चंद्रगुप्त मौर्य: इतिहास, प्रारंभिक जीवन और उपलब्धियां| Read this article in Hindi to learn about:- 1. चन्द्रगुप्त मौर्य का प्रारम्भिक जीवन (Early Life of Chandragupta Maurya) 2. चन्द्रगुप्त मौर्य  की उपलब्धियाँ (Achievements of Chandragupta Maurya) 3. मूल्यांकन (Evaluation) 4. अन्त (End).

चन्द्रगुप्त मौर्य का प्रारम्भिक जीवन (Early Life of Chandragupta Maurya):

मौर्य राजवंश की उत्पत्ति के ही समान चन्द्रगुप्त मौर्य का प्रारम्भिक जीवन भी अंधकारपूर्ण है । उसके प्रारम्भिक जीवन के ज्ञान के लिये हमें मुख्यतः बौद्ध स्रोतों पर ही निर्भर करना पड़ता है । यद्यपि वह साधारण कुल में उत्पन्न हुआ था तथापि बचपन से ही उसमें उज्जवल भविष्य के सूचक महानता के सभी लक्षण विद्यमान थे ।

बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार चन्द्रगुप्त का पिता मोरियनगर का प्रमुख था । जब यह अपनी माता के गर्भ में था तभी उसके पिता की किसी सीमान्त युद्ध में मृत्यु हो गयी । उसकी माता अपने भाइयों द्वारा पाटलिपुत्र में सुरक्षा के निमित्त पहुँचा दी गयी । यहीं चन्द्रगुप्त का जन्म हुआ ।

जन्म के साथ ही वह एक गोपालक को समर्पित कर दिया गया । गोपालक ने गोशाला में अपने पुत्र के समान उसका लालन-पालन किया । कुछ बड़ा होने पर उसने उसे एक शिकारी के हाथों बेच दिया । शिकारी के ग्राम में वह बड़ा हुआ तथा उसे पशुओं की देख-भाल के लिये रख दिया गया ।

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अपनी प्रतिभा के कारण उसने शीघ्र ही अपने समवयस्क बालकों में प्रमुखता हासिल कर ली । वह बालकों की मण्डली का राजा बनकर उनके आपसी झगड़ों का फैसला किया करता था ।

इसी प्रकार एक दिन जब वह ‘राजकीलम्’ नामक खेल में व्यस्त था, चाणक्य उधर से जा निकला । अपनी सूक्ष्मदृष्टि से उसने इस बालक के भावी गुणों का अनुमान लगा लिया । उसने शिकारी को 1,000 कार्षापण देकर चन्द्रगुप्त को खरीद लिया ।

चन्द्रगुप्त के साथ चाणक्य तक्षशिला आया । तक्षशिला उस समय विद्या का प्रमुख केन्द्र था और चाणक्य वहाँ का आचार्य था । उसने चन्द्रगुप्त को सभी कलाओं तथा विद्याओं की विधिवत् शिक्षा दी । अतिशीघ्र वह सभी विद्याओं में पारंगत हो गया ।

यह युद्ध विद्या में भी पर्याप्त निपुण हो चुका था । ऐसा लगता है कि तक्षशिला में ही सैनिक शिक्षा ग्रहण करते हुए वह अपने समय के एक महान विजेता सिकन्दर से मिला था तथा वह उसके सैनिक प्रशिक्षण का एक ही अंग था ।

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इसके विषय में प्लूटार्क तथा जस्टिन जैसे लेखकों ने बड़ा ही रोचक विवरण दिया है । जस्टिन हमें बताता है कि सिकन्दर उसकी स्पष्टवादिता से बड़ा रुष्ट हुआ तथा उसे मार डालने का आदेश दिया, किन्तु शीघ्रता से भागकर उसने अपनी जान बचाई ।

चन्द्रगुप्त मौर्य  की उपलब्धियाँ (Achievements of Chandragupta Maurya):

चाणक्य ने जिस कार्य के लिये चन्द्रगुप्त को तैयार किया था, उसके दो मुख्य उद्देश्य थे:

(i) यूनानियों के विदेशी शासन से देश को मुक्त करना ।

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(ii) नन्दों के घृणित एवं अत्याचारपूर्ण शासन की समाप्ति करना ।

यद्यपि इतिहासकारों में इस विषय में मतभेद है कि चन्द्रगुप्त तथा चाणक्य ने सर्वप्रथम पश्चिमोत्तर भारत में यूनानियों से युद्ध किया अथवा मगध के नन्दों का विनाश किया तथापि यूनानी-रोमन एवं बौद्ध साक्ष्यों से जो संकेत मिलते हैं उनसे यही सिद्ध होता है कि चन्द्रगुप्त ने पहले पंजाब तथा सिन्ध को ही विदेशियों की दासता से मुक्त किया था ।

कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में विदेशी शासन की निन्दा की है तथा उसे देश और धर्म के लिये अभिशाप कहा है । चन्द्रगुप्त ने बड़ी बुद्धिमानी से उपलब्ध साधनों का उपयोग किया तथा विदेशियों के विरुद्ध राष्ट्रीय युद्ध छेड़ दिया । उसने इस कार्य के लिये एक विशाल सेना का संगठन किया ।

इस सेना के सैनिक अर्थशास्त्र के अनुसार निम्नलिखित वर्गों से लिये गये थे:

(a) चोर अथवा प्रतिरोधक,

(b) म्लेच्छ,

(c) चोर गण,

(d) आटविक,

(e) शस्त्रोपजीवी श्रेणी ।

जस्टिन चन्द्रगुप्त की सेना को ‘ड़ाकुओं का गिरोह’ कहता है । मेक्रिन्डल के अनुसार इससे तात्पर्य पंजाब के गणजातीय लोगों से है जिन्होंने सिकन्दर के आक्रमण का प्रबल प्रतिरोध किया था । मुद्राराक्षस तथा परिशिष्टपर्वन् से पता चलता है कि चन्द्रगुप्त को पर्वतक नामक एक हिमालय क्षेत्र के शासक से सहायता प्राप्त हुई थी ।

कुछ विद्वानों ने इस शासक की पहचान पोरस से की है किन्तु इसके पीछे कोई ठोस आधार नहीं है । इलाहाबाद विश्वविद्यालय के डॉ. ओम प्रकाश ने पर्वतक की पहचान अभिसार के शासक के साथ किये जाने के पक्ष में अपना मत प्रकट किया है ।

यह चन्द्रगुप्त का सौभाग्य था कि पंजाब तथा सिन्ध की राजनीतिक परिस्थितियाँ उसके पूर्णतया अनुकूल थीं । सिकन्दर के प्रस्थान के साथ ही इन प्रदेशों में विद्रोह उठ खड़े हुए तथा अनेक यूनानी क्षत्रप मौत के घाट उतार दिये गये । उनमें आपस में ही विद्वेष एवं घृणा की भावना बढ़ी ।

325 ईसा पूर्व के लगभग ऊपरी सिन्धु घाटी के प्रमुख यूनानी क्षत्रप फिलिप द्रितीय की हत्या कर दी गयी । 323 ईसा पूर्व में सिकन्दर की मृत्यु के पश्चात परिस्थितियाँ और बिगड़ गयीं तथा सिन्ध और पंजाब में सिकन्दर द्वारा स्थापित प्रशासन का ढाँचा ढहने लगा ।

इन प्रदेशों में घोर अराजकता एवं अव्यवस्था फैल गयी जिसने चन्द्रगुप्त का कार्य सुगम कर दिया । इन प्रदेशों में चन्द्रगुप्त की सफलता का संकेत इतिहासकार जस्टिन इन शब्दों में करता है- “सिकन्दर की मृत्यु के पश्चात् भारत ने अपनी गर्दन से दासता का जुआ उतार फेंका तथा अपने गवर्नरों की हत्या कर दी । इस स्वतन्त्रता का जन्मदाता सान्ड्रोकोटस (चन्द्रगुप्त) था ।”

इस प्रकार जस्टिन के विवरण से ज्ञात होता है कि सिकन्दर के क्षत्रपों के निष्कासन अथवा विनाश के पीछे चन्द्रगुप्त का ही मुख्य हाथ था । ऐसा प्रतीत होता है कि फिलिप द्वितीय तथा सिकन्दर की मृत्यु के बीच के दो वर्षों (325-323 ईसा पूर्व) के काल में चन्द्रगुप्त ने अपने उद्देश्य की पूर्ति हेतु व्यापक योजनायें तैयार कर लीं ।

अब उसकी तैयारी पूरी हो चुकी थी । उसने सर्वप्रथम एक सेना एकत्र कर अपने को राजा बनाया तथा फिर सिकन्दर के क्षत्रपों के विरुद्ध राष्ट्रीय युद्ध छेड़ दिया । 317 ईसा पूर्व में पश्चिमी पंजाब का अन्तिम यूनानी सेनानायक यूडेमस भारत छोड़ने के लिये बाध्य हुआ और इस तिथि तक सम्पूर्ण सिन्ध तथा पंजाब के प्रदेशों पर चन्द्रगुप्त का अधिकार हो चुका था ।

वस्तुतः यह उसकी सुनियोजित योजना का फल था । जस्टिन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य तथा मेसीडोनियन क्षत्रपों के बीच भीषण युद्ध हुआ होगा तथा चन्द्रगुप्त ने सिकन्दर द्वारा भारत में छोड़ी गयी सेना को पूर्णतया उखाड़ फेंका होगा ।

अत: यूडेमस ने यह बुद्धिमानी की कि चन्द्रगुप्त मौर्य को बिना चुनौती दिये ही 317 ईसा-पूर्व में शान्तिपूर्वक भारत छोड़ दिया । अब चन्द्रगुप्त मौर्य सिन्ध तथा पंजाब का एकच्छत्र शासक था ।

1. नन्दों का उन्मूलन:

सिन्ध तथा पंजाब में अपनी स्थिति मजबूत कर लेने के बाद चन्द्रगुप्त तथा चाणक्य मगध साम्राज्य की ओर अग्रसर हुए । मगध में इस समय धननन्द का शासन था । अपने असीम सैनिक साधनों तथा सम्पत्ति के बावजूद भी वह जनता में लोकप्रियता अर्जित कर सकने में असफल रहा और यही उसकी सबसे बड़ी दुर्बलता थी ।

उसने एक यार चाणक्य को भी अपमानित किया था जिससे क्रुद्ध होकर उसने नन्दों को समूल नष्ट कर देने की प्रतिज्ञा की थी । प्लूटार्क के विवरण से पता चलता है कि नन्दों के विरुद्ध सहायता-याचना के उद्देश्य से चन्द्रगुप्त पंजाब में सिकन्दर से मिला था ।

इतिहासकार हेमचन्द्र रायचौधरी ने उसके इस कार्य की तुलना मध्ययुगीन भारत के राजपूत शासक राणासंग्राम से की है जिसने इब्राहिम लोदी का तख्ता पलटने के लिये मुगल सम्राट बाबर को आमन्त्रित किया था । परन्तु चन्द्रगुप्त अपने उद्देश्य में असफल रहा ।

हम देख चुके हैं कि सिकन्दर की मृत्यु के पश्चात् किस प्रकार उसने यूनानी अधिकारियों की हत्या कर पंजाब और सिन्ध पर अधिकार कर लिया । अब उसके पास एक विशाल संगठित सेना थी जिसका उपयोग उसने नन्दों के विरुद्ध किया ।

दुर्भाग्यवश हमें किसी भी साक्ष्य से नन्दों तथा मौर्यों के बीच हुए इस युद्ध का विवरण नहीं मिलता । बौद्ध तथा जैन स्रोतों से ज्ञात होता है कि सर्वप्रथम चन्द्रगुप्त ने नन्द साम्राज्य के केन्द्रीय भाग पर आक्रमण किया, परन्तु सफलता नहीं मिली और उसकी सेना नष्ट-भ्रष्ट हो गयी ।

अब उसे अपनी भूल ज्ञात हुई तथा उसने दूसरी बार सीमान्त प्रदेशों की विजय करते हुये नन्दों की राजधानी पर धावा बोला । ऐसा प्रतीत होता है कि नन्द-मौर्य युद्ध बड़ा रक्तरंजित रहा होगा । बौद्ध ग्रन्थ ‘मिलिन्दपण्हो’ में इस युद्ध का बड़ा ही अतिरंजित विवरण मिलता है ।

इस ग्रन्थ में भद्दशाल नामक नन्दों के मंत्री का उल्लेख हुआ है । इसमें युद्ध के हताहतों की संख्या बहुत बढ़ा-चढ़ा कर बतायी गयी है जो मात्र आलंकारिक प्रतीत होती है । इससे केवल इतना ही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि युद्ध बड़ा घमासान तथा भयंकर रहा ।

अन्ततः धननन्द मार डाला गया और चन्द्रगुप्त का मगध साम्राज्य पर अधिकार हो गया । यह उसकी दूसरी महत्वपूर्ण सफलता थी । अब चन्द्रगुप्त मौर्य भारत के एक विशाल साम्राज्य का शासक बन गया ।

2. सेल्युकस के विरुद्ध युद्ध:

सिकन्दर की मृत्यु के पश्चात् उसके पूर्वी प्रदेशों का उत्तराधिकारी सेल्युकस हुआ । वह एन्टीओकस का पुत्र था । बेबीलोन तथा बैक्ट्रिया को जीतकर उसने पर्याप्त शक्ति अर्जित कर ली । वह अपने सम्राट द्वारा जीते गये भारत के प्रदेशों को पुन: अपने अधिकार में लेने का उत्सुक था ।

इस उद्देश्य से 305 ईसा पूर्व के लगभग उसने भारत पर पुन: चढ़ाई की तथा सिन्ध तक आ पहुँचा । परन्तु इस समय का भारत सिकन्दरकालीन भारत से पूर्णतया भिन्न था । अत: सेल्युकस को विभिन्न छोटे-छोटे प्रदेशों के सरदारों के स्थान पर एक संगठित भारत के महान् सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य से युद्ध करना था ।

यूनानी लेखक केवल इस युद्ध के परिणाम का ही उल्लेख करते हैं । अप्पिआनुस लिखता है कि ‘सिन्धु नदी पार करके सेल्युकस ने चन्द्रगुप्त से युद्ध किया । कालान्तर में दोनों में सन्धि हो गयी तथा एक वैवाहिक संबन्ध भी स्थापित हो गया ।’

स्ट्रेबो के अनुसार- ‘उस समय भारतीय सिन्धु नदी के समीपवर्ती भाग में रहते थे । यह भाग पहले पारसीकों के अधीन था । सिकन्दर ने इसे जीतकर वहाँ अपना प्रान्त स्थापित किया । किन्तु सेल्युकस ने इन्हें सान्ड्रोकोट्टस को वैवाहिक सम्बन्ध के फलस्वरूप दे दिया तथा बदले में पाँच सौ हाथी प्राप्त किया ।’ इन विवरणों से ऐसा संकेत मिलता है कि सेल्युकस युद्ध में पराजित हुआ ।

फलस्वरूप चन्द्रगुप्त तथा सेल्युकस के बीच एक संधि हुई जिसकी शर्तें निम्नलिखित थीं:

(i) सेल्युकस ने चन्द्रगुप्त को आरकोसिया (कान्धार) और पेरोपनिसडाई (काबुल) के प्रान्त तथा एरिया (हेरात) एवं जेड्रोसिया की क्षत्रपियों के कुछ भाग दिये ।

(ii) चन्द्रगुप्त ने सेल्युकस को 500 भारतीय हाथी उपहार में दिया ।

(iii) दोनों नरेशों के बीच एक वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित हुआ । कुछ विद्वानों के अनुसार सेल्युकस ने अपनी एक पुत्री का विवाह चन्द्रगुप्त के साथ कर दिया । परन्तु उपलब्ध प्रमाणों से इस प्रकार की कोई सूचना नहीं मिलती ।

(iv) सेल्युकस ने मेगस्थनीज नामक अपना एक राजदूत चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में भेजा । वह बहुत दिनों तक पाटलिपुत्र में रहा तथा भारत पर उसने ‘इण्डिका’ नामक एक पुस्तक की रचना की थी ।

यह निश्चय ही चन्द्रगुप्त की एक महत्वपूर्ण सफलता थी । इससे उसका साम्राज्य भारतीय सीमा का अतिक्रमण कर पारसीक साम्राज्य की सीमा को स्पर्श करने लगा तथा उसके अन्तर्गत अफगानिस्तान का एक बड़ा भाग भी सम्मिलित हो गया ।

चन्द्रगुप्त के कान्धार पर आधिपत्य की पुष्टि वहाँ से प्राप्त हुए अशोक के लेख से भी हो जाती है क्योंकि अशोक अथवा बिन्दुसार ने इस भाग की विजय नहीं की थी । भारत ने सिकन्दर के हाथों हुई अपनी पराजय का बदला ले लिया । इस समय से भारत तथा यूनान के बीच राजनीतिक सम्बन्ध प्रारम्भ हुआ जो बिन्दुसार तथा अशोक के समय में भी बना रहा ।

3. पश्चिमी भारत की विजय:

शकमहाक्षत्रप रुद्रदामन् के गिरनार अभिलेख (150 ईस्वी) से इस बात की सूचना मिलती है कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने पश्चिमी भारत में सुराष्ट्र तक का प्रदेश जीतकर अपने प्रत्यक्ष शासन के अन्तर्गत कर लिया था ।

इस अभिलेख से ज्ञात होता है कि इस प्रदेश में पुष्यगुप्त वैश्य चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्यपाल (राष्ट्रीय) था और उसने वहाँ सुदर्शन नामक झील का निर्माण करवाया था ।

सुराष्ट्र प्रान्त के दक्षिण में सोपारा (महाराष्ट्र प्रान्त के थाना जिले में स्थित) नामक स्थान से चन्द्रगुप्त के पौत्र अशोक का अभिलेख प्राप्त हुआ है, परन्तु अशोक अपने अभिलेखों में इस प्रदेश को जीतने का दावा नहीं करता । अत: इससे ऐसा निष्कर्ष निकाला का सकता है कि सुराष्ट्र के दक्षिण में सोपारा तक का प्रदेश भी चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा ही विजित किया गया था ।

दक्षिण भारत:

चन्द्रगुप्त मौर्य की दक्षिण भारत की विजय के सम्बन्ध में अशोक के अभिलेखों तथा जैन एवं तमिल स्रोतों से कुछ जानकारी प्राप्त होती है । दक्षिण भारत में कर्नाटक तथा आन्ध्र प्रदेश के कई स्थानों से अशोक के लेख मिलते हैं, जैसे- सिद्धपुर, ब्रह्मगिरि, जटिंगरामेश्वर पहाड़ी (कर्नाटक राज्य के चित्तलदुर्ग जिले में स्थित), गोविमठ, पालक्कि गुण्ड्ड, मास्की तथा गूटी (आन्ध्र प्रदेश के करनूल जिले में स्थित) ।

अशोक स्वयं अपने अभिलेखों में अपने राज्य की दक्षिणी सीमा पर स्थित चोल, पाण्ड्य, सत्तियपुत्र तथा केरलपुत्र जातियों का उल्लेख करता है । उसके तेरहवें शिलालेख से ज्ञात होता है कि दक्षिण में उसने केवल कलिंग की ही विजय की थी जिसके पश्चात् उसने युद्ध-कार्य पूर्णतया बन्द कर दिया ।

ऐसी स्थिति में दक्षिण में उत्तरी कर्नाटक तक की विजय का श्रेय हमें या तो बिन्दुसार को अथवा चन्द्रगुप्त मौर्य को देना पड़ेगा । बिन्दुसार की विजय अत्यन्त संदिग्ध है और इतिहास उसे विजेता के रूप में स्मरण नहीं करता । अत: यही मानना तर्कसंगत लगता है कि चन्द्रगुप्त ने ही इस प्रदेश की विजय की होगी ।

चन्द्रगुप्त मौर्य की दक्षिण भारतीय विजय के विषय में जैन एवं तमिल स्रोतों से भी कुछ संकेत मिलते हैं । जैन परम्परा के अनुसार अपनी वृद्धावस्था में चन्द्रगुप्त ने जैन साधु भद्रबाहु की शिष्यता ग्रहण की तथा दोनों ‘श्रवणवेलगोला’ (कर्नाटक राज्य) नामक स्थान पर आकर बस गये ।

यहीं चन्द्रगिरि नामक पहाड़ी पर चन्द्रगुप्त तपस्या किया करता था । यदि इस परम्परा पर विश्वास किया जाये तो यह कहा जा सकता है कि चन्द्रगुप्त अपने जीवन के अन्तिम दिनों में उसी स्थान पर तपस्या के लिये गया होगा जो उसके साम्राज्य में स्थित हो ।

इससे श्रवणवेलगोला तक उसका अधिकार प्रमाणित होता है । तमिल परम्परा से ज्ञात होता है कि मौर्यों ने एक विशाल सेना के साथ दक्षिण क्षेत्र में ”मोहर” के राजा पर आक्रमण किया तथा इस अभियान में कोशर और वड्‌डगर नामक दो मित्र जातियों ने उसकी मदद की थी ।

इस परम्परा में नन्दों की अतुल सम्पत्ति का एक उल्लेख मिलता है जिससे ऐसा निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि तमिल लेखक मगध के मौर्यों का विवरण दे रहे हैं जो नन्दों के उत्तराधिकारी थे । इस परम्परा मैं मौर्यों द्वारा तमिल प्रदेश की विजय का विवरण सुरक्षित है ।

यह विजय नि:सन्देह चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में हुई होगी । यहाँ उल्लेखनीय है कि उपर्युक्त जैन तथा तमिल परम्पराओं को अनेक विद्वान् ऐतिहासिक नहीं मानते । अत: इनमें हम बहुत अधिक विश्वास नहीं कर सकते ।

4. साम्राज्य-विस्तार:

इस प्रकार चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य सम्पूर्ण भारत में फैल गया । प्लूटार्क ने लिखा है कि- ‘उसने छ: लाख की सेना लेकर सम्पूर्ण भारत को रौंद डाला और उस पर अपना अधिकार कर लिया ।’ जस्टिन के विवरण से भी पता चलता है कि सम्पूर्ण भारत उसके अधिकार में था ।

मगध साम्राज्य के उत्कर्ष की जो परम्परा बिम्बिसार के समय से प्रारम्भ हुई थी, चन्द्रगुप्त के समय में वह पराकाष्ठा पर पहुँच गई । उसका विशाल साम्राज्य उत्तर पश्चिम में ईरान की सीमा से लेकर दक्षिण में वर्तमान उत्तरी कर्नाटक तक विस्तृत था ।

पूर्व में मगध से लेकर पश्चिम में सुराष्ट्र तथा सोपारा तक का सम्पूर्ण प्रदेश उसके साम्राज्य के अधीन था । इतिहासकार स्मिथ के अनुसार हिन्दुकुश पर्वत भारत की वैज्ञानिक सीमा थी । यूनानी लेखक इसे पैरोपेनिसस अथवा ‘इण्डियन काकेशस’ कहते थे । यही चन्द्रगुप्त तथा सेल्युकस के साम्राज्यों की सीमा थी ।

चन्द्रगुप्त मौर्य ने सेल्युकस को हराकर भारत की उस वैज्ञानिक सीमा पर अधिकार कर लिया था जिसे प्राप्त करने के लिये मुगल तथा अंग्रेज शासक व्यर्थ का प्रयास करते रहे । पाटलिपुत्र इस विशाल साम्राज्य की राजधानी थी ।

चन्द्रगुप्त के मूल्यांकन (Evaluation of Chandragupta Maurya):

चन्द्रगुप्त की उपलब्धियों को देखने के उपरान्त यह स्पष्ट हो जाता है कि वह एक महान् विजेता, साम्राज्य निर्माता तथा अत्यन्त कुशल प्रशासक था । एक सामान्य कुल में उत्पन्न होते हुए भी उसने अपनी योग्यता एवं कुशलता के बल पर अपने को एक सार्वभौम सम्राट बना लिया ।

वह भारत का प्रथम महान् ऐतिहासिक सम्राट था जिसके नेतृत्व में चक्रवर्ती आदर्श को वास्तविक स्वरूप प्रदान किया गया । यदि यूनानी स्रोतों पर विश्वास किया जाये तो कहा जा सकता है कि चन्द्रगुप्त की महान् सफलता अधिकांशतः उसकी वीरता, अदम्य उत्साह एवं साहस का ही परिणाम थी ।

जब हम देखते हैं कि चन्द्रगुप्त के पीछे कोई राजकीय परम्परा नहीं थी तो उसकी उपलब्धियों का महत्व स्वतः स्पष्ट हो जाता है । यूनानी दासता से देश को मुक्त करना, शक्तिशाली नन्दों का विनाश करना तथा अपने समय के एक अत्यन्त उत्कृष्ट सेनानायक सेल्युकस को नतमस्तक करना, निश्चित रूप से चन्द्रगुप्त की असाधारण सैनिक योग्यता के परिचायक हैं ।

उसने भारत की उस वैज्ञानिक सीमा को अधिकृत कर लिया जिसके लिये मुगल तथा ब्रिटिश शासक व्यर्थ का प्रयास करते रहे । चन्द्रगुप्त एक वीर योद्धा एवं साम्राज्य निर्माता ही नहीं था अपितु अत्यन्त योग्य शासक भी था ।

मौर्यों की प्रशासनिक व्यवस्था जो कालान्तर की सभी भारतीय प्रशासनिक व्यवस्थाओं का आधार कही जा सकती है, बहुत कुछ चन्द्रगुप्त की रचनात्मक प्रतिभा तथा उसके गुरु एवं प्रधान मंत्री कौटिल्य की राजनीतिक सूझबूझ का ही परिणाम थी ।

इस प्रकार चन्द्रगुप्त एक निपुण तथा लोकोपकारी शासन व्यवस्था का निर्माता था । उसका शासनादर्श बाद के हिन्दू शासकों के लिये अनुकरणीय बना रहा । यहाँ तक कि मुस्लिम तथा ब्रिटिश शासकों ने भी राजस्व व्यवस्था, नौकरशाही तथा पुलिस व्यवस्था के क्षेत्रों में मौर्य शासन के प्रतिमानों का ही अनुकरण किया ।

मौर्य प्रशासन के अधिकांश आदर्शों को आधुनिक युग के भारतीय शासन में भी देखा जा सकता है । चन्द्रगुप्त ने अपने व्यक्तित्व एवं आचरण से कौटिल्य के प्रजाहित के राज्यादर्श को कार्य रूप में परिणत कर दिया । उसकी सफलताओं ने भारत को विश्व के राजनीतिक मानचित्र में प्रतिष्ठित कर दिया ।

चन्द्रगुप्त द्वारा विदेशी कन्या से विवाह करना भारत के तत्कालीन सामाजिक जीवन में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन था । इससे उसके मस्तिष्क की उदारता सूचित होती है । यदि जैन परम्परा में विश्वास किया जाय तो कहा जा सकता है कि वस्तुतः चन्द्रगुप्त एक राजर्षि था जिसने अपने उत्तरकालीन जीवन में राज्य के सुख-वैभव का परित्याग कर तप करते हुए स्वेच्छा से मृत्यु का वरण किया ।

चन्द्रगुप्त मौर्य का अन्त (End of Chandragupta Maurya):

चन्द्रगुप्त एक महान् विजेता, साम्राज्य निर्माता एवं कुशल प्रशासक था । एक सामान्य कुल में उत्पन्न होते हुए भी अपनी योग्यता और प्रतिभा के बल पर वह एक सार्वभौम सम्राट के पद पर पहुँच गया ।

उसने देश में पहली बार एक सुसंगठित शासन व्यवस्था की स्थापना की और वह व्यवस्था इतनी उच्चकोटि की थी कि आगे आने वाली पीढ़ियों के लिये आदर्श स्वरूप बनी रही । वह एक धर्म-प्राण व्यक्ति था ।

जैन परम्पराओं के अनुसार अपने जीवन के अन्तिम दिनों में वह जैन हो गया तथा भद्रबाहु की शिष्यता ग्रहण कर ली । उसके शासन काल के अन्त में मगध में बारह वर्षों का भीषण अकाल पड़ा । पहले तो चन्द्रगुप्त ने स्थिति से निपटने की पूरी कोशिश की किन्तु उसे सफलता नहीं मिली ।

परिणामस्वरूप वह अपने पुत्र के पक्ष में सिंहासन त्याग कर भद्रबाहु के साथ श्रवणवेलगोला (मैसूर) में तपस्या करने चला गया । इसी स्थान पर 298 ईसा पूर्व के लगभग उसने जैन विधि से उपवास पद्धति द्वारा प्राण त्याग किया । इसे जैन धर्म में ‘सल्लेखना’ कहा गया है ।

यहाँ उल्लेखनीय है क श्रवणवेलगोला की एक छोटी पहाड़ी आज भी चन्द्रगिरि कही जाती है तथा वहाँ ‘चन्द्रगुप्त बस्ती’ नामक एक मन्दिर भी है । बाद के कई लेखों में भी भद्रबाहु तथा चन्द्रगुप्त मुनि का उल्लेख मिलता है ।

इस प्रकार चन्द्रगुप्त द्वारा जैन धर्म स्वीकार करने की बात तो सही लगती है किन्तु जैन लेखकों द्वारा बारह वर्षीय अकाल का विवरण सही नहीं प्रतीत होता । यूनानी राजदूत मेगस्थनीज, जो चन्द्रगुप्त की राज्यसभा में निवास करता था, कहीं भी अकाल की स्थिति का उल्लेख नहीं करता है । अन्य किसी साक्ष्य से भी इसकी पुष्टि नहीं होती ।

तिथिक्रम:

चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन काल की विभिन्न घटनाओं का कालक्रम निर्धारित करना कठिन है । यूनानी प्रमाणों के आधार पर इस विषय पर कुछ निष्कर्ष निकाला जा सकता है । 323 ईसा पूर्व में सिकन्दर की बेबीलोन में मृत्यु हुई ।

इसके पश्चात् बेबीलोन में उसके साम्राज्य का बँटवारा हो गया । उसके साम्राज्य का दूसरा विभाजन 321 ईसा पूर्व के लगभग हुआ । इसमें पेरोपेनिसस (काबुल) यूनानी साम्राज्य का सबसे पूर्वी प्रदेश (क्षत्रपी) माना गया तथा यहाँ सिन्धु नदी के पूर्व किसी भी प्रदेश का उल्लेख नहीं मिलता ।

इससे ऐसा लगता है कि 321 ईसा पूर्व तक यूनानियों का अधिकार सिन्धु क्षेत्र में न रहा । हम यह भी जानते हैं कि इस क्षेत्र से यूनानियों के निष्कासन में चन्द्रगुप्त का ही मुख्य हाथ था । अत: ऐसा माना जा सकता है कि 323 ईसा पूर्व से 321 ईसा पूर्व के बीच चन्द्रगुप्त ने अपने को पंजाब तथा मगध का शासक बना लिया होगा ।

उसके राज्यारोहण की सम्भावित तिथि 322 ईसा पूर्व मानी जा सकती है । पुराणों के अनुसार उसने 24 वर्षों तक शासन किया । अत: उसकी मृत्यु 298 ईसा पूर्व के लगभग हुई होगी । इस प्रकार हम चन्द्रगुप्त मौर्य का शासन-काल 322 ईसा पूर्व के लगभग से 298 ईसा पूर्व तक मोटे तौर से सही मान सकते हैं ।

322 ईसा पूर्व की तिथि का समर्थन चीन के कैन्टन में रखे हुए लेख, जिसे ‘बिन्दुओं का लेख’ कहा जाता है, से भी हो जाता है । इसमें बिन्दुओं का प्रारम्भ महात्मा बुद्ध के महापरिनिर्वाण से प्रारम्भ होकर 489 ईस्वी तक जाता है जबकि उनका पूरा योग 975 हो जाता है ।

यदि बुद्ध के महापरिनिर्वाण तथा बिन्दुओं के प्रारम्भ होने के समय में एक वर्ष का अन्तर मान लिया जाये तो तद्नुसार महापरिनिर्वाण की तिथि 975 + 1 – 489 = 487 ईसा पूर्व होगी । पाली ग्रन्थों से पता चलता है कि महापरिनिर्वाण के 218 वर्षों बाद अशोक का अभिषेक हुआ तथा यह उसके सिंहासन पर बैठने के चार वर्षों बाद सम्पन्न हुआ था ।

इस दृष्टि से अशोक के सिंहासन पर बैठने की तिथि 273 ईसा पूर्व तथा उसके अभिषेक की तिथि 269 ईसा आती है । पुराण चन्द्रगुप्त तथा बिन्दुसार की शासनावधि क्रमशः 24 तथा 25 वर्ष बताते हैं । इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि चन्द्रगुप्त का राज्यारोहण 273 + 49 = 322 ईसा पूर्व में हुआ ।

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