कुशन साम्राज्य के दौरान कला और वास्तुकला | Art and Architecture During Kushan Empire.

स्तूपों के अतिरिक्त कनिष्क के समय में कनिष्कपुर (कश्मीर स्थित वर्तमान कान्सोपुर) तथा सिरकप (तक्षशिला) नामक स्थान पर नये नगरों का निर्माण करवाया गया ।

कनिष्क के शासन-काल में कला के क्षेत्र में दो स्वतंत्र शैलियों का विकास हुआ:

(1) गन्धार शैली तथा

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(2) मथुरा शैली ।

इन दोनों को कनिष्क की और से पर्याप्त प्रोत्साहन एवं संरक्षण प्रदान किया गया ।

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इनका विवरण इस प्रकार है:

(1) गन्धार कला शैली (Gandhara Art Style):

यूनानी कला के प्रभाव से देश के पश्चिमोत्तर प्रदेशों में कला की जिस नवीन शैली का उदय हुआ उसे ‘गन्धार शैली’ कहा जाता है । पाश्चात्य विद्वानों की धारणा है कि सर्वप्रथम गन्धार शैली में ही बुद्ध की मूर्तियों का निर्माण किया गया । किन्तु इस सम्बन्ध में कोई ठोस प्रमाण हमें प्राप्त नहीं होता ।

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वी. एस. अग्रवाल ने अत्यन्त तार्किक ढंग से यह सिद्ध कर दिया है कि सर्वप्रथम बुद्ध मूर्ति का आविष्कार मथुरा के शिल्पियों द्वारा किया गया था । चूंकि मथुरा के शिल्पी बहुत पहले से ही यक्ष तथा नाग की सुन्दर-सुन्दर मूर्तियाँ बना रहे थे, अत: कोई कारण नहीं कि बुद्ध मूर्तियों की रचना का प्रथम श्रेय उन्हें न दिया जाये ।

गन्धार शैली में भारतीय विषयों को यूनानी ढंग से व्यक्त किया गया है । इस पर रोमन कला का भी प्रभाव स्पष्ट है । इसका विषय केवल बौद्ध है और इसी कारण कभी-कभी इस कला को यूनानी-बौद्ध (ग्रीको-बुद्धिस्ट), इण्डो-ग्रीक अथवा ग्रीको-रोमन (यूनानी-रोमीय) कला भी कहा जाता है । इस शैली की मूर्तियां अफगानिस्तान तथा पाकिस्तान के अनेक प्राचीन स्थलों से प्राप्त हुई हैं । इसका प्रमुख केन्द्र गन्धार ही था और इसी कारण यह ‘गन्धार कला’ के नाम से ही ज्यादा लोकप्रिय है ।

बौद्ध मूर्तियों:

गन्धार कला के अन्तर्गत बुद्ध एवं बोधिसत्वों की बहुसंख्यक मूर्तियों का निर्माण हुआ । ब्राह्मण तथा जैन धर्मों से संबंधित मूर्तियां इस कला में प्रायः नहीं मिलतीं । मूर्तियाँ काले स्लेटी पाषाण, चूने तथा पकी मिट्टी से बनी हैं । ये ध्यान, पद्मासन, धर्मचक्र-प्रवर्तन, वरद तथा अभय आदि मुद्राओं में हैं ।

आरम्भिक बुद्ध मूर्ति पेशावर के पास शाहजी की ढेरी से प्राप्त कनिष्क चैत्य की अस्थिमंजूषा पर बनी है । विरमान की अस्थिमंजूषा पर भी बुद्ध को मानव रूप से दिखाया गया है । शाहजी की ढेरी से प्राप्त मंजूषा के ढक्कन पर बुद्ध पद्मासन में विराजमान है ।

उनके दायें तथा बायें क्रमशः ब्रह्मा तथा इन्द्र की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं । बुद्ध के कन्धों पर संघाटी तथा ढक्कन के किनारे उड़ते हुए हंसों की पंक्ति है । मंजूषा के किनारे कन्धों पर माला उठाये हुए यक्षों की आकृतियां हैं । उत्कीर्ण लेख में कनिष्क तथा अगिशल नामक वास्तुकार का उल्लेख मिलता है ।

सहरी बहलोल, तख्तेवाही आदि से मिली स्थानक की मूर्तियां अधिक मांसल तथा भारी-भरकम काया की हैं । बर्लिन संग्रहालय में रखी हुई ध्यान मुद्रा में निर्मित मूर्ति में शान्ति, करुणा एवं आभा का प्रदर्शन मिलता है । इसी प्रकार लाहौर संग्रहालय में रखी गयी एक मूर्ति संरचना एवं शिल्प की दृष्टि से उल्लेखनीय है ।

इन मूर्तियों के साथ ही साथ बुद्ध के जीवन तथा पूर्व जन्मों से संबन्धित विविध घटनाओं के दृश्यों जैसे- माया का स्वप्न, उनका गर्भधारण करना, माया का कपिलवस्तु से लुम्बिनी उद्यान में जाना, बुद्ध का जन्म, लुम्बिनी से कपिलवस्तु वापस लौटना, अस्ति द्वारा कुण्डली फल बताना, सिद्धार्थ का बोधिसत्व रूप, पाठशाला में बोधिसत्व की शिक्षा, लिपि विज्ञान में सिद्धार्थ की परीक्षा, उनकी मल्ल तथा तीरन्दाजी में परीक्षा, यशोधरा से विवाह, देवताओं द्वारा संसारत्याग हेतु सिद्धार्थ से प्रार्थना, सिद्धार्थ का कपिलवस्तु छोड़ना, कन्थक से विदा लेना, बुद्ध के दर्शन हेतु मगधराज बिम्बिसार का जाना, संबोधि प्राप्त के पहले की विविध स्थितियां, देवताओं द्वारा बुद्ध से धर्मोपदेश के लिये प्रार्थना करना, धर्मचक्रप्रवर्तन, बुद्ध का कपिलवस्तु आगमन तथा राहुल को भिक्षु की दीक्षा देना, नन्द सुन्दरी कथानक, बुद्ध पर देवदत्त के प्रहार, श्रावस्ती में अनाथपिण्डक द्वारा विहार का दान, नलगिरि हाथी को वश में करना, अंगुलिमाल का आत्मसमर्पण, किसी स्त्री के मृत शिशु की घटना, आनन्द को सान्त्वाना देना, इन्द्र और पञ्चशिख गन्धर्व द्वारा बुद्ध का दर्शन, आम्रपाली द्वारा बुद्ध को आम्रवाटिका प्रदान करना, कुशीनगर में महापरिनिर्वाण, धातुओं का बँटवारा तथा धातु पात्र का हाथी की पीठ पर ले जाया जाना, धातु पूजा, त्रिरत्न पूजा सहित 61 दृश्यों का अंकन इस शैली में किया गया है ।

इससे सूचित होता है कि शिल्पी ने बुद्ध के लौकिक तथा पारलौकिक जीवन से संबंधित प्रायः सभी छोटी-बड़ी घटनाओं को अत्यन्त बारीकी के साथ चित्रित किया है । इतना विशद चित्रांकन कहीं अन्यत्र नहीं मिलता । कुछ दृश्य अत्यन्त कारुणिक एवं प्रभावोत्पादक हैं ।

तपस्यारत बुद्ध का एक दृश्य, जिसमें उपवास के कारण उनका शरीर अत्यन्त क्षींण हो गया है, गन्धार कला के सर्वोत्तम नमूनों में से है । कलाकार को उपवासरत तपस्वी के शरीर का यथार्थ चित्रण करने में अद्भुत सफलता मिली है ।

नसों तथा पसलियों को अत्यन्त कुशलतापूर्वक उभारा गया है, पेट अन्दर धंसा हुआ है किन्तु मुखमण्डल की शान्ति, दृढ़ इच्छाशक्ति को प्रकट करती है । इसी तरह बुद्ध से विदा लेते हुए उनके कन्थक नामक प्रिय अश्व का दृश्य काफी प्रभावोत्पादक है ।

उसके मुखमण्डल पर विदाई के विषाद तथा शोक के भाव को व्यक्त करने में कलाकार को अपूर्व सफलता मिली है । बोधिसत्व मूर्तियों में सबसे अधिक मैत्रेय की है । कुछ अवलोकितेश्वर तथा पद्‌मपाणि की मूर्तियाँ भी प्राप्त होती हैं । इन्हें हाथ में कमल, पुस्तक तथा अमृतकलश लिये हुए दिखाया गया है ।

उनका स्वरूप राजसी है । कई मूर्तियों में दाढ़ी-मूँछ, धोती, संघाटी आदि दिखाया गया है । गचकारी की कई बुद्ध और बोधिसत्व मूर्तियां भी मिलती हैं जो कलात्मक दृष्टि से अच्छी हैं । इसी का रूप मृण्मय मूर्तियों में दिखाई देता है जो सिंध तथा मीरपुर खास से मिली है । गन्धार शैली की अधिकांश मूर्तियों लाहौर तथा पेशावर के संग्रहालयों में सुरक्षित हैं । इन मूर्तियों की कुछ अपनी अलग विशेषतायें हैं जिनके आधार पर वे स्पष्टतः भारतीय कला से अलग की जा सकती है ।

इनमें मानव शरीर के यथार्थ चित्रण की ओर विशेष ध्यान दिया गया है । मांस-पेशियों, मूंछों, लहरदार बालों का अत्यन्त सूक्ष्म ढंग से प्रदर्शन हुआ है । बुद्ध की वेष-भूषा यूनानी है, उनके पैरों में जूते दिखाये गये हैं, प्रभामण्डल सादा तथा अलंकरणरहित है और शरीर से अत्यन्त सटे अंग-प्रत्यंग दिखाने वाले झीने वस्त्रों का अंकन हुआ है ।

उनके सिर पर घुँघराले बाल दिखाये गये हैं । इन सबका फल यह है कि बुद्ध की मूर्तियाँ यूनानी देवता अपोलो की नकल प्रतीत होती हैं । महात्मा बुद्ध की मूर्तियाँ अपने सूक्ष्म विस्तार के बावजूद मशीन से बनाई गई प्रतीत होती हैं । इनमें वह सहजता तथा भावात्मक स्नेह नहीं है जो भरहुत, साँची, बोधगया अथवा अमरावती की मूर्तियों में दिखाई देता है । इसी कारण यह कहा जाता है कि इस शैली के कलाकार के पास ‘यूनानी का हाथ परन्तु भारतीय का हृदय था ।’

बुद्ध तथा बोधिसत्व मूर्तियों के अतिरिक्त गन्धार शैली की कुछ देवी-मूर्तियाँ भी मिलती हैं । इनमें हारीति तथा रोमा अथवा एथिना देवी की मूर्तियों विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । हारीति को मातृदेवी के रूप में पूजा जाता था तथा वह सौभाग्य तथा धन-धान्य की अधिष्ठात्री थी ।

अग्रवाल महोदय ने लाहौर संग्रहालय में सुरक्षित रोमा देवी की मूर्ति को गन्धार कला की सर्वोत्तम मूर्तियों में स्थान दिया है । इसे सिर पर टोप धारण किये हुए तथा हाथ में बर्छा लिये हुए दिखाया गया है । उसके मुखमण्डल से तेज निकल रहा है । हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियों में पंचिक कुबेर, हारीति, इन्द्र, ब्रह्मा, सूर्य आदि का चित्रण इस कला में मिलता है । सहरी बहलोल से प्राप्त हारीति तथा कुबेर की एक युगल मूर्ति उत्कृष्ट कलाकृति है ।

यह पेशावर संग्रहालय में सुरक्षित है । शाहजी की ढेरी से प्राप्त कनिष्क मंजूषा के ऊपर बुद्ध के साथ इन्द्र तथा ब्रह्मा का चित्र एवं गन्धार से प्राप्त काले स्लेटी पत्थर की उत्कीर्ण सूर्य प्रतिमा, जिसमें सूर्य को चार अश्वों के रथ पर आसीन दिखाया गया है, भी काफी सुन्दर है ।

उनके दोनों ओर अनुचरों का अंकन है । कपिशा (बेग्राम, अफगानिस्तान) से अनेक दन्तफलक मिले हैं जो कभी श्रुंगार पेटियों अथवा रत्नमंजूषाओं के अंग रहे होंगे । इन पर अनेक मुद्राओं एवं भंगिमाओं में सुन्दरियों का अंकन किया गया है ।

1937-39 के मध्य फ्रांस के पुरातत्ववेत्ताओं ने खुदाई के दौरान इन्हें प्रकाशित किया था । इनमें शुक क्रीड़ा, हंस क्रीड़ा, नृत्य दृश्य, पानगोष्ठी, उड़ते हुए हंस, दर्पण निहारती आदि सुन्दरियों एवं प्रसाधिकाओं की आकृतियां अत्युत्कृष्ट हैं ।

कुछ फलक मथुरा शैली से मिलते-जुलते हैं । एक आकृति में बालक को गोद में लेकर स्तनपान कराती हुई नारी प्रदर्शित की गयी है । ये गन्धार कला शैली की मोहक आकृतियां हैं जिनमें तत्कालीन समाज के कुलीन तथा सामान्य वर्ग में प्रचलित वेशभूषा की जानकारी मिलती है । इन विविध दृश्यों पर भारतीय तथा सामान्य वर्ग में प्रचलित वेशभूषा की जानकारी मिलती है । इन विविध दृश्यों पर भारतीय तथा रोमन कला, दोनों का प्रभाव परिलक्षित होता है ।

वासुदेव शरण अग्रवाल ने प्रतिमाशास्त्र की दृष्टि में गन्धार कला की निम्नलिखित विशेषताओं की ओर ध्यान आकर्षित किया है- बुद्ध के जीवन की घटनायें और बोधिसत्व की मूर्तियां जातक कथायें, युनानी देव-देवी और गाथाओं के दृश्य भारतीय देवता और देवियाँ, वास्तु-संबंधी विदेशी विन्यास, भारतीय अलंकरण एवं यूनानी, ईरानी और भारतीय अभिप्राय एवं अलंकरण ।

गन्धार शैली में निर्मित बुद्ध तथा बोधिसत्व मूर्तियाँ ही विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । इन मूर्तियों में आध्यात्मिकता तथा भावुकता न होकर बौद्धिकता एवं शारीरिक सौन्दर्य की ही प्रधानता दिखाई देती है । इनके मुँह में बनाई गयी मूँछे तथा पैरों में दिखाये गये चप्पल से किसी प्रकार का भाव अथवा धार्मिक भावना प्रकट नहीं होती ।

ये अत्यन्त घटिया कोटि की हैं तथा भारतीय कलाकार ऐसी मूर्ति बनाने में कभी गर्व नहीं करते । अपने यूनानी स्वरूप के कारण यह भारतीय कला की मुख्य धारा से पृथक् रही तथा इसका क्षेत्र पश्चिमोत्तर प्रदेश तक ही सीमित रहा । मार्शल महोदय ने सही ही लिखा है कि यूनानी तथा रोमन कलाओं ने गन्धार शैली को जन्म देने के अतिरिक्त भारतीय कला के ऊपर कभी भी वैसा प्रभाव उत्पन्न नहीं किया जैसा कि इटली अथवा पश्चिमी एशिया की कला के ऊपर ।

यूनान तथा भारत के दृष्टिकोण मूलतः भिन्न थे । यूनानी, मनुष्य के सौन्दर्य रख बुद्धि को ही सर्वेसर्वा समझते थे । भारतीय दृष्टि में लौकिकता के स्थान पर अमरत्व तथा ससीम के स्थान पर असीम की प्रधानता थी । यूनानी विचार नैतिक एवं बुद्धिप्रधान था जबकि भारतीय विचार आध्यात्मिक एवं भावना-प्रधान था । इस प्रकार गन्धार कला अपने विदेशी प्रभाव के फलस्वरूप भारतीय कला का सौन्दर्य विहीन रूप ही प्रतीत होती है ।

कुमार स्वामी के शब्दों में- ‘गन्धार की यथार्थवादी कला घोर पाखण्ड का आभास देती है क्योंकि वोधिसत्वों की संतुष्ट अभिव्यक्ति तथा किंचित छैलछबीली वेषभूषा एवं बुद्ध मूर्तियों की स्त्रैण और निर्जीव मुद्रायें बौद्ध विचारधारा की आध्यात्मिक शक्ति का प्रकटीकरेण नहीं कर पाती हैं । किन्तु भारत के बाहर गन्धार कला का व्यापक प्रभाव रहा ।

इसने चीनी तुर्किस्तान, मंगोलिया, चीन, कोरिया तथा जापान की बौद्ध कला को जन्म दिया । मार्शल के अनुसार गन्धार की पाषाण-कला का प्रारम्भ 25-60 ई. के मध्य पह्लव शासन काल में हुआ, द्वितीय शती में कुषाण काल में उसका पूर्ण विकास हुआ तथा ससैनियन आक्रमण के परिणामस्वरूप इस कला का चतुर्थ शती ईस्वी के प्रारम्भ में ह्रास हो गया । कुषाण, विशेषकर कनिष्क का काल ही इसके चर्मोत्कर्ष का काल रहा । इस कला के ह्रास के साथ ही उसका स्थान अत्युत्कृष्ट गचकारी और मृण्मय कला ने ग्रहण कर लिया ।

(2) मथुरा कला शैली (Mathura Art Style):

कुषाण काल में मथुरा भी कला का प्रमुख केन्द्र था जहाँ अनेक स्तूपों, विहारों एवं मूर्तियों का निर्माण करवाया गया । इस समय तक शिल्पकारी एवं मूर्ति निर्माण के लिये मथुरा के कलाकार दूर-दूर तक प्रख्यात हो चुके थे ।

दुर्भाग्यवश आज वहाँ एक भी विहार शेष नहीं है । किन्तु यहाँ से अनेक हिन्दू, बौद्ध एवं जैन मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं । इनमें अधिकांशतः कुषाण युग की हैं । कनिष्क, हुविष्क तथा वासुदेव के काल में मथुरा कला का सर्वोत्कृष्ट विकास हुआ ।

प्रारम्भ में यह माना जाता था कि गन्धार की बौद्ध मूर्तियों के प्रभाव एवं अनुकरण पर ही मथुरा की बौद्ध मूर्तियों का निर्माण हुआ था, परन्तु अब यह स्पष्टतः सिद्ध हो चुका है कि मथुरा की बौद्ध मूर्तियाँ गन्धार से सर्वथा स्वतंत्र थीं तथा उनका आधार मूल रूप से भारतीय ही था ।

वासुदेव शरण अग्रवाल के मतानुसार सर्वप्रथम मथुरा में ही बुद्ध मूर्तियों का निर्माण किया गया जहां इनके लिये पर्याप्त धार्मिक आधार था । उनकी मान्यता है कि कोई मूर्ति तब तक नहीं बनाई जा सकती जब तक उसके लिये धार्मिक मांग न हो । मूर्ति की कल्पना धार्मिक भावना की तुष्टि के लिये होती है ।

इस बात के प्रमाण हैं कि ईसा पूर्व पहली शताब्दी में मथुरा भक्ति आन्दोलन का केन्द्र बन गया था जहाँ संकर्षण, वासुदेव तथा पंचवीरों (बलराम, कृष्ण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध तथा साम्ब) की प्रतिमाओं के साथ ही साथ जैन तीर्थकरों की प्रतिमाओं का भी पूर्ण विकास हो चुका था ।

इसका प्रभाव बौद्ध धर्म पर पड़ा । फलस्वरूप बौद्धों को भी बुद्ध मूर्ति के निर्माण की आवश्यकता प्रतीत हुई । कनिष्क के शासनकाल में महायान बौद्ध धर्म को राजकीय संरक्षण प्राप्त हो गया । इसमें बुद्ध की मूर्तिरूप में पूजा किये जाने का विधान था ।

बौद्धों की तृप्ति अब केवल प्रतीक पूजा से नहीं हो सकती थी । उन्हें बुद्ध को मानव मूर्ति के रूप में देखने की आवश्यकता प्रतीत हुई और इसी भावना से मथुरा के शिल्पियों द्वारा पहले बोधिसत्व तथा फिर बुद्ध मूर्तियों का निर्माण किया ।

जहाँ तक गन्धार का प्रश्न है हमें वहाँ किसी भी प्रकार के धार्मिक आन्दोलन का प्रमाण नहीं मिलता है । यह नहीं कहा जा सकता कि मथुरा या गन्धार के किसी शिल्पी ने क्षणिक भावावेश में आकर बुद्ध मूर्ति की रचना कर ली हो ।

अपितु यही मानना तर्कसंगत है कि बुद्धमूर्ति रचना की पृष्ठभूमि काफी पहले से ही प्रस्तुत की गयी होगी और यह पृष्ठभूमि मथुरा के धार्मिक आन्दोलन से तैयार हुई । मथुरा से कुछ ऐसी बोधिसत्व प्रतिमायें मिली हैं जिन पर कनिष्क संवत की प्रारम्भिक तिथियों में लेख खुदे हैं ।

इसके विपरीत गन्धार कला की मूर्तियों में से एक पर भी कोई परिचित संवत नहीं है । जो तीन-चार तिथियाँ मिलती हैं उनके आधार पर गन्धार कला का समय पहली से तीसरी शती ईस्वी के बीच ठहरता है । इस प्रकार मथुरा की बौद्ध प्रतिमायें प्राचीनतर सिद्ध होती हैं ।

इस प्रसंग में एक अन्य विचारणीय बात यह है कि गन्धार मूर्तियों पर जो बौद्ध प्रतिमा लक्षण के चिह्न जैसे पद्मासन, ध्यान, नासाग्रदृष्टि, उष्णीश आदि मिलते हैं उनका स्रोत भारतीय ही है न कि ईरानी तथा यूनानी । स्पष्टतः गन्धार के शिल्पकारों ने इन प्रतिमालक्षणों को मथुरा के शिल्पियों से ही ग्रहण किया था जो उनके पूर्व इन प्रतिमालक्षणों से युक्त बोधिसत्व तथा बुद्ध की बहुसंख्यक प्रतिमाओं का निर्माण कर चुके थे ।

इस प्रकार स्पष्ट है कि बुद्ध मूर्तियों सर्वप्रथम मथुरा में ही गढ़ी गयीं । यदि वे गन्धार में विदेशी कलाकारों द्वारा गढ़ी गयी होती तो उनमें प्रतिमालक्षण के विविध चिह्न कदापि नहीं आये होते क्योंकि यूनानी तथा ईरानी कला में इन लक्षणों का अभाव था ।

अग्रवाल महोदय ने मथुरा की बोधिसत्व तथा बुद्ध प्रतिमाओं का स्रोत यक्ष प्रतिमाओं (विशेषकर परखम यक्ष जैसी बड़ी प्रतिमाओं) को माना है । मथुरा से बुद्ध एवं बोधिसत्वों की खड़ी तथा बैठी मुद्रा में बनी हुई मूर्तियों मिली हैं ।

उनके व्यक्तित्व में चक्रवर्ती तथा योगी दोनों का ही आदर्श देखने को मिलता है । बुद्ध मूर्तियों में कटरा से प्राप्त मूर्ति विशेष रूप से उल्लेखनीय है जिसे चौकी पर उत्कीर्ण लेख में ‘बोधिसत्व’ की संज्ञा दी गयी है । इसमें बुद्ध को भिक्षु वेष धारण किये हुए दिखाया गया है ।

वे बोधिवृक्ष के नीचे सिंहासन पर विराजमान हैं तथा उनका दायां हाथ अभय मुद्रा में ऊपर उठा हुआ है । उनकी हथेली तथा तलवों पर धर्मचक्र तथा त्रिरत्न के चिह्न बनाये गये हैं । बुद्ध के दोनों ओर चामर लिये हुए पुरुष हैं तथा ऊपर से देवताओं को उनके ऊपर पुष्प की वर्षा करते हुए दिखाया गया । बुद्ध के पीछे वृत्ताकार प्रभामण्डल प्रदर्शित किया गया है ।

उल्लेखनीय है कि इसके पूर्व की मूर्तियों में हमें प्रभामण्डल दिखाई नहीं देता । अनेक विद्वान् इसके पीछे ईरानी प्रेरणा स्वीकार करते हैं जहां देव मूर्तियों के पृष्ठभाग में प्रभामण्डल बनाने की प्रथा थी । इस प्रकार समग्र रूप से यह मूर्ति कलात्मक दृष्टि से अत्यन्त प्रशंसनीय है ।

अभयमुद्रा में आसीन बुद्ध की एक मूर्ति अन्योर से मिली है जिसे ‘बोधिसत्व’ की संज्ञा दी गयी है । इस पर कनिष्क संवत् 51 अर्थात 129 ई. की तिथि अंकित है । बुद्ध मूर्तियां के अतिरिक्त मैत्रेय, काश्यप अवलोकितेश्वर आदि बोधिसत्व-मूर्तियाँ भी मथुरा से मिलती है ।

मैत्रेय, भविष्य में अवतार लेने वाले बुद्ध हैं । मान्यता क अनुसार शाक्य बुद्ध के परिनिर्वाण के चार हजार वर्षों पश्चात् उनका जन्म होगा । मैत्रेय मूर्तियों में उनका दायां हाथ अभय मुद्रा में अथवा कमल नाल लिये हुए तथा वायां हाथ अमृत घट लिये हुए दिखाया गया है ।

काश्यप को सप्तमानुषी बुद्धों में गिना जाता है । इनका चित्रण भी मिलता है । वे मूर्तियों सफेद, चित्तीदार, लाल एवं रवादार पत्थर से बनी हैं । गन्धार मूर्तियों के विपरीत वे सभी आध्यात्मिकता एवं भावना प्रधान हैं । अनेक मूर्तियाँ वेदिका स्तम्भों पर उत्कीर्ण हैं ।

बुद्ध के पूर्व जन्मों की कथायें भी स्तम्भों पर मिलती हैं । जन्म, अभिषेक, महाभिनिष्क्रमण, सम्बोधि, धर्मचक्रप्रवर्तन, महापरिनिर्वाण आदि उनके जीवन की विविध घटनाओं का कुशलतापूर्वक अंकन मथुरा कला के शिल्पियों द्वारा किया गया है ।

यहाँ के कलाकारों ने ईरानी तथा यूनानी कला के कुछ प्रतीकों को भी ग्रहण कर उन पर भारतीयता का रंग चढ़ा दिया । यही कारण है कि मथुरा की कुछ बुद्ध मूर्तियों में गन्धार मूर्तियों के लक्षण दिखाई देते हैं, जैसे- कुछ मूर्तियों में मूँछ तथा पैरों में चप्पल दिखाई गयी है ।

कुछ उपासकों की भी मूर्तियों हैं जो अपने हाथ जोड़े हुए तथा माला ग्रहण किये हुए प्रदर्शित किये गये हैं । कुछ दृश्य महाभारत की कथाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं । मथुरा शैली में शिल्पकारी के भी सुन्दर नमूने मिलते हैं । बुद्ध एवं बोधिसत्व मूर्तियों के अतिरिक्त मथुरा से कनिष्क की एक सिररहित मूर्ति मिली है जिस पर ‘महाराज राजाधिराजा देवपुत्रों कनिष्को’ अंकित है । यह खड़ी मुद्रा में है तथा 5 फुट 7 इंच ऊंची है ।

राजा घुटने तक कोट पहने हुए है, उसके पैरों में, भारी जूते हैं, दायाँ हाथ गदा पर टिका है तथा वह वायें हाथ से तलवार की मुठिया पकड़े हुए है । कला की दृष्टि से प्रतिमा उच्चकोटि की है जिसमें मूर्तिकार को सम्राट की पाषाण मूर्ति बनाने में अद्भुत सफलता मिली है ।

इसमें मानव शरीर का यथार्थ चित्रण दर्शनीय है । यह मूर्ति भी यूनानी कला के प्रभाव से मुक्त है । इस श्रेणी की दूसरी मूर्ति वेम तक्षम (विम कडफिसेस) की है जो सिंहासनासीन है । सिंहासन के आगे दोनों ओर दो सिंहों की आकृतियां हैं ।

सम्राट नक्काशीदार कामदानी वस्त्र ओढ़े हुए हैं । इसके नीचे छोटी कोट तथा पैरों में जूते दिखाये गये हैं । शिल्प की दृष्टि से इसे सम्राट का यथार्थ रूपांकन कहा जा सकता है । मजूमदार का विचार है कि इसका निर्माता कोई ईरानी शिल्पकार था ।

मथुरा के शिल्पियों ने बुद्ध-बोधिसत्व मूर्तियों के अतिरिक्त हिन्दू एवं जैन मूर्तियों का भी निर्माण किया था । हिन्दू देवताओं में विष्णु, सूर्य, शिव, कुवेर, नाग, यक्ष की पाषाण प्रतिमायें प्राप्त हुई है जो अत्यन्त सुन्दर एवं कलापूर्ण हैं ।

मथुरा तथा उसके समीपवर्ती क्षेत्रों से अब तक चालीस से भी अधिक विष्णु मूर्तियां प्राप्त हो चुकी हैं । अधिकांश चतुर्भुजी हैं । इनके तीन हाथ में शंख, चक्र, गदा दिखाया गया है और चौथा हाथ अभय मुद्रा में ऊपर उठा हुआ है ।

इनकी बनावट बोधिसत्व मैत्रेय की मूर्तियों जैसी है । उल्लेखनीय है कि विष्णु का लोकप्रिय प्रतीक पद्य मथुरा की कुषाणकालीन मूर्तियों में नहीं मिलता । कुछ मूर्तियों में गरुड़ का भी अंकन मिलता है । विष्णु के अवतारों से संबंधित मूर्तियां प्रायः नहीं मिलती ।

मात्र वाराह अवतार की एक प्रतिमा तथा कृष्ण लीलाओं से संबंधित दो दृश्यांकन मिले हैं । मथुरा संग्रहालय में सुरक्षित एक शिलापट्ट पर बालक कृष्ण को सिर पर लाद कर गोकुल ले जाते हुए वसुदेव तथा दूसरे पर कृष्ण द्वारा अश्व रूप धारण कर केशी असुर पर पैर से प्रहार करते हुए चित्रित किया गया है ।

वाराह प्रतिमा खण्डित अवस्था में मिलती है । इसकी छाती पर ‘श्रीवत्स’ प्रतीक अंकित है । शिव प्रतिमायें लिंग तथा मानव दोनों रूपों में मिलती हैं । शिव लिंग कई प्रकार के हैं, जैसे- एक मुखी, दो मुख, चार मुखी, पाँच मुखी आदि ।

शिव के साथ उनकी अर्धांगिनी पार्वती की प्रतिमा पहली वार संभवतः मथुरा में ही कुषाण कलाकारों द्वारा बनाई गयी थी । मथुरा में इस समय पाशुपत सम्प्रदाय के अनुयायी बड़ी संख्या में निवास करते थे । उनमें लिंग पूजा का व्यापक प्रचलन था । यही कारण है कि यहाँ अनेक प्रकार के लिंगों का निर्माण किया गया ।

इस काल की शिव मूर्तियों में जटा जूट, मस्तक पर तीसरा नेत्र, त्रिशूल तथा वाहन नन्दी को प्रदर्शित किया गया है । अर्ध नारीश्वर रूप में (जिसमें आधार भाग शिव तथा आधा पार्वती का है) शिव की मूर्ति प्रथम बार इस काल में मथुरा में तैयार की गयी थी । शिव की विविध रूपों वाली मूर्तियां कलात्मक दृष्टि से काफी सुन्दर हैं ।

मथुरा कला में सूर्य प्रतिमाओं का भी निर्माण किया गया । ईरानी प्रभाव के कारण इन्हें सर्वथा भिन्न प्रकार से तैयार किया गया है । मानव रूप में सूर्य को लम्बी कोट, पतलून तथा बूट पहने हुए दो या चार घोड़ों के रथ पर सवार दिखाया गया है ।

उनके सिर पर गोल तथा चपटी टोपी, कन्धों पर लहराते केश तथा मुंह पर नुकीली मूँछें दिखाई गयी हैं । इसी प्रकार की वेशभूषा कुषाण राजाओं की मूर्तियों में भी देखने को मिलती है । स्पष्टतः यह ईरानी परम्परा है ।

आर. जी. भण्डारकर का विचार है कि भारत में सूर्य की पूजा ईरान से यहाँ आने वाले मग नामक पुरोहितों द्वारा प्रारम्भ की गयी थी । हिंदू धर्म के इन प्रमुख देवताओं के अतिरिक्त मथुरा की कुषाणकालीन कला में कार्त्तिकेय, कुबेर, इन्द्र, गणेश, अग्नि आदि की मूर्तियां भी बनाई गयीं ।

लोक देवताओं में यक्षों, किन्नरों, नागों, गन्धर्बों आदि की प्रतिमायें मिलती हैं । देवी मूर्तियों में दुर्गा, लक्ष्मी, हारीति, सप्तमातृका आदि हैं । लक्ष्मी को कमल पर बैठी हुई (पद्मासना) मुद्रा में दिखाया गया है । वी. एस. अग्रवाल ने लक्ष्मी की एक ऐसी अनुपम मूर्ति का उल्लेख किया है जो कमलों से भरे पूर्णघट पर खड़ी है ।

अपने बायें हाथ से दुग्ध धारिणी मुद्रा में दूध की धार छोड़ती हुई दिखाई गयी है । उसके पीछे सनाल कमलों का सुन्दर चित्रण हुआ है जिसकी उठती हुई बेल पर मोर-मोरनी का जोड़ा बना है । वह किसी प्रतिभाशाली कुषाण शिल्प की उत्तम कृति है । दुर्गा की चतुर्भुजी मूर्तियां मिलती हैं । कई मूर्तियां महिषमर्दिनी रूप की हैं । सप्तमातृकाओं (ब्रह्माणी, वैष्णवी, माहेश्वरी, इन्दाणी, कौमारी, माहेश्वरी तथा चामुण्डा) की मूर्तियों में उन्हें साधारण वेश में घाघरा पहने हुए दिखाया गया है ।

जैन मूतियां तथा आयागपट्ट:

मथुरा तथा उसके समीपवर्ती भाग से जैन तीर्थंकरों की पाषाण प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं जो अत्यन्त सुन्दर एवं कलापूर्ण हैं । जैन मूर्तियाँ दो प्रकार की हैं- खड़ी मूर्तियाँ जो कायोत्सर्ग मुद्रा में हैं तथा बैठी हुई मूर्तियाँ जो पद्मासन में हैं ।

खड़ी मुद्रा (कायोत्सर्ग) की मूर्तियां पूर्णतया नग्न हैं, उनकी भुजायें घुटनों के नीचे तक फैली हुई हैं तथा भौहों के बीच केशपुंज बनाया गया है । बैठी हुई (पद्मासन) मूर्तियां ध्यान मुद्रा में हैं तथा उनकी दृष्टि नासिका के अग्रभाग पर केन्द्रित है ।

इनके आसन के सामने बीच में धर्मचक्र तथा पार्श्वभाग में सिंह बनाये गये हैं । कुछ प्रतिमाओं के सिर के पीछे गोल अलंकृत प्रभामण्डल मिलता है । तीर्थंकर प्रतिमाओं के वक्षस्थल पर ‘श्रीवत्स’ का पवित्र मांगलिक चिह्न अंकित है ।

इनकी चौकी पर लेख भी उत्कीर्ण हैं जिनसे उनकी पहचान की जा सकती है । तीर्थंकर प्रतिमाओं के अतिरिक्त कंकाली टीला से आयागपट्ट अथवा पूजापट्ट मिलते हैं जिनका कला की दृष्टि से काफी महत्व है । पहले इन पवित्र मांगलिक चिन्ह, जैसे- स्वस्तिक, श्रीवत्स, चक्र, नन्दयावर्त, पूर्णघट, मंगल कलश, शंख, माला आदि बनाये जाते थे परन्तु बाद में इन पर तीर्थंकरों की आकृतियां भी बनाई जाने लगीं ।

आयागपट्टों से प्रतीक पूजा से मूर्तिपूजा का विकास क्रम सूचित होता है । ये आयागपट्ट स्वतंत्र पूजा के लिये थे । इनसे पता चलता है कि प्रारम्भ में जैन धर्म में प्रतीक पूजा का प्रचलन था जिससे कालान्तर में प्रतिमा पूजा का विकास हुआ ।

इस प्रकार मथुरा के कलाकारों का दृष्टिकोण असाम्प्रदायिक था और उन्होंने बौद्ध, जैन तथा हिन्दू सभी के लिये उपयोगी प्रतिमाओं को प्रस्तुत किया । अग्रवाल के शब्दों में- ‘अपनी मौलिकता, सुन्दरता और रचनात्मक विविधता एवं बहुसंख्यक सृजन के कारण मथुरा कला का पद भारतीय कला में बहुत ऊंचा है ।’  यहाँ की बनी मूर्तियाँ सारनाथ, श्रावस्ती तथा अन्य केन्द्रों में गयीं । मथुरा की कलाकृतियाँ वैदेशिक प्रभाव से मुक्त हैं तथा इस कला में भरहुत और साँची की प्राचीन भारतीय कला को ही आगे बढ़ाया गया है ।

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