अशोक: प्रारंभिक जीवन, साम्राज्य, बौद्ध धर्म और धार्मिक नीति | Read this article in Hindi to learn about:- 1. अशोक का प्रारम्भिक जीवन (Early Life of Ashoka) 2. अशोक के कलिंग का युद्ध तथा उसके परिणाम (Ashok’s Kalinga War and Its Consequences) 3. अशोक और बौद्ध धर्म (Ashoka and Buddhism) and Other Details.

Contents:

  1. अशोक का प्रारम्भिक जीवन (Early Life of Ashoka)
  2. अशोक के कलिंग का युद्ध तथा उसके परिणाम (Ashok’s Kalinga War and Its Consequences)
  3. अशोक और बौद्ध धर्म (Ashoka and Buddhism)
  4. अशोक के धार्मिक नीति (Religious Policy of Ashoka)
  5. अशोक के साम्राज्य विस्तार (Empire Expansion of Ashoka)
  6. अशोक की परराष्ट्र नीति (Ashok’s Foreign Policy)
  7. अशोक का मूल्यांकन (Evaluation of Ashoka)
  8. अशोक का अन्त (End of Ashok)


1. अशोक का प्रारम्भिक जीवन (Early Life of Ashoka):

बिन्दुसार की मृत्यु के पश्चात् उसका सुयोग्य पुत्र अशोक विशाल मौर्य साम्राज्य की गद्दी पर बैठा । अशोक विश्व इतिहास के उन महानतम सम्राटों में अपना सर्वोपरि स्थान रखता है जिन्होंने अपने युग पर अपने व्यक्तित्व की छाप लगा दी है तथा भावी पीढ़ियों जिनका नाम अत्यन्त श्रद्धा एवं कृतज्ञता के साथ स्मरण करती हैं । नि:सन्देह उनका शासन काल भारतीय इतिहास के उज्ज्वलतम पृष्ठ का प्रतिनिधित्व करता है ।

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यद्यपि अशोक के बहुत से अभिलेख प्राप्त हुए हैं तथापि हमें उसके प्रारम्भिक जीवन के लिये मुख्यतः बौद्ध साक्ष्यों-दिव्यावदान तथा सिहंली अनुश्रुतियों पुर ही निर्भर करना पड़ता है । इनसे ऐसा पता चलता है कि अशोक अपने पिता के शासनकाल में अवन्ति (उज्जयिनी) का उपराजा (वायसराय) था ।

बिन्दुसार की बीमारी का समाचार सुनकर वह पाटलिपुत्र आया । सिंहली अनुश्रुतियों से पता चलता है कि उसने अपने 99 भाइयों की हत्या कर राजसिंहासन प्राप्त किया । परन्तु उत्तराधिकार के इस युद्ध का समर्थन स्वतन्त्र प्रमाणों से नहीं होता है ।

सिंहली अनुश्रुतियों में दी गयी कथायें प्रामाणिक नहीं है तथा अशोक के अभिलेखों के साक्ष्य से उनमें से अधिकांश का खंडन हो जाता है । उदाहरण के लिये इनमें अशोक को उसके 99 भाइयों का हत्यारा बताया गया है परन्तु अशोक के पाँचवें अभिलेख में उसके जीवित भाइयों के परिवार का उल्लेख मिलता है ।

अभिलेखीय साक्ष्य से यह भी ज्ञात होता है कि अशोक के शासन के तेरहवें वर्ष में उसके अनेक भाई तथा बहन जीवित थे जो साम्राज्य के विभिन्न भागों में निवास करते थे । उसके कुछ भाई विभिन्न प्रदेशों के वायसराय भी थे ।

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पुन: बौद्ध ग्रन्थ अशोक के बौद्ध होने के पूर्व के जीवन को हिंसा, अत्याचार तथा निर्दयता से युक्त बताते हैं और उसे ‘चण्ड अशोक’ कहते हैं । परन्तु ऐसे विवरणों की सत्यपरता संदेहास्पद है । संभव है बौद्ध लेखकों ने अपने धर्म की प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिये अशोक के प्रारम्भिक जीवन के विषय में ऐसी अनर्गल बातें गढ़ी हों ।

दिव्यावदान में अशोक की माता का नाम सुभद्राड्गी मिलता है जो चम्पा के एक ब्राह्मण की कन्या थी । दक्षिणी परम्पराओं में उसे ‘धर्मा’ कहा गया है जो प्रधानरानी (अग्रमहिषी) थी । कुछ विद्वान् उसे सेल्युकस की कन्या से उत्पन्न बताते है । परन्तु इस विषय में निश्चित रूप से कुछ भी कह सकना कठिन है ।

सिंहली परम्पराओं से पता चलता है कि उज्जयिनी जाते हुए अशोक विदिशा में रुका जहाँ उसने एक श्रेष्ठी की पुत्री ‘देवी’ के साथ विवाह कर लिया । महाबोधिवंश में उसका नाम ‘वेदिशमहादेवी’ मिलता है तथा उसे शाक्य जाति का बताया गया है ।

उसी से अशोक के पुत्र महेन्द्र तथा पुत्री संघमित्रा का जन्म हुआ था और वही उसकी पहली पत्नी थी । दिव्यावदान में उसकी एक पत्नी का नाम तिष्यरक्षिता मिलता है । उसके लेख में केवल उसकी पत्नी करुवाकि का ही नाम है जो तीवर की माता थी ।

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दिव्यावदान में उसके सुसीम तथा विगताशोक नामक दो अन्य भाइयों का उल्लेख मिलता है । सिंहली परम्पराओं में उन्हें सुमन तथा तिष्य कहा गया है । इसके अतिरिक्त उसके और भी भाई-बहन रहे होंगे । ऐसा प्रतीत होता है कि इन राजकुमारों के पारस्परिक सम्बन्ध सौहार्दपूर्ण नहीं थे ।

कुछ कथाओं के अनुसार बिन्दुसार स्वयं अशोक को राजा न बनाकर सुसीम को राजगद्दी देना चाहता था । बौद्ध परम्परायें इस बात की पुष्टि करती हैं कि अशोक ने बिन्दुसार की मृत्यु के बाद अमात्यों की सहायता से राजगद्दी हथिया लिया तथा उत्तराधिकार के युद्ध में अन्य सभी राजकुमारों की हत्या कर दी ।

उत्तरी बौद्ध परम्पराओं में यह युद्ध केवल अशोक तथा उसके बड़े भाई सुसीम के बीच बताया गया है किन्तु दक्षिणी बौद्ध परम्पराओं के अनुसार अशोक ने अपने 99 भाइयों की हत्या की थी । प्रथम विवरण ही तर्कसंगत प्रतीत होता है ।

राजगद्दी प्राप्त होने के पश्चात् अशोक को अपनी आन्तरिक स्थिति सुदृढ़ करने में चार वर्षों का समय लग गया । इसी कारण राज्यारोहण के चार वर्षों बाद (269 ई. पू. में) अशोक का विधिवत् राज्याभिषेक हुआ । उसके अभिलेखों में अभिषेक के काल से ही राज्यगणना की गयी है ।

अशोक 273 ईसा पूर्व के लगभग मगध के राजसिंहासन पर बैठा । उसके अभिलेखों में सर्वत्र उसे ‘देवानंपिय’, ‘देवानंपियदसि’ (देवताओं का प्रिय अथवा देखने में सुन्दर) तथा ‘राजा’ आदि की उपाधियों से सम्बोधित किया गया है । इन उपाधियों से उसकी महत्ता सूचित होती है । मास्की तथा गूजर्रा के लेखों में उसका नाम ‘अशोक’ मिलता है । पुराणों में उसे ‘अशोक वर्धन’ कहा गया है ।


2. अशोक के कलिंग का युद्ध तथा उसके परिणाम (Ashok’s Kalinga War and Its Consequences):

अपने राज्याभिषेक के बाद अशोक ने अपने पिता एवं पितामह की दिग्विजय की नीति को जारी रखा । इस समय कलिंग का राज्य मगध साम्राज्य की प्रभुसत्ता को चुनौती दे रहा था । कलिंग को महापदमनन्द ने जीतकर मगध साम्राज्य में मिला लिया था ।

चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में यह अवश्य ही मगध के अधिकार में रहा होगा क्योंकि हम यह स्वीकार नहीं कर सकते कि चन्द्रगुप्त जैसा वीर तथा महत्वाकांक्षी शासक, जिसने यूनानियों को पराजित किया एवं नन्दों की शक्ति का उन्मूलन किया, कलिंग की स्वाधीनता को सहन कर सकता ।

ऐसी स्थिति में यही मानना तर्कसंगत लगता है कि बिन्दुसार के शासन काल में किसी समय कलिंग ने अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दिया था । अशोक जैसे महत्वाकांक्षी शासक के लिये यह असह्य था । रोमिला थापर का विचार है कि कलिंग उस समय व्यापारिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण राज्य था तथा अशोक की दृष्टि उसके समृद्ध व्यापार पर भी थी ।

अत: अपने अभिषेक के आठवें वर्ष (261 ईसा पूर्व) उसने कलिंग के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया । कलिंग का प्राचीन राज्य वर्तमान दक्षिणी उड़ीसा में स्थित था । कलिंग युद्ध तथा उसके परिणामों के विषय में अशोक के तेरहवें अभिलेखों से विस्तृत सूचना प्राप्त होती है ।

इससे स्पष्ट होता है कि यह युद्ध बड़ा भयंकर था जिसमें भीषण रक्तपात तथा नरसंहार की घटनायें हुयीं । अन्ततः अशोक इस राज्य को जीतकर अपने साम्राज्य में मिलाने में सफल रहा । दुर्भाग्यवश किसी भी साक्ष्य से हमें कलिंग के शासक का नाम ज्ञात नहीं होता है ।

तेरहवें शिलालेख में इस युद्ध के भयानक परिणामों का इस प्रकार उल्लेख हुआ है- ‘इसमें एक लाख 50 हजार व्यक्ति बन्दी बनाकर निर्वासित कर दिये गये, एक लाख लोगों की हत्या की गयी तथा इससे भी कई गुना अधिक मर गये ।’

युद्ध में भाग न लेने वाले ब्राह्मणों, श्रमणों तथा गृहस्थियों को अपने सम्बन्धियों के मारे जाने से महान् कष्ट हुआ । सम्राट ने इस भारी नर संहार को स्वयं अपनी आँखों में देखा था ।

इस प्रकार एक स्वतन्त्र राज्य की स्वाधीनता का अन्त हुआ । कलिंग मगध साम्राज्य का एक प्रान्त बना लिया गया तथा राजकुल का कोई राजकुमार वहाँ का उपराजा (वायसराय) नियुक्त कर दिया गया ।

कलिंग में दो अधीनस्थ प्रशासनिक केन्द्र स्थापित किये गये:

(i) उत्तरी केन्द्र (राजधानी-तोसलि) तथा

(ii) दक्षिणी केन्द्र (राजधानी-जौगढ़) ।

कलिंग ने फिर कभी स्वतन्त्र होने की चेष्टा नहीं की । मौर्य साम्राज्य की पूर्वी सीमा बंगाल की खाड़ी तक विस्तृत हो गयी । यह कलिंग युद्ध का तात्कालिक लाभ था । परन्तु कलिंग-युद्ध की हृदय-विदारक हिंसा एवं नरसंहार की घटनाओं ने अशोक के हृदय-स्थल को स्पर्श किया और उसके दूरगामी परिणाम हुये ।

कलिंग युद्ध पर टिप्पणी करते हुये हेमचन्द्र रायचौधरी ने लिखा है- ‘मगध तथा समस्त भारत के इतिहास में कलिंग की विजय एक महत्वपूर्ण घटना थी । इसके बाद मौर्यों की जीतों तथा राज्य-विस्तार का वह दौर समाप्त हुआ जो बिम्बिसार द्वारा अंग राज्य को जीतने के बाद से प्रारम्भ हुआ था । इसके बाद एक नये युग का सूत्रपात हुआ और यह युग था- शान्ति, सामाजिक प्रगति तथा धार्मिक प्रचार का । यहीं से सैन्य विजय तथा दिग्विजय का युग समाप्त हुआ तथा आध्यात्मिक विजय और धम्मविजय का युग प्रारम्भ हुआ ।’

इस प्रकार कलिंग युद्ध ने अशोक के हृदय में महान् परिवर्तन उत्पन्न कर दिया । उसका हृदय मानवता के प्रति दया एवं करुणा से उद्वेलित हो गया तथा उसने युद्ध-क्रियाओं को सदा के लिये बन्द कर देने की प्रतिज्ञा की ।

यह अपने आप में एक आश्चर्यजनक घटना थी जो विश्व इतिहास में सर्वथा बेजोड़ है । इस समय से वह बौद्ध बन गया तथा उसने अपने साम्राज्य के सभी उपलब्ध साधनों को जनता के भौतिक एवं नैतिक कल्याण में नियोजित कर दिया ।


3. अशोक और बौद्ध धर्म (Ashoka and Buddhism):

अपने शासन के प्रारम्भिक वर्षों में अशोक ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था । रजतरंगिणी के आधार पर यह कहा जा सकता है कि वह भगवान शिव का उपासक था । अन्य हिन्दू शासकों की भाँति वह अपने रिक्त समय में विहार यात्राओं पर निकलता था जहाँ मृगया में विशेष रुचि लेता था ।

अपनी प्रजा के मनोरंजन हेतु वह विभिन्न प्रकार की गोष्ठियों एवं प्रीतिभोजों का भी आयोजन करता था जिसमें मांस आदि बड़े चाव से खाये जाते थे । इसके लिये राजकीय पाकशाला में सहस्त्रों पशु-पक्षी प्रति-दिन मारे जाते थे । सिंहली अनुश्रुतियों-दीपवंश और महावंश के अनुसार अशोक को उसके शासन के चौथे वर्ष ‘निग्रोध’ नामक सात वर्षीय भिक्षु ने बौद्ध मत में दीक्षित किया ।

तत्पश्चात् मोग्गलिपुत्ततिस्स के प्रभाव से वह पूर्णरूपेण बौद्ध बन गया । दिव्यावदान अशोक को बौद्ध धर्म में दीक्षित करने का श्रेय ‘उपगुप्त’ नामक बौद्ध भिक्षु को प्रदान करता है । इन विरोधी मतों में कौन अधिक सत्य है, इसका निर्धारण कर सकना कठिन है ।

अशोक के अभिलेख, बौद्ध परम्पराओं के विपरीत, उसके बौद्ध होने का सम्बन्ध कलिंग युद्ध से जोड़ते हैं । अशोक अपने तेरहवें शिलालेख में (जिसमें कलिंग युद्ध की घटनाओं का वर्णन है) यह घोषणा करता है कि- ‘इसके बाद देवताओं का प्रिय धम्म की सोत्साह परिरक्षा, सोत्साह अभिलाषा एवं सोत्साह शिक्षा करता है ।’

कलिंग युद्ध उसके अभिषेक के आठवें वर्ष की घटना है । अत: कहा जा सकता है कि इसी वर्ष अशोक ने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था । संभव है उसका झुकाव कुछ पहले से ही इस धर्म की ओर रहा हो तथा इस युद्ध के बाद उसने पूर्णरूप से बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया हो ।

प्रथम लघु शिलालेख से ज्ञात होता है कि बौद्ध धर्म ग्रहण करने के ढाई वर्ष तक वह साधारण उपासक था तथा उसने इस धर्म के प्रचार के लिये कोई उद्योग नहीं किये ।

इसके पश्चात् एक वर्ष से कुछ अधिक समय तक वह संघ के साथ रहा तथा उसने इस धर्म की उन्नति के लिये इतनी अधिक कर्मठता दिखाई कि उसे धम्म की वृद्धि पर स्वयं आश्चर्य हुआ तथा वह दावा करने लगा कि धम्म की इतनी उन्नति इसके पहले कभी नहीं हुई ।

कुछ विद्वानों ने ‘संघ की शरण लेने’ (संघ उपेते) का अर्थ यह लगाया है कि अशोक भिक्षुवस्त्र धारण कर संघ में प्रवेश कर गया तथा वह संघ एवं राज्य दोनों का प्रधान बन गया ।

परन्तु इस प्रकार के निष्कर्ष से सहमत होना कठिन है क्योंकि ऐसी स्थिति में वह स्पष्ट रूप से अपने लेखों में इसका उल्लेख करता है । ‘संघ उपेते’ का वास्तविक अर्थ ‘संघ में प्रविष्ट होने के लिये उन्मुख होना’ है । बौद्ध साहित्य में ऐसे व्यक्ति को “भिक्षु गतिक” कहा गया है ।

ऐसा प्रतीत होता है कि एक वर्ष तक साधारण उपासक रह चुकने के बाद वह बौद्ध संघ के विद्वान भिक्षुओं के घनिष्ठ सम्पर्क में आया तथा उनके उपदेशों के फलस्वरूप अशोक के हृदय में बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों के प्रति अधिक श्रद्धा उत्पन्न हो गयी ।

उसने सार्वजनिक रूप से अपने को संघ का अनुयायी घोषित कर दिया तथा संघ की सीधी सेवा करने का व्रत लिया । अपने इस नवीन मत-परिवर्तन की सूचना देने के लिये उसने अपने अभिषेक के दसवें वर्ष सम्बोधि (बोधगया) की यात्रा की ।

बौद्ध धर्म ग्रहण कर लेने के पश्चात् अशोक के जीवन में अनेक परिवर्तन उत्पन्न हो गये । उसने अहिंसा तथा सदाचार पर चलना प्रारम्भ कर दिया । उसने मांस-भक्षण त्याग दिया तथा राजकीय भोजनालयों में मारे जाने वाले पशुओं की संख्या कम कर दी गयी है ।

आखेट तथा विहार यात्रायें रोक दी गयी और उनके स्थान पर धर्म यात्राओं का प्रारम्भ हुआ । इन यात्राओं के दौरान वह देश के विभिन्न भागों के लोगों से मिलता था तथा उन्हें धम्म के विषय में बताता था । वह महात्मा बुद्ध के चरण-चिन्हों से पवित्र हुए स्थानों में गया तथा उनकी पूजा की ।

सर्वप्रथम बोधगया की यात्रा हुई । इसके वाद अपने अभिषेक के बीसवें वर्ष वह लुम्बिनी ग्राम में गया । उसने वहाँ पत्थर की सुदृढ़ दीवार बनवाई तथा शिला-स्तम्भ खड़ा किया । चूँकि वहाँ भगवान बुद्ध का जन्म हुआ था, अत: लुम्बिनी ग्राम कर-मुक्त घोषित किया गया तथा केवल 1/8 भाग लेने की घोषणा की गयी ।

अशोक ने नेपाल की तराई में स्थित निग्लीवा में कनकमुनि (एक पौराणिक बुद्ध) के स्तूप को सम्बर्द्धित एवं द्विगुणित करवाया । अनुश्रुतियाँ उसे 84 हजार स्तूपो के निर्माता के रूप में स्मरण करती हैं ।

अशोक के अभिलेख इस बात के स्पष्ट प्रमाण प्रस्तुत करते हैं कि वह बौद्ध मतानुयायी था, अत: अब किसी को उसके बौद्ध होने में संदेह करने की बिल्कुल गुंजाइश नहीं है । इसका सबसे सबल प्रमाण उसका भाब्रू (वैरट-राजस्थान) से प्राप्त लघु-शिलालेख है जिसमें अशोक स्पष्टतः ‘बुद्ध, धम्म तथा संघ’ का अभिवादन करता है ।

इस लेख के साम्प्रदायिक स्वरूप के विषय में संदेह नहीं किया जा सकता । उसे बौद्ध सिद्ध करने वाला दूसरा अभिलेख उसका शासनादेश है जो सारनाथ, साँची तथा कौशाम्बी के लघु-स्तम्भों पर उत्कीर्ण मिलता है । इसमें अशोक बौद्ध धर्म के रक्षक के रूप में हमारे सामने आता है ।

साँची के लघु स्तम्भलेख में वह बौद्ध संघ में फूट डालने वाले भिक्षुओं तथा भिक्षुणियों को चेतावनी देता है- “जो कोई भिक्षु या भिक्षुणी संघ को भंग करेगा, वह श्वेत वस्त्र पहनाकर अयोग्य स्थान पर रखा जायेगा । इस प्रकार यह आदेश भिक्षुसंघ और भिक्षुणीसंघ में सूचित किया जाना चाहिए क्योंकि मेरी इच्छा है कि संघ समग्र होकर चिरस्थायी हो जाय ।”

इसके अतिरिक्त किसी भी धार्मिक अथवा लौकिक ग्रन्थ से अशोक का किसी बौद्धेतर धर्म से सम्बन्धित होना सूचित नहीं होता । यहाँ उल्लेखनीय है कि अशोक आजीवन उपासक ही रहा और वह भिक्षु अथवा संघाध्यक्ष कभी नहीं बना । संघ-भेद रोकने का आदेश भी उसने राजा की हैसियत से ही दिया था ।

इस समय बौद्ध संघ में कुछ ऐसे अवांछनीय तत्व प्रविष्ट हो गये थे जिनसे संघ की व्यवस्था गड़बड़ हो रही थी और संघ की कार्यवाही को सुचारु रूप से चलाने के लिये इन तत्वों का निष्कासन आवश्यक था । अत: विवश होकर संघ ने अशोक से सहायता की माँग की और उसने यह सहायता प्रदान किया ।

इस प्रकार की सहायता वह किसी भी अन्य संस्था को दे सकता था जो इस प्रकार के बाहरी व्यक्तियों द्वारा आक्रान्त होती । महावंश से ज्ञात होता है कि अपने अभिषेक के 18वें वर्ष अशोक ने लंका के राजा के पास भेजे गये एक सन्देश में बताया था कि- ‘वह शाक्यपुत्र (गौतम बुद्ध) के धर्म का एक साधारण उपासक बन गया है ।’

अशोक ने सन्यास ग्रहण कर लिया हो, इस बात के भी पर्याप्त प्रमाण नहीं है । नीलकंठ शास्त्री के अनुसार लघुशिला लेख में जो ‘संघ-उप-ई’ पदावली मिलती है, वह इतनी अधिक संदिग्ध है कि उससे उसके सन्यास ग्रहण कर लेने की बात की पुष्टि नहीं होती ।

अशोक के समय तक पब्बजा (प्रवज्या-संन्यास) की प्रथा पर्याप्त दृढ़ हो चुकी थी । प्राचीन भारत के ऐतिहासिक काल में हमें किसी भी ऐसे राजा का नाम असंदिग्ध रूप से ज्ञात नहीं है जो एक ही समय भिक्षु भी हो तथा राजा के सभी विशेषाधिकारों का भी उपयोग करता रहे ।


4. अशोक के धार्मिक नीति (Religious Policy of Ashoka):

यद्यपि अशोक ने व्यक्तिगत रूप से बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया तथा पूर्णरूपेण आश्वस्त हो गया कि ‘जो कुछ भगवान बुद्ध ने कहा है वह शब्दश: सत्य है’, तथापि अपने विशाल साम्राज्य में उसने कहीं भी किसी दूसरे धर्म अथवा सम्प्रदाय के प्रति अनादर अथवा असहिष्णुता प्रदर्शित नहीं किया ।

उसके अभिलेख इस बात के साक्षी है कि अपने राज्य के विभिन्न मतों तथा सम्प्रदायों के प्रति वह सदैव उदार एवं सहनशील बना रहा है । उसने बलपूर्वक किसी को भी अपने मत में दीक्षित करने का प्रयास नहीं किया ।

सातवें शिलालेख में वह अपनी धार्मिक इच्छा व्यक्त करते हुए बताता है कि- ‘सब मतों के व्यक्ति सब स्थानों पर रह सकें क्योंकि वे सभी आत्म-संयम एवं हृदय की पवित्रता चाहते हैं ।’

इस कथन से स्पष्ट है कि अशोक ने यह भली-भांति समझ लिया था कि सभी धर्मों में सच्चाई का अंश विद्यमान है और यह समझ लेने पर उसका सभी मतों के प्रति उदार होना स्वाभाविक ही था ।

बारहवें शिलालेख में वह विभिन्न धर्मों के प्रति अपने दृष्टिकोण को और अधिक स्पष्ट करते हुए कहता है- ‘मनुष्य को अपने धर्म का आदर और दूसरे धर्म की अकारण निन्दा नहीं करनी चाहिये । एक न एक कारण से अन्य धर्मों का आदर करना चाहिये । ऐसा करने पर मनुष्य अपने सम्प्रदाय की वृद्धि करता है तथा दूसरे के सम्प्रदाय का उपकार करता है ।

इसके विपरीत करता हुआ वह अपने सम्प्रदाय को क्षीण करता तथा दूसरे के सम्प्रदाय का अपकार करता है । जो कोई अपने सम्प्रदाय के प्रति भक्ति और उसकी उन्नति की लालसा से दूसरे के धर्म की निन्दा करता है वह वस्तुतः अपने सम्प्रदाय की ही बहुत बड़ी हानि करता है । ….लोग एक दूसरे के धम्म को सुनें । इससे सभी सम्प्रदाय बहुश्रुत (अधिक ज्ञान वाले) होंगे तथा संसार का कल्याण होगा ।’

इन पंक्तियों से स्पष्ट है कि एक सच्चे अन्वेषक की भाँति उसने यह पता लगा लिया था कि विभिन्न मतों की संकीर्ण बुद्धि ही आपसी कलह एवं विवाद का कारण बनती है । अत: वह सबको उदार दृष्टिकोण अपनाने का उपदेश देता है ।

इस बात के प्रमाण हैं कि अशोक की दानशीलता से बौद्धेतर जनों एवं सम्प्रदायों को भी प्रभूत लाभ हुए । उसने बराबर (गया जिला) पहाड़ी पर आजीवक सम्प्रदाय के संन्यासियों के निवास के लिये कुछ गुफायें निर्मित करवायी थीं । यवनजातीय तुषास्प को अशोक ने काठियावाड़ प्रान्त का राज्यपाल नियुक्त किया था ।

राजतरंगिणी से पता चलता है कि कश्मीर में उसने विजयेश्वर नामक एक शैव मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया था तथा उसके भीतर दो समाधियों निर्मित करवाई थीं । इन उद्धरणों से अशोक की धार्मिक सहिष्णुता स्पष्टतः सिद्ध हो जाती है ।

रोमिला थापर का विचार है कि अशोक की- ‘धम्म-नीति’ सफल नहीं हुई । सामाजिक तनाव ज्यों-के-त्यों बने रहे, साम्प्रदायिक संघर्ष बराबर चलते रहे ।’ किन्तु इस प्रकार के मत से सहमत होना कठिन है ।

अशोक के काल में हमें किसी भी तनाव अथवा साम्प्रदायिक संघर्ष के स्पष्ट उदाहरण नहीं मिलते है । वस्तुतः यह उसकी उदार धार्मिक नीति का ही फल था कि वह अपने विशाल साम्राज्य में एकता स्थापित कर सकने में सफल रहा ।

नीलकण्ठ शास्त्री ने ठीक ही लिखा है कि- ‘अकबर के पूर्व अशोक पहला शासक था जिसने भारतीय राष्ट्र की एकता की समस्या का सामना किया । इसमें उसे अकबर से अधिक सफलता मिली थी क्योंकि उसको मानव-प्रकृति का बेहतर ज्ञान था । एक नया धर्म बनाने या अपने धर्म को बलात् सबसे स्वीकार कराने के स्थान पर उसने सुस्थित धर्म व्यवस्था को स्वीकार किया और एक ऐसे मार्ग का अनुसरण किया जिससे स्वस्थ्य और सुव्यवस्थित विकास की आशा थी । सहिष्णुता के मार्ग से वह कभी विचलित नहीं हुआ ।’


5. अशोक के साम्राज्य विस्तार (Empire Expansion of Ashoka):

अशोक के अभिलेखों के आधार पर हम निश्चित रूप से उसकी साम्राज्य सीमा का निर्धारण कर सकते हैं ।

उत्तर पश्चिम में दो स्थानों से उसके शिलालेख प्राप्त हुए हैं:

(1) पेशावर जिले में स्थित शाहबाजगढ़ी तथा

(2) हजारा जिले के स्थित मानसेहरा ।

इनके अतिरिक्त कन्दहार के समीप शरेकुना तथा जलालाबाद के निकट काबुल नदी के उत्तरी किनारे पर स्थित ‘लघमान’ से अशोक के अरामेइक लिपि के लेख मिले हैं । इन अभिलेखों के प्राप्ति-स्थानों से यह स्पष्ट होता है कि उसके साम्राज्य में हिन्दूकुश, एरिया (हेरात), आरकोसिया (कन्दहार) तथा जेड्रोसिया सम्मिलित थे ।

इन प्रदेशों को सेल्युकस ने चन्द्रगुप्त मौर्य को दिया था जैसा कि क्लासिकल लेखकों के विवरण से पता चलता है । चीनी यात्री हुएनसांग कपिशा में अशोक के स्तूप का उल्लेख करता है । इस प्रकार स्पष्ट है कि अशोक के साम्राज्य में अफगानिस्तान का एक बड़ा भाग सम्मिलित था ।

उत्तर में कालसी (उ. प्र. के देहरादून जिले में स्थित) से उसका शिलालेख मिला है । रुमिन्ददेई तथा निग्लीवा के स्तम्भ लेखों से पता चलता है कि उत्तर में हिमालय क्षेत्र का एक बड़ा भाग (नेपाल की तराई) भी उसके साम्राज्य का अंग था ।

दक्षिण की ओर वर्तमान कर्नाटक राज्य के ब्रह्मगिरि (चित्तलदुर्ग जिला), मास्की (रायचूर जिला), जटिगं-रामेश्वरम् (चित्तलदुर्ग जिला), सिद्धपुर (ब्रह्मगिरि से एक मील पश्चिम में स्थित) से उसके लघुशिलालेख मिलते हैं । इनसे उसके साम्राज्य की दक्षिणी सीमा कर्नाटक राज्य तक जाती है ।

द्वितीय शिलालेख में अशोक अपनी दक्षिणी सीमा पर स्थित चोल, पाण्ड्य, सतियपुत्त, केरलपुत्त तथा ताम्रपर्णि के नाम बताता है । ये सभी तमिल राज्य थे तथा उसके साम्राज्य के बाहर थे । भण्डारकर महोदय का विचार है कि चोल तथा पाण्ड्य का उल्लेख बहुवचन में तथा सतियपुत्त तथा केरलपुत्त का उल्लेख एकवचन में है ।

अत: प्रथम दो जातियों के तथा अन्तिम दो शासकों के सूचक हैं । चोल राज्य में तमिलनाडु के त्रिचनापल्ली तथा तंजोर का क्षेत्र था, और पादप राज्य में मदुरा, रामनाद तथा तिरुनेवेल्ली के जिले सम्मिलित थे । केरलपुत्त राज्य में दक्षिण मालावार क्षेत्र था । सतियपुत्त की पहचान संदिग्ध है ।

प्रो. नीलकण्ठ शास्त्री इनकी पहचान तमिल सरदार आदिगमन से करते हैं जो संगमकाल में काफी प्रसिद्ध था । ताम्रपर्णि से तात्पर्य लंका से है । इन सभी के साथ अशोक का मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध था । इससे स्पष्ट है कि धुर दक्षिण के भाग को छोड़कर (जो चोल, पाण्ड्य, सतियपुत्त तथा केरलपुत्त के अधिकार में था) सम्पूर्ण भारत अशोक के अधिकार में था ।

तेरहवें शिलालेख में अशोक के समीपवर्ती राज्यों की सूची इस प्रकार मिलती है-योन, कम्बोज, गन्धार, रठिक, भोजक, पितिनिक, आन्ध्र, नाभक, नाभपम्ति, पारिमिदस आदि । इनमें योन अथवा यवन, कम्बोज तथा गन्धार प्रदेश उत्तरी-पश्चिमी सीमा पर स्थित थे ।

भण्डारकर महोदय इन्हें काबुल तथा सिन्ध के बीच स्थित बताते हैं । भोज बरार तथा कोंकण में तथा रठिक या राष्ट्रिक महाराष्ट्र में निवास करते थे । पितिनिक पैठन में तथा आन्ध्र राज्य कृष्णा और गोदावरी नदियों के बीच स्थित था । नाभक अथवा नाभपमिस राज्य पश्चिमी तट तथा उत्तरी पश्चिमी सीमा प्रान्त के बीच कहीं बसा था ।

पारिमिदस के समीकरण के विषय में विवाद है । रायचौधरी इसे विन्ध्यक्षेत्र में तथा भण्डारकर बंगाल के उत्तरी-पूर्वी भाग में स्थित बताते हैं । पश्चिम में काठियावाड़ में जूनागढ़ के समीप गिरनार पहाड़ी तथा उसके दक्षिण में महाराष्ट्र के थाना जिले के सोपारा नामक स्थान से उसके शिलालेख मिलते हैं ।

बंगाल की खाड़ी के समीप स्थित कलिंग राज्य को अशोक ने अपने अभिषेक के आठवें वर्ष जीता था । उड़ीसा के दो स्थानों- धौली तथा जौगढ़ से भी उसके शिलालेख मिलते हैं । बंगाल में ताम्रलिप्ति से प्राप्त स्तूप उसके वहाँ आधिपत्य की सूचना देता है ।

हुएनसांग हमें बताता है कि समतट, पुण्ड्रवर्धन, कर्णसुवर्ण आदि में भी अशोक के स्तूप थे । इन सभी अभिलेखों की प्राप्ति स्थानों से यह स्पष्ट हो जाता है कि उसका साम्राज्य उत्तरी-पश्चिमी सीमा प्रान्त (अफगानिस्तान) से लेकर दक्षिण में कर्नाटक तक तथा पश्चिम में काठियावाड़ से लेकर पूर्व में बंगाल की खाड़ी तक विस्तृत था ।

कश्मीरी कवि कल्हण की राजतरंगिणी से पता चलता है कि उसका कश्मीर पर भी अधिकार था । इसके अनुसार उसने वहाँ धर्मारिणी विहार में अशोकेश्वर नामक मन्दिर की स्थापना करवायी थी ।

कल्हण अशोक को कश्मीर का प्रथम मौर्य शासक बताता है । उसके साम्राज्य की उत्तरी सीमा हिमालय पर्वत तक जाती थी । इस प्रकार वह अपने समय के विशालतम साम्राज्यों में से एक था ।


6. अशोक की परराष्ट्र नीति (Ashok’s Foreign Policy):

अशोक की धम्म नीति ने उसकी परराष्ट्र नीति को भी प्रभावित किया तथा अशोक ने अपने पड़ोसियों के साथ शान्ति एवं सहअस्तित्व के सिद्धान्तों के आधार पर अपने सम्बन्ध स्थापित किये । अशोक विदेशी राज्यों के साथ सम्बन्धों के महत्व से भली-भाँति परिचित था ।

साम्राज्य के पश्चिमी तथा दक्षिणी सीमा पर स्थित राज्यों के साथ उसने राजनयिक एवं मैत्री सम्बन्ध स्थापित किये । चन्द्रगुप्त के समय में सेल्युकस तथा मौर्य राजवंशों के बीच मैत्री संबन्ध था और दूतों का आदान-प्रदान होता था । यह परम्परा बिन्दुसार के समय में भी बनी रही ।

हमें पता है कि मिस्री नरेश टालेमी फिलाडेल्फस ने, जो अशोक का समकालीन था, उसके दरबार में अपना राजदूत भेजा था । तेरहवें शिलालेख से पता चलता है कि उसने पाँच यवन राज्यों में अपने धर्म प्रचारक भेजे थे । इनका मुख्य उद्देश्य सम्राट की धम्मनीति के बारे में वहाँ के लोगों को बताना था ।

यवन राज्यों में उसके प्रचारकों को कुछ सफलता मिली । अपने दूसरे शिलालेख में अशोक यह बताता है कि उसने इन राज्यों में मनुष्यों तथा पशुओं के लिये अलग-अलग चिकित्सा की व्यवस्था कराई थी । दक्षिणी सीमा पर स्थित चार तमिल राज्यों- चोल, पाण्ड्य, सतियपुत्त तथा केरलपुत्त एवं ताम्रपर्णि अर्थात् लंका में भी उसने अपने धर्म प्रचारक भेजे थे ।

चीनी यात्री हुएनसांग हमें बताता है कि उसने चोल तथा पाण्ड्य राज्यों में अशोक द्वारा निर्मित एक-एक स्तूप देखे थे । इससे प्रकट होता है कि अशोक के प्रचारक दक्षिणी राज्यों में गये थे । एक तमिल परम्परा से पता चलता है कि- ‘दक्षिण में लिपि का प्रचार उन विदेशियों द्वारा किया गया जो पाषाण लेखों के निर्माता थे ।’

यहाँ अशोक के काल से ही तात्पर्य प्रतीत होता है । एक बाद के पल्लव लेख से पता चलता है कि वहाँ का शासक अशोकवर्मन था । लंका के शासक तिस्स ने बौद्ध-धर्म ग्रहण कर लिया ।

दूसरे पृथक कलिंग लेख में अशोक अपने पड़ोसी राज्यों के प्रति अपने विचारो को इस प्रकार व्यक्त करता है- ‘उन्हें मुझसे डरना नहीं चाहिए वे मुझ पर विश्वास करें । उनको मुझसे सुख मिलेगा, दु:ख नहीं । उन्हें यह भी समझ लेना चाहिए कि राजा यथासम्भव उन्हें क्षमा करेगा । उन्हें मेरे कहने से धर्म का अनुसरण करना चाहिए जिससे इस लोक तथा परलोक का लाभ प्राप्त हो ।’

इन पंक्तियों से स्पष्ट हैं कि अशोक अपने पड़ोसी राज्यों के साथ शान्ति, सहिष्णुता एवं बन्धुत्व के आधार पर मधुर सम्बन्ध बनाए रखने को उत्सुक था और उसे इसमें सफलता भी प्राप्त हुई । इस प्रकार अशोक की गृह तथा वैदेशिक नीतियों में हमें सातत्य देखने को मिलता है ।


7. अशोक का मूल्यांकन (Evaluation of Ashoka):

अशोक न केवल भारतीय इतिहास के अपितु विश्व इतिहास के महानतम सम्राटों में से एक है । वह एक महान् विजेता, कुशल प्रशासक एवं सफल धार्मिक नेता था । चाहे जिस दृष्टि से भी उसकी उपलब्धियों का मूल्यांकन किया जाय, वह सर्वथा योग्य सिद्ध होता है ।

उसमें ‘चन्द्रगुप्त मौर्य जैसी शक्ति, समुद्रगुप्त जैसी बहुमुखी प्रतिभा तथा अकबर जैसी सहिष्णुता थी ।’ उसने अपने पिता से जिस विशाल साम्राज्य को उत्तराधिकार में प्राप्त किया था वह सर्वथा उसके लिये उपयुक्त था । विजेता के रूप में हम देख चुके हैं कि किस प्रकार उसने कलिंग के राज्य को आत्मसात कर लिया ।

अशोक ने व्यक्तिगत रूप से इस युद्ध में भाग लिया था तथा सेना का संचालन किया था । इससे उसकी सैनिक निपुणता का परिचय मिलता है । उसके शासन काल में भारतवर्ष ने अभूतपूर्व राजनीतिक एकता एवं स्थायित्व का साक्षात्कार किया था । प्रशासन के क्षेत्र में उसने अनेक सुधार किये ।

वह एक प्रजापालक सम्राट था तथा राजत्व-सम्बन्धी उसकी धारणा पितृपरक थी । उसने कभी भी अपनी दैवी उत्पत्ति का दावा नहीं किया तथा बराबर अपने को जनता का सेवक ही समझता रहा । वह सच्चे हृदय से अपनी प्रजा का न केवल भौतिक अपितु नैतिक कल्याण करने को उत्सुक था ।

अपने विशाल साम्राज्य में उसने इतनी अधिक योग्यता और निपुणता के साथ प्रशासन का संगठन एवं संचालन किया कि लगभग 37 वर्षों के दीर्घकालीन शासन में पूर्णतया शान्ति एवं सुव्यवस्था बनी रही ।

राष्ट्रीय एकता की समस्या को उसने अत्यन्त कुशलतापूर्वक हल किया तथा सम्पूर्ण देश में एक भाषा, एक लिपि तथा एक ही प्रकार के कानून का प्रचलन करवाया । दण्ड-समता एवं व्यवहार-समता की स्थापना निश्चित रूप से न्याय प्रशासन के क्षेत्र में क्रान्तिकारी युग का सूत्रपात करती है ।

अपने छठें शिलालेख में वह राजत्व सम्बन्धी अपना विचार इन शब्दों में व्यक्त करता है- “सर्वलोकहित मेरा कर्तव्य है । सर्वलोकहित से बढ़कर कोई दूसरा कर्म नहीं है । मैं जो कुछ पराक्रम करता हूँ, वह इसलिये कि भूतों के ऋण से मुक्त होऊँ ।”

अशोक एक महान् निर्माता भी था । बौद्ध परम्परा उसे 84 हजार रूपों के निर्माण का श्रेय प्रदान करती है । उसने कनकमुनि के स्तूप का संवर्धन करवाया था तथा बराबर पहाड़ियों को कटवाकर आजीवकों के लिये गुफाओं का निर्माण करवाया था । उसके स्तम्भ वास्तु-कला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं । कश्मीर में श्रीनगर तथा नेपाल में देवपाटन नामक दो नगरों की स्थापना भी करवाई थी ।

कोई भी उसकी बहुमुखी प्रतिभा की बराबरी में नहीं टिक सकता ।

विश्व इतिहास में अशोक के समान योद्धा एवं कुशल प्रशासक अनेक राजा हुए हैं । परन्तु अशोक अपने जनहितकारी कार्यों के लिये ही सर्वाधिक प्रसिद्ध है और इस क्षेत्र में उसकी जोड़ का दूसरा शासक इतिहास में मिलना कठिन है । वह पहला शासक था जिसकी उदार दृष्टि से सम्पूर्ण मानव समाज ही नहीं, अपितु सभी जीवधारी समान थे ।

वह अपने सभी भूतों को हितैषी मानता था । जिस समय उसने कलिंग की विजय की थी, उसके पास असीम साधन एवं शक्ति थी और यदि वह चाहता तो उसे विश्व विजय के कार्य में लगा सकता था । परन्तु उसका कोमल हृदय मानव जाति के कल्याण के लिये द्रवित हो उठा और उसने शक्ति की पराकाष्ठा पर पहुँच कर विजय कार्यों से पूर्णतया मुख मोड़ लिया ।

यह अपने आप में एक आश्चर्यजनक घटना है जो विश्व इतिहास में अपनी सानी नहीं रखती । उसने बौद्ध धर्म के उपासक स्वरूप को ग्रहण किया और उसके प्रचार-प्रसार में अपने विशाल साम्राज्य के सभी साधनों को लगा दिया ।

इस प्रचार कार्य के फलस्वरूप बौद्ध धर्म जो तृतीय शताब्दी ईसा पूर्व में मगध के इर्द-गिर्द ही फैला था, न केवल सम्पूर्ण भारतवर्ष एवं लंका में विस्तृत हुआ, अपितु पश्चिमी एशिया, पूर्वी यूरोप तथा उत्तरी अफ्रीका तक फैल गया ।

इस प्रकार अशोक ने अपने अदम्य उत्साह से एक स्थानीय धर्म को विश्वव्यापी धर्म बना दिया । परन्तु इस धर्म के प्रति उसके अदम्य उत्साह ने उसे अन्य धर्मों के प्रति क्रूर अथवा असहिष्णु नहीं बनाया । उसने कभी भी अपने धर्म को बलात् किसी पर थोपने का प्रयास नहीं किया ।

इतिहास के पृष्ठों में ऐसे व्यक्तित्व विरले ही मिलते हैं । अशोक ने विश्व-बन्धुत्व एवं लोक कल्याण का अपना संदेश दूर-दूर देशों तक फैलाया । अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में वह शान्ति एवं सहिष्णुता का पुजारी था ।

अशोक ने ही सर्वप्रथम विश्व को ‘जीओ और जीने दो’ तथा राजनीतिक हिंसा धर्म विरुद्ध है का पाठ पढ़ाया । अशोक के पूर्व ऐसी नीति नहीं अपनाई गयी । उसने कौटिल्य द्वारा प्रतिपादित लौह विजय के सिद्धान्त को उलट दिया ।

राधाकुमुद मुकर्जी के शब्दों में- ”अशोक इतिहास में शान्ति एवं विश्व-बन्धुत्व के अन्वेषकों में सर्वप्रमुख है । इस दृष्टि से वह न केवल अपने समय से अपितु आधुनिक समय से भी बहुत आगे था, जो अब भी इस आदर्श को कार्यान्वित करने के लिये संघर्ष कर रहा है ।”

कुछ विद्वानों ने अशोक की धार्मिक तथा शान्तिवादी नीति की यह कहकर आलोचना की है कि उसने मगध साम्राज्य की सैनिक शक्ति को कुण्ठित कर दिया जिससे अन्ततः उसका पतन हुआ ।

मौर्य साम्राज्य के पतन के कारणों पर विचार करते समय हम इस आरोप की समीक्षा करेंगे । यहाँ इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि उसकी धार्मिकता एवं शान्तिवादिता की नीति से मगध की सैनिक कुशलता का किसी भी प्रकार से ह्रास नहीं हुआ ।

उसने सैनिकों को धर्म-प्रचार के काम में लगा दिया हो, इसका भी कोई प्रमाण नहीं मिलता है । अशोक ने शान्तिवादी नीति का इसलिए अनुसरण किया कि उसके साम्राज्य में पूर्णरूपेण शान्ति और समरसता का वातावरण व्याप्त था तथा उसकी वाह्य सीमायें भी पूर्णतया सुरक्षित थीं ।

सीमान्त एवं जंगली जातियों को वह जिन कड़े शब्दों में अपनी सैनिक शक्ति का स्मरण दिलाते हुए चेतावनी देता है, उससे स्पष्टतः सिद्ध हो जाता है कि साम्राज्य की सैनिक शक्ति यथावत विद्यमान थी ।

केवल युद्ध तथा विजयें ही किसी सम्राट की महानता का कारण नहीं बनतीं, बल्कि वह शान्ति के कार्यों से भी समान रूप में महान् बन सकता है । विश्व इतिहास में अनेक विजेता शासक हुये हैं जिनकी कृतियों से इतिहास के पन्ने रंगे पड़े हैं ।

इनमें सिकन्दर, सीजर, नेपोलियन आदि के नाम अग्रगण्य हैं । यह सही है कि ये तीनों योद्धा एवं प्रशासक के रूप में अशोक से बढ़कर थे । किन्तु किसी सम्राट की महानता का मानदण्ड मात्र युद्ध तथा साम्राज्य विस्तार नहीं होते हैं । वह मानवता के प्रति अपने दृष्टिकोण तथा उसके लिये किये गये अपने कार्यों के कारण महान बनता है ।

ये तीनों विजेता क्रूर, निर्दयी एवं रक्त-पिपासु थे । उनके द्वारा स्थापित साम्राज्य उनके साथ ही छिन्न-भिन्न हो गया तथा मानव जाति के लिये इन विश्व विजेताओं की स्थायी देन कुछ भी नहीं है । इतिहासकार एच. जी. वैल्स ने इन तीनों विजेताओं का बड़ा ही सही मूल्यांकन किया है ।

सिकन्दर के विषय में वे लिखते हैं- ‘ज्यों-ज्यों उसकी शक्ति बढ़ी त्यों-त्यों उसकी मदान्धता और प्रचण्डता भी बढ़ती गयी । वह खूब शराब पीता था तथा निर्दयतापूर्वक हत्या करता था । बेबीलोन में एक लम्बी पान गोष्ठी के बाद उसे अचानक बुखार आ गया तथा तैंतीस वर्ष की आयु में ही वह चल बसा । लगभग तुरन्त ही उसका साम्राज्य टुकड़े-टुकड़े होने लगा… ।’

इसी प्रकार सीजर- ‘अत्यन्त लम्पट तथा उच्छृंखल व्यक्ति था । जिस समय वह अपनी शक्ति की पराकाष्ठा पर था तथा विश्व का भला कर सकता था उस समय लगभग एक वर्ष तक मिस्र में क्लियोपेट्रा के साथ रंग-रेलिया मनाता रहा, यद्यपि उसकी आयु चौवन वर्ष की थी । इससे तो वह निम्न कोटि का विषयासक्त व्यक्ति दिखायी देता है न कि श्रेष्ठ शासक ।’

जहाँ तक नेपोलियन का प्रश्न है उसके विषय में भी वेल्स महोदय सही सोचते हैं कि- ‘यदि उसमें तनिक भी दृष्टि की गम्भीरता, सृजनात्मक कल्पना शक्ति तथा नि:स्वार्थ आकांक्षा रही होती तो उसने मानव जाति के लिये ऐसा काम किया होता जो इतिहास में उसे सूर्य बना देता । उसने अपने देश का चाहे जितना भी भला किया हो, मानव जाति के प्रति उसके आभार प्रायः शून्य हैं ।’

जब हम अशोक के व्यक्तित्व को देखते हैं तो उसमें उपर्युक्त शासकों के कोई भी दुर्गुण देखने को नहीं मिलते । यह अशोक ही है जिसकी लोकोपकारी कृतियों एवं उदात्त आदर्शों के प्रति आज भी विश्व में बड़ा सम्मान है ।

नि:सन्देह अशोक अपनी प्रजा के भौतिक एवं आत्मिक कल्याणार्थ किये गये अपने कार्यों के कारण विश्वव्यापी एवं शाश्वत यश का अधिकारी है । विभिन्न विद्वानों ने अशोक की तुलना विश्व इतिहास की भिन्न-भिन्न विभूतियों- कॉन्स्टेनटाइन, एन्टोनिसस, अकबर, सेन्ट पाल, नेपोलियन, सीजर के साथ की है, परन्तु इनमें से

रिजडेविड्‌स अशोक की तुलना कॉन्स्टेनटाइन से करते हैं । अशोक तथा रोमन सम्राट कॉन्स्टेनटाइन में मात्र यही समानता है कि अशोक ने जिस प्रकार बौद्ध धर्म को ग्रहण कर उसका प्रचार-प्रसार किया, उसी प्रकार कॉन्स्टेनटाइन ने भी ईसाई धर्म को ग्रहण कर उसका प्रचार-प्रसार करवाया था ।

किन्तु उसके उदय के पूर्व ही ईसाई धर्म रोमन साम्राज्य में काफी लोकप्रिय हो चुका था और उसे अपनाना कॉन्स्टेनटाइन की विवशता थी । उसने राजनैतिक कारणों से उत्प्रेरित होकर इस धर्म को संरक्षण एवं प्रोत्साहन दिया था जबकि अशोक के धर्म के पीछे कोई राजनैतिक चाल नहीं थी ।

अशोक की सहिष्णुता सच्चे हृदय की प्रेरणा थी । कॉन्स्टेनटाइन अपने जीवन के अन्तिम दिनों में प्रतिक्रियावादी होकर पेगनवाद की ओर उन्मुख हुआ और उसका धर्म एक ‘अजीव खिचड़ी’ हो गया ।

इसके विपरीत अशोक में कोई ऐसी गिरावट नहीं दिखाई देती । इसी प्रकार मैकफेल अशोक की तुलना एक अन्य रोमन सम्राट मार्कस ओरेलियस एंटोनियस के साथ करते हैं ।

इसमें संदेह नहीं कि एन्टोनियस एक महान दार्शनिक था तथा मानसिक संस्कृति की दृष्टि से अशोक से बढ़कर था । किन्तु जैसा कि भण्डारकर ने बताया है कि- “आदर्श की उदात्तता और अविभ्रान्त तथा सम्यग्योजित उत्साह की दृष्टि से अशोक रोमन सम्राट से कहीं ऊपर था ।”

वह ईसाई धर्म के प्रचार को रोमन समृद्धि के लिये घातक समझता था और इस कारण उसने ईसाइयों पर व्यवस्थित ढंग से अत्याचार भी किये । दूसरी ओर अशोक में धार्मिक कट्टरता अथवा असहिष्णुता का नितान्त अभाव था । ऐसी स्थिति में अशोक का स्थान एन्टोनियस से कहीं ऊँचा है । अनेक इतिहासविद् अशोक की तुलना मुगल सम्राट अकबर से करना पसन्द करते हैं ।

नि:सन्देह अकबर में धार्मिक सहिष्णुता थी तथा वह भी सच्चे दिल से अपनी प्रजा का कल्याण करना चाहता था । विभिन्न धर्मों तथा सम्प्रदाओं की अच्छी-अच्छी बातों को ग्रहण कर अकबर ने आम जनता के कल्याण के लिये ‘दीने-इलाही’ नामक नया धर्म चलाया ।

किन्तु जैसा कि भण्डारकर ने स्पष्ट किया है कि अकबर सबसे पहले एक राजनैतिक तथा दुनियावी व्यक्ति था तथा धार्मिक सत्य के लिये अपनी सम्राटता को खतरे में डालने को तैयार न था । जब उसने देखा कि धर्म में उसकी नयी बातें प्रचलित करने से मुसलमानों में विद्रोह पैदा हो रहा है तब उसने धार्मिक वाद-विवाद बन्द करवा दिया ।

वह सबके प्रति सहिष्णु भी नहीं था तथा उसने इलाही सम्प्रदाय के अनुयायियों को पकड़वाकर सिन्ध और अफगानिस्तान में निर्वासित कर दिया । अकबर में अशोक जैसा धार्मिक उत्साह भी नहीं था ।

इसी कारण उसका धर्म राज दरबार के बाहर नहीं जा सका तथा उसकी मृत्यु के साथ ही समाप्त हो गया । दूसरी ओर अशोक में कहीं भी असहिष्णुता नहीं दिखाई देती । उसका धर्म भी उसके साथ समाप्त नहीं हुआ तथा वह विश्व धर्म बन गया ।

नीलकंठ शास्त्री ने ठीक ही लिखा है कि- ‘अशोक को अकबर की अपेक्षा मानव प्रकृति का बेहतर ज्ञान था ।’ इस प्रकार कहा जा सकता है कि अशोक अकबर की अपेक्षा कहीं अधिक महान था ।

मैकफेल ने अशोक के संदर्भ में सेन्ट पाल का नाम लिया है । जिस प्रकार बौद्ध धर्म के इतिहास में अशोक महान व्यक्ति है उसी प्रकार ईसाई धर्म के इतिहास में सेन्ट पाल महान है ।

दोनों ने अपने-अपने धर्मों को आम जनता के लिये कल्याणकारी बना दिया । किन्तु इसके आगे दोनों में कोई समानता नहीं मिलती । इसी प्रकार अशोक की तुलना एल्फ़्रेड, शार्लमेन, उमर खलीफा आदि शासकों से भी की गयी है किन्तु इनमें से कोई भी अशोक जैसी बहुमुखी प्रतिभा का धनी नहीं लगता ।

लोक-प्रसिद्ध इतिहासकार एच. जी. वेल्स की अग्रलिखित पंक्तियाँ अशोक के व्यक्तित्व एवं चरित्र का सही मूल्यांकन करती है- “इतिहास के स्तम्भों को भरने वाले राजाओं, सम्राटों, धर्माधिकारियों, सन्त-महात्माओं आदि के बीच अशोक का नाम प्रकाशमान है और आकाश में प्रायः एकाकी तारा की तरह चमकता है । वोल्गा से जापान तक आज भी उसके नाम का सम्मान किया जाता है । चीन, तिब्बत और भारत भी, यद्यपि उसने उसके सिद्धान्त त्याग दिये हैं, उसकी महानता की परम्परा बनाये हुए हैं । जितने लोगों ने कॉन्स्टेनटाइन या शार्लमेन का कभी नाम सुना है उससे भी अधिक लोग आज आदरपूर्वक उसका स्मरण करते हैं ।”

इसी प्रकार चार्लस इलियट ने लिखा है- ‘पवित्र सम्राटों की दीर्घा में वह अकेला ही खड़ा है, शायद एक ऐसे व्यक्ति के समान जिसका अनुराग संतुलित, दयावान एवं सुखद जीवन के लिये था । वह न तो महान रहस्यों का आकांक्षी था न ही अपनी आत्मा में लवलीन था । अपितु मानव तथा पशु का एक हितैषी मात्र था ।’

आर. सी. दत्त ने अशोक को भारत का महानतम सम्राट बताते हुए लिखा है- “भारत के किसी सम्राट ने, यहाँ तक कि विक्रमादित्य ने भी, इतनी विश्वव्यापी प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं की तथा किसी ने भी धार्मिकता तथा सदाचार के प्रति अपने उत्साह के कारण विश्व इतिहास पर इतना अधिक प्रभाव उत्पन्न नहीं किया ।”

इस प्रकार विश्व इतिहास में अशोक का स्थान सर्वथा अद्वितीय है । सही अर्थों में वह प्रथम राष्ट्रीय शासक था । जब हम देखते हैं कि आज भी विश्व के देश हथियारों की होड़ रोकने तथा युद्ध की विभीषिका को टालने के लिये सतत् प्रयत्नशील रहने के बावजूद सफल नहीं हो पा रहे हैं तथा मानवता के लिए परमाणु-युद्ध का गम्भीर संकट बना हुआ है, तब अशोक के कार्यों की महत्ता स्वयमेव स्पष्ट हो जाती है ।

अशोक के उदात्त आदर्श विश्व शान्ति की स्थापना के लिये आज भी हमारा मार्गदर्शन करते हैं । स्वतन्त्र भारत ने सारनाथ स्तम्भ के सिंह-शीर्ष को अपने राजचिह्न के रूप में ग्रहण कर मानवता के इस महान पुजारी के प्रति अपनी सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित की है ।


8. अशोक का अन्त (End of Ashok):

अशोक के जीवन के अन्तिम दिनों के ज्ञान के लिए हमें एकमात्र बौद्ध ग्रन्थों पर निर्भर करना पड़ता है । दिव्यावदान में जो विवरण प्राप्त होता है उससे पता चलता है कि अशोक का शासन काल जितना ही गौरवशाली था उसका अन्त उतना ही दुखद रहा ।

ज्ञात होता है कि अशोक राजकीय कोष से बहुत अधिक धन बौद्ध संघ को देने लगा जिसका उसके अमात्यों ने विरोध किया । एक बार जब वह कुक्कुटाराम विहार को कोई बड़ा उपहार देने वाला था, उसके अमात्यों ने राजकुमार सम्प्रति को उसके विरुद्ध भड़काया ।

सम्प्रति ने भाण्डागारिक को सम्राट की आज्ञानुसार कोई भी धनराशि संघ को न देने का आदेश दिया । सम्राट के निर्वाह के लिये दी जाने वाली धनराशि में भी भारी कटौती कर दी गई तथा अन्ततोगत्वा उसके निर्वाह के लिए केवल आधा आँवला दिया जाने लगा ।

अशोक का प्रशासन के ऊपर वास्तविक नियन्त्रण न रहा तथा अत्यन्त दुर्भाग्यवश परिस्थितियों ये इस महान सम्राट का अन्त हुआ । दिव्यावदान के इस कथा की पुष्टि थोड़े बहुत संशोधन के साथ तिब्बती लेखक तारानाथ तथा चीनी यात्री हुएनसांग ने भी किया है । पुराणों के अनुसार अशोक ने कुल 37 वर्षों तक शासन किया । उसकी मृत्यु लगभग 237 ईसा पूर्व में हुई ।


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