Here is an essay on ‘Vaishnav Movement’ especially written for school and college students in Hindi language.

कबीर और नानक के नेतृत्व वाले उदारतावादी आंदोलन के अलावा उत्तर भारत में भगवान विष्णु के दो अवतारों-राम और कृष्ण की उपासना पर केंद्रित भक्ति आंदोलन का विकास हुआ । बाल-कृष्ण की लीला और गोकुल की गोपियों खासकर राधा के साथ उनकी रासलीला पंद्रहवीं और आरंभिक सोलहवीं सदी के अनेक महत्वपूर्ण कवियों के लिए एक विषय बन गई ।

उन्होंने राधा और कृष्ण के प्रेम का प्रयोग एक रूपक के ढंग से वैयक्तिक आत्मा और परमात्मा के प्रेम-संबंधों के विभिन्न पक्षों को चित्रित करने के लिए किया । आरंभिक सूफियों की तरह चैतन्य ने भी एक विशेष प्रकार के योगी-अनुभव के रूप में संकीर्तन को लोकप्रिय बनाया ।

ऐसा अनुभव जिसमें प्रभु का नाम जपने से बाह्य संसार विलीन हो जाता है । चैतन्य के अनुसार उपासना का अर्थ प्रेम और भक्ति है गीत और नृत्य है जिससे परमानंद की अवस्था उत्पन्न होती है और इसी अवस्था में प्रभु साकार होते हैं जिनको चैतन्य हरि कहते हैं । ऐसी उपासना सभी व्यक्ति कर सकते हैं चाहे उनकी जाति या धर्म कुछ भी हो ।

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गुजरात में नरसिंह मेहता राजस्थान में मीरा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सूरदास और बंगाल-उड़ीसा में चैतन्य की रचनाओं ने गीतात्मक प्रवाह और प्रेम की देसी असाधारण ऊँचाइयों को छू लिया जो जाति और धर्म की सीमाओं समेत तमाम सीमाओं का अतिक्रमण करती थीं ।

जाति और धर्म से परे ये संत हर एक का अपने दल में स्वागत करते थे । यह बात चैतन्य के जीवन में सबसे अधिक स्पष्ट दिखाई देती है । उनका जन्म और शिक्षा का स्थान नदिया है जो वेदांती बुद्धिवाद का केंद्र था । लेकिन 22 वर्ष की आयु में चैतन्य ने जब गया की यात्रा की और वहाँ एक संन्यासी ने उन्हें कृष्ण-पंथ की दीक्षा दी तो उनके जीवन का ढर्रा बदल गया ।

वे एकेश्वरवादी बन गए और अनथक कृष्ण का नाम जपते रहते थे । कहते हैं कि चैतन्य ने पूरे भारत की यात्रा की । इसमें वृदावन भी शामिल था जहाँ उन्होंने कृष्ण-पंथ को नया जीवन दिया । पर उनका अधिकांश समय गया में बीता ।

उन्होंने विशेषकर भारत में पूर्वी भागों पर असाधारण प्रभाव छोड़ा और उनका व्यापक अनुयायी-दल था जिसमें कुछ मुसलमान और निचली जातियों के लोग भी थे । उन्होंने धर्मग्रंथों या मूर्तिपूजा को अस्वीकार नहीं किया लेकिन उन्हें परंपरावादी की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता ।

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उपरोक्त सभी संत कवि मुख्य रूप से परंपरागत हिंदू धर्म के दायरे में रहे । उनका दार्शनिक विश्वास एक प्रकार का वेदांती अद्वैत था जो प्रभु और सृष्टि की बुनियादी एकता पर जोर देता था । वेदांत दर्शन का प्रतिपादन अनेक विचारकों ने किया था लेकिन संत-कवियों को सभवत जिसने सबसे अधिक प्रभावित किया वे वल्लभ थे । वल्लभ एक तैलंग ब्राह्मण थे जिनका जीवन-काल पंद्रहवीं सदी का अंतिम और सोलहवीं सदी का प्रारंभिक हिस्सा माना जाता है ।

इन संत कवियों का दृष्टिकोण व्यापक स्तर पर मानवतावादी था । उन्होंने मानवीय भावनाओं के उदात्तम पक्षों पर बल दिया-प्रेम और सौंदर्य की भावनाओं पर । किंतु असंकीर्ण संतों की तरह वे भी जातिप्रथा में कोई बड़ी दरार नहीं डाल सके । पर उन्होंने जातिप्रथा की कठोरताओं को कम किया और मेलजोल रके लिए भी मंच तैयार किया ।

इस काल के सूफी शायरों और संतों ने उल्लेखनीय सीमा तक इन संत कवियों की बुनियादी धारणाओं को अंगीकार किया । पंद्रहवीं सदी में महान अरब दार्शनिक इब्न- अल-अरबी के एकत्ववादी विचार भारत के एक बड़े वर्ग मे लोकप्रिय हो चुके थे ।

रूढ़िवादी तत्त्वों ने इब्न-अल-अरबी की जमकर निंदा की और उनके अनुयायियों को उत्पीड़ित किया क्योंकि इब्न अरबी का मत था कि समस्त अस्तित्व एक है और हर वस्तु परमतत्व की ही अभिव्यक्ति है । इब्न अरबी का अस्तित्व की एकता का सिद्धांत तौहीद-ए-वजूदी (अस्तित्व की एकता) कहलाता है ।

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भारत में यह सिद्धांत लोकप्रिय बन चुका था और यह अकबर से पहले ही सूफी विचारधारा का मुख्य आधार बन चुका था । योगियों और हिंदू संतों का संपर्क सर्वेश्वरवाद की धारणा को प्रचारित करने में काफी हद तक सहायक रहा ।

भारतीय सूफी संस्कृत और हिंदी में अधिक दिलचस्पी लेने लगे तथा मलिक मुहम्मद जायसी समेत कुछ ने तो हिंदी में अपनी रचनाएँ लिखीं । हिंदी और दूसरी भाषाओं में वैष्णव संतों के लिखे भक्ति गीतों ने सूफियों के दिलों को फारसी शायरी से भी अधिक प्रभावित किया ।

हिंदी गीतों का प्रयोग इतना लोकप्रिय हुआ कि यशस्वी सूफी अब्दुल वाहिद बिलग्रामी ने हकायक-ए-हिंदी नाम से एक प्रबंधग्रंथ लिखा जिसमें उन्होंने कृष्ण, मुरली, गोपी, राधा, यमुना आदि शब्दों को सूफी रहस्यवादी ढंग से समझाने का प्रयास किया ।

इस तरह पंद्रहवीं सदी और सोलहवीं सदी के प्रारंभिक भाग में भक्ति और भूसी संतों ने एक ऐसा साझा मंच तैयार किया जिस पर विभिन्न पंथों और धर्मों के लोग एक दूसरे से मिल सकें और एक दूसरे को समझ सकें । अकबर के विचारों और उसकी तौहीद अर्थात सभी धर्मों की एकता की मूल पृष्ठभूमि यही थी ।

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