Here is an essay on ‘Bhakti Movement’ especially written for school and college students in Hindi language.

ईश्वर से व्यक्ति के आध्यात्मिक एकाकार पर जोर देने वाला भक्ति आंदोलन भारत में तुर्को के आने के बहुत पहले से प्रचलित रहा है । हालांकि भक्ति के बीज वेदों में देखे जा सकते हैं पर आरंभ में उस पर जोर नहीं दिया गया । लगता है एक सगुण ईश्वर की आराधना का विचार बौद्ध धर्म की बढ़ती लोकप्रियता के साथ विकसित हुआ ।

ईस्वी सन् की आरंभिक सदियों में महायान बौद्ध मत में बुद्ध की पूजा उनके ‘अवलोकित’ रूप में की जाने लगी । लगभग उसी समय विष्णु की पूजा का आरंभ हुआ । गुप्तकाल में जब रामायण और महाभारत जैसे अनेक धर्मग्रंथों का संपादन हुआ, तो कभी-कभी कुछ और बातें जोड़कर ज्ञान और कर्म के साथ भक्ति को भी मुक्ति के एक मार्ग के रूप में स्वीकार कर लिया गया ।

लेकिन भक्ति का वास्तविक विकास सातवीं और बारहवीं सदियों के बीच दक्षिण भारत में हुआ । जैसा कि बताया गया है, शैव नयनारों और वैष्णव अलवारों ने जैनियों और बौद्धों द्वारा प्रचारित कठोर जीवन को अस्वीकार कर दिया तथा मुक्ति के लिए ईश्वर की वैयक्तिक भक्ति पर जोर दिया ।

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उन्होंने जातिप्रथा की कठोरनाओं की उपेक्षा की तथा दक्षिण भारत के विभिन्न भागों में स्थानीय भाषाओं का उपयोग करते हुए प्रेम और ईश्वर की वैयक्तिक भक्ति के संदेश का प्रचार किया ।

हालांकि दक्षिण और उत्तर भारत के बीच संपर्क के अनेक सूत्र थे फिर भी भक्त संतों के विचारों की दक्षिण से उत्तर भारत में पहुँच एक धीमी और लंबी प्रक्रिया रही । अजीब बात यह है कि दक्षिण में जिन बातों के कारण नयनारों और आलवारों को लोकप्रियता मिली थी उन्हीं के कारण उस क्षेत्र से बाहर उनका प्रभाव सीमित रहा अर्थात इस कारण कि वे स्थानीय भाषा में उपदेश देते और काव्य रचते थे ।

देश में संस्कृत अभी भी विचारों की वाहक भाषा थी । भक्ति के लोकप्रिय विचारों को उत्तर में विद्वान भी लेकर आए और संत भी । इनमें उल्लेख किया जा सकता है महाराष्ट्र के संत नामदेव का जो चौदहवीं सदी के पूर्वार्ध के हैं तथा रामानंद का, जिनका काल चौदहवीं सदी के उत्तरार्ध से पंद्रहवीं सदी के पहले चतुर्थाश तक माना जाता है ।

नामदेव एक दर्जी थे जो संत बनने से पहले कहा जाता है डाकू की वृत्ति भी अपना चुके थे । उनका काव्य जो मराठी में रचा हुआ है ईश्वर के प्रति तीव्र प्रेम और भक्ति का भाव जगाता है । कहते हैं कि नामदेव ने दूर-दूर तक यात्राएं की थीं और दिल्ली के सूफी संतों के साथ विचार-विमर्श कर चुके थे । रामानंद रामानुज के शिष्य थे ।

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उनका जन्म प्रयाग (इलाहाबाद) में हुआ था और वे वहीं तथा बनारस में रहे । उन्होंने विष्णु की जगह राम की आराधना पर बल दिया । इससे भी बड़ी बात यह कि उन्होंने चारों वर्गो को अपने भक्ति मार्ग का उपदेश दिया । उन्होंने विभिन्न जातियों के लोगों के साथ मिलकर भोजन पकाने और नाथ भोजन करने पर लगे प्रतिबंध की उपेक्षा की । उन्होंने निचली जातियों समेत यभी जातियों में शिष्य बनाए ।

मसलन उनके शिष्यों में रविदास थे, जो जाति के मोची थे । ऐसे अन्य शिष्यों में कबीर थे, जो जुलाहे थे; सेन थे जो नाई थे और सधाना थे, जो कसाई थे । इन संतों ने जो बीज बोए उन्हें फूलने-फलने के लिए बहुत उर्वर भूमि मिली । राजपूत राजाओं की हार और तुर्क सल्तनत की स्थापना के बाद ब्राह्मण प्रतिष्ठा और शक्ति दोनों से वंचित हो चुके थे ।

फलस्वरूप नाथपंथी जैसे आंदोलनों ने जातिप्रथा और ब्राह्मणों की श्रेष्ठता को चुनौती दी तो उनकी लोकप्रियता बड़ी । इसी समय समानता और भाईचारे के इस्लामी विचार फैले, जिनका उपदेश सूफी सत दे रहे थे । लोग कर्मकांडों और तीर्थाटनों वाले पुराने धर्म से संतुष्ट न थे और ऐसा धर्म चाहते थे जो उनकी बुद्धि और मनोभावना दोनों को सतुष्ट कर सके । पंद्रहवीं और सोलहवीं सदियों में उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन इन्हीं कारणों से लोकप्रिय हुआ ।

जिन लोगों ने मौजूदा समाज-व्यवस्था की सबसे कटु आलोचना की तथा हिंदू-मुस्लिम एकता की जोरदार पैरवी की उनमें कबीर और नानक के नाम विख्यात हैं । कबीर के जन्म-मृत्यु और आरंभिक जीवन के बारे में बहुत कुछ अनिश्चित है । कथा यह है कि वे एक विधवा ब्राह्मणी के बेटे थे जिसने उन्हें जन्म के बाद त्याग दिया था और एक मुस्लिम जुलाहे के परिवार में वे पले-बड़े ।

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उन्होंने व्यवसाय तो अपने पालक-पिता का अपनाया पर काशी में रहते हुए हिंदू- मुस्लिम संतों से उनका संपर्क हो गया । कबीर ने जिनको आम तौर पर पंद्रहवीं सदी में रखा जाता है ईश्वर की एकता पर जोर दिया उसे वे राम क हरि गोविंद अल्लाह साईं साहिब आदि अनेक नामों से पुकारते हैं ।

उन्होंने मूर्ति-पूजा तीर्थ यात्रा नदी-स्नान और नमाज समेत औपचारिक आराधना की जमकर निंदा की । वे संत जीवन जीने के लिए गहस्थ जीवन के त्याग को आवश्यक नहीं समझते हैं । योग-क्रियाओं से परिचित होने के बावजूद वे सत्य ज्ञान के लिए न तो संन्यास को महत्वपूर्ण मानते हैं, न किताबी ज्ञान को ।

जैसा कि एक आधुनिक इतिहासकार ताराचंद कहते हैं, ‘कबीर का ध्येय प्रेम के ऐसे धर्म का प्रचार करना था जो सभी जातियों और पंथों को जोड़े । उन्होंने हिंदू धर्म और इस्लाम की उन विशेषताओं को अस्वीकार कर दिया जो इस भावना के विपरीत थीं और जो व्यक्ति के वास्तविक आध्यात्मिक कल्याण के लिए महत्वहीन थीं ।’

कबीर ने जातिप्रथा और विशेषकर छुआछूत की जमकर निंदा की और मानव की मूलभूत एकता पर बल दिया । जाति के आधार पर हो या धर्म, नस्ल, वंश या धन के आधार पर वे मनुष्यों के बीच हर प्रकार के भेदभाव के विरोधी थे । उनकी सहानुभूति निश्चित रूप से गरीबों के साथ थी जिनसे वे स्वयं को जोड़ते थे । लेकिन वे समाज सुधारक नहीं थे तथा उनका जोर एक सच्चे गुरु के मार्गदर्शन में व्यक्ति के सुधार पर था ।

गुरु नानक जिनकी शिक्षाओं से सिख धर्म का आरंभ हुआ, 1469 में, रावी नदी के किनारे स्थित गाँव तलवंडी (आज का नाम नानकाना) में एक खत्री परिवार में पैदा हुए थे । उनका विवाह बचपन में ही हो गया था तथा पिता का खाता-बही का काम सँभालने के लिए उनको फारसी की शिक्षा भी दी गई ।

पर नानक का रहस्यवादी, मननशील रुझान था और वे संतों और साधुओं की संगत पसंद करते थे । कुछ समय बाद उनको दैवी ज्ञान मिला और उन्होंने संसार त्याग दिया । उन्होंने पद रचे और उन्हें वे अपने वफादार शिष्य मरदाना के रबाब (एक तारों वाला वाद्य) की धुन पर गाया करते थे ।

कहते हैं कि नानक ने पूरे भारत में दूर-दूर तक यात्राएँ कीं और भारत से बाहर भी गए, जैसे दक्षिण में श्रीलंका और पश्चिम में मक्का-मदीना तक । उनकी ओर बड़ी संख्या में लोग आकर्षित होने लगे और 1538 में उनकी मृत्यु से पहले उनका नाम दूर-दूर तक फैल चुका था ।

कबीर की तरह नानक ने भी एक ईश्वर पर जोर दिया, जिसका बार-बार नाम जपने से तथा प्रेम और भक्ति के साथ जिसका ध्यान करने से व्यक्ति मोक्ष पा सकता है, चाहे वह किसी भी जाति, धर्म या पंथ का हो । लेकिन नानक ने ईश्वर के सानिध्य की पहली शर्त के रूप में चरित्र और आचरण की शुद्धता और मार्गदर्शन के लिए गुरु की आवश्यकता पर जोर दिया ।

कबीर की तरह उन्होंने भी मूर्तिपूजा तीर्थयात्रा और विभिन्न धर्मो के दूसरे औपचारिक कर्मकांडों की घोर निंदा की । उन्होंने मध्य मार्ग की पैरवी की जिसमें एक गृहस्थ के कर्त्तव्यों के साथ आध्यात्मिक जीवन का समन्वय सभव है ।

नानक का एक नया धर्म चलाने का कोई इरादा नहीं था । उनके सहिष्णु दृष्टिकोण का उद्‌देश्य हिंदुओं और मुसलमानों के अंतर को कम करना तथा शांति सद्‌भावना और आदान-प्रदान का वातावरण बनाना था । यही उद्‌देश्य कबीर का भी था । हिंदू और मुस्लिम के विशाल जनसमूह पर उनके विचारों के प्रभाव को लेकर विद्वानों ने विभिन्न मत व्यक्त किए हैं ।

कहा जा चुका है कि धर्म के पुराने रूप लगभग अपरिवर्तित रूप में जारी रहे न ही जातिप्रथा को अधिक उदार बनाना संभव हो सका । कालांतर में नानक के विचारों ने एक नए धर्म (सिख धर्म) को जन्म दिया, जबकि कबीर के अनुयायी कबीरपंथी नामक एक पंथ बनकर रह गए ।

लेकिन नानक और कबीर के ध्येय का महत्व एक वृहत्तर दृष्टिकोण से परखा जाना चाहिए । उन्होंने एक ऐसा जनमत तैयार किया जो सदियों तक काम करता रहा । यह बात सभी जानते हैं कि अकबर की धार्मिक नीतियों और विचारों में इन दो महान संतों की बुनियादी शिक्षाओं का उल्लेखनीय प्रतिबिंबन हुआ है और अकबर ही इन नीतियों पर चलने वाला अकेला व्यक्ति नहीं था ।

फिर भी यह आशा तो शायद ही किसी को रही होगी कि दोनों प्रमुख धर्मो हिंदू धर्म और इस्लाम के रूढ़िवादी तत्त्व बिना लड़े हथियार डाल देंगे । रूढ़िवादी तत्त्वों ने पुराने धर्म का बचाव शुरू कर दिया जिसको नई चुनौतियों का सामना करने के लिए नया रूप प्रदान किया गया ।

एक उदार और असंकीर्ण था तथा दूसरा रूढ़िवादी और परंपरावादी, इन दो व्यापक प्रवृत्तियों का आपसी संघर्ष सोलहवीं, सत्रहवीं और अठारहवीं सदियों के बौद्धिक और धार्मिक विवादों का केंद्र था । इस सतत संघर्ष में हम देखते हैं कि कबीर, नानक और उसी तरह की सोच वाले दूसरे संतों के विचार और धारणाएँ महत्वपूर्ण बनी रहीं ।

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