Read this article in Hindi to learn about the cultural and religious developments in India during Mughal rule.

मुगल शासन के दौरान भारत में सांस्कृतिक गतिविधियों का बहुमुखी और जबरदस्त विकास हुआ । इस काल में वास्तुकला, चित्रकला, साहित्य और संगीत के क्षेत्रों में जिन परंपराओं की स्थापना हुई और उन्होंने जो मानदंड स्थापित किए उनका बाद की पीढियों तक गहरा प्रभाव पड़ा । इस अर्थ में उत्तर भारत में गुप्त काल के बाद मुगल काल को दूसरा शास्त्रीय काल कहा जा सकता है ।

इस विकासक्रम के दौरान भारतीय परंपराओं का मेल मुगलों द्वारा लाई गई तुर्क-ईरानी संस्कृति से हुआ । समरकंद में तैमूरी दरबार पश्चिम और मध्य एशिया के सांस्कृतिक केंद्र के रूप में विकसित हुआ था । बाबर इस सांस्कृतिक धरोहर के बारे मे सजग था । भारत की संस्कृति के कई पहलू उसे पसंद नहीं थे और वह यहाँ संस्कृति का एक नया मानदंड स्थापित करना चाहता था ।

भारत के विभिन्न क्षेत्रों में चौदहवीं और पंद्रहवीं सदियों में कला और संस्कृति के विकासक्रम ने एक समृद्ध और बहुपक्षीय परंपरा को जन्म दिया था, जिसको भावी विकास का उगधार बनाया जा सकता था । इस आधार के बिना मुगलकालीन सांस्कृतिक विकास शायद ही संभव होता ।

ADVERTISEMENTS:

भारत के विभिन्न क्षेत्रों तथा विभिन्न धर्मो और नस्लों के लोगों ने इस सांस्कृतिक विकास में अनेक प्रकार से योगदान दिया । इस अर्थ में इस काल में विकसित संस्कृति का रुख समन्वित राष्ट्रीय संस्कृति की ओर था ।

वास्तुकला  (Architecture):

मुगलों ने शानदार किलों, महलों, दरवाजों, सार्वजनिक भवनों, मस्जिदों, बावलियों आदि का निर्माण कराया । उन्होंने बहते पानी वाले अनेक सुंदर बाग भी लगवाए । वास्तव में, महलों और आरामगाहों में बहते पानी का उपयोग मुगलों की एक खास विशेषता थी ।

बाबर बागों का बहुत शौकीन था तथा उसने आगरा और लाहौर के आसपास कुछ बाग लगवाए । कश्मीर का निशात बाग, लाहौर का शालीमार बाग और पंजाब की तलहटी में स्थित पिंजौर आदि कुछ मुगलकालीन बाग आज तक शेष हैं । शेरशाह ने वास्तुकला को एक नई गति दी ।

ADVERTISEMENTS:

सासाराम (बिहार) में उसका मशहूर मकबरा तथा दिल्ली के पुराने किले में उसकी मस्जिद वास्तुकला के शानदार नमूने माने जाते हैं । वे वास्तुकला की मुगल-पूर्व शैली के चरमोत्कर्ष और नई शैली के प्रस्थान बिंदु हैं ।

अकबर पहला मुगल शासक था जिसके पास बड़े पैमाने के निर्माण-कार्य के लिए समय और साधन दोनों थे । उसने अनेक किले बनवाए जिनमें सबसे मशहूर आगरा का किला है । लाल बलुआ पत्थर से बने इस विशाल किले में अनेक शानदार दरवाजे हैं ।

अपने किलों के लिए मुगलों ने किला-निर्माण की सुविकसित भारतीय परंपरा को आधार बनाया जैसे कि ग्वालियर जोधपुर आदि के किलों को । किला-निर्माण अपने उत्कर्ष पर दिल्ली में पहुँचा जहाँ शाहजहाँ ने सुप्रसिद्ध लाल किला बनवाया । 1572 में अकबर ने आगरा से 36 किलोमीटर दूर फतेहपुर सीकरी में एक महल-सह-किला परिसर का निर्माण आरंभ कराया जो 8 वर्षों में पूरा हुआ ।

एक पहाड़ी पर एक विशाल कृत्रिम झील के साथ बने इस परिसर में गुजरात-कंगाल शैली की अनेक इमारतें थीं । इसमें गहरी ओलतियों स्थ्ये और मनमोहक झरोखे थे । हवाखोरी के लिए बने पंचमहल में समतल छतों को सहारा देने के लिए विभिन्न मंदिरों में प्रयुक्त सभी प्रकार के खंभे बनाए गए ।

ADVERTISEMENTS:

वास्तुकला की गुजरात शैली का सबसे व्यापक प्रयोग उस महल में किया गया है जिसे संभवत अकबर की राजपूत पत्नी या पत्नियों के लिए बनाया गया था । आगरा के किले में भी लगभग इसी प्रकार की इमारतें बनवाई गई थीं हालांकि उनमें से कुछ ही बाकी बची हैं । आगरा और फतेहपुर सीकरी दोनों जगहों के निर्माण-कार्यों में अकबर ने स्वयं गहरी दिलचस्पी ली ।

फारसी या मध्य एशियाई प्रभाव उन चमकदार नीली खपरैलों में देखा जा सकता है जिनका प्रयोग दीवारों को सजाने या झुकावदार छतें बनाने में किया गया था । लेकिन सबसे शानदार इमारतें मस्जिद और उस तक ले जाने वाला दरवाजा है जिसे बुलंद दरवाजा कहते हैं; इसे अकबर की गुजरात विजय की याद में बनाया गया था । यह दरवाजा उस शैली में है जिसे अर्ध-गुंबदाकार कहा जाता है ।

किया यह गया है कि एक गुंबद को आधा कर दिया गया । काटा गया भाग दरवाजे का विशाल बाहरी मुख्य भाग है जबकि पिछली दीवार में, जहाँ गुंबद और फर्श मिलते हैं छोटे दरवाजे बनाए गए । ईरान से अपनाई गई यह तरकीब बाद की मुगल इमारतों की विशेषता बन गई ।

साम्राज्य की नींव मजबूत हुई तो मुगल वास्तुकला अपने विकास के चरम पर जा पहुँची । जहाँगीर के काल के अंतिम भाग में पूरी तरह संगरमरमर की इमारतें बनवाने का तथा दीवारों को फूलदार आकृतियों से सजाने का चलन शुरू हुआ जो मूल्यवान पत्थरों की बनी होती थीं ।

साज-सज्जा की यह शैली जिसे जड़ाऊ नक्काशी (पिएत्रा द्यूरा) कहते हैं, शाहजहाँ के काल में और भी लोकप्रिय हुई । बड़े पैमाने पर इसका उपयोग ताजमहल में किया गया जिसको सही ही निर्माणकला का नगीना कहते हैं । ताजमहल में मुगलों द्वारा विकसित सभी वास्तु-शैलियों का मनमोहक ढंग से समन्वय किया गया ।

अकबर के शासनकाल के आरंभ में दिल्ली में बना हुमायूँ का मकबरा, जिसमें संगमरमर का एक विशाल गुंबद भी है ताजमहल की विशेषताओं का पूर्वसूचक माना जा सकता है । दोहरा गुंबद इस इमारत की दूसरी विशेषता थी । इस मुक्ति से अंदर के छोटे गुंबद पर बाहर का बड़ा गुंबद बनाना संभव हुआ ।

ताज की सबसे आकर्षक विशेषता विशाल गुंबद और चार पतली मीनारें हैं जो चबूतरे को मुख्य इमारत से मिलाती हैं । सजावट कम से कम रखी गई है; सगमरमर की बारीक जालियाँ जड़ाऊ नक्काशी और छतरियाँ इसके प्रभाव को और बढ़ाती हैं । एक शानदार बाग के बीच में स्थित होने के कारण बाग की शोभा और बढ़ जाती है ।

शाहजहाँ के शासनकाल में मस्जिद-निर्माण भी अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गया था । इसके दो सबसे उल्लेखनीय उदाहरण हैं आगरा के किले के अंदर स्थित मोती मस्जिद जो ताज की तरह पूरी तरह संगमरमर की बनी है तथा दिल्ली की जामा मस्जिद जो लाल बलुआ पत्थर की बनी है । ऊँचा दरवाजा लंबी और पतली मीनारें तथा अनेक गुंबद जामा मस्जिद के आकर्षण हैं ।

औरंगजेब ने, जो शाहखर्च नहीं था, बहुत अधिक इमारतें नहीं बनवाई । फिर भी हिंदू और तुर्क-ईरानी रूपों और सुसज्जित आकृतियों पर आधारित मुगल वास्तु-परंपराएँ बिना किसी व्यवधान के अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी के आरंभ में भी जारी रहीं ।

इस तरह मुगल परंपराओं ने अनेक प्रांतीय और स्थानीय राज्यों के महलों और किलों को प्रभावित किया । यहाँ तक कि सिखों का अमृतसर स्थित हरमंदिर, जिसे स्वर्णमंदिर भी कहते हैं और जिसे इस काल में अनेक बार बनवाया गया, मेहराब और गुंबद के उसूल पर बना है तथा उसमें मुगल वास्तुकला की अनेक परंपराएँ समाहित हैं ।

चित्रकला (Painting):

चित्रकला के क्षेत्र में मुगलों ने विशिष्ट योगदान किया । उन्होंने दरबारों युद्ध और शिकार का पीछा करने के दृश्यों से युका अनेक नए विषयों का समावेश किया तथा अनेक नए रंग और रूप जोड़े । उन्होंने चित्रकला को एक जीवंत परंपरा को जन्म दिया जो मुगलों की शानो-शौकत के समाप्त होने के बाद भी लंबे समय तक देश के विभिन्न भागों में जारी रही ।

यहाँ भी शैली की समृद्धि का कारण यह था कि भारत में चित्रकला की पुरानी परंपरा रही है । अजंता के भित्तिचित्र उसकी जीवनशक्ति का सजीव प्रमाण हैं । लगता है आठवीं सदी के बाद इस परंपरा का ह्रास हुआ पर आठवीं सदी और उसके बाद की भोजपत्रों पर लिखी पांडुलिपियों और अलंकृत जैन ग्रंथों से पता चलता है कि यह परंपरा मरी नहीं थी ।

जैनियों के अलावा मालवा और गुजरात जैसे कुछ प्रांतीय राज्यों ने भी पंद्रहवीं सदी में चित्रकला को संरक्षण दिया । पर इसका सजीव पुनरूत्थान अकबर के शासनकाल में ही हुआ । शाह ईरान के दरबार में रहते समय हुमायूँ ने दो उस्ताद चित्रकारों को अपनी सेवा में रखा था जो फिर उसके साथ भारत आ गए । अकबर के शासनकाल में उनके नेतृत्व में शाही कारखानों में से एक मैं चित्रकला का सगठन किया गया ।

देश के विभिन्न भागों से बड़ी संख्या में चित्रकार बुलाए गए जिनमें अनेक तो निम्न जातियों के थे । आरंभ से ही इस कार्य में हिंदू और मुसलमान दोनों शामिल रहे । उदाहरणस्वरूप, अकबरी दरबार के दो प्रसिद्ध चित्रकार दसवंत और दसावन थे । यह केंद्र तेजी से विकसित हुआ और जल्द ही यह चित्रकला का सुप्रसिद्ध केंद्र बन गया ।

फारसी कथाओं की पुस्तकों के चित्रांकन के अलावा चित्रकारों को जल्द ही महाभारत का फारसी अनुवाद करने और ऐतिहासिक ग्रंथ अकबरनामा और अन्य ग्रंथों के चित्रांकन का काम सौंपा गया । इस तरह भारतीय विषयों भारतीय दृश्यों और भारतीय भूदृश्यों का प्रचलन हुआ और इस बात ने इस संप्रदाय को फारसी प्रभाव से मुक्त कराया ।

मयूरी नीले और भारतीय लाल .आदि भारतीय रंगों का प्रयोग किया जाने लगा । सबसे, बड़ी बात यह कि फारसी शैली के प्राय: सपाट प्रभाव की जगह भारतीय तूलिका के गोलाईयुक्त प्रभाव ने ले ली जिसने चित्रों में एक त्रिआयामी प्रभाव पैदा किया । मुगल चित्रकला जहाँगीर के काल में अपने चरम पर पहुँची ।

जहाँगीर पारखी दृष्टि वाला व्यक्ति था । यह मुगल संप्रदाय का आम कायदा था कि एक ही चित्र में विभिन्न चित्रकार व्यक्तियों के चेहरों शरीरों और पैरों के चित्र बनाते थे । जहाँगीर का दावा था कि वह किसी चित्र में हर चित्रकार के कार्य को पहचान सकता है ।

जहाँगीर के काल में शिकार युद्ध और दरबार के दृश्यों के चित्र बनाने के अलावा व्यक्तियों और पशुओं के चित्र बनाने में विशेष प्रगति हुई । इस क्षेत्र में मंसूर का बहुत नाम था । आकृति चित्रों (पोट्रेट) का भी चलन बढ़ा ।

अकबर के शासनकाल में पुर्तगाली पादरियों ने दरबार में यूरोपीय चित्रकला का चलन शुरू किया । उनके प्रभाववश खामोशी के साथ अग्रसंक्षेपण का सिद्धांत अपना लिया गया जिसमें पास-दूर के व्यक्तियों और वस्तुओं को एक परिप्रेक्ष्य में रखा जा सकता था ।

शाहजहाँ के अंतर्गत यह परंपरा जारी रही । लेकिन औरंगजेब के चित्रकला में कोई रुचि न लेने के कारण चित्रकार देश के विभिन्न भागों में बिखर गए । इससे राजस्थान और पंजाब के पहाड़ी राज्यों में चित्रकला का विकास हुआ । लेकिन चित्रकला की मुगल परंपरा को अठारहवीं सदी में औरंगजेब के उत्तराधिकारियों के काल में नया जीवन मिला ।

चित्रकला की राजस्थानी शैली ने मुगल रूपों और शैलियों के साथ पश्चिमी भारत या जैन चित्रकला के विषयों और पिछली परंपराओं का समन्वय किया । इस तरह शिकार और दरबार के दृश्यों के अलावा राधा के साथ कृष्णा की प्रेमलीला जैसे पौराणिक विषयों पर बारहमासा अर्थात मौसमों पर और रागों पर चित्र बनाए गए । पहाड़ी शैली ने भी इन परंपराओं को जारी रखा ।

भाषा और साहित्य  (Language and Literature):

अखिल भारतीय स्तर पर विचारों और शासन के माध्यम के रूप में फारसी और संस्कृत की महत्वपूर्ण भूमिका तथा एक बड़ी सीमा तक भक्ति आंदोलन के प्रसार के फलस्वरूप क्षेत्रीय भाषाओं के विकास का उल्लेख किया जा चुका है । क्षेत्रीय भाषाओं का विकास स्थानीय और क्षेत्रीय शासकों से प्राप्त संरक्षण के कारण भी हुआ ।

ये प्रवृत्तियाँ सोलहवीं और सत्रहवीं सदियों में जारी रहीं । अकबर के समय तक उत्तर भारत में फ़ारसी का ज्ञान इतना व्यापक हो चुका था कि उसने फारसी के साथ-साथ स्थानीय भाषा (हिंदवी) में राजस्व के दस्तावेजों को रखने की परंपरा को समाप्त कर दिया । मगर दकनी राज्यों में स्थानीय भाषा में राजस्व के दस्तावेजों को रखने की परंपरा जारी रही ।

सत्रहवीं सदी की आखिरी चौथाई में ही उसकी समाप्ति हुई । अकबर के समय में फारसी गद्य और कविता का चरमोत्कर्ष हुआ । अबुल फजल एक महान विद्वान, शैलीकार और अपने समय का अग्रणी इतिहासकार भी था । उसने गद्य-लेखन की ऐसी शैली आरंभ की जिसका अनुकरण अनेक पीढ़ियों तक किया जाता रहा ।

इस दौर के अग्रणी कवि उनके भाई फैजी थे जो अकबर के अनुवाद विभाग को भी देखते थे । महाभारत का फारसी अनुवाद उन्हीं की निगरानी में कराया गया । दो अन्य अग्रणी फारसी कवि उर्फी और नजीरी थे । वे जन्मे तो फारस में थे पर उन अनेक कविर्यो और विद्वानों में थे जो इस काल में ईरान से भारत आए और जिन्होंने मुगल दरबार को इस्लामी दुनिया के सांस्कृतिक केंद्रों मे एक उच्च स्थान दिला दिया ।

फारसी साहित्य के विकास में हिंदुओं का भी योगदान रहा । इस काल में साहित्यिक और ऐतिहासिक रचनाओं के अलावा फारसी भाषा के अनेक सुप्रसिद्ध शब्दकोश भी तैयार किए गए ।

इस काल में संस्कृत में महत्त्वपूर्ण और मूल काम कुछ अधिक नहीं हुआ । तो भी इस काल में रचित संस्कृत ग्रंथों की संख्या प्रभावशाली है । पहले की ही तरह अधिकांश रचनाएँ दक्षिणी और पूर्वी भारत में स्थानीय राजाओं के संरक्षण में रची गईं हालांकि कुछ को बादशाहों के अनुवाद विभागों में कार्यरत ब्राह्मणों ने रचा ।

इस काल में क्षेत्रीय भाषाओं में स्थिरता और परिपक्वता आई तथा कुछ अति-सुंदर गीतिकाव्य रचे गए । राधा और ग्वालिनों के साथ कृष्ण की रासलीला बाल कृष्ण की शरारतें और भागवत पुराण की कहानियाँ इस काल में बंगला, उड़िया, हिंदी, राजस्थानी और गुजराती गीतिकाव्य में बड़े पैमाने पर लाई गई ।

राम की भक्ति में भी अनेक गीत रचे गए तथा रामायण और महाभारत के क्षेत्रीय भाषाओं में अनुवाद किए विशेषकर वहाँ जहाँ पहले इनके अनुवाद नहीं हुए थे । फ़ारसी से भी कुछ अनुवाद हुए और कुछ ग्रंथों के रूपांतरण हुए । इसमें हिंदू-मुसलमान दोनों का योगदान रहा ।

मसलन अलाउल ने बंगाल में रचना की और फारसी से अनुवाद भी किए । हिंदी में सूफी संत मलिक मुहम्मद जायसी की रचना पद्‌मावत में चित्तौड़ पर अलाउद्‌दीन खलजी के हमले का रूपक लेकर परमात्मा के साथ आत्मा के मिलन के सूफी विचारों और साथ में माया संबंधी हिंदू विचार । का प्रतिपादन किया गया ।

मध्यकालीन हिंदी की ब्रज बोली अर्थात आगरा के आसपास की बोली को भी मुगल बादशाह और स्थानीय राजाओं ने संरक्षण दिया । अकबर के काल में ही हिंदी कवि दरबार से जुड़ने लगे थे । अग्रणी मुगल अमीर अबदुर्रहीम खान-ए-खाना ने जीवन और मानवीय संबंधों पर फारसी विचारों के साथ भक्ति काव्य का सुंदर समन्वय किया ।

इस तरह फारसी और हिंदी काव्य परंपराएँ एक दूसरे को प्रभावित करने लगीं । लेकिन सबसे प्रभावशाली हिंदी कवि तुलसीदास थे जिनके पूज्य राम थे । उन्होंने हिंदी की उस बोली का प्रयोग किया जो उत्तर प्रदेश के पूर्वी भागों में बोली जाती है ।

जन्म नहीं, बल्कि व्यक्ति के गुणों पर आधारित एक परिष्कृत जातिप्रथा का आग्रह करनेवाले तुलसीदास मूलत: एक मानवतावादी कवि थे जिन्होंने पारिवारिक आदर्शो का समर्थन किया तथा राम के प्रति पूर्ण समर्पण को मुक्ति का मार्ग बताया जो सभी के लिए खुला हुआ था चाहे कोई किसी भी जाति या धर्म का क्यों न हो ।

दक्षिण भारत में एक अलग और स्वतंत्र भाषा के रूप में मलयालम में साहित्य-रचना का दौर आरंभ हुआ । एकनाथ और तुकाराम के साथ मराठी अपने चरम पर पहुँची । मराठी के महत्त्व का दावा करते हुए एकनाथ कहते हैं ‘संस्कृत को अगर प्रभु ने रचा तो क्या प्राकृत चोरों और चाइयों की उपज है, इन झूठे अहंकारों को रहने दो । प्रभु भाषाओं में कोई पक्षपात नहीं करता । उसके लिए संस्कृत और प्राकृत एकसमान हैं । मेरी भाषा मराठी श्रेष्ठतम भावनाओं को व्यक्त करने में समर्थ है समृद्ध है और दैवी ज्ञान के फलों से लदी हुई है ।’

यह कथन स्थानीय भाषाओं में लिखने वाले सभी व्यक्तियों की भावनाओं को व्यक्त करता है । यह इन भाषाओं के आत्मविश्वास और उन्हें प्राप्त हुई उच्च स्थिति को भी दर्शाता है । सिख गुरुओं की रचनाओं के कारण पंजाबी को नवजीवन मिला ।

संगीत  (Music):

संगीत सांस्कृतिक जीवन का एक और क्षेत्र था जिसमें हिंदुओं और मुसलमानों ने सहयोग किया । अकबर ने ग्वालियर के तानसेन को संरक्षण दिया, जिन्हें अनेक नए रागों की रचना का श्रैय प्राप्त है । जहाँगीर शाहजहाँ और बहुत-से काल अमीरों ने इस उदाहरण का अनुकरण किया ।

रूढ़िवादी औरंगजेब द्वारा संगीत को दफनाए जाने की अनेक मनगढ़ंत कहानियाँ प्रचलित हैं । हाल के अनुसंधान दिखाते हैं कि उसने दरबार में गायन तो बंद करा दिया था पर वाद्य बजाना नहीं । वास्तव में औरंगजेब स्वयं एक सिद्धहस्त वीणावादक था । औरंगजेब के हरम की रानियों ने तथा शाहजादों और अमीरों ने संगीत को संरक्षण देना जारी रखा ।

यही कारण है कि शास्त्रीय भारतीय संगीत पर फ़ारसी में सबसे अधिक किताबें औरंगजबी दौर में लिखी गई । लेकिन संगीत के क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण विकास अठारहवीं सदी में मुहम्मद शाह (1719-48) के काल में हुआ जो संगीत और संगीतकारो का भारी संरक्षक था ।

धार्मिक विचार और विश्वास तथा एकीकरण की समस्याएं  (Religious Views and Beliefs and Problems of Integration):

सोलहवीं और सत्रहवीं सदियों में भक्ति आदोलन अबाध गति से जारी रहा । नए आंदोलनों में पंजाब का सिख आंदोलन तथा महाराष्ट्र का महाराष्ट्र धर्म आंदोलन थे । सिख आंदोलन का आरंभ नानक की शिक्षाओं से हुआ । पर उसके विकास का गुरु-परंपरा से गहरा संबंध है ।

पहले चार गुरुओं ने मौन ध्यान और विद्वत्ता की परंपरा को जारी रखा । पाँचवें गुरु अर्जुनदास ने सिखों का धर्मग्रंथ संकलित किया जिसे आदि ग्रंथ या ग्रथं साहिब कहते हैं । गुरु में आध्यात्मिक तथा लौकिक दोनों प्रकार का नेतृत्व समाहित है इस बात पर जोर देने के लिए वे अभिजात शैली में रहने लगे ।

उन्होंने अमृतसर में शानदार भवन बनवाए; वे शानदार वस्त्र पहनते थे मध्य एशिया से आए सुंदर घोड़े रखते थे तथा उनकी सेवा में पियादे रहते थे । पंथ को बढ़ाने के लिए उन्होंने सिखों से चढ़ाव की वसूली की व्यवस्था आरंभ की । यह उनकी आय का दसवाँ भाग होता था ।

अकबर सिख गुरुओं से बहुत प्रभावित था और कहते हैं कि वह अमृतसर जाकर उनसे मिलता था । लेकिन बागी शाहजादे खुसरो की सहायता करने और उसकी विजय कामना करने के आरोप में जब जहाँगीर ने गुरु अर्जुन को कैद किया और यातना से उनकी मृत्यु हो गई तो टकराव का दौर शुरू हो गया ।

उनके उत्तराधिकारी गुरु हरगोविंद को भी कुछ समय तक कैद रखा गया पर जल्द ही छोड़ दिया गया । जहाँगीर के साथ उनके मधुर संबंध विकसित हुए और जहाँगीर की मृत्यु के ठीक पहले वे उसके साथ कश्मीर की यात्रा पर भी गए । लेकिन शिकार की एक घटना को लेकर शाहजहाँ से उनका टकराव हुआ ।

बादशाह जब अमृतसर के पास शिकार खेल रहा था तो उसके पसंदीदा बाजी में से एक उड़कर गुस के खेमे में चला गया और गुरु के उसे देने से इनकार करने पर अनेक टकराव हुए । लेकिन दरबार में गुरु के कुछ शुभचिंतकों के हस्तक्षेप से मामले को दबा दिया गया ।

कुछ ही समय बाद दूसरा टकराव हुआ जब गुरु ने जालंधर के पास व्यास नदी के किनारे एक नया नगर बसाने का प्रयास किया । तीसरा टकराव तब हुआ जब मध्य एशिया से गुरु के पास ‘असीम सुंदरता और चाल’ वाले दो घोड़े लाए जा रहे थे और उन्हें शाही अधिकारियों ने जब्त कर लिया ।

गुरु के अनुयायी बिधीचंद ने ये घोड़े चुराकर गुरु को भेंट में दे दिए । तब तक गुरु का एक अच्छा-खासा अनुयायी वर्ग बन चुका था और मुठभेड़ों में गुरु ने अच्छा युद्ध- संचालन किया था । कुछ समय तक पाइन्दा खान नाम के एक पठान ने भी गुरु का साथ दिया । अंतत: गुरु हरगोविंद पंजाब की पहाड़ियों में चले गए और फिर उनके मामलों में हस्तक्षेप नहीं किया गया ।

ये सभी टकराव सुप्रसिद्ध इतिहासकार आर. पी. त्रिपाठी के अनुसार ‘महत्वहीन प्रकृति’ के थे और उन्होंने इन्हें धर्म की बजाए निजी और राजनीतिक कारणों की उपज कहा है । गुरु ने अमीराना जीवनशैली अपना ली थी और उनके अनुयायी उन्हें सच्चा पदशाह कहते थे ।

किंतु लगता है शासकों के लिए यह कोई चिंता का विषय नहीं रहा होगा । कारण कि कुछ सूफी संत भी अमीराना ढंग से रहते थे और उनकी आध्यात्मिक प्रमुखता पर जोर देने के लिए उनके अनुयायियों ने उन्हें ऐसे ही खिताब दे रखे थे ।

इस काल में सिखों और हाल शासकों के बीच टकराव का कोई वातावरण नहीं था न ही हिंदुओं का कोई सुव्यवस्थित दमन किया जा रहा था । इसलिए इसका कोई कारण नहीं था कि सिख पंथ या कोई और समूह या पंथ धार्मिक उत्पीड़न के विरोध में हिंदुओं का संरक्षक बनकर खड़ा होता ।

अपने शासनकाल के आरंभ में शाहजहाँ द्वारा कुछ रूढ़िवादिता दिखाई गई औइर असहिष्णुता के कुछ काम भी हुए जैसे कुछ ‘नए’ मंदिरों को गिराया गया । फिर भी उसका दृष्टिकोण संकीर्ण नहीं था और उसके शासन के अंतिम भाग में उसके उदारवादी बेटे दारा के प्रभाव के कारण उसका दृष्टिकोण और भी उदार हो गया ।

शाहजहाँ का सबसे बड़ा बेटा दारा रुझान से अध्येता और सूफी था, जो धर्मगुरुओं से विचारविमर्श करना पसंद करता था । काशी के ब्राह्मणों की सहायता से उसने फारसी में गीता का अनुवाद किया था । पर उसका सबसे महत्वपूर्ण कार्य वेदों के श्लोकों का संकलन था जिसकी प्रस्तावना में दारा ने वेदों को ‘कालक्रम में दैवी ग्रंथ’ और ‘मुकद्‌दस कुरान के अनुरूप’ करार दिया था । इस तरह उसने इस विश्वास को रेखांकित किया कि हिंदू धर्म और इस्लाम में कोई बुनियादी मतभेद नहीं है ।

एक और संत थे दादू, जो जन्मे तो गुजरात में पर लगता है कि अधिकतर राजस्थान में रहै । उन्होंने एक असंकीर्ण निपख मार्ग का उपदेश दिया । उन्होंने अपने को हिंदुओं या मुसलमानों से जोड़ने से तथा दोनों के धर्मग्रंथों में सर खपाने से इंकार कर दिया । उन्होंने ब्रह्म अर्थात परमसत्य की अविभाज्यता और निपख मार्ग का एलान किया ।

यही उदारवादी प्रवृत्ति तुकाराम के जीवन और कृतित्व में देखी जा सकती है, जो महाराष्ट्र में भक्तिमार्ग के सबसे बड़े प्रतिपादक थे । वे पंढरपुर के थे जो महाराष्ट्र धर्म का केंद्र था और जहाँ विष्णु के रूप विठोबा की उपासना का प्रचलन था । तुकाराम जो स्वयं को जन्मजात शूद्र कहते थे अपने हाथों विठोबा की पूजा-अर्चना करते थे ।

यह आशा तो नहीं ही की जा सकती थी कि ऐसे आचार-विचारों को हिंदू धर्म और इस्लाम दोनों प्रमुख धर्मों के रूढ़िवादी तत्त्व आसानी से मान लेंगे और इस तरह अपनी सुस्थापित शक्ति और प्रभाव को छोड़ देंगे जिसका सुख वे एक लंबे समय से लेते आ रहे थे । रूढ़िवादी हिंदुओं की भावनाओं को बंगाल में नवद्वीप (नदिया) के रघुनंदन ने व्यक्त किया ।

मध्यकाल मैं धर्मशास्त्रों के सबसे प्रभावशाली लेखक माने जानेवाले रघुनंदन ने ब्राह्मणों के विशेषाधिकारों का एलान किया और कहा कि धर्मग्रंथों को पढ़ने या उपदेश देने का अधिकार ब्राह्मणों को छोड़ किसी और को नहीं है । अंत में वे यह कहते हैं कि कलियुग में वर्ण केवल दो हैं: ब्राह्मण और शूद्र ।

सच्चे क्षत्रिय कभी के समाप्त हो चुके तथा वैश्य और अन्य उपयुक्त कर्मो को न करने के कारण अपने जाति-पद से वंचित हो चुके हैं । महाराष्ट्र के रामदास ने जो आगे चलकर शिवाजी के गुरु हुए, और जिन्होंने कर्म को धर्म में मुख्य स्थान दिया ब्राह्मणों के विशेषाधिकारों का भी इतने ही मुखर ढंग से दावा किया ।

मुसलमानों में भी जहाँ तौहीद की प्रवृति अनवरत जारी रही और अग्रणी सूफी संतों ने उसका समर्थन किया वहीं रूढ़िवादी उलमा के एक छोटे-से समूह ने उसकी तथा अकबर की उदारनीतियों की भी निंदा की । उस काल के मुस्लिम रूढ़िवादी और पुरुत्थानवादी आंदोलन के सबसे प्रसिद्ध विचारक शेख अहमद सरहिंदी थे ।

वे सूफियों के रूढ़िवादी नक्काबंदी सिलसिले के अनुयायी थे जो अकबरी दौर में भारत में प्रचलित हुआ । शेख अहमद सरहिंदी ने तौहीद या सृष्टा और सृजित की एकता की धारणा का विरोध किया और गैर इस्लामी कहकर उसकी निंदा की । उन्होंने उन सभी प्रथाओं और विश्वासों का भी विरोध किया जिनको वे हिंदूधर्म के प्रभाव का परिणाम कहते थे जैसे धार्मिक सभाओं में संगीत का उपयोग (समा), अत्यधिक ध्यान-मनन, संतों की कब्रों पर जाना आदि ।

राज्य के इस्लामी चरित्र के एलान के लिए उन्होंने फिर से जजिया लगाए जाने की तथा हिंदुओं के प्रति सख्त रवैया अपनाए जाने की माँग की, और यह भी कहा कि मुसलमान उनसे कम से कम सरोकार रखें । इस कार्यक्रम को लागू करने के लिए उन्होंने अनेक केंद्रों की स्थापना की तथा बादशाह और अमीरों को पत्र भी लिखे ताकि उन्हें अपना समर्थक बनाया जा सके ।

लेकिन शेख अहमद के विचारों क’ प्रभाव कम ही पड़ा । जहाँगीर ने पैगंबर से बड़ी स्थिति का दावा करने के आरोप में उन्हें गिरफ्तार कर लिया और तभी छोड़ा जब उन्होंने तौबा की । न ही औगंजेब ने उनके बेटे और उत्तराधिकारी पर कुछ खास ध्यान दिया ।

इस तरह रूढ़िवादी विचारकों और प्रचारकों क्य प्रभाव सीमित था और वह छोटे-छोटे समूहों तक ही रहा । उनकी मुख्य अलघ यह थी कि समाज और राज्य में जो लोग धनी और शक्तिशाली हैं वे उनके विचारों का समर्थन करेंगे । दूसरी ओर, उदारवादी विचारकों ने व्यापक जनता से अपनी बात कही ।

भारतीय इतिहास में उदारवाद और रूढ़िवाद की पुनरावृत्ति होने वाले चक्र को उस स्थिति में रखकर देखा जाना चाहिए, जिसकी जड़ें भारतीय समाज के ढाँचे में थीं । यह एक ओर सुदृढ़ विशेषाधिकारों और शक्तियों तथा दूसरी ओर जनसमूहों के समतावादी और मानवतावादी आकांक्षाओं के बीच चलनेवाले संघर्ष का एक पहलू था ।

संकीर्ण रूढ़िवादी तत्त्वों की प्रतिष्ठा और उनके प्रभाव ने तथा उनकी ओर से संकीर्ण विश्वासों और विचारों की पुनरोक्ति ने दोनों प्रमुख धर्मों (हिंदू धर्म और इस्लाम) के समर्थकों के बीच तारतम्य और सहिष्णुता की अगे बढ़ रही प्रक्रिया को बाधित किया तथा सांस्कृतिक एकीकरण की प्रक्रिया में भी विघ्न डाला । दोनों प्रवृत्तियों क्य टकराव औगंजेब के काल में खुलकर सामने आ गया, लेकिन अठारहवीं सदी में अकबर की व्यापक, उदारवादी नीति की पुनर्स्थापना हुई और वह एक मानदंड बन गई ।

Home››Hindi››