Read this article in Hindi to learn about economic and social condition of people during Mughal rule in India.

आर्थिक और सामाजिक अवस्था:

सत्रहवीं सदी के अंत तक मुगल साम्राज्य अपने क्षेत्रीय प्रसार के चरम पर था । लेकिन इस काल में उसे अनेक राजनीतिक और प्रशासनिक समस्याओं का सामना करना पड़ा । आर्थिक और सामाजिक क्षेत्रों में अकबर के सत्तारोहण से लेकर सत्रहवीं सदी के अंत तक के काल को एक काल माना जा सकता है, क्योंकि इस दौरान कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं आया ।

जीवन-स्तर: ग्रामीण जीवन पद्धति और जनसमूह:

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इस काल में अनेक यूरोपीय व्यापारी और यात्री भारत आए और उनमें से कुछ इस देश की आर्थिक और सामाजिक अवस्था का विवरण छोड़ गए हैं । सामान्यत: उन्होंने एक ओर भारत के धन धान्य पर और शासक वर्गो के तड़क-भड़क वाले जीवन पर जोर दिया है और दूसरी ओर साधारण जनता की-किसानों दस्तकारों और कामगारों-की कमरतोड़ गरीबी पर ।

बाबर तो आम जनता के मामूली कपड़ों को देखकर हैरान रह गया था । उसने लिखा है ‘किसान और कम हैसियत वाले लोग नंगे बदन रहते हैं ।’ इसके बाद वह पुरुषों और स्त्रियों की पोशाकों का वर्णन करता है । बाद के यूरोपीय यात्रियों ने उसके कथन की पुष्टि की है । राल्फ फिच सोलहवीं सदी के अंतिम भाग में भारत आया था ।

वह कहता है कि बनारस में ‘लोग कमर पर बँधे जरा से कपड़े को छोड़ दें तो नंगे रहते हैं ।’ द लेत ने लिखा है कि जाड़ों में अपने को गर्म और आरामदेह रखने के लिए कामगारों के कपड़े अपर्याप्त थे । लेकिन फिच कहता है कि ‘जाड़ों में…लोग रुईदार लबादे और रुईदार टोप पहनते हैं ।’

ऐसी ही बातें जूते-चप्पल के बारे में कही गई हैं । निकितीन कहता है कि दकन के लोग नंगे पैर आते-जाते थे । मोरलैंड जैसे एक आधुनिक लेखक ने भी कहा है कि नर्मदा नदी के उत्तर में बंगाल को छोड़ कहीं भी उन्होंने जूते का जिक्र नहीं पाया । उन्होंने इसका कारण चमडे की ऊँची कीमत को ठहराया है ।

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जहाँ तक घरों और घरेलू सामान का सवाल है ज्यादा कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है । ग्रामीण जिन मिट्‌टी के घरों में रहते थे वे आज के घरों से भिन्न नहीं थे । चारपाई और बाँस की चटाई को छोड़ शायद ही कुछ होता होगा और मिट्‌टी के बर्तन होते थे जो गाँव का कुम्हार बनाता था । तांबा और घंटा-धातु (कांसा) की तश्तरियाँ और बर्तन महँगे थे और आम तौर पर गरीब उनका उपयोग नहीं करते थे ।

भोजन को लें तो चावल, ज्वार-बाजरा और दालें (जिनको पेल्सेर और द लेत ने खिचड़ी कहा है) मुख्य भोजन होता था । बंगाल में और तटवर्ती क्षेत्रों में मछली खाने का प्रचलन था और प्रायद्वीप के दक्षिणी भाग में माँस खाया जाता था ।

उत्तर भारत में गेहूँ और खुरदुरे अनाजों की चपातियाँ और साथ में दालें और हरी सब्जियाँ आम थीं । कहा गया है कि साधारण लोग अपना मुख्य भोजन रात में करते थे और दिन में चना-चबैना करते थे । तब अनाजों के मुकाबले घी-तेल बहुत सस्ते थे और लगता है कि निर्धन व्यक्ति के भोजन के स्थायी अंग थे ।

लेकिन नमक और शक्कर अधिक महँगे थे । इस तरह लोगों के पास पहनने के लिए कपड़े तो कम थे और जूते बहुत महँगे थे पर कुल मिलाकर उनका भोजन बेहतर था । चरागाही जमीन अधिक होने के कारण वे अधिक मवेशी पाल सकते थे । इस तरह दूध और दूध से बनी वस्तुओं की उपलब्धता अधिक रही होगी ।

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जीवन का स्तर अंतत: आय और मजदूरी पर निर्भर था । किसानों के विशाल समूह की वास्तविक आय का निश्चय कर सकना कठिन है क्योंकि गाँवों के कारोबार में मुद्रा का प्रयोग शायद ही होता था । गाँवों के दस्तकारों की सेवाओं का पारिश्रमिक परंपरा द्वारा निर्धारित ढंग से दाल-चावल के रूप में दिया जाता था ।

किसान की जोत के औसत आकार का हिसाब लगाना कठिन है । हमें उपलब्ध सूचनाओं से पता चलता है कि गाँवों में असमानता बहुत अधिक थी । जिस किसान के पास अपने हल-बैल नहीं होते थे वह प्राय जमींदारों या ऊँची जातियों की जमीन जोतता-बोता था और मुश्किल से निर्वाह कर पाता था ।

भूमिहीन किसान और मजदूर अकसर उस श्रेणी के होते थे जिसे ‘अछूत’ या कमीन कहा जाता था । कभी अकाल पड़ता और अकाल आम थे-तो सबसे अधिक कष्ट किसानों की इसी श्रेणी को और ग्रामीण दस्तकारों को उठाना पड़ता था । जो किसान अपनी जोती हुई जमीन के स्वामी थे वे खुदकाश्त कहलाते थे ।

वे परंपरासम्मत दरों से मालगुजारी देते थे । उनमें से कुछ के पास अनेक हल-बैल होते थे, जिनको वे अपने गरीब भाइयों असामियों (टेनेंट्‌स) अर्थात मुजारियान को किराए पर देते थे जो आम तौर पर अधिक दर से मालगुजारी देते थे ।

इस तरह ग्रामीण समाज बेहद असमान था । खुदकाश्त जो गाँव के मूल निवासी होने का दावा करते थे अकसर एक या अधिक प्रभुत्वशाली जातियों के होते थे । इन जातियों का न सिर्फ ग्रामीण समाज पर वर्चस्व था वे गरीब या कमजोर वर्गो का भी शोषण करते थे । फिर अकसर जमींदारों द्वारा उनका भी शोषण किया जाता था ।

अनुमान लगाया गया है कि सत्रहवीं सदी के आरंभ में भारत की जनसंख्या लगभग 12.5 करोड़ थी । इसलिए कृषि के लिए बहुत जमीन उपलब्ध थी और यह माना जा सकता है कि सामाजिक प्रतिबंधों के दायरे में रहकर एक किसान उतनी जमीन जोत-बो सकता था जितना उसके साधनों और पारिवारिक परिस्थितियों के कारण संभव था ।

एशिया और अफ्रीका के दूसरे अनेक देशों के विपरीत भारत की अर्थव्यवस्था बहुत विविधतापूर्ण थी । यहाँ गेहूँ, चावल, चना, जौ, दालों, बाजरा आदि अनेक फसलों की खेती होती थी और उन फसलों की भी जिनका उपयोग वस्तु-निर्माण के लिए किया जाता था या जिनका स्थानीय स्तर पर संसाधन किया जा सकता था ।

ये थे कपास, नील, चाय (लाल रंग), गन्ना, तिलहन आदि । इन फसलों पर अधिक मालगुजारी लगती थी और नकद ली जाती थी । इसलिए अकसर इन्हें नकदी फसलें या उम्दा फसलें कहा जाता था । मूल्यों के आधार पर किसान कभी सिर्फ एक तो कभी दूसरी फसल बोता था बल्कि लाभ होता दिखाई देता तो नई फसलें बोने के लिए भी तैयार रहता था । मसलन सत्रहवीं सदी में दो नई फसलें जुड़ी-तंबाकू और मकई ।

इस काल में बंगाल में रेशम और टसर की खेती इतनी बड़ी कि चीन से रेशम मँगाने की आवश्यकता ही नहीं रही । फिर अठारहवीं सदी में आलू और लालमिर्च को अपनाया गया । उत्पादन की क्षमता पर ध्यान दें तो सत्रहवीं सदी में गाँव नगरों की बढ़ती आबादी को भोजन देने में समर्थ थे । भारत कुछ पड़ोसी देशों को अनाजों का निर्यात भी करता था विशेषकर चावल और शक्कर का ।

वह इस काल में वस्तु-निर्माण और विशेषकर कपड़ों के उत्पादन के लिए आवश्यक कच्चा माल जुटा सकने में भी समर्थ था । कृषि के प्रसार और सुधार के लिए मुगल राज्य किसानों को प्रोत्साहन और ऋण (तकावी) भी प्रदान करता था । लेकिन स्थानीय प्रयासों पहल और निवेश के बिना ये प्रसार और विस्तार शायद ही संभव होते ।

इस तरह भारतीय कृषक उतना रूढ़िवादी और परिवर्तन विरोधी नहीं था जितना अकसर उसे दिखाया गया है । हालांकि कोई नई खेतिहर तकनीक नहीं आई पर भारतीय कृषि कुल मिलाकर देखें तो सक्षम थी तथा इस काल में वस्तु-निर्माण और व्यापार की वृद्धि में उसकी निश्चित रूप में भूमिका रही ।

मध्यकाल में किसान जब तक मालगुजारी देता रहता था जमीन से बेदखल नहीं किया जाता था । अगर उसे खरीदार मिलता और बाकी किसान आपत्ति न करते वह अपनी जमीन बेच भी सकता था । उसकी मृत्यु के बाद उसके बच्चे अधिकार रूप में उसकी जमीन के वारिस होते थे ।

राज्य के हिस्से की दर ऊँची होती थी कभी-कभी उपज की लगभग आधी होती थी और जिसे चुकाने के बाद साधारण किसान के पास इतना ही बचता था कि वह अपना जीवन चला सके । भूमि के सुधार या कृषि के प्रसार के लिए वह किसी निवेश की स्थिति में नहीं होता था ।

हालांकि किसानों का जीवन कठोर होता था पर उसके पास खाने को पर्याप्त होता था और उत्पादन व पुनरुत्पादन की मामूली आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए भी । उसके जीवन का ढर्रा अंशत: मौसम से और अंशत: उन रीति-रिवाजों से तय होता था जिनमें मेलों तीर्थ यात्राओं समारोहों आदि का अपना स्थान था ।

भूमिहीनों की तथा कमीन समेत दस्तकारों के एक वर्ग की दशा और भी कठोर रही होगी । पर सभी किसानों का जीवन-स्तर इतना नीचा नहीं था । भूस्वामी खेतिहरों (खुदकाश्त) के पास आम तौर पर अधिक जमीनें होती थीं और कुछ लोगों के पास तो बड़े-बड़े भूखंड तथा कृषि के लिए अनेक हल-बैल होते थे ।

वे मुनाफे की शर्तों पर साधारण किसानों (मुजारियान) को अपनी जमीनों का एक भाग लगान पर भी दे देते थे । यह वर्ग और जमींदार कृषि के प्रसार और सुधार के लिए पैसा लगा सकते थे और लगाते भी थे । जहाँ तक नगरों का प्रश्न है तो वहाँ सबसे बड़ी आबादी गरीबों की थी- दस्तकारों, नौकरों और दासों, सैनिकों, श्रमजीवियों आदि की ।

यूरोपीय यात्रियों के अनुसार सबसे कम दर्जे के नौकर का मासिक वेतन दो रुपए से कम होता था । चाकरों और पियादा सैनिकों में ज्यादातर लोगों का आरंभिक वेतन तीन रुपए मासिक से कम होता था । हिसाब लगाया गया है कि एक व्यक्ति दो रुपए महीने पर अपना परिवार पाल सकता था ।

बीसवीं सदी के आरंभिक काल के लेखक मोरलैंड ने कहा है कि मुगल काल में कामगारों की वास्तविक मजदूरियों में कुछ ज्यादा फर्क नहीं आया-उनका भोजन अधिक संतुलित था पर कपड़े शक्कर आदि अधिक महँगे हो चुके थे । मोरलैंड ने इससे यह निष्कर्ष निकाला कि ब्रिटिश शासन में भारतीय जनता की दशा नहीं बिगड़ी ।

लेकिन इस विषय को एक अधिक व्यापक संदर्भ में देखना होगा । इस काल में यूरोप में जहाँ संपत्ति और मजदूरियों में भारी वृद्धि हुई; वहीं ब्रिटिश शासन के अंतर्गत भारत में जीवन-स्तर अगर गिरा नहीं तो कुल मिलाकर जड़वत रहा ।

शासक वर्ग: अमीर वर्ग और जमींदार:

भूस्वामी अभिजातों अर्थात जमींदारों समेत अमीर वर्ग मध्यकालीन भारत में वह वर्ग था जिसे शासक वर्ग कह सकते हैं । सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से मुगल अमीर वर्ग एक विशेषाधिकार संपन्न वर्ग था । सैद्धांतिक तौर पर मुगल अमीर वर्ग के दरवाजे सबके लिए खुले थे ।

लेकिन व्यवहार में अभिजात परिवारों के व्यक्तियों को ही यह विशेषाधिकार प्राप्त था चाहे वे भारतीय हों या विदेशी । आरंभ में अधिकांश मुगल अमीर मुगलों के अपने वतन के थे-तूरान व उसके पड़ोसी क्षेत्रों, ताजिकिस्तान, खुरासान, ईरान आदि के ।

हालांकि बाबर तुर्क था, पर मुगल शासकों ने कभी संकीर्ण नस्ली नीति नहीं अपनाई । बाबर ने अग्रणी अफगान अमीरों को अपनी ओर लाने का प्रयास किया पर वे अशांत और अविश्वसनीय साबित हुए और जल्द ही दूसरी ओर हो गए ।

अकबर के शासनकाल तक बंगाल और बिहार में मुगलों और अफगानों की खींचतान जारी रही । लेकिन जहाँगीर के शासनकाल में अफगान भी अमीर वर्ग में शामिल किए जाने लगे । शेखजादा या हिंदुस्तानी कहलाने वाले भारतीय मुसलमानों को भी सेवा में भरती किया जाता था ।

अकबर के शासनकाल से हिंदू भी नियमित आधार पर अमीर वर्ग में शामिल किए जाने लगे । उनमें सबसे बड़ा भाग राजपूतों का था । आरंभ में राजपूतों में भी प्रमुखता कछवाहों की थी । एक आधुनिक गणना के अनुसार अकबर के काल में 1594 में अमीर वर्ग में हिंदुओं का भाग बस 16 प्रतिशत के लगभग था ।

पर ये आंकड़े हिंदुओं के रुतबे और प्रभाव का पर्याप्त संकेत नहीं देते हैं । राजा मानसिंह और राजा बीरबल दोनों अकबर के निजी दोस्त और स्थायी साथी थे जबकि राजस्व प्रशासन के क्षेत्र में राजा टोडरमल का भारी प्रभाव और सम्मान था । जो राजपूत अमीरों में शामिल किए जाते थे वे या तो पुश्तैनी राजा होते थे या राजाओं से संबंधित या उनके सहयोगी अभिजात परिवारों के होते थे ।

इसलिए अमीर वर्ग में उनके शामिल होने से उसका अभिजात चरित्र और प्रखर हुआ । इसके बावजूद अमीर वर्ग ने समाज के निचले वर्गों के लोगों को प्रोन्नति और यशप्राप्ति का एक रास्ता जरूर दिया । उदाहरण के लिए केंद्रीय और प्रांतीय सरकारों में विभिन्न स्तरों पर अनेक कायस्थ और खत्री भरती किए गए । कुछ निम्नवर्गीय लोगों को नियुक्त किए जाने के भी दृष्टांत मिलते हैं ।

जहाँगीर और शाहजहाँ के काल में अमीर वर्ग में पर्याप्त स्थायित्व आया । इन दोनों बादशाहों ने अमीर वर्ग के गठन (मनसबदारी व्यवस्था) पर बहुत ध्यान दिया । सुव्यवस्थित प्रोन्नति, अनुशासन और शाही सेवा -में योग्य व्यक्तियों की भरती के लिए नियम-कायदे बनाए गए ।

मुगल अमीरों का वेतन हर तरीके से बहुत ऊँचा था । इस चीज ने मुगल बादशाहों की उदार धार्मिक नीति ने और भारत की स्थिर राजनीतिक दशाओं ने विदेशों से अनेक प्रतिभाशाली व्यक्तियों को मुगलिया दरबार में खींचा । इस तरह उलटी दिशा में बुद्धि का दोहन हुआ ।

मुगल दरबार में नौकरी पाने के लिए भारत में ईरानियों तूरानियों और दूसरे अन्य के आगमन के आधार पर फ्रांसीसी यात्री बर्नियर ने कहा है कि मुगल अमीर वर्ग में ‘विदेशियों की भरमार थी जो एक-दूसरे को दरबारी सेवा में आने के लिए प्रेरित करते थे ।’ आधुनिक शोधों ने इस वक्तव्य को गलत साबित कर दिया है ।

जहाँ प्रतिभाशाली व्यक्तियों का भारत आना जारी रहा और उनमें से अनेक तो मुगलों की सेवा में प्रमुख पदों तक पहुँचे वहीं वे भारत में ही बस गए और भारत को ही उन्होंने अपना घर बना लिया । इस तरह पहले की तरह मध्यकाल में भी भारत बाहर से आनेवालों को आश्रय देता रहा ।

लेकिन इन आव्रजकों ने अपने आपको तेजी से भारतीय समाज और संस्कृति में ढाल लिया और साथ ही अपनी कुछ विशेषताओं को बचाकर रखा । यही भारतीय संस्कृति की समृद्धि और विविधता का कारण है जो उसकी अपनी एक विशेषता है । जहाँगीर और शाहजहाँ के काल में अधिकांश अमीर ऐसे थे जिनका जन्म भारत में ही हुआ था ।

साथ ही, अमीरों में अफगानों भारतीय, मुसलमानों (हिंदुस्तानियों) और हिंदुओं का हिस्सा बढ़ता रहा । इस काल में हिंदुओं का जो नया वर्ग अमीरों में शामिल हुआ वह मराठों का था । जहाँगीर यह महसूस करनेवाला पहला बादशाह था कि मराठे दकन में ‘घटनाओं के केंद्रबिंदु’ थे और उसने उनको अपनी ओर मिलाने का प्रयास किया ।

इस नीति को शाहजहाँ ने भी जारी रखा । जो मराठा सरदार शाहजहाँ की सेवा में थे, उनमें शिवाजी के पिता शाहजी भी थे हालांकि जल्द ही वे दूसरी तरफ चले गए । औरंगजेब ने भी अनेक मराठों और दकनी मुसलमानों को नौकरी में रखा । यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि शाहजहाँ के काल में अमीर वर्ग में हिंदू लगभग 24 प्रतिशत थे तो औरंगजेब के शासन के उत्तरार्ध में वे लगभग 33 प्रतिशत हो गए यानि उनकी कुल संख्या में डेढ़गुनी वृद्धि हुई । हिंदू अमीरों में मराठों का भाग आधे से अधिक था ।

हालांकि मुगल अमीरों को ऊँचे वेतन मिलते थे, पर उनके खर्चे भी बहुत अधिक थे । हर अमीर नौकरों-चाकरों का एक बड़ा दस्ता, विशाल अस्तबल, हथसाल आदि तथा सभी प्रकार के यातायात के साधन रखता था । उनमें से अनेक के पास स्त्रियों से भरे बड़े हरम होते थे जो उन दिनों ऊँची स्थिति वालों के लिए सामान्य बात मानी जाती थी ।

ये अमीर मुगल बादशाहों की नकल करते हुए बेहद तड़क-भड़क का जीवन जीते थे । वे फलदार पेड़ों और बहते पानी के बागों वाले सुंदर मकानों में रहते थे । वे सुंदर से सुंदर वस्त्र पहनते थे और भोजन पर भारी रकम खर्च करते थे । एक विवरण के अनुसार अकबर के हर भोजन के समय 40 व्यंजन तैयार किए जाते थे ।

फलों पर भारी रकम खर्च की जाती थी और समरकंद-बुखारा से बेहतरीन फल मँगाए जाते थे । बर्फ जो ऐयाशी की चीज थी सुविधाभोगी वर्गो द्वारा साल भर इस्तेमाल की जाती थी । आभूषण और हीरे-जवाहरात जिन्हें स्त्री-पुरुष दोनों पहनते थे, खर्च की एक और मद थी । जहाँगीर ने पुरुषों के कान छिदवाकर कीमती नग पहनने का चलन आरंभ किया ।

एक सीमा तक आभूषणों को संकट काल के लिए भी जमा करके रखा जाता था । साल में दो बार बादशाह को दिए जाने वाले उपहार एक और खर्चीला मद था । फिर भी याद रहे कि दिए जाने वाले उपहारों की कीमत व्यक्ति की स्थिति के अनुसार तय की जाती थी । बदले में अमीर भी बादशाह से उपहार पाते थे ।

उन दिनों जमा करना नहीं, बल्कि खर्च करना शासक वर्ग की प्रमुख विशेषता थी और कुछ ही अमीर ऐसे थे जो ऋणमुक्त रहकर अपने बच्चों के लिंए भारी धनराशियाँ छोड़ गए । फिर भी देश के आर्थिक विकास में अमीर वर्ग का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष योगदान अवश्य रहा । इस विकास की अनेक दिशाएँ थीं ।

अनेक अमीरों ने जमीनें खरीदी या उन्हें बादशाह ने ऐसे स्थानों पर उपहार में जमीनें दी जहाँ वे बसना और घर बनाना चाहते थे । इन स्थानों पर उन्होंने बाग लगाए या छतदार बाजारों (मंडियों) का निर्माण कराया जिससे कि किराये और बिकी के रूप में उन्हें आय की प्राप्ति हो । उन्होंने व्यापारियों को ब्याज पर धन दिए या व्यापार में भाग लिया-प्राय व्यापारियों के नाम से या उनके भागीदार बनकर ।

यहाँ अबुल फजल के एक उद्धरण का उल्लेख किया जा सकता है जिसमें अबुल फजल ने अमीरों को ‘व्यापारिक गतिविधियों में थोड़ी पूँजी लगाने और लाभदायक उद्यमों में शरीक होने’ की राय दी थी । हालांकि इस्लामी विधान में सूदखोरी की निंदा की गई है पर अबुल फजल ने अमीरों से कहा कि ब्याज पर धन देने से वे न हिचकें ।

यह बात समकालीन जीवनमूल्यों को प्रतिबिंबित करती है । उस काल के व्यापारिक उद्यमी में अमीरों के भाग का ठीक-ठीक हिसाब लगा सकना आसान नहीं है । कभी-कभी कुछ अमीर बल्कि शाहजादे भी कुछ मालों की खरीद-बिक्री बढ़ाने या दस्तकारों और व्यापारियों को अपनी सेवाओं और मालों को सस्ता बेचने पर मजबूर करने के लिए अपने पद का दुरुपयोग करते थे ।

लेकिन ऐसी मिसालें इतनी अधिक न थीं कि व्यापार वाणिज्य और दस्तकारों के उत्पादन पर गंभीर प्रभाव पड़ता । सूरत के एक अंग्रेज फैक्टर ने 1614 मे कहा था कि ‘छोटे-बड़े सभी लोग व्यापारी हैं’ |

शाहजादों या शाहजादियों और बेगमों समेत शाही परिवार के सदस्य भी न सिर्फ विदेशी जहाजों पर माल भेजते और मँगवाते थे बल्कि व्यापार के लिए जहाज भी खरीदते थे । औरंगजेब के काल के अग्रणी अमीर मीर जुमला के पास जहाजों का एक बेड़ा था जो फारस, अरब और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों से लंबा-चौड़ा व्यापार चलाता था ।

व्यापार से धन पाने का लोभ इतना बढ़ चुका था कि औरंगजेब के मुख्य काजी तक के अच्छे-खासे व्यापारिक उद्यम थे जिनको वह बादशाह से छिपाए रखने की कोशिश करता था । इस तरह मुगल अमीरों की कई असामान्य विशेषताएँ थीं ।

अकसर नस्ली आधार पर विभाजित होते हुए भी वे विभिन्न क्षेत्रों और धर्मो का प्रतिनिधित्व करने वाले एक सुगठित शासक वर्ग के सदस्य थे । इस वर्ग ने चित्रकारों, संगीतकारों, कवियों (फारसी और हिंदवी दोनों) और विद्वानों को संरक्षण देकर एक समन्वित संस्कृति को बढ़ावा देने का प्रयास किया ।

यद्यपि मुगल अमीर वर्ग का चरित्र मूलत: सामंती था क्योंकि भूमि उसकी आय का प्रमुख स्रोत थी फिर भी उसमें नौकरशाही तत्त्वों की अनेक विशेषताएँ विकसित हुई । वह अधिकाधिक व्यापारमुखी और धनप्रेमी भी बनता गया । इस तरह मुगल राज्य और शासक वर्ग भारत के आर्थिक विकास में बाधक नहीं रहे ।

यह विकास अपने आप में क्या भारत को पूँजीवाद की ओर ले जा सकता था यह मात्र अनुमान का विषय है जिसमें हम नहीं पड़ेंगे । हमारा मुख्य सरोकार यह देखना है कि इस काल में अर्थव्यवस्था की बराबर वृद्धि हो रही थी या नहीं और विकास की दिशा क्या थी ।

सत्रहवीं सदी में अमीर वर्ग की संख्या में तीव्र वृद्धि विभिन्न समूहों व्यक्तियों और वर्गों के आपसी तनाव तथा जागीरदारी व्यवस्था के कार्यकलाप के संकट ने औरंगजेब और उसके उत्तराधिकारियों के शासनकाल में अमीर वर्ग के अनुशासन और कामकाज पर प्रतिकूल प्रभाव डाला ।

जमींदार और ग्रामीण अभिजात:

अबुल फजल और दूसरे समकालीन लेखकों की रचनाओं से स्पष्ट है कि भूमि का वैयक्तिक स्वामित्व भारत में बहुत पुराना है । भूमि के स्वामित्व का अधिकार मुख्यत: वंश पर आधारित था । लेकिन भूमि के स्वामित्व के नए अधिकार बराबर पैदा होते रहते थे ।

परंपरा यह थी कि जो व्यक्ति किसी भूमि पर पहले-पहल कृषि करता वह उस भूमि का स्वामी माना जाता था । मध्यकाल में बहुत बंजर जमीन उपलब्ध थी । उद्यमी व्यक्तियों के किसी समूह के लिए एक नया गाँव बसाना या किसी गाँव की बंजर जमीनों को कृषि योग्य बनाना और इन जमीनों का मालिक बन जाना कुछ कठिन कार्य नहीं था ।

कृषि की जमीनों के स्वामी होने के अलावा जमींदारों के एक अच्छे-खासे वर्ग को अनेक गाँवों से मालगुजारी की वसूली का पुश्तैनी अधिकार प्राप्त था । इसे उसका ताल्लुका या उसकी जमींदारी कहा जाता था । मालगुजारी वसूल करने के बदले जमींदार उसमें से एक हिस्सा पाता था जो कुछ क्षेत्रों में 25 प्रतिशत तक चली जाती थी ।

जमींदार अपनी जमींदारी में आनेवाली सभी जमीनों का ‘स्वामी’ नहीं होता था । जमीन पर वास्तव में खेती करनेवाले किसान जब तक मालगुजारी देते रहते थे वे बेदखल नहीं किए जा सकते थे । इस तरह जमीन में जमींदारों और किसानों के अपने-अपने वंशानुगत अधिकार थे ।

जमींदारों के ऊपर राजा होते थे जो छोटे-बड़े भूखंडों के स्वामी होते थे तथा उन्हें कम या अधिक अतिरिक स्वायत्ता प्राप्त होती थी । इन राजाओं की अधीनता की स्थिति पर जोर देने के लिए फ़ारसी लेखकों ने उन्हें भी जमींदार कहा है, पर उनकी स्थिति मालगुजारी वसूल करनेवाले जमींदारों से ऊपर थी । इस तरह ग्रामीण समाज समेत मध्यकालीन समाज अत्यधिक खंडित अथवा सोपानबद्ध था ।

जमींदारों, राजाओं और सरदारों के अपने-अपने सैनिक दल होते थे और वे गढ़ियों में रहते थे जो उनका शरणस्थल और उनकी ऊँची स्थिति का प्रतीक, दोनों होती थीं । मध्यकालीन स्रोतों में जमींदार कहलाने वाले इन वर्गो की मिली-जुली संख्या खासी बड़ी थी ।

आईन-ए-अकबरी के अनुसार अकबर के काल में उनके पास 3,84,558 सवार 42, 77,057 पैदल सैनिक 1,863 हाथी और 4,260 तोपें थीं । पर ये ‘जमींदार’ बिखरे हुए थे और किसी एक समय में या एक स्थान पर कभी एक बड़ी सेना नहीं जुटा सकते थे ।

आम तौर पर जमींदारों के अपनी जमींदारियों में बसे किसानों के साथ जाति वंश या कबीले के आधार पर गहरे संबंध होते थे । भूमि की उत्पादकता से संबंधित उनके पास खासी स्थानीय जानकारियाँ भी होती थीं । जमींदार वर्ग बहुसंख्य और शक्तिशाली था तथा ये पूरे देश में देशमुख, पाटिल नायक आदि विभिन्न नामों से पाए जाते थे । इस तरह किसी भी केंद्रीय सत्ता के लिए उनको उपेक्षित करना या विमुख करना संभव नहीं था ।

जमींदारों के जीवन-स्तर के बारे में कुछ भी कह सकना कठिन है । अमीरों की तुलना में उनकी आय सीमित थी छोटे जमींदारों का जीवन तो कमोबेश किसानों जैसा ही रहा होगा । लेकिन बड़े जमींदारों का जीवन-स्तर छोटे राजाओं और अमीरों के आसपास रहा होगा । अधिकाश जमींदार देहातों में रहते थे तथा एक प्रकार के ढीले-ढाले बिखरे हुए स्थानीय अभिजात थे ।

जमींदारों को मात्र जमीन पर नियंत्रण के लिए लड़नेवाले और अपने वर्चस्व वाले क्षेत्रों में किसानों का शोषण करनेवाले व्यक्ति मानना सही नहीं होगा । अनेक जमींदारों के अपनी जमींदारी की भूस्वामी कृषक जातियों के साथ गहरे जातिगत और नातेदारी के संबंध होते थे । ये जमींदार सामाजिक मानदंड ही तय नहीं करते थे, बल्कि नए गाँव बसाने या कृषि का प्रसार और सुधार करने के लिए पूँजी और संगठन भी प्रदान करते थे ।

मधयवर्ती तबका:

मध्यकालीन भारत में कोई मध्य वर्ग था या नहीं इस पर काफी बहस हो चुकी है । बर्नियर कहता है कि भारत में कोई ‘मध्य स्थिति’ नहीं थी । एक व्यक्ति या तो बहर अमीर होता था या फटेहाल जीता था । लेकिन इस कथन से सहमत होना संभव नहीं है ।

अगर ‘मध्य वर्ग’ का अर्थ व्यापारी और दुकानदार लें तो भारत में धनी व्यापारियों और सौदागरों का एक बड़ा वर्ग मौजूद था और उनमें से कुछ तो उन दिनों संसार के सबसे धनी सौदागरों में गिने जाते थे । इन सौदागरों को परंपरासम्मत अधिकार भी प्राप्त थे जैसे जानमाल की सुरक्षा का अधिकार ।

पर उन्हें किसी नगर के प्रशासन का अधिकार नहीं था । यूरोप में सौदागरों ने विशेष परिस्थितियों में ऐसे अधिकार प्राप्त किए थे । साथ ही जब कभी विशाल क्षेत्रों वाले मजबूत राज्यों का उदय होता था जैसा कि फ्रांस और ब्रिटेन में हुआ, तो इन अधिकारों मे काट-छाँट भी हो जाती थी ।

अगर ‘मध्य वर्ग’ का अर्थ ऐसा समूह है जिसका जीवन-स्तर अमीरों और गरीबों के बीच का था तो मुगल भारत में ऐसे बड़े-बड़े समूह मौजूद थे । इनमें छोटे मनसबदार मामूली दुकानदार शामिल थे और उस्ताद कारीगरों का एक छोटा-सा मगर महत्वपूर्ण समूह भी शामिल था ।

इसमें पेशेवर वर्ग भी शामिल था-हकीम अग्रणी संगीतकार और कलाकार, इतिहासकार, विद्वान, काजी और धर्मशास्त्री तथा विशालकाय और उदीयमान मुगल प्रशासन तंत्र को चलाने वाले छोटे कारिंदे या कलमनवीसों की एक बड़ी तादाद । छोटे हाकिमों को आम तौर पर नकद वेतन दिया जाता था और वे भ्रष्ट उपायों से अपनी आय को थोडा-सा बढ़ा लेते थे बहुत-से व्यक्तियों को निर्वाह के लिए जमीन के छोटे-छोटे टुकड़े दे दिए जाते थे विशेषकर विद्वानों और धर्माचार्यों आदि को ।

ऐसे भूमिदान को मुगल शब्दावली में मदद-ए-मआश और राजस्थान में सासन कहते थे । मुगल बादशाह के अलावा स्थानीय शासक और जमींदार भी यहाँ तक किए अमीर भी ऐसे दान देते थे । हालांकि हर शासक द्वारा इन दानों का नवीनीकरण आवश्यक था पर व्यवहार में वे अकसर पुश्तैनी हो जाते थे ।

ये समूह अकसर ग्रामीण अभिजात वर्ग के अंग बन जाते थे तथा ग्राम और नगर के बीच की कड़ी भी । अकसर लेखक इतिहासकार और धर्मशास्त्री इसी वर्ग के होते थे । यह ‘मध्यवर्ती तबका’ कोई वर्ग नहीं था, क्योंकि विभिन्न समूहों के हित अलग- अलग होते थें । इनमें विभिन्न धार्मिक समूहों और जातियों के लोग शामिल होते थे ।

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