Read this article in Hindi to learn about the religious policy of Aurangzeb.

अब हम औरंगजेब के कुछ दूसरे कदमों पर ध्यान देंगे जिनको भेदभाव से भरा कहा जा सकता है और जो दूसरे धर्म माननेवालों के प्रति धर्माधता की भावना दिखाते हैं । इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण मंदिरों के प्रति औरंगजेब का रुख तथा जजिया की वसूली थें ।

अपने शासन के आरंभ में ही औरंगजेब ने मंदिरों, यहूदी उपासनागृहों, गिरजाघरों आदि के प्रति शरीअत के रुख को दोहराया कि ‘पुराने मंदिरों को नष्ट नहीं किया जाना चाहिए मगर किसी नए मंदिर के बनाने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए ।’ इसके अलावा पुराने पूजास्थानों की मरम्मत की जा सकती है ‘क्योंकि इमारतें तो हमेशा के लिए ठहर नहीं सकती ।’ यह रुख उन मौजूद फरमानों से पूर्णत: स्पष्ट है जो उसने बनारस, वृंदावन आदि के ब्राह्मणों को जारी किए ।

औरंगजेब का मंदिरों संबंधी आदेश कोई नया नहीं था । इसमें वही रुख अपनाया गया थ: जो सल्तनत काल में था तथा जिसे अपने शासन के आरंभकाल मे शाहजहाँ ने दोहराया था । व्यवहार में स्थानीय अधिकारी ‘पुराना मंदिर’ शब्द की व्याख्या में काफी उदारता या अनुदारता से काम ले सकतै थे ।

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इस बारे में अधिकारीगण के लिए शासक की निजी राय और भावना का भी महत्व होता था । उदाहरण के लिए शाहजहाँ के प्रिय पुत्र के रूप में उदारवादी दारा के उदय के बाद मंदिरों संबंधी उसके आदेश के अंतर्गत शायद ही कोई नया मंदिर गिराया गया हो । गुजरात के सूबेदार के रूप में औरंगजेब ने गुजरात के अनेक मंदिरों को नष्ट करने का आदेश दिया जिसका मतलब अकसर केवल मूर्ति को तोड़ देना और मंदिर पर ताला लगा देना होता था ।

अपनें शासन के आरंभ में औरंगजेब ने देखा कि इन मंदिरों में मूर्तियों को पुनर्स्थापित किया गया है और मूर्तिपूजा फिर से शुरू हो गई है । इसलिए 1665 में औरंगजेब ने फिर आदेश जारी किया कि ये मंदिर नष्ट किए जाएँ । सोमनाथ का प्रसिद्ध मंदिर जिसे उसने पहले नष्ट करने का आदेश दिया था लगता है उपरोक्त प्रकार के मंदिरों में एक था । ऐसा नहीं लगता कि नए मंदिरों पर प्रतिबंध के आदेश के कारण औरंगजेब शासन के आरंभकाल में बड़े पैमाने पर मंदिर गिराए गए ।

बाद में, औरंगजेब को जब अनेक दिशाओं से राजनीतिक विरोध का सामना करना पड़ा जैसे मराठों जाटों आदि की ओर से तो लगता है उसने एक नया रुख अपनाया । स्थानीय तत्त्वों से टकराव की दशा में अब वह दंड और चेतावनी दोनों के तौर पर पुराने हिंदू मंदिर गिराने को भी वैध मानने लगा ।

इसके अलावा वह मंदिरों को विध्वंसक विचारों के अर्थात रूढ़िवादी तत्त्वों को अस्वीकार्य विचारों के प्रसार का केंद्र समझने लगा । मसलन जब उसे 1669 में पता चला कि थट्‌टा, मुलतान और विशेषकर बनारस के कुछ मंदिरों में हिंदू और मुसलमान दोनों दूर-दूर से ब्राह्मणों से ज्ञान पाने के लिए आते हैं तो उसने कड़ी कार्रवाई की ।

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औरंगजेब ने सभी सूबेदारों को इस प्रथा को रोकने तथा जिन मंदिरों में यह प्रथा जारी थी उनको नष्ट करने के आदेश दिए । इन आदेशों के फलस्वरूप अनेक मंदिर गिराए गए और उनकी जगह मस्जिदें बनवाई गईं, जैसे बनारस का सुप्रसिद्ध विश्वनाथ मंदिर और मथुरा में केशवराय का मंदिर जिसे जहाँगीर के काल में वीरसिंह देव बुंदेला ने बनवाया था ।

इन मंदिरों के विनाश के पीछे एक राजनीतिक उद्‌देश्य भी था । मथुरा के केशवराय मंदिर के विनाश के बारे मे मआसिर-ए-आलमगीरी के लेखक मुस्तैद खान का कहना है कि ‘बादशाह के धर्म की इस शक्ति और अल्लाह के प्रति उसकी आस्था की यह मिसाल देखकर घमंडी राजा भौंचक रह गए और हैरत के मारे दीवार की ओर मुँह किए जड़ मूर्तियों की तरह खड़े रहे ।’

यही संदर्भ था जिसमें उड़ीसा में पिछले दस-बारह वर्षों में बने अनेक मंदिर भी नष्ट किए गए । पर ऐसा नहीं लगता कि सभी मंदिरों के विनाश का कोई सामान्य आदेश जारी किया गया । अठारहवीं सदी के आरंभ में मुस्तैद खान ने औरगंजेब का इतिहास लिखा था और उसका औरंगजेब से घनिष्ठ संबंध था ।

वह कहता है कि औरगंजेब का उद्‌देश्य ‘इस्लाम की स्थापना’ करना था और बादशाह ने सूबेदारों को सभी मंदिर गिराने तथा इन काफ़िरों अर्थात हिंदुओं के धर्म के सार्वजनिक व्यवहार पर प्रतिबंध लगाने का आदेश दिया था ।

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अगर मुस्तैद खान का कहना सही है तो इसका मतलब यह हुआ कि औरंगजेब शरीअत के आदेश से काफी आगे बढ़ गया क्योंकि गैर-मुस्लिम जब तक शासक के प्रति वफादारी आदि कुछ शर्तो का पालन करते रहें शरीअत उनके अपने धर्म के अनुसार व्यवहार करने पर पाबंदी नहीं लगाता ।

न ही मुस्तैद खान के बताए ढंग की पुष्टि करने वाला कोई फरमान हमें मिला है । लेकिन दुश्मनी के काल में स्थिति भिन्न होती थी । मसलन 1679-80 में जबकि मारवाड़ के राठौडों और उदयपुर के राणा से युद्ध की स्थिति जारी थी जोधपुर और उसके परगनों में तथा उदयपुर में अनेक पुराने मंदिर गिराए गए ।

मंदिरों संबंधी नीति के मामले में हो सकता है कि औरंगजेब औपचारिक रूप से शरीअत के दायरे में रहा हो पर इसमें शक शायद ही हो कि इस बारे में उसके पूरे रुख ने उसके पूर्वजों की व्यापक सहिष्णुता की नीति को धक्का पहुँचाया । इसके कारण यह विचार प्रचलित हो गया कि किसी भी बहाने से मंदिरों के विनाश को बादशाह उचित ही नहीं समझेगा बल्कि उसका स्वागत करेगा ।

हमारे पास औरंगजेब द्वारा हिंदू मंदिरों और मठों को दान दिए जाने के बहुत-से उदाहरण हैं, लेकिन कुल मिलाकर हिंदू मंदिरों के प्रति औरंगजेब की नीति से पैदा माहौल में हिंदुओं में असंतोष का पनपना लाजिमी था ।

फिर भी ऐसा लगता है कि मंदिरों के विनाश के प्रति औरंगजेब का उत्साह 1679 के बाद कम हुआ, क्योंकि 1681 से लेकर 1707 में उसकी मृत्यु तक दक्षिण में बड़े पैमाने पर मंदिरों के विनाश की कोई बात हमें सुनाई नहीं देती । लेकिन इस बीच फिर से जजिया लगाकर क्षोभ का एक नया कारण पैदा कर दिया गया ।

शरीअत के अनुसार एक मुस्लिम राज्य में गैर-मुस्लिमों के लिए जजिया का भुगतान ‘वाजिब’ (अनिवार्य) है । जैसा कि अकबर ने इसे कुछ कारणों से समाप्त कर दिया था । लेकिन रूढ़िवादी उलमा का एक वर्ग इसे फिर से लगाए जाने का शोर मचाता आ रहा था ताकि उलमा समेत इस्लाम की श्रेष्ठतर स्थिति सबके सामने स्पष्ट हो ।

कहा गया है कि तख्त पर बैठने के बाद अनेक अवसरों पर औरंगजेब ने फिर से जजिया लगाने का विचार किया पर राजनीतिक विरोध के भय से लगा नहीं सका । अंतत: उसने 1079 में अर्थात अपने 21वें शासनवर्ष में इसे फिर लगाया ।

इस कदम के पीछे औरंगजेब के उद्‌देश्यों को तकर इतिहासकारों में खासा विवाद हुआ है । यह हिंदुओं पर इस्लाम अपनाने के लिए आर्थिक दबाव डालने का साधन नहीं था, क्योंकि इसका व्यवहार बहुत सीमित था । स्त्रियों, बच्चों, बीमारों और अपंगों को जिनकी आय निर्वाह के आवश्यक साधनों से कम थी इससे मुक्त रखा गया था और सरकारी नौकरी करने वालों को भी । वास्तव में, इस कर के कारण पहले भी हिंदुओं की कोई खास बड़ी संख्या ने अपना धर्म नहीं बदला था ।

दूसरे, यह एक कठिन वित्तीय स्थिति से निबटने का साधन भी नहीं था । हालांकि जजिया से प्राप्त आय को अच्छा-खासा बतलाया गया है, पर औरंगजेब ने बड़ी सख्या में उन करों को रद्‌द कर दिया था जिन्हें अबवाब कहते थे और जो शरीअत द्वारा अनुमोदित न होने के कारण अवैध समझे जाते थे, और इस तरह उसने काफी बड़ी रकम का बलिदान किया था ।

मगर जजिया की राशि सरकारी कोषागार में जाती भी नहीं थी बल्कि धर्मशास्त्र की शिक्षा के लिए अलग कर दी जाती थी । वास्तव में, जजिया का पुनर्प्रयोग के राजनीतिक और वैचारिक दोनों पक्ष था ।

इसका मकसद हथियार उठा चुके मराठों और राजपूतों से राज्य की रक्षा के लिए मुसलमानों को गठित करना था और संभवत: दकन के मुस्लिम राज्यों के विरोध मे भी विशेषकर गोलकुंडा से जो काफिरों के साथ हाथ मिलाए हुए थे ।

जजिया की वसूली ईमानदार और धर्मनिष्ठ मुसलमानों द्वारा की जाती थी जो इस काम के लिए विशेष रूप से नियुक्त किए गए थे और उसकी आय उलमा के लिए आरक्षित थी । इस तरह यह मुल्लाओं को दी गई एक बहुत बड़ी रिश्वत थी, जिनमें काफी बेरोजगारी थी ।

लेकिन इस कदम की हानियाँ इसके संभावित लाभों से अधिक रहीं । इससे हिंदुओं में तीखा असंतोष फैला जो इसे भेदभाव की निशानी मानते थे । इसकी वसूली की पद्धति की भी कुछ खास विशेषताएँ थीं । देनेवाले को इसे स्वय आकर देना होता था और इस प्रक्रिया में वह कभी-कभी मुल्लाओं के हाथों अपमानित भी होता था ।

ग्रामीण क्षेत्रों में जजिया मालगुजारी के साथ वसूल किया जाता था लेकिन नगरों के खाते-पीते हिंदू जजिया वसूल करने के तरीकों से बुरी तरह से प्रभावित हुए । इसलिए ऐसे कई प्रसंगों का जिक्र आता है जब इस कदम के खिलाफ हिंदू व्यापारियों ने दुकानें बद कर दीं और हड़ताल की ।

फिर भ्रष्टाचार भी बहुत हुआ और ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब जजिया वसूल करनेवाले भ्रष्ट अमीन मारे गए । लेकिन औरंगजेब अड़ा रहा, किसानों को जजिया की अदायगी से तब भी मुक्त करने से हिचकिचाता रहा जब प्राकृतिक विपदाओं के कारण मालगुजारी में छूट देनी पड़ी ।

अंतत: उसे 1705 में जजिया की वसूली ‘दक्षिण में चल रहे युद्ध की अवधि तक के लिए’ रोकनी पड़ी । (वैसे इस युद्ध का कोई अंत होता नजर नहीं आ रहा था ।) मराठों के साथ वार्ता पर इसका शायद ही कोई प्रभाव पड़ा हो । धीरे-धीरे पूर देश से जजिया का रिवाज उठ गया ।

1712 में उसका औपचारिक रूप से उन्मूलन कर दिया गया । कुछ आधुनिक इतिहासकारों का मत है कि औरंगजेब के कदमों का उद्‌देश्य भारत को दारुल-हर्ब (काफिरों की भूमि) के बजाय दारुल-इस्लाम: (मुसलमानों की भूमि) बनाना था ।

यूँ तो औरंगजेब इस्लाम में धर्मातरण को वैध मानता था पर उसके समय में बलात धर्मातरण के सुव्यवस्थित या बड़े पैमाने के प्रयासों के साक्ष्य नहीं मिलते । न ही हिंदू अमीरों के खिलाफ भेदभाव किया जाता था । हाल के एक अध्ययन से पता चलता है कि औरंगजेब के काल के उत्तरार्ध में अमीर वर्ग में हिंदुओं की संख्या लगातार बड़ी यहाँ तक कि अमीरों में मराठों समेत हिंदुओं का भाग एक-तिहाई तक जा पहुँचा जबकि शाहजहाँ के काल में यह एक-चौथाई था ।

एक अवसर पर जब धार्मिक आधार पर एक पद के लिए दावा किया गया तो औरंगजेब ने प्रार्थनापत्र पर लिखा, ‘धर्म से सांसारिक मामलों का क्या संबंध है और सरोकार है? और धर्म संबंधी बातों में धर्माधता लाने का क्या औचित्य है ? तुम्हारा मजहब तुम्हारे साथ है, मेरा मेरे साथ । अगर (तुम्हारे द्वारा बतलाया गया) यह नियम स्थापित किया जाए तो तमाम (हिंदू) राजाओं और उनके अनुयायियों को समूल नष्ट करना मेरा कर्त्तव्य हो जाएगा ।’

इस तरह औरंगजेब ने राज्य की प्रकृति को बदलने का प्रयास नहीं किया किंतु उसके बुनियादी इस्लामी चरित्र को फिर से मजबूत करने का दावा किया । औरंगजेब के धार्मिक विश्वासों को उसकी राजनीतिक नीतियों का आधार नहीं माना जा सकता ।

जहाँ वह एक रूढ़िवादी मुसलमान था और शरीअत की कड़ाई से पाबंदी का इच्छुक था वहीं एक शासक के रूप में वह साम्राज्य को मजबूत बनाने और फैलाने का भी इच्छुक था । इसलिए जहाँ तक हो सके, वह हिंदुओं का समर्थन खोना नहीं चाहता था ।

लेकिन एक ओर उसके धार्मिक विचारों और विश्वासों तथा दूसरी ओर उसकी राजनीतिक या सार्वजनिक नीतियों के बीच अनेक अवसरों पर टकराव हुए और औरंगजेब के लिए नीति का चयन करना मुश्किल हो जाता था । इसके कारण उसने कभी-कभी परस्पर विरोधी नीतियाँ अपनाई, जिन्होंने साम्राज्य को हानि पहुँचाई ।

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