Read this article in Hindi to learn about the rule of Aurangzeb in India during medieval period.

औरंगजेब ने लगभग 50 वर्षो तक शासन किया । उसके लंबे शासनकाल में मुगल साम्राज्य का क्षेत्रफल अपनी चरम सीमा पर जा पहुँचा । इस समय यह उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में जिंजी तक और पश्चिम में हिंदूकुश से लेकर पूरब में चटगाँव तक फैला हुआ था ।

औरंगजेब एक मेहनती शासक साबित हुआ और वह शासनकार्य में न अपने को बख्शता था, न अपने मातहतों को । उसके पत्र दिखाते हैं कि राज्य के सारे मामलों पर वह कितना अधिक ध्यान देता था । वह कठोर अनुशासनवादी था जो अपने बेटों तक को नहीं बख्शता था ।

1686 में गोलकुंडा के शासक के साथ षडयंत्र करने के आरोप में उसने शाहजादा मुअज्जम को गिरफ्तार कर लिया और उसे 12 लंबे बरसों तक कैद में रखा । उसके दूसरे बेटों को भी विभिन्न अवसरों पर उसका गुस्सा झेलना पड़ा ।

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औरंगजेब का रोबदाब इतना था कि जब वह बूढ़ा हो चला था तब भी जब कभी मुअज्जम को जो उन दिनों काबुल का सूबेदार था पिता का कोई पत्र मिलता जो कि तब दूर दक्षिण भारत में था तो वह काँप जाता था । अपने पूर्वजों के विपरीत औरंगजेब तड़क-भड़क पसंद नहीं करता था । सादगी उसके निजी जीवन की विशेषता थी । उसे एक रूढ़िवादी ईश्वरभीरु मुस्लिम होने की प्रसिद्धि प्राप्त थी । आगे चलकर उसे ‘जिंदा पीर’ कहा जाने लगा ।

लेकिन शासक-रूप में औरंगजेब की उपलब्धियों पर इतिहासकारों में गहरे मतभेद हैं । कुछ की राय में उसने अकबर की धार्मिक सहिष्णुता की नीति को पलट दिया और इस तरह साम्राज्य के प्रति हिंदुओं की निष्ठा को कमजोर किया । फिर इसके कारण जनविद्रोह हुए जिन्होंने साम्राज्य की जीवनशक्ति को कम किया । उसके शक्की स्वभाव ने उसकी मुसीबतें और बढ़ाई ।

खाफी खान के शब्दों में ‘उसके सभी उद्यम लंबे खिंचते गए’ और अंत में असफल हुए । कुछ अन्य आधुनिक इतिहासकार मानते हैं कि औरंगजेब की गलत निंदा की गई है । उसके अनुसार औरंगजेब के पूर्वजों की ढील के ही कारण हिंदू निष्ठाहीन हो गए थे और इस कारण औरंगजेब के पास कोई विकल्प नहीं था सिवाय इसके कि वह कठोर कदम उठाए और मुसलमानों को अपने साथ लाने के प्रयास करे जिनके बल पर ही दीर्घकाल में साम्राज्य को टिके रहना था ।

लेकिन औरंगजेब संबंधी हाल की रचनाओं से एक और प्रवृत्ति का पता चलता है । इन रचनाओं में सामाजिक, आर्थिक और सस्थागत विकासक्रमों के संदर्भ में औरंगजेब की राजनीतिक और धार्मिक नीतियों के मूल्यांकन का प्रयास किया गया है । औरंगजेब के रूढ़िवादी विचारों वाला व्यक्ति होने के बारे में शायद ही कोई शक हो ।

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दार्शनिक बहसों में या सूफीवाद में उसकी कोई रुचि नहीं थी हालांकि कभी-कभी वह सूफी संतों के यहाँ उनकी दुआएँ लेने जाता रहा और उसने अपने बेटों को भी सूफीवाद में उलझने से नहीं रोका । औरंगजेब ने मुस्लिम कानून के हनफी व्याख्या को अपनाया जिसका पालन भारत में पारंपरिक रूप से हो रहा था ।

लेकिन वह लौकिक आदेश जारी करने से भी नहीं झिझकता था जिनको जवाबित कहते हैं । उसके आदेशों और सरकारी नियम-कायदों को एक पुस्तक में संकलित किया गया है जिसका शीर्षक जवाबित-ए-आलमगीरी है । सिद्धांत में ये जवाबित शरीअत के पूरक थे लेकिन व्यवहार में वे कभी-कभी भारतीय दशाओं को ध्यान में रखकर शरीअत में संशोधन भी कर देते थे, क्योंकि शरीअत में इन दशाओं के लिए कोई प्रावधान नहीं था ।

इस तरह रूढ़िवादी मुसलमान होने के अलावा औरंगजेब एक शासक भी था । वह इस राजनीतिक यथार्थ को शायद ही भूल सकता था कि भारत की अधिकांश जनता हिंदू है और अपने धर्म से उनका गहरा लगाव है । जाहिर है ऐसी कोई नीति काम नहीं आती जो हिंदुओं तथा शक्तिशाली हिंदू राजाओं और जमींदारों को पूरी तरह विमुख कर देती ।

औरंगजेब की धार्मिक नीति का विश्लेषण करते समय हमें पहले उन चीजों पर ध्यान देना होगा, जिसे नैतिक और धार्मिक नियम कहा गया है । अपने शासन के आरंभ में ही उसने सिक्कों पर कलमा दर्ज किए जाने से मना कर दिया था कि कहीं हाथ से हाथ में जाते हुए कोई सिक्का किसी के पैर के नीचे न आ जाए या दूसरे तरीकों से अपवित्र न हो जाए ।

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उसने नवरोज त्योहार मनाया जाना बंद करा दिया जिसे ईरान के सफवी बादशाह मनाते थे और जो एक जरथुस्त्री (पारसी) प्रथा माना जाता था । सभी सूबों में मोहतसिब नियुक्त किए गए । इन अधिकारियों को यह देखते रहने का निर्देश था कि लोग शरीअत के अनुसार जीवनयापन कर रहे हैं या नहीं ।

इस तरह इनका काम यह देखना था कि सार्वजनिक स्थानों में शराब और भाँग जैसी नशीली वस्तुओं का सेवन न किया जाए । ये लोग वेश्यालयों, जुए के अड्‌डों आदि पर नियंत्रण रखने तथा बाटों और मापों की जाँच करने के लिए भी जिम्मेदार थे । दूसरे शब्दों में उनका काम यह सुनिश्चित करना था कि शरीअत और जवाबित में शामिल निषेधों का यथासंभव उल्लंघन न हो ।

मोहतसिबों को नियुक्त करके औरंगजेब ने स्पष्ट कर दिया कि राज्य नागरिकों और विशेषकर मुसलमानों के नैतिक कल्याण के लिए भी जिम्मेदार है । पर इन अधिकारियों को नागरिकों के निजी जीवन में हस्तक्षेप न करने का निर्देश था ।

आगे चलकर अपने ग्यारहवें शासनवर्ष (1669) में औरंगजेब ने ऐसे अनेक कदम उठाए जिनको कट्‌टर कहा गया है और उनका मकसद यह दिखाना था कि बादशाह ऐसे तमाम रीति-रिवाजों का विरोधी है जो शरीअत से मेल नहीं खाते या जिनको भ्रांतिपूर्ण माना जा सकता है ।

इनमें से कुछ कदम तो आर्थिक और सामाजिक चरित्र वाले भी थे । मसलन उसने दरबार में गायन पर प्रतिबंध लगा दिया और सरकारी संगीतकारों की छुट्‌टी कर दी गई । लेकिन वाद्य-संगीत और नौबत (शाही नगाड़ा) जारी रहे । हरम की महिलाएँ भी गायन को संरक्षण देती रहीं तथा शाहजादे और अमीर भी ।

यह बात कुछ दिलचस्प है क्योंकि जैसा कि पहले कहा गया है, भारतीय शास्त्रीय संगीत पर फारसी में सबसे अधिक पुस्तकें औरंगजेब के काल में ही लिखी गई तथा स्वयं औरंगजेब एक कुशल वीणावादक था । इस तरह विरोध करनेवाले संगीतकारों के सामने औरंगजेब की यह चुटकी कि संगीत के जिस जनाजे को वे लेकर जा रहे हैं उसे इतना गहरा दफन करें ‘कि उसकी गूँज फिर उठने न पाए’ बस एक कुद्ध टिप्पणी थी ।

औरंगजेब ने झरोखा-दर्शन (झरोखे में बैठकर प्रजा को दर्शन देने) का रिवाज बंद कर दिया क्योंकि वह इसे अंधविश्वासी और इस्लाम के खिलाफ मानता था । इसी तरह उसने बादशाह के जन्मदिन पर उसे सोने-चाँदी और दूसरी वस्तुओं के मुकाबले तोलने का समारोह भी समाप्त कर दिया ।

यह रिवाज जो लगता है कि अकबर के काल में शुरू हुआ था काफी प्रचलित था और छोटे कुलीनों पर बोझ बन चुका था । लेकिन सामाजिक जनमत का दबाव इतना अधिक था औरगंजेब को शाहजादों को बीमारी से मुक्त होने पर इस समारोह को मनाने की इजाजत देनी पड़ी । उसने ज्योतिषियों को पंचांग तैयार करने से मना कर दिया । लेकिन शाही परिवार के सदस्यों समेत हर कोई इस आदेश का उल्लंघन करता रहा ।

इसी प्रकार के दूसरे बहुत-से नियम जारी किए गए-कुछ नैतिक प्रकृति के थे और कुछ सादगी की भावना पैदा करने के उद्‌देश्य से थे । तख्त वाले कमरे की सजावट मामूली और सीधे-सादे ढंग से की जाने लगी बाबू लोग चाँदी की दावातों की बजाय चीनी मिट्‌टी की दावातों का प्रयोग करने लगे रेशमी कपड़ों पर नाक-भौं सिकोड़ा जाने लगा दीवान-ए-आम में सोने की बाढ़ की जगह लाजवर्द का इस्तेमाल किया जाने लगा जिन पर सोने का काम होता था ।

किफायत के एक कदम के रूप में इतिहास-लेखन का विभाग तक बंद कर दिया गया । मुसलमानों में व्यापार को बढ़ावा देने के लिए औरंगजेब ने पहले तो आयातित वस्तुओं पर लगने वाले महसूल से मुस्लिम व्यापारियों को बड़ी सीमा तक मुक्त कर दिया । पर जल्द ही उसे पता चला कि मुस्लिम व्यापारी इसका दुरुपयोग कर रहे थे तथा राज्य को धोखा देने के लिए हिंदुओं के माल को अपना बता देते थे ।

इसलिए औरंगजेब ने मुस्लिम व्यापारियों पर यह महसूल दोबारा लगाया लेकिन इसे दूसरों से वसूल की जा रही दर से आधा रखा । इसी तरह उसने पेशकार और करोड़ी (मालगुजारी के छोटे हाकिम) के पदों को मुसलमानों के लिए आरक्षित करने का प्रयास किया, पर अमीरों के विरोध और योग्य मुसलमानों के अभाव के कारण उसे इसमें संशोधन करना पड़ा ।

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