Read this article in Hindi to learn about the causes of the defeat of Rajputs in India during medieval period.

एक मान्यता के रूप में कहा जा सकता है कि एक देश जब सामाजिक और राजनीतिक कमजोरियों का शिकार होता है या अपने पड़ोसियों के मुकाबले आर्थिक एवं सैनिक दृष्टि से पिछड़ जाता है तो ही वह किसी अन्य देश के हाथों पराजित होता है । हाल के अनुसंधान दिखाते हैं कि भारतीयों की अपेक्षा तुर्को के पास बेहतर हथियार नहीं थे ।

लोहे की जिस रकाब से यूरोप में युद्ध की पद्धति बदल गई थी, वह भारत में आठवीं सदी से ही प्रचलित थी । तुर्कों की कमानें अधिक दूरी तक तीर भला सकती थीं, पर भारतीय कमानें अधिक सटीक और अधिक घातक मानी जाती थीं तथा तीरों की नोकें आम तौर पर जहर में बुझी रहती थीं ।

आमने-सामने की लड़ाई के लिए भारतीय तलवारें संसार में सबसे अच्छी मानी जाती थीं । भारतीयों को हाथियों का लाभ भी प्राप्त था । तुर्कों के पास संभवत: ऐसे घोड़े थे जो भारत में आयातित घोड़ों की अपेक्षा अधिक तेज और अधिक हट्‌टे-कट्‌टे थे ।

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राजपूतों की हार के कारणों को मात्र तराई और चंदावर के युद्ध के संदर्भ में या बिहार और बंगाल में बख्तियार खलजी की सफलता के संदर्भ में ही नहीं देखा जाना चाहिए जिनके फलस्वरूप 15 वर्षों की छोटी सी अवधि में दक्षिण बंगाल छोड़ गगा की पूरी वादी तुर्को के नियंत्रण में आ चुकी थी ।

जैसा कि एक आधुनिक लेखक ए बी एम हबीबुल्लाह ने सही तौर पर कहा है, मुईजुद्दीन की सफलता ‘एक प्रक्रिया का चरमोत्कर्ष थी जो पूरे बारहवीं सदी में जारी रही ।’ वास्तव में, सिंध से बाहर हिंदुस्तान में पाँव जमाने के लिए टोही गतिविधियाँ कम से कम एक सदी पहले ही गजनी के महमूद के उदय के साथ शुरू हो चुकी थीं ।

महमूद के द्वारा अफगानिस्तान और पंजाब की विजय ने भारत की अगाड़ी प्रतिरक्षा पंक्तियों को तोड़ दिया । इसके चलते दुश्मन ताकतों ने यहाँ अपनी सेनाएँ उतारीं और भारत के महत्वपूर्ण क्षेत्रों में जब इच्छा हो हमले करने लगीं । इस तरह रणनीतिक दृष्टि से भारत बचाव की स्थिति में आ गया ।

इस पूरे दौर में उत्तर भारत के राजपूत राज्यों ने गजनवियों को खदेड़ने के लिए आपस में हाथ मिलाने का कोई प्रयास नहीं किया महमूद की मृत्यु के बाद भी नहीं । महमूद के उत्तराधिकारी अपनी कमजोर स्थिति के बावजूद आक्रामक रुख अपनाते रहे । उन्होंने राजस्थान में अजमेर या और भी आगे तक तथा गर्गा की वादी में कन्नौज और वाराणसी तक भारतीय क्षेत्रों पर हमले किए ।

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इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि घुमक्कड़ तुर्क जो मुईजुद्‌दीन की सेना के महत्त्वपूर्ण मा थे ऐसे गतिशील दस्ते के रूप में इस्तेमाल किए जाते रहे जो तेजी से आगे बढ़ सकते थे या पलट सकते थें । घोड़े पर सवारी करते हुए भी वे तीर चला सकते थे । दूसरी ओर राजपूत हाथियों की सहायता से जमीन पर लड़ने को वरीयता देते थे । इस तरह राजपूत सेना कम गतिशील थी ।

संगठन में भी राजपूत सेनाएँ कमजोर थीं । अधिकांश राजपूत सेना अधीनस्थ राजाओं से ली हुई होती थीं अर्थात वे ऐसी सेनाएँ होती थीं जिनकी कमान अधीनस्थ राजाओं के पास होती थी और उनकी कोई केंद्रीय कमान नहीं होती थी ।

दूसरी ओर तुर्क सेनाओं की कमान बादशाह के गुलामों की हाथों मे होती था । ये अभिजात समूह होने थे जिनका बादशाह युद्ध का प्रशिक्षण दिलवाते थे और जो बादशाह के प्रति पूरी तरह वफादार होते थे । फिर भी, इस अभिजात समूह में फूट हुआ करती थी, जैसा कि कुछ तुर्क बादशाही की मृत्यु के बाद स्पष्ट हुआ ।

तुर्को के सामाजिक संघटनात्मक ढांचे ने भी उनको अनेक लाभ प्रदान किए । पश्चिम एशिया में धीरे-धीरे विकसित हुई इक्ता व्यवस्था का मतलब था कि एक तुर्क सरदार को इक्ता के रूप में जमीन का एक भाग दिया जाता था जहाँ से वह राज्य को देय मालगुजारी और करों की वसूली करता था ।

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बदले में उसे शासक की सेवा के लिए सैनिकों का एक दल बनाए रखना पड़ता था । यह भूमिदान पुश्तैनी नहीं होता था और सुल्तान की इच्छा पर निर्भर होता था जो किसी सरदार को कहीं और भेज सकता था । सुल्तान सीधे उन जमीनों से राजस्व पाता था जिनको खालिसा कहते थे । इसके बल पर वह एक बड़ी स्थायी सेना भी रख सकता था । भारत की तरह पश्चिम एशिया में राज्यों का उत्थान और पतन होता रहा, किंतु राजपूत राज्यों के विपरीत पश्चिम एशिया के हर राज्य में सशस्त्र बल अधिक केंद्रीकृत थे ।

निजी बहादुरी में राजपूत तुर्को से किसी भी तरह कम न थे । इस संदर्भ में सैन्य संगठन में धर्म और जाति की भूमिका को अनावश्यक बढ़ाकर नहीं आँकना चाहिए । तुर्क जहाँ गाजी की भावना से भरे हुए थे वहीं राजपूत पीछे हटने को अपमानजनक समझते थे । इसके अलावा जाति ने गैर-राजपूतों या कुवर्णों (निम्न जातियों) को युद्ध में भाग लेने से नहीं रोका । इसके कारण राजपूतों की सेनाएँ संख्या में तुर्को द्वारा उतारी गई सेनाओं से बड़ी होती थीं ।

राजपूतों ने जोरदार और लंबे प्रतिरोध भी किए और अनेक अवसरों पर तुर्क सेनाओं को हराया भी । पर राजपूतों में उस चीज की कमी थी जिसे ‘रणनीतिक दृष्टि’ कहा जा सकता है । काबुल और लाहौर, जो कभी भारत के बाहरी गढ़ थे तुर्कों के हाथ पड़ चुके थे । किंतु राजपूतों ने उन्हें वापस पाने की कोई जोरदार कोशिश नहीं की ।

उदाहरण के लिए, पंजाब से गजनवियों को बाहर निकालने के लिए कोई खास प्रयत्न नहीं किया गया । राजपूतों की दृष्टि भारत पर टिकी रही और उन्होंने बाहर के खासकर मध्य एशिया के विकासक्रमों पर कुछ अधिक ध्यान नहीं दिया । जैसा कि सर्वविदित है, भारत के इतिहास की रूपरेखा तय करने में प्राय: इस क्षेत्र ने एक बुनियादी भूमिका निभाई ।

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