Read this article in Hindi to learn about the development of politics during the rule of Aurangzeb in India.

उत्तराधिकार के युद्ध के दौरान अनेक स्थानीय जमींदारों और राजाओं ने मालगुजारी देना बंद कर दिया या मुगल क्षेत्रों और राजमार्गो समेत अपने पड़ोसी क्षेत्रों को लूटने लगे । औपचारिक रूप से गद्‌दी सँभालने के बाद औरंगजेब ने कठोर शासन का एक युग आरंभ किया ।

कुछ क्षेत्रों में साम्राज्य की सीमा का विस्तार हुआ जैसे पूर्वोत्तर भारत और दकन में । लेकिन औरंगजेब ने सामान्यत कोई तेज अग्रगति की नीति नहीं अपनाई । सत्तारोहण के तुरंत बाद उसका पहला प्रयास शाही सत्ता और उसके सम्मान को पुनर्स्थापित करना था ।

इसमें उन क्षेत्रों को वापस पाना भी शामिल था जो उत्तराधिकार के युद्ध के दौरान हाथ से निकल गए थे और जिन पर मुगल अपना वैध अधिकार मानते थे । आरंभ में औरंगजेब का सरोकार विजय और अधिग्रहण से अधिक अपनी सत्ता को मजबूत बनाने से था ।

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उदाहरण के लिए, उसने मुगल बादशाह की अधीनता स्वीकार कराने के लिए एक सेना बीकानेर भेजी पर उसके अधिग्रहण का कोई प्रयास नहीं किया । लेकिन एक अन्य मामले में जिसमें बिहार के पलामू क्षेत्र के शासक को अनिष्ठा का दोषी ठहराया गया और उसे सत्ताक्षत कर दिया गया और उसके राज्य के अधिकांश भाग का अधिग्रहण कर लिया गया ।

विद्रोही बुंदेला सरदार चंपतराय आरंभ में औरंगजेब का सहयोगी था पर जब वह लूटमार का जीवन जीने लगा तो मुगल सेना बराबर उसके पीछे लगी रही । लेकिन बुंदेला इलाकों का अधिग्रहण नहीं किया गया ।

पूर्वोत्तर और पूर्वी भारत: असम:

पंद्रहवीं सदी के अंत तक कामता राज्य का पतन हो चुका था और उसका स्थान कूच (कूचबिहार) राज्य ने ले लिया था जिसका उत्तरी बगाल और पश्चिमी असम पर वर्चस्व था तथा जिसने अहोमों के साथ टकराव की नीति जारी रखी थी । लेकिन आंतरिक विवादों के कारण सत्रहवीं सदी के आरंभ में राज्य का विभाजन हो गया तथा कूच के शासक के आग्रह पर असम में मुगलों ने प्रवेश किया ।

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विभाजित राज्य को मुगलों ने पराजित किया तथा 1612 में कूच की सेना की सहायता से बाड़ नदी तक पश्चिमी असम वादी पर अधिकार कर लिया । कूच का शासक मुगलों का आश्रित बन गया । इस तरह मुगलों का संपर्क अहोमों से हुआ जो बाड़ नदी के पार पूर्वी असम पर शासन कर रहे थे ।

पराजित राजवंश के एक राजकुमार को पनाह देनेवाले अहोमों से एक लंबे युद्ध के बाद अंतत: 1638 में दोनों के बीच एक संधि हुई जिसके कारण बाड़ नदी को उनके और मुगलों के बीच की सीमा मान लिया गया । इस तरह गुवाहाटी पर मुगलों का नियंत्रण हो गया ।

औरंगजेब के काल में मुगलों और अहोमों के बीच एक लंबा युद्ध चला । इसका आरभ गुवाहाटी और आसपास के क्षेत्रों से मुगलों को निकालने के लिए अहोमों के प्रयास से हुआ ताकि असम पर उनका पूरा-पूरा नियंत्रण स्थापित हो । मीर जुमला, जिसे औरंगजेब ने बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया था कूचबिहार और पूरे असम को मुगल शासन के अंतर्गत लाकर अपनी पहचान बनाना चाहता था ।

उसने पहले कूचबिहार पर हमला किया जिसने मुगलों की अधिराजी से अपने को मुक्त कर लिया था और उसने इस पूरे राज्य को मुगल साम्राज्य में मिला लिया । फिर उसने अहोम राज्य पर हमला किया । मीर जुमला ने अहोमों की राजधानी गड़गाँव पर अधिकार कर लिया और 6 माह तक अधिकार बनाए रखा ।

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फिर वह आगे बढ़ता हुआ अहोम राज्य की अंतिम सीमा तक चला गया और अंतत उसने (1669 में) अहोम राजा को एक अपमानजनक संधि के लिए बाध्य कर दिया । राजा को अपनी बेटी मुगल हरम में भेजनी पड़ी भारी हर्जाना देना पड़ा और 20 हाथियों का सालाना खराज देना पड़ा । मुगलों की सीमा अब बाड़ नदी से आगे बढ्‌कर भराली नदी तक जा पहुँची ।

बंगाल और उड़ीसा:

अपनी शानदार विजय के कुछ ही समय बाद मीर जुमला चल बसा । लेकिन असम में अग्रगति के लाभ संदिग्ध थे क्योंकि वह इलाका बहुत समृद्ध न था और पर्वतवासी नागाओं के लड़ाकू कबीलों से घिरा हुआ था । अहोम सत्ता की रीढ़ अभी भी टूटी न थी और संधि को लागू कराना मुगलों के बस से बाहर था ।

1661 में अहोमों ने दोबारा संघर्ष शुरू कर दिया । उन्होंने मुगलों को दिए गए क्षेत्रों को ही वापस नहीं लिया बल्कि गुवाहाटी पर भी कब्जा कर लिया । इससे पहले मुगल कूचबिहार से निकाले जा चुके थे । इस तरह मीर जुमला की सारी उपलब्धियाँ जल्द ही हाथ से जाती रहीं ।

उसके बाद अहोमों के साथ डेढ़ दशक तक एक लंबा, बेसिर-पैर का युद्ध चला । एक लंबे समय तक मुगल सेना की कमान आमेर के राजा रामसिंह ने सँभाली । लेकिन इस काम के लिए आवश्यक संसाधन उसके पास नहीं थे क्योंकि मीर जुमला की तरह वह बंगाल का सूबेदार नहीं था और उसके संसाधनों का उपयोग वह इच्छानुसार नहीं कर सकता था । अंतत मुगलों को गुवाहाटी तक से हाथ धोना पड़ा और उसके पश्चिम में सीमा का निर्धारण करना पड़ा ।

असम की घटनाओं ने दूर-दराज के क्षेत्रों में मुगल सत्ता की सीमाओं को तथा अहोमों के कौशल और संकल्प को भी स्पष्ट कर दिया जो जमकर लड़ने से बचते थे और छापामार युद्ध की पद्धति अपनाते थे । दूसरे क्षेत्रों में भी मुगलों के विरोधियों ने ऐसी ही कार्यनीतियाँ अपनाई और ऐसी ही सफलता पाई । लेकिन मुगल आक्रमण के झटके और बाद के युद्ध ने अहोम राजतंत्र की शक्ति को कम किया तथा अहोम साम्राज्य का पतन और विघटन हो गया ।

मुगलों को दूसरे स्थानों पर अधिक सफलता मिली । शिवाजी के हाथों मात खानेवाले शाइस्ता खान को मीर जुमला की जगह बंगाल का सूबेदार बनाया गया । वह एक अच्छा प्रशासक और योग्य सेनापति साबित हुआ । उसने मीर जुमला की अग्रगति की नीति में संशोधन किया ।

पहले उसने कूचबिहार के शासक के साथ एक समझौता किया । फिर उसने दक्षिण बंगाल की समस्या पर ध्यान दिया जहाँ चटगाँव को मुख्यालय बनाए बैठे माघ अरकानी लुटेरे ढाका तक के क्षेत्र में अतिक फैलाए हुए थे । ढाका तक का क्षेत्र वीरान हो चुका था तथा व्यापार और उद्योग को धक्का लगा था ।

शाइस्ता खान ने अरकानी लुटेरों का सामना करने के लिए एक नौसेना बनाई तथा चटगाँव के खिलाफ कार्रवाई का एक आधार बनाने के लिए सोनदीप नामक द्वीप पर अधिकार कर लिया । फिर उसने धन और अनुग्रहों का लालच देकर पुर्तगाली फिरंगियों को अपनी ओर किया ।

चटगाँव के पास अरकानी नौसेना तबाह कर दी गई और उनके अनेक जहाज पकड़े गए । फिर 1666 के आरंभ में चटगाँव पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया गया । इस काल में बंगाल के विदेश व्यापार की वृद्धि और पूर्वी बंगाल में कृषि के प्रसार के पीछे यह एक प्रमुख कारण था । उड़ीसा में पठानों के विद्रोह को कुचलकर बालासोर को व्यापार के लिए फिर से सुगम बना दिया गया ।

जन-विद्रोह और क्षेत्रीय स्वतंत्रता के लिए आंदोलन: जाट, अफगान और सिख:

साम्राज्य के अंदर औरंगजेब को अनेक दुरूह राजनीतिक समस्याओं का सामना करना पड़ा, जैसे दकन में मराठों की उत्तर भारत में जाटों और राजपूतों की तथा उत्तर-पश्चिम में अफगानों और सिखों की समस्याओं का । इनमें से कुछ समस्याएँ नई नहीं थीं और औरंगजेब के पूर्वजों ने भी उनको झेला था ।

पर औरगंजेब के काल में उनका एक भिन्न चरित्र हो गया । इन आंदोलनों की प्रकृति भी अलग-अलग थी । राजपूतों के सिलसिले में यह बुनियादी तौर पर उत्तराधिकार की समस्या थी । मराठों के सिलसिले में मुद्‌दा स्थानीय स्वतंत्रता का था । जाटों से टकराव की कृषि-संबंधी पृष्ठभूमि थी ।

सिख आंदोलन वह अकेला आंदोलन था, जिसमें धर्म की शक्तिशाली भूमिका रही । कालांतर में सिख और जाट आंदोलन दोनों का समापन स्वतंत्र राज्यों की स्थापना के साथ हुआ । अफगानों के संघर्ष का कबीलाई चरित्र था, पर उनमें एक अलग अफगान राज्य स्थापित करने की भावना भी काम कर रही थी ।

इस तरह आर्थिक और सामाजिक कारकों ने तथा क्षेत्रीय स्वतंत्रता की भावना ने जो अभी भी मजबूत थी इन आंदोलनों की रूपरेखा तय करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई । निस्संदेह धर्म की भी एक भूमिका रही ।

कभी-कभी तर्क दिया जाता है कि एक अफगान आंदोलन को छोड़ ये सभी आंदोलन औरंगजेब की संकीर्ण धार्मिक नीतियों के खिलाफ हिंदू प्रतिक्रिया के सूचक थे । जिस देश में जनता का विशाल भाग हिंदुओं का हो वहाँ मुख्यत मुस्लिम केंद्र सरकार से टकराने वाले किसी भी आंदोलन को इस्लाम विरोधी करार दिया जा सकता था ।

इसी तरह अपनी बात का प्रभाव बढ़ाने के लिए इन ‘विद्रोही’ आंदोलनों के नेता धार्मिक नारों या प्रतीकों का प्रयोग कर सकते थे । इसलिए धर्म को एक व्यापकतर आंदोलन का अंग माना जाना चाहिए ।

जाट और सतनामी:

मुगल शासन के साथ सबसे पहले टकराने वाला समूह आगरा-दिल्ली क्षेत्र के जाटों का था जो यमुना नदी के दोनों तरफ आबाद थे । जाट मुख्यत कृषक थे उनमें थोड़े से ही जमींदार थे । भाईचारे और इंसाफ की भावना से ओत-प्रोत इन जाटों ने अकसर सरकार से टक्कर ली थी, और अपने दुर्गम क्षेत्र का लाभ उठाकर विद्रोह किए थे ।

उदाहरण के लिए जहाँगीर और शाहजहाँ के काल में भी मालगुजारी की वसूली के सवाल पर इस क्षेत्र के जाटों से मुगलों के टकराव हुए थे । फूँक दकन और पश्चिमी बंदरगाहों तक के शाही रास्ते जाट क्षेत्रों से होकर जाते थे इसलिए मुगल सरकार ने इन विद्रोहों को गंभीरता से लिया था और इन्हें कुचलने के लिए कड़ी कार्रवाई की थी ।

1669 में मथुरा के जाटों ने एक स्थानीय जमींदार गोकला के नेतृत्व में विद्रोह किया । क्षेत्र के किसानों में यह विद्रोह तेजी से फैला और उसे कुचलने के लिए औरंगजेब ने स्वयं कूच करने का निर्णय किया ।

हालाकिं जाट विद्रोहियों की संख्या 20,000 तक चली गई थी, पर वे संगठित बादशाही सेना का मुकाबला नहीं कर सकते थे । एक तीखी लड़ाई में जाटों की हार हुई । गोकला को पकड़कर निर्ममता से मार डाला गया । लेकिन आंदोलन पूरी तरह कुचला न जा सका और असंतोष सुलगता रहा ।

इस बीच नारनौल में जो मथुरा से बहुत दूर न था, 1672 में किसानों और मुगल सरकार के बीच एक और हथियारबंद टकराव हुआ । इस बार टकराव एक धार्मिक समूह के साथ हुआ जो सतनामी कहलाता था । सतनामी अधिकतर किसान दस्तकार और निम्न जातियों के लोग थे, जिन्हें एक समकालीन लेखक ने ‘सुनार बढ़ई मेहतर चमार और दूसरे कमीन लोग’ कहा है ।

वे जाति और स्थिति के भेद को या हिंदू-मुस्लिम भेद को नहीं मानते थे तथा एक सख्त आचरण संहिता का पालन करते थे । टकराव एक स्थानीय अधिकारी के साथ आरंभ हुआ और वह जल्द ही विद्रोह में परिवर्तित हो गया । इसे भी कुचलने के लिए बादशाह को स्वय ही कूच करना पड़ा ।

दिलचस्प बात यह है कि इस टकराव में स्थानीय हिंदू जमींदारों ने जिनमें से अनेक राजपूत थे, मुगलों का साथ दिया । 1685 में राजाराम के नेतृत्व में जाटों ने एक और विद्रोह किया । इस बार जाटों का संगठन बेहतर था और उन्होंने छापामार युद्ध की नीति अपनाई, साथ में लूटपाट भी की । विद्रोह को कुचलने के लिए औरंगजेब ने कछवाह शासक राजा बिशनसिंह से संपर्क किया ।

बिशनसिंह को मथुरा का फौजदार बनाया गया और उसे पूरा क्षेत्र जमींदारी में दे दिया गया । जमींदारी के अधिकारों को लेकर जाटों और राजपूतों के बीच के टकराव ने इस मुद्‌दे को और पेचीदा बनाया । अधिकतर प्राथमिक जमींदार अर्थात खेती करनेवाले और जमीन के मालिक किसान जाट थे जबकि अधिकांश बिचौलिये जमींदार, अर्थात मालगुजारी वसूल करनेवाले जमींदार राजपूत थे ।

जाटों ने कड़ा प्रतिरोध किया, मगर 1691 तक राजाराम और उसके उत्तराधिकारी चूड़ामन को समर्पण के लिए बाध्य किया जा चुका था । लेकिन जाट किसानों में असंतोष बना रहा, तथा उनके लूटपाट के कामों ने दिल्ली-आगरा मार्ग को यात्रियों के लिए असुरक्षित बना दिया ।

आगे चलकर अठारहवीं सदी में, मुगल गृहयुद्धों का और केंद्र सरकार की कमजोरी का लाभ उठाकर आमन ने इस क्षेत्र में एक अलग जाट रजवाड़ा बना लिया और राजपूत जमींदारों को बाहर निकाल फेंका । इस तरह जिस आंदोलन का आरंभ एक किसान विद्रोह के रूप में हुआ था उसके चरित्र में परिवर्तन हो गया और उसका समापन एक ऐसे राज्य की स्थापना के साथ हुआ जिसमें जाट सरदार शासक वर्ग थे ।

अफगान:

औरंगजेब का अफगानों से भी टकराव हुआ । पंजाब और काबुल के बीच पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले सख्तजान अफगान कबाइलियों से भिड़ंत कोई नई बात नहीं थी । अफगानों से अकबर को भी लड़ना पड़ा और इन्हीं लड़ाइयों के दौरान उसने अपने गहरे मित्र और विश्वासपात्र राजा बीरबल को खो दिया ।

अफगान कबाइलियों से टकराव शाहजहाँ के काल में भी हुआ था । ये टकराव अंशत आर्थिक और अंशत: राजनीतिक व धार्मिक थे । ऊबड़-खाबड़ पहाड़ों में जीविका का कोई विशेष साधन न होने के कारण अफगानों के पास कारवाँओं को लूटने या मुगल सेना में भरती होने के अलावा कोई विकल्प न था ।

उनके तीव्र स्वतंत्रता-प्रेम के कारण मुगल सेना में नौकरी करना उनके लिए कठिन था । मुगल आम तौर पर उन्हें अनुदान देकर सतुष्ट रखते थे । लेकिन आबादी में वृद्धि या किसी महत्वाकांक्षी नेता के उदय के कारण यह अनकहा समझौता टूट भी जाता था ।

औरंगजेब के काल में हम पठानों में एक नई हलचल देखते हैं । 1667 में यूसुफजई कबीले के नेता भार ने मुहम्मदशाह नामक एक व्यक्ति को राजा घोषित किया जो एक प्राचीन राजवश का वंशज होने का दावा करता था; भार ने स्वयं को उसका वजीर घोषित किया ।

लगता है कि जाटों की तरह अफगानों में भी अपना एक अलग राज्य बनाने की महत्त्वाकांक्षा हिलोरें मारने लगी थी । रौशनाई नामक एक धार्मिक पुनरूत्थानवादी आंदोलन ने जो कठोर नैतिक जीवन पर और एक चुनिंदा पीर की मुरीदी पर जोर देता था, इस आंदोलन के लिए एक बौद्धिक और नैतिक पृष्ठभूमि का काम किया ।

भार का आंदोलन धीरे-धीरे बढ़ता रहा, यहाँ तक कि उसके अनुयायी हजारा, अटक और पेशावर जिलों को तहस-नहस करने और लूटने लगे । उन्होंने खैबर के रास्ते होने वाले यातायात को भी ठप कर दिया । खैबर का रास्ता साफ करने और विद्रोह को कुचलने के लिए औरंगजेब ने मुख्य बख्शा अमीर खान को भेजा ।

उसके साथ एक राजपूत दस्ता भेजा गया । एक के बाद एक तीखी लड़ाइयों के बाद अफगानों का प्रतिरोध बिखर गया । लेकिन उन पर निगरानी रखने के लिए मारवाड़ के शासक महाराज जसवंत सिंह को 1671 में जमरूद का थानेदार बना दिया गया । जमरूद तब खैबर दर्रे के रास्ते को नियंत्रित करता था ।

1672 में दूसरा अफगान विद्रोह हुआ । इस बार प्रतिरोध का नेतृत्व अफरीदी नेता अकमल खान ने किया जिसने स्वयं को शाह घोषित किया, अपने नाम का खुत्वा पढ़वाने लगा और अपने नाम के सिक्के चलाए । उसने मुगलों के खिलाफ जंग का एलान किया और तमाम अफगानों का आह्वान किया कि वे उसका साथ दें ।

एक समकालीन लेखक के अनुसार ‘चीटों और टिड्‌डों से अधिक’ अनुयायियों के साथ उसने खैबर दर्रे को बंद कर दिया । दर्रे का रास्ता खोलने के लिए अमीर खान आगे बढ़ा तो वह काफी दूर निकल गया और संकरे रास्ते में उसे जानलेवा हार का सामना करना पड़ा । खान तो जान बचाकर भाग निकलने में सफल रहा पर 10,000 लोग मारे गए तथा अफगानों ने दो करोड़ से अधिक की नकदी और सामान लूटा ।

इस हार के बाद तो दूसरे कबाइली भी मैदान में आ गए । उनमें औरंगजेब का जानी दुश्मन खुशहाल खान खट्‌टक भी था जो कुछ समय तक उसका कैदी रह चुका था । 1674 में खैबर में एक और मुगल अमीर शुजाअत खान की भी शर्मनाक हार हुई । पर जसवंत सिंह के भेजे राठौडों के एक बहादुर दस्ते ने उसे बचा लिया ।

अंतत: 1674 के मध्य में औरगजेब स्वयं पेशावर गया और 1675 के अंत तक वहीं आसपास जमा रहा । बल और कूटनीति के सहारे अफगानों का संयुक्त मोर्चा तोड़ा गया और धीरे-धीरे अमन फिर से बहाल हुआ ।

अफगान विद्रोह से स्पष्ट है कि मुगल शासन के विरोध की भावना और क्षेत्रीय स्वतंत्रता की इच्छा जाट मराठा आदि हिंदू समूहों तक सीमित नहीं थी । अफगान विद्रोह के कारण नाजुक दौर में शिवाजी पर से मुगलों का दबाव भी ढीला पड़ गया ।

इसके कारण 1676 तक दकन में मुगलों की अग्रगति भी असभव नहीं तो कठिन अवश्य हो गई । पर तब तक अपने आपको राजा घोषित करके शिवाजी ने बीजापुर और गोलकुंडा से गँठजोड़ कर लिया था ।

सिख:

हालांकि शाहजहाँ के काल में सिख गुरु और मुगलों के बीच कुछ टकराव हो चुके थे पर सिखों और औरंगजेब के बीच 1675 तक कोई टकराव नहीं हुआ । वास्तव में, सिखों के बढ़ते महत्त्व को देखते हुए औरंगजेब गुरु से अच्छे सबध स्थापित करना चाहता था । गुरु हरराय का सबसे बड़ा बेटा रामराय दरबार में रह चुका था ।

लेकिन गुरु हरराय, रामराय से नाराज हो गए और उन्होंने अपने छोटे बेटे रामकिशन को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया । तब रामकिशन की आयु कुल 6 वर्ष की थी । गुरु रामकिशन की शीघ्र ही मृत्यु हो गई और उनकी जगह 1664 में गुरु तेग बहादुर ने ली । गद्‌दी पर गुरु हरकिशन के बैठने से पहले और उनकी मौत के बाद भी रामराय ने गद्‌दी का दावा किया था ।

औरंगजेब ने हस्तक्षेप नहीं किया तथा रामराय को देहरादून में भूमि का दान वहाँ गुरुद्वारा बनाने के लिए दिया । लेकिन रामराय अधिकांश समय दिल्ली में रहे गुरु के खिलाफ षड्‌यंत्र करते रहे, और उनके खिलाफ बादशाह के मन में जहर भरने का प्रयास करते रहे ।

उत्तराधिकार पाने के बाद गुरु तेगबहादुर दिल्ली आए लेकिन रामराय के षडयंत्रों से बचने के लिए बिहार चले गए और 1671 तक असम में आमेर के राजा रामसिंह की सेवा में रहे । लेकिन 1675 में गुरु तेगबहादुर को उनके मुख्यालय से उनके पाँच अनुयायियों के साथ दिल्ली लाया गया । उनके खिलाफ विभिन्न आरोप लगाए गए और उनसे अपना धर्म छोड़ने के लिए कहा गया जिससे उन्होंने साफ इनकार कर दिया । दंडस्वरूप उनका सर कलम करवा दिया गया ।

औरंगजेब की इस कार्रवाई के अनेक कारण बताए गए हैं । गुरु तेगबहादुर के बेटे और उत्तराधिकारी गुरु गोविंदसिंह की एक काव्य-रचना के अनुसार कश्मीर के कुछ ब्राह्‌मणों ने उनसे मुलाकात की और उनका समर्थन माँगा । इसके पश्चात उन्होंने हिंदू धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राण दे दिए ।

पर हमें इस मुलाकात के ब्यौरों का ज्ञान नहीं है । एक अलग और बाद की कथा के अनुसार गुरु कश्मीर के सूबेदार शेर अफगन के उत्पीड़न का और वहाँ बड़े पैमाने पर हिंदुओं के धर्मातरण का विरोध कर रहे थे । लेकिन 1671 तक कश्मीर का मुगल सूबेदार सैफ खान था ।

वह पुलों के निर्माता के रूप में मशहूर है और वह एक उदार और विशाल-हृदय व्यक्ति भी था जिसने प्रशासन संबंधी बातों में सलाह पाने के लिए एक हिंदू को नियुक्त किया था । 1671 के बाद उसका उत्तराधिकारी इफिाखार खान सूबेदार बना था । वह शियाओं का विरोधी था पर उसके हाथों हिंदुओं के उत्पीड़न का कोई उल्लेख नहीं मिलता ।

वास्तव में, नारायण कौल द्वारा 1710 में लिखे गए इतिहास समेत कश्मीर के किसी भी स्थानीय इतिहास में इसका उल्लेख नहीं किया गया है । एक और कथा के अनुसार गुरु का सर इसलिए कलम कराया गया कि गुरु तेगबहादुर के रामराय जैसे कुछ शत्रुओं और प्रतियोगियों ने औरंगजेब को सुझाया था कि वह गुरु से अपनी दैवी शक्तियों का दावा साबित करने के लिए कोई चमत्कार दिखाने को कहे और अगर वे न दिखा सकें तो उनके खिलाफ कार्रवाई की जाए ।

पर यह बात संभव नहीं लगती । औरंगजेब अफगान विद्रोहियों का पीछा करने के लिए 1675 के आरभ से मार्च 1676 तक दिल्ली से बाहर रहा । इसलिए वह रामराय के सुझाव पर गुरु को दिल्ली बुला ही नहीं सकता था ।

एक व्याख्या बाद के फारसी स्रोतों में दी गई है जो सरकारी कार्रवाई का समर्थन करती लगती है । कहा गया है कि गुरु जिनके बड़ी संख्या में अनुयायी थे का एक हाफिज आदम नाम के व्यक्ति के साथ संपर्क था, जो शेख अहमद सरहिंदी का अनुयायी था और वह पंजाब में घूम-घूमकर ग्रामीणों से जबरन धन वसूल किया करता था ।

यह भी कहा गया है कि स्थानीय वाकिया नवीस (खबरें दर्ज करनेवाले) ने बादशाह से शिकायत की थी कि अगर गुरु के खिलाफ कार्रवाई न की गई तो उथल-पुथल ही नहीं, बल्कि बगावत भी हो सकती है ।

यह विवरण विश्वसनीय नहीं है । इसमें हाफिज आदम को गुरु का सहयोगी बतलाया गया है पर वह बहुत पहले मर चुका था । गुरु को मृत्युदंड दिए जाने का स्थान दिल्ली नहीं लाहौर बताया गया है । पर इसमें यह नहीं कहा गया है कि गुरु को बादशाह के आदेश पर मृत्युदंड दिया गया था ।

लगता है कि औरंगजेब के लिए गुरु को मृत्युदंड देना मुख्यत: कानून और व्यवस्था की समस्या से प्रेरित एक फैसला था । एक और फारसी स्रोत के अनुसार जब स्थानीय मालगुजार या जमींदार से किसानों का टकराव होता था तो वे गुरु की शरण में आते थे जो उनकी सहायता करते थे ।

इस तरह किसानों से जबरन धन वसूलना तो दूर गुरु अन्याय और दमन के विरोधी के रूप में उभर रहे थे । शरीअत पर औरंगजेब का जोर नए बने मंदिरों का विध्वंस और मथुरा वाराणसी आदि के कुछ पुराने मंदिरों तक का विध्वंस ऐसे कुछ कारण थे जिनसे बहुत हद तक धार्मिक तनाव का माहौल पैदा हो चुका था ।

औरंगजेब की कार्रवाई हर तरह से अनुचित थी और एक संकीर्ण दृष्टिकोण का परिचायक थी । गुरु तेगबहादुर की मृत्यु ने सिखों को पंजाब की पहाड़ियों में वापस जाने के लिए मजबूर कर दिया । इसने सिख आंदोलन को धीरे-धीरे एक सैन्य भ्रातृसंघ (ब्रदरहुड) का रूप भी दे दिया ।

इस क्षेत्र में एक प्रमुख योगदान गुरु गोविंद सिंह का था । उन्होंने पर्याप्त संगठन कौशल का परिचय दिया और 1696 में खालसा नाम से सैन्य भ्रातृसंघ की स्थापना की । इससे पहले गुरु गोविंद सिंह ने पंजाब की पहाड़ियों में मखोवाल या आनंदपुर में अपना मुख्यालय बनाया था ।

पहले तो पहाड़ी हिंदू राजाओं ने अपने आपस के झगड़ों में गुरु और उनके अनुयायियों का इस्तेमाल करने का प्रयास किया । लेकिन जल्द ही गुरु बहुत शक्तिशाली हो गए तथा पहाड़ी राजाओं और गुरु के बीच अनेक टकराव हुए जिनमें गुरु आम तौर पर जीतते रहे ।

खालसा के गठन ने इस टकराव में गुरु के हाथों को और भी मजबूत किया । लेकिन स्थानीय राजाओं और गुरु के बीच खुला संबंध विच्छेद 1704 में ही जाकर हुआ जब अनेक पहाड़ी राजाओं की संयुक्त सेना ने आनंदपुर में गुरु पर हमला किया । राजाओं को फिर पीछे हटना पड़ा तथा उन्होंने गुरु के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए मुगल शासन पर दबाव डाला ।

इस तरह जो संघर्ष शुरू हुआ, वह केवल धार्मिक संघर्ष नहीं था । यह अंशत: हिंदू पहाड़ी राजाओं और सिखों की स्थानीय शत्रुता का परिणाम था तथा अंशत सिख आंदोलन जिस तरह विकसित हुआ उसका परिणाम था । औरंगजेब की चिंता गुरु की बढ़ती शक्ति को लेकर थी और उसने पहले मुगल फौजदार से ‘गुरु को फटकार’ लगाने के लिए कहा था ।

अब उसने लाहौर के सूबेदार और सरहिंद के फौजदार वजीर खान को गुरु गोविंद सिंह से टकराव की स्थिति में पहाड़ी राजाओं की सहायता करने के लिए लिखा । मुगल सेनाओं ने आनंदपुर पर हमला किया लेकिन सिख बहादुरी से लड़े और उन्होंने तमाम हमलों को नाकाम कर दिया ।

मुगलों और उनके सहयोगियों ने किले को अब और करीब से घेरा । किले के अंदर जब भुखमरी फैली तो गुरु गोविंद सिंह ने मजबूर होकर लगता है वजीर खान से सुरक्षित रास्ते का वादा मिलने पर किले का दरवाजा खोल दिया । लेकिन गुरु की सेना जब एक उफान पर आई नदी को पार कर रही थी तो वजीर खान की सेना ने एकाएक हमला कर दिया ।

गुरु के पुत्रों में दो पकड़े गए और इस्लाम स्वीकार करने से इनकार करने पर सरहिंद में उनका वध करवा दिया गया । एक और युद्ध में गुरु बाकी दो पुत्रों से भी वंचित हो गए । इसके बाद गुरु पीछे हटकर तलवंडी चले गए और आम तौर पर उनको सताया नहीं गया ।

गुरु के बेटों के खिलाफ वजीर खान की निर्मम कार्रवाई औरंगजेब के कहने पर की गई थी. इसमें संदेह है । लगता है औरंगजेब गुरु को नष्ट करने की इच्छा नहीं रखता था और उसने लाहौर के सूबेदार को ‘गुरु से मेल-मिलाप’ करने के लिए लिखा था । गुरु ने जब दकन में मौजूद औरंगजेब से मिलने की इच्छा प्रकट की तो उन्हें मिलने के निमंत्रित किया गया ।

1706 के अंतिम दिनों में गुरु दकन की ओर चले पर अभी रास्ते में ही थे कि औरंगजेब की मृत्यु हो गई । कुछ लोगों की राय में उन्हें आशा थी कि वे औरंगजेब को आनंदपुर वापस देने के लिए राजी कर लेंगे । गुरु गोविंद सिंह ने लंबे समय तक मुगलों की शक्ति का सामना किया ।

उन्होंने एक अलग सिख राज्य की नींव रख दी और खालसा ने आगे चलकर उसकी सिद्धि का एक साधन भी तैयार कर दिया । इससे यह पता चला कि एक समतावादी धार्मिक आदोलन कुछ विशेष परिस्थितियों में किस प्रकार एक राजनीतिक और सैन्य आदोलन में बदल सकता था और सूक्ष्म ढंग से क्षेत्रीय स्वाधीनता की ओर बढ़ सकता था ।

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