गुप्त साम्राज्य: इतिहास और उत्पत्ति | Gupta Empire: History and Origin. Read this article in Hindi to learn about:- 1. गुप्त राजवंश का परिचय (Introduction to Gupta Dynasty) 2. गुप्त राजवंश का प्रारम्भिक इतिहास (Early History of Gupta Dynasty) 3. गुप्त-इतिहास के साधन (Tools of History) and Other Details.

Contents:

  1. गुप्त-राजवंश का परिचय (Introduction to Gupta Dynasty)
  2. गुप्त राजवंश का प्रारम्भिक इतिहास (Early History of Gupta Dynasty)
  3. गुप्त राजवंश के इतिहास के साधन (Tools of History of Gupta Dynasty)
  4. गुप्त राजवंश के उत्पत्ति तथा मूल निवास-स्थान (Origin and Native Place of Gupta Dynasty)
  5. गुप्त राजवंश के मूल निवास-स्थान (Original Habitat Places of Gupta Dynasty)


1. गुप्त राजवंश का परिचय (Introduction to Gupta Dynasty):

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कुषाण साम्राज्य के विघटन के पश्चात् जिस विकेन्द्रीकरण के युग का प्रारम्भ हुआ वह चतुर्थ शताब्दी ईस्वी के प्रारम्भ तक चलता रहा । पश्चिमी पंजाब में यद्यपि कुषाण वंश का शासन था तथापि पूर्व की ओर उसका कोई प्रभाव नहीं था ।

गुजरात तथा मालवा के पश्चिमी भाग में शक अभी सक्रिय थे, परन्तु उनकी शक्ति का उत्तरोत्तर ह्रास होता जा रहा था । उत्तरी भारत के शेष भू-भाग में इस समय अनेक राज्यों एवं गणराज्यों का शासन था । सामान्यतः यह काल अराजकता, अव्यवस्था एवं दुर्बलता का काल था ।

देश में कोई ऐसी शक्तिशाली केन्द्रीय शक्ति नहीं थी जो विभिन्न छोटे-बड़े राज्यों को विजित कर एकछत्र शासन-व्यवस्था की स्थापना कर सकती । यह काल किसी महान् सेनानायक की महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिये सर्वाधिक सुनहला अवसर प्रस्तुत कर रहा था । फलस्वरूप मगध के गुप्त राजवंश में ऐसे महान् सेनानायकों का उदय हुआ ।


2. गुप्त राजवंश का प्रारम्भिक इतिहास (Early History of Gupta Dynasty):

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गुप्त राजवंश की स्थापना लगभग 275 ईस्वी में महाराज गुप्त द्वारा की गयी थी । हमें यह निश्चित रूप से पता नहीं है कि उसका नाम श्रीगुप्त था अथवा केवल गुप्त । उसका कोई भी लेख अथवा सिक्का नहीं मिलता ।

दो मुहरें जिनमें से एक के ऊपर संस्कृत तथा प्राकृत मिश्रित मुद्रालेख ‘गुप्तस्य’ तथा दूसरे के ऊपर संस्कृत में ‘श्रीगुप्तस्य’ अंकित है, उससे सम्बन्धित की जाती है परन्तु इस सम्बन्ध में हम निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कह सकते ।

गुप्तवंश का दूसरा शासक महाराज घटोत्कच हुआ जो श्रीगुप्त का पुत्र था । प्रभावती गुप्ता के पूना तथा रिद्धपुर ताम्रपत्रों में उसे ही गुप्त वंश का प्रथम शासक (आदिराज) बताया गया है । स्कन्दगुप्त के सुपिया (रीवा) के लेख में भी गुप्तों की वंशावली घटोत्कच के समय से ही प्रारम्भ होती है ।

इस आधार पर कुछ विद्वानों का सुझाव है कि वस्तुतः घटोत्कच ही इस वंश का संस्थापक था तथा गुप्त या श्रीगुप्त कोई आदि पूर्वज रहा होगा जिसके नाम का आविष्कार गुप्तवंश की उत्पत्ति बताने के लिये कर लिया गया होगा ।

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किन्तु इस प्रकार का निष्कर्ष तर्कसंगत नहीं है । गुप्त लेखों में इस वंश का प्रथम शासक श्रीगुप्त को ही कहा गया है । ऐसा प्रतीत होता है कि यद्यपि गुप्तवंश की स्थापना श्रीगुप्त ने की थी किन्तु उसके समय में यह वंश महत्वपूर्ण स्थिति में नहीं था ।

घटोत्कच के काल में ही सर्वप्रथम गुप्तों ने गंगाघाटी में राजनैतिक महत्ता प्राप्त की होगी । अल्तेकर तथा आर. जी. बसाक का विचार है कि उसी के काल में गुप्तों का लिच्छवियों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किया गया होगा ।

सम्भवत: इसी कारण कुछ लेखों में घटोत्कच को ही गुप्तवंश का आदि राजा कहा गया है । उसके भी कोई लेख अथवा सिक्के नहीं मिलते । इन दोनों शासकों की किसी भी उपलब्धि के विषय में हमें पता नहीं है । इन दोनों के नाम के पूर्व ‘महाराज’ की उपाधि को देखकर अधिकांश विद्वानों ने उनकी स्वतन्त्र स्थिति में संदेह व्यक्त किया है तथा उन्हें सामन्त शासक बताया है । काशी प्रसाद जायसवाल का विचार है कि गुप्तों के पूर्व मगध पर लिच्छवियों का शासन था तथा प्रारम्भिक गुप्त नरेश उन्हीं के सामन्त थे ।

सुधाकर चट्‌टोपाध्याय के मतानुसार मगध पर तीसरी शती में मुरुण्डों का शासन था और महाराजगुप्त तथा घटोत्कच उन्हीं के सामन्त थे । फ्लीट एवं बनर्जी की धारणा है कि वे शकों के सामन्त थे जो तृतीय शताब्दी में मगध के शासक थे ।

सर्वप्रथम चन्द्रगुप्त प्रथम ने ही गुप्तवंश को शकों की अधीनता से मुक्त किया था । इस प्रकार इन विविध मतमतान्तरों के बीच यह निश्चित रूप से बता सकना कठिन है कि प्रारम्भिक गुप्त नरेश किस सार्वभौम शक्ति की अधीनता स्वीकार करते थे ।

पुनश्च यह निश्चित नहीं कि वे सामन्त रहे ही हों । प्राचीन भारत में कई स्वतन्त्र राजवंशों, जैसे- लिच्छवि, मघ, भारशिव, वाकाटक आदि के शासक भी केवल ‘महाराज’ की उपाधि ही ग्रहण करते थे । ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि का प्रयोग सर्वप्रथम चन्दगुप्त प्रथम ने ही किया ।

ऐसा प्रतीत होता है कि शकों में प्रयुक्त क्षत्रप तथा महाक्षत्रप की उपाधियों के अनुकरण पर ही उसने ऐसा किया था । बाद के भारतीय शासकों ने इस परम्परा का अनुकरण किया तथा ‘महाराज’ की उपाधि सामन्त-स्थिति की सूचक बन गयी ।

वास्तविकता जो भी हो, इतना स्पष्ट है कि महाराज गुप्त तथा घटोत्कच अत्यन्त साधारण शासक थे जिनका राज्य संभवतः मगध के आस-पास ही सीमित था । इन दोनों राजाओं ने 319-20 ईस्वी के लगभग तक राज्य किया ।


3. गुप्त राजवंश के इतिहास के साधन (Tools of History of Guptas Dynasty):

गुप्त राजवंश का इतिहास हमें साहित्यिक तथा पुरातत्वीय दोनों ही प्रमाणों से ज्ञात होता है । साहित्यिक साधनों में पुराण सर्वप्रथम हैं । पुराणों में विष्णु, वायु तथा ब्रह्माण्ड पुराणों को हम गुप्त-इतिहास के पुनर्निर्माण में सहायक मान सकते हैं ।

इनसे गुप्तवंश के प्रारम्भिक इतिहास का कुछ ज्ञान प्राप्त होता है । विशाखदत्तकृत ‘देवीचन्द्रगुप्तम्’ नाटक से गुप्तवंशी नरेश रामगुप्त एवं चन्द्रगुप्त द्वितीय के विषय में कुछ सूचना मिलती है । अधिकांश विद्वान महाकवि कालिदास को गुप्तकालीन विभूति मानते हैं ।

उनकी अनेकानेक रचनाओं से गुप्तयुगीन समाज एवं संस्कृति पर सुन्दर प्रकाश पड़ता है । शूद्रककृत ‘मृच्छकटिक’ एवं वात्स्यायन के ‘कामसूत्र’ से भी गुप्तकालीन शासन-व्यवस्था एवं नगर जीवन के विषय में रोचक सामग्री मिल जाती है ।

भारतीय साहित्य के अतिरिक्त विदेशी यात्रियों का विवरण भी गुप्त इतिहास के पुनर्निर्माण में सहायक हुआ है । ऐसे यात्रियों में फाहियान का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है । वह चीनी यात्री था । फाहियान गुप्तनरेश चन्द्रगुप्त द्वितीय (375-415 ईस्वी) के शासन काल में भारत आया था ।

उसने मध्यदेश की जनता का वर्णन किया है । सातवीं शती के चीनी यात्री हुएनसांग के विवरण से भी गुप्त इतिहास के विषय में सूचनायें मिलती हैं । उसने कुमारगुप्त प्रथम (शक्रादित्य), बुधगुप्त, बालादित्य आदि गुप्त शासकों का उल्लेख किया । उसके विवरण से पता चलता कि कुमारगुप्त ने ही नालन्दा महाविहार की स्थापना करवायी थी ।

वह ‘बालादित्य’ को हूण नरेश मिहिरकुल का विजेता बताता है । इसकी पहचान नरसिंह गुप्त बालादित्य से की जाती है । साहित्यिक साक्ष्यों के अतिरिक्त पुरातत्वीय प्रमाणों से भी हमें गुप्त राजवंश के इतिहास के पुनर्निर्माण में पर्याप्त सहायता मिलती है ।

इनका वर्गीकरण तीन भागों में किया जा सकता है:

(i) अभिलेख,

(ii) सिक्के तथा

(iii) स्मारक ।

इनका विवरण इस प्रकार है:

(i) अभिलेख:

गुप्तकालीन अभिलेखों में सर्वप्रथम उल्लेख समुद्रगुप्त के प्रयाग स्तम्भलेख का किया जा सकता है । यह एक प्रशस्ति है जिससे समुद्रगुप्त के राज्याभिषेक, दिग्विजय तथा उसके व्यक्तित्व पर विशद प्रकाश पड़ता है । चन्द्रगुप्त द्वितीय के उदयगिरि से प्राप्त गुहालेख से उसकी दिग्विजय की सूचना प्राप्त होती है ।

कुमारगुप्त प्रथम के समय के लेख उत्तरी बंगाल से मिलते हैं जो इस बात का सूचक है कि इस समय तक सम्पूर्ण बंगाल का भाग गुप्तों के अधिकार में आ गया था । स्कन्दगुप्त के भितरी स्तम्भ-लेख से हूण आक्रमण की सूचना मिलती है । इसी सम्राट के जूनागढ़ से प्राप्त अभिलेख से पता चलता है कि उसने इतिहास-प्रसिद्ध सुदर्शन झील का पुनर्निर्माण करवाया था ।

इसके अलावा और भी अनेक अभिलेख एवं दानपत्र मिले हैं जिनसे गुप्त काल की अनेक महत्वपूर्ण बातों की जानकारी होती है । इन सभी अभिलेखों की भाषा विशुद्ध संस्कृत है तथा इनमें दी गयी तिथियाँ ‘गुप्त संवत्’ की हैं ।

इतिहास के साथ ही साथ साहित्य की दृष्टि से भी गुप्त अभिलेखों का विशेष महत्व है । इनसे संस्कृत भाषा तथा साहित्य के पर्याप्त विकसित होने का प्रमाण मिलता है । हरिषेण द्वारा विरचित प्रयाग प्रशस्ति तो वस्तुतः एक चरित-काव्य ही है ।

(ii) सिक्के:

गुप्तवंशी राजाओं के अनेक सिक्के हमें प्राप्त होते हैं । ये स्वर्ण, रजत तथा तांबे के हैं । स्वर्ण सिक्कों को ‘दीनार’, रजत सिक्कों को ‘रुपक’ या रुप्यक तथा ताम्र सिक्कों को ‘माषक’ कहा जाता था । गुप्तकालीन स्वर्ण सिक्कों का सबसे बड़ा ढेर राजस्थान प्रान्त के बयाना से प्राप्त हुआ है ।

एलन, अल्टेकर आदि विद्वानों ने गुप्तकालीन सिक्कों का विस्तृत अध्ययन किया है । अनेक सिक्कों पर तिथियाँ भी उत्कीर्ण मिलती है जिनके आधार पर हम तत्सम्बन्धी शासकों का तिथि निर्धारण कर सकते हैं । कुछ सिक्कों से कुछ विशिष्ट घटनाओं की सूचना मिलती है । जैसे एक प्रकार के सुवर्ण सिक्के के मुखभाग पर चन्द्रगुप्त एवं कुमारदेवी की आकृति तथा पृष्ठभाग पर ‘लिच्छवय:’ उत्कीर्ण मिलता है ।

इससे स्पष्ट होता है कि चन्द्रगुप्त ने लिच्छवि राजकन्या कुमारदेवी के साथ विवाह किया था । समुद्रगुप्त के अश्वमेध प्रकार के सिक्कों से उसके अश्वमेध यज्ञ की सूचना तथा चन्द्रगुप्त द्वितीय के व्याघ्र-हनन प्रकार के सिक्कों से उसकी पश्चिमी भारत (शक-प्रदेश) के विजय की सूचना मिलती है ।

मध्य प्रदेश के एरण तथा भिलसा से रामगुप्त के कुछ सिक्के मिलते हैं जिनसे हम उसकी ऐतिहासिकता का पुनर्निर्माण करने में सहायता प्राप्त करते हैं । कभी-कभी सिक्कों के अध्ययन से हमें उनके काल की राजनैतिक तथा आर्थिक दशा का भी ज्ञान प्राप्त होता है । जैसे कुमारगुप्त के उत्तराधिकारियों के सिक्कों से पतनोन्मुख आर्थिक दशा का आभास मिलता है । इनमें मिलावट की मात्रा अधिक है ।

(iii) स्मारक:

गुप्तकाल के अनेक मन्दिर, स्तम्भ मूर्तियों एवं चैत्य-गृह (गुहा-मन्दिर) प्राप्त होते हैं जिनसे तत्कालीन कला तथा स्थापत्य की उत्कृष्टता सूचित होती है । इनसे तत्कालीन सम्राटों एवं जनता के धार्मिक विश्वास को समझने में भी मदद मिलती है ।

मन्दिरों में भूमरा का शिव मन्दिर, तिगवाँ (जबलपुर) का विष्णु मन्दिर, नचना-कुठार (मध्य प्रदेश के भूतपूर्व अजयगढ़ रियासत में वर्तमान) का पार्वती मन्दिर, देवगढ़ (झांसी) का दशावतार मन्दिर, भितरगाँव (कानपुर) का मन्दिर तथा लाड़खान (ऐहोल के समीप) के मन्दिर विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं ।

ये सभी मन्दिर अपनी निर्माण-शैली, आकार-प्रकार एवं सुदृढ़ता के लिये प्रसिद्ध हैं तथा वास्तुकला के भव्य नमूने हैं । मन्दिरों के अतिरिक्त सारनाथ, मथुरा, सुल्तानगंज, करमदण्डा, खोह, देवगढ़ आदि स्थानों से बुद्ध, शिव, विष्णु आदि देवताओं की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं ।

इनसे तत्कालीन तक्षणकला पर प्रकाश पड़ता है । साथ ही इन मूर्तियों में गुप्त नरेशों की धार्मिक सहिष्णुता भी सूचित होती हैं । मन्दिर तथा मूर्तियों के साथ ही साथ बाघ (ग्वालियर, म. प्र.) तथा अजन्ता की कुछ गुफाओं (16वीं एवं 17वीं) के चित्र भी गुप्त काल के ही माने जाते हैं ।

बाघ की गुफाओं के चित्र लौकिक जीवन से सम्बन्धित है जबकि अजन्ता के चित्रों का विषय धार्मिक है । इन चित्रों के माध्यम से गुप्तकालीन समाज की वेष-भूषा, श्रुंगार-प्रसाधन एवं धार्मिक विश्वास को समझने में सहायता मिलती है । साथ ही इनसे गुप्तयुगीन चित्रकला के पर्याप्त विकसित होने का भी प्रमाण उपलब्ध हो जाता है । इस प्रकार साहित्य एवं पुरातत्व दोनों के माध्यम से हम गुप्तकालीन इतिहास का पुननिर्माण कर सकते हैं ।


4. गुप्त राजवंश के उत्पत्ति तथा मूल निवास-स्थान (Origin and Native Place of Guptas Dynasty):

यद्यपि गुप्त नरेशों के अनेक अभिलेख तथा सिक्के मिले हैं, तथापि उनमें किसी से भी न तो उनके वर्ण अथवा जाति के विषय में कोई संकेत मिलता है और न ही साहित्यिक साक्ष्यों से हमें इस विषय में कोई ठोस सामग्री उपलब्ध होती है । फलस्वरूप गुप्तों की उत्पत्ति का प्रश्न प्राचीन भारतीय इतिहास का सर्वाधिक विवादग्रस्त प्रश्न रहा है । विद्वानों ने इस राजवंश को शूद्र से लेकर ब्राह्मण जाति तक का सिद्ध करने का अलग-अलग प्रयास किया है ।

यहाँ हम प्रत्येक मत की अलग-अलग समीक्षा करेंगे:

1. शूद्र अथवा निम्न उत्पत्ति का मत:

गुप्तों को शूद्र अथवा निम्न जाति से सम्बन्धित करने वाले विद्वानों में काशी प्रसाद जायसवाल का नाम सर्वाधिक महत्वपूर्ण है । जायसवाल की यह धारणा है कि गुप्त नरेशों ने निम्न वर्ण से सम्बद्ध होने के कारण ही अपने अभिलेखों में अपनी जाति का उल्लेख नहीं किया है ।

अपने मत की पुष्टि के लिये उन्होंने ‘कौमुदीमहोत्सव’ नामक एक नाटक ग्रन्थ का सहारा लिया है जिसकी रचना संभवतः वज्जिका नाम की किसी कवियित्री ने किया था । इस नाटक में एक कथा मिलती है जिसका सारांश इस प्रकार है- “मगध में सुन्दरवर्मा नामक एक क्षत्रिय राजा शासन करता था ।

उसका कोई पुत्र नहीं था, अत: उसने चण्डसेन नामक एक व्यक्ति को गोद लिया । चण्डसेन राजाओं में कारस्कर कहा गया है । कुछ समय पश्चात् सुन्दरवर्मा को कल्याणवर्मा नामक एक अपना पुत्र उत्पन्न हुआ । कल्याणवर्मा के जन्म से चण्डसेन बड़ी निराशा हुयी ।

उसने मगध के वैरी म्लेच्छ लिच्छवियों के साथ सम्बन्ध स्थापित कर अवसर पाकर कुसुमपुर (पाटलिपुत्र) को घेर लिया । युद्ध में सुन्दरवर्मा मार डाला गया तथा चण्डसेन मगध का राजा बन बैठा । पाटलिपुत्र में कल्याणवर्मा के जीवन को असुरक्षित देखकर उसके पिता के योग्य तथा अनुभवी मन्त्रियों ने उसे ‘पम्पासर’ नामक स्थान में पहुँचा दिया ।

इसके बाद उन्होंने चण्डसेन के विरुद्ध विद्रोह भड़काया । सीमान्त प्रदेशों में विद्रोह उठ खड़े हुए जिनको दबाने के प्रयास में चण्डसेन अपने बन्धुओं सहित भार डाला गया । उसकी मृत्यु के साथ ही उसका वंश समाप्त हुआ । तत्पश्चात् कल्याणवर्मा मगध का राजा हुआ ।”

जायसवाल ने कौमुदीमहोत्सव नाटक के चण्डसेन की समता गुप्तवंश के तीसरे सम्राट चन्दगुप्त प्रथम के साथ स्थापित की है । चन्द्रगुप्त प्रथम का भी लिच्छवियों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध था और कौमुदीमहोत्सव के अनुसार चण्डसेन ने भी लिच्छवि कुल में अपना सम्बन्ध स्थापित किया था ।

कौमुदीमहोत्सव में लिच्छवियों को ‘म्लेच्छ’ कहा गया है, अत: चन्द्रगुप्त प्रथम भी म्लेच्छ अथवा निम्न जातीय रहा होगा । इस ग्रन्थ में चण्डसेन ‘कारस्कर’ कहा गया है । बौद्धायन ने इसका अर्थ निम्नजातीय बताया है, अत: इस आधार पर भी चण्डसेन अर्थात् चन्द्रगुप्त शूद्र प्रमाणित होता है ।

जायसवाल महोदय ने अपने मत का समर्थन कुछ अन्य प्रमाणों से भी किया है जो इस प्रकार है:

(i) चन्द्रगोमिन् के व्याकरण की एक सूत्रवृति में ‘अजयत् जर्टो हूणान्’ अर्थात् जर्ट लोगों ने हूणों की जीता था, लिखा मिलता है । यहाँ स्कन्दगुप्त की हूण-विजय की ओर संकेत किया है । इस ग्रन्थ में भी गुप्तों को जर्ट अथवा जाट कहा गया है । अत: कौमुदीमहोत्सव नाटक तथा चन्द्रगोमिन् के व्याकरण, इन दोनों के सम्मिलित साक्ष्य से गुप्त लोग ‘कारस्कर जर्ट’ सिद्ध होते हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि वे आधुनिक कक्कड़ जाट के कोई पूर्वज रहे होंगे ।

(ii) प्रभावती गुप्ता, जो चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री थी, ने अपने पूना ताम्र-पत्र में अपने को ‘धारण-गोत्र’ का बताया है । यह गोत्र उसके पिता का था क्योंकि उसका पति वाकाटक नरेश रुदसेन द्वितीय विष्णुवृद्धि गोत्र का ब्राह्मण था ।

जायसवाल महोदय ने इस ‘धारण’ गोत्र का समीकरण जाटों की धरणि शाखा से किया है । इससे भी यही निष्कर्ष निकलता है कि गुप्तवंशी नरेश उच्च वर्ण के नहीं थे । इसी सन्दर्भ में उन्होंने मत्स्यपुराण का यह कथन भी उद्धत किया है जिसमें ‘महानन्दी के बाद शूद्रयोनि के राजा पृथ्वी पर शासन करेंगे ।’ ऐसा उल्लेख मिलता है । इस कथन से भी गुप्तों की निम्न उत्पत्ति संकेतित होती है । इन सभी प्रमाणों के आधार पर जायसवाल महोदय गुप्तों को शूद्र अथवा निम्नजातीय प्रमाणित करने की चेष्टा करते हैं ।

समीक्षा:

काशी प्रसाद जायसवाल के उपर्युक्त तर्क यद्यपि देखने में सबल प्रतीत होते हैं परन्तु यदि सावधानीपूर्वक उनकी समीक्षा की जाये तो ऐसा प्रतीत होगा कि उनमें कोई विशेष बल नहीं है । कौमुदीमहोत्सव नाटक में जिस चण्डसेन का उल्लेख हुआ है, उसकी पहचान गुप्तवंशी चन्दगुप्त प्रथम से नहीं की जा सकती ।

नाटक के अनुसार युद्ध में चण्डसेन अपने बन्धु-बान्धवों के साथ मार डाला गया । दूसरे शब्दों में उसकी मृत्यु के साथ ही उसका वंश भी समाप्त हो गया । चन्द्रगुप्त प्रथम के साथ ऐसी कोई दुर्घटना नहीं हुई । हमें यह निश्चित रूप से पता है कि उसकी मृत्यु के पश्चात् शताब्दियों तक उसका वंश चलता रहा ।

यदि हम चण्डसेन तथा चन्द्रगुप्त दोनों को एक व्यक्ति मान लें तो ऐसी स्थिति में हमें गुप्तों का इतिहास चन्द्रगुप्त प्रथम के साथ ही समाप्त कर देना होगा, जो सर्वथा अस्वाभाविक घटना होगी । अत: चण्डसेन गुप्तवंशी चन्द्रगुप्त नहीं हो सकता । इलाहाबाद विश्वविद्यालय के जे. एस. नेगी की धारणा है कि कौमुदीमहोत्सव में प्रयुक्त ‘निहत:’ शब्द से चण्डसेन का मारा जाना सूचित नहीं होता ।

रामायण से उदाहरण देते हुये उन्होंने स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि संस्कृत की ‘हन्’ धातु का प्रयोग कभी-कभी विपत्ति अथवा अपमान को सूचित करने के लिये भी किया जाता है । अत: यहाँ चण्डसेन के अपमानित होने अथवा क्षणिक हानि उठाने से तात्पर्य है ।

किन्तु इस प्रकार के विचार से सहमत होना कठिन है क्योंकि नाटक में चण्डसेन के प्रसंग में यह भी कहा गया है कि उसका कुल उन्मूलित कर दिया गया । इस शब्द से उसके विनाश की सूचना मिलती है, न कि केवल अपमानित किये जाने की ।

अधिकांश विद्वान् कौमुदीमहोत्सव की ऐतिहासिकता में सन्देह करते हैं । क्षेत्रेश चन्द चट्‌टोपाध्याय ने इस ग्रन्थ की प्रस्तावना में उल्लिखित ‘कृतिवासस्’ शब्द की ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट किया है । इस शब्द का शाब्दिक अर्थ तो शंकर से है परन्तु इसका लाक्षणिक अर्थ शंकराचार्य भी होता है क्योंकि इसमें ‘कृतिवासस् को द्वैत की गाँठ का भेदन करने वाला’ (नानात्व ग्रन्थि-भेत्री) कहा गया है ।

स्पष्ट है कि इससे तात्पर्य अद्वैतवाद के प्रणेता शंकराचार्य से ही है जिनका समय 781-820 ईस्वी माना जाता है । इस ग्रन्थ में शंकराचार्य का उल्लेख होना यह सिद्ध करता है कि यह बहुत बाद की रचना है । अत: गुप्त-इतिहास के पुनर्निर्माण में इसे सहायक नहीं माना जा सकता ।

इस प्रकार कौमुदी महोत्सव के आधार पर गुप्तों की जाति के विषय में कोई निष्कर्ष निकालना तर्कसंगत नहीं लगता । जहां तक ‘चान्द्र व्याकरण’ का प्रश्न है, सभी विद्वान् इस मत के नहीं हैं कि इसमें गुप्तों के लिये ‘जर्ट’ शब्द का प्रयोग हुआ है । हर्नले ने जर्ट के स्थान पर ‘जप्त’ पाठ पढ़ा है ।

ऐसा प्रतीत होता है कि चन्द्रगोमिन् की मूल पाण्डुलिपि में ‘गुप्त’ पाठ ही रहा होगा जिसे कालान्तर में लिपि की भूल से जर्ट या जप्त लिख दिया गया । अत: इसमें गुप्तों की जाति के विषय में अपमानजनक कुछ भी नहीं है । जहाँ तक पूना ताम्रपत्र के धारण गोत्र का प्रश्न है, इसकी पहचान जाटों की धरणि शाखा से नहीं की जा सकती क्योंकि इन दोनों शब्दों में उच्चारण के अतिरिक्त कोई दूसरी समानता नहीं है ।

मत्स्यपुराण का कथन केवल नन्दों तक ही सीमित है क्योंकि यह नहीं कहा जा सकता कि महानन्दी के बाद शासन करने वाले सभी राजा शूद्र थे । जैसे- मौर्य क्षत्रिय थे, शुंग तथा सातवाहन ब्राह्मण थे । इस विवेचन के आधार पर हम गुप्तों को शूद्र अथवा निम्न जाति का नहीं मान सकते ।

2. वैश्य होने का मत:

एलन, एस. के. आयंगर, अनन्त सदाशिव अल्टेकर, रोमिला थापर, रामशरण शर्मा जैसे कुछ विद्वान् गुप्तों को वैश्य मानते थे । अपने मत के समर्थन में अल्टेकर महोदय ने विष्णुपुराण के एक श्लोक का सहारा लिया है जिनके अनुसार- ‘ब्राह्मण अपने नाम के अन्त में शर्मा शब्द, क्षत्रिय वर्मा शब्द, वैश्य गुप्त शब्द तथा शूद्र दास शब्द लिखेंगे ।’

गुप्त राजाओं के नामान्त में ‘गुप्त’ शब्द जुड़ा देखकर अल्टेकर उन्हें वैश्य जाति से सम्बन्धित करते हैं । उनके मतानुसार गुप्त युग तक आते-आते वर्णों के अनुसार व्यवसाय-चयन का सिद्धान्त शिथिल पड़ गया था । ब्राह्मण क्षत्रियों का काम करने लगे थे, जैसे वाकाटक और कदम्ब वंशों के लोग ब्राह्मण होते हुये भी शासन कार्य करते थे ।

गुप्तकालीन रचना शूद्रकृत ‘मृच्छकटिक’ में चारूदत्त नामक एक ब्राह्मण को ‘सार्थवाह’ (व्यापारी) कहा गया है । अत: गुप्त लोग यदि वैश्य होते हुये भी शासन करते थे तो इस विषय में हमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिये ।

समीक्षा:

अल्टेकर का उपर्युक्त मत कई दृष्टियों से विचारणीय है । सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि गुप्त वंश के दूसरे सम्राट घटोत्कच के नाम के अन्त में ‘गुप्त’ शब्द नहीं जुड़ा मिलता । अभिलेखों में उसे केवल महाराजा घटोत्कच ही कहा गया है । वास्तविकता यह है कि ‘गुप्त’ नाम इस वंश के संस्थापक का था और सर्वप्रथम चन्द्रगुप्त प्रथम ने इसे अपने नाम के अन्त में प्रयुक्त किया था ।

कालान्तर में सभी राजाओं ने इसका अनुकरण किया । पुनश्च ‘गुप्त’ शब्द धारण करना केवल वैश्य वर्ण के लोगों का ही एकाधिकार नहीं था । प्राचीन भारतीय साहित्य से हमें अनेक नाम ऐसे मिलते हैं जो यद्यपि वैश्य नहीं थे तथापि उन्होंने गुप्त शब्द अपने नामान्त में धारण किया था ।

उदाहरण के लिये कौटिल्य, जो एक रूढ़िवादी ब्राह्मण था, का एक नाम विष्णुगुप्त भी था । इसी प्रकार कुछ अन्य नाम भी प्राचीन साहित्य तथा लेखों से खोजे जा सकते हैं । अत: केवल गुप्त शब्द के ही आधार पर गुप्त राजवंश को वैश्य वर्णान्तर्गत रखना समीचीन नहीं होगा ।

3. क्षत्रिय होने का मत:

सुधाकर चट्‌टोपाध्याय, रमेशचन्द्र मजूमदार, गौरीशंकर हीराचन्द्र ओझा आदि कुछ विद्वान्, गुप्तों को क्षत्रिय जाति से सम्बन्धित करते हैं ।

इनके तर्कों का सारांश इस प्रकार है:

(i) पंचोभ (बिहार के दरभंगा जिले में स्थित) से प्राप्त एक लेख में किसी गुप्तवंश का उल्लेख हुआ है । इस गुप्तवंश के लोग अपने को पाण्डव अर्जुन का वंशज मानते थे तथा शैवमतानुयायी थे । इस गुप्तवंश की पहचान सम्राट गुप्तवंश से की गयी है तथा पाण्डव के आधार पर उन्हें क्षत्रिय माना गया है ।

(ii) जावा से प्राप्त ‘तन्त्रीकामन्दक’ नामक ग्रन्थ में महाराजा ऐश्वर्यपाल का उल्लेख मिलता है । वह अपने को ईक्ष्वाकुवंशी (सूर्यवंशी) क्षत्रिय कहता है तथा समुद्रगुप्त का वंशज बताता है । अत: गुप्त लोग सूर्यवंशी क्षत्रिय रहे होंगे ।

(iii) सिरपुर के लेख में चन्द्रगुप्त नामक राजा को चन्द्रवंशी क्षत्रिय कहा गया है । इस चन्द्रगुप्त की पहचान गुप्तवंशी चन्द्रगुप्त प्रथम से की जाती है और गुप्तों को भी चन्दवंशी क्षत्रिय माना गया है ।

(iv) गुप्तों का लिच्छवियों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध था । लिच्छवियों को क्षत्रिय माना गया है, अत: गुप्त लोग भी क्षत्रिय रहे होंगे ।

समीक्षा:

परन्तु ये सभी तर्क निर्बल हैं ।

इनकी समीक्षा हम इस प्रकार कर सकते हैं:

(i) पंचोभ के लेख में जिस गुप्त वंश का उल्लेख हुआ है वह गुप्त राजवंश नहीं प्रतीत होता । यदि इस वंश के लोग गुप्त राजवंश से सम्बन्धित होते तो इस अभिलेख में समुद्रगुप्त तथा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य जैसे प्रतापी राजाओं का उल्लेख अवश्य करते । उनका वंशज बताने में वे गर्व का अनुभव करते ।

(ii) तन्त्रीकामन्दक एक मध्यकालीन रचना है जिसे गुप्त-इतिहास के पुनर्निर्माण में सहायक नहीं मात्रा जा सकता ।

(iii) सिरपुर अभिलेख का चन्द्रगुप्त गुप्तवंशी नहीं प्रतीत होता क्योंकि दोनों की वंश परम्परायें अलग-अलग हैं ।

(iv) सभी विद्वान् इस मत के नहीं है कि लिच्छवि क्षत्रिय थे । पालि ग्रन्थों में उन्हें ‘खत्तिय’ कहा गया है जो राजसत्ता का सूचक है । मनु ने उन्हें ‘व्रात्य’ (धर्मच्युत) कहा है जो सावित्री के अधिकार से वंचित एवं संस्कारों से विहीन होते थे ।

ऐसा लगता है कि उनकी राजनैतिक प्रभुता के कारण ही उन्हें ‘क्षत्रिय’ स्वीकार कर लिया गया था । पुनश्च यदि लिच्छवि क्षत्रिय रहे भी ही तो भी हम गुप्तों को उनके साथ वैवाहिक सम्बन्धाधार पर क्षत्रिय नहीं मान सकते क्योंकि प्राचीन भारत में अनुलोम विवाह शास्त्रसंगत था जिसके अनुसार कन्या अपने से उच्च वर्ण में ब्याही जाती थी । अत: इन तर्कों के आलोक में गुप्तों को क्षत्रिय मानने का मत ज्यादा सबल नहीं प्रतीत होता ।

4. ब्राह्मण होने का मत:

गुप्तों की उत्पत्ति के विषय में जितने भी मत दिये गये हैं उनमें उनको ब्राह्मण जाति से सम्बन्धित करने का मत कुछ तर्कसंगत प्रतीत होता है । यहाँ उल्लेखनीय है कि गुप्तवंशी लोग ‘धारण’ गोत्र के थे । इसका उल्लेख चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती गुप्ता ने अपने पूना ताम्रपत्र में किया है ।

यह गोत्र उसके पिता का ही था क्योंकि उसका पति वाकाटक नरेश रुद्रसेन द्वितीय ‘विष्णुवृद्धि’ गोत्र का ब्राह्मण था । यह गोत्र ब्राह्मणों का था । हेमचन्द्र रायचौधरी ‘धारण’ का तादात्म्य शुंग शासक अग्निमित्र की प्रधान महिषी धारिणी, जिसका उल्लेख कालिदास के मालविकाग्निमित्र में मिलता है, से स्थापित करते हुये यह प्रतिपादन करते है कि गुप्त लोग उसी के वंशज थे ।

किन्तु इस प्रकार के निष्कर्ष के लिये कोई प्रमाण नहीं है । स्कन्दपुराण में ब्राह्मणों के चौबीस गोत्र गिनाये गये हैं जिनमें बारहवाँ गोत्र ‘धारण’ है । इस ग्रन्थ में धारण गोत्रीय ब्राह्मणों की जिन चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख हुआ है वे सभी गुप्त सम्राटों के व्यवहार एवं चरित्र में देखी जा सकती है ।

दशरथ शर्मा जैसे कुछ विद्वान् यह मत रखते हैं कि प्राचीन भारत में लोग अपने पुरोहित का गोत्र भी धारण कर लेते थे । अत: संभव है प्रभावती गुप्ता का ‘धारणगोत्र’ उसके पिता का न होकर किसी पुरोहित का हो ।

किन्तु जैसा कि मनुस्मृति के टीकाकार मेधातिथि ने स्पष्ट किया है, केवल क्षत्रिय तथा वैश्य वर्ण के लोग ही अपने पुरोहित का गोत्र धारण करते थे, न कि ब्राह्मण । प्रभावती गुप्ता चूँकि ब्राह्मण वर्ण की थी, अत: उसके द्वारा अपने पुरोहित के गोत्र को धारण किये जाने का प्रश्न नहीं उठता ।

कदम्बवंशी राजा काकुत्सवर्मा के तालगुण्ड (मैसूर) अभिलेख से पता चलता है कि उसने अपनी एक पुत्री का विवाह गुप्तकुल (गुप्तादिपार्त्थिवकुलानि) में किया था । कदम्बवंशी लोग मानव्य गोत्रीय ब्राह्मण थे तथा उन्होंने अपने को हारीत का वंशज बताया है ।

इस वंश के संस्थापक मयूरशर्मा को कौटिल्य की प्रकृति का रूढ़िवादी ब्राह्मण कहा गया है । कदम्ब नरेश ‘धर्ममहाराज’ एवं ‘धर्ममहाराजाधिराज’ की उपाधियाँ धारण करते थे । इस कुल की कन्याओं का विवाह वाकाटक तथा गंग जैसे ब्राह्मण कुलों में सम्पन्न हुआ था ।

हमें कोई भी प्रमाण ऐसा नहीं मिलता जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि कदम्ब कुल की कोई कन्या किसी ब्राह्मणेतर कुल में ब्याही गयी थी । यह कहा जा सकता है कि यदि गुप्त लोग ब्राह्मण नहीं होते तो यह वैवाहिक सम्बन्ध प्रतिलोम विवाह की कोटि में आता जिसमें कन्या अपने से निम्न वर्ण में दी जाती है ।

इस प्रकार का विवाह स्मृति-ग्रन्थों में अति निन्दनीय कहा गया है । गुप्तकाल में प्रतिलोम विवाहों के उदाहरण बहुत कम प्राप्त होते हैं । कदम्बवंशी लोग जो उच्चकुल के ब्राह्मण (द्विजोत्तम) थे, अपने व्यवहार द्वारा शास्त्रोल्लंघन नहीं कर सकते थे ।

संदेह किया जा सकता है कि गुप्तों की शक्ति से डर कर अथवा उनकी समृद्धि से प्रभावित होकर कदम्बों ने शास्त्रोल्लंघन किया होगा । किन्तु हम जानते हैं कि समुद्रगुप्त के अतिरिक्त किसी भी गुप्तवंशी शासक ने सुदूर दक्षिण में अभियान नहीं किया ।

अत: कदम्बों द्वारा उनकी शक्ति से भयभीत होने का प्रश्न नहीं उठता । उनकी रूढ़िवादिता तथा धार्मिक कट्टरता को देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने समृद्धि के आगे धर्म का परित्याग किया होगा । पुनश्च गुप्तवंश की कन्याओं का विवाह भी ब्राह्मण में ही हुआ था । प्रभावतीगुप्ता वाकाटक कुल में ब्याही गयी थी । छठी शताब्दी के बौद्ध लेखक परमार्थ ने बताया कि बालादित्य ने अपनी बहन का विवाह वसुराट नामक ब्राह्मण से किया था ।

अत: गुप्तों को ब्राह्मण मानना ही अधिक समीचीन लगता है । ऐसा प्रतीत होता है कि अपनी अतिशय उदारता एवं धर्म-सहिष्णुता की नीति के कारण ही गुप्त राजाओं ने अपने अभिलेखों में अपने वर्ण का उल्लेख करना आवश्यक नहीं समझा है ।

इस प्रकार इन विभिन्न मतों की समीक्षा करने के पश्चात् हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि गुप्तों की जाति का प्रश्न हमारे ज्ञान की वर्तमान अवस्था में असंदिग्ध रूप से हल नहीं किया जा सकता । हमें संभावित रूप से उन्हें क्षत्रिय अथवा ब्राह्माण वर्षों में किसी एक के साथ सम्बद्ध करना चाहिए । बहुत संभव है वे ब्राह्मण ही रहे हों ।


5. गुप्त राजवंश के मूल निवास-स्थान (Original Habitat Places of Gupta Dynasty):

उत्पत्ति के ही असमान गुप्तों के मूल निवास स्थान का प्रश्न भी बहुत कुछ अंशों में अनुमानपरक ही है ।

इस सम्बन्ध में कुछ प्रमुख मत इस प्रकार हैं:

1. बंगाल:

एलन, गांगुली तथा रमेश चन्द्र मजूमदार जैसे विद्वान् गुप्तों का मूल निवास-स्थान बंगाल में निर्धारित करते हैं । इस मत का मुख्य आधार चीनी यात्री इत्सिग का यात्रा विवरण है । यह लिखता है कि- ‘उसके 500 वर्षों पूर्व हुई-लुन नामक एक चीनी यात्री नालन्दा आया था ।

यहाँ चिलिकितो (श्रीगुप्त) नामक राजा ने चीनी भिक्षुओं के लिये मन्दिर बनवाया था तथा उसके निर्वाह के लिये चौबीस गाँवों की आमदनी दान में दिया था । यह ‘चिन का मन्दिर’ कहा जाता था और मि-लि-किया-सि-किया-पो-नो (मृगशिखावन) नामक मठ के पास स्थित था जिसकी दूरी नालन्दा से 40 योजन पूर्व की ओर गंगा नदी के किनारे पड़ती थी ।’

इन विद्वानों ने श्रीगुप्त को गुप्तवंश का संस्थापक माना है । गांगुली का विचार कि इत्सिग के आधार पर यदि नालन्दा से पूर्व की ओर गंगानदी के किनारे की 40 योजन (240 मील) वाली दूरी नापी जाये तो यह स्थान आधुनिक पश्चिमी बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में पड़ेगा । यहीं गुप्तवंश के संस्थापक का मूल निवास था । मजूमदार के मतानुसार हमें इसे एक सम्भावित परिकल्पना के रूप में मान लेना चाहिए ।

परन्तु इस मत के विरुद्ध दो बातें कही जा सकती हैं:

(i) गुप्तवंश के संस्थापक का नाम ‘महाराज गुप्त’ था जबकि चिलिकितो का भारतीय रूपान्तर श्रीगुप्त होता है ।

(ii) चिलिकितो (श्रीगुप्त) का समय इत्सिग के अनुसार उसके 500 वर्षों पूर्व था । इत्सिग 671 ईस्वी में भारत आया था ।

अत: उसने जिस शासक की चर्चा की है उसका समय 171 ईस्वी (671-500 ईस्वी) हुआ । गुप्तवंश के संस्थापक का काल 275 ईस्वी के पूर्व नहीं हो सकता । अत: श्रीगुप्त तथा महाराजगुप्त दोनों भिन्न-भिन्न व्यक्ति प्रतीत होते हैं ।

इस प्रकार हम गुप्तों का आदि राज्य बंगाल में नहीं मान सकते । इस प्रसंग में एक अन्य विचारणीय बात यह है कि चिलिकितों द्वारा चौबीस गाँवों की आय दान में दिया जाना यह सिद्ध करता है कि चह एक शक्तिशाली तथा समृद्ध शासक था ।

किन्तु यह स्थिति श्रीगुप्त की स्थिति से मेल नहीं खाती जो पात्र एक साधारण तथा सम्भवत: अधीनस्थ राजा था । जे. एस. नेगी के अनुसार यह गुप्तवंश का कोई महान् सम्राट था । ऐसा लगता है कि चीनी यात्री ने राजा का व्यक्तिगत नाम नहीं दिया है, अपितु मात्र उसके वंश का उल्लेख किया है जिसका अर्थ है- ‘गुप्तवंश का प्रसिद्ध शासक ।’ अत: गुप्तों के मूल स्थान के निर्धारण में इत्सिग के विवरण को आधार नहीं बनाया जा सकता ।

2. मगध:

पुराणों पर दृष्टिपात करने से ज्ञात होता है कि गुप्तों का आदि सम्बन्ध मगध से था । विन्टरनित्ज का विचार है कि विष्णुपुराण गुप्तकालीन रचना है, अत: इसे गुप्तों के इतिहास के सम्बन्ध में प्रामाणिक माना जा सकता है ।

विष्णुपुराण की कुछ पांडुलिपियों में ‘अनुगंगा प्रयागं मागधा: गुप्ताश्च भोक्ष्यन्ति’ अर्थात् प्रयाग तथा गंगा के किनारे के प्रदेश पर मगध के गुप्त लोग शासन करेंगे, उल्लिखित मिलता है । ढाका से प्राप्त इस पुराण की तीन पाण्डुलिपियों में ‘अनुगंग प्रयागं च मागधा: गुप्ताश्च मागधान् भीक्ष्यन्ति’ उल्लेख है ।

दोनों पाठों का अन्तर इस प्रकार है:

(i) प्रथम पाठ में ‘अगुगंगा’ तथा द्वितीय पाठ में ‘अनुगंग’ मिलता है ।

(ii) द्वितीय पाठ में गुप्ताश्च तथा भोक्ष्यन्ति के बीच ये ‘मागधान्’ शब्द निरर्थक जुड़ा हुआ है क्योंकि गुप्ताश्च का विशेषण मागधा: है । अत: प्रथम पाठ अधिक शुद्ध लगता है ।

उपर्युक्त दोनों ही पाठों में ‘मागधा:’ शब्द ‘गुप्ताश्य’ के विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुआ है । इससे स्पष्ट है कि या तो मगध गुप्तों का मूल निवास था या यह उनके राज्य में सम्मिलित था । वायुपुराण में किसी गुप्तशासक की साम्राज्य सीमा का वर्णन करते हुए बताया गया है कि ‘गंगा नदी के किनारे प्रयाग तथा साकेत और मगध के प्रदेशों का गुप्तवंश के लोग उपभोग करेंगे’ ।

रायचौधरी का विचार है कि प्रयाग तथा कोशल (साकेत) के प्रदेश गुप्तवंश के तीसरे शासक महाराजाधिराज चन्द्रगुप्त प्रथम द्वारा जीतकर गुप्त राज्य में मिलाये गये थे । उत्तरी बिहार को चन्द्रगुप्त ने लिच्छवियों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करके प्राप्त किया था । इस प्रकार ऐसा निष्कर्ष निकलता है कि गुप्तों का आदि राज्य मगध में ही था । मगध के साथ उनके मूल सम्बन्ध को ध्यान में रखकर ही पुराण उन्हें ‘मागध गुप्त’ कहते हैं ।

3. पूर्वी उत्तर-प्रदेश:

एस. आर. गोयल ने गुप्तों की मूल भूमि का प्रश्न पुरातात्विक आधार पर हल करने का प्रयास किया है । उनके अनुसार किसी भी वंश के प्रारम्भिक लेख तथा सिक्के प्रायः उसी स्थान से प्राप्त होते हैं जो उसका आदि निवास होता है ।

बख्त्री-यवन शासकों के सिक्के बैक्ट्रिया से मिलते हैं । कनिष्क के अधिकांश लेख उत्तरी-पश्चिमी क्षेत्र में तथा वाकाटकों के लेख भी उनके आदि स्थान से ही मिले हैं । चूँकि गुप्तवंश के प्रारम्भिक लेख तथा सिक्के पूर्वी उत्तर-प्रदेश से प्राप्त हुए हैं, अत: उनका मूल निवास स्थान इसी क्षेत्र में कहीं रहा होगा ।

इस प्रसंग में उल्लेखनीय है कि गुप्तों के प्राचीनतम स्वर्ण सिक्के ‘चन्द्रगुप्त कुमारदेवी प्रकार’ हैं । इनमें से अधिकांश पूर्वी उत्तर प्रदेश से ही मिले हैं । प्रारम्भिक गुप्त लेखों में आठ इसी क्षेत्र से मिलते हैं । गुप्तों का सबसे महत्वपूर्ण लेख प्रयाग से मिला है जो समुद्रगुप्त की सैनिक उपलब्धियों का विवरण देता है । इस प्रकार का लेख शासक की स्थान के प्रति अभिरुचि का सूचक है ।

इस कोटि का दूसरा लेख यशोधर्मन् का मन्दसोर लेख है जो उसी स्थान से मिलता है जो उसकी शक्ति का केन्द्र था । पूर्वी उत्तर प्रदेश से गुप्तों के जो लेख मिले हैं वे न केवल संख्या में अधिक हैं, अपितु वे अन्य स्थानों के लेखों से प्राचीनतर भी हैं ।

इससे गुप्तों का आदि सम्बन्ध इस भाग से, बंगाल अथवा मगध की अपेक्षा कहीं अधिक अच्छे ढंग से सिद्ध किया जा सकता है । प्रयाग प्रशस्ति के आधार पर यह कहा जा सकता है कि गुप्तों का मूल निवास-स्थान इसी भाग में रहा होगा ।

किन्तु इस मत के विरुद्ध यह कहा जा सकता है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश से गुप्तों के लेख सबसे पहले चन्द्रगुप्त द्वितीय तथा कुमारगुप्त प्रथम के समय से ही मिलते हैं । प्रारम्भिक काल का कोई लेख इस भाग से प्राप्त नहीं होता ।

समुद्रगुप्त, रामगुप्त तथा चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय के अधिकांश लेख पूर्वी मालवा क्षेत्र से मिले हैं । जहाँ तक प्रयाग प्रशस्ति का प्रश्न है यह एक अशोक-स्तम्भ है जो मूलतः कौशाम्बी में गड़वाया गया था और कालान्तर में इसी के ऊपर समुद्रगुप्त ने अपना शेख अंकित करवा दिया ।

अत: इसके आधार पर गुप्तों के मूल स्थान की समस्या हल नहीं की जा सकती । इस प्रकार उत्पत्ति के ही समान गुप्तों के मूल निवास स्थान का प्रश्न भी स्पष्ट प्रमाणों के अभाव में विवाद का विषय बना हुआ है ।


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