Read this article in Hindi to learn about the relation of Aurangzeb with the Rajputs in India during medieval period.

जहाँगीर ने मेवाड़ के साथ लंबे खिंचे संघर्ष को 1613 में किस प्रकार हल किया । जहाँगीर ने प्रमुख राजपूत राजाओं पर अनुग्रह करने तथा उनके साथ विवाह संबंध बनाने की अकबरी नीति को जारी रखा । उसके शासन में राजपूत दस्ते दकन मध्य एशिया में बल्ख और कंदहार जैसे दूर-दूर के क्षेत्रों में शानदार ढंग से सेवा करते रहे ।

पर शाहजहाँ के काल से अग्रणी राजपूत राजाओं के साथ कोई और विवाह संबंध स्थापित नहीं किया गया हालांकि स्वय शाहजहाँ एक राठौड़ राजकुमारी का बेटा था । संभवत: राजपूतों के साथ गंठजोड़ के मजबूत होने के बाद अग्रणी राजाओं के साथ अब आगे विवाह संबंधों की आवश्यकता नहीं रही होगी ।

लेकिन शाहजहाँ ने दो अग्रणी राजपूत घरानों जोधपुर और आमेर के प्रमुखों को भारी सम्मान दिया । मारवाड़ का शासक जसवंत सिंह शाहजहाँ का विशेष कृपापात्र था । औरंगजेब के सत्तारोहण के समय वह और जयसिंह दोनों 7000/7000 के मनसबदार थे ।

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औरंगजेब राजपूतों से गँठजोड़ को काफी महत्त्व देना था । उसने मेवाड़ के महाराणा का सक्रिय सहयोग पाने का प्रयास किया और उसका मनसब 5000/5000 से बढ़ाकर 6000/6000 कर दिया ।

हालांकि जसवंत सिंह धरमाट में उसके खिलाफ लड़ा शुजा विरोधी अभियान के दौरान औरंगजेब का साथ छोड़ गया और दारा को अपने राज्य में आमंत्रित किया था पर औरंगजेब ने उसे क्षमा कर दिया और उसका पिछला मनसब वापस दे दिया । उसने उसे गुजरात की सूबेदारी समेत महत्वपूर्ण पदों पर भी नियुक्त किया । जयसिंह 1667 में अपनी मृत्यु तक औरंगजेब का गहरा मित्र और विश्वासपात्र बना रहा ।

जसवंत सिंह, जिसे उत्तर-पश्चिम में अफगानों के मामले देखने के लिए नियुक्त किया गया था 1678 के अंतिम दिनों में मरा । महाराजा का कोई बेटा जीवित नहीं बचा था और इस कारण फौरन गद्‌दी के उत्तराधिकार की समस्या उठ खड़ी हुई । यह मुगलों की एक पुरानी परंपरा थी कि विवादास्पद उत्तराधिकार के मामले में कानून और व्यवस्था के लिए राज्य को मुगल प्रशासन खालिसा के अंतर्गत रखा जाता था और फिर चुने गए उत्तराधिकारी को सौंप दिया जाता था ।

मसलन 1650 में जब जैसलमेर के उत्तराधिकार का विवाद पैदा हुआ तो शाहजहाँ ने पहले तो राज्य को खालिसा में ले लिया और फिर बादशाह के चुने हुए उत्तराधिकारी को गद्‌दी दिलाने के लिए जसवत सिंह को एक सेना की कमान देकर भेजा । मारवाड़ को खालिसा में लाने का एक और भी कारण था ।

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अधिकांश मुगल अमीरों की तरह महाराजा पर भी राज्य की बड़ी-बड़ी रकमें बकाया थीं जिनको वह अदा नहीं कर सका था । अनेक राजपूत जिनको जसंवत सिंह ने नाराज कर दिया था या जिनके क्षेत्रों को बादशाह ने जागीर के रूप में सौंप दिया था जोधपुर की गद्‌दी पर राजा के अभाव का उपयोग गड़बड़ी पैदा करने के लिए करना चाहते थे ।

राठौड़, के विरोध का अनुमान लगाकर औरंगजेब ने मारवाड के दो परगने जसवंत सिंह के परिवार और समर्थकों के निर्वाह के लिए दे दिए । उसने एक मजबूत सेना भी जमा की और अपने आदेश लागू कराने के लिए स्वयै अजमेर की ओर चल पड़ा । जसंवत सिंह की पटरानी रानी हाड़ी मुगलों को जोधपुर का प्रशासन सौंपने का विरोध इस आधार पर कर रही थी कि यह राठौडों का ‘वतन’ था ।

अब उसके सामने मुगल अधीनता मानने के सिवा कोई चारा नहीं रहा । फिर उन छिपे खजानों की गहरी तलाश शुरू हो गई जो जसवंत सिंह के पास हो सकते थे । पूरे मारवाड़ में मुगल अधिकारी तैनात कर दिए गए । पुराने मंदिरों समेत बड़ी सख्या में मंदिरों को नष्ट किया गया या उनको ईटें लगाकर बद कर दिया गया ।

इस तरह मुगलों ने विजेता की तरह व्यवहार किया और मारवाड़ से दुश्मन क्षैत्र की तरह सुलूक किया । इसे उचित ठहरा सकना आसान नहीं है । गुजरात के बदंरगाहों से दिल्ली को जोड़ने में मारवाड़ के रणनीतिक महत्व के बावजूद औरंगजेब का उस पर सीधा नियंत्रण बनाए रखने का कोई इरादा नहीं था जैसा कि आधुनिक इतिहासकार यदुनाथ सरकार ने दावा किया है ।

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जसवंत सिंह की मृत्यु के बाद उसकी दो रानियों से लाहौर में दो बेटे पैदा हुए । गद्‌दी पर उनके दावों की जोरदार पुष्टि की गई । लेकिन अजमेर से दिल्ली लौटने से पहले औरंगजेब ने 36 लाख रुपए उत्तराधिकार शुल्क (नजराना) के बदले जसवत सिह के बड़े भाई अमरसिंह के पाते इंदरसिंह को जोधपुर का ‘टीका’ देने का फैसला कर लिया था ।

औरंगजेब शायद इस तर्क से प्रभावित हो गया कि अमर सिंह के दावे को अनदेखा करके और छोटे भाई जसवंत सिंह को टीका देकर शाहजहाँ ने अमरसिंह के साथ भारी अन्याय किया था । हो सकता है वह मारवाड़ में अल्पमत का प्रशासन लाने से भी बचना चाहता हो ।

कुछ आधुनिक इतिहासकारों की राय में औरंगजेब ने जसंवत सिंह की मृत्यु के बाद जन्में उसके बेटे अजीत सिंह को इस शर्त पर जोधपुर देने का प्रस्ताव किया था कि वह मुसलमान बन जाए । समकालीन स्त्रोतों में इस बात का कहीं उल्लेख नहीं मिलता ।

एक समकालीन राजस्थानी रचना हुकूमत-री-बही के अनुसार अजीत सिंह को जब आगरा दरबार में पेश किया गया तो औरंगजेब ने उसे एक मनसब देने की पेशकश की और एलान किया कि मारवाड़ के दो परगने सोजत और जैतरण उसकी जागीर बने रहेंगे । इस तरह औरंगजेब एक तरह से परिवार की दो शाखाओं के बीच मारवाड़ राज्य के विभाजन की बात सोच रहा था ।

दुर्गादास के नेतृत्व वाले राठौडों ने इस प्रस्तावित समझौते को जिसे वे राज्य के बेहतरीन हितों के खिलाफ समझते थे डुकरा दिया । सरदारों द्वारा अपना प्रस्ताव ठुकराए जाने पर क्रोधित होकर औरगजेब ने आदेश दिया कि राजकुमारों और उनकी माताओं को नूरगढ़ के किले में नजरबंद कर दिया जाए ।

इससे राठौड़ सरदार चौकन्ने हो गए । बहादुरी से लड़कर वे एक राजकुमार के साथ आगरा से भाग निकले और भारी जश्न के बीच उन्होंने जोधपुर में अजीत सिंह नाम से उसे राजा बनाया । औरंगजेब के लिए यह संतोष की बात रही होगी कि राठौडों में इंदर सिंह के समर्थक नहीं थे ।

उसने इंदर सिंह को ‘नाकारापन’ के कारण किनारे लगा दिया था पर अजीत सिंह को ‘जाली बच्चा’ करार देकर उसके खिलाफ एक कठोर बेलोच रुख अपनाया । साम्राज्य के सभी भागों से सुसज्जित सेनाएँ बुलाई गई और एक बार फिर औरगंजेब ने अजमेर की ओर कूच किया ।

राठौडों का प्रतिरोध कुचल दिया गया और जोधपुर पर अधिकार कर लिया गया । दुर्गादास अजीत सिंह के साथ भागकर मेवाड़ चला गया जहाँ राणा ने उसे एक गुप्त पनाहगाह में भेज दिया । इसी समय मेवाड़ अजीत सिंह की ओर से युद्ध में उतरा । राणा राजसिंह जिसने कभी औरंगजेब का साथ दिया था धीरे-धीरे उससे विमुख हो गया था ।

उसने रानी हाड़ी के दावे को पुष्ट करने के लिए जोधपुर के एक अग्रणी व्यक्ति की कमान में 5000 की सेना भेजी थी । लगता है राजपूतों के अंदरूनी मामलों में, जैसे उत्तराधिकार के सवाल पर वह मुगल हस्तक्षेप का भारी विरोधी था ।

इसके अलावा उसे मुगलों से शिकायत भी थी कि उन्होंने मेवाड़ से उसके दक्षिण और पश्चिम मे स्थित राज्यों, जैसे डूँगरपुर, बाँसवाड़ा आदि को अलग करने का प्रयास किया जो कभी मेवाड़ को खिराज देनेवाले और उसके आश्रित राज्य थे । पर तात्कालिक कारण था मारवाड़ पर मुगल सेना के अधिकार और औरंगजेब द्वारा अजीत सिंह के उत्तराधिकार के दावे को ठुकराए जाने पर राणा का असहज होना ।

पहली चोट औरंगजेब ने की । उसने नवंबर 1679 में मेवाड़ पर हमला कर दिया । एक भारी मुगल दस्ता उदयपुर पहुँच गया और उसने राणा के खेमे तक पर धावा किया जो मुगलों को परेशान करनेवाला युद्ध चलाने के लिए पहाड़ियों मे काफी अंदर चला गया था । युद्ध में जल्द ही गतिरोध आ गया ।

मुगल न तो पहाड़ियों में घुस सकते थे और न राजपूतों की छापामार युद्धशैली से निबट सकते थे । चारों ओर युद्ध की निंदा हो रही थी और औरंगजेब की चेतावनी तथा फटकार कमानदारों पर असर नहीं डाल रही थी । आखिरकार औरंगजेब के सबसे बड़े बेटे शाहजादा अकबर ने इस स्थिति का लाभ उठाते हुए बगावत का झंडा खड़ा कर दिया ।

राठौड् सरदार दुर्गादास से गंठजोड़ करके उसने अजमेर की ओर (जनवरी 1681 में) कूच किया । औरगंजेब असहाय पड़ा था, क्योंकि उसकी तमाम बेहतरीन सेनाएँ दूसरे स्थानों पर व्यस्त थीं । पर शाहजादा अकबर ने देर कर दी और औरंगजेब झूठे पत्रों के सहारे उसके खेमे में फूट पैदा करने में सफल रहा । शाहजादा अकबर भागकर महाराष्ट्र चला गया और औरंगजेब ने राहत की साँस ली ।

अब औरंगजेब के लिए मेवाड़ का अभियान गौण हो गया । इस बीच राणा राजसिंह मर चुका था । औरंगजेब ने नए राणा जगतसिंह से एक संधि कर ली । राणा को मजबूर होकर जजिया के बदले अपने कुछ परगने सौंपने पड़े । उसे उसकी निष्ठा के लिए और अजीत सिंह का साथ न देने के वादे पर 5000 का मनसब दिया गया ।

अजीत सिंह के बारे में औरंगजेब ने बस यह वादा किया कि उसके बालिग होने पर मनसब और राज उसे सौंप दिए जाएँगे । इस समझौते और अजीत सिंह संबंधी वादे ने किसी भी राजपूत को संतुष्ट नहीं किया ।

मुगलों ने मारवाड़ पर नियंत्रण बनाए रखा और बेतुका युद्ध 1698 तक जारी रहा जब आखिरकार अजीत सिंह को मारवाड़ का शासक मान लिया गया । लेकिन राजधानी जोधपुर पर से मुगलों ने अपना नियंत्रण ढीला करने से इनकार कर दिया । मेवाड़ का राणा भी मुगलों को अपने परगने सौंपने के बाद असंतुष्ट रहा । 1707 में औरंगजेब की मृत्यु तक इस स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया ।

मारवाड़ और मेवाड़ के प्रति औरंगजेब की नीति भोंडी और गलतियों से भरी थी तथा उससे मुगलों को किसी तरह का लाभ नहीं हुआ । दूसरी ओर इन राज्यों रचे मुकाबले मुगलों की असफलता से उनकी सैन्य प्रतिष्ठा को धक्का लगा । यह सही है कि 1681 के बाद मारवाड़ विरोधी युद्ध में थोड़े-से ही दस्ते शामिल किए गए थे और इनका सैन्य दृष्टि से कोई अधिक महत्व नहीं था ।

यह भी सही है कि हाड़ा कछवाहा और अन्य राजपूत दस्ते मुगलों की सेवा करते ही रहे । लेकिन औरंगजेब की मारवाड़ नीति के परिणामों को केवल इन्हीं के आधार पर नहीं परखा जा सकता । मारवाड व मेवाड़ से संबंध विच्छेद ने एक नाजुक समय में राजपूतों के साथ मुगलों के गँठजोड़ को कमजोर किया ।

सबसे बड़ी बात यह कि उसने पुराने और भरोसेमंद सहयोगियों के प्रति मुगलों के समर्थन के पक्के होने और औरंगजेब के छिपे इरादों के बारे में शक पैदा कर दिया । औरंगजेब की बेलोच और अक्खड़ मारवाड़ नीति यह साबित नहीं करती कि उसका मुख्य उद्‌देश्य था हिंदू धर्म को नष्ट करना जैसा कि आरोप लगाया गया है ।

1679 के बाद के काल में बड़ी संख्या में मराठों को अमीर वर्ग में प्रवेश की अनुमति भी इस मत का खंडन करती है । पूर्वोतर भारत में तथा जाटों अफगानों सिखों और राजपूतों के साथ औरंगजेब के टकरावों ने साम्राज्य पर भारी दबाव डाला । लेकिन असली टकराव तो दकन में होना था ।

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