा विरोध व दबाव की राजनीति को आश्रय दिया गया । लेकिन साथ ही इनके विरोधी हितों व दृष्टिकोणों में समायोजन व समन्वय की प्रक्रिया अपनायी गयी ।

इससे विरोधी दलों को वैकल्पिक आधार व समर्थन विकसित करने का अवसर नहीं मिल पाया तथा कांग्रेस अपना व्यापक जनाधार बनाये रखने में सफल रही । इसका स्वाभाविक परिणाम एकदलीय प्रभुत्व के रूप में सामने आया । कांग्रेस की इसी कार्यशैली को कांग्रेस सिस्टम या प्रणाली की संज्ञा दी जाती है ।

इसी से यह भी निष्कर्ष निकलता है कि यदि कांग्रेस विभिन्न हितों का प्रतिनिधित्व करने तथा उनके विरोधी हितों में समायोजन की क्षमता को किसी भी कारण बनाये रखने में सफल नहीं रह पाती तो उसके वर्चस्व की स्थिति नहीं रह पायेगी । यही कांग्रेस प्रणाली की चुनौती है ।

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यह सवाल इसलिये उठ खड़ा हुआ कि 1967 के चुनावों में कांग्रेस को सरकार बनाने का अवसर अवश्य प्राप्त हुआ लेकिन उसके वर्चस्व में कमी आयी तथा उसका देशव्यापी समर्थन भी कम हुआ । समायोजन के अभाव में 1968 में कांग्रेस का विभाजन हुआ तथा उसका संगठन भी कमजोर हुआ । फिर भी 1971 के चुनावों में इन्दिरा गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस को भारी समर्थन मिला ।

इसे ही कांग्रेस प्रणाली की पुनर्स्थापना कहा जाता है । लेकिन 1971 में कांग्रेस का वह स्वरूप नहीं था जो उसे आरंभिक वर्षों में वर्चस्व के समय प्राप्त था । इस अध्याय में कांग्रेस प्रणाली की चुनौतियों तथा उसकी पुनर्स्थापना का अध्ययन किया जायेगा ।


Essay # 2. नेहरू के बाद कांग्रेस का राजनीतिक उत्तराधिकार (Political Succession of Congress after Nehru):

आजादी के बाद नेहरू के कार्यकाल 1947-1964 में भारतीय राजनीति में कांग्रेस का वर्चस्व बना रहा तथा उनके कर्मष्ठ व्यक्तित्व व स्वतंत्रता आन्दोलन में प्राप्त आम सहमति के कारण कांग्रेस में नेहरू का वर्चस्व बना रहा । पटेल व अम्बेडकर से कतिपय मुद्‌दों पर उनके मतभेद को सगठन व सरकार के दायरे में समाप्त कर लिया गया ।

अत: नेहरू के कार्यकाल में कांग्रेस के नेतृत्व में परिवर्तन में कोई गुजाइश नहीं थी लेकिन 27 मई 1964 को उनकी मृत्यु के उपरान्त कांग्रेस में उत्तराधिकार का प्रश्न उठ खड़ा हुआ । यह प्रश्न इसलिये महत्त्वपूर्ण था कि उत्तराधिकार के इस पहले मौके पर भविष्य के लिये इस सम्बन्ध में कांग्रेस के व्यवहार व परम्परा की स्थापना होनी थी ।

उत्तराधिकार के प्रश्न पर कांग्रेस वर्किग कमेटी ने वश परम्परा के स्थान पर आम सहमति तथा योग्यता के आधार पर नेहरू का उत्तराधिकारी चुनने का निर्णय लिया । परिणामस्वरूप के. कामराज के प्रस्ताव पर कांग्रेस संसदीय दल ने जून 1964 में लाल बहादुर शास्त्री को कांग्रेस संसदीय दल का नेता चुना तथा वे 9 जून 1964 को भारत के नये प्रधानमंत्री बने ।

जवाहरलाल नेहरू के उत्तराधिकारी के रूप में शास्त्री के चयन में कामराज की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी । उस समय उत्तराधिकारी के लिये मोरारजी देसाई तथा जगजीवनराम दो अन्य दावेदार थे ।

कामराज ने पार्टी के संसद सदस्यों मुख्यमंत्रियों तथा अन्य महत्त्वपूर्ण तबकों से अनौपचारिक बात-चीत के उपरान्त यह निष्कर्ष निकाला कि शास्त्री को सभी का समर्थन प्राप्त है । अत: नेहरू के उत्तराधिकारी के रूप में शास्त्री का चयन कांग्रेस पार्टी की आम सहमति के आधार पर किया गया था तथा इसमें सरकार की तुलना में संगठन को अधिक महत्व दिया गया था ।

कांग्रेस संगठन में आम सहमति प्राप्त करने में के कामराज की भूमिका महत्वपूर्ण थी । अतः शास्त्री के कार्यकाल तक सरकार की तुलना में कांग्रेस संगठन को महत्व की स्थिति प्राप्त थी । जब कांग्रेस नेहरू के उत्तराधिकारी के प्रश्न पर उलझी हुयी थी तो इसी बीच 27 मई से 9 जून, 1964 तक गुलजारी लाल नन्दा ने भारत के कार्यवाहक प्रधानमंत्री के रूप में कार्य किया ।


Essay # 3. शास्त्री की मृत्यु तथा इन्दिरा गांधी का प्रधानमंत्री के लिए चयन  (Congress and Indira Gandhi):

लाल बहादुर शास्त्री की छवि एक कर्मठ व ईमानदार नेता के रूप में थी । उन्हें नेहरू का योग्य उत्तराधिकारी माना गया था । लेकिन लाल बहादुर शास्त्री को अपने संक्षिप्त कार्यकाल में आर्थिक चुनौतियों के साथ देश की सुरक्षा की चुनौती का भी सामना करना पड़ा । उस समय देश गंभीर आर्थिक संकट से गुजर रहा था । 1960 के दशक के मध्य में आये सूखे ने देश में खाद्यान्न का संकट उत्पन्न कर दिया था ।

कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण 1965-66 में चौथी पंचवर्षीय योजना का आरंभ नहीं हो सका । साथ ही शास्त्री सरकार को 1965 में पाकिस्तान के साथ युद्ध का सामना करना पड़ा । भारत अपनी आर्थिक स्थिति के कारण युद्ध लड़ने की स्थिति में नहीं था । यह भारत पर थौपा गया युद्ध था ।

शास्त्री के नेतृत्व में भारतीय सेनाओं ने बहादुरी के साथ यह युद्ध लड़ा तथा निर्णायक विजय हासिल की । युद्ध के अन्तिम चरण में भारत की सेनाएं पाकिस्तान के शहर लाहौर तक पहुंच गयी थीं । शास्त्री ने भारत के निर्माण में किसानों तथा सेना के जवानों के महत्व को रेखांकित करते हुये ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा दिया था ।

युद्ध के बाद सोवियत संघ की मध्यस्था से भारत व पाकिस्तान के बीच समझौते के प्रयास किये गये । भारत-पाकिस्तान वार्ताओं का आयोजन सोवियत संघ के शहर ताशकंद में किया गया । इन वार्ताओं में भारत की ओर से लाल बहादुर शास्त्री ने भाग लिया । वार्ताओं के परिणामस्वरूप दोनों देशों के मध्य 10 जनवरी, 1966 को एक समझौते पर हस्ताक्षर किये गये, जिसे ताशकंद समझौते के नाम से जाना जाता है ।

समझौते के अन्तर्गत भारतीय सेना ने अपनी जान गवाकर जिन पाकिस्तानी क्षेत्रों पर कब्जा किया था -उन्हें लौटाना पड़ा । इस समझौते के बाद 10 जनवरी की रात को ही शास्त्री जी की मृत्यु हो गयी तथा भारत ने एक ईमानदार व कर्मठ नेता खो दिया ।

लालबहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद कांग्रेस में फिर एक बार नेतृत्व का संकट आ गया । नये प्रधानमंत्री की तलाश तक तत्काल 11 जनवरी 1966 को पुन: गुलजारी लाल नन्दा को कार्यवाहक प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया । कांग्रेस में नया नेता चुनने के लिये पहले की भांति कांग्रेस अध्यक्ष के. कामराज द्वारा अनौपचारिक बातचीत द्वारा आम सहमति विकसित करने का प्रयास किया गया ।

इस बार प्रधानमंत्री पद के दावेदारों में इन्दिरा गांधी के अतिरिक्त मोरारजी देसाई तथा जगजीवन राम का नाम प्रमुख था । मोरारजी देसाई कांग्रेस के एक वरिष्ठ गाँधीवादी नेता थे तथा इसके पूर्व वे गुजरात राज्य के मुख्यमंत्री भी रह चुके थे । इन्दिरा गाँधी को अधिक राजनीतिक अनुभव प्राप्त नहीं था । वे शास्त्री मंत्रिमंडल में सूचना व प्रसारण मंत्री के रूप में कार्य कर रही थीं ।

लेकिन उनके पक्ष में एक बड़ी बात यह थी कि वे पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की पुत्री थीं । अन्तत: कांग्रेस पार्टी में इन्दिरा गाँधी के पक्ष में आम सहमति बनी और उन्हें कांग्रेस संसदीय दल का नेता चुना गया तथा 24 जनवरी को उन्हें देश का अगला प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया । यद्यपि कांग्रेस के कतिपय वरिष्ठ नेताओं ने उनके चयन को पसन्द नहीं किया । मोरारजी देसाई को वित्तमंत्री बनाया गया ।

इन्दिरागांधी की समाजवादी नीतियाँ तथा व्यक्तिवादी नेतृत्व शैली (Indira Gandhi’s Socialist Policies and Individual Leadership Style):

जब इन्दिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री बनी तो वे लोक सभा की सदस्य नहीं थीं । वे उस समय राज्य सभा की सदस्य थीं । ऐसा पहली बार हुआ था कि राज्य सभा का सदस्य प्रधानमंत्री पद पर नियुक्त हुआ हो । इसके साथ ही वे देश की पहली महिला प्रधानमंत्री थीं ।

प्रधानमंत्री के रूप में वे देश में तीव्र सामाजिक व आर्थिक सुधार की नीतियों को लागू करने की पक्षधर थीं । वे समाजवादी विचारधारा से प्रेरित थीं । उन्होंने बैंकों तथा अन्य निजी उद्योगों के राष्ट्रीयकरण का समर्थन किया । साथ ही वे राजाओं को मिलने वाली सालाना पेंशन अर्थात् प्रिवी पर्स को भी समाप्त करने की पक्षधर थीं ।

इन नीतियों के साथ-साथ वे अर्थव्यवस्था पर राज्य के नियंत्रण को बढ़ाना चाहती थी । गरीबी निवारण भी उनकी समाजवादी नीतियों का अहम हिस्सा था । लेकिन कांग्रेस के संगठन पर काबिज वरिष्ठ कांग्रेसी नेता इन उग्रवादी नीतियों के पक्षधर नहीं थे । इसके साथ ही इन्दिरा गाँधी की नेतृत्व शैली नेहरू से भिन्न था ।

वे कांग्रेस के संगठन से स्वतंत्र होकर व्यक्तिवादी नेतृत्व शैली अपना रही थीं । उनकी नेतृत्व जहाँ एक ओर कांग्रेस की ऐतिहासिक समायोजन क्षमता कम हुई वहीं धीरे-धीरे उसमें आन्तरिक लोकतंत्र भी कम होता गया । दूसरी तरफ कांग्रेस संगठन के वरिष्ठ नेता सरकार तथा प्रधानमंत्री पर पूर्व की भांति ही अपना प्रभुत्व बनाये रखना चाहते थे । वे गांधी की बढ़ती हुयी लोकप्रियता से भी चिन्तित थे ।

उनकी समाजवादी नीतियों को समाज के कमजोर तबके का व्यापक समर्थन मिल रहा था । अतः संगठन के वरिष्ठ नेताओं तथा गाँधी के बीच उठा-पटक की संभावना बढ़ गयी । भारत की राजनीति का अगला घटनाक्रम इसी उठा-पटक का परिणाम है ।


Essay # 4. 1967 के चुनाव तथा कांग्रेस वर्चस्व में कमी (1967 Elections and Decrease in Congress Supremacy):

आम चुनाव भारत की राजनीति में एक बदलाव का संकेत देते हैं तथा आजादी के बाद इन चुनावों में कांग्रेस की लोकप्रियता में कमी दिखाई दी । फिर भी कांग्रेस किसी तरह सत्ता प्राप्त करने में सफल रही । लोकसभा की कुल 520 सीटों में कांग्रेस को केवल 283 सीटें मिलीं, जबकि पिछले चुनाव में उसने लोकसभा में 361 सीटें जीती थीं ।

कांग्रेस के कई महत्त्वपूर्ण नेता जैसे- के. कामराज, अतुल्य घोष, एस. के. पाटिल आदि चुनाव हार गये । विपक्ष की स्थिति में भी इसी तुलना में सुधार हुआ । स्वतंत्र पार्टी जो 1959 में बनी थी, उसे 44 सीटें प्राप्त हुईं तथा वे लोकसभा का सबसे बड़ा विपक्षी दल बन गयी ।

दूसरे स्थान पर जनसंघ पार्टी रही, जिसे 35 सीटों पर जीत हासिल हुई । चूंकि चुनाव के पहले साम्यवादी पार्टी का विभाजन हो चुका था, अत: विभाजन के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने 23 सीटें तथा मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने 19 सीटों पर सफलता प्राप्त की । इस प्रकार जहाँ एक ओर कांग्रेस के प्रभाव में कमी आयी, वहीं विपक्ष की स्थिति लोकसभा में मजबूत हुई ।

राज्यों में भी कांग्रेस की स्थिति कमजोर हुई:

1967 के चुनावों में केन्द्र स्तर पर ही नहीं बल्कि राज्यों में भी विधानसभा के चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन कमजोर रहा । कई राज्यों में गठबन्धन की सरकारें बनीं जिन्हें संविदा सरकारों की संज्ञा दी गयी । सात राज्यों में विधानसभा में कांग्रेस को बहुमत ही नहीं प्राप्त हुआ तथा दो राज्यों में कांग्रेस सरकार बनाने में सफल नहीं हो सकी ।

इस प्रकार 1967 में कुल मिलाकर 9 राज्यों में कांग्रेस को सत्ता प्राप्त नहीं हो सकी । ये राज्य हैं- बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु (मद्रास), उड़ीसा, पंजाब, राजस्थान और मध्य प्रदेश । उल्लेखनीय है कि इनमें से केरल में पहले से ही साम्यवादी पार्टी का वर्चस्व चला आ रहा था ।

1957 में पहली बार उन्होंने कांग्रेस को हराकर सरकार बनायी थी तथा इस चुनाव में भी उन्होंने अपनी स्थिति बरकरार रखी । राज्य स्तर पर 1967 के चुनावों का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू तमिलनाडु में द्रविड मुनेत्र कडगम की उल्लेखनीय सफलता है । 1960 के दशक में ही इस पार्टी ने तमिलनाडु में हिन्दी विरोधी आन्दोलन का संचालन किया था । इस पार्टी ने तमिलनाडु में केवल अपने बल पर ही विधानसभा में बहुमत प्राप्त किया तथा सरकार बनायी ।

1967 के चुनाव की पृष्ठभूमि (1967 Election Background):

इन चुनावों के समय जो देश की स्थिति थी वह भी कांग्रेस के लिए सहायक नहीं थी । 1966 में आये अकाल के कारण खाद्यान्न का संकट उत्पन्न हो गया था । इसके साथ ही औद्योगिक उत्पादन में भी कमी आयी थी । सरकार चौथी पंचवर्षीय योजना को भी नहीं लागू कर सकी ।

आर्थिक संकट के चलते देश की मुद्रा का अवमूल्यन करना पड़ा । इसका तात्पर्य यह है कि अन्य विदेशी मुद्राओं की तुलना में रुपए का मूल्य कम हो गया । इसका परिणाम यह हुआ कि देश के विभिन्न हिस्सों में विभिन्न दल तथा युवा समूह आन्दोलनरत् हो गया । उड़ीसा में तो छात्राओं के आन्दोलन के कारण सरकार को त्यागपत्र देना पड़ा ।

तमिलनाडु में हिन्दी विरोधी आन्दोलन का खामियाजा भी कांग्रेस को भुगतना पड़ा । उधर पश्चिम बंगाल में साम्यवादी पार्टी भी कांग्रेस विरोधी आन्दोलन को मजबूत बनाने में सफल हुई । इस प्रकार आर्थिक अस्थिरता व संकट के चलते राजनीतिक अस्थिरता भी उत्पन्न हो गयी । इसके लिए कांग्रेस को जिम्मेदार माना गया । ऐसी स्थिति में विपक्षी पार्टियों का गैर-कांग्रेसवाद का नारा लोकप्रिय हो गया ।

गैर-कांग्रेसवाद की धारणा में मुख्य बात यह थी कि विपक्षी दल यदि इकठ्‌ठा होकर चुनाव लड़े तो कांग्रेस को पराजित किया जा सकता है । चूंकि गैर-कांग्रेसी दलों में एकता का अभाव है, अत: उनके मत बँट जाते हैं तथा कांग्रेस बहुमत प्राप्त करने में सफल हो जाती है । इन चुनावों में भी कांग्रेस ने कतिपय समाजवादी मुद्दों को तथा केन्द्र में मजबूत सरकार को अपने चुनाव अभियान का आधार बनाया । ये मुद्‌दे थें- निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण तथा देशीय राजाओं को प्राप्त सालाना पेंशन (प्रिवी पर्स) को समाप्त करना ।

1967 के चुनाव में कांग्रेस के खराब प्रदर्शन के कारण (Due to Poor Performance of Congress in 1967 Election):

आजादी के बाद पहली बार 1967 के चुनाव में कांग्रेस को आशानुरूप सफलता नहीं मिली ।

इसके निम्नलिखित कारण हैं:

1. नेहरू के बाद कांग्रेस में गुटबन्दी का उदय (Rise of Factionalism in Congress after Nehru):

जवाहरलाल नेहरू लोकतांत्रिक प्रकृति तथा करिश्माई व्यक्तित्व के धनी थे । उन्हें कांग्रेस के सभी गुटों में सामंजस्य स्थापित करने की क्षमता प्राप्त थी । उनके मृत्यु के बाद सला प्राप्ति के लिए आन्तरिक गुटबन्दी बढ़ गई । कई राज्यों विशेषकर उत्तर प्रदेश बिहार उड़ीसा में गुटबन्दी के कारण कांग्रेस का संगठन अत्यन्त कमजोर हो गया । यह गुटबन्दी जिला तथा ग्राम स्तर तक भी फैल गयी । कई कांग्रेसियों ने कांग्रेस छोड्‌कर निर्दलीय उम्मीवारों के रूप में चुनाव लड़ा और वे जीते भी और यदि वे चुनाव नहीं जीत सके तो कांग्रेस के प्रत्याशी को हराने का कारण बने ।

2. गैर-कांग्रेसी दलों के बीच चुनावी गठबन्धन (Election Coalition among Non-Congress Parties):

1960 के दशक में लोहिया जैसे विपक्षी नेताओं ने गैर-कांग्रेसवाद के नारे को लोकप्रिय बना दिया था । अत: इस चुनाव के दौरान विपक्षी पार्टियों ने आपस में तालमेल कर तथा चुनावी गठबन्धन बनाकर कांग्रेस के विरुद्ध चुनाव लड़ने की योजना बनाई । उदाहरण के लिए केरल में कम्युनिस्ट पार्टी ने अन्य दलों से गठबन्धन कर कांग्रेस को हराने में सफलता प्राप्त की ।

उड़ीसा में स्वतंत्र पार्टी और जन-कांग्रेस पार्टी ने चुनावी समझौते के द्वारा यह काम किया । बिहार में समाजवादी दलों तथा भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी ने चुनाव के समय आपसी समझ का परिचय दिया तथा एक-दूसरे का सहयोग किया । राजस्थान में स्वतंत्र पार्टी और भारतीय जनसंघ पार्टी के बीच चुनावी गठबन्धन बनाया गया ।

इसका परिणाम यह हुआ कि गैर-कांग्रेसी मत जो आपस में विभाजित हो जाते थे वे एक साथ इन गठबन्धन के प्रत्याशियों को प्राप्त हो गये तथा कांग्रेस की सीटें कम हुई तथा गठबन्धनों को चुनाव जीतने में सफलता मिली ।

उल्लेखनीय है कि भारतीय राजनीति में गठबन्धन की राजनीति की शुरुआत सबसे पहले 1967 के चुनावों में राज्य स्तर पर हुई । वर्तमान में 1990 के बाद गठबन्धन की यही राजनीति भारत की केन्द्रीय राजनीति की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है ।

3. क्षेत्रीयता की राजनीति (Politics of Regionality):

1956 में भाषायी आधार पर राज्यों में पुनर्गठन के कारण भारत में क्षेत्रीय अस्मिता की राजनीति को भी बल मिला । क्षेत्रीय जनता अपने क्षेत्र की पार्टियों से भावनात्मक रूप से उड़ा थी तथा उसे केन्द्र के मुद्दों के स्थान पर क्षेत्रीय मुद्दों में अधिक रुचि थी । उदाहरण के लिए तमिलनाडु में द्रविड मुनेत्र कडगम ने 1960 के दशक में जो हिन्दी विरोधी आन्दोलन चलाया था, उसके कारण उसे जनता में लोकप्रियता प्राप्त हुई तथा 1967 के चुनावों में राज्य सभा में उसे अकेले दम पर बहुमत प्राप्त हुआ ।

इसी तरह पंजाब में सिखों ने कांग्रेस विरोधी रुख अपनाया । उड़ीसा, राजस्थान तथा अन्य राज्यों में गैर गरमी क्षेत्रीय नेताओं ने अपना जनाधार मजबूत किया तथा चुनाव में सफलता भी प्राप्त की । कांग्रेस की समाजवादी नीतियों के कारण उद्योगपतियों व जमींदारों ने कांग्रेस की बजाए स्वतंत्र पार्टी अथवा अन्य गैर-कांग्रेसी दलों को अपना समर्थन दिया । भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में राजनीतिक समर्थन जुटाने में जमींदारों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती थी ।

4. भारत का आर्थिक संकट (India’s Financial Crisis):

जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कि 1960 का दशक भारत के लिए आर्थिक संकटों का दशक है । 1962 में चीन के साथ युद्ध तथा 1965 में पाकिस्तान के साथ हुए युद्ध के कारण देश के आर्थिक संसाधनों की बर्बादी हुई तथा अर्थव्यवस्था कमजोर पड़ गयी ।

इसी बीच 1960 के दशक के मध्य में देश के विभिन्न भागों में आये अकाल और सूखे ने खाद्यान्न की कमी व भुखमरी की समस्या उत्पन्न कर दी । जर्जर अर्थव्यवस्था के कारण गरीबी बेरोजगारी कीमतों में वृद्धि जैसी समस्यायें बढ़ी तथा साथ ही कांग्रेस के प्रति जनता का असन्तोष भी बढ़ा । इस असन्तोष का खामियाजा कांग्रेस को 1967 के चुनाव में भरना पड़ा ।

5. कांग्रेस के संगठन व सिंडीकेट में मतभेद (Differences in Congress Organization and Syndicate):

कांग्रेस में कतिपय वरिष्ठ नेताओं जैसे- के. कामराज, अतुल्य घोष, बीजू पटनायक, एस. के. पाटिल आदि का एक अनौपचारिक समूह बन गया था जिन्हें सिंडीकेट के नाम से जाना जाता था । नेहरू की मृत्यु के बाद यह कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व में आये बदलाव का संकेत था । सिंडीकेट कांग्रेस में अधिक प्रभावशाली थे तथा जो कांग्रेस का संगठन था उसको अधिक महत्व प्राप्त नहीं था । कांग्रेस में कांग्रेस वर्किंग कमेटी के स्थान पर सिंडीकेट नेताओं को अधिक महत्व दिया जाता था । अत: शीर्ष स्तर पर कांग्रेस नेतृत्व में एकता की कमी के कारण दो वर्षों बाद ही 1969 में उसे विभाजन का सामना करना पड़ा ।


Essay # 5. कांग्रेस का विभाजन

(Partition of Congress):

1967 के चुनाव के अन्य परिणामों में एक महत्त्वपूर्ण परिणाम 1969 में कांग्रेस का विभाजन था । वैसे आजादी के पहले 1907 में कांग्रेस का पहली बार विभाजन हुआ था लेकिन आजादी के बाद 1969 का कांग्रेस का विभाजन पहला विभाजन है । नेहरू की मृत्यु के बाद कांग्रेस में सिंडीकेट समूह हावी हो गया था ।

यह एक अनौपचारिक समूह था तथा 1969 में इसमें निम्न शीर्ष नेता शामिल थे-कांग्रेस के अध्यक्ष के. कामराज, महाराष्ट्र के वरिष्ठ नेता एस. के. पाटिल, आंध्र प्रदेश के वरिष्ठ नेता नीलम संजीव रेड्‌डी, पश्चिम बंगाल के नेता अतुल्य घोष, गुजरात के मोरारजी देसाई और निजलिंगप्पा ।

यह सिंडीकेट समूह चाहता था कि प्रधानमंत्री पद पर कमजोर व्यक्ति की नियुक्ति की जाये ताकि पार्टी के शीर्ष स्तर पर सिंडीकेट का प्रभाव बना रहे । सिंडीकेट ने श्रीमती इन्दिरा गांधी को जो राज्य सभा की सदस्य थीं, को प्रधानमंत्री बनवाया लेकिन वह शीघ्र ही सिंडीकेट के इरादों को भांप गयीं । इसी तरह उन्होंने मोरारजी देसाई को उपप्रधानमंत्री बनवाया तथा निजलिंगप्पा को 1969 में कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया ।

शीर्ष स्तर पर कांग्रेस में वर्चस्व की प्रतियोगिता (Competition of Dominance in Congress at the Top Level):

ऐसी परिस्थिति में कांग्रेस के शीर्ष स्तर पर वर्चस्व की प्रतियोगिता आरंभ हो गयी । जिसमें एक तरफ सिंडीकेट समूह के वरिष्ठ नेता थे तथा दूसरी ओर प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी तथा उनके कतिपय सहयोगी जनजीवन राम जैसे नेता थे । इन्हें इंडीकेट के नाम से जाना जाता था । सिंडीकेट को बाद में पुरानी कांग्रेस तथा इंडीकेट को नई कांग्रेस के रूप में भी जाना जाने लगा ।

इस सत्ता संघर्ष में राज्यों की बदलती हुई परिस्थितियों ने भी भूमिका निभाई । जिन राज्यों में 1967 के चुनावों के बाद संविदा सरकारें बनी थी उनमें शामिल विपक्षी दलों में आपसी फूट सामने आने लगी तथा वहाँ पर अधिकांश राज्यों में कांग्रेस सरकारों की स्थापना हो गयी । इसमें केन्द्र सरकार और प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी की महत्वपूर्ण भूमिका थी ।

इन्दिरा गांधी ने जनता में अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए तथा सिंडीकेट की स्थिति कमजोर करने के लिए कई लोकप्रिय सामाजिक कार्यक्रमों को आरंभ करना चाहा । सिंडीकेट इन लोकप्रिय योजनाओं का विरोध कर रहे थे । मोरारजी देसाई जो उपप्रधानमंत्री के साथ-साथ वित्त मंत्री भी थे उन्हें वित्त मंत्री पद से हटा दिया गया तथा बाद में उन्होंने उपप्रधानमंत्री से भी त्यागपत्र दे दिया ।

इसी क्रम में प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने एक अध्यादेश जारी करके 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया क्योंकि इनसे प्राप्त धन को सरकार गरीब तबकों के सामाजिक कल्याण में खर्च करना चाहती थी । सिंडीकेट के विरोध के कारण अब दोनों गुटों के मतभेद उभरकर सामने आ गये ।

गैर-कांग्रेसवाद क्या है (What is Non-Congressism)?

गैर-कांग्रेसवाद का विचार 1960 के दशक में भारत राजनीति का एक प्रमुख विचार था । पहले तीन चुनावों में कांग्रेस को मिली भारी सफलता से यह विचार मजबूत होने लगा था कि भारत में कांग्रेस पार्टी का कोई विकल्प नहीं है । लेकिन इसके पीछे छिपा हुआ रहस्य यह था कि कांग्रेस को कभी भी किसी चुनाव में 50 प्रतिशत मत प्राप्त नहीं हुये ।

कांग्रेस की जीत का एक महत्त्वपूर्ण कारण विपक्ष के दलों को प्राप्त मतों का विभाजन था दूसरे शब्दों में यदि सभी विपक्षी पार्टी एक होकर चुनाव लड़े तो भारतीय राजनीति में कांग्रेस का वर्चस्व कायम नहीं रह सकता । अत: विपक्षी दलों को एकजुट करने की आवश्यकता थी इसी लक्ष्य को ध्यान में रखकर गैर-कांग्रेसवाद के विचार कार प्रतिपादन किया गया ।

1960 के दशक में इस विचार की लोकप्रियता में प्रमुख समाजवादी विपक्षी नेता राम मनोहर लोहिया का नाम प्रमुख था वे पहली बार 1962 मे संसद के सदस्य बने तथा उन्होंने गैर-कांग्रेसवाद का नारा दिया । इसके पीछे मुख्य उद्देश्य सभी गैर-कांग्रेसी पार्टियों को एकजुट करना था ।

इस विचार को काफी हद तक सफलता भी मिली जो 1967 के चुनावों में देखने को नेता थे इन्हें इडीकेट के नाम से जाना जाता था सिडीकेट को बाद में मिली । 1967 के चुनावों में विपक्षी एकता के चलते जहाँ एक ओर लोकसभा में कांग्रेस की सीटें कम हो गयीं, वहीं कई राज्यों में विपक्षी पार्टियों ने गठबन्धन बनाकर चुनाव में सफलता प्राप्त की तथा राज्य स्तर पर संयुक्त विधायक दल की सरकारों का गठन किया गया । संयुक्त विधायक दल राज्यों की विधानसभाओं में विपक्षी पार्टियों के गठबन्धन का नाम था ।

राष्ट्रपति चुनाव, 1969 में सिंडीकेटों की पराजय (Syndicate Defeat in Presidential Election, 1969):

1967 के चुनावों के बाद ही कांग्रेस में आंतरिक संघर्ष तेज हो गया था । इन चुनावों में कांग्रेस के प्रभाव में कमी आयी तथा कई राज्यों में विपक्षी पार्टियों ने सरकार बनाने में सफलता प्राप्त की । इस असफलता के लिए कांग्रेस के दोनों गुट इंडीकेट व सिंडीकेट एक-दूसरे पर दोषारोपण कर रहे थे ।

इन्दिरा गांधी उस समय देश की प्रधानमंत्री थीं लेकिन कांग्रेस के अध्यक्ष निजलिंगप्पा थे । दोनों में मतभेद बने हुए थे । 3 मई, 1969 को तत्कालीन राष्ट्रपति जाकिर हुसैन की मृत्यु हो गयी, अत: उस समय के उपराष्ट्रपति श्री वी. वी. गिरि को कार्यवाहक राष्ट्रपति नियुक्त किया गया । लेकिन छ: माह के अन्दर नये राष्ट्रपति के चुनाव होने आवश्यक थे । ये चुनाव 1969 में ही सम्पन्न हुये ।

चुनाव में राष्ट्रपति पद के लिए कांग्रेस का प्रत्याशी तय करने के लिए कांग्रेस संसदीय बोर्ड की बैठक बुलाई गयी । यह बैठक भी दो खेमों में बँट गयी । श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने जगजीवन राम का नाम प्रस्तावित किया जबकि सिंडीकेट गुट ने डॉ. नीलम संजीव रेड्‌डी का नाम प्रस्तावित किया । इसके लिये मतदान हुआ ।

चूंकि संगठन पर सिंडीकेट गुट का प्रभाव था अत: डॉ. नीलम संजीव रेड्‌डी को कांग्रेस का अधिकृत प्रत्याशी घोषित किया गया । इसके अलावा दो अन्य प्रत्याशी भी राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार थे । ये थे-प्रमुख श्रमिक नेता तथा पूर्व उपराष्ट्रपति श्री वी. वी. गिरि तथा विपक्ष के उम्मीदवार श्री देशमुख ।

वी. वी. गिरि, जो 1969 में निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में राष्ट्रपति पद के लिये निर्वाचित होने वाले एक मात्र राष्ट्रपति हैं । कांग्रेस में चल रही फूट के कारण इन्दिरा गांधी के कांग्रेसी गुट का उन्हें समर्थन प्राप्त हुआ । परिणाम- स्वरूप कांग्रेस के अधिकृत प्रत्याशी नीलम संजीव रेड्‌डी राष्ट्रपति का चुनाव हार गये ।

कांग्रेस अध्यक्ष निजलिंगप्पा ने कांग्रेस के राष्ट्रपति प्रत्याशी नीलम संजीव रेड्‌डी के समर्थन में उस समय के प्रमुख विपक्षी दलों-स्वतंत्र पार्टी व जनसंघ पार्टी से सहयोग की अपील की । इन्दिरा गांधी के गुट ने इस अपील को साम्प्रदायिक व प्रतिक्रियावादी तत्वों से सांठगांठ की संज्ञा दी । अत: इन्दिरा गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस के गुट ने नीलम संजीव रेड्‌डी का समर्थन नहीं किया ।

प्रधानमंत्री होने के नाते राष्ट्रपति के चुनाव में भाग लेने वाले संसद सदस्यों व विधानसभा सदस्यों पर श्रीमती इन्दिरा गांधी का प्रभाव था । उन्होंने सभी सदस्यों से अन्तरात्मा के आधार पर मत देने की बात कही जिसका व्यावहारिक रूप यह था कि कांग्रेस के सदस्य कांग्रेस के अधिकृत प्रत्याशी नीलव संजीव रेड्‌डी को वोट न देकर इस चुनाव में वी. वी. गिरि के पक्ष में अपना मतदान करें और यही हुआ । परिणामत: कांग्रेस के अधिकृत प्रत्याशी नीलम संजीव रेड्‌डी चुनाव हार गये तथा कांग्रेस के इन्दिरा गुट के समर्शन से वी. वी. गिरि राष्ट्रपति पद के लिए चुने गये ।

कांग्रेस का विभाजन, 1969 (Partition of Congress, 1969):

1969 के राष्ट्रपति चुनाव में कांग्रेस के अधिकृत उम्मीदवार संजीव रेड्‌डी की पराजय से सिंडीकेट के नेताओं जैसे- निजलिंगप्पा, के. कामराज, मोरारजी देसाई आदि को राजनीतिक झटका लगा । अत: उन्होंने रेड्‌डी की हार के लिए इन्दिरा गांधी, जगजीवन राम तथा फखरूद्दीन अली अहमद के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही आरंभ कर दी क्योंकि उनका मानना था कि इन नेताओं ने कांग्रेस के अधिकृत प्रत्याशी के विरुद्ध काम किया है ।

12 नवम्बर, 1969 को प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी को कांग्रेस पार्टी से निष्कासित कर दिया गया क्यों कि उनको अनुशासनहीनता का दोषी पाया गया । चूंकि कांग्रेस संसदीय दल में इन्दिरा गांधी का बहुमत था, अत: संसदीय दल के अधिकांश नेताओं ने इस निष्कासन को अवैध बताया ।

इस निष्कासन के बाद कांग्रेस स्पष्ट रूप से दो भागों में बँट गयी । सिंडीकेट गुट को पुरानी कांग्रेस अथवा कांग्रेस (ओ-आर्गनाइजेशन) तथा इन्दिरा गांधी के गुट को नई कांग्रेस अथवा कांग्रेस (आर-रिक्यूजीशन) कहा गया ।

आरोप-प्रत्यारोप के बीच इन्दिरा गांधी की बढ़ती लोकप्रियता (Indira Gandhi’s Increasing Popularity among Accusations):

विभाजन के बाद कांग्रेस के दोनों गुटों में आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हुआ । पुरानी कांग्रेस के नेताओं ने इन्दिरा गांधी के व्यक्तिवादी शक्ति प्रदर्शन को तानाशाही का दर्जा प्रदान किया, जबकि इन्दिरा गांधी ने पुरानी कांग्रेस के नेताओं को रूढ़िवादी तथा पूंजीवादी ताकतों का समर्थक बताया ।

अत: प्रधानमंत्री के रूप में इन्दिरा गांधी ने पूँजीवाद के स्थान पर गरीबों के कल्याण को देश का प्रमुख मुद्दा बना दिया । उन्होंने पूर्व राजाओं की सालाना पेंशन( प्रिवी पर्स) को समाप्त करने तथा निजी उद्योगों के राष्ट्रीयकरण की घोषणा की । इसके साथ ही इन्दिरा गांधी का मानना था कि रोटी, कपड़ा और मकान देश की आम जनता की मूल जरूरत हैं । अत: गरीबी निवारण के गंभीर प्रयास किये जाने चाहिए ।

गरीबी हटाओ का नारा आम जनता में अधिक लोकप्रिय हुआ तथा इन्दिरा गांधी को प्रगतिशीलता का प्रतीक माना जाने लगा । जबकि पुरानी कांग्रेस के बारे में आम जनता में यह छवि बनी कि वे प्रतिक्रियावादी हैं तथा पूंजीवादी तत्वों के समर्थक हैं । इसी पृष्ठभूमि में मार्च 1971 का चुनाव लड़ा गया । भारतीय राजनीति में यह वैचारिक संक्रमण का समय था ।

1971 के चुनाव तथा कांग्रेस के वर्चस्व की पुनर्स्थापना (Reorganization of Elections of 1971 and Congress Supremacy):

यद्यपि 1967 में निर्वाचित हुई लोकसभा का कार्यकाल 1972 तक था, लेकिन श्रीमती इन्दिरा गांधी ने एक वर्ष पूर्व ही लोकसभा को भंग करने का सुझाव दिया तथा 27 दिसम्बर, 1970 को चौथी लोकसभा को भंग कर दिया गया । इसके साथ ही 1971 में नये चुनावों की घोषणा की गयी ।

इसके कतिपय महत्वपूर्ण कारण थे:

1. 1969 में कांग्रेस के विभाजन के बाद इन्दिरा गांधी की सरकार का बहुमत कम हो गया था तथा उसे अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए विपक्षी दलों के सहयोग की जरूरत थी । उस समय के कतिपय विपक्षी दलों जैसे- भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी, भारतीय क्रान्ति दल, द्रविड मुनेत्र कडगम तथा मुस्लिम लीग ने इन्दिरा गांधी की सरकार का समर्थन किया । फिर भी ऐसी स्थिति प्रगतिशील नीतियों को लागू करने में बाधक थी ।

2. 1970 में कई राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव सम्पन्न हुये थे जिसमें इन्दिरा कांग्रेस के प्रत्याशियों को सफलता प्राप्त हुई थी । अत: इन्दिरा गांधी को अपने बढ़ते जनसमर्थन का आभास था । उन्हें यह विश्वास था कि लोकसभा चुनावों में उनकी पार्टी को सफलता मिलेगी ।

3. 1967 में सर्वोच्च न्यायालय ने गोलकनाथ मामले में यह फैसला किया कि संसद मौलिक अधिकारों में संशोधन नहीं कर सकती । इसके साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने इन्दिरा सरकार द्वारा प्रिवी पर्स को समाप्त करने के लिए जो अध्यादेश जारी किया था, उसे भी सर्वोच्च न्यायालय ने निरस्त कर दिया था ।

अत: इन प्रगतिशील नीतियों को लागू करने के लिए संविधान में संशोधन की आवश्यकता थी । संविधान संशोधन के लिए विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है, जो कि इन्दिरा सरकार को प्राप्त नहीं था । नये चुनावों द्वारा इस समस्या का समाधान किया जा सकता था ।

4. इन्दिरा गांधी द्वारा प्रस्तावित कई प्रगतिशील व कल्याणकारी नीतियों व कार्यक्रमों जैसे- गरीबी हटाओ बैंकों का राष्ट्रीयकरण, प्रिवी पर्स आदि को देश में व्यापक जनसमर्थन प्राप्त था । अत: इसी आधार पर उनकी लोकप्रियता में वृद्धि हुई । नये चुनावों द्वारा इस लोकप्रियता को चुनावी जीत में परिवर्तित किया जा सकता था ।

1971 के चुनावों में विपक्षी पार्टियों की एकजुटता- ग्रांड एलायन्स (Solidarity of Opposition Parties in the 1971 Elections – Grand Alliance):

1971 के चुनावो के समय भारतीय साम्यवादी पार्टी को छोड़कर सभी विपक्षी दल एकजुट हो गये थे । भारतीय साम्यवादी पार्टी सरकार में कांग्रेस का समर्थन कर रही थी । इसी के साथ पुरानी कांग्रेस ने भी कई विपक्षी दलों के साथ एक गठबन्धन का निर्माण किया था, जिसे ग्रांड एलायन्स के नाम से जाना जाता है । इसका शाब्दिक अर्थ है- महान गठबन्धन ।

वास्तव में इस गठबन्धन में साम्यवादियों को छोड़कर इन्दिरा कांग्रेस विरोधी सभी पार्टियाँ शामिल थीं । यह गठबन्धन 1960 में प्रचलित गैर-कांग्रेसवाद की विचारधारा का ही परिणाम था । ग्रांड एलायन्स में स्वतंत्र पार्टी, भारतीय जनसंघ, भारतीय क्रांति दल समाजवादी पार्टी आदि सभी शामिल थे ।

विभाजन के बाद कांग्रेस के पूर्व चुनाव-चिह्न दो बैलों की जोड़ी पर रोक लगा दी गयी थी । अत: नई कांग्रेस को गाय-बछड़े का नया चुनाव-चिह्न आवंटित किया गया तथा इसी चुनाव-चिह्न पर इन्दिरा कांग्रेस ने चुनाव लड़ा ।


Essay # 6. गरीबी हटाओ की राजनीति

(Poverty Eradication Politics):

1971 के चुनावों में इन्दिरा कांग्रेस का मुख्य नारा गरीबी हटाओ था । पार्टी ने अपने घोषणा पत्र में इस बात का उल्लेख किया कि सामाजिक न्याय तथा कमजोर वर्गों के कल्याण के लिए इन्दिरा कांग्रेस को भारी बहुमत से जीतना आवश्यक है, तभी विधान संशोधन कर नई प्रगतिशील नीतियों को लागू किया जा सकेगा । कांग्रेस के इस तर्क को आम जनता में व्यापक समर्थन प्राप्त हुआ ।

दूसरी तरफ विपक्षी पार्टियों ने इन्दिरा गांधी को तानाशाह बताते हुए इन्दिरा हटाओ का नारा दिया, लेकिन यह नारा आम नागरिकों के गले नहीं उतर पाया । दूसरी तरफ इन्दिरा कांग्रेस ने कई अन्य मुद्दों जैसे- गरीबों के बीच में भूमि का आवंटन उत्तर प्रदेश तथा बिहार में उर्दू भाषा को दूसरी राज्य भाषा का दर्जा प्रदान करना आदि के द्वारा भी अल्पसंख्यकों तथा गरीबों में अपना समर्थन बढ़ाया ।

उस समय इन्दिरा कांग्रेस के मुस्लिम नेता फखरूद्दीन अली अहमद ने उसके पक्ष में अल्पसंख्यकों का समर्थन जुटाने में तथा जगजीवन राम ने अनुसूचित जातियों का समर्थन जुटाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई । अत: चुनाव प्रचार के दौरान ही सभी को इस बात का एहसास हो गया था कि इन्दिरा कांग्रेस को व्यापक जनसमर्थन प्राप्त हो रहा है ।


Essay # 7. उद्योगों का राष्ट्रीयकरण

(Nationalization of Industries):

राष्ट्रीयकरण का तात्पर्य है- निजी उद्योगों पर सरकार का स्वामित्व व नियंत्रण स्थापित करना । ऐसा करने के पीछे मुख्य तर्क यह दिया जाता है कि निजी उद्योग निजी लाभ की भावना से कार्य करते हैं । यदि ये उद्योग सरकार के नियंत्रण में कार्य करेंगे तो वे जनहित में कार्य करेंगे तो वे जनहित में कार्य करेंगे । इस प्रकार राष्ट्रीयकरण देश में समाजवादी लक्ष्यों जैसे लोक कल्याण, आर्थिक समानता को प्राप्त करने एक उपाय है ।

संविधान में नीति निर्देशक तत्वों के अनुच्छेद 37 में व्यवस्था देश में आर्थिक संसाधनों का नियंत्रण तथा अर्थव्यवस्था का संचालन जनहित में किया जायेगा । इसी तरह मौलिक अधिकारों के अनुच्छेद (31-अ) में जनहित में सरकार को निजी उद्योगों नियंत्रण व स्थापित करने के लिये अधिकृत किया है ।

भारतीय राजनीति में यह मुद्‌दा 1960 के दशक के में तब चर्चा का बना जब इन्दिरा गांधी ने 1969 में देश के 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया । उद्योगपतियों तथा पूँजीपतियों तथा कतिपय राजनीतिक दलों जैसे स्वतंत्र पार्टी आदि द्वारा सम्पत्ति की स्वतंत्रता के आधार पर राष्ट्रीयकरण का विरोध किया गया था । 1980 में पुन: 6 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया ।

चुनाव परिणाम:

लोकसभा के पाँचवें चुनावों में यह विश्वास सभी को था कि इन्दिरा कांग्रेस को बहुमत प्राप्त होगा । लेकिन यह आभास किसी को नहीं था कि उसे दो-तिहाई सीटें प्राप्त होगी । जब चुनाव परिणाम सामने आये तो इन्दिरा कांग्रेस को लोकसभा की कुल 518 सीटों में 352 सीटें प्राप्त हुईं । अत: कांग्रेस को लोक सभा की कुल सीटों में से 68 प्रतिशत सीटें प्राप्त हुईं ।

पुरानी कांग्रेस अथवा कांग्रेस संगठन को केवल 16 सीटों पर विजय हासिल हुई तथा भारतीय राजनीति में उसका अस्तित्व नगण्य हो गया । उल्लेखनीय है कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने 25 सीटें प्राप्त कीं । दूसरी साम्यवादी पार्टी- भारतीय साम्यवादी पार्टी का इन्दिरा कांग्रेस के साथ चुनावी गठबन्धन था तथा उसे 23 सीटें प्राप्त हुईं ।

भारतीय जनसंघ को इस चुनाव में 22 सीटों पर सफलता मिली जबकि पिछली लोकसभा में प्रमुख विपक्षी पार्टी स्वतंत्र पार्टी का जनसमर्थन घट गया क्योंकि उसे केवल 8 सीटें प्राप्त हुईं । क्षेत्रीय दलों में तमिलनाडु की द्रविड मुनेत्र कडगम को उल्लेखनीय सफलता मिली ।

इस पार्टी ने लोकसभा में 23 सीटों पर सफलता प्राप्त की । पाँचवीं लिकसभा के चुनाव मार्च 1971 में सम्पन्न हुये तथा 19 मार्च को पाँचवीं लोक सभा की पहली बेठक हुयी । लोक सभा में प्राप्त बहुमत के आधार पर गाँधी ने अपनी सामाजिक और आर्थिक नीतियों को आगे बढ़ाने का प्रयास किया ।


Essay # 8. इन्दिरा कांग्रेस की लोकप्रियता व प्रभाव में वृद्धि

(Indira Gandhi’s Popularity and Influence Increase):

इन चुनावों के बाद यह पूरी तरह से साफ हो गया कि कांग्रेस में जो विभाजन हुआ है, उसमें असली कांग्रेस, नई कांग्रेस अथवा कांग्रेस-आर ही है तथा उसे ही भारत की जनता ने स्वीकार किया है । अत: इसके बाद कांग्रेस में अन्तर्कलह की स्थिति को विराम मिला तथा इन्दिरा गांधी को कांग्रेस में अपना नेतृत्व मजबूत करने में मदद मिली ।

इस चुनाव में नई कांग्रेस की सफलता के कतिपय महत्त्वपूर्ण कारण थे:

1. विपक्षी दलों द्वारा इन्दिरा गांधी के विरुद्ध नकारात्मक प्रचार, जिसे देश की जनता ने स्वीकार नहीं किया ।

2. पुरानी कांग्रेस की प्रतिक्रियावादी नीतियाँ, जो जनता में लोकप्रिय नहीं हो सकीं । उदाहरण के लिए पूँजीवादी समर्थक तत्वों को आम जनता में लोकप्रियता प्राप्त नहीं थी ।

3. इन्दिरा गांधी की लोक-लुभावन नीतियाँ जैसे-गरीबी हटाओ का नारा तथा अन्य जन-कल्याणकारी कार्यक्रम ।

4. अनुसूचित जातियों तथा अल्पसंख्यकों का इन्दिरा कांग्रेस को व्यापक समर्थन । जहाँ अनुसूचित जातियाँ व गरीब सामाजिक न्याय के एजेन्डे से आकर्षित थे, वहीं अल्पसंख्यक कांग्रेस के साथ थे, क्योंकि धर्म में शामिल जनसंघ जैसी पार्टियों का वे समर्थन नहीं करना चाहते थे ।

5. 1967 के चुनावों के बाद कई राज्यों में विपक्ष द्वारा संविदा सरकारों की स्थापना की गयी थी लेकिन वे सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकीं क्योंकि गठबन्धन में शामिल विपक्षी पार्टियों में आपसी मतभेद बढ़ गये । इसका परिणाम यह हुआ कि आम जनता में यह विश्वास दृढ़ हो गया कि गठबन्धन की सरकार राजनीतिक स्थिरता प्रदान नहीं कर सकती । इसीलिए 1971 के चुनावों में भी ग्रांड एलायन्स गठबन्धन को जनता ने नकार दिया ।

भारत-पाक युद्ध व इन्दिरा गांधी की लोकप्रियता (Indo-Pak War and Indira Gandhi’s Popularity):

राष्ट्रीय स्तर पर जब इन्दिरा गांधी की लोकप्रियता जब शीर्ष पर थी उसी समय कतिपय अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों ने भी उनकी लोकप्रियता और प्रभाऊ को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई । 3 दिसम्बर, 1971 को पाकिस्तान के साथ भारत का युद्ध आरम्भ हो गया । इस पूर्व पाकिस्तान के पूर्वी हिस्से अथवा पूर्वी पाकिस्तान में सेना द्वारा जनता पर अत्याचार किये गये तथा चुने हुए नेताओं को सत्ता देने से मना कर दिया गया ।

सेना से प्रताड़ित पूर्वी पाकिस्तान के लाखों शरणार्थी भारत में चले आये । पाकिस्तान की नीतियों के विरुद्ध इन्दिरा गाँधी ने विश्व स्तर पर राजनयिक विचार-विमर्श किया तथा विश्व के प्रमुख देशों विशेषकर-सोवियत संघ का समर्थन प्राप्त करने में सफलता अर्जित की ।

इस पृष्ठभूमि में 1971 के भारत-पाक युद्ध में पाकिस्तान की निर्णायक हार हुई तथा पूर्वी पाकिस्तान आजाद हो गया तथा वहाँ पर एक नये देश बांग्लादेश का उदय हुआ । भारत की सेनाओं ने बांग्लादेश के मुक्ति वाहिनी के साथ मिलकर पाकिस्तान की सेना को पराजित करने में सफलता प्राप्त की । इस युद्ध का सबसे बड़ा परिणाम पाकिस्तान का विभाजन था । बांग्लादेश के नेताओं ने इन्दिरा गांधी को अपना निर्माता माना ।

यह भारत की बहुत बड़ी कूटनीतिक और सैनिक सफलता थी । इस सफलता का श्रेय इन्दिरा गांधी को दिया गया तथा उस समय के प्रमुख विपक्षी नेता अटल बिहारी बाजपेयी ने इन्दिरा गांधी को दुर्गा की संज्ञा दी । कांग्रेस के एक अन्य नेर देवकान्त बरूआ ने इण्डिया इज इन्दिरा तथा इन्दिरा इज इण्डिया का नार दिया । यह इन्दिरा गांधी की लोकप्रियता का चरम बिन्दु था ।

राज्यों में भी कांग्रेस को व्यापक सफलता (Success of Congress):

1972 में देश के 16 राज्यों तथा 2 केन्द्रशासित प्रदेशों की विधानसभाओं के लिए चुनाव सम्पन्न हुये । इन चुनावों में विधानसभा की 70 प्रतिशत सीटों पर कांग्रेस को सफलता प्राप्त हुई । इन राज्यों में इन्दिरा कांग्रेस ने सरकार बनाने में सफलता प्राप्त की । अत: अब राष्ट्रीय व राज्य स्तर राजनीति में इन्दिरा कांग्रेस का प्रभाव स्थापित हो गया ।


Essay # 9. कांग्रेस व्यवस्था की पुनर्स्थापना (Reinstatement of Congress System):

1967 के चुनावों को समीक्षकों ने कांग्रेस व्यवस्था के लिए एक चुनौती के रूप में देखा था । यह चुनौती गंभीर थी क्योंकि कांग्रेस नेहरू की मृत्यु के बाद नेतृत्व के संक्रमण से गुजर रही थी । इन चुनावों में कांग्रेस के प्रभाव में कमी आयी तथा 1969 में कांग्रेस का विभाजन भी हुआ । यह सभी घटनाएँ कांग्रेस के प्रथम तीन लोकसभा चुनावों में प्राप्त वर्चस्व के लिए चुनौतीपूर्ण थीं ।

इन्दिरा गांधी के नेतृत्व में 1971 के चुनावों में कांग्रेस को व्यापक सफलता प्राप्त हुई तथा उसे लोकसभा की 68 प्रतिशत सीटों में जीत हासिल हुई । इन चुनावों का एक निहितार्थ यह भी है कि कांग्रेस के अन्दर गुटबन्दी कलह तथा नेतृत्व के संक्रमण का समय खत्म हुआ तथा कांग्रेस इन्दिरा गांधी के नेतृत्व में पूरी तरह एकजुट हो गयी । पुरानी कांग्रेस के नेताओं को जनता ने नकार दिया । दूसरे शब्दों में कांग्रेस के अन्दर इन्दिरा गांधी के नेतृत्व को अब कोई चुनौती नहीं थी ।

अत: देश की राजनीति में कांग्रेस की प्रभावपूर्ण वापसी तथा कांग्रेस के अन्दर इन्दिरा गांधी के नेतृत्व की मजबूती के आधार पर समीक्षकों ने 1971 के चुनाव परिणामों को कांग्रेस प्रणाली की पुनर्स्थापना की संज्ञा दी है । दूसरे शब्दों में 1971 के बाद कांग्रेस को वही वर्चस्वपूर्ण स्थिति प्राप्त हो गयी जो नेहरू के काल में इस पार्टी को 1950 से 1967 के मध्य प्राप्त थी ।

परन्तु यदि हम कांग्रेस की वर्तमान स्थिति को देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि राजनीतिक प्रभाव की वापसी के बाद भी कांग्रेस की प्रकृति में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आये, जोकि इसे 1950 से 1967 के बीच की स्थिति से अलग करते हैं ।

प्रमुख अन्तर इस प्रकार हैं:

1. 1971 के बाद कांग्रेस एक नेतृत्व प्रधान पार्टी बन गयी । अर्थात् छंट पार्टी में सब कुछ इन्दिरा गांधी का नेतृत्व था । उसमें सामूहिक नेतृत्व व विचार-विमर्श की कोई गुंजाइश नहीं थी ।

2. अपनी लोकप्रिय नीतियों के कारण 1966 व 1971 के मध्य इन्दिरा गाँधी ने सीधे जनता से सम्पर्क बनाया तथा इसी कारण कांग्रेस संगठन का महत्व व प्रभाव कम होने लगा ।

3. आन्तरिक प्रजातंत्र नेहरू के समय कांग्रेस की एक प्रमुख विशेषता थी लेकिन अब कांग्रेस व्यक्तित्व प्रधान नेतृत्व के अधीन हो गयी तथा कांग्रेस में आन्तरिक लोकतंत्र कमजोर होता गया ।

4. 1971 के बाद कांग्रेस के जनाधार में भी परिवर्तन दिखाई देता है । पहले नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी कई विरोधी विचारधाराओं हितों व वर्गों को प्रतिनिधित्व प्रदान करती थी तथा उनके मध्य सामंजस्य स्थापित करती थी । कांग्रेस की इसी क्षमता को रजनी कोठारी ने कांग्रेस सिस्टम की संज्ञा दी थी लेकिन 1971 के बाद कांग्रेस अपने चुनावी जनाधार के रूप में दलितों अल्पसंख्यकों तथा अन्य कमजोर वर्गों पर अधिक निर्भर हो गयी । यह कांग्रेस के बदलते स्वरूप का संकेत था ।

5. 1971 के चुनावों में कांग्रेस ने गरीबी हटाओ का आकर्षक नारा देकर जनसमर्थन प्राप्त किया था । लेकिन गरीबी हटाओ कार्यक्रम की सफलता बहुत बातों पर निर्भर करती है । परिणाम यह हुआ कि कुछ ही वर्षों में आम जनता का इस आकर्षक नारे से मोह भंग होने लगा क्योंकि उनकी समस्याओं का प्रभावी समाधान नहीं हुआ । 1970 के दशक में बढ़ती महँगाई तथा भ्रष्टाचार की समस्याओं ने जनता में असंतोष को जन्म दिया ।

इस असंतोष की अभिव्यक्ति विभिन्न आन्दोलनों के माध्यम से की गयी । इस विरोध को इन्दिरा गांधी ने राजनीतिक विरोध के स्थान पर व्यक्तिगत विरोध के रूप में लिया । जब अगले चार वर्षों में सरकार का विरोध सरकार के लिए एक चुनौती बन गया तो उन्होंने 1975 में इस विरोध को दबाने के लिए आपातकाल लागू कर दिया । 1975 में आपातकाल की घोषणा भारतीय राजनीति और लोकतंत्र के लिए एक नये संकट का संकेत थी लेकिन इसकी जड़ें काफी हद तक कांग्रेस के बदलते हुए स्वरूप में निहित थी ।


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