गुप्त साम्राज्य के तीन मुख्य सम्राट | 3 Main Emperors of the Gupta Empire | Hindi.

Emperor # 1. चंद्रगुप्त प्रथम (319-334 ई॰) (Chandragupta I (319-334 A.D)):

गुप्तवंश का पहला प्रसिद्ध राजा हुआ चंद्रगुप्त प्रथम । उसने लिच्छवि राजकुमारी से विवाह किया जो संभवत: नेपाल की थी । इससे उसकी सत्ता को बल मिला । गुप्त लोग संभवतः वैश्य थे इसलिए क्षत्रिय कुल में विवाह करने से उनकी प्रतिष्ठा बड़ी । चंद्रगुप्त प्रथम महान शासक हुआ क्योंकि उसने 319-20 ई॰ में अपने राज्यारोहण के स्मारक स्वरूप गुप्त संवत् चलाया । बाद के कई अभिलेखों में काल-निर्देश इस संवत् में किया गया मिलता है ।

Emperor # 2. समुद्रगुप्त (335-380 ई॰) (Samudragupta (335-380 A.D)):

चंद्रगुप्त प्रथम के पुत्र और उत्तराधिकारी समुद्रगुप्त (335-380 ई॰) ने गुप्त राज्य का अपार विस्तार किया । वह अशोक के विपरीत था । अशोक शांति और अनाक्रमण की नीति में विश्वास करता था तो समुद्रगुप्त हिंसा और विजय में आनंद पाता था । उसके दरबारी कवि हरिषेण ने अपने आश्रयदाता के पराक्रम का उदात्त वर्णन किया है ।

एक लंबे अभिलेख में कवि ने गिनाया है कि समुद्रगुप्त ने किन-किन लोगों और किन-किन देशों पर विजय प्राप्त की । यह अभिलेख इलाहाबाद के उसी स्तंभ पर खुदा है जिस पर शांतिप्रेमी अशोक का अभिलेख है । समुद्रगुप्त द्वारा विजित स्थान और क्षेत्र पाँच समूहों में बाँटे जा सकते हैं ।

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प्रथम समूह में गंगा-यमुना दोआब के वे राजा हैं जिन्हें हरा कर उनके राज्य गुप्त साम्राज्य में मिला लिए गए । द्वितीय समूह में पूर्वी हिमालय के राज्यों और कुछ सीमावर्ती राज्यों के शासक हैं, जैसे नेपाल असम बंगाल आदि के राजा । समुद्रगुप्त ने उन्हें अपने बाहुबल के प्रभाव का अनुभव कराया ।

इस समूह में पंजाब के कुछ गणराज्य भी हैं । जो गणराज्य मौर्य साम्राज्य के खंडहरों पर टिमटिमा रहे थे उन्हें समुद्रगुप्त ने सदा के लिए बुझा दिया । तृतीय समूह में वे अटाविक राज्य (जंगली क्षेत्रों में स्थित राज्य) थे जो विंध्य क्षेत्र में पड़ते थे । उन सबों को समुद्रगुप्त ने अपने वश में कर लिया । चतुर्थ समूह में पूर्वी दकन और दक्षिण भारत के शासक हैं, जिन्हें हराकर छोड़ दिया गया ।

समुद्रगुप्त की बाँहे बढ़ते-बढ़ते तमिलनाडु में काँची तक पहुँची जहाँ उसने पल्लवों से अपनी प्रभुसत्ता स्वीकार कराई । पाँचवे समूह में शकों और कुषाणों के नाम हैं जिनमें से कुछ अफगानिस्तान में राज करते थे । कहा गया है कि समुद्रगुप्त ने उन्हें पदच्युत कर दिया और सुदूर देश के शासकों को अपने अधीन कर लिया ।

समुद्रगुप्त की प्रतिष्ठा और प्रभाव भारत के बाहर भी फैला । एक चीनी स्रोत के अनुसार, श्रीलंका के राजा मेघवर्मन् ने गया में बुद्ध का मंदिर बनवाने की अनुमति प्राप्त करने के लिए समुद्रगुप्त के पास दूत भेजा था । अनुमति दी गई और यह मंदिर विशाल बौद्ध विहार के रूप में विकसित हो गया ।

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यदि हम इलाहाबाद की प्रशस्ति (प्रशंसात्मक अभिलेख) पर विश्वास करें तो प्रतीत होगा कि समुद्रगुप्त को कभी पराजय का सामना नहीं करना पड़ा । उसे अपनी बहादुरी एवं युद्ध कौशल के कारण भारत का नेपोलियन कहा जाता है । इसमें संदेह नहीं कि समुद्रगुप्त ने भारत के जितने बड़े भाग को बाहुबल से अपने अधीन कर एकता के सूत्र में बाँधा उस से कहीं अधिक भाग में उसका लोहा माना जाता था ।

Emperor # 3. चंद्रगुप्त द्वितीय (380-412 ई॰) (Chandragupta II (380-412 A.D)):

चंद्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल में गुप्त साम्राज्य अपने उत्कर्ष की चोटी पर पहुँचा । उसने वैवाहिक संबंध और विजय दोनों के सहारे साम्राज्य की सीमा बढ़ाई । चंद्रगुप्त ने अपनी कन्या प्रभावती का विवाह वाकाटक राजा से कराया, जो ब्राह्मण जाति का था और मध्य भारत में शासन करता था ।

उसके मरने के बाद उसका नाबालिग पुत्र उसका उत्तराधिकारी हुआ । इस प्रकार प्रभावती स्वयं वास्तविक शासिका हुई । भूमिदान संबंधी उसके अभिलेख, जिनकी लिपि पर गुप्तकालीन प्राच्य शैली का प्रभाव है, बतलाते हैं कि प्रभावती अपने पिता के हित में काम करती थी ।

इस प्रकार मध्य भारत स्थित वाकाटक राज्य पर अप्रत्यक्ष रूप से अपना प्रभाव जमा कर चंद्रगुप्त द्वितीय ने पश्चिमी मालवा और गुजरात पर प्रभुत्व कायम कर लिया और वहाँ 400 साल पुराने शक क्षत्रपों के शासन का अंत किया ।

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इस विजय से चंद्रगुप्त को पश्चिमी समुद्रतट मिल गया जो वाणिज्य-व्यापार के लिए मशहूर था । इससे मालवा और उसका मुख्य नगर उज्जैन समृद्ध होता गया । लगता है चंद्रगुप्त द्वितीय ने उज्जैन को द्वितीय राजधानी बनाया ।

दिल्ली में कुतुबमीनार के पास खड़े एक लौहस्तंभ पर खुदे हुए अभिलेख में चंद्र नामक किसी राजा का कीर्तिवर्णन किया गया है । यदि इस चंद्र को चंद्रगुप्त द्वितीय मान लिया जाए तो यह कहा जा सकता है कि उसने गुप्त साम्राज्य का प्रभुत्च पश्चिमोत्तर भारत में और बंगाल के काफी भाग में भी स्थापित किया । परंतु इस पुरालेखीय राजप्रशस्ति में अतिरंजन मालूम होता है ।

चंद्रगुप्त द्वितीय ने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की । यही उपाधि इससे पूर्व 57 ई॰ पू॰ में उज्जैन के शासक ने भी पश्चिमी भारत में शक क्षत्रपों पर विजय पाने के उपलक्ष्य में धारण की थी ।

चंद्रगुप्त द्वितीय का उज्जैन स्थित दरबार कालिदास और अमरसिंह जैसे बड़े-बड़े विद्वानों से विभूषित था । चंद्रगुप्त के समय में ही चीनी यात्री फा-हियान (399-414 ई॰) भारत आया और यहाँ के लोगों के जीवन के बारे में विस्तृत विवरण लिख गया ।

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