गुप्त साम्राज्य के डाउनफॉल के कारण | Causes of the Downfall of the Gupta Empire | Hindi.

चंद्रगुप्त द्वितीय के उत्तराधिकारियों को ईसा की पाँचवीं सदी के उत्तरार्द्ध में मध्य एशिया के हूणों के आक्रमण का सामना करना पड़ा । आरंभ में तो गुप्त सम्राट स्कंधगुप्त ने हूणों को भारत में आगे बढ़ने से रोकने के लिए जोरदार प्रयास किया लेकिन उसके उत्तराधिकारी लोग कमजोर ठहरे और आक्रमणकारी हूणों के सामने टिक नहीं पाए ।

हूण घुड़सवारी में बेजोड़ थे और शायद धातु के बने रकाबों का इस्तेमाल करते थे । वे तेजी से बढ़ सकते थे और उत्तम धनुर्धर होने के कारण न केवल ईरान में बल्कि भारत में भी खूब सफल हुए होंगे ।

485 ई॰ में आकर हूणों ने पूर्वी मालवा को और मध्य भारत के बड़े हिस्से को अपने कब्जे में कर लिया जहाँ उनके अभिलेख पाए गए हैं । पंजाब और राजस्थान जैसे बीच के इलाके भी उन हूणों के अधिकार में चले गए । इसके फलस्वरूप छठी सदी के आरंभ में गुप्त साम्राज्य बहुत ही छोटा हो गया ।

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मालवा के औलिकर सामंत वंश के यशोधर्मन् ने जल्द ही हूणों की सत्ता को उखाड़ फेंका और उसने गुप्त शासकों की सत्ता को भी चुनौती दे दी तथा सारे उत्तर भारत में अपना प्रभुत्व स्थापित करने के उपलक्ष्य में 532 ई॰ में विजय-स्तंभ खड़े किए । यशोधमन् का शासन टिका तो नहीं लेकिन उसने गुप्त साम्राज्य को हिलाकर छोड़ दिया ।

करद सामंत राजाओं ने सर उठाकर गुप्त साम्राज्य को और भी दुर्बल बना दिया । गुप्त सम्राटों की ओर से उत्तरी बंगाल में नियुक्त शासनाध्यक्षों ने और समतट अर्थात् दक्षिण-पूर्व बंगाल के सामंतों ने अपने को स्वतंत्र बनाना शुरू कर दिया । मगध के परवर्ती गुप्त शासकों ने बिहार में अपनी शक्ति जमाई । उनके साथ-ही-साथ मौखरि वंश के लोगों ने बिहार और उत्तर प्रदेश में राजसत्ता स्थापित की और कन्नौज को राजधानी बनाया ।

लगता है कि 550 ई॰ के आते-आते बिहार और उत्तर प्रदेश गुप्त शासकों के हाथ से चले गए । छठी सदी के आरंभ में हम देखते हैं कि उत्तरी मध्य प्रदेश के स्वाधीन राजा लोग स्वाधिकारपूर्वक भूमिदान का शासनपत्र (चार्टर) जारी करने लगे हालांकि शासनपत्र में गुप्त संवत् का ही प्रयोग किया । वलभी के शासकों ने गुजरात और पश्चिमी मालवा पर अधिकार कर लिया । स्कंदगुप्त के शासन के बाद अर्थात् 467 ई॰ के पश्चात् शायद ही कोई गुप्त मुद्रा या अभिलेख पश्चिम मालवा और सौराष्ट्र में मिला हो ।

संभवत: पाँचवीं सदी का अंत होते-होते पश्चिमी भारत गुप्त शासकों के हाथ से निकल गया । फलत: वाणिज्य-व्यापार से होने वाली आय से गुप्त शासकों को हाथ धोना पड़ा और वे आर्थिक रूप से पंगु हो गए । उधर उत्तर भारत में थानेश्वर के राजाओं ने हरियाणा पर अपना प्रभुत्व जमाया और धीरे-धीरे कन्नौज की ओर बड़े ।

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गुप्त राज्य को विशाल वेतनभोगी सेना के रखरखाव में कठिनाई होने लगी होगी क्योंकि धार्मिक या अन्य उद्देश्यों से ग्रामदान करने की परिपाटी जोर पकड़ती जा रही थी जिससे उसकी आमदनी बहुत घट गई होगी । विदेश व्यापार के ह्रास से भी उसकी आय कम हुई होगी ।

पता चलता है कि रेशम बुनकरों की एक श्रेणी (व्यवसायी संघ) 473 ई॰ में गुजरात से मालवा चली गई और वहाँ उन बुनकरों ने अन्य पेशे अपना लिए । इससे प्रकट होता है वे जो कपड़ा तैयार करते थे उसकी माँग खत्म-सी हो गई थी । धीरे-धीरे गुजरात में व्यापार का लाभ समाप्त हो गया ।

पाँचवीं सदी के मध्य के बाद गुप्त राजाओं ने अपनी स्वर्णमुद्राओं में शुद्ध सोने का अनुपात घटाकर उसे किसी भी तरह जारी रखने की बेतहाशा कोशिश की । पर इससे कोई लाभ नहीं हुआ । यद्यपि गुप्त सम्राटों का शासन छठी सदी के बीच तक किसी-न-किसी तरह चलता रहा तथापि साम्राज्य की महिमा लगभग सौ साल पहले ही समाप्त हो चुकी थी ।

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