गुप्त साम्राज्य: विजय और युद्ध | Gupta Empire: Conquest and War. Read this article in Hindi to learn about the three important wars fought during gupta period. The wars are:- 1. आर्यावर्त्त का प्रथम युद्ध 2. दक्षिणापथ का युद्ध 3. आर्यावर्त्त का द्वितीय युद्ध.

राजधानी में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर लेने के बाद समुद्रगुप्त ने अपना अभियान प्रारम्भ किया । वह एक महान् विजेता था जिसकी दिग्विजय का उद्देश्य प्रयाग प्रशस्ति के शब्दों में ‘सम्पूर्ण पृथ्वी को जीतना’ (धरणिबन्ध) था । प्रयाग प्रशस्ति उसकी विजयों का पूरा-पूरा विवरण हमारे समक्ष उपस्थित करती हैं ।

जिसे हम निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत रख सकते हैं:

1. आर्यावर्त्त का प्रथम युद्ध:

अपनी दिग्विजय की प्रक्रिया में समुद्रगुप्त ने सर्वप्रथम उत्तर भारत में एक छोटा-सा युद्ध किया जिसमें उसने तीन शक्तियों को पराजित किया । इसका उल्लेख प्रशस्ति की तेरहवीं-चौदहवीं पंक्तियों में मिलता है ।

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इन शक्तियों के नाम इन प्रकार दिये गये हैं:

(i) अच्युत:

यह संभवतः नागवंशी राजा था जो अहिच्छत्र में शासन करता था । इस स्थान की पहचान बरेली (उ. प्र.) में स्थित रामनगर नामक स्थान से की जाती है जहाँ से ‘अच्यु’ नामांकित कुछ सिक्के प्राप्त हुये हैं ।

(ii) नागसेन:

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जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, वह एक नागवंशी राजा था जो पद्‌मावती (ग्वालियर जिले में स्थित पद्‌मपवैया) में शासन करता था ।

(iii) कोतकुलज:

तीसरे शासक का नाम नहीं मिलता, बल्कि यह कहा गया है कि वह कोत वंश में उत्पन्न हुआ था । यह बताया गया है कि जिस समय समुद्रगुप्त पाटलिपुत्र में खुशियां मना रहा था, उसकी सेना ने उसे बन्दी बना लिया । दिल्ली तथा पूर्वी पंजाब से कोत नामधारी सिक्के मिलते हैं । लगता है वह इन्हीं भागों का शासक था ।

यह स्पष्ट नहीं है कि समुद्रगुप्त ने इन तीनों राजाओं को एक ही युद्ध में परास्त किया था अथवा अलग-अलग युद्धों में । के. पी. जायसवाल का विचार है कि इन तीनों राजाओं ने एक सम्मिलित संघ बना लिया था और समुद्रगुप्त ने इस संघ को कौशाम्बी में पराजित किया था ।

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किन्तु इस प्रकार की मान्यता के लिये कोई प्रमाण नहीं है । इस, युद्ध को ‘आर्यावर्त का प्रथम युद्ध’ कहा जाता है । मनुस्मृति में ‘पूर्वी समुद्र से लेकर पश्चिमी समुद्र तक और विन्ध्याचल तथा हिमालय पर्वतों के बीच स्थित भाग को आर्यावर्त की संज्ञा प्रदान की गई है ।

2. दक्षिणापथ का युद्ध:

‘दक्षिणापथ’ से तात्पर्य उत्तर में विन्ध्य पर्वत से लेकर दक्षिण में कृष्णा तथा तुंगभद्रा नदियों के बीच के प्रदेश से है । सुदूर दक्षिण के तमिल राज्य इसकी परिधि से बाहर थे । महाभारत में विदर्भ तथा कोशल के दक्षिण में स्थित प्रदेश को दक्षिणापथ की संज्ञा प्रदान की गयी है ।

गंगा घाटी के मैदानों तथा दोआब के प्रदेश की विजय के पश्चात् समुद्रगुप्त दक्षिणी भारत की विजय के लिये निकल पड़ा । प्रशस्ति की उन्नीसवीं तथा बीसवीं पंक्तियों में दक्षिणापथ के बारह राज्यों तथा उनके राजाओं के नाम मिलते हैं । इन राज्यों को पहले तो समुद्रगुप्त ने जीता किन्तु फिर कृपा करके उन्हें स्वतन्त्र कर दिया ।

उसकी इस नीति को हम धर्म-विजयी राजा की नीति कह सकते हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि वह उनसे भेंट-उपहारादि प्राप्त करके ही संतुष्ट हो गया । इसी लेख में एक अन्य स्थान पर वर्णित है कि ‘उन्मूलित राजवंशों को पुन: प्रतिष्ठित करने के कारण उसकी कीर्ति सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त हो रही थी’ ।

यहां उन्मूलित राजवंशों से तात्पर्य दक्षिणापथ के राजाओं से ही है । रायचौधरी ने समुद्रगुप्त की इस विजय की तुलना रघुवंश में वर्णित महाराज रघु की धर्मविजय से की है जिसमें- ‘उन्होंने महेन्द्रपर्वत के राजा को पराजित कर उसकी लक्ष्मी को हस्तगत किया, राज्य को नहीं ।’

इन राज्यों के नाम इस प्रकार मिलते हैं:

(i) कोसल का राजा महेन्द्र,

(ii) महाकान्तार का राजा व्याघ्रराज,

(iii) कौराल का राजा मण्टराज,

(iv) पिष्टपुर का राजा महेन्दगिरि,

(v) कीट्‌टूर का राजा स्वामीदत्त,

(vi) एरण्डपल्ल का राजा दमन,

(vii) काञ्ची का राजा विष्णुगोप,

(viii) अवमुक्त का राजा नीलराज,

(ix) वेंगी का राजा हस्तिवर्मा,

(x) पालक्क का राजा उग्रसेन,

(xi) देवराष्ट्र का राजा कुबेर,

(xii) कुस्थलपुर का राजा धनञ्जय ।

उपयुक्त राज्यों में कोसल से तात्पर्य दक्षिणी कोसल से है जिसके अन्तर्गत आधुनिक रायपुर, विलासपुर (म. प्र.) तथा सम्भलपुर (उड़ीसा) के जिले आते हैं । महाकान्तार सम्भवत: उड़ीसा स्थित जयपुर का वनप्रदेश था जिसे ‘महावन’ भी कहा गया है । कौराल के समीकरण के विषय में पर्याप्त मतभेद है । बार्नेट तथा रायचौधरी ने इसकी पहचान दक्षिण भारत के कोराड़ नामक ग्राम से किया है ।

पिष्टपुर, आन्ध्र के गोदावरी जिले का पिठारपुरम् है । कोट्‌टूर संभवतः उड़ीसा के गंजाम जिले में स्थित ‘कोठूर’ नामक स्थान था । एरण्डपल्ल की पहचान आन्ध्र के विशाखापट्‌टनम् जिले में स्थित इसी नाम के स्थान से की जाती है । काञ्ची, मद्रास स्थित काञ्चीवरम् है तथा विष्णुगोप संभवतः पल्लववंशी राजा था ।

अवमुक्त की पहचान संदिग्ध है । संभवतः यह काञ्चीवरम् के पास ही कोई नगर रहा होगा । वेंगी, कृष्णा तथा गोदावरी नदियों के बीच स्थित नेल्लोर के उत्तर में ‘पेड्‌डवेगी’ नामक स्थान है तथा हस्तिवर्मा सालंकायनवंशी राजा था ।

पालक्क, नेल्लोर (तमिलनाडु) जिले का पालक्कड नामक स्थान है तथा देवराष्ट्र की पहचान इतिहासकार डूब्रील ने आधुनिक आन्ध्र प्रदेश के विजगापट्‌टम (विशाखापट्‌टनम्) जिले में स्थित एलमंचिली नामक परगना के साथ की है । कुस्थलपुर की पहचान बार्नेट ने उत्तरी आर्काट में पोलूर के समीप स्थित कुट्टलपुर से की है । इतिहासकार डूब्रील का विचार है कि समुद्रगुप्त के विरुद्ध पूर्वी दकन के राजाओं ने एक संघ बनाया जिसका नेता विष्णुगोप था ।

यही कारण है कि उसका नाम भौगोलिक क्रम की उपेक्षा कर अवमुक्तक नीलराज तथा वेंगी के हस्तिवर्मा के पहले दिया गया है । इस संघ ने कोल्लेर झील के पास समुद्रगुप्त को पराजित किया था जिसके परिणामस्वरूप वह उड़ीसा की तटवर्ती भागों में की गयी विजयों को छोड़कर अपनी राजधानी वापस लौट गया ।

परन्तु यह निष्कर्ष तर्कसंगत नहीं लगता क्योंकि प्रशस्ति का स्पष्ट उल्लेख है कि वह काञ्ची तक विजय करते हुए बढ़ गया था । कुछ विद्वानों की धारणा है कि समुद्रगुप्त पूर्वी घाट से अभियान प्रारम्भ कर वापसी में पश्चिमी घाट से लौटा था । परन्तु यह मत भी मान्य नहीं है ।

पश्चिमी घाट में वाकाटकों का शक्तिशाली राज्य था । यदि समुद्रगुप्त का वाकाटकों के साथ कोई युद्ध हुआ होता तो उसका उल्लेख प्रशस्ति में अवश्यमेव होता । समुद्रगुप्त वाकाटकों की शक्ति से परिचित था और उनके साथ व्यर्थ का संघर्ष मोल लेना हितकर नहीं समझता था ।

यद्यपि उसने पश्चिमी दकन के वाकाटक राज्य पर आक्रमण तो नहीं किया किन्तु फिर भी उसने मध्य भारत में वाकाटकों के अधिकार को समाप्त कर दिया । यहाँ वाकाटकों के सामन्त शासन करते थे । इस समय यहाँ वाकाटकनरेश पृथ्वीसेन का सामन्त व्याघ्रदेव शासन करता था ।

यह प्रयाग प्रशस्ति का व्याघ्रराज है जिसे समुद्रगुप्त ने अपने दक्षिणापथ अभियान में पराजित किया था । एरण का लेख भी मध्य भारत के ऊपर समुद्रगुप्त का अधिकार प्रमाणित करता है । इस विजय ने मध्य भारत में वाकाटकों के स्थान पर गुप्तों की सत्ता कायम कर दिया तथा इसके बाद वाकाटक राज्य पश्चिमी दकन में सीमित हो गया ।

अत: ऐसा लगता है कि वह जिस मार्ग से अभियान पर गया उसी से वापस भी लौट आया । उसने सुदूर दक्षिण में अपनी विजय पताका फहरा दी परन्तु दक्षिण के राज्यों को उसने अपने प्रत्यक्ष शासन में लाने की चेष्टा नहीं की । यह उसकी महान् दूरदर्शिता थी ।

ये राज्य उसकी राजधानी से दूर पड़ते थे तथा तत्कालीन आवागमन की कठिनाइयों के कारण उन्हें प्रत्यक्ष नियंत्रण में रखना कठिन था । अत: समुद्रगुप्त ने बुद्धिमानी की कि उसने इन राज्यों को स्वतन्त्र कर दिया तथा उन्होंने उसे अपना सम्राट मान लिया । लेवी का विचार है कि दक्षिण भारत में इस समय अनेक समृद्ध बन्दरगाह थे और समुद्रगुप्त उन पर अपना नियंत्रण स्थापित करना चाहता था ।

संभव है उसके दक्षिणापथ अभियान का उद्देश्य आर्थिक ही रहा हो । समुद्री व्यापार के द्वारा दक्षिण के राज्यों ने प्रभूत सम्पत्ति अर्जित कर रखी थी । ईसा पूर्व प्रथम शती में कलिंग के शासक खारवेल ने भी पाण्ड्य राज्य पर आक्रमण कर वहाँ के शासक से मुक्तिमणियों का उपहार प्राप्त किया था ।

मध्यकाल के अनेक लेखकों तथा यात्रियों ने दक्षिणी राज्यों की विपुल सम्पत्ति का उल्लेख किया है । अत: यह अनुमान लगाना स्वाभाविक है कि समुद्रगुप्त को दक्षिणी भारत के अभियान में बहुत अधिक धन उपहार अथवा लूट में प्राप्त हुआ होगा ।

3. आर्यावर्त्त का द्वितीय युद्ध:

दक्षिणापथ के अभियान से निवृत्त होने के पश्चात् समुद्रगुप्त ने उत्तर भारत में पुन: एक युद्ध किया जिसे ‘आर्यावर्त्त का द्वितीय युद्ध’ कहा गया है । ऐसा प्रतीत होता है कि प्रथम युद्ध में उसने उत्तर भारत के राजाओं को केवल परास्त ही किया था, उनका उन्मूलन नहीं ।

राजधानी में उसकी अनुपस्थिति का लाभ उठाकर उत्तर के शासकों ने पुन: स्वतन्त्र होने की चेष्टा की । अत: दक्षिण की विजय से वापस लौटने के बाद समुद्रगुप्त ने उन्हें पूर्णतया उखाड़ फेंका । इस नीति को प्रशस्ति में ‘प्रसभोद्धरण’ कहा गया है ।

यह दक्षिण में अपनाई गयी ‘ग्रहणमोक्षानुग्रह’ की नीति के प्रतिकूल थी । समुद्रगुप्त ने उत्तर भारत के राजाओं का विनाश कर उनके राज्यों को अपने साम्राज्य में मिला लिया । प्रयाग प्रशस्ति की इक्कीसवीं पंक्ति में आर्यावर्त्त के नौ राजाओं का उल्लेख हुआ है । उल्लेखनीय है कि यहाँ उनके राज्यों के नाम नहीं दिये गये हैं ।

ये इस प्रकार हैं:

(i) रुद्रदेव,

(ii) मत्तिल,

(iii) नागदत्त,

(iv) चन्द्रवर्मा,

(v) गणपतिनाग,

(vi) नागसेन,

(vii) अच्युत,

(viii) नन्दि,

(ix) बलवर्मा ।

उपर्युक्त शासकों में से अनेक के राज्यों की ठीक-ठीक पहचान नहीं की जा सकती । रुद्रदेव सम्भवत: कौशाम्बी का राजा था जहाँ से रुद्र नामांकित कुछ मुद्रायें प्राप्त हुई हैं । बुलन्दशहर से ‘मत्तिल’ के नाम की एक मुद्रा मिली है, अत: वह इसी भाग का शासक रहा होगा ।

नागदत्त के राज्य की पहचान संदिग्ध है । चन्द्रवर्मा पश्चिमी बंगाल के बांकुड़ा जिले का शासक था । वहाँ सुसुनिया पहाड़ी से उसका लेख मिला है । गणपतिनाग तथा नागसेन निश्चयत: नागवंशी शासक थे जो क्रमशः मथुरा और पद्‌मावती में शासन करते थे ।

अच्युत, अहिच्छत्र (बरेली) का राजा था । नन्दि तथा बलवर्मा के राज्यों की सही पहचान नहीं की जा सकती । आर्यावर्त्त के द्वितीय युद्ध के परिणामस्वरूप समुद्रगुप्त ने समस्त उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश के एक भाग पर अपना अधिकार सुदृढ़ कर लिया ।

आटविक राज्यों की विजय:

प्रशस्ति की इक्कीसवीं पंक्ति में ही आटविक राज्यों की भी चर्चा हुई है । इनके विषय में यह बताया गया है कि समुद्रगुप्त ने ‘सभी आटविक राज्यों को अपना सेवक बना लिया’ (परिचारकीकृत सर्वाटविकराज्यस्य) । फ्लीट के मतानुसार उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले से लेकर मध्यप्रदेश के जबलपुर जिले तक के वन-प्रदेश में ये सभी राज्य फैले हुये थे ।

उत्तर तथा दक्षिण भारत के बीच के आवागमन को सुरक्षित रखने के लिये उन्हें नियन्त्रण में रखना आवश्यक था । लगता है कि जब समुद्रगुप्त दक्षिणी अभियान पर जा रहा था, इन राज्यों ने उसके मार्ग में अवरोध उत्पन्न किया । अत: उसने उन्हें जीतकर पूर्णतया अपने नियन्त्रण में कर लिया ।

प्रत्यन्त (सीमावर्ती) राज्यों की विजय:

प्रयाग प्रशस्ति की बाईसवीं पंक्ति में प्रत्यन्त राज्यों की एक लम्बी सूची मिलती है जो समुद्रगुप्त की पूर्वी, उत्तरी-पूर्वी तथा पश्चिमी सीमाओं पर स्थित थे । इनके विषय में यह कहा गया है कि वे समुद्रगुप्त को ‘सभी प्रकार के करों को देते थे, उसकी आज्ञाओं का पालन करते थे तथा उसे प्रणाम करने के लिये (राजधानी में) उपस्थित होते थे’ । ऐसा प्रतीत होता है कि समुद्रगुप्त के पराक्रम से भयभीत होकर इन राज्यों ने उसकी अधीनता स्वीकार कर लिया था ।

उत्तरी तथा उत्तरी-पूर्वी सीमा पर स्थित राज्यों की संख्या पाँच है और वे सभी राजतन्त्र हैं:

(a) समतट,

(b) डवाक,

(c) कामरूप,

(d) कर्त्तृपुर,

(e) नेपाल ।

इनमें समतट से तात्पर्य बंगाल (आधुनिक बँगला देश) के समुद्रतटवर्ती प्रदेश से है । डवाक की पहचान असम के नौगाँव जिले में स्थित ‘डबोक’ नामक स्थान से की जाती है । कामरूप आधुनिक असम का केन्द्रीय भाग था । कर्त्तृपुर की पहचान जालन्धर स्थित कर्त्तारपुर से की जाती है ।

एक मत के अनुसार इसके अन्तर्गत कुमायूँ, गढ़वाल तथा रुहेलखण्ड का प्राचीन कतूरियाराज प्रदेश भी आता था । नेपाल से तात्पर्य आधुनिक नेपाल राज्य से है । प्राचीन नेपाल गण्डक तथा कोसी नदियों के बीच स्थित था । जैसा कि पहले कहा जा चुका है, गुप्तों के समय में यहाँ लिच्छवियों का राज्य था ।

पूर्वी राज्यों, विशेष रूप से बंगाल पर अधिकार हो जाने से, समुद्रगुप्त को पूर्वी बंगाल के समृद्ध बन्दरगाहों का नियन्त्रण प्राप्त हो गया होगा । यहाँ का सुप्रसिद्ध बन्दरगाह ताम्रलिप्ति था जहाँ से मालवाहक जहाज मलय प्रायद्वीप, लंका, चीन तथा पूर्वी द्वीपों को नियमित रूप से जाया करते थे ।

स्थल मार्गों द्वारा भी यह स्थल बंगाल तथा भारत के अन्य नगरों से जुड़ा हुआ था । अत: कहा जा सकता है कि समुद्रगुप्त के इस भाग पर अधिकार ने गुप्त साम्राज्य की आर्थिक समृद्धि में महत्वपूर्ण योगदान दिया होगा । प्रत्यन्त राज्यों की दूसरी कोटि में नौ गणराज्य हैं जो पंजाब, मालवा, राजस्थान तथा मध्य प्रदेश के विभिन्न भागों में फैले हुये थे । ये समुद्रगुप्त के साम्राज्य की पश्चिमी तथा उत्तरी-पश्चिमी सीमा पर स्थित थे ।

इसके नाम इस प्रकार मिलते हैं:

(a) मालव,

(b) अर्जुनायन,

(c) यौधेय,

(d) मद्रक,

(e) आभीर,

(f) प्रार्जुन,

(g) सनकानीक,

(h) काक,

(i) खरपरिक ।

इनमें मालव लोग गुप्तों के समय में मन्दसोर (प्राचीन दशपुर) में राज्य करते थे । अर्जुनायनों का राज्य आगरा-जयपुर क्षेत्र में था । यौधेय गणराज्य सतलज नदी के दोनों किनारों की भूमि, जिसे ‘जोहियाबार’ कहा जाता है, में स्थित था ।

मद्रक लोग रावी तथा चिनाब नदियों के बीच की भूमि में शासन करते थे । उनकी राजधानी शाकल (स्यालकोट) में थी । प्रार्जुन गणराज्य सम्भवत: मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले में स्थित था । सनकानीक भिलसा के आस-पास शासन करते थे । यहीं से बीस मील उत्तर में स्थित काकपुर नामक स्थान में काक गणराज्य था तथा खरपरिक लोग दमोह (म. प्र.) के शासक थे ।

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