Here is an essay on ‘Sufi Movement’ especially written for school and college students in Hindi language.

इस्लामी इतिहास में दसवीं सदी अनेक कारणों से महत्वपूर्ण है । अब्बासी साम्राज्य के खंडहरों पर तुर्कों का उदय हुआ तथा विचारों और विश्वासों के क्षेत्र में महत्वपूर्ण परिवर्तन आए । विचारों के क्षेत्र में यह मुतजिला अर्थात एक बुद्धिवादी दर्शन के वर्चस्व की समाप्ति का काल है जब कुरान और हदीस (पैगंबर के वचनों) पर आधारित रूढ़िवादी संप्रदाय का तथा रहस्यवादी सूफी सिलसिलों का विकास हुआ ।

‘बुद्धिवादियों’ पर संशयवाद और नास्तिकता फैलाने का आरोप लगाया जाता था । विशेषकर यह तर्क दिया जाता था कि उनका एकात्म दर्शन, जो सृष्टा और सृष्टि को बुनियादी तौर पर एक मानता था धर्मविरोधी था क्योंकि उसमें सृष्टा और सृष्टि के बीच कोई अंतर रह नहीं जाता था ।

वे यह भी मानते थे कि कुरान कोई खुदाई किताब नहीं है बल्कि रहस्यमय प्रेरणा की उपज है, जिसकी आलोचनात्मक छानबीन हो सकती है । ‘परंपरावादियों’ की कृति ने इस्लामी कानून के चार संप्रदायों में ठोस रूप ग्रहण किया । इनमें हनफी विचारधारा को, जो सबसे उदार था पूर्वीय तुर्कों ने अपनाया जो आगे चलकर भारत आए ।

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इस्लाम के बहुत आरंभिक चरण में ही रहस्यवादियों का उदय हो चुका था जिनको सूफी कहते थे । उनमें से अधिकांश गहरी आस्थावाले लोग थे जो इस्लामी सल्तनत की स्थापना के बाद दौलत की भोंडी नुमाइश और नैतिकता के पतन से घृणा करते थे ।

इसलिए ये संत राज्य से कोई संबंध रखना नहीं चाहते थे और यह परंपरा आगे भी जारी रही । महिला सूफी संत राबिया (आठवीं सदी) और मंसूर बिन हल्लाज (दसवीं सदी) जैसे कुछ आरंभिक सूफियों ने ईश्वर और आत्मा के सबंध के रूप में प्रेम पर बहुत जोर दिया ।

लेकिन उनके सर्वेश्वरवादी दृष्टिकोण के कारण उनका टकराव रूढ़िवादी तत्त्वों से हुआ जिन्होंने धर्मद्रोह के आरोप में मसूर को फाँसी पर चढ़वा दिया । इसके बावजूद मुस्लिम जनता में सूफी विचारों का प्रसार जारी रहा । अल-गजाली ने जिसका सम्मान रूढ़िवादी तत्व भी करते हैं और सूफी भी सूफीवाद को इस्लामी रूढ़िवाद से समन्वित करने का प्रयास किया । इसमें वे बहुत हद तक सफल रहे ।

उन्होंने यह तर्क देकर ‘बुद्धिवादी’ दर्शन पर और गहरी चोट की कि ईश्वर और उसके गुणों का पक्का ज्ञान बुद्धि से नहीं केवल इल्हाम या रहस्योद्‌घाटन से प्राप्त किया जा सकता है और सूफियों के लिए कुरान ईश्वर की भेजी हुई किताब के रूप में महत्व रखती है ।

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इस समय के आसपास सूफी बारह सिलसिलों में विभाजित हो चुके थे । एक सिलसिले का अगुवा आम तौर पर कोई मशहूर सूफी होता था जो अपने शिष्यों (मुरीदों) के साथ एक खानकाह में रहता था । गुरु (पीर) और मुरीद का संबंध सूफी परपरा का एक महत्वपूर्ण अंग था । हर पीर अपने काम को आगे जारी रखने के लिए एक उत्तराधिकारी (वली) चुनता था ।

सूफियों के खानकाही संगठन तथा उनके प्रायश्चित, उपवास और साँस रोकने जैसी कुछ प्रथाओं को कभी-कभी बौद्ध या हिंदू योगी प्रभाव का परिणाम बताया जाता है । इस्लाम के आगमन से पहले मध्य एशिया में बौद्ध मत का व्यापक प्रचलन था और इस्लामी दंतकथाओं में संत रूपी बुद्ध की कथा भी शामिल हो चुकी थी ।

इस्लाम के उदय के बाद भी योगियों का पश्चिम एशिया जाना जारी रहा और योग की पुस्तक अमृतकुंड का संस्कृत से फारसी में अनुवाद भी हुआ । सूफी हिंदुओं के वेदांती या एकेश्वरवादी विचारों से भी परिचित थे जिसमें ईश्वर और व्यक्ति की आत्मा को मूलत: एक माना गया है ।

इस तरह लगता है कि भारत आने से पहले ही सूफी हिंदू-बौद्ध आचार-विचारों और कर्मकांडों को आत्मसात कर चुके थे । तसव्वुफ (सूफीवाद) पर बौद्ध दार्शनिक विचारों का सार्थक प्रभाव पड़ा या वेदांती विचारों का यह विवाद का विषय है । विचारों का मूल तलाश करना कठिन काम होता है ।

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सूफी संतों और अनेक आधुनिक विचारकों ने सूफी विचारों का मूल कुरान को बतलाया है । ध्यान देने योग्य महत्वपूर्ण बात यह है कि मूल चाहे जो भी हो ईश्वर की प्रकृति पर तथा आत्मा और ईश्वर के संबंध पर सूफियों तथा हिंदू योगियों और भक्तों के विचारों में अनेक समानताएँ हैं । इस बात ने आपसी सहिष्णुता और समझ का एक आधार तैयार किया ।

तसव्वुफ की मानवतावादी भावना को उस काल के अग्रणी फारसी शायर सनाई ने बहुत अच्छी तरह प्रस्तुत किया है:

कुफ्र और दीन दोनों दौड़े जा रहे हैं उसी की तरफ,

और पुकारते हैं (मिलकर): एक है वह कोई उसका जोड़ीदार नहीं ।

सूफी सिलसिलों को मोटे तौर पर दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है: बा-शरा अर्थात जो इस्लामी विधान (शरीअत) को मानते थे, और बे-शरा जो शरीअत से बँधे हुए नहीं थे । भारत में ये दोनों प्रकार के सिलसिले प्रचलित थे । बे-शरा सिलसिलों को घुमक्कड़ संत या कलंदर अधिक मानते थे । हालांकि इन संतों ने कोई सिलसिला स्थापित नहीं किया पर उनमें से कुछ तो मुसलमानों और हिंदुओं दोनों के बीच एक समान आदरणीय समझे जाते थे ।

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