गुप्त साम्राज्य के अंतिम राजाओं की सूची | List of Last Kings of Gupta Empire.

स्कन्दगुप्त की मृत्यु के पश्चात् गुप्त साम्राज्य की अवनति प्रारम्भ हुई । उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर स्कन्दगुप्त के उत्तराधिकारियों का क्रम निर्धारित करना एक कठिन समस्या है ।

उसके बाद गुप्त वंश में शासन करने वाले राजाओं का कम हम संभावित रूप से इस प्रकार रख सकते है:

1. पुरुगुप्त (467-476 ईस्वी):

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यह कुमारगुप्त प्रथम का ही पुत्र तथा स्कन्दगुप्त का सौतेला भाई था । संभवतः स्कन्दगुप्त सन्तानहीन मरा और उसके बाद सत्ता पुरुगुप्त के हाथों में आयी । भितरी मुद्रालेख में उसकी माता का नाम महादेवी अनन्तदेवी तथा पत्नी का नाम चन्द्रदेवी मिलता है ।

चूँकि वह वृद्धावस्था में राजा हुआ, अत: उसका शासन अल्पकालीन रहा । उसके समय में गुप्त साम्राज्य की अवनति प्रारम्भ हो गयी थी । परमार्थकृत ‘वसुबन्धुजीवनवृत्त’ के अनुसार पुरुगुप्त बौद्ध मतानुयायी था ।

2. कुमारगुप्त द्वितीय:

पुरुगुप्त का उत्तराधिकारी कुमारगुप्त द्वितीय हुआ । सारनाथ से गुप्त संवत् 154 अर्थात् 473 ईस्वी का उसका लेख मिला है जो बौद्ध प्रतिमा पर खुदा हुआ है । यह निश्चित रूप से पता नहीं कि वह स्कन्दगुप्त का पुत्र था अथवा पुरुगुप्त का ।

सारनाथ लेख में ‘भूमिं रक्षति कुमारगुप्ते…..’ उत्कीर्ण मिलता है । उल्लेखनीय है कि यहाँ कुमारगुप्त को ‘महाराज’ भी नहीं कहा गया है । ऐसा लगता है कि वह स्वतन्त्र शासक न होकर पुरुगुप्त का ‘गोप्ता’ था जो सारनाथ में उसके प्रतिनिधि के रूप में शासन करता था ।

3. बुधगुप्त:

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कुमारगुप्त द्वितीय के अनन्तर बुधगुप्त शासक हुआ । प्रारम्भ में विद्वानों का विचार था कि वह कुमारगुप्त का पुत्र था क्योंकि हुएनसांग उसके पिता का नाम ‘शक्रादित्य’ बताता है । किन्तु नालन्दा से उसकी मुहर प्राप्त हो जाने के पश्चात् यह सिद्ध हो गया है कि वह पुरुगुज का पुत्र था । उसकी माता का नाम चन्द्रदेवी था । गुप्त संवत् 157 अर्थात् 477 ईस्वी का उसका सारनाथ से लेख मिला है ।

यह उसके शासन-काल की प्रथम ज्ञात तिथि है । इससे अनुमान किया जाता है कि उसने 477 ईस्वी में अपना शासन प्रारम्भ किया । बुधगुप्त के लेख कई स्थानों से मिलते हैं । सारनाथ के अतिरिक्त मध्य प्रदेश के सागर जिले में स्थित एरण से भी उसका स्तम्भ लेख मिला है । उत्तरी बंगाल के दामोदरपुर तथा पहाड़पुर से उसके ताम्रपत्र मिलते हैं । इसमें गुप्त संवत् की तिथियाँ दी गयी हैं ।

दामोदरपुर ताम्रपत्र में उसे ‘परमभट्‌टारक महाराजाधिराज’ कहा गया है । इसके अतिरिक्त उसकी कुछ रजत मुद्रायें भी प्राप्त हुई हैं जिन पर उसके शासन काल की अन्तिम तिथि गुप्त सम्वत् 175 अर्थात् 495 ईस्वी उत्कीर्ण मिलती है ।

अत: ऐसा निष्कर्ष निकलता है कि बुधगुप्त ने 477 ईस्वी से 495 ईस्वी तक शासन किया था । स्कन्दगुप्त के उत्तराधिकारियों में बुधगुप्त सबसे अधिक शक्तिशाली राजा था जिसने एक विस्तृत प्रदेश पर शासन किया ।

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स्वर्ण मुद्राओं पर उसकी उपाधि ‘श्रीविक्रम’ मिलती है । उसके अभिलेखों से उसके कुछ प्रान्तीय पदाधिकारियों की सूचना मिलती है । एरण अभिलेख से पता चलता है कि पूर्वी मालवा में मातृविष्णु उसका सामन्त था ।

इसी लेख के अनुसार सुरश्मिचन्द्र अन्तर्वेदी (गंगा-यमुना-दोआब) का शासक था । दामोदरपुर ताम्रपत्र के अनुसार ब्रह्मदत्त पुण्ड्रवर्द्धन भुक्ति का शासक था । बुधगुप्त के अभिलेख तथा सिक्कों के प्रसार से यह स्पष्ट हो जाता है कि उसने मालवा से बंगाल तक के भूभाग पर शासन किया ।

बलभी के मैत्रक नरेश भी उसकी अधीनता स्वीकार करते थे । मैत्रक नरेश द्रोणसिंह का 502 ईस्वी का लेख मिला है जिसमें वह अपने को परमभट्टारक महाराजाधिराज (बुधगुप्त) का ‘तत्पादानुध्यात’ बताता है । यह उल्लेख स्पष्ट रूप से उसकी सामन्त स्थिति का सूचक है ।

खोह नामक स्थान से महाराज हस्तिन् के दो ताम्रपत्र प्राप्त होते हैं जिसमें गुप्तसंवत् 156 तथा 163 (475 तथा 482 ईस्वी) की तिथियाँ अंकित हैं । दूसरे लेख से पता चलता है कि वह गुप्त सम्राट की अधीनता स्वीकार करता था ।

उच्चकल्प वंश के महाराज जयनाथ के लेखों में 174 तथा 177 की तिथियां मिलती हैं । उच्चकल्पवंश परिव्राजकों का समीपवर्ती था जो गुप्तों के सामन्त थे । अत: हम कह सकते हैं कि उक्त तिथियाँ गुप्तवंश की ही हैं और इस आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि जयनाथ भी बुधगुप्त का सामन्त था । उसकी रजत मुद्राओं पर ‘विजितवनिरवनिपति श्रीबुधगुप्त दिवि (दिवं) जयती’ अर्थात् ‘राजा बुधगुप्त पृथ्वी को जीतने के बाद स्वर्ग को जीतता है’ मुद्रालेख उत्कीर्ण मिलता है ।

यही लेख कुमारगुप्त तथा स्कन्दगुप्त की मुद्राओं पर भी मिलता है । इस प्रकार ऐसा प्रतीत होता है कि स्कन्दगुप्त की मृत्यु के बाद बुधगुप्त के समय में साम्राज्य ने अपनी शक्ति तथा प्रतिष्ठा को पुन: प्राप्त कर लिया ।

बुधगुप्त बौद्धमतानुयायी था, जैसा कि चीनी यात्री हुएनसांग के विवरण से पता चलता है । उसने नालन्दा महाविहार को धन दान दिये थे । वह अन्तिम गुप्त सम्राट था जिसने हिमालय से लेकर नर्मदा नदी तक तथा मालवा से लेकर बंगाल तक के विस्तृत भू-भाग पर शासन किया ।

4. नरसिंहगुप्त ‘बालादित्य’:

यह बुधगुप्त का छोटा भाई था जो उसकी मृत्यु के बाद शासक बना । ऐसा प्रतीत होता है कि इस समय गुप्त साम्राज्य तीन राज्यों में बँट गया था । मगध वाले क्षेत्र में नरसिंहगुप्त राज्य करता था, मालवा क्षेत्र में भानुगुप्त तथा बंगाल के भाग में वैन्यगुप्त ने अपना स्वतन्त्र शासन स्थापित कर लिया था ।

भितरी मुद्रालेख में नरसिंहगुप्त की माता का नाम ‘महादेवी चन्द्रदेवी’ मिलता है । भानुगुप्त तथा वैन्यगुप्त के साथ उसके सम्बन्ध के विषय में हमें पता नहीं है । नरसिंहगुप्त इन दोनों से अधिक शक्तिशाली था ।

अत: मगध साम्राज्य के केन्द्रीय भाग में उसने अपना अधिकार सुदृढ़ कर लिया । उसकी सबसे बड़ी सफलता हूणों को पराजित करना है । हूण नरेश मिहिरकुल बड़ा क्रूर एवं आततायी था ।

हुएनसांग के विवरण से पता चलता है कि उसने मगध के राजा बालादित्य पर आक्रमण किया किन्तु पराजित हुआ और बन्दी बना लिया गया । बालादित्य ने अपनी माता के कहने में आकर उसे मुक्त कर दिया ।

राजनैतिक दृष्टि से उसका यह कार्य अत्यन्त मूर्खतापूर्ण कहा जायेगा । हुएनसांग ने जिस ‘बालादित्य’ का उल्लेख किया है उसके समीकरण के विषय से मतभेद है । संभवतः वह नरसिंहगुप्त बालादित्य ही है ।

नरसिंहगुप्त की धनुर्धारी प्रकार की मुद्रायें मिलती हैं । मुद्राओं के मुखभाग पर राजा धनुष-बाण लिये खड़े हैं, गरुड़ध्वज की आकृति तथा ‘जयति नरसिंहगुप्त:’ मुद्रालेख उत्कीर्ण है । पृष्ठ भाग पर कमलासन पर बैठी लक्ष्मी तथा ‘बालादित्य:’ अंकित है ।

नरसिंहगुप्त बौद्धमतानुयायी था । उसने बौद्ध विद्वान् वसुबन्धु की शिष्यता ग्रहण की थी । उसने अपने राज्य को स्तूपों तथा विहारों से सुसज्जित करवाया था । हुएनसांग, परमार्थ तथा आर्यमंजुश्रीमूलकल्प के लेखक ने उसके बौद्ध-प्रेम का उल्लेख किया है ।

उसी के काल में वसुबन्धु का निधन हुआ था । नालन्दा मुद्रालेख में नरसिंहगुप्त को ‘परमभागवत’ कहा गया है । लगता है कि बौद्ध धर्म अंगीकार कर लेने पर भी उसने अपने पूर्वजों के समान ‘परमभागवत’ की उपाधि ग्रहण की थी ।

5. भानुगुप्त:

भानुगुप्त का एरण से एक प्रस्तर स्तम्भ-लेख प्राप्त हुआ है । यह 510 ईस्वी का है । इसमें उसे संसार में सर्वश्रेष्ठ वीर (जगति प्रवीरो) तथा महान् राजा कहा गया है । यह लेख उसके मित्र गोपराज का भी उल्लेख करता था ।

वह हूणों के विरुद्ध भानुगुप्त की ओर लड़ता हुआ मार डाला गया तथा उसकी पत्नी अग्नि में जल मरी । यह लेख युद्ध के परिणाम का उल्लेख नहीं करता । रायचौधरी का अनुमान है कि बुधगुप्त के बाद पूर्वी मालवा में जो हूणसत्ता स्थापित हुई, उसी का अन्त करने के लिये भानुगुप्त ने यह युद्ध किया और इसमें उसे सफलता प्राप्त हुई ।

इस युद्ध को ‘स्वतन्त्रता संग्राम’ की संज्ञा दी गयी है । परन्तु इस सम्बन्ध में हम निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कह सकते । ऐसा लगता है कि इसके बाद हूणों ने मालवा को जीत लिया । यहां मातृविष्णु, जो बुधगुप्त का सामन्त था, का छोटा भाई धन्यविष्णु हूण नरेश तोरमाण की अधीनता में राज्य करता था जिसका उल्लेख एरण की वाराह प्रतिमा वाले लेख में मिलता है ।

भानुगुप्त के विषय में हमें अधिक ज्ञात नहीं है । सुधाकर चट्टोपाध्याय का विचार है कि भानुगुप्त स्वतन्त्र शासक न होकर गुप्तों के अधीन कोई स्थानीय शासक था क्योंकि उसे केवल ‘राजा’ कहा गया है । सम्भव है उसने भी हूणों के साथ युद्ध में अपने प्राण खो दिये हों ।

6. वैन्यगुप्त:

इसके विषय में हमारी जानकारी का मुख्य स्रोत गुणैधर (बंगलादेश के कोमिल्ला में स्थित) का ताम्रपत्र है जो गुप्त संवत् 188 अर्थात् 507 ईस्वी का है । नालन्दा से उसकी एक मुहर मिली है जिस पर ‘महाराजाधिराज’ का विरुद अंकित है । गुणैधर ताम्रपत्र में उसके दो प्रान्तीय शासकों-विजयसेन एवं रुद्रदत्त के नाम मिलते हैं तथा बौद्ध विहार के लिये कुछ भूमिदान दिये जाने का वर्णन है । उसके कुछ स्वर्ण सिक्के भी मिलते हैं ।

7. कुमारगुप्त तृतीय:

नरसिंहगुप्त के बाद उसका पुत्र कुमारगुप्त तृतीय मगध का राजा बना । भितरी तथा नालन्दा मुद्रालेखों में उसकी माता का नाम महादेवी मित्रदेवी मिलता है । दामोदरपुर के पाँचवें ताम्रपत्र में किसी शक्तिशाली गुप्त राजा का उल्लेख मिलता है जिसकी उपाधियाँ ‘परम दैवत परम भट्टारक महाराजाधिराज’ मिलती हैं ।

उसके नाम का केवल प्रथमाक्षर ‘कु’ प्राप्त है । अत: इस शासक को हमें कुमारगुप्त तृतीय ही मानना चाहिये । इस लेख की तिथि गुप्त सम्वत् 224 अर्थात् 543 ईस्वी है । कुमारगुप्त तृतीय गुप्तवंश का अन्तिम महान् शासक था । नालन्दा से प्राप्त एक मुद्रालेख में विष्णुगुप्त का लेख मिलता है जो सम्भवत: उसका पुत्र था और 550 ईस्वी तक राज्य करता रहा । इसके बाद गुप्त-साम्राज्य पूर्णतया छिन्न-भिन्न हो गया ।

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