Read this article in Hindi to learn about the relation of Mughals with the Rajputs during medieval period.

राजपूतों के साथ अकबर के संबंधों को देश के शाक्तिशाली राजाओं और जमींदारों के प्रति मुगलों की नीति की व्यापकतर पृष्ठभूमि में देखना होगा । हुमायूँ जब भारत वापस आया तो उसने इन तत्त्वों को साथ लेने की एक सुविचारित नीति आरंभ की ।

अबुल फजल कहते हैं कि ‘जमींदारों को खुश करने के लिए उसने उनके साथ विवाह संबंध बनाए ।’ उदाहरण के लिए, जब हसन खान मेवाती के चचेरे भाई जमाल खान मेवाती ने जो ‘भारत के बड़े जमींदारों में एक’ था, हुमायूँ की अधीनता स्वीकार कर ली तो उसकी सुंदर बेटियों में से एक से हुमायूँ ने विवाह कर लिया और उसकी छोटी बहन का विवाह बैरम खान से करा दिया । कालांतर में अकबर ने इस नीति का प्रसार और विस्तार किया ।

अकबर जब तख्त पर बैठा तो उसके कुछ ही समय बाद आबेर का राजा भारामल उसके आगरा दरबार में आया था । उसने नौजवान बादशाह पर अच्छी छाप छोड़ी क्योंकि एक मस्त हाथी के डर से लोग जब इधर-उधर भाग रहे थे, तब भारामल के नेतृत्व में राजपूत वहाँ डटे रहे ।

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1562 में अकबर जब अजमेर जा रहा था तो उसे पता चला कि स्थानीय मुगल सूबेदार भारामल को परेशान कर रहा है । भारामल अकबर के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए स्वयं आया और अपनी छोटी बेटी हरखा बाई का उसके साथ विवाह करके अपने गठबंधन को मजबूत बना लिया ।

मुस्लिम शासकों से हिंदू राजाओं की बेटियों का विवाह कोई असामान्य बात नहीं थी । देश के विभिन्न भागों में चौदहवीं और पंद्रहवीं सदियों में ऐसे विवाहों के अनेक उदाहरण दिए जा चुके हैं । जोधपुर के शक्तिशाली राजा मालदेव ने अपनी बेटी बाई कनका को गुजरात के सुल्तान महमूद से तथा एक और बेटी लालबाई को सूर बादशाह से संभवत इस्लामशाह सूर से व्याहा था ।

खुद भारामल ने अपनी बड़ी बेटी का विवाह हाजी खान पठान से किया था जो इस्लामशाह सूर की मृत्यु के बाद अलवर का वास्तविक शासक बन बैठा था । किंतु इनमें से अधिकांश विवाहों के फलस्वरूप संबंधित परिवारों के बीच स्थिर वैयक्तिक संबंध स्थापित नहीं हुए । लड़कियाँ आम तौर पर अपने परिवारों से बिछुड़ जाती थीं और विवाह के बाद कभी वापस नहीं आती थीं ।

लेकिन अकबर ने एक अलग ही नीति अपनाई । उसने अपनी हिंदू पत्नियों को पूरी धार्मिक स्वतंत्रता दी तथा उनके पिताओं और संबंधियों को अमीरों की जमात में सम्मानजनक स्थान दिए । भारामल को एक उच्चाधिकारी बना दिया गया ।

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उसका बेटा भगवंतदास पाँच हजारी के दर्जे तक उठा और पोता मानसिंह सात हजारी के मनसब तक । यह पद अकबर ने बस एक और कुलीन को दिया था, अपने दूध-भाई अजीज खान कोका को । अकबर ने दूसरे ढंगों से भी कछवाहा राजा के साथ अपने विशेष संबंध पर जोर दिया ।

शिशु युवराज दानियाल को आबेर भेजा गया कि भारामल की पत्नियों उसे पालें । 1572 मे अकबर जब तेजी से गुजरात की ओर बढ़ा तो भारामल को आगरा की निगरानी सौंपी गई जहाँ सभी शाही स्त्रियों का वास था । यह एक अद्वितीय सम्मान था जौ केवल उन अमीरों को दिया जाता था जो या तो बादशाह के संबंधी होते थे या परम विश्वासपात्र ।

लेकिन विवाह-संबंधों को शर्त बनाने पर अकबर ने जोर नहीं दिया । रणथंभौर के हाड़ाओं के साथ कोई विवाह-संबंध न था, पर फिर भी वे बादशाह के कृपा-पात्र रहे । रावसुरजन हाड़ा को गढ़-कटंगा का भार सौंपा गया और वह दो हजारी के मनसब तक ऊपर उठा । इसी तरह जब आगे चलकर सिरोही और बाँसवाड़ा के राजाओं ने अकबर की अधीनता मान ली तो उनके साथ भी कोई विवाह-संबंध नहीं बनाया गया ।

अकबर की राजपूत नीति धार्मिक सहिष्णुता की व्यापक नीति का अंग थी । 1564 में उसने जजिया को समाप्त कर दिया जिसका प्रयोग उलमा कभी-कभी गैर-मुस्लिमों को अपमानित करने के लिए करते थे और जिसे अकसर मुस्लिम वर्चस्व और श्रेष्ठता का प्रतीक माना जाता था ।

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इससे पहले वह तीर्थयात्रा कर को समाप्त कर चुका था और युद्धबंदियों को जबरदस्ती मुसलमान बनाने की प्रथा पर भी रोक लगा दी गई थी । चित्तौड़-विजय के बाद अधिकांश अग्रणी राजपूत राजाओं ने अकबर की अधिराजी मान ली और स्वयं उसके दरबार में उपस्थित हुए ।

जैसलमेर और बीकानेर के राजाओं ने भी अकबर से विवाह-संबंध बनाए । मेवाड़ अकेला राज्य था जो काल अधिराजी को मानने से दृढ़ता से इंकार करता रहा । हालांकि चित्तौड़ और आसपास का मैदानी भाग मुगलों के अधीन आ चुका था पर उदयपुर और आसपास का पहाड़ी भाग जो मेवाड़ का अधिक बड़ा भाग था राणा के नियंत्रण में रहा ।

1572 में राणा उदयसिंह के बाद राणा प्रताप गद्‌दी पर बैठा । अकबर ने राणा प्रताप के पास अनेक दूत उन्हें मुगल अधिराजी स्वीकार करने और व्यक्तिगत रूप से बादशाह के प्रति सम्मान का इजहार करने की बात समझाने के लिए भेजे । राणा ने इन प्रतिनिधिमंडलों का शिष्ट ढंग से स्वागत किया ।

इनमें मानसिंह के नेतृत्ववाला एक प्रतिनिधिमंडल भी था । राणा ने मानसिंह का अपमान किया यह सिर्फ एक कहानी है न कि ऐतिहासिक सत्य । यह राणा की व्यवहारगत विशेषता कि वह अपने शत्रुओं के साथ भी शूरवीरों जैसा और शिष्ट व्यवहार करता था से मेल नहीं खाती है ।

मानसिंह के प्रतिनिधिमंडल के बाद एक दूसरा प्रतिनिधिमंडल भगवंतदास के नेतृत्व में गया और एक राजा टोडरमल के नेतृत्व में । लगता है एक समय तो राणा समझौते के लिए तैयार भी था । उसने अकबर का भेजा हुआ शाही वस्त्र धारण किया तथा अकबर को सलाम करने और उसकी सेवा स्वीकार करने के लिए अपने बेटे अमरसिंह को भगवंतसिंह के साथ भेजा ।

लेकिन कोई अंतिम समझौता इसलिए नहीं हो सका कि स्वाभिमानी राणा अकबर की स्वयै आकर सलाम करने की माँग को मानने के लिए तैयार न था । ऐसा भी लगता है कि मुगल चित्तौड को अपने हाथ में रखना चाहते थे जो राणा को स्वीकार न था । 1576 के आरंभ में अकबर अजमेर आ गया और 5000 की सेना देकर राजा मानसिंह को राणा के खिलाफ एक अभियान पर भेजा ।

इस गतिविधि का पहले से अनुमान लगाकर राणा ने चित्तौड़ तक का पूरा इलाका तबाह कर दिया ताकि मुगल सेना भोजन या चारा न पा सके । उन्होंने सभी पहाड़ी दर्रो को भी किलाबंद किया । दोनो पक्षों के बीच एक तीखी लड़ाई हल्दीघाटी में, एक सँकरी घाटी के नीचे हुई जो राणा की उस समय की राजधानी कुंभलगढ की ओर जाती थी ।

चुनिंदा राजपूत दस्तों के अलावा राणा के दल का नेतृत्व एक अफगान दस्ते के साथ हकीम खान सूर ने किया । इस तरह हल्दीघाटी की लड़ाई हिंदू-मुसलमान की या भारतीय-विदेशी की लड़ाई नहीं थी । भीलों का एक छोटा-सा दस्ता भी मौजूद था जिनको राणा ने अपना मित्र बना लिया था । राणा की सेना 3000 की बतलाई गई है ।

राजपूतों और अफगानों के हमले ने मुगल सेना को तितर-बितर कर दिया । लेकिन इन अफवाहों ने कि अकबर स्वयं वहाँ पहुँच चुका है उन्हें पुनर्गठित कर दिया । नई मुगल कुमुक के आने के बाद लड़ाई का रुख मुगलों की ओर होने लगा । यह देखकर राणा निकल भागा । मुगल सेना इतनी थक चुकी थी कि उसने उनका पीछा नहीं किया ।

लेकिन कुछ समय बाद वह दर्रे से होकर आगे बढ़ी और गोलकुंडा पर अधिकार कर लिया । यह एक मजबूत ठिकाना था जिसे राणा ने पहले ही खाली कर दिया था । यह अंतिम अवसर था जब राणा ने मुगलों का जमकर सामना किया । उसके बाद उन्होंने छापामार युद्ध का तरीका अपना लिया । हल्दीघाटी की हार के बावजूद राणा प्रताप का स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए संघर्ष करने का संकल्प कमजोर नहीं पड़ा ।

पर जिस ध्येय को प्राप्त करने के लिए वह लड़ रहे थे वह तो पहले ही समाप्त हो चुका था । अधिकांश राजपूत राज्यों ने मुगल अधिराजी स्वीकार कर ली थी । राजपूत राजाओं को मुगल सेवा में लेकर उनसे अग्रणी मुगलों जैसा ही व्यवहार करके व्यापक धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनाकर तथा पिछले विरोधियों के साथ शिष्ट व्यवहार करके अकबर राजपूत राजाओं के साथ अपने संबंधों को प्रगाढ़ बनाने में सफल रहा था ।

इसलिए मुगलों के सामने झुकने से राणा प्रताप के इनकार का अन्य राजपूत राज्यों पर कम ही प्रभाव पड़ा जिन्होंने यह महसूस कर लिया था कि मौजूदा स्थिति में छोटे राज्यों के लिए लंबे समय तक पूर्ण स्वतंत्रता पर अड़े रहना संभव नहीं था ।

इसके अलावा राजपूत राजाओं को अच्छी-खासी स्वायत्तता देकर अकबर ने ऐसा साम्राज्य खड़ा किया जिसे राजपूत राजा अपने वास्तविक हितों के लिए हानिकारक नहीं समझते थे ।

लगभग अकेले और प्रमुख राजपूत राज्यों से किसी सहायता के बिना शक्तिशाली मुगल साम्राज्य के मुकाबले राणा प्रताप का खड़े रहना राजपूत शौर्य और प्रिय सिद्धांतों के लिए बलिदान की भावना की एक गरिमापूर्ण गाथा है । राणा प्रताप की छापामार युद्ध की विधि को आगे चलकर दकनी सेनापति मलिक अबर ने और शिवाजी ने और आगे विकसित किया ।

अकबर और राणा प्रताप के युद्ध का विस्तार से वर्णन करना आवश्यक नहीं है । कुछ समय तक अकबर ने राणा पर अंतहीन दबाव डाला । मुगलों ने डूँगरपुर, बांसवाड़ा, सिरोही आदि राज्यों को रौंद डाला जो मालवा के आश्रित सहयोगी थे और राणा प्रताप की सहायता कर चुके थे । इन राज्यों से अकबर ने अलग-अलग संधियाँ कीं और इस तरह मेवाड़ को और भी अकेला बना दिया ।

राणा का जंगल-जगंल घाटी-घाटी पीछा किया गया । कुंभलगढ़ और उदयपुर दोनों पर मुगलों ने अधिकार कर लिया । राणा को भारी कष्ट उठाने पड़े पर भील सरदारों की सहायता के बल पर उन्होंने अपना प्रतिरोध जारी रखा । अकबर के कुछ सुधारों के विरोध में बिहार और बंगाल में एक गंभीर विद्रोह के फूटने के बाद 1579 में मुगलों का दबाव ढीला पड़ा ।

साथ ही अवसर का लाभ उठाने के लिए अकबर का सौतेला भाई मिर्जा हकीम पंजाब में घुस आया । इस तरह अकबर को एक अत्यंत गंभीर आतरिक संकट का सामना करना पड़ा । अकबर इस स्थिति का सामना करने में तो सफल रहा मगर 1585 में उत्तर-पश्चिम की स्थिति पर जो खतरनाक बन चुकी थी निगाह रखने के लिए वह लाहौर चला गया । अगले 12 वर्ष तक वह वहीं रहा । 1585 के बाद राणा प्रताप के खिलाफ कोई मुगल मुहिम नहीं भेजी गई ।

स्थिति का फायदा उठाकर राणा प्रताप ने अनेक क्षेत्रों को वापस ले लिया जिनमें कुंभलगढ़ भी था और चित्तौड़ के पास के क्षेत्र भी थे । पर वे स्वयं चित्तौड़ को वापस न पा सके । इस काल में उन्होंने आधुनिक डूँगरपुर के पास एक नई राजधानी चावंड बसाई । मात्र 51 वर्ष की अवस्था में राणा की मृत्यु एक अंदरूनी चोट के कारण हुई जो उन्हें सख्त हो चुकी एक कमान से तीर चलाने के प्रयास में लगी थी ।

मेवाड़ के अलावा अकबर को मारवाड़ का विरोध भी झेलना पड़ा । मालदेव की मृत्यु (1562) के बाद उसके बेटों के बीच उत्तराधिकार का विवाद उठ खड़ा हुआ । मालदेव का छोटा बेटा चंद्रसेन गद्‌दी पर बैठा वह मालेदव की चहेती रानी से उत्पन्न था ।

मुगलों के दबाव के कारण उसे अपने भाइयों को पट्‌टा के रूप में राज्य के कुछ भाग देने पड़े । लेकिन चंद्रसेन को यह बंदोबस्त पसंद नहीं आया और कुछ समय बाद उसने विद्रोह कर दिया । अकबर ने अब मारवाड़ को सीधे मुगल प्रशासन में ले लिया । संभवत इसका एक कारण गुजरात के लिए मुगलों की रसद के रास्ते को सुरक्षित रखना था जो जोधपुर से होकर जाता था ।

जोधपुर पर कब्जा करने के बाद अकबर ने उसकी देख-रेख के लिए राय सिंह बीकानेरी को नियुक्त किया । परंतु चंद्रसेन ने छापामार युद्ध चलाकर अपना विरोध जारी रखा । पर कुछ समय बाद उसे मेवाड़ में शरण लेनी पड़ी । वहाँ भी मुगलों ने जगह-जगह उसका पीछा किया । 1581 में उसकी मृत्यु हुई ।

कुछ वर्षा बाद अकबर ने जोधपुर को चंद्रसेन के बड़े भाई उदय सिंह को सौंप दिया । अपनी स्थिति को मजबूत बनाने के लिए उदय सिंह ने अकबर के सबसे बड़े बेटे सलीम से अपनी बेटी जगत गोसाई का विवाह कर दिया जिसे जोधाबाई के नाम से जाना जाता है ।

पिछले विवाहों की डोला वाली रस्म के विपरीत इस बार दूल्हा पक्ष बारात लेकर राजा के घर गया और अनेक हिंदू रीति-रिवाजों का पालन किया गया । यह तब की बात है जब अकबर लाहौर में ठहरा हुआ था ।

अकबर के घनिष्ठ व्यक्तिगत संबंध बीकानेर और बूँदी के राजाओं के साथ भी थे जिन्होंने अनेक अभियानों में यश कमाया । 1593 में बीकानेर के रायसिंह का दामाद जब अपनी पालकी से गिरकर मर गया तो अकबर राजा को धीरज बँधाने स्वयं उसके घर गया और उसकी बेटी को सती होने से रोका क्योंकि उसके बच्चे अभी छोटे थे ।

अकबर की राजपूत नीति मुगल राज्य के लिए भी लाभकारी रही और राजपूतों के लिए भी । इस गठबंधन ने मुगल साम्राज्य को भारत के सबसे बहादुर योद्धाओं की सेवाएँ दिलाई । राजपूतों की पक्की वफादारी साम्राज्य को सुदृढ़ बनाने और विस्तार देने का एक महत्त्वपूर्ण कारण बन गई ।

इस गठबंधन ने राजस्थान में शांति सुनिश्चित की और अपने घर-बार-राज्य की सुरक्षा की चिंता से मुक्त रहकर राजपूतों को साम्राज्य के दूरदराज के इलाकों में सेवा करने योग्य बनाया । शाही सेवा में भरती किए जाने से राजपूत राजा बहुत ऊँचे पदों पर पहुँचने की आशा कर सकते थे ।

उदाहरण के लिए आबेर के भगवंतदास को लाहौर का संयुक्त सूबेदार नियुक्त किया गया जबकि उसके बेटे मानसिंह को बिहार और बंगाल का सूबेदार बनाया गया । विभिन्न काल में दूसरे राजपूत राजाओं को भी आगरा, अजमेर और गुजरात जैसे रणनीतिक महत्व के सूबों का भार सौंपा गया । साम्राज्य के उच्चाधिकारियों के रूप में उन्हें उनके पुश्तैनी राज्यों के अलावा जागीरें दी गई जिसके कारण उनके संसाधन और बड़े ।

अकबर की राजपूत नीति को उसके उत्तराधिकारियों, जहाँगीर और शाहजहाँ ने भी जारी रखा । जहाँगीर ने, जिसकी माँ एक राजपूत राजकुमारी थी, स्वयं भी एक कछवाहा राजकुमारी से और एक जोधपुर की राजकुमारी से विवाह किया था । जैसलमेर और बीकानेर घरानों की राजकुमारियाँ भी उससे ब्याही गई थीं । जहाँगीर ने इन सभी घरानों के राजाओं को सम्मानजनक स्थान दिया था ।

पर जहाँगीर की सर्वप्रमुख उपलब्धि मेवाड़ के साथ जारी विवाद का समाधान करना था । राणा प्रताप की जगह उसके बेटे अमरसिंह ने ली थी । अमरसिंह से अपनी शर्ते मनवाने के लिए अकबर ने उसके खिलाफ अनेक मुहिमें भेजी थीं । स्वयं जहाँगीर को दो बार भेजा गया पर कुछ विशेष लाभ नहीं हुआ ।

1605 में तख्त पर बैठने के बाद जहाँगीर ने तत्परता से कार्रवाई की । उत्तरोत्तर तीन मुहिमें चलाई गई पर वे राणा के संकल्प को न तोड़ सकीं । अंत में अभियान के नेतृत्व के लिए जहाँगीर स्वयं 1613 में अजमेर पहुँचा । मेवाड़ के पहाड़ी भागों पर हमले के लिए एक बड़ी सेना के साथ शाहजादा खुर्रम (आगे चलकर शाहजहाँ) को लगाया गया ।

मुगल सेना का भारी दबाव क्षेत्र की आबादी का पलायन और खेती की तबाही ने आखिरकार अपना प्रभाव छोड़ा । अनेक सरदार मुगलों से आ मिले दूसरों ने राणा पर शांति के लिए दबाव डाला । राणा के बेटे करण सिंह को जहाँगीर के दरबार में भेजा गया जहाँ उसका अच्छा स्वागत हुआ ।

जहाँगीर तख्त से उठा उसे गले लगाया और उसे उपहारों से लाद दिया । राणा की प्रतिष्ठा रखने के लिए जहाँगीर ने इस पर जोर नहीं दिया कि राणा स्वयं आकर उसके प्रति सम्मान जताए या शाही सेवा में शामिल हो ।

राजकुमार करण को पाँच हजारी का मनसब दिया गया जो पहले जोधपुर बीकानेर और आबेर के राजाओं को दिया गया था । उसे 1500 सवारों के दस्ते के साथ मुगल बादशाह की सेवा करनी थी । चित्तौड़ समेत मेवाड़ के सारे क्षेत्र लौटा दिए गए ।

लेकिन चित्तौड़ के रणनीतिक महत्व को देखते हुए निश्चित किया गया कि उसकी किलाबंदी की फिर से मरम्मत नहीं कराई जाएगी । इस तरह अकबर के शुरू किए काम को जहाँगीर ने पूरा किया और राजपूतों के साथ अपने गठबंधन को और मजबूत किया ।

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